विश्वशास्त्र की भूमिका
(शास्त्र के यथार्थ समझ के लिए रिक्त मस्तिष्क की आवश्यकता)
मनुष्य का प्रत्येक बच्चा निष्पक्ष, पूर्ण, धर्मयुक्त, धर्मनिरपेक्ष और सर्वधर्मसमभाव रूप में ही होता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, बच्चे के पूर्ववर्ती संस्कार, विचारधारा, धारणाएँ व मान्यताएँ उसे बाँधते हुये अपूर्ण, पक्ष व सम्प्रदाययुक्त बना देती है और वह जीवन पर्यन्त उस छवि में बँधकर एक विशेष प्रवृत्ति के मनुष्य के रूप में व्यक्त होता है। यह उसी प्रकार होता है जिस प्रकार एक नया कम्प्यूटर जिसमें कोई भी एप्लीकेशन साफ्टवेयर न डाला गया हो और फिर उसमें किसी विशेष-विशेष कार्य के लिए एप्लीकेशन साफ्टवेयर डालना शुरू किया जाय तो वह कम्प्यूटर उस विशेष कार्य व प्रवृत्ति वाला बन जाता है जिसका उसमें एप्लीकेशन साफ्टवेयर डाला गया है।
प्रस्तुत ”विश्वशास्त्र: द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज“ मनुष्य के मस्तिष्क के लिए एक ऐसा साफ्टवेयर है जो उसे पूर्ण और सभी विचारों को समझने में सक्षम बनाता है। यह शास्त्र एक मानक शास्त्र है जिसमें प्रत्येक स्तर का मनुष्य अपनी छवि देख सकता है। उदाहरण स्वरूप जिस प्रकार हम किसी ठोस पदार्थ को किलो से तोलते हैं उसी प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क को तोलने का यह शास्त्र है। कभी भी ठोस पदार्थ से किलो को नहीं तोला जाता। हम यह नहीं कहते कि इतना ठोस पदार्थ बराबर एक किलो बल्कि हम यह कहते हैं कि एक किलो बराबर इतना ठोस पदार्थ।
इस शास्त्र को पढ़ने व समझने के पहले पाठकगण अपने मस्तिष्क को नये कम्प्यूटर की भाँति रिक्त कर लें, जिसका मैं निवेदन भी करता हूँ। किसी भी पूर्वाग्रह व संस्कार से ग्रसित होकर पढ़ने पर शास्त्र समझ के बाहर हो जायेगा क्योंकि शास्त्र बहुआयामी (मल्टी डायमेन्सनल) है अर्थात अनेक दिशाओं से एक साथ देखने पर ही इसके ज्ञान का प्रकाश आप में प्रकाशित होगा। ऐसा न करने पर आप शास्त्र को किसी विशेष विचार, मत व सम्प्रदाय का समझ बैठ जायेगें जो आपका विचार हो सकता है परन्तु इस शास्त्र का नहीं। शास्त्र के बहुत से शब्द इसके पाठकों को कठिन अर्थो वाले दिख सकते हैं। यह व्यक्ति के अपने चिन्तन स्तर की समस्या से ही व्यक्त हो रहा है। व्यक्तियों को इन कठिन शब्दों के अर्थों को सरल भाषा में समझना इस शास्त्र के क्रमिक अध्ययन व चिन्तन से ही सम्भव हो सकेगा। जन्म से मनुष्य सिखता ही चला जाता है। व्यक्ति को जहाँ पहुँचना होता है उसके लिए व्यक्ति को ही प्रयत्न करना होता है। पहुँच का वह स्थान व्यक्ति तक चल कर नहीं आता। इसलिए स्वयं को वहाँ पहुँचायें, यही लाभकारी होगा। आज तक शास्त्रों के प्रति दृष्टि यह रही है कि ये सब रहस्यवाद का विषय है ऐसा नहीं है। सिर्फ दृष्टि की बात है कि आप किस दृष्टि से उसे समझने का प्रयत्न करते हैं। भाषा के अक्षर व शब्द तो वही होते हैं सिर्फ चिन्तन स्तर और शब्दों का अर्थ ही उसे कठिन व आसान भाषा शैली में विभाजित करता है।
प्रस्तुत शास्त्र किसी धर्म-सम्प्रदाय विशेष की सर्वोच्चता का शास्त्र नहीं है बल्कि सभी को अपने-अपने धर्म-सम्प्रदाय और एक दूसरे के धर्म-सम्प्रदाय के प्रति समझ को विकसित करते हुये ज्ञान व कर्मज्ञान द्वारा एकीकरण का शास्त्र है। एक मात्र ज्ञान व कर्मज्ञान ही ऐसा विषय है जो मनुष्य को मनुष्य से जोड़ सकता है। क्योंकि इसका सम्बन्ध सीधे मस्तिष्क से है और कौन नहीं चाहेगा कि उसका मस्तिष्क ज्ञान-बुद्धि के लिए पूर्णता की ओर बढ़े। ज्ञान-कर्मज्ञान के अलावा जो कुछ है वह संस्कृति है और उस पर एकीकरण असम्भव ही नहीं नामुमकिन है। मैं यह कभी नहीं चाहता कि यह पृथ्वी एक रंगी हो जाये। जिस प्रकार प्रत्येक घर का मालिक अपने बाग में अनेक रंग व प्रकार का फूल इसलिए उगाता है कि उसके बाग की सुन्दरता और निखरे। उसी प्रकार परमात्मा ने इस पृथ्वी पर समय-समय पर उत्पन्न अनेक अवतारों, पैगम्बरों, दूतों इत्यादि के माध्यम से धर्म-सम्प्रदाय उत्पन्न कर मनुष्यों को युगों-युगों से संस्कारित व निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ किया है ताकि उसकी यह पृथ्वी रूपी बाग सुन्दर और रंगबिरंगी लगे और अब वह समय आ चुका है जिसमें मनुष्य को पूर्ण संस्कारित किया जाये। यह जानना आवश्यक है कि यह शास्त्र उस सर्वोच्च और अन्तिम मन स्तर पर जाकर मनुष्य को पूर्ण संस्कारित करने के लिए आविष्कृत किया गया है जैसे कोई व्यक्ति चाँद पर बैठकर अपने इस पृथ्वी रूपी घर को संयुक्त परिवार का रूप देने और बिखरे हुये परिवार के एकीकरण का प्रयास एक विचारधारा ”सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त“ द्वारा किया है।
यह शास्त्र वर्तमान तक के सभी अवतारों, महापुरूषों, धर्म-सम्प्रदाय प्रवर्तकों, राष्ट्रीय व वैश्विक विचार व्यक्त करने वाले सामाजिक-धार्मिक-राजनैतिक नेतृत्वकर्ताओं के सकारात्मक विचारों के समन्वय और उसके राष्ट्रीय व वैश्विक शासन प्रणाली के अनुसार स्थापना के लिए एवं मनुष्य जीवन में उसके व्यावहारीकरण का शास्त्र है। किसी भी एक अवतार, महापुरूष, धर्म-सम्प्रदाय प्रवर्तक, राष्ट्रीय व वैश्विक विचार व्यक्त करने वाले सामाजिक-धार्मिक-राजनैतिक नेतृत्वकर्ता के सकारात्मक विचार को लेकर समाज गठन व ”सम्पूर्ण क्रान्ति“ घटित नहीं हो सकती। उसके लिए चाहिए समन्वय। समन्वय का अर्थ ही है-”जिसमें सभी हों, और सभी में वो हो“। शास्त्र में ऐसे बहुत से विचार मिलेगें जो वर्तमान में सत्य व समझ में न दिखाई देती हो परन्तु वह मनुष्य के अपने कर्मो के प्रयोग और उससे प्राप्त ज्ञान के फलस्वरूप अन्त में सत्य सिद्ध होगीं क्योंकि यह शास्त्र सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त पर आधारित है जिससे मनुष्य बाहर नहीं है। इसी कारण से इस शास्त्र को ”अन्तिम ज्ञान का ज्ञान (The Knowledge of final knowledge)“ भी कहा गया है और यह भी कहा गया है ”सभी सर्वोच्च विचार एवं सर्वोच्च कर्म मेरी ओर ही आते है“
किसी भी अवतार-महापुरूष इत्यादि का सार्वभौम सत्य ज्ञान एक हो सकता है परन्तु उसके स्थापना की कला उस अवतार-महापुरूष इत्यादि के समय की समाजिक व शासनिक व्यवस्था के अनुसार अलग-अलग होती है, जो पुनः दुबारा प्रयोग में नहीं लायी जा सकती। वर्तमान तक ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जिससे यह सिद्ध होता हो कि उस अवतार-महापुरूष इत्यादि की कला को दुबारा प्रयोग कर कुछ सकारात्मक किया गया हो। इस प्रकार पुनर्जन्म और अवतार केवल मानसिक रूप से सिद्ध होता है न कि शारीरिक रूप से। उस अवतार-महापुरूष इत्यादि की कला, वेश-भूषा की नकल करने वाले को समर्थक या नकलची कहते हैं। जबकि उनके मानसिक स्तर को समझकर आगे काम करने वाले को उनका पुनर्जन्म और अवतार कहते हैं। स्वामी विवेकानन्द के पुनर्जन्म या अवतार को स्वामी विवेकानन्द के काम को आगे बढ़ाना होगा। श्रीकृष्ण के पुनर्जन्म या अवतार को श्रीकृष्ण के काम को आगे बढ़ाना होगा। केवल उनके रूप को धारण करना तो नकल या समर्थन करना ही कहा जायेगा।
किसी भी अवतार-महापुरूष इत्यादि के दर्शन या चित्र से अधिकतम लाभ तभी प्राप्त हो सकता है जब उनकी विचार व कृति का ज्ञान व समझ हो। उसी से मनुष्य का विकास सम्भव है। मैं यह चाहूँगा कि मुझसे अधिक महत्व इस ”विश्वशास्त्र“ नामक कृति को समाज दे क्योंकि इसी में उनका विकास है। यह भौतिक शरीर जिसके माध्यम से यह कार्य सम्पन्न हुआ वह तो एक दिन नष्ट हो जायेगा परन्तु यह कृति वर्तमान समाज के संसाधनों व विज्ञान की तकनीकों के सहारे बहुत अधिक समय तक रहेगी। इसे उसी प्रकार समझें जिस प्रकार वर्तमान भौतिक विज्ञान से आविष्कृत पंखा, बल्ब, मोबाइल, कम्प्यूटर इत्यादि का समाज उपयोग करता है न कि इसके आविष्कारकर्ता का दर्शन व चित्र की पूजा। अर्थात यह शास्त्र ही गुरू है न कि इसके आविष्कारक का शरीर। इस कारण से ही मैंने जिस शरीर का प्रयोग इस कार्य के लिए किया है, उसका वह एकमात्र रूप ही शास्त्र में दिया हूँ जो ”ज्ञान, कालबोध तथा शब्दब्रह्म“ प्राप्ति की उम्र 28 वर्ष की अवस्था का है। वर्तमान में मैं इससे बहुत दूर आ चुका हूँ जहाँ पहचान ही असम्भव है।
