Monday, March 23, 2020

विश्वमानव और भारतीय मीडिया (चैथा स्तम्भ - पत्रकारिता)

भारतीय मीडिया (चैथा स्तम्भ - पत्रकारिता)

”अपने उद्देश्य और शक्ति के कारण मीडिया को ‘फोर्थ स्टेट’ नहीं बल्कि ‘फस्र्ट स्टेट’ का दर्जा मिलना चाहिए हालांकि कुछ वर्षों से मीडिया की भूमिका न्यूज सप्लायर की हो गयी है। मीडिया का सशक्त तंत्र, लोकतंत्र के तीनों अंगांे की आलोचना करने में समर्थ है। और उनको सही दिशा में कार्य करने पर जोर देता है। लेकिन विचार और आलोचना के लिए स्वतंत्र होने का मतलब यह नहीं है कि समाज को प्रभावित करने वाली महत्वपूर्ण घटनाओं की पहले ही इच्छानुसार अभिव्यक्ति की जाय। दरअसल मीडिया की भूमिका रचनात्मक विपक्ष की तरह होनी चाहिए। जो बातें प्रशंसा के योग्य हो उन्हें अहमियत दी जाए। बुरी बात को कहने से हिचकने की जरुरत नहीं है हालांकि दुर्भाग्य से आज ऐसा नहीं हो रहा है।“ (पत्रकारिता विभाग, बी0 एच0 यू0 में बोलते हुए)
-न्यायमूर्ति परशुराम वी0 सावंत, अध्यक्ष प्रेस काउंसिल आॅफ इण्डिया 
साभार - अमर उजाला, इलाहाबाद दि0 22-02-2000

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
”निश्चित रुप से मीडिया अपने उद्देश्य और शक्ति के कारण फोर्थ स्टेट नहीं बल्कि फस्र्ट स्टेट है परन्तु यह किसी सर्टिफिकेट द्वारा प्राप्त नहीं होता। यह स्वयं मीडिया अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए शक्ति का प्रदर्शन कर प्राप्त कर सकती है। मीडिया लोकतन्त्र के तीनों अंगों को शक्ति तो अवश्य प्रदान करता है किन्तु वर्तमान में यह तीनों अंगों की गुलाम ही है। मीडिया का वास्तविक स्वरुप लोकतन्त्र में लोक की भूमिका है और जहाँ भी लोक प्रतिनिधित्व करता विचार व्यक्त हो रहा हो वहाँ शीघ्रता शीघ्र सक्रिय हो जाना चाहिए। लोकतन्त्र के तीनों अंगों की अस्वस्थता को तो मीडिया व्यक्त कर देती है परन्तु मीडिया की अस्वस्थता को कौन व्यक्त करेगा? मीडिया की अस्वस्थता को वहीं व्यक्त कर सकता है जो लोक या जन या गण का वास्तविक रुप हो जिसके बिना लोकतन्त्र, लोकतन्त्र न हो। भारत, भारत न हो। विश्व, विश्व न हो। और उस पर भी मीडिया निष्क्रिय रहे। ‘स्वामी विवेकानन्द का पुनर्जन्म’, ‘कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद का आविष्कार’, ‘विश्वमानक - शून्य: मन की गुणवत्ता का विश्वमानक का आविष्कार’, ‘विश्व राजनीतिक पार्टी संघ का प्रारूप’, ‘विश्वशास्त्र-साहित्य की रचना’, ‘विश्व- राष्ट्रीय-जन-ऐजेण्डा-साहित्य-2012+ का प्रस्तुतीकरण’, ‘ईश्वर का अन्तिम अवतरण’ इत्यादि विषय मीडिया के लिए समाचार और लोकतन्त्र के स्वस्थता के निर्माण में उसकी सशक्त भागीदारी ही तो है। परन्तु क्या मीडिया अपना धर्म निभा पायेगी? 21 वीं सदी और भविष्य की मीडिया तो सार्वभौम सत्य-सैद्धान्तिक रचनात्मक आधारित मीडिया होगी। बिना इसको प्राप्त किये मीडिया फस्र्ट स्टेट क्या फोर्थ स्टेट के भी योग्य नहीं।“ 
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”अक्सर मीडिया जनविरोधी भूमिका अदा कर रहा है इसकी तीन नजीरें देता हूँ। पहली, यह अक्सर लोगों का ध्यान वास्तविक समस्याओं से हटा देती है, जो कि आर्थिक है। लोग बेरोजगारी, मँहगाई और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रहे हैं। ये लोग इस समस्यओं से ध्यान हटाकर फिल्मी सितारों, फैशन परेड और क्रिकेट का मुजाहिरा करते हैं। लगता है जैसे लोगों की यहीं समसस्याएँ हैं। मीडिया में आम कार्यशैली काफी निम्न है और मीडिया के ज्यादातर लोगों के बारे में मेरी खराब राय है। मैं नहीं समझता कि उन्हें आर्थिक सिद्धान्तों, राजनीतिशास्त्र, साहित्य या दर्शन के बारे में काफी कुछ जानकारी होगी। मैं नहीं समझता कि उन्होंने इन सबका अध्ययन किया होगा। मुझे यह कहने में अफसोस है कि मीडिया के ज्यादातर लोगों के विवेक का स्तर काफी निम्न है।“ (एक टी.वी चैनल के इण्टरव्यू में) - मार्कंडेय काटजू, (सेवा निवृत्त न्यायाधीश) अध्यक्ष, भारतीय प्रेस परिषद्

