Tuesday, March 31, 2020

सत्यीकरण का शास्त्र

सत्यीकरण का शास्त्र


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ईश्वर, अवतार और मानव की शक्ति सीमा

ईश्वर, अवतार और मानव की शक्ति सीमा

इस ब्रह्माण्ड में सभी वस्तु की एक शक्ति सीमा है। उसके ज्ञान से युक्त होने पर मनुष्य अपने कर्म-इच्छा-उम्मीद को एक सही वस्तु के साथ योग करा सकता है। अन्यथा एक समय बाद उसे ना-उम्मीद होना पड़ता है और उसके विश्वास को आघात पहुँचता है। उदाहरणस्वरूप यदि आप बिजली विभाग का काम टेलिफोन विभाग से या टेलिफोन विभाग का काम जल विभाग से उम्मीद कर बैठेंगे तो वह कभी भी पूरा नहीं होने वाला। इसमें गलती आपके ज्ञान की ही होगी और अपने विश्वास को खोने वाले आप स्वयं ही होंगे। इसी प्रकार साइकिल, मोटरसाइकिल, कार, बस, रेलगाड़ी, हवाई जहाज की अपनी-अपनी गति सीमा है। यदि गति सीमा की जानकारी न हो और उसकी क्षमता से अधिक उससे उम्मीद कर बैठेंगे तो इसमें गलती आपके ज्ञान की ही होगी और अपने विश्वास को खोने वाले आप स्वयं ही होंगे। मनुष्य कर्म किये बिना बहुत सी उम्मीद ”दूसरों से” और ”दूसरों में“ देखने लगता है। मनुष्य का उपयोग करने वाले भी दूसरों को उम्मीद दिखाकर उनका विभिन्न प्रकार से उपयोग-दुरूपयोग सनातन से करता आ रहा है। इस क्रम में ईश्वर, अवतार और मानव की शक्ति सीमा क्या है, यह जानना आवश्यक है।

ईश्वर की शक्ति सीमा 
ईश्वर अर्थात सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त, ब्रह्माण्ड में कहीं भी अर्थात उसके किसी भाग के भाग में अपने सतुलन-स्थिरता-एकता-शान्ति के लिए क्रम संकुचन (विनाश) और क्रम विकास (विकास) करता रहता है। यह कार्य रज या तम गुण के प्राथमिकता होने पर सत्व गुण के हस्तक्षेप द्वारा सम्पन्न होता है। पृथ्वी ग्रह पर यह अति-वृष्टि (अधिक वर्षा), अधिक सूखा, अधिक वर्फबारी, भूकम्प, महामारी इत्यादि द्वारा व्यक्त होता है। ईश्वर अपने उपस्थिति और इन क्रियाकलापों का सन्देश पृथ्वी के जीवों के माध्यम से व्यक्त करता है जो विकसित मस्तिष्क क्षमता के द्वारा ही समझा जा सकता है। ईश्वर के सब कार्य इतने विशाल हैं इसलिए ही उन्हें सर्वशक्तिमान कहा जाता है। ईश्वर के सभी क्रियाकलाप बिना किसी भेद-भाव के सम्पन्न होता है अर्थात एक समान रूप से सभी के लिए सम्पन्न होता है। ईश्वर अपने सम्बन्धितों की सहायता, उनके साथ के मानवों के माध्यम से मार्गदर्शन द्वारा करता है, सम्बन्धित उसका लाभ कैसे लें, ये उनके बुद्धि पर निर्भर करता है। 

अवतार की शक्ति सीमा
अवतार, सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को युगानुसार स्थापित करने के लिए व्यक्त होते हैं। इस स्थापना का क्रम सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अंश-अंश संक्रमणीय-गुणात्मक-संग्रहणीय-रचनात्मक रूप के बढ़ते क्रम से होता है। और अन्त में पूर्ण रूप व्यक्त होता है। युगानुसार स्थापना के लिए विधि पूर्ण प्रत्यक्ष से पूर्ण प्रेरक तक का मार्ग होता है। प्रत्यक्ष अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का प्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब अधर्म का नेतृत्व एक या कुछ मानवों पर केन्द्रित होता है। प्रेरक अवतार वे होते हैं जो स्वयं अपनी शक्ति का अप्रत्यक्ष प्रयोग कर समाज का सत्यीकरण जनता एवं नेतृत्वकर्ता के माध्यम से करते हैं। यह कार्य विधि समाज में उस समय प्रयोग होता है जब समाज में अधर्म का नेतृत्व अनेक मानवों और नेतृत्वकर्ताओं पर केन्द्रित होता है। कारण क्रम-शारीरिक, आर्थिक व मानसिक होता है। इन विधियों में से कुल मुख्य दस मुख्य अवतारों में से प्रथम सात (मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परषुराम, श्रीराम) अवतारों ने समाज का सत्यीकरण प्रत्यक्ष विधि के प्रयोग द्वारा किया था। आठवें अवतार (श्रीकृष्ण) ने दोनों विधियों प्रत्यक्ष और प्रेरक का प्रयोग किया था। नवें (भगवान बुद्ध) और अन्तिम दसवें अवतार की कार्य विधि प्रेरक ही है। अवतार चूँकि सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को युगानुसार स्थापित करने के लिए प्रकट होते हैं इसलिए वे ईश्वर की शक्ति के सुर अर्थात तालमेंल में या समर्थित होते हैं। वे ईश्वर के किसी शक्ति सीमा को न तो रोक सकते हैं ना ही बदल सकते हैं और ना ही प्रयोग कर उत्पन्न कर सकते हैं लेकिन वे इतने समयानुसार वर्तमान होते हैं कि ईश्वर की शक्ति उनका सदैव समर्थन करती रहती है। अवतार अपने उपस्थिति और इन क्रियाकलापों का सन्देश मानवों को और भी अच्छा करने के विचार प्रसार से व्यक्त करते रहते हैं जो विकसित मस्तिष्क क्षमता के द्वारा ही समझा जा सकता है। अवतार के सब कार्य उस समय के समाज के लिए सर्वव्यापक होते हैं इसलिए ही उन्हें अवतार कहा जाता है। अवतार के सभी क्रियाकलाप बिना किसी भेद-भाव के सम्पन्न होता है अर्थात एक समान रूप से सभी के लिए सम्पन्न होता है।

मानव की शक्ति सीमा
मनुष्य अपनी शारीरिक-आर्थिक-मानसिक शक्ति से निर्माण और विनाश दोनों कर सकता है। वह ईश्वर और अवतार के द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले कार्य को जान सकता है, उससे बचने का मार्ग निकाल सकता है परन्तु उसे सम्पन्न होने से रोक नहीं सकता। मनुष्य, ईश्वर और अवतार के कार्यों की इच्छा प्रकट कर सकता है, उसकी उम्मीद अन्य मनुष्य को दिखा सकता है परन्तु उसे सम्पन्न नहीं कर सकता क्योंकि वह मनुष्य के शक्ति सीमा के अन्तर्गत नहीं आता। मनुष्य अपने उपस्थिति और इन क्रियाकलापों का सन्देश मानवों को बीच विचार प्रसार से व्यक्त करते रहते हैं जो सामान्य मस्तिष्क क्षमता के द्वारा असानी से समझा जा सकता है। मनुष्य के सब कार्य उस समय के समाज के अंश-अंश के लिए उपयोगी होते हैं इसलिए ही उन्हें मनुष्य कहा जाता है। मनुष्य के सभी क्रियाकलाप भेद-भाव से सम्पन्न होता है अर्थात एक समान रूप से सभी के लिए नहीं होता है।

व्याख्या
ईश्वर और अवतार के कार्य समष्टि (संयुक्त) कार्य कहे जाते हैं जबकि मनुष्य के कार्य व्यष्टि (व्यक्तिगत या अंश) कार्य कहे जाते हैं। इस समष्टि कार्य द्वारा ही काल व युग परिवर्तन होता है न कि सिर्फ चिल्लाने से कि ”सतयुग आयेगा“, ”सतयुग आयेगा“ से। यह समष्टि कार्य जिस शरीर से सम्पन्न होता है वही युगावतार के रूप में व्यक्त होता है। धर्म में स्थित वह अवतार चाहे जिस सम्प्रदाय (वर्तमान अर्थ में धर्म) का होगा उसका मूल लक्ष्य समष्टि कार्य होगा और स्थापना का माध्यम उसके सम्प्रदाय की परम्परा व संस्कृति होगी।
आध्यात्मिक सत्य, सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का ही दूसरा समानार्थी शब्द है इसलिए उस अनुसार राष्ट्र की व्यवस्था का सत्यीकरण अवतार के कार्य क्षेत्र व शक्ति सीमा के अन्तर्गत आता है। कोई मनुष्य इसकी इच्छा तो कर सकता है परन्तु उसको पूर्ण नहीं कर सकता। ये अवश्य है कि इच्छा करने वाला विकसित मस्तिस्क का ही होगा क्योंकि बिना विकसित मस्तिष्क के ये शब्द व्यक्त हो ही नहीं सकता। विकसित मस्तिष्क, समष्टि मस्तिष्क होता है। इच्छा व्यक्त होने पर अवतार उसे अवश्य पूर्ण करते हैं क्योंकि यही उनके प्रकट होने का योग्य वातावरण होता है।