प्रत्येक मनुष्य के लिए 24 घंटे का दिन और उस पर आधारित समय का निर्धारण है और यह पूर्णतः मनुष्य पर ही निर्भर है कि वह इस समय का उपयोग किस गति से करता है। उसके समक्ष तीन बढ़ते महत्व के स्तर हंै- शरीर, धन/अर्थ और ज्ञान। इन तीनों के विकास की अपनी सीमा, शक्ति, गति व लाभ है। जिसे यहाँ स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूँ-
1. शरीर आधारित व्यापार- यह व्यापार की प्रथम व मूल प्रणाली है जिसमें शरीर के प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा व्यापार होता है। इससे सबसे कम व सबसे अधिक धन कमाया जा सकता है। परन्तु यह कम धन कमाने के लिए अधिक लोगों को अवसर तथा अधिक धन कमाने के लिए कम लोगों कांे अवसर प्रदान करता है। अर्थात् शरीर का प्रत्यक्ष प्रयोग कर अधिक धन कमाने का अवसर कम ही लोगों को प्राप्त होता है। यह प्रकृति द्वारा प्राप्त गुणों पर अधिक आधारित होती है। जो एक अवधि तक ही प्रयोग में लायी जा सकती है। क्योंकि शरीर की भी एक सीमा होती है। उदाहरण स्वरुप- किसान, मजदूर, कलाकार, खिलाड़ी, गायक, वादक, पहलवान इत्यादि। जिसमें अधिकतम संख्या कम कमाने वालों की तथा न्यूनतम संख्या अधिक कमाने वालों की है। शरीर आधारित व्यापारी हमेशा धन व ज्ञान आधारित व्यापारियों पर निर्भर रहते हैं। इस व्यापार में शरीर की उपयोगिता अधिक तथा धन व ज्ञान की उपयोगिता कम होती है।
2. धन/अर्थ आधारित व्यापार- यह व्यापार की दूसरी व मध्यम प्रणाली है जिसमें धन के प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा व्यापार होता है। इससे अधिक धन कमाया जा सकता है और उन सभी को अवसर प्रदान करता है जिनके पास धन होता है। उदाहरण स्वरुप- दुकानदार, उद्योगपति, व्यापारी इत्यादि। धन आधारित व्यापारी हमेशा शरीर व ज्ञान आधारित व्यापारियों पर निर्भर रहते हैं। इस व्यापार में धन की उपयोगिता अधिक तथा शरीर व ज्ञान की उपयोगिता कम होती है।
3. ज्ञान आधारित व्यापार- यह व्यापार की अन्तिम व मूल प्रणाली है जिसमें ज्ञान के प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा व्यापार होता है। इससे सबसे अधिक धन कमाया जा सकता है और उन सभी को अवसर प्रदान करता है जिनके पास ज्ञान होता है। उदाहरण स्वरुप- विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय एवं अन्य शिक्षा व विद्या अध्ययन संस्थान, शेयर कारोबारी, बीमा व्यवसाय, प्रणाली व्यवसाय, कन्सल्टेन्ट, ज्ञान-भक्ति-आस्था आधारित ट्रस्ट-मठ इत्यादि। ज्ञान आधारित व्यापारी हमेशा शरीर व धन आधारित व्यापारियों पर निर्भर रहते हैं। इस व्यापार में ज्ञान की उपयोगिता अधिक तथा शरीर व धन की उपयोगिता कम होती है।
शरीर के विकास के उपरान्त मनुष्य को धन के विकास की ओर, धन के विकास के उपरान्त मनुष्य को ज्ञान के विकास की ओर बढ़ना चाहिए अन्यथा वह अपने से उच्च स्तर वाले का गुलाम हो जाता है। बावजूद उपरोक्त सहित इस शास्त्र से अलग विचारधारा में होकर भी मनुष्य जीने के लिए स्वतन्त्र है। परन्तु अन्ततः वह जिस अटलनीय नियम-सिद्धान्त से हार जाता है उसी सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को ईश्वर कहते हैं और इसके अंश या पूर्ण रूप को प्रत्यक्ष या प्रेरक विधि का प्रयोग कर समाज में स्थापित करने वाले शरीर को अवतार कहते हैं। तथा इसकी व्याख्या कर इसे व्यक्ति में स्थापित करने वाले शरीर को गुरू कहते हैं। मनुष्य केवल प्रकृति के अदृश्य नियमों को दृश्य में परिवर्तन करने का माध्यम मात्र है। इसलिए मनुष्य चाहे जिस भी विचार में हो वह ईश्वर में ही शरीर धारण करता है और ईश्वर में ही शरीर त्याग देता है, इसे मानने या न मानने से ईश्वर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह उसी प्रकार है जैसे कोई किसी देश में रहे और वह यह न मानने पर अड़ा रहे कि वह उस देश का नहीं है या कोई स्वयं को यह समझ बैठे कि मेरे जैसा कोई ज्ञानी नहीं और यदि हो भी तो मैं नहीं मानता।
कोई अवतार किसी सम्प्रदाय, जाति, नारी, पुरूष इत्यादि में भेद-भाव से युक्त होकर कार्य नहीं करते, वे सम्पूर्ण मानव जाति को सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से जोड़ने के लिए कार्य करते हैं। जो मनुष्य विचारशील नहीं हैं वे पशुमानव हैं, जो विचारशील हैं वे मानव हैं। मानवों में भी जो व्यक्तिवादी हैं वे असुर-मानव तथा जो समाजवादी हैं वे देव-मानव हैं। वे मानव जो सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से युक्त हैं वे ईश्वर-मानव हैं। अवतारों का कार्य पशुमानव और मानव को ईश्वर-मानव तक उठाना होता है। अवतारों को किसी सम्प्रदाय या पूर्ववर्ती धर्म से जोड़ देना यह मानवों की अपनी दृष्टि होती है। अवतारों का लक्ष्य सदैव समाज में सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त की स्थापना रहा है। उनका लक्ष्य कभी भी ऐश्वर्य युक्त जीवन या नश्वर समाजिक विषय या रक्त-रिश्ता-धन सम्बन्ध से लगाव नहीं रहा है। शरीर धारण के धर्म के लिए इन सबकी आवश्यकता मात्र साधन स्वरूप अवश्य रहा है परन्तु लक्ष्य या साध्य स्वरूप कभी नहीं रहा है। चूँकि अवतार भी शरीरधारी ही होते हैं इसलिए समाज के मानव भी अपने-अपने प्रिय वस्तु के लगाव की भाँति उन्हें भी उसी में लिप्त दिखाई पड़ते हैं।
निराकार विचार के समान सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का भी अपना कोई गुण नहीं होता। जब वह पूर्णरूपेण किसी साकार शरीर से व्यक्त होता है तब उसका गुण एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म प्रेम, एकात्म कर्म, एकात्म समर्पण और एकात्म ध्यान के सर्वोच्च संयुक्त रूप में व्यक्त होता है। चूँकि पुनः इन गुणों का अलग-अलग कोई रूप नहीं होता इसलिए इन गुणों से युक्त करते हुये समाज के परिवर्तक और नियंत्रक ऋृषि-मुनि गणों ने मानक चरित्रों का साकार निरूपण या प्रक्षेपण किये। जैसे एकात्म ज्ञान व एकात्म वाणी से युक्त ब्रह्मा परिवार, एकात्म ज्ञान-एकात्म वाणी सहित एकात्म प्रेम व एकात्म कर्म से युक्त विष्णु परिवार, एकात्म ज्ञान-एकात्म वाणी-एकात्म प्रेम-एकात्म कर्म सहित एकात्म समर्पण व एकात्म ध्यान से युक्त शिव-शंकर परिवार। क्रमशः ये आदर्श मानक व्यक्ति चरित्र, आदर्श मानक सामाजिक व्यक्ति चरित्र व आदर्श मानक वैश्विक व्यक्ति चरित्र के रूप में प्रस्तुत किये गये। ये प्रस्तुतीकरण स्वतन्त्र नहीं हैं बल्कि एक दूसरे में समाहित और उत्तरोत्तर, उच्चतर स्थिति के हैं अर्थात ब्रह्मा, विष्णु में तथा विष्णु, शिव-शंकर परिवार में समाहित हैं। इस प्रस्तुतीकरण से ही सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित अवतारों का सनातन धर्म, हिन्दूधर्म के रूप में अलग हो नये पहचान को प्राप्त किया। फलस्वरूप अवतारों को भी इन्हीं मानक चरित्रों के अवतार के रूप में जाना जाने लगा और अवतारों का वर्तमान में अवनति होकर केवल हिन्दू धर्म का माना जाने लगा। इस प्रकार अवतारों द्वारा व्यक्त शास्त्र-साहित्य जो मानव समाज के लिए थी उसे हिन्दू धर्म का समझा जाने लगा जिसका उदाहरण श्री कृष्ण द्वारा व्यक्त ”गीता“ है। उपरोक्त मानक चरित्रों के क्रम में आदर्श मानक व्यक्ति चरित्र के पूर्णावतार श्रीराम तथा आदर्श मानक सामाजिक व्यक्ति चरित्र (व्यक्तिगत प्रमाणित आदर्श मानक वैश्विक व्यक्ति चरित्र) के पूर्णावतार श्रीकृष्ण हो चुके हैं। अब केवल अन्तिम सार्वजनिक प्रमाणित आदर्श मानक वैश्विक व्यक्ति चरित्र के पूर्णावतार ही शेष हैं जिसका विस्तृत विवरण इस शास्त्र में प्रस्तुत किया गया है। ”विश्वशास्त्र“ को ”गीता“ का ही विस्तार और वृक्ष शास्त्र कह सकते हैं। ”गीता“ में चित्र नहीं थे इसलिए लोगों को रूचिकर नहीं लगी इसलिए ”विश्वशास्त्र“ में चित्र भी लगाये गये हैं। ”गीता“ व्यक्तिगत प्रमाणित विश्वशास्त्र है जबकि ”विश्वशास्त्र“ सार्वजनिक प्रमाणित विश्वशास्त्र है। सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त की ओर मनुष्य को ले जाने वाले पुस्तक को ही शास्त्र कहा जाता है।
