ईश्वर का मस्तिष्क, मानव का मस्तिष्क और कम्प्यूटर
स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा है-”हमारे सम्मुख दो शब्द है-क्षुद्र ब्रह्माण्ड और बृहत ब्रह्माण्ड, अन्त-और बहिः। हम अनुभूति के द्वारा ही इन दोनों से सत्य लाभ करते है, आभ्यन्तर अनुभूति और बाह्य अनुभूति। अभ्यान्तर अनुभूति के द्वारा संग्रहित सत्य समूह मनोविज्ञान, दर्शन और धर्म के नाम से परिचित है, और बाह्य अनुभूति से भौतिक विज्ञान की उत्पत्ति हुई है। अब बात यह है कि जो सम्पूर्ण सत्य है उसका इन दोनों जगत की अनुभूति के साथ समन्वय होगा। क्षुद्र ब्रह्माण्ड, बृहत् ब्रह्माण्ड के सत्य को साक्षी प्रदान करेगा, उसी प्रकार बृहत् ब्रह्माण्ड भी क्षुद्र ब्रह्माण्ड के सत्य को स्वीकार करेगा। चाहे जिस विद्या में हो प्रकृत सत्य मंें कभी परस्पर अवरोध रह नहीं सकता, आभ्यन्तर सत्य समूह के साथ बाह्य सत्य समूह का समन्वय है। (धर्म विज्ञान, रामकृष्ण मिशन, पृष्ठ-10-11)“
आभ्यन्तर अनुभूति से व्यक्त भारत के सर्वप्राचीन दर्शनों (बल्कि विश्व के) में से एक और वर्तमान तक अभेद्य सांख्य दर्शन में ब्रह्माण्ड विज्ञान की विस्तृत व्याख्या उपलब्ध है। स्वामी विवेकानन्द जी के व्याख्या के अनुसार-”प्रथमत-अव्यक्त प्रकृति (अर्थात् तीन आयाम-सत, रज, और तम), यह सर्वव्यापी बुद्धितत्व (1.महत्) में परिणत होती है, यह फिर सर्वव्यापी अंहतत्व (2.अहंकार) में और यह परिणाम प्राप्त करके फिर सर्वव्यापी इंद्रियग्राह्य भूत (3.तन्मात्रा-सूक्ष्मभूत-गंध, स्वाद, स्पर्श, दृष्टि, ध्वनि 4.इन्द्रिय ज्ञान-श्रोत, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण) में परिणत होता है। यही भूत समष्टि इन्द्रिय अथवा केन्द्र समूह (5.मन) और समष्टि सूक्ष्म परमाणु समूह (6.इन्द्रिय-कर्म-वाक, हस्त, पाद, उपस्थ, गुदा) में परिणत होता है। फिर इन सबके मिलने से इस स्थूल जगत प्रपंच (7.स्थूल भूत-आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) की उत्पत्ति होती है। सांख्य मत के अनुसार यही सृष्टि का क्रम है और बृहत् ब्रह्माण्ड में जो है-वह व्यष्टि अथवा क्षूद्र ब्रह्माण्ड में भी अवश्य रहेगा। (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-33)“ ”जब साम्यावस्था भंग होती है, तब ये विभिन्न शक्ति समूह विभिन्न रूपों में सम्मिलित होने लगते है और तभी यह ब्रह्माण्ड बहिर्गत होता है। और समय आता है जब वस्तुओं का उसी आदिम साम्यावस्था में फिर से लौटने का उपक्रम चलता है। (अर्थात् एक तन्त्र का अन्त) और ऐसा भी समय आता है कि सब जो कुछ भावापन्न है, उस सब का सम्पूर्ण अभाव हो जाता है। (अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अन्त)। फिर कुछ समय पश्चात् यह अवस्था नष्ट हो जाती है तथा शक्तियों के बाहर की ओर प्रसारित होने का उपक्रम आरम्भ होता है। तथा ब्रह्माण्ड धीरे-धीरे तंरगाकार में बहिर्गत होता है। जगत् की सब गति तरंग के आकार में ही होता है-एक बार उत्थान, फिर पतन। (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-13)“, ”प्रलय और सृष्टि अथवा क्रम संकोच और क्रम विकास (अर्थात् एक तन्त्र या सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अन्त और आरम्भ) अनन्त काल से चल रहे है।