इच्छा और आॅकड़ा

इच्छा और आॅकड़ा
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार-ज्ञान की निन्म भूमि हम पशुओं में देखते हैं और उसे-सहजात ज्ञान कहते हैं। सहजात ज्ञान में प्रायः कभी भूल नहीं होती। एक पशु इस सहजात ज्ञान के प्रभाव से कौन सी घास खाने योग्य है, कौन सी घास विषाक्त है, यह सुविधापूर्वक समझ लेता है। उनके पश्चात् हमारा (मानव का) साधारण ज्ञान आता है-यह सहजात ज्ञान की अपेक्षा उच्चतर अवस्था है। हमारा साधारण ज्ञान भ्रान्तिमय है, यह पग-पग पर भ्रम में जा पड़ता है। इसे ही आप युक्ति अथवा विचारशक्ति कहते हैं। अवश्य सहजात ज्ञान की अपेक्षा उसका प्रसार अधिक दूर तक है, किन्तु सहजात ज्ञान की अपेक्षा युक्ति विचार में अधिक भ्रम की आशंका है। मन की और एक उच्चतर अवस्था विद्यमान है,-ज्ञानातीत अवस्था-इस अवस्था में केवल योगीगण का ही अर्थात् जिन्होंने यत्न करके इस अवस्था को प्राप्त किया है, उनका ही अधिकार है। वह सहजात ज्ञान के समक्ष भ्रान्ति से विहिन है और युक्तिविचार से भी उसका अधिक प्रसार है। वह सर्वोच्च अवस्था है। जिस प्रकार मनुष्य के भीतर महत् ही ज्ञान की निम्नभूमि, साधारण ज्ञानभूमि और ज्ञानातीत भूमि है, उसी प्रकार इस वृहत् ब्रह्माण्ड में भी यही सर्वव्यापी बुद्धितत्व अथवा महत्-सहजात ज्ञान, युक्ति विचार से उत्पन्न ज्ञान और विचार से अतीत ज्ञान, इन तीन प्रकारों से स्थित है। ज्ञान का अर्थ है-सदृश वस्तु के साथ उसका मिलन। कोई नया संस्कार आने पर यदि आप लोगों के मन में उसके सदृश सब संस्कार पहले से ही वर्तमान रहे, तभी आप तृप्त होते हैं, और इस मिलन अथवा सहयोग को ही ज्ञान कहते हैं। अतएव ज्ञान का अर्थ, पहले से ही हमारी जो अनुभूति-समष्टि विद्यमान है, उसके साथ और एक सजातीय अनुभूति को एक ही कोष में प्रतिष्ठित कर देना है। तथा पहले से ही आपका एक ज्ञान भण्डार न रहने पर कोई नया ज्ञान ही आपका नहीं हो सकता, यही उसका सर्वोत्तम प्रबल प्रमाण है।
उपरोक्त वाणी का अर्थ है-मनुष्य के लिए ज्ञान वह है जो हमारे मस्तिष्क के यादों में पहले से विद्यमान रहता है और कुछ नया विषय मिलने पर जब उससे, उसका मिलान होता है तब ज्ञान प्रमाणित होती है या ज्ञान का विकास होता है। 
प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने मस्तिष्क के लिए यह विश्लेषण का विषय है कि वह वह इच्छा से संचालित है या आॅकड़ा से? किसी भी व्यक्ति को यदि चाय पीने की इच्छा कर रही हो तो वह किस ओर निकलेगा? 
अगर इच्छा कर दिया और वह किसी भी दिशा में निकल लिया तो उसे जीव कहते हैं, इस स्थिति में चाय मिल भी सकती है और नहीं भी। अगर मिल गई तो भाग्य या किस्मत जैसी वाली बात पर विश्वास की ओर वह चला जायेगा। और ना भी मिला तो भी भाग्य या किस्मत जैसी वाली बात पर विश्वास की ओर वह चला जायेगा। इस प्रकार के संचालन को जीव संचालन विधि कहते हैं। जीव, पूर्णतः प्राकृतिक रूप से रहते हैं और संचालित रहते हैं। किसी भी ओर निकल लिए, मिल गया खा लिए, मिल गया पी लिये, कहीं भी उसका निस्तारण भी कर दिये। उनका सम्पूर्ण संचालन वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार है। इतना होने के बावजूद भी जीव भी अपने मस्तिष्क में आॅकड़ों का संचय करते हैं और उसके अनुसार उनका संचालन होता हैं।
अगर इच्छा कर दिया और वह उस दिशा में निकल लिया जिस ओर चाय मिलने का आॅकड़ा (डेटा या डाटा) उसके मस्तिष्क में पहले से विद्यमान है उसे मनुष्य कहते हैं, इस स्थिति में चाय मिलेगी ही मिलेगी अगर नहीं मिलती तो उस चाय के स्थान पर चाय बनाने के सामानो में कुछ कमी हो सकती है लेकिन वह वहीं पहुँचेगा जहाँ पहले चाय मिलती रही है और उसका पहले आना हुआ था या किसी ने यह आॅकड़ा पहले से उसे दे रखा था। इस प्रकार के संचालन को मानव संचालन विधि कहते हैं।
मनुष्य को इस विषय पर सूक्ष्म दृष्टि से चिंतन करना चाहिए। मनुष्य हमेंशा अपने प्रत्येक गतिविधि में इच्छा से नहीं बल्कि आॅकड़ों से संचालित होता है जो उसके ज्ञान में पहले से विद्यमान है या उन आॅकड़ों के संग्रह के लिए संचालित रहता है जो उसे चाहिए जिसे खोज या तलाश कहते हैं। 
मनुष्य के मस्तिष्क में जितने अधिक आॅकड़ें रहेंगे, उसका संचालन उन आॅकड़ों के अनुसार उतने ही व्यापक क्षेत्र में होगा। इसलिए ही ज्ञान ही सर्वस्व है। ज्ञान का संकलन अपने मस्तिष्क में सदैव करते रहना चाहिए। कुछ इस जीवन में कभी भी काम आ सकता है। कुछ अगले जन्म में, जब हम नया शरीर पाते हैं। 
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार-”फलानुमेंयाः प्रारम्भाः संस्कराः प्राक्तना इव“ फल को देखकर ही कार्य का विचार सम्भव है। जैसे कि फल को देखकर पूर्व संस्कार का अनुमान किया जाता है। एक विशेष प्रवृत्ति वाला जीवात्मा ”योग्य योग्येन युज्यते“ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह पूर्णतया विज्ञान संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है और चूंकि वर्तमान जीवन में इस स्वमाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है। यदि प्रवृत्ति बारम्बार किये हुये कर्म का परिणाम है, तो जिन प्रवृत्तियों को साथ लेकर हम जन्म धारण करते है, उनको समझने के लिए उस कारण का भी उपयोग करना चाहिए। यह तो स्पष्ट है कि वे प्रवृत्तियाँ हमें इस जन्म में प्राप्त हुई नहीं हो सकती; अतः हमें उनका मूल पिछले जन्म में ढूंढना चाहिए। अब यह भी स्पष्ट है कि हमारी प्रवृत्तियों में से कुछ तो मनुष्य के ही जान-बूझकर किये हुये प्रयत्नों के परिणाम है, और यदि यह सच है कि हम उन प्रवृत्तियों को अपने साथ लेकर जन्म लेते हैं, तब तो बिल्कुल यही सिद्ध होता है कि उनके कारण गतजन्म में जान-बूझकर किये हुये प्रयत्न ही है-अर्थात् इस वर्तमान जन्म के पूर्व हम उसी मानसिक भूमिका में रहे होंगे, जिसे हम मानव भूमिका कहते हैं।
हम सभी अपने पूर्व जन्म के अधूरी इच्छा को पूर्ण करने के लिए योग्य माता-पिता सहित वातावरण के अनुसार शरीर धारण किये हैं इसलिए अपने उपलब्ध संसाधन का अध्ययन करें और अपने पूर्व जन्म के अधूरी इच्छा को पूर्ण करने के लिए उन आॅकड़ों को जानने व उसके अनुसार संचालित होने की कोशिश करें जो हमारे मस्तिष्क में संचित है।
सर्वोच्च आॅकड़ा तो ये है कि हम सभी ईश्वर बनने के मार्ग पर हैं और उस ओर की ही हमारी यात्रा है। चाहे कई जन्म क्यों न लेना पड़े। हमारा शरीर धारण के कत्र्तव्य से अलग मस्तिष्क में अधिक से अधिक आॅकड़ों का संग्रह भी है जो ज्ञान का जन्मदाता है।
इस प्रकार हमारा संचालक इच्छा नहीं बल्कि आॅकड़े हैं और मन से किसी वस्तु को देखना सत्य नहीं है बल्कि आॅकड़ों की दृष्टि से देखना सत्य है। आॅकड़ो का प्रमाण के फलस्वरूप व्यक्त हुये है श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“।



जीवन जीने की विधि

जीवन जीने की विधि 

इस संसार में जीवन जीने की दो विधि है-पहला आविष्कारक/निर्माता/संस्थापक की भाँति दूसरा उपयोगकर्ता/ अनुसरणकर्ता/ निवासी की भाँति। इन दोनों की जीवन शैली को समझना आवश्यक है।

आविष्कारक/निर्माता/संस्थापक  
आविष्कारकों/निर्माताओं/संस्थापकों का जीवन एक विचित्रता भरे, त्याग और अतिसंकल्प युक्त जीवन का परिणाम होता है जिसमें एक साधारण मनुष्य टूटने के सिवा और कुछ परिणाम नहीं दे सकता है। इनके जीवन को इस एक लघु कथा से समझा जा सकता है-”मैं भी संसार को सुबास दूँगा, यह संकल्प कर एक नन्हा सा पुष्पबीज धरती को गोद में अपने शिव संकल्प के साथ करवट बदल रहा था। धरती उसके बौनेपन पर हँस पड़ी और बोली-”बावले, तू मेरा भार सहन कर जाये, यही बहुत है। कल्पना लोक की मृग मरीचिका में तू कबसे फँस गया?“ पुष्पबीज मुस्कराया, पर कुछ नहीं बोला। मृत्तिका कणों व जल की कुछ बूँदों के सहयोग से वह ऊपर उठने लगा। जमीन पर उगी हुई टहनी को देखकर वायु ने अट्टास किया-”अरे अबोध पौघे, तूने मेरा विकराल रूप नहीं देखा। मेरे प्रचण्ड वेग के आगे तो बड़े-बड़े वृक्ष उखड़ जाते हैं, फिर तेरी औकात ही क्या हैं?“ फूल का वह पौधा अभी भी विनम्र बना रहा। वायु के वेग में वह कभी दायें झुका तो कभी बाँए। लहराना उसके जीवन की मस्ती बन गई। इस तरह वह धीरे-धीरे विकसित होता रहा। उपवन में उगे झाड़-झंखाड़ से भी उस नन्हें पौघे का बढ़ना नहीं देखा गया। ऐसी झाड़ियों से सारा उद्यान भरा पड़ा था। उन्होंने चारो ओर से पुष्प-वृक्ष पर आघात करना आरम्भ कर दिया। किसी ने उसकी जड़ों को आगे बढ़ने से रोका, किसी ने तने को, तो किसी ने उसके पत्तों को उजाड़ने की साजिश की, पर उस पौधे ने हिम्मत नहीं हारी और वह तमाम दिक्कतें झेलने के बाद भी बढ़ता रहा। माली उसकी धुन पर मुग्ध हो उठा और उसने विध्न डालने वाली तमाम झाड़ियों को काट गिराया। अब वह पौधा तेजी से बढ़ने लगा। उसे ऊपर उठता देख सूर्य कुपित हो उठे और बोले-”मेरे प्रचण्ड ताप के कारण भारी वृक्ष तक सूख जाते हैं। आखिर तू कब तक मेरे ताप को झेल पायेगा? कर्मठ-कर्मयोगी पौधा कुछ नहीं बोला और निरन्तर बढ़ता रहा। उसमें प्रथम कलिका विकसित हुई और फिर संसार ने देखा कि जो बीज की तरह अपने आप को गलाना जानता है, जो बाधाओं से टक्कर लेना जानता है, प्रतिघातों से भी जो उत्तेजित और विचलित नहीं होता, तितिक्षा से जो कतराता नहीं, उसी का जीवन सौरभ बनकर प्रस्फुटित होता है, देवत्व की अभ्यर्थना करता है और संसार को ऐसी सुगन्ध से भर देता है, जिससे जन-जन का मन पुलकित और प्रफुल्लित हो उठता है।“ इसी पुष्प बीज की भाँति आविष्कारकों/ निर्माताओं/ संस्थापकों का जीवन होता है। महानता-अमरता जैसी वस्तु कोई विरासत या उपहार या आशीर्वाद में मिलने वाली वस्तु नहीं है। वह तो इसी पुष्प बीज वालेे जीवन मार्ग से ही मिलता रहा है, मिलता ही है और मिलता ही रहेगा।
इस प्रकार के जीवन में आविष्कारकों/निर्माताओं/संस्थापकों को केवल अपना लक्ष्य दिखाई देता है, मार्ग चाहे जो हो। और इस क्रम में कुछ गलतियाँ, अन्याय, अनुभव के लिए विचित्र जीवन शैली इत्यादि भी करने पड़ते हैं। कुल मिलाकर वे अपने जीवन को ही प्रयोगशाला की भाँति प्रयोग कर देते हैं तब जाकर कहीं दूसरों के उपयोग के लिए कोई आविष्कार मिल पाता है। जो निर्माण करेगा उसे तो धूल-मिट्टी लगेगी ही लगेगी।
यदि यह समझ में आ जाये तो उन लोगों को इसका ज्ञान हो जाना चाहिए कि श्रीराम और श्रीकृष्ण में जो थोड़ी गलतियाँ या अन्याय निकालते हैं उसका कारण क्या था? इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि यदि किसी मकान के 5वीं मंजिल पर आग लगी है तो उसको बुझाने के लिए आवश्यक नहीं की सीढ़ी से ही जाया जाय। उसके लिए कोई भी मार्ग अपनाया जा सकता है और उस समय किसी से पूछने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती।