जिस प्रकार वर्तमान व्यावसायिक-समाजिक-धार्मिक इत्यादि मानवीय संगठन में विभिन्न पद जैसे प्रबन्ध निदेशक, प्रबन्धक, शाखा प्रबन्धक, कर्मचारी, मजदूर इत्यादि होते हैं और ये सब उस मानवीय संगठन के एक विचार जिसके लिए वह संचालित होता है, के अनुसार अपने-अपने स्तर पर कार्य करते हैं और वे उसके जिम्मेदार भी होते हैं। उसी प्रकार यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक ईश्वरीय संगठन है जिसमें सभी अपने-अपने स्तर व पद पर होकर जाने-अनजाने कार्य कर रहें हैं। यदि मानवीय संगठन का कोई कर्मचारी दुर्घटनाग्रस्त होता है तो उसका जिम्मेदार उस मानवीय संगठन का वह विचार नहीं होता बल्कि वह कर्मचारी स्वयं होता है। इसी प्रकार ईश्वरीय संगठन में भी प्रत्येक व्यक्ति की अपनी बुद्धि-ज्ञान-चेतना-ध्यान इत्यादि गुण ही उसके कार्य का फल देती है जिसका जिम्मेदार वह व्यक्ति स्वयं होता है न कि ईश्वरीय संगठन का वह सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त। मानवीय संगठन का विचार हो या ईश्वरीय संगठन का सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त यह दोनों ही कर्मचारी के लिए मार्गदर्शक नियम है। जिस प्रकार कोई मानवीय संगठन आपके पूरे जीवन का जिम्मेदार हो सकता है उसी प्रकार ईश्वरीय संगठन भी आपके पूरे जीवन का जिम्मेदार हो सकता है। जिसका निर्णय आपके पूरे जीवन के उपरान्त ही हो सकता है परन्तु आपके अपनी स्थिति के जिम्मेदार आप स्वयं है। जिस प्रकार मानवीय संगठन में कर्मचारी समर्पित मोहरे की भाँति कार्य करते हैं उसी प्रकार ईश्वरीय संगठन में व्यक्ति सहित मानवीय संगठन भी समर्पित मोहरे की भाँति कार्य करते हैं, चाहे उसका ज्ञान उन्हें हो या न हो। और ऐसा भाव हमें यह अनुभव कराता है कि हम सब जाने-अनजाने उसी ईश्वर के लिए ही कार्य कर रहें है जिसका लक्ष्य है- ईश्वरीय मानव समाज का निर्माण जिसमें जो हो सत्य हो, शिव हो, सुन्दर हो और इसी ओर विकास की गति हो।
ईश्वर सम्बन्धित विचार और उस पर आधारित पूजास्थल, प्रवचन इत्यादि अब एक आयोजन व मनुष्य के अपने स्वयं के सामाजिक छवि बदलने का रूप ले चुका है। अब आवश्यकता यह है कि उसे और भी दृढ़ता प्रदान करने के लिए व्यक्ति को पूर्ण ज्ञान से युक्त कर दिया जाये जो ज्ञान-कर्मज्ञान से ही आ सकता है और इसी से सभी धर्म व जाति का सत्य कल्याण हो सकता है। जिस वृक्ष से शाखाएँ निकल चुकी हों पुनः तने में वापस नहीं भेजी जा सकती। आवश्यकता यह है कि हम उसके तने को और मजबूती प्रदान करें। इसी प्रकार ईश्वर सम्बन्धित व्यापार न तो कभी बन्द हो सकता है और न ही बन्द होता है जिसके सामने सभी व्यापार छोटे व अस्थिर हैं।
यह युग आॅकड़ो (डाटा), सूचनाओं, आरेख, ग्राॅफ व इंजिनियरिंग का युग है इसलिए यह शास्त्र भी उसी रूप में प्रस्तुत है। क्योंकि युग का बहुमत मन (अधिकतम मन) जिस ओर बढ़ चुका होता है ज्ञान को गति देने के लिए उसी कला का प्रयोग किया जाता है। इसलिए उन लोगों से मैं क्षमा चाहता हूँ जो यह उम्मीद किये होगें कि शास्त्र सदैव कविताओं, छन्दों, दोहों व संस्कृत भाषा में ही हो सकता है। संस्कृत भाषा में शास्त्रीय मन्त्रों के गायन के उस शक्ति को मैं स्वीकार करता हूँ जिसके सुनने पर रोम-रोम झंकरित हो उठता है। हो सकता है ऐसा मुझे इसलिए लगता हो कि अनेकों जन्मों से यह मेरे पूर्व संस्कारों में समाहित हो। भाषा तो ज्ञान को व्यक्त करने का माध्यम मात्र है। कई भाषाओं का ज्ञानी होना अच्छी बात है लेकिन उससे भी अच्छी बात ज्ञान का ज्ञानी होना है। मैं किसी भी भाषा का ज्ञानी नहीं हूँ इसलिए इस शास्त्र में व्याकरण व मात्रात्मक त्रुटियाँ मिलेगीं, उसे पकड़ने से आपके भाषा ज्ञान की विद्वता अवश्य सिद्ध हो सकती है परन्तु शास्त्र जिस दिशा की ओर आपको निर्देश कर रहा है उसे समझना अधिक उपयोगी है। प्रस्तुत शास्त्र में वर्तमान विश्व शासन व्यवस्था के अनुसार स्थापना स्तर तक का प्रक्रिया व विश्लेषण उपलब्ध है। जिसके 90 प्रतिशत भाग से सभी परिचित ही हैं। शेष 10 प्रतिशत भाग दृष्टि, काल (समय), ध्यान व चेतना की स्थिति और ज्ञान-कर्मज्ञान का वर्तमान विश्व शासन व्यवस्था के अनुसार रूपान्तरण है और बिखरे हुये ज्ञान सूत्रों को संगठित रूप देते हुये कार्य योजना की दिशा व्यक्त की गयी है। यह ऐसे था कि घर बनाने के लिए सारा निर्माण कार्य पहले ही पूर्ण किया जा चुका था सिर्फ छत डालना था, यह शास्त्र वही छत है जो पूर्ण किया गया है और अब इस छत के नीचे और भी सुन्दरता के लिए सम्बन्धित विषय के विशेषज्ञों के सहयोग के लिए सदा ही स्वागत रहेगा। अपनी यात्रा व वार्ता के दौरान मेरे सामने यह भी प्रश्न आया कि इस शास्त्र में अधिकतम तो पहले से ही विद्यमान विषयों को ही दिया गया है तो फिर आपका अपना क्या है? तो मैं उन लोगों से यह कहना चाहता हूँ कि मेरा इसमें ”समझ व एकत्रीकरण“ नाम की कला व विषय है। इसे आप सब इस प्रकार समझ सकते हैं। आपकी जमीन थी, ईंट था, बालू, सीमेण्ट, छड़ सब आपका था। आप कुछ नहीं कर पा रहे थे। एक व्यक्ति आया, उसने उसे संगठित करने की योजना बनाया, एक रूप दिया और मकान बना दिया। फिर घर किसका हुआ? घर भी तो आपका ही हुआ। यह शास्त्र विज्ञान की भाँति ज्ञान-कर्मज्ञान का एक क्रमिक अध्ययन का शास्त्र है, जो आपका ही है।
समाज के व्यक्ति यह भी कह सकते हैं कि मैं ”भारत“ के संस्कृति व संस्कारों के पूर्वाग्रह से ग्रसित हूँ। तो मैं उन लोगों से यह कहना चाहता हूँ कि मैं उस ”भारत“ के संस्कृति व संस्कारों के पूर्वाग्रह से ग्रसित हूँ जिसने विश्व का सर्वप्रथम, प्राचीन और वर्तमान तक अकाट्य ”क्रिया-कारण“ दर्शन कपिल मुनि के माध्यम से दिया जिसे आज का दृश्य विज्ञान (पदार्थ या भौतिक विज्ञान) ने भी आइन्सटाइन के माध्यम से E=mc2 देकर और दृढ़ता ही प्रदान की है। मैं उस भारत के पूर्वाग्रह से ग्रसित हूँ जहाँ ऐसी प्रत्येक वस्तु जिससे मनुष्य जीवन पाता है और ऐसी प्रत्येक वस्तु जिससे मनुष्य का जीवन संकट में पड़ सकता है उसे देवता माना जाता है। इस प्रकार हमारे भारत में 33 करोड़ देवता पहले से ही हैं। इस प्रकार हमारा भारत सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ही देवता और ईश्वर के रूप में देखता व मानता है और इसकी व्यवस्था व विकास हेतू कर्म करता रहा है। मैं उस ”भारत“ के पूर्वाग्रह से ग्रसित हूँ जिसने ”शून्य“ व ”दशमलव“ दिया जिस पर विज्ञान की भाषा गणित टीकी हुई है। मैं गर्व से कहता हूँ कि मैं उस ”भारत“ के संस्कृति व संस्कारों के पूर्वाग्रह से ग्रसित हूँ जिसका अपनी भाषा में नाम ”भारत“ है तथा विश्वभाषा में नाम INDIA है। मैं INDIA का विरोध नहीं करता बल्कि भारत को विश्वभारत बनाकर नाम INDIA को पूर्णता प्रदान करना चाहता हूँ। मैं संकुचन में नहीं बल्कि व्यापकता में विश्वास करता हूँ। मैं अंश में नहीं बल्कि पूर्णता, समग्रता व सार्वभौमिकता में विश्वास करता हूँ। समग्र ब्रह्माण्ड निरन्तर फैल रहा है। मानव जाति को भी अपने मस्तिष्क और हृदय को फैला कर विस्तृत करना होगा । तभी विकास, शान्ति, एकता व स्थिरता आयेगी। तो मैं उन लोगों से कहना चाहता हूँ कि भारत को समझने के लिए ”भारत माता“ में जन्म लेना पड़ता है और ”भारत माता“ आलीशान कोठीयों में नहीं गाँवों, झोपड़ियों व जंगलों में मिलती हैं और वहीं जाना पड़ता है। इतिहास साक्षी है ऐसा ही हुआ है। केवल पुस्तकों को पढ़कर भारत को जानना असम्भव है। भारत की समझ कोई प्रापर्टी (धन-दौलत) नहीं जो विरासत में ले ली जाये, यह अनेक जन्मों का फल होता है। लोगों का ऐसा भी कहना है कि जब यह ”विश्वशास्त्र“ है तो इसमें भारत के बाहर के देशों के दार्शनिकों को स्थान क्यों नहीं दिया गया? इस प्रश्न के उत्तर में मैं यह कहना चाहता हूँ कि ”विश्वशास्त्र“ एकीकृत सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का शास्त्र है न कि विचारों का। मनुष्य समाज में विचार आधारित चाहे जितनी बड़ी क्रान्ति या समर्थन क्यों न प्राप्त कर लिया जाये वह सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त नहीं हो सकता, वह एक घटना अवश्य हो सकती है। संसार के सभी दार्शनिक यदि अपने दर्शन को सार्वभौम एकीकृत करेंगे तो उन्हें भारतीय दर्शन में ही अपना अन्तिम संस्कार करवाना पड़ेगा। विचारों की मृत्यु ही सत्य है अर्थात सत्य, एक विचार नहीं बल्कि आत्मसात् करने का विषय है।
