Monday, March 23, 2020

विश्वमानव और श्री फर्दिनो इनासियो रिबैलो

श्री फर्दिनो इनासियो रिबैलो

 परिचय -
श्री फर्दिनों इनासियो रिबैलो का जन्म 31 जुलाई 1949 को हुआ था। गवर्नमेण्ट कालेज, मुम्बई से आपने एल.एल.बी. की परीक्षा उतीर्ण की और 30 जुलाई 1973 को एक अधिवक्ता के रूप में प्रवेश किया। न्यायायिक आयुक्त के न्यायालय, पणजी, गोवा में 1973 से 1982 तक कार्य किये। फिर 1982 से संवैधानिक स्व सरकार मामलों सेवा में मुम्बई के पणजी पीठ पर कार्य किये। सालगोन्सर लाॅ कालेज में 1975 से 1977 तक कानून में एक अंशकालिन व्याख्याता के रूप में काम किये। 1994 से 1996 तक गोवा उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे। दिसम्बर 1995 में वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में पीठासीन हैं। 15 अप्रैल 1996 से 2 वर्ष केे प्रभावी अवधि के लिए मुम्बई उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में नियुक्त। अप्रैल 1998 से स्थायी न्यायाधीश नियुक्त। 26 जून 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ ग्रहण किये और 30 जुलाई 2011 को सेवानिवृत्त हो गये।

”दुनिया भर के न्यायाधीशों को भारत से विश्व शान्ति का संदेश लेकर अपने देश जाना चाहिए तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 में शान्ति, सुरक्षा, सह-अस्तित्व तथा आपसी भाईचारे के लिए जो व्यवस्था की गयी है, उसे अपनाना चाहिए। भारतीय संविधान का यह अनूठा अनुच्छेद अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की भावना को बढ़ावा देती है। अनुच्छेद 51 दुनिया को नयी दिशा देने में सक्षम है। इतिहास गवाह है कि भारतीय दर्शन सदैव मानव जाति को शान्ति, सहयोग, सौहार्द तथा सत्य-अहिंसा का मार्ग दिखाता आया है।“ (लखनऊ में सी.एम.एस द्वारा संविधान के अनुच्छेद 51 पर आयोजित विश्व के मुख्य न्यायाधीशों व न्यायविद्ों के तीन दिवसीय 11वें अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन समारोह में)
-श्री फर्दिनो इनासियो रिबैलो
साभार - दैनिक जागरण, वाराणसी, दि0 12 दिसम्बर, 2010

