Monday, March 23, 2020

विश्वमानव और श्री बिल क्लिन्टन (19 अगस्त, 1946 - )

श्री बिल क्लिन्टन (19 अगस्त, 1946 - )

परिचय - 
विलियम जेफरसन क्लिंटन, अमेरिका के 21वें राष्ट्रपति थे। उनका कार्यकाल 1993 से 2001 तक था। थियोडोर रूजवेल्ट और जाॅन एफ केनेडी के बाद वे अमेरिका के तीसरे सबसे युवा राष्ट्रपति थे। वे न्यूयार्क से कनिष्ठ अमेरिकी सेनेटर और समाजिक कार्यकर्ता तथा 2008 के राष्ट्रपति चुनाव की प्रत्याशी हिलेरी क्लिंटन के पति हैं। 
क्लिंटन के जन्म से पूर्व ही उनके पिता बी.होप आर्क की मृत्यु हो गई थी। उनका नाम विलियम जेफरसन ब्लीथ था लेकिन उनकी माँ के पुनर्विवाह के उपरान्त सौतेले पिता के उपनाम को उनके नाम में लगाया गया। 1968 में जार्जटाउन विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद वे आक्सफोर्ड में 1968-70 तक एक रोह्डस स्कालर और येल विश्वविद्यालय से 1973 में कानून की डिग्री प्राप्त किये। फिर वे अपने गृहराज्य में लौट आए जहाँ वे एक वकील और कानून के प्रोफेसर के रूप में 1974 से 1976 तक कार्य किये। वे 1974 में अमेरिकी प्रतिनिधि सभा के लिए एक असफल डेमोक्रेटिक उम्मीदवार थे। 1975 में वे हिलेरी रोढम क्लिंटन से उन्होंने विवाह किया। 1976 में वे अर्कसास के अटार्नी जनरल चुने गये फिर 1978 में वे वहीं के देश के सबसे कम उम्र के गवर्नर बनें जबकि 1980 में पुनः सत्तारूढ़ होने में असफल रहे। पुनः वे 1982 में गवर्नर बने गये और बाद के दो चुनावों तक भी बने रहे। वे आमतौर पर एक उदारवादी डेमोक्रेट के रूप में जाने जाते हैं। वे 1900-1991 तक मध्यमार्गी डेमोक्रेटिक परिषद् का नेतृत्व किये। 1992 में जब वे राष्ट्रपति के प्रारम्भिक चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी थे, प्रतिद्वन्दी सीनेटर अल गोर द्वारा उनके चरित्र और नीजी जीवन के बारे में प्रश्न उठाया गया था। परन्तु वे फिर भी द्वितीय विश्व युद्ध और शीत युद्ध के बाद जन्म लेने वाले पहले राष्ट्रपति बनें। 

”विश्व को लोकतन्त्र, भारत का उपहार; ज्ञान और सूचना आधारित सहयोग; भारत और अमेरिका मिलकर विश्व को नई दिशा दे सकता है; भारत यदि शून्य और दशमलव न दिया होता तो कम्प्यूटर चिप्स बनाना असम्भव होता; प्रत्येक देश कहता है हम महान हैं परन्तु कैसे ? यह सिद्ध करना एक चुनौती है । इत्यादि।“(भारत यात्रा पर दि0 20-24 मार्च’ 2000 के समय वक्तव्य)
-श्री विल क्लिन्टन, राष्ट्रपति, संयुक्त राज्य अमेरिका 
 