सन् 1893 से सन् 1993 के 100 वर्षो के समय में विश्व के बौद्धिक शक्ति को जिन्होंने सबसे अधिक हलचल दी वे हैं- धर्म की ओर से स्वामी विवेकानन्द और धार्मिकता की ओर से आचार्य रजनीश ”ओशो“। मनुष्य जिस प्रकार भौतिक विज्ञान के नवीन आविष्कारों को आसानी से ग्रहण करता है उसी प्रकार धर्म-आध्यात्म-दर्शन के नवीन आविष्कारों को भी मनुष्य को ग्रहण करना चाहिए, तभी मानसिक-आध्यात्मिक स्वतन्त्रता का अनुभव हो सकेगा। अन्यथा पूर्ण शारीरिक गुलामी का समय बीत चुका, आर्थिक गुलामी का काल चल रहा है और मानसिक गुलामी के काल चक्र में मनुष्य फँस जायेगा। स्वामी विवेकानन्द जी का कहना था-”उसी मूल सत्य की फिर से शिक्षा ग्रहण करनी होगी, जो केवल यहीं से, हमारी इसी मातृभूमि से प्रचारित हुआ था। फिर एक बार भारत को संसार में इसी मूल तत्व का-इसी सत्य का प्रचार करना होगा। ऐसा क्यों है? इसलिए नहीं कि यह सत्य हमारे शास्त्रों में लिखा है वरन् हमारे राष्ट्रीय साहित्य का प्रत्येक विभाग और हमारा राष्ट्रीय जीवन उससे पूर्णतः ओत-प्रोत है। इस धार्मिक सहिष्णुता की तथा इस सहानुभूति की, मातृभाव की महान शिक्षा प्रत्येक बालक, स्त्री, पुरुष, शिक्षित, अशिक्षित सब जाति और वर्ण वाले सीख सकते हैं। तुमको अनेक नामों से पुकारा जाता है, पर तुम एक हो।“ (जितने मत उतने पथ, रामकृष्ण मिशन, पृष्ठ-39)। आचार्य रजनीश ”ओशो“ का कहना था-कृष्ण का महत्व अतीत के लिए कम भविष्य के लिए ज्यादा है। सच ऐसा है कि कृष्ण अपने समय से कम से कम पाँच हजाार वर्ष पहले पैदा हुये। सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय से पहले पैदा होते हैं और सभी गैर महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बाद पैदा होते हैं। बस महत्वपूर्ण और गैर महत्वपूर्ण में इतना फर्क है और सभी साधारण व्यक्ति अपने समय के साथ पैदा होते हैं महत्वपूर्ण व्यक्ति को समझना आसान नहीं होता। उसका वर्तमान और अतीत उसे समझने में असमर्थता अनुभव करता है जब हम समझने योग्य नहीं हो पाते तब हम उसकी पूजा शुरु कर देते हैं या तो हम उसका विरोध करते हैं। दोनों पूजाएं हैं एक मित्र की एक शत्रु की।“, ”इस देश को कुछ बाते समझनी होगी। एक तो इस देश को यह बात समझनी होगी कि तुम्हारी परेशानियों, तुम्हारी गरीबी, तुम्हारी मुसीबतों, तुम्हारी दीनता के बहुत कुछ कारण तुम्हारे अंध विश्वासों में है, भारत कम से कम डेढ़ हजार साल पिछे घिसट रहा है। ये डेढ़ हजार साल पूरे होने जरूरी है। भारत को खिंचकर आधुनिक बनाना जरूरी है। मेरी उत्सुकता है कि इस देश का सौभाग्य खुले, यह देश भी खुशहाल हो, यह देश भी समृद्ध हो। क्योंकि समृद्ध हो यह देश तो फिर राम की धुन गुंजे, समृद्ध हो यह देश तो फिर लोग गीत गाँये, प्रभु की प्रार्थना करें। समृद्ध हो यह देश तो मंदिर की घंटिया फिर बजे, पूजा के थाल फिर सजे। समृद्ध हो यह देश तो फिर बाँसुरी बजे कृष्ण की, फिर रास रचे! यह दीन दरिद्र देश, अभी तुम इसमें कृष्ण को भी ले आओंगे तो राधा कहाँ पाओगे नाचनेवाली? अभी तुम कृष्ण को भी ले आओगें, तो कृष्ण बड़ी मुश्किल में पड़ जायेगें, माखन कहाँ चुरायेगें? माखन है कहाँ? दूध दही की मटकिया कैसे तोड़ोगे? दूध दही की कहाँ, पानी तक की मटकिया मुश्किल है। नलों पर इतनी भीड़ है! और एक आध गोपी की मटकी फोड़ दी, जो नल से पानी भरकर लौट रही थी, तो पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा देगी कृष्ण की, तीन बजे रात से पानी भरने खड़ी थी नौ बजते बजते पानी भर पायी और इन सज्जन ने कंकड़ी मार दी। धर्म का जन्म होता है जब देश समृद्ध होता है। धर्म समृद्ध की सुवास है। तो मैं जरूर चाहता हँू यह देश सौभाग्यशाली हो लेकिन सबसे बड़ी अड़चन इसी देश की मान्यताएं है। इसलिए मैं तुमसे लड़ रहा हँू। तुम्हारे लिए।“
वर्तमान में जीने का अर्थ होता है-विश्व ज्ञान जहाँ तक बढ़ चुका है वहाँ तक के ज्ञान से अपने मस्तिष्क को युक्त करना। तभी डेढ़ हजार वर्ष पुराने हमारे मस्तिष्क का आधुनिकीकरण हो पायेगा। सिर्फ वर्तमान में तो पशु रहकर कर्म करते हैं। यह शास्त्र मनुष्य के मस्तिष्क के आधुनिकीकरण का शास्त्र है या विज्ञान की भाषा में कहें तो मस्तिष्क के आधुनिकीकरण का साफ्टवेयर या माइक्रो चिप्स (Integrated Circuit - IC) है। वर्तमान की अब नवीनतम परिभाषा है-पूर्ण ज्ञान से युक्त होना और कार्यशैली की परिभाषा है-भूतकाल का अनुभव, भविष्य की आवश्यकतानुसार पूर्णज्ञान और परिणाम ज्ञान से युक्त होकर वर्तमान समय में कार्य करना।
अपने सम्पर्को व समाज के व्यक्तियों से मुझे यह भी सूचना प्राप्त हुई कि दुनिया बहुत तेज (फास्ट) हो गई है। 1500 पृष्ठ का पुस्तक पढ़ने का समय किसके पास है? मुझे बहुत ही आश्चर्य होता है। एक तरफ मनुष्य के पूरे मस्तिष्क को आधुनिक करना है जिसके न होने से वह अपने कर्मो का जिम्मेदार ईश्वर को बनाता है, दूसरी तरफ उसे पढ़ने का समय नहीं है। तो मैं उनसे कहता हूँ मार्ग या रास्ता बनाने वाला, मार्ग इसलिए बनाता है कि लोग उसपर चलकर अपनी मंजिल तय करेगें। बस उसका इतना ही धर्म होता है। चलने वाला अगर न चले तो मार्ग बनाने वाला दोषी नहीं होता और वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त भी होता है। मैंने सिर्फ मार्ग बनाया है जो इस शास्त्र के रूप में आपके सामने है। हाँ इतना जरूर करूँगा कि मार्ग बन गया है इसकी सूचना समाज में अधिकतम क्षेत्र तक पहुँचाने की कोशिश करूँगा। मेरा यही कर्म है जिसे मैं करूँगा। एक व्यक्ति सामान्यतः यदि स्नातक (ग्रेजुएशन) तक पढ़ता है तो वह कितने पृष्ठ पढ़ता होगा और क्या पाता है? विचारणीय है। एक व्यक्ति इंजिनियर व डाॅक्टर बनने तक कितना पृष्ठ पढ़ता है? यह तो होती है कैरियर की पढ़ाई इसके अलावा कहानी, कविता, उपन्यास, फिल्म इत्यादि के पीछे भी मनुष्य अपना समय मनोरंजन के लिए व्यतीत करता है। और सभी एक चमत्कार के आगे नतमस्तक हो जाते हैं तो पूर्ण मानसिक स्वतन्त्रता कहाँ है? विचारणीय विषय है। वैसे भी मैं यहाँ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह शास्त्र तो ज्ञान-कर्मज्ञान का शास्त्र है जो प्रत्येक व्यक्ति की वर्तमान की आवश्यकता है और उसकी महत्ता धीरे-धीरे ही सही परन्तु भविष्य में बढ़ती ही जायेगी। मैंने जहाँ तक देखा है कि ऐसे व्यक्ति जिनका धनोपार्जन व्यवस्थित चल रहा है वे ज्ञान की आवश्यकता या उसके प्राप्ति की आवश्यकता के प्रति रूचि नहीं लेते परन्तु वे भूल जाते हैं कि ज्ञान की आवश्यकता तो उन्हें ज्यादा है जिनके सामने भविष्य पड़ा है और उन्हें आवश्यकता है जो देश-समाज-विश्व के नीति का निर्माण करते हैं। मैंने एक आधार तैयार किया है जिससे आने वाली पीढ़ी और विश्व निर्माण-विकास-विस्तार के चिन्तक दोनों को एक दिशा प्राप्त हो सके। वे जो मशीनवत् लग गये हैं वे जहाँ लगे हैं सिर्फ वहीं लगे रहें, आखिर में वे भी तो संसार के विकास में ही लगे है उन्हें न सही उनके बच्चों को तो ज्ञान की जरूरत होगी। जिसके लिए वे एक लम्बा समय और धन उनके ऊपर खर्च करते हैं। मेरा मानना है कि गरीबी, बेरोजगारी इत्यादि का बहुत कुछ कारण ज्ञान, ध्यान, चेतना जैसे विषयों का मनुष्य के अन्दर अभाव होने से ही होता है। मनुष्य जीवन पर्यन्त रोजी-रोटी, धनोपार्जन इत्यादि के लिए भागता रहता है परन्तु यदि मात्र 6 महीने वह ज्ञान, ध्यान, चेतना जैसे विषयों पर पहले ही प्रयत्न कर ले तो उसके सामने विकास के अनन्त मार्ग खुल जाते हैं। ज्ञान, ध्यान, चेतना की यही उपयोगीता है जिसे लोग निरर्थक समझते हैं। बचपन से अनेक वर्षो तक माता-पिता-अभिभावक अपने बच्चों के विद्यालय में धन भेजते हैं, बच्चा वहाँ से कौन सा सामान लाता है, विचारणीय विषय है?
