श्री सैम पित्रोदा (4 मई 1942 - )
परिचय -
तितलागढ़, उड़ीसा, भारत में 4 मई 1942 को जन्मे सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा, लोकप्रिय नाम ”सैम पित्रोदा“ के रूप में जाने जाते हैं। जो एक आविष्कारक, उद्यमी, और नीतिनिर्माता हैं। उन्होंने गुजरात में वल्लभ विद्यानगर से अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की और वडोदरा में महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय से भौतिकी और इलेक्ट्रॉनिक्स में अपने परास्नातक पूरा किया. भौतिकी में अपने परास्नातक पूरा करने के बाद वह अमेरिका के गये और इलिनोइस विश्वविद्यालय, शिकागो में प्रौद्योगिकी संस्थान से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में परास्नातक डिग्री प्राप्त की।
भारतीय सूचना क्रांति के अग्रदूत माने जाने वाले सैम पित्रोदा का पूरा नाम सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा है। चार मई 1942 को उड़ीसा के तितलागढ़ में जन्मे पित्रोदा एक भारतीय अविष्कारक, कारोबारी और नीति निर्माता हैं।
वर्तमान में पित्रोदा भारतीय प्रधानमंत्री के जन सूचना संरचना और नवप्रवर्तन सलाहकार हैं। प्रधानमंत्री के सलाहकार के रूप में उनकी भूमिका विभिन्न क्षेत्रों में नागरिकों को मिलनेवाली सुविधाओं को प्रभावी बनाना और नवप्रवर्तन के लिए रोडमैप तैयार करना है। पित्रोदा राष्ट्रीय नवप्रवर्तन परिषद के चेयरमैन भी हैं।
साल 2005 से 2009 तक सैम पित्रोदा भारतीय ज्ञान आयोग के चेयरमैन थे। इस उच्च स्तरीय सलाहकार परिषद का गठन देश में ज्ञान आधारित संस्थाओं और उनके आधारभूत ढांचे को बेहतर बनाने के लिए परामर्श देने के लिए किया गया था.
भारतीय ज्ञान आयोग के चेयरमैन की हैसियत से काम करते हुए पित्रोदा ने 27 क्षेत्रों में सुधार के लिए करीब 300 सुझाव दिए थे।
भौतिकी में स्नातकोत्तर करने के बाद इलेक्ट्रोनिक्स में मास्टर की डिग्री हासिल करने के लिए पित्रोदा शिकागो के इलिनॉय इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी गए। साठ और सत्तर के दशक में पित्रोदा दूरसंचार और कंप्यूटिंग के क्षेत्र में तकनीक विकसित करने की दिशा में काम करते रहे। पित्रोदा के नाम सौ से भी अधिक पेटेंट हैं। साल 1984 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पित्रोदा को भारत आकर अपनी सेवाएं देने का न्योता दिया। भारत लौटने के बाद उन्होंने दूरसंचार के क्षेत्र में स्वायत्त रूप से अनुसंधान और विकास के लिए सी-डॉट यानि सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ टेलिमैटिक्स की स्थापना की। उसके बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सलाहकार की हैसियत के उन्होंने घरेलू और विदेशी दूरसंचार नीति को दिशा देने का काम किया।
1990 के दशक में पित्रोदा एक बार फिर अपने कारोबारी हित साधने के लिए अमरीका चले गए और लंबे समय तक वहां तकनीकी अनुसंधान का काम करते रहे। 2004 में जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार सत्ता में आई तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सैम पित्रोदा दो फिर भारत आने का न्योता दिया और उन्हें भारतीय ज्ञान आयोग का चेयरमैन बनाया गया। रा्ष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कारों से सम्मानित पित्रोदा को विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए 2009 में पद्मभूषण से नवाजा गया। 1992 में पित्रोदा संयुक्त राष्ट्र में भी सलाहकार रहे। पिछले साल उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सैम पित्रोदा को ओबीसी पोस्टर ब्वाय के रूप में उतार कर नया चुनावी समीकरण बनाने की कोशिश की थी.