ं अतएव हम जब आदि अथवा आरम्भ की बात करते है तब हम एक कल्प (अर्थात् चक्र) आरम्भ की ओर ही लक्ष्य रखते है, (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-14)“, ”समग्र प्रकृति के पश्चात् निश्चित रूप से कोई ऐसी सत्ता है, जिसका आलोक उन पर पड़कर महत्, अहंज्ञान और सब नाना वस्तुओं के रूप में प्रतीत हो रहा है और इस सत्ता को कपिल (साख्ंय दर्शन के व्याख्याता) पुरूष अथवा आत्मा कहते है वेदान्ती भी उसे आत्मा कहते है कपिल के मत के अनुसार पुरूष अमिश्र पदार्थ है-वह यौगिक पदार्थ नहीं है वही एक मात्र अजड़ पदार्थ और सब प्रपंच विकार की जड़ है पुरूष ही एक मात्र ज्ञाता है (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-52)“, ”यदि हम एक मानव का विश्लेषण कर सके तो समग्र जगत् का विश्लेषण हमने कर लिया क्योंकि वे सब एक ही नियम से निर्मित हैं अतएव यदि यह सत्य हो कि इस व्यष्टि श्रेणी के पीछे ऐसे व्यक्ति विद्यमान हैं, जो समस्त प्रकृति से अतीत हैं, जो किसी प्रकार के उपादान से निर्मित नहीं है अर्थात् पुरूष, तो यह एक ही युक्ति समष्टि ब्रह्माण्ड पर भी घटित होगी तथा उसके पश्चात् भी एक चैतन्य स्वीकार करने का प्रयोजन होगा। जो सर्वव्यापी चैतन्य प्रकृति के समग्र विकारो के पश्चात् भाग में विद्यमान है उसे वेदान्त सब का नियन्ता-ईश्वर कहता है। (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-63)“ इस प्रकार आभ्यन्तर अनुभूति से हम पाते है कि एक ईश्वर (आत्मा) है, जिसकी उपस्थिति में तीन आयामी प्रकृति अपने सात आयामों में मूल रूप से व्यक्त है और इसी के उल्टे क्रम से अव्यक्त होती है।
बाह्य अनुभूति से व्यक्त भौतिक विज्ञान के नवीनतम आविष्कार के आविष्कारक महान वैज्ञानिक एवम् ब्रिटिश ब्रह्माण्ड वैज्ञानिक स्टीफेन विलियम हाकिंग (जिन्हें दूसरा आईन्सटाइन कहा जाता है) के अनुसार-”ब्लैक होल (सर्वोच्च गुरूत्वाकर्षण की ब्रह्माण्डीय अति सघन वस्तु) के पी-ब्रेन्स माॅडल में पी-ब्रेन स्थान के तीन आयामों और अन्य सात आयामों में चलती है जिनके बारे में हमें कुछ पता नहीं चलता। यदि हम सभी बलों के एकीकरण का एक सार्वभौम समीकरण विकसित करें तो हम ईश्वर के मश्तिष्क को जान जायेगें क्योंकि हम भविष्य के कार्य का निर्धारण कर सकेगें, और यह मनुष्य के मस्तिष्क के द्वारा सर्वोच्च अविष्कार होगी। (प्रो0 स्टीफेन हाकिंग के भारत यात्रा पर राष्ट्रीय सहारा समाचार पत्र के 27 जनवरी ”2001 को प्रकाशित ”हस्तक्षेप“ अंक से)“ । भौतिक विज्ञान के वर्तमान ब्रह्माण्ड व्याख्या के अनुसार ब्लैक होल एक तन्त्र या ब्रह्माण्ड के अन्त का प्रतीक है अर्थात्् वह एक तन्त्र या ब्रह्माण्ड के प्रारम्भ का भी प्रतीक होगा। इस प्रकार बाह्य अनुभूति से हम पाते है कि एक सिंगुलारिटी (एकलता) है तथा तीन और सात आयाम है।