उपयोगकर्ता/अनुसरणकर्ता/निवासी 
उपयोगकर्ता/अनुसरणकर्ता/निवासी का जीवन एक साधारण और सरल सा जीवन होता है। आविष्कारकों/ निर्माताओं/संस्थापकों द्वारा दिये गये फल (आविष्कार/उत्पाद/व्यवस्था) का उपयोग करना और जीवन व्यतीत करना, पीढ़ी बढ़ाना। इन्हें न तो धूल लगेगी, न ही मिट्टी। और न हीं मकान के 5वीं मंजिल पर आग लगी है कि ये दिवाल फाँदेगें, ये तो सीधे-सीधे सीढ़ी से आयेंगे और जायेंगे।
किसी भी आविष्कारक/निर्माता/संस्थापक इत्यादि का सार्वभौम सत्य ज्ञान एक हो सकता है परन्तु उसके स्थापना की कला उस आविष्कारक/निर्माता/संस्थापक इत्यादि के समय की समाजिक व शासनिक व्यवस्था के अनुसार अलग-अलग होती है, जो पुनः दुबारा प्रयोग में नहीं लायी जा सकती। वर्तमान तक ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जिससे यह सिद्ध होता हो कि उस आविष्कारक/ निर्माता/संस्थापक इत्यादि की कला को दुबारा प्रयोग कर कुछ सकारात्मक किया गया हो। किसी भी आविष्कारक/ निर्माता/ संस्थापक इत्यादि के दर्शन या चित्र से अधिकतम लाभ तभी प्राप्त हो सकता है जब उनकी विचार व कृति का ज्ञान व समझ हो। उसी से मनुष्य का विकास सम्भव है। जिस प्रकार वर्तमान भौतिक विज्ञान से आविष्कृत पंखा, बल्ब, मोबाइल, कम्प्यूटर इत्यादि का समाज उपयोग करता है न कि इसके आविष्कारकर्ता का दर्शन व चित्र की पूजा। अर्थात आविष्कार/उत्पाद/व्यवस्था ही आपके लिए उपयोगी है न कि इसके आविष्कारक का शरीर। लेकिन ऐसा नहीं दिखता भौतिक विज्ञान के आविष्कारक की पूजा नहीं करते बल्कि आविष्कार का उपयोग करते हैं और आध्यात्म के आविष्कारक की पूजा करते हैं उनके जीवन की लीला करते हैं परन्तु आविष्कार को कम ही उपयोग करते हैं।
पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी के आविष्कारक श्री लव कुश सिंह विश्वमानव स्वयं एक आदर्श मानक वैश्विक नागरिक नहीं हैं क्योंकि वे एक आध्यात्मिक आविष्कारक हैं और वे इस आविष्कार के लिए अनेक गलतियाँ, अन्याय, अनुभव के लिए विचित्र जीवन शैली इत्यादि से स्वंय को माध्यम बनाये हैं इसलिए उनके आविष्कार का उपयोग करें, उनके जीवन को समझने का प्रयत्न न ही करें तो आपका समय बचेगा।


मानव और पूर्ण मानव

मानव और पूर्ण मानव

इस ब्रह्माण्ड में अन्य जीवों की भाँति मनुष्य भी एक जीव है। एक मात्र मनुष्य के सामने यह अवसर है कि वह पशु मानव से पूर्ण मानव व ईश्वरीय मानव तक ज्ञान-ध्यान-चेतना का प्रयोग कर स्वयं को ऊपर उठा सकता है।
कुछ वर्षों पहले वैज्ञानिक डाॅ0 फ्रेड हाॅयल भारतवर्ष आये थे। विज्ञान भवन में उन्होंने कहा था-”अंतरिक्ष की गहराइयाँ जितनी अनन्त की ओर बढ़ेंगी, उसमें झाँककर देखने से मानवीय अस्तित्व का अर्थ और प्रयोजन उतना ही स्पष्ट होता चला जायेगा। शर्त यह रहेगी कि हमारी अपनी अन्वेषण बुद्धि का भी विकास और विस्तार हो। यदि हमारी बुद्धि, विचार और ज्ञान मात्र पेट, प्रजनन, तृष्णा, अहंता तक ही सीमित रहता है, तब तो हम पड़ोस को भी नहीं जान सकेंगे, पर यदि इन सबसे पूर्वाग्रह मुक्त हों तो ब्रह्माण्ड इतनी खुली और अच्छे अक्षरों में लिखी चमकदार पुस्तक है कि उससे हर शब्द का अर्थ, प्रत्येक अस्तित्व का अभिप्राय समझा जा सकता एवं अनुभव किया जा सकता है।“
वस्तुतः चेतना का मुख्य गुण है-विकास। जहाँ भी चेतना या जीवन का अस्तित्व विद्यमान दिखाई देता है, वहाँ अनिवार्य रूप से विकास, वर्तमान स्थिति से आगे बढ़ने की हलचल दिखाई देती है। इस दृष्टि से मनुष्यों, जीव-जन्तु और पेड़-पौधों को ही जीवित माना जाता है। परन्तु भारतीय आध्यात्म की मान्यता है कि जड़ कुछ है ही नहीं, सब कुछ चैतन्य ही है। सुविधा के लिए स्थिर, निष्क्रिय और यथास्थिति में बने रहने वाली वस्तुओं को जड़ कहा जाता है, परन्तु वस्तुतः वे प्रचलित अर्थो में जड़ है ही नहीं। सृष्टि के इस विराट रूप, क्रमिक विस्तार एवं सतत गतिशीलता के मूल में झाँकने पर वैज्ञानिक पाते है कि यह सब एक सुनियोजित चेतना की विधि व्यवस्था के अन्तर्गत सम्पन्न हुआ क्रियाकलाप है।
इस सम्पूर्ण विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य को यह नहीं समझना चाहिए कि वह इस सृष्टि का सर्वतः स्वतन्त्र सदस्य है और उसे कर्म करने की जो स्वतन्त्रता मिली है, उसके अनुसार वह इस सृष्टि के महानियंता की नियामक व्यवस्था द्वारा निर्धारित दण्ड से भी बच पायेगा। इस विराट ब्रह्माण्ड में पृथ्वी का ही अस्तित्व एक धूलिकण के बराबर नहीं है तो मनुष्य का स्थान कितना बड़ा होगा? फिर भी मनुष्य नाम का यह प्राणी इस पृथ्वी पर कैसे-कैसे प्रपंच फैलाये हुये है यह जानने और उसे उस अन्तिम मार्ग से परिचय कराने हेतु ही ”विश्वशास्त्र“ को प्रस्तुत किया गया है। वस्तुतः यथार्थ में ऐसा होना चाहिए कि जीवकोपार्जन हेतु ज्ञान व कर्म मनुष्य-मनुष्य के अनुसार अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु जीवन का ज्ञान एक ही होना चाहिए और यदि मानव जाति के नियंतागण ऐसा कर सके तो भविष्य की सुरक्षा हेतु बहुत बड़ी बात होगी। साथ ही ब्रह्माण्ड के अनेक रहस्यों को जानने के लिए मनुष्य के शक्ति का एकीकरण भी कर सकने में हम सफल होगें।
जब मनुष्य वैश्विक ज्ञान-ध्यान-चेतना से मुक्त केवल स्वयं में ही स्थित रहता है तब वह मानव है, जब मनुष्य वैश्विक ज्ञान-ध्यान-चेतना से युक्त स्वयं में ही स्थित रहता है तब वह पूर्ण मानव है और जब मनुष्य वैश्विक ज्ञान-ध्यान-चेतना से युक्त होकर विश्व-ब्रह्माण्ड को अपना कार्य क्षेत्र समझ उसके लिए कार्य करता है तब वह ईश्वरीय मानव की अवस्था में होता है।
मनुष्य के समक्ष अनेक तर्क हैं, समस्यायें हैं, प्रश्न हैं, सफलताएँ हैं, असफलताएँ हैं। इसलिए उसे ऐसा भी लगता है कि कोई पूर्ण मानव नहीं हो सकता। अगर इसे स्वीकार भी कर लिया जाये तो क्या इस पूर्णता के लक्ष्य को पाने के लिए प्रयत्न भी बन्द कर देना चाहिए? तब तो मनुष्य, मानव से हिंसक पशु मानव में परिवर्तित होने लगेगा। इसलिए पूर्ण मानव का एक मापदण्ड निर्धारित कर हमें उस ओर ही जाना होगा, कम से कम लक्ष्य सत्य-शिव-सुन्दर होगा तो हम जितना भी उस ओर चल सकंे, सत्य-शिव-सुन्दर के ही दिशा में हमारा विकास होगा।
युग के अनुसार सत्यीकरण का मार्ग उपलब्ध कराना ईश्वर का कर्तव्य है आश्रितों पर सत्यीकरण का मार्ग प्रभावित करना अभिभावक का कर्तव्य हैै। और सत्यीकरण के मार्ग के अनुसार जीना आश्रितों का कर्तव्य है जैसा कि हम सभी जानते है कि अभिभावक, आश्रितों के समझने और समर्थन की प्रतिक्षा नहीं करते। अभिभावक यदि किसी विषय को आवश्यक समझते हैं तब केवल शक्ति और शीघ्रता से प्रभावी बनाना अन्तिम मार्ग होता है। विश्व के बच्चों के लिए यह अधिकार है कि पूर्ण ज्ञान के द्वारा पूर्ण मानव अर्थात् विश्वमानव के रुप में बनना। हम सभी विश्व के नागरिक सभी स्तर के अभिभावक जैसे-महासचिव संयुक्त राष्ट्र संघ, राष्ट्रों के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री, धर्म, समाज, राजनीति, उद्योग, शिक्षा, प्रबन्ध, पत्रकारिता इत्यादि द्वारा अन्य समानान्तर आवश्यक लक्ष्य के साथ इसे जीवन का मुख्य और मूल लक्ष्य निर्धारित कर प्रभावी बनाने की आशा करते हैं। क्योंकि लक्ष्य निर्धारण वक्तव्य का सूर्य नये सहस्त्राब्दि के साथ डूब चुका है। और कार्य योजना का सूर्य उग चुका है। इसलिए धरती को स्वर्ग बनाने का अन्तिम मार्ग सिर्फ कर्तव्य है। और रहने वाले सिर्फ सत्य-सिद्धान्त से युक्त संयुक्तमन आधारित मानव है, न कि संयुक्तमन या व्यक्तिगतमन के युक्तमानव।
यदि हमें अपनी आने वाली पीढ़ी को एक सुरक्षित और शक्ति और लाभ ;च्वूमत-च्तवपिजद्ध के उद्देश्य से मुक्त बौद्धिक विकासशील पृथ्वी उपहार स्वरूप देना है तो हमें पूर्ण मन से युक्त मानव-विश्वमानव का निर्माण प्रारम्भ करना होगा जो वर्तमान सहित भविष्य की आवश्यकता भी है। और इस आवश्यकता का संकेत अन्तिम ऊँचाई के नेतृत्व से स्पष्ट दिखता भी है। बौद्धिक विकास का अनन्त मार्ग न होने से वैचारिक टकराव की सम्भावना सदैव बढ़ती है।
एक श्रृंखला (Chain) को आगे बढ़ाने के लिए उसके प्रथम कड़ी को आगे बढ़ाना होगा तभी सभी कड़ी आगे बढ़ेगी। केवल पीछे अर्थात नीचे की कड़ी को या बीच के किसी कड़ी को आगे बढ़ाने से वह अगली कड़ी के लिए बाधक या प्रतियोगिता ही उत्पन्न कर सकता है। वैश्विक एकीकरण और पूर्णता के लिए आ गई बौद्धिक कमी की पूर्ति ही ”विश्वशास्त्र“ के रूप में व्यक्त हुआ है।