तेज इलेक्ट्रानिक संचार माध्यम के मोबाइल व इन्टरनेट के इस दुनिया में यह भी देखने को मिलता है कि लड़के-लड़कीयाँ अनेकांे लड़के-लड़कीयाँ से बात करते हुये स्वयं को कृष्ण-गोपीयों के भाव में देखने लगते हैं परन्तु उन्हें जानना चाहिए कि कृष्ण-गोपियों का भाव सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं था। कृष्ण केवल गोपियांे से बात ही नहीं करते थे बल्कि उन्हें एकात्म की सर्वोच्च अनुभूति का अनुभव भी कराते थें साथ ही कृष्ण व्यक्तिगत रूप से योगेश्वर अर्थात सभी योगो की विधि से युक्त, मित्र, प्रेमी, समन्वयी इत्यादि तथा सामाजिक रूप से राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, दार्शनिक, नवसृजन करने के लिए सम्यक कर्म, सम्यक ज्ञान व ध्यान इत्यादि गुणों से भी युक्त थे। इसलिए उन लड़के-लड़कीयाँे से विशेष निवेदन हैं कृष्ण के अपने लिए उपयोगी एक अंश गुण को धारण कर न बल्कि सम्पूर्ण कृष्ण बनने की ओर बढ़े तो उनके लिए भी तथा राष्ट्र के लिए भी उपयोगी होगा।
इस छोटे से कार्य को सम्पन्न करने में सबसे आसान बात यह थी कि प्रत्येक मनुष्य अपनी-अपनी आवश्यकताओं को प्राप्त करने के लिए इतना अधिक व्यस्त था कि वह व्यापक सार्वजनिक सोच से बहुत दूर हो चुका था। जो नौकरी पेशा थे वे कार्य किये, वेतन लिए और शेष समय वेतन वृद्धि और उससे सम्बन्धित चर्चा में ही व्यस्त रहते थे। जो विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर-लेक्चरर थे वे केवल अपना कर्तव्य निर्वाह कर रहे थे। वे विचारक थे परन्तु खोज के लिए त्यागी न थे। जो विद्यार्थी थे वे उतना ही ज्ञान प्राप्त इसलिए कर रहे थे जितने से वे एक अच्छा कैरियर प्राप्त कर अपने सुनहरे सपनों को साकार कर सकें। जो धर्माचार्य थे वे केवल वही पुराने शास्त्रों पर ही व्याख्यान करने में व्यस्त थे। जो राजनेता थे उन्हें सिर्फ वोट बैंक व पद की चिन्ता थी और आम जनता चुपचाप सभी को ढोने में व्यस्त थी, जितना वजन लाद दो सब ढोने के लिए तैयार और उम्मीद सरकार से। समय बदल चुका है अब विश्व-भारत को नये महापुरूष की आवश्यकता है। जो जिस विषय के लिए अपना समय खर्च करता है, समय भी उसी विषय में उसे फल देता है। मेरे जीवन की यह एक अलग यात्रा इसी शास्त्र के पीछे समय खर्च करने में लगी और समय ने फलरूप से यह शास्त्र दिया है।
यह पृथ्वी, मन्दिर रूपी मेरा घर है जहाँ सोने व भोजन के लिए गुरूद्वारा है, समय से जोड़ने के लिए मस्जिद की पुकार है, प्रेम व कर्म करने के लिए सारी पृथ्वी है और गलती हो तो प्रायश्चित करने के लिए गिरजाघर (चर्च) है। ऐसे घर में कौन नहीं रहना चाहेगा? मैं तो इस घर में आने के लिए हजारों वर्षो से प्रतीक्षा कर रहा था और अब मैं आकर संतुष्ट, सुखी और मुक्ति की कामना के लिए आश्वस्त हूँ। अब आने वाले समय में जब भी एक आदर्श वैश्विक समाज का निर्माण करना हो तो किसी भी देश या विश्व के लिए राष्ट्रीय-वैश्विक गीत या गान ऐसा होना चाहिए जो नागरिकों में कत्र्तव्य और जोश की भावना का संचार करने वाली हो, न कि गुणगान, अभिनन्दन, भक्ति, हीनता, भाग्यवाद और अकर्मण्यता की भावना भरने वाली। अपराधिक कानून शारीरिक, आर्थिक व मानसिक अपराध के बढ़ते क्रम में कड़े दण्ड देने वाली और न्याय समय सीमा में बद्ध हो। इसी आधार पर नागरिको के उनके विकास के लिए विशेष अधिकार प्राप्त हो जो स्त्री-पुरूष के भेद-भाव से मुक्त हो। साथ ही पूर्णज्ञान का ज्ञानार्जन सबके लिए खुला हो। सभी जीवों की भाँति मनुष्य को भी भोजन का जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त हो। साथ ही ऐसे तमाम बिन्दुओं को खोला जाय जहाँ धन के आदान-प्रदान की गति बाधित हो रही हो या इकट्ठा हो रहा हो क्योंकि आदान-प्रदान ही विकास है, रूकना ही विनाश है।
”विश्वशास्त्र“, विकास क्रम के उत्तरोत्तर विकास के क्रमिक चरणों के अनुसार लिखित है जिससे एक प्रणाली के अनुसार पृथ्वी पर हुए सभी व्यापार को समझा जा सके। फलस्वरूप मनुष्य के समक्ष व्यापार के अनन्त मार्ग खुल जाते हैं। किसी भी सिनेमा अर्थात फिल्म को बीच-बीच में से देखकर डाॅयलाग की भावना व कहानी को पूर्णतया नहीं समझा जा सकता। मनुष्य समाज में यही सबसे बड़ी समस्या है कि व्यक्ति कहीं से कोई भी विचार या वक्तव्य या कथा उठा लेता है और उस पर बहस शुरू कर देता है। जबकि उसके प्रारम्भ और क्रमिक विकास को जाने बिना समझ को विकसित करना असम्भव होता है। ज्ञान सूत्रों का संकलन और उसे चार वेदों में विभाजन, उसे समझने-समझाने के लिए उपनिषद्, पुराण इत्यादि के वर्गीकरण व क्रमिक विकास का कार्य सदैव चलता रहा है। काल और युग के अनुसार यह कार्य सदैव होता रहा है। जिससे समाज के सत्यीकरण का कार्य होता रहा है। सामाजिक विकास के क्षेत्र में परिवर्तन, देश-काल के परिस्थितियों के अनुसार किया जाता रहा है जबकि सत्यीकरण मूल सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से जोड़कर किया जाने वाला कार्य है। सत्यीकरण, अवतारों की तथा परिवर्तन मनुष्यों की कार्य प्रणाली है। इस क्रम में प्रयोग किया गया शास्त्र, अपने समस्त पिछले शास्त्रों का समर्थन व आत्मसात् करते हुए ही होता है, न कि विरोध। किसी भी विषय की शक्ति सीमा निर्धारित करना, उसका विरोध नहीं होता बल्कि उसे और आगे विकसित करने के बिन्दु को निर्धारित करता है।
अधिकतम व्यक्ति ऐसा सोचते हैं कि ज्ञान का अन्त नहीं हो सकता और व्यक्ति ऐसा भी मानते हैं कि जिसका जन्म (प्रारम्भ) हुआ है उसका मृत्यु (अन्त) भी होता है। इस प्रकार यदि ज्ञान का प्रारम्भ हुआ है तो उसका अन्त भी होगा। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी का कहना है कि ”विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं है। ज्योंही कोई विज्ञान शास्त्र पूर्ण एकता तक पहुँच जायेगा, त्योंहीं उसका आगे बढ़ना रुक जायेगा क्योंकि तब तो वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर चुकेगा। उदाहरणार्थ रसायनशास्त्र यदि एक बार उस एक मूल द्रव्य का पता लगा ले, जिससे वह सब द्रव्य बन सकते हैं तो फिर वह और आगे नहीं बढ़ सकेगा। पदार्थ विज्ञान शास्त्र जब उस एक मूल शक्ति का पता लगा लेगा जिससे अन्य शक्तियां बाहर निकली हैं तब वह पूर्णता पर पहुँच जायेगा। वैसे ही धर्म शास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त हो जायेगा जब वह उस मूल कारण को जान लेगा। जो इस मत्र्यलोक में एक मात्र अमृत स्वरुप है जो इस नित्य परिवर्तनशील जगत का एक मात्र अटल अचल आधार है जो एक मात्र परमात्मा है और अन्य सब आत्माएं जिसके प्रतिबिम्ब स्वरुप हैं। इस प्रकार अनेकेश्वरवाद, द्वैतवाद आदि में से होते हुए इस अद्वैतवाद की प्राप्ति होती है। धर्मशास्त्र इससे आगे नहीं जा सकता। यहीं सारे विज्ञानों का चरम लक्ष्य है। (राम कृष्ण मिशन, हिन्दू धर्म, पृष्ठ-16) यह समझना होगा कि धर्म के सम्बन्ध में अधिक और कुछ जानने को नहीं, सभी कुछ जाना जा चुका है। जगत के सभी धर्म में, आप देखियेगा कि उस धर्म में अवलम्बनकारी सदैव कहते हैं, हमारे भीतर एक एकत्व है अतएव ईश्वर के सहित आत्मा के एकत्व ज्ञान की अपेक्षा और अधिक उन्नति नहीं हो सकती। ज्ञान का अर्थ इस एकत्व का आविष्कार ही है। यदि हम पूर्ण एकत्व का आविष्कार कर सकें तो उससे अधिक उन्नति फिर नहीं हो सकती। (राम कृष्ण मिशन, धर्म विज्ञान, पृष्ठ-7)“। इस प्रकार हम पाते है कि ज्ञान का अर्थ सिर्फ सार्वभौम एकत्व है जिसका अन्त ”सार्वभौम सत्य“ के रूप में ”गीता“ द्वारा तथा ”सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त“ के रूप में ”विश्वशास्त्र“ द्वारा हो चुका है। इस ज्ञान के अलावा सभी ज्ञान, विज्ञान, तकनीकी तथा समाज का ज्ञान है। अभी ज्ञान का अन्त हुआ है। फिर विज्ञान के ज्ञान का अन्त होगा और उसके बाद तकनीकी के ज्ञान का भी अन्त हो जायेगा। विज्ञान के अन्त ”गाॅड पार्टीकील“ अर्थात एक ऐसा कण जो ईश्वर की तरह हर जगह है और उसे देख पाना मुश्किल है जिसके कारण कणों में भार होता है, के खोज के लिए ही जेनेवा (स्विट्जरलैण्ड-फ्रंास सीमा पर) में यूरोपियन आर्गनाइजेशन फाॅर न्यूक्लियर रिसर्च (सर्न) द्वारा रूपये 480 अरब के खर्च से महामशीन लगाई गई है। जिसमें 15000 वैज्ञानिक और 8000 टन की चुम्बक लगी हुई है।