”शिक्षा का नया माॅडल विकसित करना होगा। पिछले 25 वर्षो से हम अमीर लोगों की समस्या सुलझा रहे हैं। अब हमें गरीबों की समस्या सुलझानें का नैतिक दायित्व निभाना चाहिए। देश में 25 वर्ष से कम उम्र के 55 करोड़ लोग हैं। हमें सोचना होगा कि हम उन्हें नौकरी और प्रशिक्षण कैसे देगें। भौतिकी, रसायन, गणित जैसे पारम्परिक विषयों को पढ़ने का युग समाप्त हो गया। अब तो हमें रचनात्मकता, समन्वय, लीडरशिप, ग्लोबल तथा प्रोफेशनल विषयों को पढ़ने तथा सूचना तकनीक के जरिए पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत है। हमारे देश में जो अध्यापक हैं, वे शोध नहीं करते और जो शोध करते हैं वे पढ़ाते नहीं। हमें पूरी सोच को बदलनी है।“
- सैम पित्रोदा, अध्यक्ष, राष्ट्रीय नवोन्मेष परिषद्
(प्रधानमंत्री के सूचना तकनीकी सलाहकार व राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के पूर्व अध्यक्ष)
27 नवम्बर, 2011, हिन्दुस्तान, वाराणसी संस्करण
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
छात्रों की विवशता है कि उनके शिक्षा बोर्ड व विश्वविद्यालय जो पाठ्यक्रम तैयार करेगें वहीं पढ़ना है और छात्रों की यह प्रकृति भी है कि वही पढ़ना है जिसकी परीक्षा ली जाती हो। जिसकी परीक्षा न हो क्या वह पढ़ने योग्य नहीं है? बहुत बड़ा प्रश्न उठता है। तब तो समाचार पत्र, पत्रिका, उपन्यास इत्यादि जो पाठ्यक्रम के नहीं हैं उन्हें नहीं पढ़ना चाहिए। शिक्षा बोर्ड व विश्वविद्यालय तो एक विशेष पाठ्यक्रम के लिए ही विशेष समय में परीक्षा लेते हैं परन्तु ये जिन्दगी तो जीवन भर परीक्षा हर समय लेती रहती है तो क्या जीवन का पाठ्यक्रम पढ़ना अनिवार्य नहीं है? परन्तु यह पाठ्यक्रम मिलेगा कहाँ? निश्चित रूप से ये पाठ्यक्रम अब से पहले उपलब्ध नहीं था लेकिन इस संघनित (Compact) होती दुनिया में ज्ञान को भी संघनित (Compact) कर पाठ्यक्रम बना दिया गया है। इस पाठ्यक्रम का नाम है - ”सत्य मानक शिक्षा“ और आप तक पहुँचाने के कार्यक्रम का नाम है - ”पुनर्निर्माण-सत्य शिक्षा का राष्ट्रीय तीव्र मार्ग (RENEW - Real Education National Express Way)“। यह वही पाठ्यक्रम है जोे मैकाले शिक्षा पाठ्यक्रम (वर्तमान शिक्षा) से मिलकर पूर्णता को प्राप्त होगा। इस पाठ्यक्रम का विषय वस्तु जड़ अर्थात सिद्धान्त सूत्र आधारित है न कि तनों-पत्तों अर्थात व्याख्या-कथा आधारित। जिसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है- मैकेनिक जो मोटर बाईडिंग करता है यदि वह केवल इतना ही जानता हो कि कौन सा तार कहाँ जुड़ेगा जिससे मोटर कार्य करना प्रारम्भ कर दें, तो ऐसा मैकेनिक विभिन्न शक्ति के मोटर का आविष्कार नहीं कर सकता जबकि विभिन्न शक्ति के मोटर का आविष्कार केवल वही कर सकता है जो मोटर के मूल सिद्धान्त को जानता हो। ऐसी ही शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था - ”अनात्मज्ञ पुरूषों की बुद्धि एकदेशदर्शिनी (Single Dimensional) होती है। आत्मज्ञ पुरूषों की बुद्धि सर्वग्रासिनी (Multi Dimensional) होती है। आत्मप्रकाश होने से, देखोगे कि दर्शन, विज्ञान सब तुम्हारे अधीन हो जायेगे।“
शिक्षा क्षेत्र का यह दुर्भाग्य है कि जीवन से जुड़ा इतना महत्वपूर्ण विषय ”व्यापार“, को हम एक अनिवार्य विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल नहीं कर सकें। इसकी कमी का अनुभव उस समय होता है जब कोई विद्यार्थी 10वीं या 12वीं तक की शिक्षा के उपरान्त किसी कारणवश, आगे की शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता। फिर उस विद्यार्थी द्वारा पढ़े गये विज्ञान व गणित के वे कठिन सूत्र उसके जीवन में अनुपयोगी लगने लगते है। यदि वहीं वह व्यापार के ज्ञान से युक्त होता तो शायद वह जीवकोपार्जन का कोई मार्ग सुगमता से खोजने में सक्षम होता।
आध्यात्म और विज्ञान ने मानव सभ्यता के विकास में अब कम से इतना विकास तो कर ही चुका है कि अब हमें मन के एकीकरण के लिए कार्य करना चाहिए। और उस मन पर कार्य करने का ही परिणाम है -
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त एक ही सत्य-सिद्धान्त द्वारा व्यक्तिगत व संयुक्त मन को एकमुखी कर सर्वोच्च, मूल और अन्तिम स्तर पर स्थापित करने के लिए शून्य पर अन्तिम आविष्कार WS-0 श्रृंखला की निम्नलिखित पाँच शाखाएँ है।
