बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर
(14 अप्रैल, 1891 - 6 दिसम्बर, 1956)
परिचय -
भीमराव रामजी आम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को एक गरीब अस्पृश्य परिवार में हुआ था। ब्रिटीशों द्वारा केन्द्रीय प्रान्त (अब मध्य प्रदेश) में स्थापित नगर व सैन्य छावनी मऊ में हुआ था। वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई मुरबादकर की 14वीं व अन्तिम संतान थे। उनका परिवार मराठी था और वो अम्बावडे नगर जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में है, से सम्बन्धित था। वे हिन्दू महार जाति से सम्बन्ध रखते थे, जो अछूत कहे जाते थे और उनके साथ समाजिक व आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था। अम्बेडकर के पूर्वज लम्बे समय तक ब्रिटीश ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना में कार्यरत थे, और उनके पिता, भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थे और यहाँ काम करते हुए वे सूबेदार के पद तक पहुँच गये थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा की डिग्री प्राप्त की थी। उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल में पढ़ने और कड़ी मेहनत के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया।
कबीरपन्थ से सम्बन्धित इस परिवार में, रामजी सकपाल, अपने बच्चों को हिन्दू ग्रन्थों को पढ़ने के लिए, विशेष रूप से महाभारत और रामायण प्रोत्साहित किया करते थे। उन्होंने सेना में अपनी हैसियत का उपयोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूल से शिक्षा दिलाने में किया, क्योंकि अपनी जाति के कारण उन्हें इसके लिए सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था। स्कूली पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद आम्बेडकर और अन्य अस्पृश्य बच्चों को विद्यालय में अलग बिठाया जाता था और अध्यापकों द्वारा न तो ध्यान दिया जाता था, न ही कोई सहायता दी जाती थी। उनको कक्षा के अन्दर बैठने की अनुमति नहीं थी, साथ ही प्यास लगने पर कोई ऊँची जाति का व्यक्ति ऊँचाई से पानी उनके हाथों पर पानी डालता था, क्योंकि उनको न तो पानी, न ही पानी के पात्र को स्पर्श करने की अनुमति थी। लोगों के मुताबिक ऐसा करने से पात्र और पानी दोनों अपवित्र हो जाते थे। आमतौर पर यह काम स्कूल के चपरासी द्वारा किया जाता था जिसकी अनुपस्थिति में बालक आम्बेडकर को बिना पानी के ही रहना पड़ता था।
1894 में रामजी सकपाल के सेवानिवृत हो जाने के बाद सपरिवार सतारा चले गये और दो साल बाद अम्बेडकर की माँ की मृत्यु हो गई। बच्चों की देखभाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में रहते हुए की। रामजी सकपाल के केवल तीन बेटे- बलराम, आनन्दराव और भीमराव और दो बेटियाँ मंजुला और तुलसा ही इन कठिन हालातों में जीवित बच पाये। अपने भाईयों और बहनों में केवल अम्बेडकर ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए और इसके बाद बड़े स्कूल में जाने में सफल हुए। अपने एक देशस्त ब्राह्मण शिक्षक महादेव अम्बेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे, के कहने पर अम्बेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अम्बेडकर जोड़ लिया जो उनके गाँव के नाम ”अम्बावडे“ पर आधारित था। रामजी सकपाल ने 1898 में पुनर्विवाह कर लिया और परिवार के साथ मुम्बई (तब बम्बई) चले आये। यहाँ अम्बेडकर एल्फिंस्टन रोड पर स्थित हाई स्कूल के पहले अछूत छात्र बने। पढ़ाई में अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन के बावजूद, अम्बेडकर लगातार अपने विरूद्ध हो रहे इस अलगाव और भेदभाव से व्यथित रहे। 