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
बिल्कुल सत्य कहा आपने। जिसे हम लोग वर्तमान में मीडिया कहते हैं और लोकतन्त्र का सबसे सशक्त माध्यम समझते हैं वह एक घटना और सूचना का व्यापारिक संगठन है। इसकी शक्ति है पढ़ने, सुनने और देखने वाले लोग, और उसके आधार पर मिलने वाले विज्ञापन की राशि। ये हुआ सफेद रूप में। काले रूप में कौन सा समाचार प्रसारित करें और कौन सा दबा दें, इसके लिए मिलने वाली गुप्त धन। जिसके लिए सफेदपोश ब्लैक मेलिंग व्यवसाय कहना उचित होगा। मीडिया एक प्लेटफार्म है जहाँ या तो रिक्त कागज है या रिक्त प्रसारण समय। इसमें कुछ छापना है या कुछ दिखाना है। ये विवशता है। तो भारत के मनोरंजन प्रधान समाज के व्यक्ति के लिए मनोरंजन की प्राथमिकता है। शेष बचा विज्ञापन, इससे धन प्राप्त होता है इसलिए ये तो आवश्यक ही है। उसके बाद आता है ऐसी घटनाएँ जो कानून के दायरे में आ चुकी है अर्थात पुलिस-प्रशासन तक पहुँच चुकी है जिससे कथानक प्रमाणिकता के साथ वहीं जो वहाँ लिखित है। हकीकत चाहे जो भी हो। उसके बाद प्रिंट मीडिया के लिए उनके क्षेत्र में हुये कुछ कार्यक्रम का समाचार। जितने बड़े लोगों का कार्यक्रम उतना स्थान। शेष कुछ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समाचार। संपादकीय विचार और कुछ वैचारिक लेख। इलेक्ट्रानिक मीडिया में किसी मुद्दे पर बहस का कार्यक्रम प्रसारण समय को बड़े ही आसानी से कुछ भी हल निकाले बिना खर्च कर देता है। 
मीडियाकर्मी, एक बच्चे या बच्चों के साथ अधिकतम समय तक शिक्षण कार्य कर चुके प्राथमिक शिक्षक की भाँति होते हैं। जिनके पास प्रश्न ही प्रश्न होते हैं परन्तु प्रश्न क्यों किये, इसका उन्हें कुछ पता नहीं होता। प्रश्न के बाद उत्तर मिला। फिर प्रश्न भी गायब और उत्तर भी गायब क्योंकि ये तो जिनके लिए हुआ था अर्थात दर्शक के लिए वहाँ पहुँचा दिया गया। कुल मिलाकर मीडिया एक दर्पण की भाँति कार्य करती है जिसका अपना चरित्र सिर्फ एक ही है - ”जो हो रहा है उसे दिखा देना“। इसके लिए वातावरण का निर्माण भी वे लोग स्वयं ही कर लेते हैं। ताकि दिखाने वाला कार्यक्रम चलता रहे। अब केवल दिखाने वाला ही कार्यक्रम करना हो तो वहाँ विवेक और अनेक प्रकार के शास्त्रों के ज्ञान रखने की योग्यता की आवश्यकता ही क्या है? अगर योग्यता हो भी तो उसके प्रदर्शन की आवश्यकता उस पद के कार्यानुसार नहीं है। व्यक्तिगत जीवन में वे करते होगें। मजे की बात तो यह है कि मीडिया, स्वयं ये कहता है कि आज मीडिया अपने उद्देश्य से भटक गया है और उसे भी प्रमुखता से दिखा देता है। अब ज्ञानी ही जब जान-बूझ कर गलत करने लगे तो उसे कौन सही करेगा?
