भारतीय सर्वोच्च न्यायालय
”भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कत्र्तव्य है कि वह भारत की संविधान की धारा 51 (ए) के अन्र्तगत बिना किसी जाति, वंश या मजहब के भेदभाव के गीता में दिये गये धर्म का पालन करें।“ (एक जनहित याचिका पर उच्च न्यायालय, इलाहाबाद का फैसला) -माननीय न्यायमूर्ति श्री एस.एन. श्रीवास्तव, इलाहाबाद, उ0प्र0, भारत
साभार - दी हिन्दू, चेन्नई, दि0 12 सितम्बर 2007
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
गीता जिस कालक्रम में व्यक्त हुई थी उस समय वह मानव मात्र के लिए ही थी। वह आज भी मानव मात्र के लिए ही है। जिन्हें अपना बौद्धिक विकास करना हो, उन सब के लिए है। परन्तु कालान्तर में अन्य धर्म (सम्प्रदाय) आने के बाद गीता को किसी एक धर्म (सम्प्रदाय) का माना जाने लगा। यह उसी प्रकार हो गया जैसे कि आम की लकड़ी का अन्य वस्तु जैसे- खाट, चैकी, कुर्सी इत्यादि बन जाने के बाद उसका नाम खाट, चैकी, कुर्सी इत्यादि हो जाता है, आम की लकड़ी गायब हो जाती है। जो लोग गीता को पढ़ते हैं उन्हें उसका लाभ समझ में आता है परन्तु सार्वजनिक रूप से उसे स्वीकार करने पर उन्हें अपने धर्म-सम्प्रदाय-मत इत्यादि पर आघात समझ में आता है।
निश्चित ही गीता शास्त्र है परन्तु पूर्ण शास्त्र नहीं। गीता में सत्य-ज्ञान है परन्तु कर्म-ज्ञान नहीं। गीता में सत्य-सिद्धान्त है परन्तु सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त नहीं। गीता में प्रकृति की व्याख्या है परन्तु ब्रह्माण्ड की व्याख्या नहीं। गीता व्यक्ति (व्यक्तिगत मन) की पूर्णता का शास्त्र है परन्तु समष्टि (संयुक्त मन) की पूर्णता का शास्त्र नहीं। गीता में ज्ञान की परिभाषा है परन्तु ध्यान की परिभाषा नहीं। गीता व्यक्तिगत प्रमाणित है परन्तु सार्वजनिक प्रमाणित नहीं। गीता व्यक्ति को कैसे चलना चाहिए यह आंशिक रुप से बताती है परन्तु व्यक्ति सहित सम्पूर्ण राष्ट्र को पूर्ण रुप से कैसे चलना चाहिए यह नहीं बताती। गीता ज्ञान व सिद्धान्त का बीज शास्त्र है न कि वृक्ष शास्त्र। गीता में योग है परन्तु ध्यान व चेतना नहीें। गीता में दर्शन है परन्तु विकास दर्शन नहीें। गीता में ईश्वर की व्याख्या है परन्तु अवतार की व्याख्या नहीें। गीता चेला बनाने में उपयोगी है परन्तु गुरू बनाने में नहीें। गीता अर्जुन बनाने में उपयोगी है परन्तु कृष्ण बनाने में नहीें।
आपका फैसला सही था परन्तु गीता के व्यक्तिगत प्रमाणित होने के कारण वह विरोध का शिकार हो गया। ”विश्वशास्त्र“ के साथ ऐसा नहीं हो पायेगा क्योंकि यह गीता समाहित सार्वजनिक प्रमाणित शास्त्र है। जो इसे स्वीकार-आत्मसात् नहीं करेगा वह स्वयं ही ज्ञान-बौद्धिकता के इस युग में पीछे होकर विलीन हो जायेगा। विश्वशास्त्र, समष्टि धर्म शास्त्र है। व्यक्ति अपने व्यष्टि धर्म शास्त्र को भी जीये और एक वैश्विक नागरिक होने के कारण विश्वशास्त्र को भी जीये, तभी उन्नति कर पायेगें।
जिस प्रकार मानवी शरीर एक व्यक्ति है और उसका प्रत्येक सूक्ष्म भाग जिसे हम ”कोश“ कहते हैं एक अंश है। उसी प्रकार सारे व्यक्तियों का समष्टि ईश्वर है, यद्यपि वह स्वयं भी एक व्यक्ति है। समष्टि ही ईश्वर है, व्यष्टि या अंश जीव है। इसलिए ईश्वर का अस्तित्व जीवों के अस्तित्व पर निर्भर है जैसे कि शरीर का उसके सूक्ष्म भाग पर और सूक्ष्म भाग का शरीर पर। इस प्रकार जीव और ईश्वर परस्परावलम्बी हैं। जब तक एक का अस्तित्व है तब तक दूसरे का भी रहेगा। और हमारी इस पृथ्वी को छोड़कर अन्य सब उँचे लोकों में शुभ की मात्रा अशुभ से अधिक होती है। इसलिए वह समष्टि स्वरुप ईश्वर शिव स्वरुप, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ कहा जा सकता है। ये गुण प्रत्यक्ष प्रतीत होते हैं। ईश्वर से सम्बद्ध होने के कारण उन्हें प्रमाण करने