प्रकृति प्रदत्त नाम के अलावा जब व्यक्ति को आत्मज्ञान होता है तब वह स्वयं अपने मन स्तर का निर्धारण कर एक नाम स्वयं रख लेता है। जिस प्रकार ”श्रीकृष्ण“ नाम है ”योगेश्वर“ मन की अवस्था है, ”गदाधर“ नाम है ”श्रीरामश्रीकृष्ण परमहंस“ मन की अवस्था है, ”सिद्धार्थ“ नाम है ”बुद्ध“ मन की अवस्था है, ”नरेन्द्र नाथ दत्त“ नाम है ”स्वामी विवेकानन्द“ मन की अवस्था है, ”रजनीश“ नाम है ”ओशो“ मन की अवस्था है। उसी प्रकार लव कुश सिंह नाम है ”विश्वमानव“ मन की अवस्था है और उसी प्रकार व्यक्तियों के नाम, नाम है ”भोगेश्वर विश्वमानव“ उसकी चरम विकसित, सर्वोच्च और अन्तिम अवस्था है जहाँ समय की धारा में चलते-चलते मनुष्य वहाँ विवशतावश पहुँचेगा।



शिक्षण विधि और आशीर्वाद

शिक्षण विधि और आशीर्वाद

एक कोशिका से दूसरे कोशिका को ज्ञान के अग्रसरण/संचरण के द्वारा विकसित हो रहे जीवों में मानव, ज्ञान क्रान्ति के अन्तिम लक्ष्य के पास पहुँच रहा है। जीव आते हैं, जाते हैं, और समय की धारा में ज्ञान, संसाधन और अपनी पीढ़ी को आगे बढ़ा कर चले जाते हैं। कुल मिलाकर मनुष्य केवल प्रकृति के अदृश्य ज्ञान को दृश्य ज्ञान में परिवर्तित करने का माध्यम मात्र है। मानव की मात्र इतनी ही कहानी होते हुये भी वह आर्थिक लाभ पाने के मानवीय चक्र में ज्ञान पाने के ईश्वरीय चक्र से इतना दूर होते जा रहा है कि उसे यह नहीं पता कि वह स्वयं मानव जाति के अस्तित्व को ही इस कमलरूपी पृथ्वी पर विराजमान होने से पहले ही मिटा देना चाहता है।
इस क्रम में ज्ञान के अदृश्य संचरण से प्रारम्भ हुआ जीवन, फिर संकेत, फिर मौखिक, फिर भाषा लिपि, फिर हस्तलिखित पुस्तक, फिर मुद्रित पुस्तक से अब हम सभी डिजिटल विडियो-आॅडियो तक पहुँच चुके हैं। जहाँ हमारी यात्रा एक दृश्य जीव शिक्षक/गुरू से शुरू हुयी थी वहीं अब हम सभी एक अदृश्य मानव निर्मित अजीव शिक्षक/गुरू (डिजिटल विडियो-आॅडिया शैक्षणिक सामग्री) की ओर बढ़ रहे हैं। इस क्रम से सबसे बड़ा नुकसान ”समझ“ का हुआ। ”समझ“ गिरती गयी और मानव निर्मित संस्था द्वारा प्रमाणित योग्यता सबको प्राप्त होती गयी। और शब्दों के अर्थ ”समझ“ के अनुसार बदलते गये। एक कोशिका से दूसरे कोशिका को ज्ञान के अग्रसरण/संचरण का प्राकृतिक नियम व्यापार में बदल गया। शिक्षक/गुरू भी आर्थिक प्रणाली से संचालित होने लगे साथ ही विद्यार्थी/छात्र भी। जिस प्रकार मुख्य आत्मा के उपस्थिति में ब्रह्माण्ड संचालित और प्रकृति नाच रही है उसी प्रकार मनुष्य निर्मित ”मुद्रा“ से ब्रह्माण्ड तो संचालित नहीं हो सकता लेकिन मनुष्य जरूर नाच रहा है। विद्या अर्जन के इस विकास क्रम में जो बातें आयीं वे हैं-शिक्षा माध्यम, शिक्षक/गुरू, विद्यार्थी/छात्र और शिक्षा पाठ्यक्रम।

शिक्षा माध्यम
शिक्षा माध्यम उस माध्यम से सम्बन्धित है जिसके द्वारा एक शिक्षक/गुरू अपने विद्यार्थी/छात्र में ज्ञान का संचरण करता है जो भाषा, चित्र, संकेत, आवाज इत्यादि हो सकते हैं। इसके अलावा शिक्षक/गुरू की अपनी समझ की कला भी हो सकती है जिससे वह आसानी से अपने विद्यार्थी/छात्र में ज्ञान का संचरण कर दे।