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
  भारतीय संविधान के धारा-51(ए) के अन्तर्गत नागरिक का मौलिक कत्र्तव्य के अनुसार -
1.स्ंाविधान के प्रति प्रतिबद्धता, इसके आदर्शो, धाराओं, राष्ट्रीय ध्वज व राष्ट्रीय गान का आदर करना।
2.स्वतंत्रता के लिए संघर्ष हेतू प्रेरित करने वाले सुआदर्शाे का अनुकरण करना व उन्हें चिरस्थायी बनाना।
3.भारत की सर्वोच्चता, एकता और अखण्डता की रक्षा करना तथा समर्थन करना।
4.जब भी आवश्यकता पड़े देश की रक्षा करना व राष्ट्रीय सेवाओं हेतू समर्पित होना।
5.समाज में भाई-चारें की भावना का विस्तार करना, मातृत्व भाव, धार्मिक, भाषायिक, क्षेत्रीय विभिन्नताओं में एकता कायम करना तथा नारी सम्मान आदि का ध्यान देना।
6.अपने मिश्रित संस्कृति का मूल्यांकन करना उसको स्थायित्व देना और इसकी परम्परा को कायम रखना।
7.प्राकृतिक सम्पदा की रक्षा करना जिसमें जलवायु, जंगल, झील, नदियां, जंगली जीवों व समस्त जीवों के प्रति दया का भाव सम्मिलित है।
8.वैज्ञानिक भावना को प्रोत्साहित करना, मानवीय भावनाओं के स्वरूप की परख करते रहना।
9.जन सम्पत्ति की सुरक्षा करना और हिंसा आदि का परित्याग करना।
10.व्यक्तिगत, सामूहिक गतिविधियों के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वोच्चता हासिल करना, जिससे राष्ट्र शतत उत्थान, प्रयत्न व प्राप्ति की ओर अग्रसर होता रहे।
11.जो कि माता-पिता या अभिभावक हो, वे अपने 6 साल से 14 साल के बच्चों को शिक्षा या अन्य ऐसे सुअवसरों का लाभ उन्हें मुहैया करावें। 
आध्यात्मिक एवं पदार्थिक वैज्ञानिक सत्य पर आधारित मूल सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त तथा उसके व्यापकता अर्थात् बहुरुप के उदाहरण सहित स्थापना की नीति को प्रस्तुत करना जो मेरा धर्म था उसे पूर्ण किया गया। अब भारत देश के हाथों में गेंद है कि वह कब इसका प्रयोग सार्वजनिक प्रमाणित काल में भारत को विश्वगुरु और विश्व नेतृत्व सहित विश्व शान्ति-एकता-स्थिरता-विकास-सुरक्षा-प्रबन्ध के लिए प्रयोग करता है। भारत में इसका मूल लाभ- बेरोजगारी समाप्त करने में है क्योंकि संसाधनों के होते हुए भी कर्मज्ञान के अभाव में बेरोजगारी बढ़ रहीं है। कर्मज्ञान के अभाव में शिक्षा निर्भरता को बढ़ा रही है। तन्त्रों की वास्तविक स्थिति, भारत का विश्वव्यापी वैचारिक पहचान, सुदृढ़ अर्थशक्ति का निर्माण, रुपये का मूल्य बढ़ना, स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ समाज, स्वस्थ उद्योग, पूर्ण मानव का निर्माण इसके अलग लाभ हैं। सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के प्रस्तुतीकरण के उपरान्त अब मेरी आवश्यकता नहीं रही क्योंकि भारत सहित विश्व में इतने तैयार बुद्धि शक्ति युक्त मानव है कि इस सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के आधार पर इसके शाखाओं को विकसित करते हुए कार्य को सम्पन्न कर सकते हैं। प्रस्तुत सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त और व्याख्या में किसी भी प्रकार का उचित संशोधन स्वागत योग्य होगा। हमारा लक्ष्य सार्वजनिक प्रमाणित मार्ग द्वारा रचनात्मक, सकारात्मक, समन्वयात्मक स्वरुप को विकसित करना है यह सार्वजनिक कार्य है जो सार्वजनिक बुद्धि शक्ति द्वारा ही पूर्ण विकसित होगा। मात्र किसी एक भ्रम से सम्पूर्ण स्वरुप गलत सिद्ध नहीं हो सकता और न ही किसी भ्रम की किसी के द्वारा पाने में मुझे कोई कष्ट है। जो स्वरुप उपलब्ध नहीं था, जिसकी आवश्यकता थी, जिसकी विवशता थी, जो मानवता था उसे उपलब्ध कराया गया। मैं जहाँ हूँ वहीं मेरा स्थान है वहीं मेरा स्वर्ग है। मैं हुकूमत नहीं मैं मात्र दिशाबोध, निर्विरोध, अन्तिम मार्ग, मार्गदर्शक, मूलबीज और सेवक हूँ। 
निवेदन है कि अपनी दृष्टि से मुझे देखकर मुझे अपने मार्ग का बाधक न समझे। मुझे सिर्फ मेरी दृष्टि से देखें और समझें। यह न समझें कि मैं किसी मानवीय पदों पर बैठने की कोशिश करुँगा। मेरे योग्य जो पद चाहिए उसे मैं प्राप्त कर चुका हूँ। वहाँ कोई प्रतिद्वन्दी नहीं। वहाँ कोई चुनाव नहीं। वह निर्विरोध है। वह निर्दल है। वह अनिर्वचनीय है। उसे प्राप्त कर पाना मानवीय बस की बात नहीं। हाँ तुम्हें यदि अपनी दिशा से किसी मानवीय पद की आवश्यकता हो तो उसके लिए अपनी दिशा से कर्म करो। मेरा पद छीनना भी तुम्हारे बस की बात नहीं क्योंकि शरीर तुम्हारे पास है परन्तु नाम-रुप-गुण कहाँ से लाओगे। वह भी सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का जो कि मानवीय जीवन में सिर्फ एक बार और अन्तिम बार ही व्यक्त होता है और वह व्यक्त किया जा चुका है। मैं सिर्फ विश्व का दर्पण हूँ जो सत्व (मार्ग दर्शक व विकास), रज (निर्माण) तथा तम (विनाश) से युक्त होते हुए भी उससे मुक्त है।
राष्ट्र के सजग और समर्पित आम नागरिक होने के कारण भारतीय संविधान के धारा-51(ए) के अन्र्तर्गत नागरिक का मौलिक कत्र्तव्य के अनुसार मैंने अपना कत्र्तव्य व धर्म निभाया है। लोग अधिकार की बात करते हैं मैं कत्र्तव्य की बात करता हूँ। उचित अधिकार तो अपने आप प्राप्त हो जायेगा।





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