विभिन्न सम्प्रदाय (धर्म), जाति, मत, दर्शन इत्यादि में विभाजित इस मानव समाज में वर्तमान तथा आने वाले भविष्य के समय की मूल आवश्यकता है- मानव के मनों का एकीकरण अर्थात मानव मन का भूमण्डलीकरण एवं ब्रह्माण्डीयकरण। इसकी आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि मानव अपने विज्ञान व तकनीकी ज्ञान से प्राप्त संसाधनों का प्रयोग करते हुये, एक तरफ तो ब्रह्माण्ड की ओर चल पड़ा है तो दूसरी तरफ विध्वंस के लिए अनेक हथियारों का भी निर्माण कर चुका है। ऐसी स्थिति में हमें निश्चित रूप से ऐसे एकीकरण की आवश्यकता है जिससे हम इस पृथ्वी से मानसिक स्तर के विवादों को समाप्त कर सकें।
माया सभ्यता के अनुसार विश्व के मानव समाज यह भी मान रहें थें कि 21 दिसम्बर, 2012 को दुनिया का अन्त हो जायेगा। जबकि हिन्दू धर्म शास्त्र विष्णु पुराण, भागवत पुराण, अग्नि पुराण, गरूड़ पुराण, पद्म पुराण इत्यादि में भगवान के दसवें और महाअवतार ”कल्कि“ का होना अभी शेष है। जिनसे कलियुग के अंधकार व विनाश को समाप्त करने का कार्य सम्पन्न होगा, साथ ही सत्ययुग का आरम्भ होगा। सिक्ख धर्म के पवित्र ग्रन्थ ”दशम् ग्रन्थ“ में भी ”कल्कि अवतार“ का वर्णन मिलता है। सृजन और विनाश का स्तर शारीरिक, आर्थिक व मानसिक होता है। जो एक व्यक्ति, समाज, देश और विश्व राष्ट्र के लिए होता है। व्यक्ति पर हुये शारीरिक, आर्थिक व मानसिक सृजन और विनाश को व्यक्ति ही अनुभव करता है परन्तु समाज, देश और विश्व राष्ट्र पर हुये शारीरिक, आर्थिक व मानसिक सृजन व विनाश को सार्वजनिक रूप से सभी देखते है। समाज, देश और विश्व राष्ट्र पर शारीरिक व आर्थिक सृजन और विनाश वर्तमान में तो चल ही रहा है जिसे सार्वजनिक रूप से मानव समाज देख रहा है।
भौतिकवादी पश्चिमी संस्कृति किसी भी सृजन व विनाश को मानसिक स्तर पर सोच ही नहीं सकता क्योंकि वह समस्त क्रियाकलाप को वाह्य जगत में ही घटित होता समझता व समझाता है जबकि वर्तमान समय मानसिक स्तर पर विनाश व सृजन का है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि माया सभ्यता के अनुसार 21 दिसम्बर, 2012 को जो विनाश व सृजन होना था, वह मानसिक स्तर का ही है। जिसके परिणामस्वरूप सभी सम्प्रदाय, मत, दर्शन एक उच्च स्तर के विचार या सत्य में विलीन अर्थात विनाश को ”विश्वशास्त्र“ से प्राप्त कर चुका है। फलस्वरूप उच्च स्तर के विचार या सत्य में स्थापित होने से सृजन का मार्ग खुल चुका है। कुल मिलाकर माया सभ्यता के कैलेण्डर का अन्त तिथि 21 दिसम्बर, 2012, दुनिया के अन्त की तिथि नहीं थी बल्कि वह वर्तमान युग के अन्त की अन्तिम तिथि और नये युग के आरम्भ की तिथि थी। ईश्वर भी इतना मूर्ख व अज्ञानी नहीं है कि वह स्वयं को इस मानव शरीर में पूर्ण व्यक्त किये बिना ही दुनिया को नष्ट कर दे। इसके सम्बन्ध में हिन्दू धर्म शास्त्रो में सृष्टि के प्रारम्भ के सम्बन्ध में कहा गया है कि- ”ईश्वर ने इच्छा व्यक्त की कि मैं एक हँु, अनेक हो जाऊँ“। इस प्रकार जब वही ईश्वर सभी में है तब निश्चित रूप से जब तक सभी मानव ईश्वर नहीं हो जाते तब तक दुनिया के अन्त होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। और विकास क्रम चलता रहेगा। 21 दिसम्बर, 2012 के बाद का समय नये युग के प्रारम्भ का समय है जिसमें ज्ञान, ध्यान, चेतना, भाव, जन, देश, विश्व राष्ट्र, आध्यात्मिक जागरण, मानवता इत्यादि का विश्वव्यापी विकास होगा। परिणामस्वरूप सभी मानव को ईश्वर रूप में स्थापित होने का अवसर प्राप्त होगा। और यही विश्व मानव समाज की मूल आवश्यकता है। प्राचीन वैदिक काल में समाज को नियंत्रित करने के लिए ज्ञानार्जन सबके लिए खुला नहीं था परन्तु वर्तमान और भविष्य की आवश्यकता यह है कि समाज को नियंत्रित करने के लिए सभी को पूर्ण ज्ञान से युक्त कर सभी के लिए ज्ञान को खोल दिया जाय। यही कारण था कि वेद को प्रतीकात्मक रूप में लिख कर गुरू-शिष्य परम्परा द्वारा उसकी व्याख्या की जाती रही थी जिससे राजा और समाज को नियंत्रण में रखा जा सके।
ईश्वर, अवतार व गुरू के सम्बन्ध में समझ पैदा करने के लिए स्वामी विवेकानन्द जी का कहना है- ”जिस प्रकार मानवी शरीर एक व्यक्ति है और उसका प्रत्येक सूक्ष्म भाग जिसे हम ”कोश“ कहते हैं एक अंश है। उसी प्रकार सारे व्यक्तियों का समष्टि ईश्वर है, यद्यपि वह स्वयं भी एक व्यक्ति है। समष्टि ही ईश्वर है, व्यष्टि या अंश जीव है। इसलिए ईश्वर का अस्तित्व जीवों के अस्तित्व पर निर्भर है जैसे कि शरीर का उसके सूक्ष्म भाग पर और सूक्ष्म भाग का शरीर पर। इस प्रकार जीव और ईश्वर परस्परावलम्बी हैं। जब तक एक का अस्तित्व है तब तक दूसरे का भी रहेगा। और हमारी इस पृथ्वी को छोड़कर अन्य सब उँचे लोकों में शुभ की मात्रा अशुभ से अधिक होती है। इसलिए वह समष्टि स्वरुप ईश्वर शिव स्वरुप, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ कहा जा सकता है। ये गुण प्रत्यक्ष प्रतीत होते हैं। ईश्वर से सम्बद्ध होने के कारण उन्हें प्रमाण करने के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं होती। ब्रह्म इन दोनों से परे है और वह कोई विशिष्ट अवस्था नहीं है वह एक ऐसी वस्तु है जो अनेकों की समष्टि से नहीं बनी है। वह एक ऐसी सत्ता है जो सूक्ष्मातित-सूक्ष्म से लेकर ईश्वर तक सब में व्याप्त है और उसके बिना किसी का अस्तित्व नहीं हो सकता सभी का अस्तित्व उसी सत्ता या ब्रह्म का प्रकाश मात्र है। जब मैं सोचता हूँ ”मैं ब्रह्म हूँ“ तब मेरा यथार्थ अस्तित्व होता है ऐसा ही सबके बारे में है विश्व की प्रत्येक वस्तु स्वरुपतः वही सत्ता है (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-18, राम कृष्ण मिशन)“, ”सबका स्वामी (परमात्मा) कोई व्यक्ति विशेष नहीं हो सकता, वह तो सबकी समष्टि स्वरुप ही होगा। वैराग्यवान मनुष्य आत्मा शब्द का अर्थ व्यक्तिगत ”मैं“ न समझकर, उस सर्वव्यापी ईश्वर को समझता है जो अन्तर्यामी होकर सबमें वास कर रहा हो। वे समष्टि के रुप में सब को प्रतीत हो सकते हैं ऐसा होते हुए जब जीव और ईश्वर स्वरुपतः अभिन्न हैं, तब जीवों की सेवा और ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ एक ही है। यहाँ एक विशेषता है। जब जीव को जीव समझकर सेवा की जाती है तब वह दया है, किन्तु प्रेम नहीं। परन्तु जब उसे आत्मा समझकर सेवा करो तब वह प्रेम कहलाता है। आत्मा ही एक मात्र प्रेम का पात्र है, यह श्रुति, स्मृति और अपरोक्षानुभूति से जाना जा सकता है। (पत्रावली, भाग-2, पृष्ठ-109, राम कृष्ण मिशन)“, ”स ईशोऽनिर्वचनीयप्रेमस्वरुपः“- ईश्वर अनिर्वचनीय प्रेम स्वरुप है। नारद द्वारा वर्णन किया हुआ ईश्वर का यह लक्षण स्पष्ट है और सब लोगों को स्वीकार है। यह मेरे जीवन का दृढ़ विश्वास है। बहुत सेे व्यक्तियों के समूह कांे समष्टि कहते हैं और प्रत्येक व्यक्ति, व्यष्टि कहलाता है आप और मैं दोनों व्यष्टि हैं, समाज समष्टि है आप और मैं- पशु, पक्षी, कीड़ा, कीड़े से भी तुक्ष प्राणी, वृक्ष, लता, पृथ्वी, नक्षत्र और तारे यह प्रत्येक व्यष्टि है और यह विश्व समष्टि है जो कि वेदान्त में विराट, हिरण गर्भ या ईश्वर कहलाता है। और पुराणों में ब्रह्मा, विष्णु, देवी इत्यादि। व्यष्टि