उपरोक्त दोनो में एकीकरण करते हुये दर्शन शास्त्र के सार्वजनिक प्रमाणित विकास/विनाश दर्शन के अनुसार-सृष्टि में, सृष्टि का कारण मानक अर्थात् आत्मा अर्थात् ब्लैक होल से सत्व गुण युक्त मार्गदर्शक दर्शन ;ळनपकमत च्ीपसवेवचीलद्ध से प्रारम्भ होकर स्थिति में रज गुण युक्त क्रियान्वयन दर्शन ;व्चमतंजपदह च्ीपसवेवचीलद्ध से होते हुये प्रलय में तम गुण युक्त विकास/विनाश दर्शन ;क्मेजतवलमत ध् क्मअमसवचउमदज च्ीपसवेवचीलद्ध को व्यक्त करता है। जिससे आदान-प्रदान ;ज्तंदेंबजपवदद्धए ग्रामीण ;त्नतंसद्धए आधुनिकता/अनुकलनता ;।कअंदबमउमदज ध् ।कंचजंइपसपजलद्धए विकास ;क्मअमसवचउमदजद्धए शिक्षा ;म्कनबंजपवदद्धए प्राकृतिक सत्य ;छंजनतंस ज्तनजीद्ध व धर्म ;त्मसपहपवदद्ध या एकत्व या केन्द्र व्यक्त होता है।
एक सिंगुलारिटी (एकलता) आत्मा है तथा तीन आयाम सत्व, रज और तम है। सात आयाम आदान-प्रदान ;ज्तंदेंबजपवदद्धए ग्रामीण ;त्नतंसद्ध, आधुनिकता/अनुकलनता ;।कअंदबमउमदज ध् ।कंचजंइपसपजलद्ध, विकास ;क्मअमसवचउमदजद्ध, शिक्षा ;म्कनबंजपवदद्ध, प्राकृतिक सत्य ;छंजनतंस ज्तनजीद्ध व धर्म ;त्मसपहपवदद्ध है।
कोई भी विकास दर्शन अपने अन्दर पुराने सभी दर्शनों को समाहित कर लेता है अर्थात् उसका विनाश कर देता है और स्वयं मार्गदर्शक दर्शन का स्थान ले लेता है। अर्थात् सृष्टि-स्थिति-प्रलय फिर सृष्टि। चक्रीय रूप में ऐसा सोचने वाला ही नये परिभाषा में आस्तिक और सिर्फ सीधी रेखा में सृष्टि-स्थिति-प्रलय सोचने वाला नास्तिक कहलाता है।
दोनो अनुभूति (दर्शन और भौतिक विज्ञान) के द्वारा चक्रीय क्रिया बीज से वृक्ष के क्रम विकास तथा वृक्ष से बीज के क्रम संकुचन के रूप में हैं। दूसरें शब्दों में बीज से बीज या वृक्ष से वृक्ष चक्र है। यदि ब्लैक होल का माॅडल बाह्य अनुभूति का सत्य है तो निश्चित रूप से यह अभ्यान्तर अनुभूति का भी प्रमाण होना चाहिए, और यह इसलिए आश्चर्यजनक है क्योंकि यह वास्तव में एक समान है। अर्थात् आभ्यान्तर तथा बाह्य दोनों अनुभूतियों में सृष्टि और प्रलय का मूल तीन और सात आयामों के रूप में है। दोनों अनुभूतियों ब्रह्माण्ड की व्याख्या तथा उसके भविष्य को निश्चित करने मे भी सक्षम हंै अर्थात् दैनिक जीवन में उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। लेकिन यह स्पष्ट है कि ईश्वर (आत्मा या एकलता) की उपस्थिति को जानने के लिए एक ही आयाम काफी है परन्तु उसके क्रियाकलाप या ईश्वर के मस्तिष्क को जानने के लिए अधिकतम आयामों केा एक साथ जानना आवश्यक है न कि केवल एक आयाम को। इस प्रकार निश्चितता (फिक्सींग) का सार्वभौम सिद्धान्त यह है कि-”अधिकतम आयामों के ज्ञान से भविष्य का निर्धारण या अधिकतम आयामों के परिणाम के अनुसार कार्य करना“। अधिकतम आयामों को आविष्कृत करना वैज्ञानिक (भौतिक या दर्शन) का कार्य है तथा अधिकतम आयामों के परिणाम के अनुसार स्वयं के विकास के लिए कार्य करना मनुष्यों का कार्य है।
