Monday, March 23, 2020

विश्वमानव और भारतीय संसद

भारतीय संसद

‘‘द्वितीय स्वतन्त्रता संग्राम शुरू करने का संसद में सर्वसम्मति से आहवान’’
स्वतन्त्रता के 50 वर्ष पूर्ण होने पर संसद का निर्णय, साभार-दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 31-8-97

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
जिसका निर्णय संसद में सर्वसम्मति से लिया गया, जो साधारण जनता, शहीद एवम् जीवित स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की आत्मा की आवाज है। जो संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव, भारत के राष्ट्रपति, राजनितिक दलों एवम् बुद्धिजीवि वर्ग का आवश्यक कर्म है और जनता तथा वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ी का भविष्य है। जिसे युवाओं को कर्म के साथ प्रारम्भ करना है। नवयुवकों और वृद्धों को समर्थन के साथ आना है। प्रौढ़ो को कर्म एवम् ज्ञान के साथ आना है। महिलाओं को समानता के लिए आत्मसात् कर शक्ति रूप में व्यक्त होना है। जो भारत तथा विश्व का भविष्य है। यह वही कार्य है, जो द्वितीय और अन्तिम स्वतन्त्रता संग्राम-आध्यात्मिक स्वन्त्रता संग्राम के रूप में व्यक्त हुआ है। जब व्यक्ति एवम् देश के शरीर को स्वतंत्र करना था अर्थात प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम था। तब देश भक्तों की आवश्यकता थी। अब जब द्वितीय स्वतन्त्रता संग्राम का अवसर है तब देश भक्त (भारत भक्त) सहित राष्ट्र भक्त (विश्व भक्त) की आवश्यकता है। क्योंकि देशभक्त की भावना में दूसरे देश के प्रति अपनत्व नहीं आ पाती। दूसरे देश के प्रति अपनत्व की भावना तभी आ सकती है जब वह राष्ट्र भक्त हो। प्रकृति अविष्कृत राष्ट्र एक विश्व है। जिसमें मानव अविष्कृत राष्ट्र-देश समाहित हैं। यह प्रश्न हो सकता है कि पूर्ण ज्ञान या पूर्ण स्वतन्त्रता के बाद समाज और लोकतंत्र बिखर नहीं जायेगा? ऐसा कदापि नहीं होगा बल्कि वह स्वस्थ हो जायेगा क्योंकि व्यक्ति समाज और लोकतंत्र का देश काल मुक्त ज्ञान एवम् कर्मज्ञान सभी में समान हो जायेगा और देश काल बद्ध ज्ञान एवम् कर्मज्ञान से युक्त होकर अपने अधिकार क्षेत्र में ही वे कार्य करेंगे। वर्तमान समय के तरह नहीं कि जो कर्म व्यक्ति को स्वयं कर लेने चाहिए उसे भी वे नेताओं पर छोड़े रहते है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से प्राप्त स्वतन्त्रता के उपरान्त भारत के संविधान का निर्माण हुआ जो सुरक्षा, कर्मफल एवम् पश्चिमी भाव आधारित संविधान है। अब द्वितीय एवम् पूर्ण स्वतंत्रता के उपरान्त भारतीय संविधान का विश्व संविधान में परिवर्तित करना हो तो शान्ति, कर्म-कारण एवम् भारतीय भाव आधारित संविधान का निर्माण करना होगा जो एकात्म कर्मवाद पर आधारित होना चाहिए न कि एकात्मवाद (एकात्म संस्कृति) पर आधारित। 
विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के संसद को मैं याद दिलाना चाहता हूँ कि अगस्त, 1997 में संसद ने ‘‘द्वितीय स्वतन्त्रता संग्राम शुरू करने का संसद में सर्वसम्मति से आह्वान’’ (दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 31-8-97) किया था। लोकतन्त्र की मर्यादा और विश्व के समक्ष अपनी सवश्रेष्ठता सहित उसकी स्वस्थता व पूर्णता के लिए मैं संसद के समक्ष उसके निर्णय के अनुरूप कुछ लक्ष्य रख कर आह्वान करता हूँ कि संसद नागरिक, देश व विश्व के लिए उसे पूर्ण कर अपने कर्तव्य को निभाये। 
1. जिस प्रकार भारत में एक राष्ट्रीय ध्वज (तिरंगा), एक राष्ट्रीय पक्षी (भारतीय मोर), एक राष्ट्रीय पुष्प (कमल), एक राष्ट्रीय पेड़ (भारतीय बरगद), एक राष्ट्रीय गान (जन गण मन), एक राष्ट्रीय नदी (गंगा), एक राष्ट्रीय प्रतीक (सारनाथ स्थित अशोक स्तम्भ का सिंह), एक राष्ट्रीय पंचांग (शक संवत पर आधारित), एक राष्ट्रीय पशु (बाघ), एक राष्ट्रीय गीत (वन्दे मातरम्), एक राष्ट्रीय फल (आम), एक राष्ट्रीय खेल (हाॅकी), एक राष्ट्रीय मुद्रा चिन्ह, एक संविधान है उसी प्रकार एक राष्ट्रीय शास्त्र भी भारत को आवश्यकता है। जिससे नागरिक अपने व्यक्तिगत धर्म शास्त्र को मानते हुये भी राष्ट्रधर्म को भी जान सके। जो लोकतन्त्र का धर्मनिरपेक्ष-सर्वधर्मसमभाव शास्त्र भी होगा।
2. पिछले 65 वर्षो से अकेले रह रहे हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को एक राष्ट्रपुत्र भी चाहिए जिसके स्वामी विवेकानन्द पूर्णतः योग्य हैं।ं जिससे नागरिक उनके धर्मनिरपेक्ष-सर्वधर्मसमभाव विचार व जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर सके।
3. ”शिक्षा के अधिकार अधिनियम“ के बाद अब ”पूर्ण शिक्षा का अधिकार अधिनियम“ बनना चाहिए। पूर्ण शिक्षा पाठ्यक्रम बनने से पूर्ण मानव का निर्माण प्रारम्भ होगा फलस्वरूप देश सहित विश्व के विकास और उसके प्रति समर्पित नागरिक प्राप्त होने लगेगें जो कत्र्तव्य आधारित नागरिक होंगे।
4. यह प्रश्न उठाना चाहिए कि देश, व्यक्ति व संस्था किस प्रकार के नागरिक का निर्माण करना चाहते हैं और उसका मानक क्या हैं? यह सभी संस्थानों से पूछा जाना चाहिए।
5. यह प्रश्न उठाना चाहिए कि ऐसा कौन सा सार्वजनिक प्रमाणित सत्य-सिद्धान्त है जो पूर्णतया विवादमुक्त है जिससे सभी तन्त्रों को विवादमुक्त कर उसका सत्यीकरण किया जा सके।
6. यह प्रश्न उठना चाहिए कि गणराज्य का सत्य रूप क्या है? जिससे हम सबसे बड़े लोकतन्त्र को पूर्णता प्रदान करते हुये विश्व को एक मानक लोकतन्त्र दे सकें।
7. मन या मानव संसाधन का विश्व मानक निर्धारण के लिए प्रक्रिया प्रारम्भ करना आवश्यक है जिससे राश्ट्र को मानक मानव संसाधन प्राप्त हो।
उपरोक्त लक्ष्यों के लिए मैं भारत के संसद का आह्वान करता हूँ कि कम से कम समस्याओं से घिरते विश्व को अपनी सकारात्मक सोच से परिचय कराये।

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