को व्यक्तिशः स्वतन्त्रता होती है या नहीं, और यदि होती है तोे उसका नाम क्या होना चाहिए। व्यष्टि को समष्टि के लिए अपनी इच्छा और सुख का सम्पूर्ण त्याग करना चाहिए या नहीं, ये प्रत्येक समाज के लिए चिरन्तन समस्याएँ हैं सब स्थानों में समाज इन समस्याओं के समाधान में संलग्न रहता है ये बड़ी-बड़ी तरंगों के समान आधुनिक पश्चिमी समाज में हलचल मचा रही हैं जो समाज के अधिपत्य के लिए व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का त्याग चाहता है वह सिद्धान्त समाजवाद कहलाता है और जो व्यक्ति के पक्ष का समर्थन करता है वह व्यक्तिवाद कहलाता है। (पत्रावली, भाग-2, पृष्ठ-288, राम कृष्ण मिशन)“, ”ईश्वर उस निरपेक्ष सत्ता की उच्चतम अभिव्यक्ति है, या यों कहिए, मानव मन के लिए जहाँ तक निरपेक्ष सत्य की धारणा करना सम्भव है, बस वहीं ईश्वर है। सृष्टि अनादि है और उसी प्रकार ईश्वर भी अनादि है (भक्ति योग, पृष्ठ-13, राम कृष्ण मिशन)“, ”यह सारा झगड़ा केवल इस ”सत्य“ शब्द के उलटफेर पर आधारित है। ”सत्य“ शब्द से जितने भाव सूचित होते हैं वे समस्त भाव ”ईश्वर भाव“ में आ जाते हैं। ईश्वर उतना ही सत्य है जितनी विश्व की कोई अन्य वस्तु। और वास्तव में, ”सत्य“ शब्द यहाँ पर जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उससे अधिक ”सत्य“ शब्द का कोई अर्थ नहीं। यहीं हमारी ईश्वर सम्बन्धी दार्शनिक धारणा है। (भक्ति योग, पृष्ठ-21, राम कृष्ण मिशन)“, ”गुरु के सम्बन्ध में यह जान लेना आवश्यक है कि उन्हें शास्त्रो का मर्म ज्ञान हो। वैसे तो सारा संसार ही बाइबिल, वेद, पुराण पढ़ता है, पर वे तो केवल शब्द राशि है। धर्म की सूखी ठठरी मात्र है। जो गुरु शब्दाडंबर के चक्कर में पड़ जाते हैं, जिनका मन शब्दों की शक्ति में बह जाता है, वे भीतर का मर्म खो बैठते हैं। जो शास्त्रों के वास्तविक मर्मज्ञ हैं, वे ही असल में सच्चे धार्मिक गुरु हैं (भक्ति योग, पृष्ठ-32, राम कृष्ण मिशन)“, ”हम गुरु बिना कोई ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। अब बात यह है कि यदि मनुष्य, देवता अथवा कोई स्वर्गदूत हमारे गुरु हो, तो वे भी तो ससीम है; फिर उनसे पहले उनके गुरु कौन थे? हमें मजबूर होकर यह चरम सिद्धान्त स्थिर करना ही होगा कि एक ऐसे गुरु हैं, जो काल के द्वारा सीमाबद्ध या अविच्छिन्न नहीं है। उन्हीं अनन्तज्ञानसम्पन्न गुरु को, जिनका आदि भी नहीं और अन्त भी नहीं, ईश्वर कहते हैं। (राजयोग, पृष्ठ-134, राम कृष्ण मिशन)“, ”संसार के प्रधान आचार्यों में से कोई भी शास्त्रों की इस प्रकार नानाविध व्याख्या करने के झमेले में नहीं पड़ा। उन्होनें श्लोकों के अर्थ में खींचातानी नहीं की। वे शब्दार्थ और भावार्थ के फेर मंे नहीं पड़े। फिर भी उन्होंने संसार को बड़ी सुन्दर शिक्षा दी। इसके विपरीत, उन लोगों ने जिनके पास सिखाने को कुछ भी नहीं, कभी एकाध शब्द को ही पकड़ लिया और उस पर तीन भागों की एक मोटी पुस्तक लिख डाली, जिसमें सब अनर्थक बातें भरी हैंे (भक्ति योग, पृष्ठ-33, राम कृष्ण मिशन)“, ”साधारण गुरुओं से श्रेष्ठ एक और श्रेणी के गुरु होते हैं, और वे हैं-इस संसार में ईश्वर के अवतार। वे केवल स्पर्श से, यहाँ तक कि इच्छा मात्र से ही आध्यात्मिकता प्रदान कर सकते हैं। उनकी इच्छा मात्र से पतित से पतित व्यक्ति क्षण मात्र में साधु हो जाता है। वे गुरुओं के भी गुरु हैं-नरदेहधारी भगवान हैं। (भक्तियोग, पृष्ठ-39, राम कृष्ण मिशन)“, ”अवतार का अर्थ है जीवनमुक्त अर्थात् जिन्होंने ब्रह्मत्व प्राप्त किया है। अवतार विषयक और कोई विशेषता मेरी दृष्टि में नहीं है। ब्रह्मादिस्तम्यपर्यत्त सभी प्राणी समय आने पर जीवनमुक्ति को प्राप्त करेंगे, उस अवस्था विशेष की प्राप्ति में सहायक बनना ही हमारा कर्तव्य है। इस सहायता का नाम धर्म है बाकी कुधर्म है। इस सहायता का नाम कर्म है। बाकी कुकर्म है। (पत्रावली भाग-1, पृष्ठ-328, राम कृष्ण मिशन)“। इस प्रकार यह अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि अवतार, गुरू, माता-पिता इत्यादि ईश्वर तुल्य हो सकते हैं परन्तु ईश्वर नहीं।
मैं ही इस शास्त्र का विचारक हूँ, आविष्कारक हूँ, प्रारूप एवं स्थापनार्थ नीति निर्धारणकर्ता हूँ, लिपिबद्धकर्ता हूँ, सम्पादक हूँ, यहाँ तक कि कम्प्यूटराइज्ड टाइप सेटिंगकर्ता भी हूँ और इसमें मैं स्वयं हूँ। मैंने इस शास्त्र के माध्यम से स्वयं को ”अन्तिम, पूर्णावतार और महावतार कल्कि“, जिसे मेरे जन्म से पहले ही समाज ने सम्बोधित कर रखा है, प्रस्तुत किया है और वह इसलिए किया है कि मेरे जीवन, ज्ञान व कर्म तथा संसार-समाज में उपलब्ध आॅकड़े इस ओर ही निर्देश करते हैं और उसे मंैने पूरी ईमानदारी, निष्पक्षता और सर्वव्यापकता के साथ प्रस्तुत किया है। यह पद समाज का एक मात्र सर्वोच्च और अन्तिम पद है जो मेरे शरीर धारण के पूर्व ही समाज द्वारा सृजित है। जिस पर कोई भी योग्यता प्रस्तुत कर अपने को स्थापित कर सकता है। जिसका निर्णय वोटांे (मत पत्रांे या एस.एम.एस) द्वारा नहीं बल्कि योग्यता द्वारा तय होना है। जिसके अनेक स्वघोषित दावेदार है। जिन्हें इन्टरनेट (www.google.com, www.youtube.com) पर ”कल्कि अवतार (KALKI AVATAR)“ सर्च कर देखा जा सकता है और मुझे और शास्त्र के विषय में लव कुश सिंह ”विश्वमानव“, सत्यकाशी, विश्वशास्त्र, विश्वमानव (LAVA KUSH SINGH “VISHWMANAV”, SATYAKASHI, VISHWSHASTRA, VISHWMANAV) इत्यादि से पाया जा सकता है। उनमें से एक मैं भी हूँ- नाम, रूप, गुण, कर्म से योग्य और ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि यह सब मेरे द्वारा इस जीवन में अर्जित किया गया है। इस शास्त्र के माध्यम से मैंने इसे सिद्ध किया है और जिसे समाज के मुझे जानने वाले देख भी रहे हैं। और मैं सत्य रूप में यही हूँ-मानो या न मानो या जब समझ में आये तभी से मानो या न भी मानो तो कम से कम व्यक्ति, देश व विश्व के विकास के लिए ”विश्वशास्त्र“ में कुछ उपयोगी हो तो ग्रहण कर लो, या जो समझ में आये वो करो। प्रत्येक विषय के दो पहलू होते हैं और वे एक दूसरे को पूर्णता प्रदान करते है। अंधकार है तो प्रकाश है, मुद्रा (भारत में रूपया) जिसके पीछे मनुष्यों का सारा जीवन संघर्षमय रहता है वह भी दोनों तरफ से सत्य न हो तो बेकार होता है। इसी प्रकार साकार है तो निराकार है, निराकार है तो साकार है। चाहे तो मुझे साकार विश्वात्मा समझ सकते हो। कुछ नहीं समझ सकते तो शातिर अपराधी, भ्रष्टाचारी, आंतकवादी की तरह इस समस्त अस्तित्व के भोग के लिए योगमाया का प्रयोग करने वाला शातिर चालाक, बुद्धिमान और महत्वाकंाक्षी तो समझ ही सकते हो, लेकिन कुछ न कुछ तो समझना ही पड़ेगा। क्योंकि कार्य रूप में यह ”विश्वशास्त्र“ आपके समक्ष है तो कारण को कुछ न कुछ तो नाम देना ही पड़ेगा। हम सभी श्रीराम और श्रीकृष्ण के होने न होने पर अन्तहीन तर्क व बहस प्रस्तुत कर सकते हैं परन्तु वाल्मिकि, महर्षि व्यास और गोस्वामी तुलसीदास के न होने पर पर तर्क नहीं दे सकते क्योंकि उनकी कृति क्रमशः रामायण, महाभारत और रामचरितमानस हमारे समक्ष उपस्थित है। इन कृतियों में उनके नायक उनसे अलग थे इसलिए नायक का होना, न होना तर्क का विषय था परन्तु इस ”विश्वशास्त्र“ का नायक और इसका रचनाकार मै स्वयं हूँ। अब यह भी एकीकृत है।