1. डब्ल्यू.एस. (WS)-0 : विचार एवम् साहित्य का विश्वमानक
2. डब्ल्यू.एस. (WS)-00 : विषय एवम् विशेषज्ञों की परिभाषा का विश्वमानक
3. डब्ल्यू.एस. (WS)-000 : ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
4. डब्ल्यू.एस. (WS)-0000 : मानव (सूक्ष्म तथा स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक
5. डब्ल्यू.एस. (WS)-00000 : उपासना और उपासना स्थल का विश्वमानक
और पूर्णमानव निर्माण की तकनीकी WCM-TLM-SHYAM.C है।
जो शिक्षा का नया माॅडल है। गरीबों की समस्या सुलझानें का नैतिक दायित्व है। देश में 25 वर्ष से कम उम्र के 55 करोड़ लोगों के लिए पुननिर्माण जैसी योजना हैं। उन्हें नौकरी और प्रशिक्षण की व्यवस्था है। रचनात्मकता, समन्वय, लीडरशिप, ग्लोबल तथा प्रोफेशनल विषयों को पढ़ने तथा सूचना तकनीक के जरिए पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित करने से युक्त है। हमारे देश में जो अध्यापक हैं, वे शोध नहीं करते और जो शोध करते हैं वे पढ़ाते नहीं, इसलिए शिक्षार्थी को ही शोध पत्र (विश्वशास्त्र) पढ़ाया जाय क्योंकि शिक्षक पढ़ने से तो रहे क्योंकि समान्यतः धन के आने की सुनिश्चितता के बाद लोग पढ़ना छोड़ देते हैं, यही नहीं कोशिश तो यह भी रहती है कि पढ़ाना भी न पड़े और उन्हें सेवा से हटाया भी नहीं जा सकता।
शिक्षा (वर्तमान अर्थ में) प्राप्त करने के बाद या तो शिक्षा-कौशल के अनुसार कार्य को आजीविका बनाते हैं या जो पढ़े हैं उसे ही पढ़ाओ वाले व्यापार में लग जाते हैं। अब बेरोजगारों को इस दुनिया में परिवर्तन लाने वाले राष्ट्र निर्माण के व्यापार से जोड़ना पड़ेगा। इससे उन्हें रोजगार भी मिलेगा और राष्ट्र निर्माण का श्रेय भी। वे शान से कह सकेगें - ”हम सत्य ज्ञान का व्यापार करते हैं। हम राष्ट्र निर्माण का व्यापार करते हैं। हम समाज को सहायता प्रदान करने का व्यापार करते हैं। हम, लोगों को आत्मनिर्भर बनाने का व्यापार करते हैं और वहाँ करते हैं जिस क्षेत्र, जिला, मण्डल, प्रदेश व देश के निवासी हैं। जहाँ हमारे भाई-बन्धु, रिश्तेदार, दोस्त इत्यादि रहते हैं।“
स्वामी विवेकान्द जी ने कहा था - सुधारकों से मैं कहूंगा कि मैं स्वयं उनसे कहीं बढ़कर सुधारक हूँ। वे लोग इधर-उधर थोड़ा सुधार करना चाहते हैं- और मैं चाहता हूँ आमूल सुधार। हम लोगों का मतभेद है केवल सुधार की प्रणाली में। उनकी प्रणाली विनाशात्मक है और मेरी संघटनात्मक। मैं सुधार में विश्वास नहीं करता, मैं विश्वास करता हूँ स्वाभाविक उन्नति में।
स्वाभाविक उन्नति तभी होती है जब संसाधन उपलब्ध हो। कार-मोटरसाइकिल घर में पहले से रहता है तो स्वाभाविक रूप से कम उम्र में ही घर के लोग चलाना सिख जाते हैं इसलिए सुधार का वो महान शास्त्र - ”विश्वशास्त्र“ पहले संसाधन के रूप में प्रत्येक घर में उपलब्ध हो। जो ”आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत के आधार पर एक भारत - श्रेष्ठ भारत“ निर्माण का अन्तिम शास्त्र है। फिर 25 वर्ष से कम उम्र के 55 करोड़ लोग अपने आप आत्मनिर्भर हो जायेगें।
वैसे तो यह कार्य भारत सरकार को राष्ट्र की एकता, अखण्डता, विकास, साम्प्रदायिक एकता, समन्वय, नागरिकों के ज्ञान की पूर्णता इत्यादि जो कुछ भी राष्ट्रहित में हैं उसके लिए सरकार के संस्थान जैसे- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.), एन.सी.ई.आर.टी, राष्ट्रीय ज्ञान आयोग, राष्ट्रीय नवोन्मेष परिषद्, भारतीय मानक ब्यूरो के माध्यम से ”राष्ट्रीय शिक्षा आयोग“ बनाकर पूर्ण करना चाहिए जो राष्ट्र के वर्तमान और भविष्य के लिए अति आवश्यक और नागरिकों का राष्ट्र के प्रति कर्तव्य निर्धारण व परिभाषित करने का मार्ग भी है। भारत को यह कार्य राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली (National Education System-NES) व विश्व को यह कार्य विश्व शिक्षा प्रणाली (World Education System-WES) द्वारा करना चाहिए। जब तक यह शिक्षा प्रणाली भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जनसाधारण को उपलब्ध नहीं हो जाती तब तक यह ”पुनर्निर्माण“ द्वारा उपलब्ध करायी जा रही है।
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