1907 में मैट्रिक पास करने के बाद अम्बेडकर ने बम्बई विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और इस तरह वो भारत में कालेज के प्रवेश लेने वाले पहले अस्पृश्य बन गये। उनकी इस सफलता से उनके पूरे समाज में एक खुशी की लहर दौड़ गयी, और बाद में एक सार्वजनिक समारोह में उनके एक शिक्षक कृष्णजी अर्जुन केलूसकर ने उन्हें महात्मा बुद्ध की जीवनी भेंट की। श्री केलूसकर, एक मराठा जाति के विद्वान थे। अम्बेडकर की सगाई एक साल पहले हिन्दू रीति से दापोली की एक 9 वर्षीय लड़की रमाबाई से तय की गयी थी। 1908 में उन्होंने एलिफिंस्टोन कालेज में प्रवेश लिया और बड़ौदा के गायकवाड़ शासक सहयाजी राव तृतीय से संयुक्त राज्य अमेरिका में उच्च अध्ययन के लिए एक पच्चीस रूपये प्रति माह का वजीफा प्राप्त किया। 1912 में उन्होंने राजनीतिक विज्ञान और अर्थशास्त्र में अपनी डिग्री प्राप्त की और बड़ौदा राज्य सरकार की नौकरी को तैयार हो गये। उनकी पत्नी ने पहले बेटे यशवन्त को इसी वर्ष जन्म दिया। अम्बेडकर अपने परिवार के साथ बड़ौदा चले आये पर जल्द ही उन्हें पिता की बीमारी के चलते बम्बई लौटना पड़ा, जिनकी मृत्यु 2 फरवरी, 1913 को हो गयी। डाॅ0 भीम राव रामजी अम्बेडकर एक भारतीय विधिवेक्ता थे। वे एक बहुजन राजनीतिक नेता और एक बुद्ध पुनरूत्थानवादी होने के साथ-साथ, भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार भी थे। उन्हें बाबासाहेब के नाम से भी जाना जाता है। बाबासाहेब आम्बेडकर ने अपना सारा जीवन हिन्दू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली और भारतीय समाज में सर्वव्यापित जाति व्यवस्था के विरूद्ध के सघ्ंार्ष में बिता दिया। हिन्दू धर्म में मानव समाज को चार वर्णो में वर्गीकृत किया है। उन्हें बौद्ध महाशक्तियों के दलित आन्दोलन को प्रारम्भ करने का श्रेय भी जाता है।
1990 में उन्हें मरणोपरान्त भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया है। कई सार्वजनिक संस्थान का नाम उनके सम्मान में उनके नाम पर रखा गया है जैसे हैदराबाद व आन्ध्रप्रदेश का डाॅ0 अम्बेडकर मुक्त विश्वविद्यालय, बी.आर. अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय-मुजफ्फरपुर, डाॅ0 बाबासाहेब अम्बेडकर अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा-नागपुर में है। अम्बेडकर का एक बड़ा आधिकारिक चित्र भारतीय संसद भवन में प्रदर्शित किया गया है। मुम्बई में उनके स्मारक पर हर साल 5 लाख लोग उनकी वर्षगाँठ (14 अप्रैल), पुण्यतिथि (6 दिसम्बर) और धम्म चक्र परिवर्तन दिन 14 अक्टुबर नागपुर में, उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए इकट्ठे होते हैं। सैकड़ों पुस्तकालय स्थापित हो गये हैं और लाखों रूपये की पुस्तकें बेची जाती है। कई समाजिक और वित्तीय बाधाएँ पार कर, आम्बेडकर उन कुछ पहले अछूतों में से एक बन गये जिन्होंने भारत में कालेज की शिक्षा प्राप्त की। आम्बेडकर ने कानून की उपाधि प्राप्त करने के साथ ही विधि, अर्थशास्त्र व राजनीतिक विज्ञान में अपने अध्ययन और अनुसंधान के कारण कोलम्बिया विश्वविद्यालय और लन्दन स्कूल आॅफ इकोनामिक्स से कई डाॅक्टरेट डिग्रीयाँ भी अर्जित की। आम्बेडकर वापस अपने देश एक प्रसिद्ध विद्वान के रूप में लौट आये और इसके बाद कुछ साल तक उन्होंने वकालत का अभ्यास किया, जिनके द्वारा उन्होंने भारतीय अस्पृश्यों के राजनैतिक अधिकारों और सामाजिक स्वतन्त्रता की वकालत की। डाॅ0 अम्बेडकर को भारतीय बौद्ध भिक्षु ने बोधिसत्व की उपाधि प्रदान की है।