अभी तक जितने अवतार हुये, उन्हें लोग उनके कर्म करके जाने के बाद ही जान पाये हैं। कल्कि अवतार एक ऐसा अन्तिम अवतार है जिसके कर्म पहले से ही निर्धारित है और समय इतना भ्रमित किया गया है कि कल्कि अवतार आ कर व अपना कार्य पूर्ण कर चले भी जायें तो भी समाज उनकी प्रतिक्षा ही करता रह जायेगा। बिना युद्ध के ही विजय प्राप्त करके जाने की सुविधा इस अन्तिम अवतार-कल्कि अवतार को प्राप्त होगी और वह समाज द्वारा तब जाना जायेगा जब उसके कर्म के उपयोग के बिना समस्याओं का हल और विकास सम्भव न होगा। ब्रह्माण्ड की समस्त गति गोलाकार होते हुये विकास क्रम तरंगाकार रूप में व्यक्त है। मनुष्य के सकारात्मक सोच की गति भी गोलाकार और विकास क्रम तरंगाकार रूप में ही है। ”विश्वशास्त्र“ वही गोलाकार चक्कर है जहाँ तक मनुष्य अपने तरंगाकार विकास क्रम की गति से इसमें ही अन्तिम गति करेगा। जब भी ”स्व“ या ”जन“ या ”लोक“ के ”राज“ या ”तन्त्र“ की सत्य स्थापना करनी होगी, उस समय बिना ”विश्वशास्त्र“ से मार्गदर्शन प्राप्त किये सम्भव नहीं हो सकेगा। तब ”कल्कि अवतार“ कौन है?, कौन था?, क्यों है?, क्यों था? जैसे विषयों का हल स्वयं ही प्राप्त हो जायेगा। 100 प्रतिशत साकार से साकार का युद्ध श्रीराम कर चुके है। 50-50 प्रतिशत साकार और निराकार का युद्ध श्रीकृष्ण कर चुके हैं। अब 100 प्रतिशत निराकार से निराकार का युद्ध का क्रम है और इस युद्ध से जो प्रकाशमय चिंगारी निकलेगी, उससे इस मार्ग की सूचना सभी को मिलेगी और मार्ग दिखाई देगा, जिसपर मानव अपनी ईश्वरीय मानव बनने की यात्रा प्रारम्भ करेंगें। यह युद्ध आवश्यक है क्योंकि अवतारों को पहचानना, जानना और मानना स्वयं मनुष्यों के भी वश की बात नहीं। इतनी आसानी से पहचानना, जानना और मानना हो जाता तो न रामायण होती, न महाभारत होता और न ही विश्वभारत समाहित यह विश्वशास्त्र होता। ध्यान देने के योग्य यह है कि- सत्य से कुछ भी नहीं छोड़ा जा सकता और सत्य के लिए सब कुछ त्यागा जा सकता है।
मुझे कभी भी ऐसा कोई खेल पसन्द नहीं था जिसमें बार-बार हार और जीत होती रहे। मैंने एक यही खेल खेला-एक बार हार या एक बार जीत जिसके लिए मैंने अपने जीवन के 20 वर्ष (सन् 1992-2012) सभी सांसारिक कर्म को करते हुये लगाये। जिसमें इस कार्य का मुख्य कार्यकाल अक्टुबर, 1995 से दिसम्बर, 2001 तक (शास्त्र का मूल सिद्धान्त का लेखन समय) तथा जुलाई, 2010 से दिसम्बर, 2012 तक रहा है। इस समय में हमारे हम उम्र परिचितांे में से अनेक ने अच्छी नौकरी व अच्छा धन अर्जित कियें। उनको देखकर मुझे बहुत खुशी होती है। जब भी उन्हें यह पता चले कि मैंने यह कार्य किया है और उनका एक परिचित भी ”अन्तिम अवतार“ के ओलम्पिक खेल का एक प्रतिभागी है तो उन्हें भी खुशी होगी ऐसी आशा करता हूँ। बहुत से मेरे परिचित व्यक्ति जो मुझसे सिर्फ परिचित हैं और ऐसे परिचित जिन्हें इस शास्त्र के पूर्ण करने के समय तक भी, उनका कोई योगदान इस सकारात्मक श्रृंखला के योग्य नहीं हो सका इसका मुझे अत्यन्त दुःख है। मेरे अनेक शुभचिन्तक समय-समय पर मुझे अनेक जीवकोपार्जन के उपाय सुझाते रहे, जिससे मैं एक सुखमय जीवन प्राप्त कर सकूँ। मैं उनका सदैव आभारी हूँ परन्तु उनके सुझावों पर मैं कभी नहीं चल पाया इसका मुझे दुःख है। मैं ”कल्कि अवतार“ के योग्य हूँ या नहीं यह बाद की बात है लेकिन वर्तमान में इससे यह लाभ है कि समाज इस पद की योग्यता के लिए चर्चा व चिंतन अवश्य करेगा जिसका फल ज्ञान के विकास के रूप में समाज को प्राप्त होगा। मेरे विचार से ”नेशनल साइबर ओलंपियाड (NCO)“, ”नेशनल साइंस ओलंपियाड (NSO)“, ”इन्टरनेशनल मैथमेटिक्स ओलंपियाड (IMO)“, ”इन्टरनेशनल इंग्लिश ओलंपियाड (IEO)“ की भाँति ”विश्व कल्कि ओलंपियाड (WKO)“ का भी आयोजन होना चाहिए जिससे इस विश्व के एकीकरण, शान्ति, एकता, स्थिरता, विकास, सुरक्षा, स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ उद्योग व पूर्ण शिक्षा के लिए मस्तिष्क की खोज हो सके।
सभी मानव को ईश्वर रूप में स्थापित होने के लिए जो माध्यम चाहिए वह है- ”सत्य शिक्षा“ से मानव को शिक्षित करना। इस आवश्यकता हेतू ही ”पुनर्निर्माण - सत्य शिक्षा का राष्ट्रीय तीव्र मार्ग (RENEW - Real Education National Express Way)“ का कार्यक्रम बनाया गया है जिससे इस विषय को बिना शिक्षा पाठ्यक्रम बदले अलग से पूरक र्के रूप में नागरिकों तक पहुँचाया जा सके। और भविष्य में शिक्षा पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से अध्ययन के लिए शामिल कराया जा सके।
शास्त्र को पूर्ण करने के उपरान्त इसके गुणों के आधार पर धर्म और धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव क्षेत्र से अनेकों नाम निकलकर आये जो क्यों हैं, इसका भी स्पष्टीकरण इस शास्त्र में दिया गया है। फिर भी एक सर्वोच्च और सर्वमान्य नाम की आवश्यकता थी इसलिए इस शास्त्र का नाम ”विश्वशास्त्र“ रखा गया तथा एक संक्षिप्त वाक्य ;ज्ंह स्पदमद्ध के विचार पर पाँच वाक्य 1. ”विश्व का अन्तिम ज्ञान (The final knowledge of world)“, 2. ”भारत का अन्तिम ज्ञान (The final knowledge of India)“, 3. ”ज्ञान का अन्त (The end of knowledge)“, 4. ”अन्तिम कार्य योजना का ज्ञान (The knowledge of final action plan)“, 5. ”अन्तिम ज्ञान का ज्ञान (The Knowledge of final knowledge)“ और 6. ”ज्ञान समकक्षीकरण (The knowledge Equalizer)“ सामने आये। जिस पर विश्वशास्त्र के समीक्षक द्वय डाॅ0 राम व्यास सिंह व डाॅ0 कन्हैया लाल के विचारों से संक्षिप्त वाक्य ”अन्तिम ज्ञान का ज्ञान (The Knowledge of final knowledge)“ के लिए सहमति व्यक्त की गयी। इनके प्रति मैं आभारी हूँ।
प्रत्येक बच्चे की भाँति मैं भी एक बच्चे के रूप से ही इस अवस्था तक आया हूँ। बस आप में और मुझमें यह अन्तर है कि मैं अपने बचपन से स्वयं को महान समझता था जो आप भी थे। इस महानता को मंैने कभी नहीं भूला। यह अलग बात है कि उसे सिद्ध करने में इतने वर्ष लग गये परन्तु आप लोग भी महान हैं यह बात आप लोग भूल गये और न ही उसे सिद्ध करने की कोशिश की। जो धर्म की रक्षा करने के लिए स्वयं को कठिन परिस्थितियों में डालता है या कठिन परिस्थितियों में भी धर्म को नहीं भूलता ईश्वर और धर्म उन्हीं में अवतरित होता है। जिस प्रकार आप अपने परिवार के संरक्षण, व्यवस्था और विकास के लिए सजग रहकर कर्म करते हैं उसी प्रकार मैं भी अपने विश्व परिवार के लिए सदैव सजग रहकर प्रत्येक युग में कर्म करता रहा हूँ। आपका व्यक्तिगत परिवार, हमारे विश्व परिवार की इकाई है, इसलिए यह न सोचे कि यह कार्य आपके लिए नहीं हुआ है।
हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप भी उस मन स्तर और व्यापक हृदय पर स्थित होकर ही इस शास्त्र का अध्ययन, चितंन व मनन करेंगें जिससे आपका मस्तिष्क पूर्णता को प्राप्त हो सके। आपका मस्तिष्क पूर्णता को प्राप्त करे और इस सुन्दर संसार को और भी सुन्दर बनाने के लिए शारीरिक, आर्थिक और मानसिक रूप से सक्रिय हों, यही सबसे बड़ा धर्म और धार्मिक कार्य होगा। अन्त में-
माँफ करना ऐ भारत, मंजिल पर आया हूँ थोड़ी देर से।
मोहब्बत पड़ावो को भी थी, हक उनका अदा करना था।
-लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
आविष्कारकर्ता - मन (मानव संसाधन) का विश्व मानक एवं पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी
अगला दावेदार - भारत सरकार का सर्वोच्च नागरिक सम्मान - ”भारत रत्न“
”प्रस्तुत शास्त्र का मूल उद्देश्य एक पुस्तक के माध्यम से पूर्ण ज्ञान उपलब्ध कराना है जिससे उस पूर्ण ज्ञान के लिए वर्तमान और हमारे आने वाली पीढ़ी को एक आदर्श नागरिक के लिए बिखरे हुए न्यूनतम ज्ञान के संकलन करने के लिए समय-शक्ति खर्च न करना पड़े। समय के साथ बढ़ते हुए क्रमिक ज्ञान का संगठित रूप और कम में ही उन्हें अधिकतम प्राप्त हो, यही मेरे जीवन का उन्हें उपहार है। मुझे जिसके लिए कष्ट हुआ, वो किसी को ना हो इसलिए उसे हल करना मेरे जीवन का उद्देश्य बन गया“
- लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
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