सांख्य दर्शन के अनूसार-”एक मनुष्य अथवा कोई भी प्राणी जिस नियम से गठित है, समग्र विश्व ब्रह्माण्ड भी ठीक उसी नियम से विरचित है इसलिए हमारा जेसे एक मन है, उसी प्रकार एक विश्वमन भी है। (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-25)“। दोनों सत्य समूह (आभ्यन्तर और बाह्य) यदि एक समान है तब यह निश्चित है कि दैनिक जीवन के लिए उपयोगी सम्पूर्ण सत्य, मानवीय सत्य के अनुभूति के साथ समन्वय में होगा क्यांेकि जिस प्रकार एक मन है उसी प्रकार एक विश्वमन है। यही सम्पूर्ण सत्य ब्रह्माण्ड तथा मनुष्य जीवन के प्रत्येक वस्तु की व्याख्या करने में सक्षम होगा क्योंकि बीज सभी शाखाओं, पत्तों, फूलों, फलों और अन्त में बीज को विकसित करने में सक्षम होता है। यदि सृष्टि और प्रलय के माॅडल (भौतिक विज्ञान और दर्शन) में तीन और सात आयाम हैं तब ये निश्चित है कि सम्पूर्ण सत्य के मूल माॅडल में भी तीन और सात आयाम होंगे। और यह आश्चर्यजनक इसलिए है कि यह ऐसा ही है। इस प्रकार यह निश्चित होता है। कि ईश्वर का मस्तिष्क तीन और सात आयामों में कार्य करता है। अर्थात् इन आयामों को एक साथ देखने पर ही ईश्वर के मस्तिष्क को वास्तविक दृष्टि अर्थात् दिव्य दृष्टि द्वारा देखा जा सकता है। और ये आयाम मनुष्य के विभिन्न रूपों सहित विश्वस्तरीय भविष्य, विश्वस्तरीय क्रियाकलाप, विश्वस्तरीय परिभाषा, विश्वस्तरीय निर्माण, विश्वस्तरीय प्रबन्ध, विश्वस्तरीय विकास, विश्वस्तरीय शिक्षा, विश्वस्तरीय मानव संसाधन इत्यादि को निश्चित (फिक्स) करने में सक्षम होगा। और यही अन्तिम सम्पूर्ण क्रान्ति तथा मानव मस्तिष्क के द्वारा मानव के लिए सर्वोच्च तथा अन्तिम आविष्कार होगा।
मानव के विकास क्रम की दिशा से देखने पर भी हम पाते है कि मनुष्य पहले कर्म करना प्रारम्भ किया और कर्म करते करते अन्त-जगत की ओर से एकत्व ज्ञान का आविष्कार किया। यही एकत्व ज्ञान सत्य का बीज अर्थात् आत्मा या पुरूष या सिंगुलरिटी (एकलता) है। फिर बाह्य जगत से कर्म करते करते सिद्धान्तो का आविष्कार करते हुुये वर्तमान में सार्वभौम सिद्धान्त अर्थात् सिद्धान्त के बीज की ओर बढ़ रहा है। और अन्तत-उसे सार्वभौम सिद्धान्त विवशतावश चाहिए ही क्योंकि यही मनुष्य की पूर्णता अर्थात् वैश्विक मानव निर्माण का समीकरण होगा।
अभ्यान्तर अनुभूति बाह्य अनुभूति तथा मानव के विकास क्रम की दिशा के अलावा भारतीय समाज में एक ऐसा क्षेत्र और है जिसपर सर्वाधिक चिंतन व्यक्त किया जाता है। वह है-निर्गुण या निराकार तथा सगुण या साकार ब्रह्म। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकाननद जी कहते हैं-”हमारे शास्त्रों मे परमात्मा के दो रूप कहे गये है।-सगुण और निगुण। सगुण ईश्वर के अर्थ में सर्वव्यापी-संसार की सृष्टि स्थिति और प्रलय के कत्र्ता हैं संसार के अनादि जनक तथा जननी हैं। उनके साथ हमारा नित्यभेद है। मुक्ति का अर्थ-उनके समीप और सालोक्य की प्राप्ति है। सगुण ब्रह्म के ये सब विशेषण निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में अनावश्यक और अयौक्तिक है इसलिए त्याज्य कर दिये गये। वह निर्गुण और सर्वव्यापी पुरूष ज्ञानवान् नहीं कहा जा सकता क्योंकि ज्ञान मन का धर्म है। इस निगुर्ण पुरूष के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है? सम्बन्ध यह है कि हम उससे अभिन्न है-वह और हम एक है। हर एक मनुष्य उसी निर्गुण पुरूष का-जो सब प्राणियों का मूल कारण है, अलग अलग प्रकाश है। जब हम इस अनन्त और निर्गुण पुरूष से अपने को पृथक सोचते है