हमारे बचपन में स्कूल में एक कार्यक्रम होता था ”डिबेट“ जिसका हिन्दी अर्थ है- ”वाद-विवाद या बहस“। इसमें किसी मुद्दे पर पक्ष (समर्थन) और विपक्ष (विरोध) में बोलना होता था। कार्यक्रम के पहले और बाद में यह ज्ञात है कि क्या गलत है और क्या सही है लेकिन कार्यक्रम में अभिनय करना है। हल क्या निकलता है- ”कुछ नहीं“। केवल देखने-सुनने वालों का मानसिक व्यायाम। रचनात्मकता होती नहीं इसलिए हल का सवाल ही नहीं, वहाँ तो केवल योजनाबद्ध तरीके से पक्ष (समर्थन) और विपक्ष (विरोध) में बोलना है। इस कला का प्रयोग भारत के समाचार चैनलों पर खुब हो रहा है। मेरे दृष्टि में अपना समय व्यर्थ करने का इससे बड़ा कोई कार्यक्रम नहीं हो सकता। लेकिन उनका काम है दिखाना हमारा काम है बच के निकल जाना। उदाहरणस्वरूप ”फोर्थ अम्पायर” देखकर क्या किया जा सकता है? जो क्रिकेट, हो जाने के बाद दुबारा देखा ही नहीं जाता और अधिकतम लोगों द्वारा खेला नहीं जाता, वो अधिकतम लोगों के लिए मार्गदर्शक और प्रेरणादायी कैसे हो सकता है? लेकिन एक व्यावसायिक खेल है। अधिकतम के बीच रूचि बनाये रखना आवश्यक है।
संसार का कोई भी व्यक्ति यदि वह सपना देखे कि - ”आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत के आधार पर एक भारत - श्रेष्ठ भारत का निर्माण होना चाहिए”, उसके लिए भारत के ऋषियों द्वारा सभी कुछ शास्त्रों में पहले से ही विद्यमान है। इसका अर्थ ये है कि मीडिया के लिए भी होगा। और वह यह है कि- मानक मीडिया मैन के रूप में भारतीय शास्त्र में ”ब्राह्मण ऋषि नारद” प्रक्षेपित हैं। इनका काम है तीनों लोकों (अर्थात सभी स्थान) पर उपस्थिति, यहाँ की सूचना वहाँ, वहाँ कि सूचना यहाँ, एकात्म और रचनात्मक करने के लिए उचित मार्गदर्शन, जनता (पृथ्वी) की आवाज देवता तक, और देवता की आवाज त्रिदेव तक। असुरों/राक्षसों की भी आवाज उठाना और उनका भी मार्गदर्शन करना। जीवन, ब्राह्मण रूप में दिखाया गया है अर्थात न्यूनतम आवश्यकता, एकात्म ज्ञान का प्रचार-प्रसार और रचनात्मक मार्गदर्शन।
ये ”न्यूनतम आवश्यकता, एकात्म ज्ञान का प्रचार-प्रसार और रचनात्मक मार्गदर्शन“ ही वो योग्यता है जो नारद को मीडिया का मानक बनाता है अन्यथा उनका चरित्र ”चुगलखोर और ब्लैकमेलर“ का चरित्र हो जायेगा। मीडिया को मानक मीडिया बनने के लिए ”न्यूनतम आवश्यकता, एकात्म ज्ञान का प्रचार-प्रसार और रचनात्मक मार्गदर्शन“ को अपना धर्म-कत्र्तव्य समझना चाहिए। ये ही उसका मूल उद्देश्य होना चाहिए, शेष व्यवस्था चलाने के लिए युगानुसार संसाधन की प्राप्ति तो आवश्यक होता ही है। ”रचनात्मक पत्रकारिता“ ही समय की माँग है और वही उसके क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठता की कुँजी है।



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