के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं होती। ब्रह्म इन दोनों से परे है और वह कोई विशिष्ट अवस्था नहीं है वह एक ऐसी वस्तु है जो अनेकों की समष्टि से नहीं बनी है। वह एक ऐसी सत्ता है जो सूक्ष्मातित-सूक्ष्म से लेकर ईश्वर तक सब में व्याप्त है और उसके बिना किसी का अस्तित्व नहीं हो सकता सभी का अस्तित्व उसी सत्ता या ब्रह्म का प्रकाश मात्र है। जब मैं सोचता हूँ ”मैं ब्रह्म हूँ“ तब मेरा यथार्थ अस्तित्व होता है ऐसा ही सबके बारे में है विश्व की प्रत्येक वस्तु स्वरुपतः वहीं सत्ता है - स्वामी विवेकानन्द
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”मुसलमानों के लिए कुरान और क्रिश्चियनों के लिए बाइबिल है। हर मजहब अपना अपना धर्म शास्त्र रखता है। इसलिए यह हम कैसे कह सकते हैं कि गीता सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए है।“ (एक जनहित याचिका पर उच्च न्यायालय, इलाहाबाद का फैसला) - श्री एच.आर. भारद्वाज
साभार - दी हिन्दू, चेन्नई, दि0 12 सितम्बर 2007
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
वैसे तो गीता किसी मजहब के लिए व्यक्त नहीं की गई थी, वो मानव मात्र के ज्ञान-बौद्धिक विकास के लिए व्यक्त हुई थी। चलिए मान भी लिया जाये कि मुसलमानों के लिए कुरान, क्रिश्चियनों के लिए बाइबिल और हिन्दूओं के लिए गीता इत्यादि हैं। अर्थात ये सब धर्मशास्त्र किसी अलग-अलग मानव समूह के लिए हैं। तो फिर सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए कौन सा है या अभी उपलब्ध नहीं हुआ है। लेकिन अब सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए ”विश्वशास्त्र“ व्यक्त हो चुका है। जो राजतन्त्र में नहीं लोकतन्त्र में आविष्कृत है। खान-पान, पहनावा, पूजा-पद्धति पर आधारित नहीं बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त व कर्मज्ञान पर आधारित है। जिसकी उपयोगिता है-
वर्तमान समय के भारत तथा विश्व की इच्छा शान्ति का बहुआयामी विचार-अन्तरिक्ष, पाताल, पृथ्वी और सारे चराचर जगत में एकात्म भाव उत्पन्न कर अभय का साम्राज्य पैदा करना और समस्याओं के हल में इसकी मूल उपयोगिता है। साथ ही विश्व में एक धर्म- विश्वधर्म-सार्वभौम धर्म, एक शिक्षा-विश्व शिक्षा, एक न्याय व्यवस्था, एक अर्थव्यवस्था, एक संविधान, एक शास्त्र स्थापित करने में है। भारत के लिए यह अधिक लाभकारी है क्योंकि यहाँ सांस्कृतिक विविधता है। जिससे सभी धर्म-संस्कृति को सम्मान देते हुए एक सूत्र में बाँधने के लिए सर्वमान्य धर्म उपलब्ध हो जायेगा। साथ ही संविधान, शिक्षा व शिक्षा प्रणाली व विषय आधारित विवाद को उसके सत्य-सैद्धान्तिक स्वरूप से हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है। साथ ही पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी से संकीर्ण मानसिकता से व्यक्ति को उठाकर व्यापक मानसिकता युक्त व्यक्ति में स्थापित किये जाने में आविष्कार की उपयोगिता है। जिससे विध्वंसक मानव का उत्पादन दर कम हो सके। ऐसा न होने पर नकारात्मक मानसिकता के मानवो का विकास तेजी से बढ़ता जायेगा और मनुष्यता की शक्ति उन्हीं को रोकने में खर्च हो जायेगी। यह आविष्कार सार्वभौम लोक या गण या या जन या स्व का निराकार रूप है इसलिए इसकी उपयोगिता स्वस्थ समाज, स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ उद्योग तथा व्यवस्था के सत्यीकरण और स्वराज की प्राप्ति में है अर्थात मानव संसाधन की गुणवत्ता का विश्वमानक की प्राप्ति और ब्रह्माण्ड की सटीक व्याख्या में है। मनुष्य किसी भी पेशे में हो लेकिन उसके मन का भूमण्डलीयकरण, एकीकरण, सत्यीकरण, ब्रह्माण्डीयकरण करने में इसकी उपयोगिता है जिससे मानव शक्ति सहित संस्थागत और शासन शक्ति को एक कर्मज्ञान से युक्त कर ब्रह्माण्डीय विकास में एकमुखी किया जा सके।
इस पर आपके क्या विचार हैं?
यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म हो सकता है, तो वह ऐसा ही होगा, जो देश या काल से मर्यादित न हो, जो उस अनन्त भगवान के समान ही अनन्त हो, जिस भगवान के सम्बन्ध में वह उपदेश देता है, जिसकी ज्योति श्रीकृष्ण के भक्तों पर और ईसा के प्रेमियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाशित होती हो, जो न तो ब्राह्मणों का हो, न बौद्धों का, न ईसाइयों का और न मुसलमानों का, वरन् इन सभी धर्मों का समष्टिस्वरूप होते हुए भी जिसमें उन्नति का अनन्त पथ खुला रहे, जो इतना व्यापक हो कि अपनी असंख्य प्रसारित बाहूओं द्वारा सृष्टि के प्रत्येक मनुष्य का प्रेमपूर्वक आलिंगन करें।... वह विश्वधर्म ऐसा होगा कि उसमें किसी के प्रति विद्वेष अथवा अत्याचार के लिए स्थान न रहेगा, वह प्रत्येक स्त्री और पुरूष के ईश्वरीय स्वरूप को स्वीकार करेगा और सम्पूर्ण बल मनुष्यमात्र को अपनी सच्ची, ईश्वरीय प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही केन्द्रित रहेगा। - स्वामी विवेकानन्द
ईसाई को हिन्दू अथवा बौद्ध नहीं होना पडे़गा, और न हिन्दू या बौद्ध को ईसाई ही, परन्तु प्रत्येक धर्म दूसरे धर्मो के सारभाग को आत्मसात् करके पुष्टिलाभ करेगा और अपने वैशिष्ट्य की रक्षा करते हुए अपनी निजी प्रकृति के अनुसार वृद्धि को प्राप्त होगा। यदि इस सर्वधर्म परिषद् ने जगत् के समक्ष कुछ प्रमाणित किया है तो वह यह कि उसने यह सिद्ध कर दिखाया है कि शुद्धता, पवित्रता और दयाशीलता किसी सम्प्रदाय-विशेष की सम्पत्ति नहीं है तथा प्रत्येक धर्म ने श्रेष्ठ एवं अतिशय उन्नत-चरित्र स्त्री पुरूषों को जन्म दिया है। अब इन प्रत्यक्ष प्रमाणों के बावजुद भी यदि कोई ऐसा स्वप्न देखे कि अन्यान्य सारे धर्म नष्ट हो जायेंगे और केवल उसका धर्म ही अपना सर्वश्रेष्ठता के कारण जीवित रहेगा, तो उस पर मैं अपने हृदय के अन्तस्थल से दया करता हॅू और उसे स्पष्ट शब्दों में बतलाये देता हूॅ कि वह दिन दूर नहीं हैं, जब उस-जैसे लोगों के अड़ंगों के बावजूद भी प्रत्येक धर्म की पताका पर यह स्वर्णाक्षरों में लिखा रहेगा-‘सहयोग, न कि विरोध’, पर-भाव-ग्रहण न कि पर-भाव-विनाश, ‘समन्वय और शान्ति, न कि मतभेद और कलह’! - स्वामी विवेकानन्द
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”भगवान शिव, हनुमान, दुर्गा ब्रह्माण्ड की अलौकिक शक्तियाँ। ये देवी-देवता किसी पंथ से जुड़े नहीं हैं। इसलिए इनके पूजन और मन्दिर के रखरखाव का खर्च, धार्मिक कृत्य नहीं।“
-आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल), नागपुर, भारत
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