तभी हमारे दुःख की उत्पत्ति होती है और इस अनिर्वचनीय निर्गुण सत्ता के साथ अभेद ज्ञान ही मुक्ति है। सक्षेपत-हम अपने शास्त्रों में ईश्वर के इन्हीं दोनों ”भावो“ का उल्लेख देखते है। यहाँ यह कहना आवष्यक है कि निर्गुण बह्मवाद ही सब प्रकार के नीति-विज्ञानों की नींव है। (हिन्दु धर्म, पृष्ठ-40-41)“ और ”जैसा कि यह स्थूल शरीर स्थूल शक्तियों का आधार है, वैसे ही सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म शक्तियो का आधार है जिन्हें हम-विचार कहते है। यह विचार शक्ति विभिन्न रूपों में प्रकाशित हेाती रहती है इनमें कोई भेद नहीं है, केवल इतना ही है कि एक उसी वस्तु का स्थूल और दूसरा सूक्ष्म रूप है। इस सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर में भी कोई पार्थक्य नहीं है। सूक्ष्म शरीर भी भौतिक है, केवल इतना ही कि वह अत्यन्त सूक्ष्म जड़ वस्तु है। (हिन्दु धर्म, पृष्ठ-107)“
स्वामी विवेकानन्द जी के उपरोक्त व्याख्या से यह स्पष्ट है कि प्रत्येक मनुष्य शरीर का एक निराकार या निर्गुण रूप है जिन्हें विचार कहते है। मनुष्य का यही निराकार या निर्गुण रूप जब सत्य-सिद्धान्त होता है तब वह अवतार तथा अवतरण कहलाता है। और उसे ईश्वर के साकार या सगुण रूप में जाना जाता है। अर्थात् मनुष्य, मनुष्य जनित विचारों का साकार रूप है तो अवतार, सर्वव्यापी अजन्मा नित्य-सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का साकार रूप हैं। मनुष्य और अवतार के शरीर तो मानव के ही होते है परन्तु मानव, विचार के अनुसार तथा अवतार, सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अनुसार कार्य करते है केवल यही अन्तर है। चूँकि जगत की सब गति तरंगाकार अर्थात् उत्थान और पतन के रूप में होती है इसलिए जब जगत पतन अर्थात् विचारों की अधिकता के अधीन हो जाता है तब उसे उत्थान अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त की अधिकता के अधीन करते के लिए ही युगावतार का अवतरण होता हैं। व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्णावतार श्री कृष्ण और उनका निराकार निर्गुण रूप-गीतोपनिषद् इसका उदाहरण है। जो सत्य का पूर्ण व्यक्त व्यक्तिगत प्रमाणित रूप है। जबकि सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार और उसका निराकार रूप सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का पूर्ण व्यक्त सार्वजनिक प्रताणित रूप का व्यक्त होना अगला चरण है।
इस प्रकार प्रत्येक दिशाओं-आभ्यन्तर (दर्शन), बाह्य (भौतिक विज्ञान), मानव विकास क्रम, सगुण ब्रह्म (अवतार) तथा निर्गुण बह्म (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) की ओर से हम यही पाते है कि ईश्वर का मस्तिष्क सार्वभौम सिद्धान्त से युक्त तीन और सात आयामों में ही क्रियाशील है। जो अगला और अन्तिम चरण है। स्वामी विवेकानन्द जी इसी सम्पूर्ण वास्तविक सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त की ओर केन्द्रीत करते हुये कहे है-”अन्त में देश-काल बद्ध ज्ञान का महामिलन उस ज्ञान से होगा जो इन दोनों से परे है, जो मन तथा इन्द्रियों के पहुॅच से परे है, जो निरपेक्ष है, अद्वितीय है। (विज्ञान और आध्यमिकता, रामकृष्ण मिशन, पृष्ठ-36)“ इस प्रकार हम यह भी पाते है कि किसी एक महापुरूष या अंशअवतार के विचार या सत्य से समाज या देश या विश्व का कल्याण असम्भव है इसके लिए सभी के समन्वयक सिद्धान्त और पूर्वावतार की आवश्यकता होगी, जिसमें सभी हो और सब मंे सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का अंश हो।