अम्बेडकर, महात्मा गाँधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उग्र आलोचक थे। उनके समकालीनों और आधुनिक विद्वानों ने उनके महात्मा गाँधी (जो कि पहले भारतीय नेता थे जिन्होंने अस्पृश्यता और भेदभाव करने का मुद्दा सबसे पहले उठाया था) के विरोध की आलोचना है। गाँधी का दर्शन भारत के पारम्परिक ग्रामीण जीवन के प्रति अधिक सकारात्मक, लेकिन रूमानी था, और उनका दृष्टिकोण अस्पृश्यों के प्रति भावनात्मक था। उन्होंने उन्हें हरिजन कह कर पुकारा। अम्बेडकर ने इस विशेषण को सिरे से अस्वीकार कर दिया। उन्होंने अपने अनुयायियों को गाँव छोड़कर शहर जाकर बसने और शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। अपने विवादास्पद विचारों, और गाँधी और कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद अम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त, 1947 में भारत की स्वतन्त्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व में आई तो उसने अम्बेडकर को देश का पहला कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।
29 अगस्त, 1947 को अम्बेडकर को स्वतन्त्र भारत के नये संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम में अपने सहयोगियों और समकालिन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की। इस कार्य में अम्बेडकर का शुरूआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रन्थों का अध्ययन बहुत काम आया। संघ रीति में मतपत्रों द्वारा मतदान, बहस के नियम, पूर्ववर्तिता और कार्यसूची के प्रयोग, समितियाँ और काम करने के लिए प्रस्ताव लाना शामिल है। संघ रीतियाँ स्वयं प्राचीन गणराज्यों जैसे शाक्य और लिच्छवी की शासन प्रणाली के निर्देश (माॅडल) पर आधारित थी। अम्बेडकर ने हालांकि संविधान को आकार देने के लिए पश्चिमी माॅडल का उपयोग किया है पर उनकी भावना भारतीय है। अम्बेडकर द्वारा तैयार किया गया संविधान पाठ में संवैधानिक गारण्टी के साथ व्यक्तिगत नागरिकों को एक व्यापक श्रेणी की नागरिक स्वतन्त्रताओं की सुरक्षा प्रदान की जिनमें धार्मिक स्वतन्त्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर कानूनी करार दिया गया। अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की, और अनुसूचित जाति और अनूसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों ओर कालेजों की नौकरियों में आरक्षण प्रणाली शुरू करने के लिए सभा का समर्थन भी प्राप्त किया, भारत के विधि निर्माताओं ने इस सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा दलित वर्गो के लिए समाजिक और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन और उन्हें हर क्षेत्र में अवसर प्रदान कराने की चेष्टा की जबकि मूल कल्पना में पहले इस कदम को अस्थायी रूप से और आवश्यकता के आधार पर शामिल करने की बात कही गयी थी। 26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। अपने काम को पूरा करने के बाद, बोलते हुए अम्बेडकर ने कहा- ”मैं महसूस करता हूँ कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मजबूत भी है कि देश को शान्ति और युद्ध दोनांे के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने बाला मनुष्य अधम था।“ अम्बेडकर ने 1952 में लोकसभा का चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा पर हार गये। मार्च, 1952 में उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानि राज्यसभा के लिए नियुक्त किया गया और इसके बाद उनकी मृत्यु तक वो इस सदन के सदस्य रहे। 6 दिसम्बर, 1956 को उनकी मृत्यु अपने दिल्ली स्थित आवास पर मधुमेह रोग के कारण हुई।
सन् 1950 के दशक में अम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका (तब सीलोन) गये। पुणे के पास एक नया बौद्ध विहार को समर्पित करते हुए अम्बेडकर ने घोषणा की कि वे बौद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिख रहे है। और जैसे ही यह समाप्त होगी वो औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म अपना लेगें। 1955 में उन्होंने भारतीय बुद्ध महासभा या बौद्ध सोसाइटी आॅफ इण्डिया की स्थापना की। उन्होंने अपने अन्तिम लेख, द बुद्ध एण्ड हिज धम्म को 1956 में पूरा किया जो उनकी मृत्यु के पश्चात् प्रकाशित हुआ। 