”धार्मिक कृत्य“, जनता के शारीरिक-आर्थिक-मानसिक विकास से सम्बन्धित कार्य कहा जाता है। हिन्दू देवी-देवताओं का प्रक्षेपण ब्रह्माण्डीय सत्य-सिद्धान्त के अनुसार मानक चरित्र के रूप में मानव कल्याण के लिए उनके मस्तिष्क के विकास और मार्गदर्शन के लिए महर्षि व्यास द्वारा किया गया है। जब मानव कल्याण की बात आती है तो वह किसी भी पंथ से नहीं जुड़ सकता जैसे सूर्य सबको प्रकाश-ऊर्जा देता है, वर्षा द्वारा जल सभी को प्राप्त होता है इत्यादि, इसलिए सूर्य या जल देवता को किसी पंथ से नहीं जोड़ा जा सकता। यह सत्य है कि किसी भी उपासना स्थल के देवी-देवता के पूजन और उपासना स्थल के रखरखाव का खर्च किसी भी स्थिति में धार्मिक कृत्य नहीं हो सकता। हाँ ऐसे स्थल के द्वारा जनता के शारीरिक-आर्थिक-मानसिक विकास से सम्बन्धित कार्य, धार्मिक कृत्य के अन्तर्गत आ सकता है। जिस प्रकार किसी उद्योग के रखरखाव में आया खर्च, खर्च होता है और उसके द्वारा उत्पादित वस्तु, उसका कृत्य उत्पाद होता है। उसी प्रकार उपासना स्थल के रखरखाव का खर्च, खर्च है और उसके द्वारा उत्पादित वस्तु अर्थात जन कल्याण कार्य, उसका कृत्य धर्मिक कृत्य होता है।
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”गीता धर्मिक ग्रन्थ नहीं, जीवन दर्शन है जिससे नागरिकता का प्रशिक्षण मिलता है। गीता से न्यायायिक नियंत्रण और सामाजिक सौहार्द का सन्देश भी हासिल होता है।“
-मध्य प्रदेश हाई कोर्ट, भारत
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 29 जनवरी, 2012
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
”सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त“ अर्थात ब्रह्माण्डीय नियम, किसी भी पंथ से नहीं जुड़ सकता जैसे सूर्य सबको प्रकाश-ऊर्जा देता है, वर्षा द्वारा जल सभी को प्राप्त होता है। नागरिकता का प्रशिक्षण, जीवन दर्शन, समाजिक समरसता, समभाव इत्यादि जो मनुष्यता और मानवता के विकास के विषय है, वे सब क्या मनुष्य को नहीं चाहिए? क्या किसी देश और उसके नागरिकों को नहीं चाहिए? और यदि चाहिए तो वह ”गीता“ में पहले से ही उपलब्ध है तो ”गीता“ का क्या दोष? ”गीता“ जब अवतरित की गई थी तब कितने वर्तमान अर्थो के धर्म समाज में थें, यह भी जानना आवश्यक होगा। तभी यह जान पायेंगे कि ”गीता“ किसी पंथ से सम्बन्धित है या मानव जाति से सम्बन्धित है। यह ”सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त“ अर्थात ब्रह्माण्डीय नियम से सम्बन्धित है या मानव निर्मित नियम से सम्बन्धित है। वर्तमान अर्थो के धर्म जो एक पंथ है उनकी पहचान एक पद्धति के रूप में होती है जिसमें एक उपासना स्थल, एक खान-पान, एक वेश-भूषा, एक धार्मिक पुस्तक इत्यादि होते हैं। ”गीता“ इन सबसे मुक्त होकर केवल मस्तिष्क के विकास और चिन्तनशील बनाती है न कि उपासना स्थल, खान-पान, वेश-भूषा इत्यादि की स्थापना करती है।
इसी क्रम में मूल बीज ”गीता“ का वृक्ष शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ है जो सिर्फ ”ज्ञान-कर्मज्ञान“ की बात करती है और यह व्यष्टि (व्यक्तिगत मन) और समष्टि (संयुक्त मन) दोनों के लिए उपलब्ध है। अब यदि कोई यह कहे कि यह ”गीता“ आधारित है और यह हिन्दू धर्म का है तो उस व्यक्ति और देश को ज्ञान-कर्मज्ञान न अपनाने से हानि किसकी होगी? ”सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त“ अर्थात ब्रह्माण्डीय नियम के आविष्कारक ऋषिगण सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कल्याण और एकत्व के लिए कार्य करते थे, न कि एक अलग पंथ और समूह बनाने के लिए। मनुष्य का अपना एक अलग प्रकार का अंहकार होता है, उसे एक नियम बनाकर एक समूह को मोहरे की भाँति संचालित करने में उसके अंहकार को संतुष्टि प्राप्त होती है और उस अपने नियम से ”सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त“ अर्थात ब्रह्माण्डीय नियम को ही नकारने लगता है जिससे वह स्वयं भी संचालित रहता है और उसी से अन्त में वह मिटा दिया जाता है। सभी धर्म शास्त्र राजतन्त्र में आविष्कृत व्यष्टि धर्म शास्त्र हैं। लोकतन्त्र में आविष्कृत प्रथम और अन्तिम व्यष्टि सहित समष्टि धर्म शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ है।
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”हिन्दुत्व पर व्यापक व्याख्या शुरू“ (20 वर्ष से लंबित मामला)
-सुप्रीम कोर्ट, भारत
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
हिन्दुत्व पर बहस करने से कुछ नहीं प्राप्त होगा। बहस से कुछ हल नहीं निकलता, केवल मनोरंजन होता है। दूरदर्शन के अनके चैनलों पर हमेशा बहस होता है। सीधे-सीधे निम्नलिखित कुछ प्रश्न उठाकर समाज के बौद्धिक शक्ति से उत्तर माँग लिजिए। वह उत्तर ही हिन्दुत्व पर बहस का हल होगा-
1. जिस प्रकार भारत में एक राष्ट्रीय ध्वज (तिरंगा), एक राष्ट्रीय पक्षी (भारतीय मोर), एक राष्ट्रीय पुष्प (कमल), एक राष्ट्रीय पेड़ (भारतीय बरगद), एक राष्ट्रीय गान (जन गण मन), एक राष्ट्रीय नदी (गंगा), एक राष्ट्रीय प्रतीक (सारनाथ स्थित अशोक स्तम्भ का सिंह), एक राष्ट्रीय पंचांग (शक संवत पर आधारित), एक राष्ट्रीय पशु (बाघ), एक राष्ट्रीय गीत (वन्दे मातरम), एक राष्ट्रीय फल (आम), एक राष्ट्रीय खेल (हाॅकी), एक राष्ट्रीय मुद्रा चिन्ह, एक संविधान है उसी प्रकार एक राष्ट्रीय शास्त्र भी भारत को आवश्यकता है। जिससे नागरिक अपने व्यक्तिगत धर्म शास्त्र को मानते हुये भी राष्ट्रधर्म को भी जान सके। जो लोकतन्त्र का धर्मनिरपेक्ष-सर्वधर्मसमभाव शास्त्र भी होगा। इसके लिए संरकार व समाज प्रयत्न करें।
2. क्या राष्ट्रपुत्र के रूप में स्वामी विवेकानन्द को मान्यता दे दी जाय?
3. ”शिक्षा के अधिकार अधिनियम“ के बाद अब ”पूर्ण शिक्षा का अधिकार अधिनियम“ बनना चाहिए। पूर्ण शिक्षा पाठ्यक्रम किस प्रकार बनाया जाय और उसका स्वरूप क्या होगा?
4. देश, व्यक्ति व संस्था किस प्रकार के नागरिक का निर्माण करना चाहते हैं और उसका मानक क्या हैं?
5. ऐसा कौन सा सार्वजनिक प्रमाणित सत्य-सिद्धान्त है जो पूर्णतया विवादमुक्त है जिससे सभी तन्त्रों को विवादमुक्त कर उसका सत्यीकरण किया जा सके?
6. गणराज्य का सत्य रूप क्या है? जिससे हम सबसे बड़े लोकतन्त्र को पूर्णता प्रदान करते हुये विश्व को एक मानक लोकतन्त्र दे सकें?
7. मन या मानव संसाधन का विश्व मानक निर्धारण करना आवश्यक है वह कैसे निर्मित हो?
उपरोक्त कार्य संवैधानिक विकास व लोकतन्त्र की पूर्णता का ही कदम है।
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