अब कल्पना करें ऐसे साकार मानव शरीर की जो सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त सहित सभी आयामों का अविष्कारकत्र्ता और उससे युक्त हो, तो उसकी शक्ति क्या होगी? उसकी शक्ति प्रत्येक विषय पर विश्वस्तरीय व्याख्या, विश्वस्तरीय साहित्य, विश्वस्तरीय योजना और उसकी स्थापना के लिए विश्वस्तरीय नीति सहित सभी आयामों एवम् उसकी अनन्त शाखाओं द्वारा एक साथ समानान्तर कार्य होगी। उसके व्यक्त करने की शैली मूल जड़ (बीज) से शाखाओं की ओर होगी तथा उसका सन्देश होगा-”तुम अपने रूप को उसमें देखों, तुम उस जड़ (बीज) अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को समझो फिर तुम्हें कुछ भी समझने की जरूरत न रहेगी, फिर तुम स्वयं समस्त शाखाओं के व्याख्याता, साहित्यकार, योजनाकार इत्यादि बन जाओगें।“ वह अपने आपको किसी विशेष क्षेत्र में बद्ध नहीं करेगा क्यांेकि उसके पास असीम कार्यक्षेत्र और व्यक्त होने के लिए असीम विश्वस्तरीय विषय क्षेत्र होंगे जिस पर वह सामानान्तर कार्य करेगा। उस असीम मनुष्य का विजय तो उसी दिन हो गया होगा जिस दिन वह साहित्यों व योजनाओं में व्यक्त हो गया होगा, जो मानव समाज के विभिन्न क्षेत्रों से मनुष्यों को प्राथमिकता से लाभ उठाने के लिए स्वतन्त्र होगा, जो कल्याण के सत्य अर्थ का मार्ग होगा। फलस्वरूप इन्हें आत्मसात् करने के उपरान्त ही मनुष्य अपने सत्य स्वरूप में स्थापित हो कह सकेगा-”सर्वव्यापी हम इतने असीम है कि यह समग्र ब्रह्माण्ड भी मेरा अंश मात्र है।“ तब प्रत्येक मनुष्य ब्रह्माण्ड के प्रत्येक वस्तु को अपने शरीर का अंग समझ उसके प्रभावों से स्वत-स्फूर्त चेतना से युक्त रहेगा। और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक सभी जागरण, सभी वादे, सभी आन्दोल, स्व प्रेरणा से युक्त न हो सकेगें और न ही कल्याण या व्यवस्था परिवर्तन या क्रान्ति या आर्थिक स्वतन्त्रता का दावा स्थापित हो सत्यार्थ हो सकेगा। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा है-”सुधारको से मैं कहूॅगा कि मैं स्वयं उनसे कहीं बढ़कर सुधारक हूँ। वे लोग ईधर-उधर थोड़ा सुधार करना चाहते है-और मैं चाहता हूॅ आमूल सुधार। हम लोगों का मतभेद है केवल सुधार प्रणाली में उनकी प्रणाली विनाशात्मक है और मेरी संघटनात्मक। मैं सुधार में विश्वास नहीं करता मैं विश्वास करता हॅॅँ स्वाभाविक उन्नति में। (मेरी समर नीति, पृष्ठ-13)।