शिक्षक/गुरू
स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था-”हम गुरु के बिना कोई ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। अब बात यह है कि यदि मनुष्य, देवता अथवा कोई स्वर्गदूत हमारे गुरु हो, तो वे भी तो ससीम हैं, फिर उनसे पहले उनके गुरु कौन थे? हमें मजबूर होकर यह चरम सिद्धान्त स्थिर करना ही होगा कि एक ऐसे गुरु हैं जो काल के द्वारा सीमाबद्ध या अविच्छिन्न नहीं हैं। उन्हीं अनन्त ज्ञान सम्पन्न गुरु को, जिनका आदि भी नहीं और अन्त भी नहीं, ईश्वर कहते हैं। गुरु के सम्बन्ध में यह जान लेना आवश्यक है कि उन्हें शास्त्रो का मर्म ज्ञान हो। वैसे तो सारा संसार ही बाइबिल, वेद, पुराण पढ़ता है, पर वे तो केवल शब्द राशि है। धर्म की सूखी ठठरी मात्र है। जो गुरु शब्दाडंबर के चक्कर में पड़ जाते हैं, जिनका मन शब्दों की शक्ति में बह जाता है, वे भीतर का मर्म खो बैठते हैं। जो शास्त्रों के वास्तविक मर्मज्ञ हैं, वे ही असल में सच्चे धार्मिक गुरु हैं। संसार के प्रधान आचार्यों में से कोई भी शास्त्रों की इस प्रकार नानाविध व्याख्या करने के झमेंले में नहीं पड़ा। उन्होनें श्लोकों के अर्थ में खींचातानी नहीं की। वे शब्दार्थ और भावार्थ के फेर मंे नहीं पड़े। फिर भी उन्होंने संसार को बड़ी सुन्दर शिक्षा दी। इसके विपरीत, उन लोगों ने जिनके पास सिखाने को कुछ भी नहीं, कभी एकाध शब्द को ही पकड़ लिया और उस पर तीन भागों की एक मोटी पुस्तक लिख डाली, जिसमें सब अनर्थक बातें भरी हैंे। भगवान श्री राम कृष्ण कहते थे-”जब एक बहुत बड़ी लहर आती है, तो छोटे-छोटे नाले और गड्ढे अपने आप ही लबालब भर जाते हैं। इसी प्रकार जब एक अवतार जन्म लेता है, तो समस्त संसार मंे आध्यात्मिकता की एक बड़ी बाढ़ आ जाती है और लोग वायु के कण-कण में धर्मभाव का अनुभव करने लगते हैं। अनात्मज्ञ पुरूषों की बुद्धि एकदेश-दर्शिनी (Single Dimensional) होती है। आत्मज्ञ पुरूषों की बुद्धि सर्वग्रासिनी (Multi Dimensional) होती है। आत्मप्रकाश होने से, देखोगे कि दर्शन, विज्ञान सब तुम्हारे अधीन हो जायेगे।“
कुल मिलाकर जैसी शिक्षा, वैसा शिष्य और अन्त में वैसा ही शिक्षक क्योंकि शिक्षा प्राप्ति के बाद बहुत से विद्यार्थी/छात्र अलग-अलग व्यापार के साथ ”पढ़ो और पढ़ाओ“ वाले व्यापार में भी जाते है और शिक्षक भी बनते हैं। अन्त में हल यही निकलेगा कि अदृश्य मानव निर्मित अजीव शिक्षक/गुरू (डिजिटल विडियो-आॅडिया शैक्षणिक सामग्री) के रूप में सामने आयेगा और सरकारी शिक्षा संस्थान मात्र एक पंजीकरण केन्द्र, परीक्षा केन्द्र संचालक और प्रमाण-पत्र दाता बनेगा।
शब्दों के अर्थ ”समझ“ के अनुसार बदलते रहने से शब्द ”आशीर्वाद“ के भी अर्थ बदल गये। वर्तमान में ”आशीर्वाद“ यूँ ही मिल जाते हैं। प्रारम्भ में यह ”आशीर्वाद“ ऋषि-मुनि-गुरू जन सिर्फ योग्य को ही प्रदान करते थे ताकि उनके शब्द कभी असत्य न हों। और यदि असत्य होने की सम्भावना दिखे तो उसे वे सत्य में परिवर्तित करने के लिए भी हर नीति का प्रयोग करते थे। ऐसे ही गुरू थे-गुरू द्रोणाचार्य। जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर का ”आशीर्वाद“ अपने शिष्य अर्जुन को दिया था। और वे अपने ”आशीर्वाद“ को सत्य में परिवर्तित करने के लिए बीच में आ गये एकलव्य का नीति के अन्तर्गत अँगूठा माँगकर अपने ”आशीर्वाद“ की रक्षा की। यह मात्र एक सन्देश है-शब्द ”आशीर्वाद“ के सही अर्थ का।

विद्यार्थी/छात्र
स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था-”जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार होता है वह गुरु कहलाता है और जिसकी आत्मा में यह शक्ति संचारित होती है उसे शिष्य कहते हैं।” हमारे दृष्टि में छात्र वे हैं जो किसी शैक्षणिक संस्थान के किसी शैक्षणिक पाठ्यक्रम में प्रवेश ले कर अध्ययन करतेे है। और विद्यार्थी वे हैं जो सदैव अपने ज्ञान व बुद्धि का विकास कर रहे हैं और उसके वे इच्छुक भी हैं। इस प्रकार सभी मनुष्य व जीव, जीवन पर्यन्त विद्यार्थी ही बने रहते हैं चाहे उसे वे स्वीकार करें या ना करें। जबकि छात्र जीवन पर्यन्त नहीं रहा जा सकता। कहा जाता है-”छात्र शक्ति, राष्ट्र शक्ति“, लेकिन कौन सी शक्ति? उसकी कौन सी दिशा? तोड़-फोड़, हड़ताल, या अनशन वाली या समाज व राष्ट्र को नई दिशा देने वाली? स्वामी विवेकानन्द को मानने व उनके चित्र लगाकर छात्र राजनीति द्वारा राष्ट्र को दिशा नहीं मिल सकती बल्कि उन्होंने क्या कहा और क्या किया था, उसे जानने और चिन्तन करने से राष्ट्र को दिशा मिल सकती है और ”छात्र शक्ति, राष्ट्र शक्ति“ की बात सत्य हो सकती है। हम सभी ज्ञान युग और उसी ओर बढ़ते समय में हैं इसलिए केवल प्रमाण-पत्रों वाली शिक्षा से काम नहीं चलने वाला है।
छात्रों की विवशता है कि उनके शिक्षा बोर्ड व विश्वविद्यालय जो पाठ्यक्रम तैयार करेगें वहीं पढ़ना है और छात्रों की यह प्रकृति भी है कि वही पढ़ना है जिसकी परीक्षा ली जाती हो। जिसकी परीक्षा न हो क्या वह पढ़ने योग्य नहीं है? बहुत बढ़ा प्रश्न उठता है। तब तो समाचार पत्र, पत्रिका, उपन्यास इत्यादि जो पाठ्यक्रम के नहीं हैं उन्हें नहीं पढ़ना चाहिए। शिक्षा बोर्ड व विश्वविद्यालय तो एक विशेष पाठ्यक्रम के लिए ही विशेष समय में परीक्षा लेते हैं परन्तु ये जिन्दगी तो जीवन भर आपकी परीक्षा हर समय लेती रहती है तो क्या जीवन का पाठ्यक्रम पढ़ना अनिवार्य नहीं है? 

शिक्षा पाठ्यक्रम
जो व्यक्ति या देश केवल आर्थिक उन्नति को ही सर्वस्व मानता है वह व्यक्ति या देश एक पशुवत् जीवन निर्वाह के मार्ग पर है-जीना और पीढ़ी बढ़ाना। दूसरे रूप में इसे ऐसे समझा जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति जिनका लक्ष्य धन रहा था वे अपने धन के बल पर अपनी मूर्ति अपने घर पर ही लगा सकते हैं परन्तु जिनका लक्ष्य धन नहीं था, उनका समाज ने उन्हें, उनके रहते या उनके जाने के बाद अनेकों प्रकार से सम्मान दिया है और ये सार्वजनिक रूप से सभी के सामने प्रमाणित है। पूर्णत्व की प्राप्ति का मार्ग शारीरिक-आर्थिक उत्थान के साथ-साथ मानसिक-बौद्धिक उत्थान होना चाहिए और यही है ही। इस प्रकार भारत यदि पूर्णता व विश्व गुरूता की ओर बढ़ना चाहता है तब उसे मात्र कौशल विकास ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय बौद्धिक विकास की ओर भी बढ़ना होगा। बौद्धिक विकास, व्यक्ति व राष्ट्र का इस ब्रह्माण्ड के प्रति दायित्व है और उसका लक्ष्य है। व्यक्ति व राष्ट्र के पूर्णत्व के लिए पूर्ण शिक्षा निम्नलिखित दो शिक्षा का संयुक्त रूप है-

अ-सामान्यीकरण (Generalisation)  शिक्षा
यह शिक्षा व्यक्ति और राष्ट्र का बौद्धिक विकास कराती है जिससे व्यक्ति व राष्ट्रीय सुख में वृद्धि होती है। वर्तमान समय में सामान्यीकरण शिक्षा की समस्या है। व्यक्तियों के विचार से सदैव व्यक्त होता रहा है कि-मैंकाले शिक्षा पद्धति बदलनी चाहिए, राष्ट्रीय शिक्षा नीति व पाठ्यक्रम बनना चाहिए। ये तो विचार हैं। पाठ्यक्रम बनेगा कैसे?, कौन बनायेगा? पाठ्यक्रम में पढ़ायेगें क्या? ये समस्या थी। और वह हल की जा चुकी है। जो भारत सरकार के सामने सरकारी-निजी योजनाओं जैसे ट्रांसपोर्ट, डाक, बैंक, बीमा की तरह निजी शिक्षा पाठ्यक्रम के रूप में पुनर्निर्माण-सत्य शिक्षा का राष्ट्रीय तीव्र मार्ग द्वारा पहली बार इसके आविष्कारक द्वारा प्रस्तुत है। जिसकी उपयोगिता सत्य समझ, जीवन ज्ञान, प्रबन्धकीय समझ, गुरूता और सत्य शिक्षकीय समझ में है। इससे किसी भी सरकारी संस्थान में नौकरी नहीं मिलती बल्कि इससें पद का सही उपयोग और सही दुरूपयोग का गुण आता है जो उस व्यक्ति पर ही निर्भर करता है न कि उस ज्ञान पर।

ब-विशेषीकरण (Specialisation) शिक्षा
यह शिक्षा व्यक्ति और राष्ट्र का कौशल विकास कराती है जिससे व्यक्ति व राष्ट्रीय उत्पादकता में वृद्धि होती है। वर्तमान समय में विशेषीकरण की शिक्षा, भारत में चल ही रहा है जो सरकारी मान्यता प्राप्त शिक्षा पाठ्यक्रम से युक्त प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय तथा प्रोफेशनल एजुकेशन-स्किल डेवलपमेंण्ट (कौशल विकास) के रूप में सामने है। 


शिक्षा, शिक्षक और शिक्षार्थी

शिक्षा, शिक्षक और शिक्षार्थी


जैसी तुम्हारी इच्छा वैसा करो

जैसी तुम्हारी इच्छा वैसा करो

पुस्तक का मुख-पृष्ठ: श्याम (काला)-श्वेत (सफेद) क्यों?