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
”महोदय, 11 सितम्बर’ 1893 में आपके संयुक्त राज्य अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित विश्व धर्म संसद को सम्बोधित करते हुए भारत का युवा सन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका वासीयों को ‘मेरे अमेरिकी भाईयों और बहनों’ कहा था तथा ‘विश्व बन्धुत्व’ का सन्देश आपके संयुक्त राज्य और युरोपिय देशों में लगातार 3 वर्षों तक देता रहा। भारत भाव प्रधान देश है तथा आपका देश योजना प्रधान देश है। इसलिए प्रथमतया भाव से आघात करते हुए स्वामी जी ने ‘अमेरिकी भाईयों और बहनों’ कहा था, फिर योजना ‘विश्व बन्धुत्व’ का सन्देश दिया था। विश्व-बन्धुत्व एक सत्य-योजना है। जो अब विश्व की विवशता बन गयी है। आप भारत की यात्रा में भाव की प्रधानता को स्वयं अनुभव किये होंगे। यहाँ भाव पहले चलता है योजना और क्रियान्वयन बाद में जबकि आपके यहाँ इसके विपरीत कार्य होता है। यहाँ सीधे योजना और कार्य पर बात करने से कोई महत्व नहीं देता चाहे वह उसके हित का अन्तिम मार्ग ही क्यों न हो। भाव से मिलकर यहाँ दूसरे का गला भी काटा जा सकता है और काटा भी जा रहा है। यही कारण है कि यहाँ का गरीब समाज सदा गरीब ही बना रहता है। और योजना प्रधान व्यक्ति भोग करता है। निश्चय ही स्वामी विवेकानन्द का प्रयत्न सफल रहा है तभी आपके अन्दर का व्यक्तित्व भाव प्रधान बन पाया है जिसे भारतवासीयों ने सार्वजनिक प्रमाणित रुप से देखा और अनुभव किया है। हमारे धर्म साहित्य में एकात्म कथा को पुराण कहते हैं उसमें एकात्म ज्ञान और एकात्म वाणी समाहित एकात्म कर्म और एकात्म प्रेम के प्रक्षेपण को भगवान विष्णु कहते हैं जो सृष्टि के पालनकर्ता कहे जाते हैं। जिसमें से हमारा देश एकात्म प्रेम की तथा आपका देश एकात्म कर्म की प्राथमिकता वाला बन चुका है। इसलिए सम्पूर्ण विश्व को नई दिशा और उसका पालनकर्ता बनने के लिए दोनों देशों का मिलना अतिआवश्यक ही नहीं विवशता भी है क्योंकि एक दूसरे के बिना हम अधुरे हैं। भारत में कुछ ऐसे संकीर्ण विचार वाले नेतृत्वकर्ता हैं जो भारत को सिर्फ भारत की सीमा तक ही देखते हैं और अपने अस्तित्व व महत्व को बनाये रखने के लिए उसी प्रकार के मानवों का निर्माण कर प्राकृतिक बल के विरुद्ध उसी भाँति मूर्खता पूर्ण कार्य करते हैं जिस प्रकार तेज आंधी को शरीर से रोक लेने का प्रयत्न।
अनेक मत, सम्प्रदाय और धर्मों को साथ लेकर वर्षों से भारत विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को सफलतापूर्वक बिना लोक या गण या जन के सत्य रुप को व्यक्त किये, बनाये हुए हैं। यह विश्व के समक्ष एक उदाहरण ही है। भारत का लोकतन्त्र विश्व का ही लोकतन्त्र है तथा भारत का संसद, विश्व संसद ही है। क्योंकि अन्य देश एक मत-सम्प्रदाय-धर्म को लेकर लोकतन्त्र नहीं चला पा रहे हैं यहाँ तो अनेक धर्म हैं और समभाव से हैं।
शाश्वत से भारत ने शून्य से अधिक कर्म ही नहीं किया। क्योंकि भारत अन्तर्मुखी आविष्कारक है। वह सम्पूर्ण आविष्कार सर्वप्रथम मन पर करता है। स्वामी विवेकानन्द ने अद्धैत-वेदान्त को मानव जीवन में उपयोगिता के लिए अन्तिम मार्ग बताया, वह भी तो शून्य अर्थात् मन पर ही आविष्कार का परिणाम था। निश्चय ही यदि भारत ने यदि शून्य और दशमलव का आविष्कार न किया होता तो कम्प्यूटर चिप्स बनाना असम्भव होता। पुनः मन पर ही आविष्कार का परिणाम है-विश्वमानक शून्य: मन की गुणवत्ता का विश्वमानक श्रृंखला, जो वर्तमान में आविष्कृत कर प्रस्तुत किया गया है। जिसके बिना अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का मानव निर्माण ही असम्भव है। यही लोक या जन या गण का सत्य रुप है। यहीं आदर्श वैश्विक मानव का सत्य रुप है। जिससे पूर्ण स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ समाज, स्वस्थ उद्योग की प्राप्ति होगी। इसी से विश्व-बन्धुत्व की स्थापना होगी। इसी से विश्व शिक्षा प्रणाली विकसित होगी। इसी से विश्व संविधान निर्मित होगा। इसी से संयुक्त राष्ट्र संघ अपने उद्देश्य को सफलता पूर्वक प्राप्त करेगा। इसी से 21 वीं सदी और भविष्य का विश्व प्रबन्ध संचालित होगा। इसी से मानव को पूर्ण ज्ञान का अधिकार प्राप्त होगा। यही परमाणु निरस्त्रीकरण का मूल सिद्धान्त है। भारत को अपनी महानता सिद्ध करना चुनौती नहीं है, वह तो सदा से ही महान है। पुनः विश्व का सर्वोच्च और अन्तिम अविष्कार विश्वमानक शून्य श्रृंखला को प्रस्तुत कर अपनी महानता को सिद्ध कर दिखाया है। बिल गेट्स के माइक्रोसाफ्ट आॅरेटिंग सिस्टम साफ्टवेयर से कम्प्यूटर चलता हेै । भारत के विश्वमानक शून्य श्रृंखला से मानव चलेगा। बात वर्तमान की है परन्तु हो सकता है स्वामी जी के विश्व बन्धुत्व की भाँति यह 100 वर्ष बाद समझ में आये। अपने ज्ञान और सूचना आधारित सहयोग की बात की है। विश्वमानक शून्य श्रृंखला से बढ़कर ज्ञान का सहयोग और क्या हो सकता है? इस सहयोग से भारत और अमेरिका मिलकर विश्व को नई दिशा सिर्फ दे ही नहीं सकते वरन् यहीं विवशतावश करना भी पड़ेगा। मनुष्य अब अन्तरिक्ष में उर्जा खर्च कर रहा है। निश्चय ही उसे पृथ्वी के विवाद को समाप्त कर सम्पूर्ण शक्ति को विश्वस्तरीय केन्द्रीत कर अन्तरिक्ष की ओर ही लगाना चाहिए। जिससे मानव स्वयं अपनी कृति को देख आश्चर्यचकित हो जाये जिस प्रकार स्वयं ईश्वर अपनी कृति को देखकर आश्चर्य में हैं और सभी मार्ग प्रशस्त हैं। भाव भी है। योजना भी है। कर्म भी है। विश्वमानक शून्य श्रृंखला भी है। फिर देर क्यों? और कहिए- वाहे गुरु की फतह!“ 






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