सामान्य मानव अपने विषय क्षेत्र से मूल जड़ (बीज) की ओर देखते है अर्थात् वे एक आयाम (दिशा) की दृष्टि रखते है इसलिए उस असीम मानव को अपनी दिशा से सीमित कर देखेगें और अपनी दिशा से साहित्यकार, दार्शनिक, राजनीतिज्ञ, धार्मिक इत्यादि विशेषण निर्धारित कर देगें जो सत्य तो होगा परन्तु उस असीम मानव के लिए अंश मात्र होगा। ऐसे में वे अपने विषय क्षेत्र से अपूर्ण दृष्टि रखते हुये उस असीम मानव को अपने पद के लिए खतरे का अनुभव करेगें फलस्वरूप उसी दृष्टि के कारण संघर्ष करेगें जिसे वे अपने लिए खतरा या अनुपयोगी समझेगें। जबकि शारीरिक स्वतन्त्रता के लिए आर्थिक, आर्थिक स्वतन्त्रता के लिए आध्यात्मिक स्वतन्त्रता का विकासोन्मुख औषधि युक्त चक्र व्यक्ति तथा देश के लिए हमेशा प्रभावी होता है।
समाज को यह सोचना होगा कि उस असीम मनुष्य को वह क्या नाम देगा? जो सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त सहित सभी आयामों से युक्त व्याख्याता और उसका स्थापक होगा ज्ञानीयो व बुद्धिजीवियों को ”कालजयी साहित्य“ व ”जीवन साहित्य“ में अन्तर, ”प्रासंगिक विचार“ व ”सत्य विचार“ में अन्तर, ”मानक जीवन“ व ”दर्पण जीवन“ में अन्तर इत्यादि पर सोचना होगा। और वे समाचार पत्रों के संपादकगण जो यह समझते है कि उन्हें जो समझ में आये सिर्फ वही समाचार है। क्या नाम देगें? उन्हे यह स्वीकार करना चाहिए कि वे ज्ञानी है परन्तु ध्यानी अर्थात् सर्वज्ञ नही। उन्हें यह समझना चाहिए कि आत्मज्ञ पुरूषों की दृष्टि सार्वदेशीय तथा अनात्मज्ञ पुरूषों की दृष्टि एकदेशीय होती है। दैनिक जीवन में ईश्वर के मस्तिष्क की सार्वजनिक प्रमाणित खोज का सबसे बड़ा लाभ यही होगा कि मनुष्य में सत्य दृष्टि का प्रकाश होगा अर्थात् ”उपयोगिता को देखना मूल दृष्टि, एक आयाम से देखना सांसारिक दृष्टि, अनेक आयामों को एक साथ देखना दिव्य दृष्टि तथा सिर्फ विद्वता को देखना दृष्टि दोष है“ में स्थापित मनुष्य होंगे तब मनुष्य अपने कल्याण के मार्ग को पहचानने में चेतना से युक्त हो सकेगा। क्योकि अधिकतम व्यक्ति इस सार्वभौम सिद्धान्त से अनभिज्ञ है कि-”विभिन्न प्रकार के केन्द्रीयकृत कार्य के संयोग से एक परिणाम उत्पन्न होता है न कि एक कार्य से।“
मेरा सम्पूर्ण कार्य उसी असीम मानव का कार्य है तथा व्यक्त साहित्य और योजना सत्य-सिद्धान्त सहित सभी आयामों पर निश्चित है। जो मनुष्य को विश्वस्तरीय रूप में व्यक्त करने के लिए निश्चित हैं। प्रो0 हाकिंग के अनुसार-सूचना कभी भी मुफ्त में नहीं ढोई जाती, इसका एहसास हर किसी को उस वक्त होता है जब उसके घर टेलीफोन बिल आता है।“ अर्थात् किसी कार्य के प्रारम्भ में जुड़ने वाले व्यक्ति सूचना व योजना का लाभ जितना सम्मानित व सरलता से पाते हैं, ठीक उतना ही कठिनता से कार्य पूर्ण होने के बाद प्राप्त होता है क्योंकि प्रारम्भ में निःस्वार्थ बाद मे स्वार्थ का स्पष्ट रूप होता है। ”फिक्सींग“ अर्थात् ”निश्चितता“ का आध्यात्मिक अर्थ सत्य चेतना अर्थात् ”भूतकाल का अनुभव और भविष्य की आवश्यकता के अनुसार वर्तमान में कार्य करना है“ और मेरा कार्य सार्वभौम सिद्धान्त पर आधारित ”फिक्स“ है। इसलिए मेरी चुनौतिपूर्ण घोषणा है-बढा़े समाज के कल्याण करने वालो बढ़ोगे तो हमें ही पाओंगे, न बढोगे तो जनता से तुम्हारा विश्वास उठेगा और मेरा बढे़गा। मैं चक्रान्त हूँ किसी भी और से आओंगे मैं ही मिलूगाँ।“
No comments:
Post a Comment