पुस्तक का मुख-पृष्ठ: श्याम (काला)-श्वेत (सफेद) क्यों?
काला (श्याम) 
काला रंग किसी भी रंग को दृष्य स्पेक्ट्रम से परावर्तित नहीं करता अर्थात सभी रंगों को अवशोषित कर लेता है। काला रंग गम्भीरता और अधिकार के रंग के रूप में देखा जाता है। ब्रिटीश सेना का ब्लैक वाॅच, वरिष्ठ हाईलैंड रेजिमेंण्ट है। जापानी संस्कृति में काला, बड़प्पन, आयु और अनुभव का एक प्रतीक है इसके विपरीत सफेद दासत्व, युवा और भोलेपन का प्रतीक है। ब्लैक अबु खलीफा हैं जो अक्सर अरब देशों के झण्डे में प्रयोग होता है। स्पेन में ब्लैक, बास्क स्वायत्त पुलिस दंगा नियंत्रण इकाईयों के रूप में जाना जाता है। स्नातकों के लिए शैक्षणिक पोशाक काले रंग का होता है। औपचारिक अवसरों पर काली टाई कार्य के रूप में जाना जाता है। ईसाई धर्म में उच्च वर्ग के धार्मिक व्यक्तियों द्वारा काला वस्त्र पहना जाता है। काला, हैसिडीक यहूदियों द्वारा पहना जाता है। काला बुरका मुस्लिम महिलाओं द्वारा पहना जाता है। वकील और न्यायाधीश अक्सर काले वस्त्र पहनते हैं। यूरोपीय शास्त्रीय संगीत या अन्य संगीत कार्यक्रम या गायन में कलाकारों द्वारा काले रंग के वस्त्र पहने जाते हैं। खगोल विज्ञान में अन्तरिक्ष को काला आकाश, जले हुये तारे को ब्लैक डुआर्फ, संघनित तारे को ब्लैक होल कहते हैं। काली सतह, प्रकाश को अवशोषित करने के कारण तापीय संग्राहक के रूप में प्रयोग किया जाता है। पश्चिमी समाज में काला शोक का प्रतीक माना जाता है। ग्रीस और इटली के समाज में विधवाएँ अपने शेष जीवन में काले वस्त्र पहनती हैं जबकि अफ्रीका और एशिया में सफेद शोक का प्रतीक है। अंग्रेजी विद्या में काला, अंधेरे, संदेह, अज्ञान और अनिश्चितता के अर्थ में प्रयोग होता है। काला सूर्य फासिज्म और ओकल्टीज्म से सम्बन्धित है। केन्या और तंजानिया के जनजातियों में काला रंग बारिश वाले बादल, जीवन और समृद्धि के प्रतीक से जुड़ा हुआ है। अमेरिका के मूल निवासी काले हैं जो मिट्टी से जुड़े हैं। हिन्दू अवतार श्रीकृष्ण और देवता शनि का अर्थ काले से है। मध्यकालीन ईसाई सम्प्रदाय काले को एक पूर्णता के रंग में देखता है। रस्ताफरी आन्दोलन काले को सुन्दर के रूप में देखता है। जापानी संस्कृति में काला सम्मान के साथ जुड़ा हुआ है। काली बिल्ली अच्छे और बुरे भाग्य दोनों के अर्थो में जाना जाता है। काला दिन या सप्ताह या माह आमतौर पर एक दुःखद दिन या सप्ताह या माह के रूप में लिया जाता है। 

सफेद (श्वेत) 
मानव संस्कृति में सफेद रंग को शुद्धता और पवित्रता के रूप में जाना है। सफेद को भूत, शुद्धता, बड़प्पन, कोमलता, खालीपन, भगवान, अभाव, शान्ति, स्वच्छ, सूर्य का प्रकाश, समर्पण, अच्छा, स्वर्गदूत, नायक इत्यादि के सन्दर्भ में भी प्रयोग किया जाता है। सूर्य के प्रकाश में सभी रंगो का मिश्रण होता है। भारतीय परम्परा में सफेद शोक और मृत्यु का रंग है। पश्चिमी सभ्यता में सफेद शुद्धता और बेगुनाही का प्रतिनिधित्व करता है। श्वेत पत्र, सरकारी क्षेत्रों में एक ऐसे रिपोर्ट के लिए कहा जाता है जो किसी मुद्दे पर विशेषज्ञ द्वारा सत्य का खुलासा किया जाता है। सफेद को कई धर्मो में शान्ति और पवित्रता की दृष्टि से देखा जाता है। मुस्लिम लोगों द्वारा हज यात्रा के समय सफेद वस्त्र पहना जाता है। यूरोपीय और जापानी शादियों में दुल्हन का वस्त्र सफेद होता है। वैज्ञानिक और डाॅक्टर के अलावा बहुत से खेलों के खिलाड़ी सफेद वस्त्र पहना करते हैं।

काला (श्याम) और सफेद (श्वेत)
काला और सफेद सबसे अधिक विपरीत दृश्य प्रभाव उत्पन्न करता है और दिन और रात, अच्छाई और बुराई के सन्दर्भ में प्रयुक्त होता है। ताओ धर्म में यिन और यांग काले और सफेद रंग में दिखया गया है। शतरंज और चेकर्स जैसे खेल में भी दो विरोधीयों को काले और सफेद से दिखाया गया है। ब्लैक बेल्ट, मार्शल आर्ट में उपलब्धि और वरिष्ठता का प्रतीक है जबकि सफेद बेल्ट का रैंक कम होता है। ब्रिटीश पुलिस वाहन परम्परागत रूप से काले और सफेद थे।
सभी रंगों को मिला देने पर काला रंग बन जाता है अर्थात काले रंग में सभी रंग समाहित हो जाते है। सृष्टि भी ब्लैक होल (श्याम शून्य) से प्रारम्भ होता हैं और उसी में सघंनित हो जाता है। ब्रह्माण्ड का अधिकांश भाग अंधकार अर्थात काले रंग में ही है। प्रकाश, सदैव अंधकार को हटाने का प्रयत्न करता है क्योंकि साम्राज्य तो सदैव अंधकार का ही है। यह प्रयत्न ही चेतना है। इस शास्त्र का मुख पृष्ठ में काला और सफेद इसलिए रखा गया है जिसका 

प्रथम कारण
यह शास्त्र सभी रंगों अर्थात विचारों को अपने में समाहित करता है और साथ ही सृष्टि करने के लिए प्रकाश फैलाता है जिससें विभिन्न शुद्ध और सत्य रंग अर्थात विचार निकलते हैं। महाभारत की रचना करने वाले महर्षि व्यास ने भी अपने नायक सृष्टिकर्ता को श्रीकृष्ण अर्थात काला ही नाम दिया है जिनसे व्यक्त गीता ज्ञान सभी रंगों अर्थात विचारों को अपने में समाहित करता है और साथ ही सृष्टि करने के लिए प्रकाश फैलाता है जिससें विभिन्न शुद्ध और सत्य रंग अर्थात विचार निकलते हैं।

द्वितीय कारण
हमारा लक्ष्य पूर्णज्ञान के इस शास्त्र को जन-जन तक पहुँचाना है इसलिए प्रथमतया सस्ते दर पर उपलब्ध कराने हेतु इसे काले और सफेद में मुद्रण कराया गया है जिससे इसे सस्ता बनाया जा सके। इसके उपरान्त इसका आकर्षक-सुन्दर-रंगीन संस्करण भी मुद्रित कराया जायेगा क्यांेकि हम जानते हैं कि यह शास्त्र प्रत्येक घर में एक लम्बे अवधि और घर के प्रत्येक सदस्य की आवश्यकता है।


विश्व सरकार के लिए पुनः भारत द्वारा शून्य आधारित अन्तिम आविष्कार

विश्व सरकार के लिए पुनः भारत द्वारा शून्य आधारित अन्तिम आविष्कार

शून्य का प्रथम आविष्कार का परिचय
शून्य (0), दशमलव संख्या प्रणाली में संख्या है। यह दशमलव प्रणाली का मूलभूत आधार भी है। किसी भी संख्या को शून्य से गुणा करने से शून्य प्राप्त होता है। किसी भी संख्या को शून्य से जोड़ने या घटाने पर वही संख्या प्राप्त होती है।
शून्य का आविष्कार किसने और कब किया यह आज तक अंधकार के गर्त में छुपा हुआ है परन्तु सम्पूर्ण विश्व में यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि शून्य का आविष्कार भारत में ही हुआ है। ऐसी भी कथाएँ प्रचलित हैं कि पहली बार शून्य का आविष्कार बाबिल में हुआ और दूसरी बार माया सभ्यता के लोगों ने इसका आविष्कार किया पर दोनों ही बार के आविष्कार संख्या प्रणाली को प्रभावित करने में असमर्थ रहे तथा विश्व के लोगों ने इसे भुला दिया। फिर भारत में हिन्दुओं ने तीसरी बार शून्य का आविष्कार किया। हिन्दुओं ने शून्य के विषय में कैसे जाना यह आज भी अनुत्तरित प्रश्न है। अधिकतम विद्वानों का मत है कि पाँचवीं शताब्दी के मध्य में शून्य का आविष्कार किया गया। सन् 498 में भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलवेक्ता आर्यभट्ट ने कहा ”स्थानं स्थानं दसा गुणम्“ अर्थात दस गुना करने के लिए संख्या के आगे शून्य रखो। और शायद यही संख्या के दशमलव सिद्धान्त का उद्भव रहा होगा। आर्यभट्ट द्वारा रचित गणितीय खगोलशास्त्र ग्रन्थ आर्यभट्टीय के संख्या प्रणाली में शून्य तथा उसके लिए विशिष्ट संकेत सम्मिलित था। इसी कारण से उन्हें संख्याओं को शब्दों में प्रदर्शित करने का अवसर मिला। प्राचीन बक्षाली लिपि में, जिसका कि सही काल अब तक निश्चित नहीं हो पाया है परन्तु निश्चित रूप से उसका काल आर्यभट्ट के काल से प्राचीन है, शून्य का प्रयोग किया गया है और उसके लिए उसमें संकेत भी निश्चित है। उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि भारत में शून्य का प्रयोग ब्रह्मगुप्त रचित ग्रन्थ ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त में पाया गया है। इस ग्रन्थ में नकारात्मक संख्याओं और बीजगणितीय सिद्धान्तों का भी प्रयोग हुआ है। 7वीं शताब्दी जो ब्रह्मगुप्त का काल था, शून्य से सम्बन्धित विचार कम्बोडिया तक पहुँच चुके थे और दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि बाद में ये कम्बोडिया से चीन तथा अन्य मुस्लिम संसार में फैल गये। इस बार भारत में हिन्दुओं के द्वारा आविष्कृत शून्य ने समस्त विश्व की संख्या प्रणाली को प्रभावित किया और सम्पूर्ण विश्व को जानकारी मिली। मध्य-पूर्व में स्थित अरब देशों ने भी शून्य को भारतीय विद्वानों से प्राप्त किया। अन्ततः 12वीं शताब्दी में भारत का यह शून्य पश्चिम में यूरोप तक पहुँचा।

शून्य आधारित अन्तिम आविष्कार का परिचय
आविष्कार विषय ”व्यक्तिगत मन और संयुक्तमन का विश्व मानक और पूर्णमानव निर्माण की तकनीकी है जिसे धर्म क्षेत्र से कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेदीय श्रृंखला तथा शासन क्षेत्र से WS-0  मन की गुणवत्ता का विश्व मानक श्रृंखला तथा WCM-TLM-SHYAM.C  तकनीकी कहते है। सम्पूर्ण आविष्कार सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त अर्थात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त अटलनीय, अपरिवर्तनीय, शाश्वत व सनातन नियम पर आधारित है, न कि मानवीय विचार या मत पर आधारित। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त एक ही सत्य-सिद्धान्त द्वारा व्यक्तिगत व संयुक्त मन को एकमुखी कर सर्वोच्च, मूल और अन्तिम स्तर पर स्थापित करने के लिए शून्य पर अन्तिम आविष्कार (WS-0) : श्रृंखला की निम्नलिखित पाँच शाखाएँ है। 
1. डब्ल्यू.एस .(WS-0) : विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक
2. डब्ल्यू.एस. (WS-00) : विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक
3. डब्ल्यू.एस. (WS-000) : ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
4. डब्ल्यू.एस. (WS-0000) : मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
5. डब्ल्यू.एस. (WS-00000) : उपासना और उपासना स्थल का विश्वमानक

इस प्रकार विश्व सरकार के लिए पुनः भारत द्वारा शून्य आधारित अन्तिम आविष्कार पूर्ण हुआ है।
(आविष्कार के विस्तृत जानकारी के लिए ”विश्वशास्त्र“ अध्याय-तीन देखें“)


एक ही मानव शरीर के जीवन, ज्ञान और कर्म के विभिन्न विषय क्षेत्र से मुख्य नाम

एक ही मानव शरीर के जीवन, ज्ञान और कर्म के विभिन्न विषय क्षेत्र से मुख्य नाम


Monday, March 30, 2020

क्या नई घटना घटित हुई थी 21 दिसम्बर, 2012 को?

क्या नई घटना घटित हुई थी 21 दिसम्बर, 2012 को?


पिछले वर्षो मंे शुक्रवार, 21 दिसम्बर, 2012 का दिन बहुत अधिक चर्चित, भयावह और विभिन्न सकारात्मक और नकारात्मक भविष्यवाणियों के कारण विश्व के अधिकतम व्यक्तियों का ध्यान केन्द्रित करने वाला दिन रहा है। जिसका मुख्य कारण मायां सभ्यता ने अपने क्लासिक युग (250-900 सी.ई.) के दौरान जो जटिल कैलेण्डर विकसित किये थे, वह था। यही कैलेण्डर लोगों के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ था जो 21 दिसम्बर, 2012 को समाप्त हो गया। इस दिन को भविष्यवक्ता और कैलेण्डर के व्याख्याकारगण विनाश और नवसृजन दोनों के रूप में व्यक्त किये थे। शुक्रवार, 21 दिसम्बर, 2012 का दिन तो निकल कर भूतकाल हो गया। विनाश जैसी कोई घटना तो नहीं हुई फिर नवसृजन के लिए नयी घटना क्या हुयी, इसी को जानना आवश्यक है जिससे संसार यह जान सके कि मायां कैलेण्डर और अनेक भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणीयाँ किसी भी रूप में गलत नहीं थीं।
मायां, के केवल एक ज्ञात शिलालेख है, जो कि नष्ट तथा टूटी-फूटी है। पुरालेखशास्त्री डेविड स्टुआर्ट ने इसका अनुवाद किया है जिसमें तीन कैलेण्डर एक तारीख का सन्दर्भ है। ”तेरह बकतुन चार अहाऊ में खत्म होगें, तीसरा कनकिन, यह ... होगा नौ सहायक देवों का अवतरक.....“ अर्थात नौ देवता शून्य दिन को लौटेंगे, जो कि मकर संक्रान्ति होगी। ये नौ देवता, एक व्यक्ति के रूप में देखे जाते हैं तथा नौ देवताओं के आगमन की भविष्यवाणी ”द चीलम वालम आॅफ तिजीमिन“ में भी मिलती है।
मायां कलैण्डर में 20 दिन बराबर 1 युईनल, 18 युईनल बराबर 1 तुन, 20 तुन बराबर 1 कातुन, 20 कातुन (400 वषों से कम) बराबर 1 बकतुन, 13 बकतुन बराबर 1 युग के होता था। और इसका 1 चक्र बनता है। जो 1,87,200 दिन या लगभग 5,125 वर्ष का होता है। और यह हमारे इस वर्तमान युग को परिभाषित करता है। यह 21 दिसम्बर, 2012 को पूरा हो चुका, जब लांग काउंट तिथि 13.0.0.0.0 तक पहुँचा। मायांवासीयों में इस बात पर असहमति है कि अगला दिन 0.0.0.0.1 होगा या 13.0.0.0.1। कुछ सोचते हैं कि पूरा बकतुन 13 अंक का ही होगा और 1.0.0.0.0 को पहला बकतुन शुरू होगा जो 400 तुन (अगले बकतुन) तक जायेगा। हमें यहाँ से नौ देवताओं की वापसी, मौसम का असर, सरकार से मोह भंग, यु.एफ.ओ जैसी वाली कोई वस्तु व जनसंहार की भविष्यवाणी मिलती है। मायां कैलेण्डर व भविष्यवाणियाँ सन् 2012 को एक नये सृजन के रूप में लेता है, जब देवता लौटेंगे, एक पुनर्जन्म प्रकार का अनुभव, निरंतर जन उद्भव, चेतना का उदय, मृत्यु के बहुत पास तक जाने का अनुभव, पूरी दुनिया में आध्यात्मिक जागरण, पैरानाॅरमल योग्यताओं में वृद्धि, मानवता की अगली उपजातियों का प्रकटीकरण, धरती की अन्तिम उम्मीद है। इसकी मानवता अपने पुराने खोल से निकलकर सहयोगी, टैलीपैथिक व करूणामयी धरती-प्रेमी के रूप में सामने आएगी।
भौतिकवादी पश्चिमी संस्कृति किसी भी सृजन व विनाश को मानसिक स्तर पर सोच ही नहीं सकता क्योंकि वह समस्त क्रियाकलाप को बाह्य जगत में ही घटित होता समझाता है जबकि वर्तमान समय मानसिक स्तर पर विनाश व सृजन का है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि माया सभ्यता के अनुसार 21 दिसम्बर, 2012 को जो विनाश व सृजन होना था, वह मानसिक स्तर का ही है। जिसके परिणामस्वरूप सभी सम्प्रदाय, मत, दर्शन एक उच्च स्तर के विचार या सत्य में विलीन अर्थात विनाश को प्राप्त करेगा। फलस्वरूप उच्च स्तर के विचार या सत्य में स्थापित होने से सृजन होगा। कुल मिलाकर माया सभ्यता के कैलेण्डर का अन्त तिथि 21 दिसम्बर, 2012, दुनिया के अन्त की तिथि नहीं बल्कि वह वर्तमान युग के अन्त की अन्तिम तिथि का अनुमान है जिसके बाद नये युग का आरम्भ होगा। ईश्वर भी इतना मूर्ख व अज्ञानी नहीं है कि वह स्वयं को इस मानव शरीर में पूर्ण व्यक्त किये बिना ही दुनिया को नष्ट कर दे। इसके सम्बन्ध में हिन्दू धर्म शास्त्रांे में सृष्टि के प्रारम्भ के सम्बन्ध में कहा गया है कि-”ईश्वर ने इच्छा व्यक्त की कि मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ“। इस प्रकार जब वही ईश्वर सभी में है तब निश्चित रूप से जब तक सभी मानव ईश्वर नहीं हो जाते तब तक दुनिया के अन्त होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। और विकास क्रम चलता रहेगा।
21 दिसम्बर, 2012 के बाद का समय नये युग के प्रारम्भ का समय है जिसमें ज्ञान, ध्यान, चेतना, भाव, जन, देश, विश्व राष्ट्र, आध्यात्मिक जागरण, मानवता इत्यादि का विश्वव्यापी विकास होगा। परिणामस्वरूप सभी मानव को ईश्वर रूप में स्थापित होने का अवसर प्राप्त होगा। और यही विश्व मानव समाज की मूल आवश्यकता है। प्राचीन वैदिक काल में समाज को नियंत्रित करने के लिए ज्ञानार्जन सबके लिए खुला नहीं था परन्तु वर्तमान और भविष्य की आवश्यकता यह है कि समाज को नियंत्रित करने के लिए सभी को पूर्ण ज्ञान से युक्त कर सभी के लिए ज्ञान को खोल दिया जाय। यही कारण था कि वेद को प्रतीकात्मक रूप में लिख कर गुरू-शिष्य परम्परा द्वारा उसकी व्याख्या की जाती रही थी जिससे राजा और समाज को नियंत्रण में रखा जा सके। विभिन्न भविष्यवक्ताओं के भविष्यवाणीयों के अनुसार ही सन् 1992-2012 ई0 के बीच जो कार्य सम्पन्न हुये और जो इस विश्व के नवसृजन के लिए नई घटना घटी वो निम्न प्रकार है।

01. द्वापर युग में आठवें अवतार श्रीकृष्ण द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य ”नवसृजन“ के प्रथम भाग ”सार्वभौम ज्ञान“ के शास्त्र ”गीता“ के बाद कलियुग में शनिवार, 22 दिसम्बर, 2012 से काल व युग परिवर्तन कर दृश्य काल व पाँचवें युग का प्रारम्भ, व्यवस्था सत्यीकरण और मन के ब्रह्माण्डीयकरण के लिए दसवें और अन्तिम अवतार-कल्कि महावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त द्वितीय और अन्तिम भाग ”सार्वभौम कर्मज्ञान“ और ”पूर्णज्ञान का पूरक शास्त्र“, ”विश्वशास्त्र“: द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज“ के रूप में व्यक्त हुआ।

02. जिस प्रकार सुबह में कोई व्यक्ति यह कहे कि रात होगी तो वह कोई नयी बात नहीं कह रहा। रात तो होनी है चाहे वह कहे या ना कहे और रात आ गई तो उस रात को लाने वाला भी वह व्यक्ति नहीं होता क्योंकि वह प्रकृति का नियम है। इसी प्रकार कोई यह कहे कि ”सतयुग आयेगा, सतयुग आयेगा“ तो वह उसको लाने वाला नहीं होता। वह नहीं ंभी बोलेगा तो भी सतयुग आयेगा क्योंकि वह अवतारों का नियम है। सुबह से रात लाने का माध्यम प्रकृति है। युग बदलने का माध्यम अवतार होते हैं। जिस प्रकार त्रेतायुग से द्वापरयुग में परिवर्तन के लिए वाल्मिकि रचित ”श्रीरामायण“ आया, जिस प्रकार द्वापरयुग से कलियुग में परिवर्तन के लिए महर्षि व्यास रचित ”महाभारत“ आया। उसी प्रकार प्रथम अदृश्य काल से द्वितीय और अन्तिम दृश्य काल व चैथे युग-कलियुग से पाँचवें युग-स्वर्णयुग में परिवर्तन के लिए शेष समष्टि कार्य का शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ सत्यकाशी क्षेत्र जो वाराणसी-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच का क्षेत्र है, से भारत और विश्व को अन्तिम महावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा मानवों के अनन्त काल तक के विकास के लिए व्यक्त किया गया है।

03. कारण, अन्तिम महावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ और ”आध्यात्मिक सत्य“ आधारित क्रिया ”विश्वशास्त्र“ से उन सभी ईश्वर के अवतारों और शास्त्रों, धर्माचार्यों, सिद्धों, संतों, महापुरूषों, भविष्यवक्ताओं, तपस्वीयों, विद्वानों, बुद्धिजिवीयों, व्यापारीयों, दृश्य व अदृश्य विज्ञान के वैज्ञानिकों, सहयोगीयों, विरोधीयों, रक्त-रिश्ता-देश सम्बन्धियों, उन सभी मानवों, समाज व राज्य के नेतृत्वकर्ताओं और विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के संविधान को पूर्णता और सत्यता की एक नई दिशा प्राप्त हो चुकी है जिसके कारण वे अधूरे थे।


व्यवस्था के परिवर्तन या सत्यीकरण का पहला प्रारूप और उसकी कार्य विधि

व्यवस्था के परिवर्तन या सत्यीकरण का पहला प्रारूप और उसकी कार्य विधि

उदाहरण के रूप में, यदि किसी शिक्षित व्यक्ति जिसे अंकगणित का ज्ञान हो, उसके समक्ष संख्या 5 लिख दिया जाये और उससे कहा जाये कि इस संख्या के आगे और पीछे की संख्या लिखें तो वह आसानी से उसे लिख देगा परन्तु अंकगणित का अज्ञानी ऐसा नहीं कर पायेगा। उसका सारा ध्यान केवल संख्या 5 पर ही टिका रह जायेगा क्योंकि वह संख्या पद्धति से अपरिचित है। अगर वह कुछ लिख भी देगा तो वह आवश्यक नहीं कि सत्य हो और उसमें सुधार की पूरी सम्भावना बनी रहेगी। समाज सुधार के क्षेत्र में भी यही बात है। हम एक समस्या देखते है फिर उसमें कुछ सुधार कर देते है। फल यह होता है कि कुछ समय बाद पुनः उसमें सुधार की आवश्यकता आ जाती है। 
जितने अधिक आॅकड़ों को विश्लेषित कर हम परिणाम को खोजेगें उतने ही सत्य परिणाम हमारे सामने आयेंगें। प्रस्तुत शास्त्र व्यक्त अधिकतम आॅकड़ों के व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण का शास्त्र है। दूसरे रूप में इसे धर्म ज्ञान का बैलेन्ससीट भी कह सकते है। इन सम्पूर्ण आॅकड़ों पर आधारित होकर व्यक्ति, समाज और विश्व राष्ट्र के लिए लिया गया निर्णय ही एक सत्य निर्णय हो सकता है। समाज सुधार के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द का कहना है कि-”तथाकथित समाज-सुधार के विषय में हस्तक्षेप न करना क्योंकि पहले आध्यात्मिक सुधार हुये बिना अन्य किसी भी प्रकार का सुधार हो नहीं सकता (राम कृष्ण मिशन, पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-29), भारत के शिक्षित समाज से मैं इस बात पर सहमत हूँ कि समाज का आमूल परिवर्तन करना आवश्यक है। पर यह किया किस तरह जाये? सुधारकों की सब कुछ नष्ट कर डालने की रीति व्यर्थ सिद्ध हो चुकी है। मेरी योजना यह है, हमने अतीत में कुछ बुरा नहीं किया। निश्चय ही नहीं किया। हमारा समाज खराब नहीं, बल्कि अच्छा है। मैं केवल चाहता हूँ कि वह और भी अच्छा हो। हमें असत्य से सत्य तक अथवा बुरे से अच्छे तक पहुँचना नहीं है। वरन् सत्य से उच्चतर सत्य तक, श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम तक पहुँचना है। मैं अपने देशवासियों से कहता हूँ कि अब तक जो तुमने किया, सो अच्छा ही किया है, अब इस समय और भी अच्छा करने का मौका आ गया है।“-(राम कृष्ण मिशन, जितने मत उतने पथ, पृष्ठ-46)
व्यक्ति हो या ज्ञानी, समाज हो या राज्य, देश हो या विश्व, समाज नेता हों या राजनेता सभी को अब यह जान लेना चाहिए कि विश्व एक परिवार है और उस परिवार का शास्त्र-”विश्वशास्त्र“ है। जब तक यह शास्त्र उपलब्ध नहीं था तब तक इस विश्व परिवार के एकीकरण का मार्ग नहीं खुला था, अब वह मार्ग मिल चुका है। कोई भी समाज निर्माण या युग परिवर्तन का कार्य एक क्षण का कार्य नहीं है। यह एक लम्बी अवधि की प्रक्रिया का कार्य है। इसे हम उन समाज सुधारकों के संस्थाओं के कार्य को देख कर अनुभव कर सकते है।
व्यवस्था परिवर्तन, एक राजनीतिक लुभावना वाला शब्द है। वह कैसे होगा, इसके लिए एक प्रारूप की आवश्यकता होती है अगर वह नहीं है तो व्यवस्था परिवर्तन चिल्लाने से नहीं होता। फिर व्यवस्था परिवर्तन किस बात का? मानव समाज को संचालित करने के लिए तो सिर्फ दो ही मूल व्यवस्था है-एक राजतन्त्र, जिसका युग जा चुका है। दूसरा-लोकतन्त्र, जिसका युग चल रहा है और यही अन्तिम व्यवस्था भी बनी रहेगी क्योंकि ब्रह्माण्डीय व्यवस्था भी लोकतन्त्र से ही चल रहा है और मनुष्य के मस्तिष्क से अन्ततः वही व्यक्त हो रहा है। लोकतन्त्र से हम राजतन्त्र में नहीं जा सकते इसलिए व्यवस्था परिवर्तन का अर्थ ही निरर्थक है।
आवश्यकता है वर्तमान लोकतन्त्र व्यवस्था को ही सत्य आधारित करने की जिसे व्यवस्था सत्यीकरण कहा जा सकता है। इस कार्य में हमें मानकशास्त्र की आवश्यकता है जिससे तोल कर यह देख सके कि इस लोकतन्त्र व्यवस्था में कहाँ सुधार करने से सत्यीकरण हो जायेगा। यह मानकशास्त्र ही ”विश्वशास्त्र“ है। सिर्फ मतदाता बनने व वोट डालने से ही लोकतन्त्र स्वस्थ नहीं हो सकता। उसके लिए देश व विश्व के पूर्ण ज्ञान की आवश्यकता होगी। इसलिए आवश्यक है कि प्रत्येक मतदाता ”विश्वशास्त्र“ के ज्ञान से युक्त हो।
अच्छा होता कि हमारे राजनेतागण कुछ दिनों के लिए सन्यास लेकर थोड़ा कुछ अध्ययन-चिंतन करते रहतेे ताकि उन्हें बार-बार लक्ष्य के लिए शब्दों का परिवर्तन न करना पड़ता। एक ही स्थिति में बहुत समय तक रहने पर बुद्धि बद्ध हो जाती है। एक-एक सीढ़ी चढ़कर, पहुँच गये-पहुँच गये चिल्लाने से अच्छा है कि अन्तिम सीढ़ी पर पर बैठकर चिल्लाना कि पहुँच गये।
चाहे कुछ हो यदि प्रारूप नहीं, तो न तो व्यवस्था परिवर्तन हो सकता है, न ही व्यवस्था सत्यीकरण हो सकता है, न ही सम्पूर्ण क्रान्ति। भीड़ से क्रान्ति नहीं सिर्फ हंगामा होता है। भीड़ में जोश होता है, होश नहीं।
इस मानक शास्त्र के प्रस्तुत हो जाने से व्यवस्था परिवर्तन की नहीं बल्कि व्यवस्था के सत्यीकरण का मार्ग खुल चुका है। जिसका व्यक्ति, समाज और विश्व राष्ट्र को आवश्यकता भी है। किसी एक विषय पर बहुत अधिक पुस्तक मस्तिष्क को भ्रमित ही करती है। यह शास्त्र प्रारम्भ से अन्त तक के विकास को क्रमबद्ध प्रस्तुत करता है जिससे हम सभी एक सत्य निर्णय करने में सक्षम हों और पूर्ण ज्ञान से युक्त हो जायें और हमारा कोई भी सुधार एक स्थायी, अच्छा और दूरगामी परिणाम देने वाला हो।
प्रश्न यह भी उठता है कि परिवार का मुखिया जिसके द्वारा परिवार का संचालन होता है, यदि वह परिवार के हित व विकास के विषय में कर्म न करता हो तो क्या परिवार का सदस्य उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकारी है या नहीं? यही बात देश को चलाने वाले संसद के विषय में भी है। यदि संसद स्वयं देशहित व जनहित के प्रति उदासीन हो जाये तो क्या जनता संसद को मार्गदर्शन देने का अधिकार नहीं रखती? यदि नहीं तो संविधान की धारा-51(ए) के अन्तर्गत नागरिक का मौलिक कत्र्तव्य की उपयोगिता क्या है? ध्यान रखने योग्य विषय यह है कि कोई भी चुना हुआ प्रतिनिधि सिर्फ उतने ही बड़े क्षेत्र का प्रतिनिधि होता है जिस क्षेत्र से वह चुना जाता है। भारत में ऐसा कोई प्रतिनिधि जनता से नहीं चुना जाता जो भारत का प्रतिनिधित्व करता हो और जब तक भारत का प्रतिनिधित्व करने वाला चुनाव नहीं होता या भारत की जनता का राष्ट्रीय मुद्दों पर विचार कर संसद के कत्र्तव्य का बोध कराने वाली स्वतन्त्र संस्था नहीं बन जाती, तब तक जनता को संसद को संविधान की धारा-51(ए) के अन्तर्गत नागरिक का मौलिक कत्र्तव्य के अनुसार न्यायालय व संसद के माध्यम से सरकार को मार्गदर्शन देने का कत्र्तव्य करना चाहिए जो उसका अधिकार भी है।