14 अक्टुबर, 1956 को नागपुर में अम्बेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया। अम्बेडकर ने एक बौद्ध भिक्षु का पारम्परिक तरीके से तीन रत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुए बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इसके बाद उन्होंने एक अनुमान के अनुसार लगभग 5 लाख समर्थकों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित किया। नवयान लेकर अम्बेडकर और उनके समर्थकों ने हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निन्दा की और उसे त्याग दिया। उन्होंने अपनी अन्तिम पाण्डुलिपि ”बुद्ध या कार्ल माक्र्स“ को 2 दिसम्बर 1956 को पूरा किया।
”शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतन्त्र होने में है। हमें अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा और स्वयं। राजनीतिक शक्ति शोषितों की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज में उनका उचित स्थान पाने में निहित हे। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा। उनको शिक्षित होना चाहिए। एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने, और उनके अन्दर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी ऊँचाइयों का स्रोत है।“ अपने अनुयायियों को उनका सन्देश था- ”शिक्षित बनो!!!, संगठित रहो!!!, संघर्ष करो!!!“ - बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर
”सामाजिक क्रान्ति साकार बनाने के लिए किसी महान विभूति की आवश्यकता है या नहीं यह प्रश्न यदि एक तरफ रख दिया जाय, तो भी सामाजिक क्रान्ति की जिम्मेदारी मूलतः समाज के बुद्धिमान वर्ग पर ही रहती है, इसे वास्तव में कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। भविष्य काल की ओर दृष्टि रखकर वर्तमान समय में समाज को योग्य मार्ग दिखलाना यह बुद्धिमान वर्ग का पवित्र कर्तव्य है। यह कर्तव्य निभाने की कुशलता जिस समाज के बुद्धिमान लोग दिखलाते हैं। वहीं जीवन कलह में टिक सकता है।“ - बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर
”सही राष्ट्रवाद है, जाति भावना का परित्याग। सामाजिक तथा आर्थिक पुनर्निर्माण के आमूल परिवर्तनवादी कार्यक्रम के बिना अस्पृश्य कभी भी अपनी दशा में सुधार नहीं कर सकते। राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है जब लोगो के बीच जाति, नस्ल या रंग का अन्तर भुलाकर उसमें सामाजिक समरसता व मातत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाय। राष्ट्र का सन्दर्भ में राष्ट्रीयता का अर्थ होना चाहिए- सामाजिक एकता की दृढ़ भावना, अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में इसका अर्थ है - भाईचारा। शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है अतः शिक्षा के दरवाजे प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिए खुले होने चाहिए। एक व्यक्ति के शिक्षित होने का अर्थ है- एक व्यक्ति का शिक्षित होना लेकिन एक स्त्री के शिक्षित होने का अर्थ है कि एक परिवार का शिक्षित होना।“ - बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
भगवान बुद्ध, महात्मा कबीर व महात्मा फूले से प्रेरित बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर संविधान के मार्ग से समानता, समता तथा दलितोद्धार का महानतम कार्य किये। परन्तु समर्थक द्वारा मूर्ति लगवाकर स्वार्थ सिद्धि। उन्हें यह नहीं पता जिनकी मूर्तियां अधिक लग जाती हैं। दुर्गति भी उन्हीं की अधिक होती है। इनकी दिशा से शेष कार्य यह है कि ”सामाजिक क्रान्ति“ के लिए बुद्धिमता दिखायें तथा संविधान के माध्यम से समता लाने के लिए संविधान में संशोधन कराकर ग्राम पंचायत तथा नगर पंचायत अध्यक्ष की भाँति जिला पंचायत अध्यक्ष, मुख्यमन्त्री तथा प्रधानमन्त्री का चुनाव सीधे जनता द्वारा करवाये जो ”परशुराम परम्परा“ के अनुसार है। साथ ही 90 प्रतिशत बहुजन की आवाज उठाने वालों की सीधे सर्वोच्च पद प्राप्त हो जायेगा।
किसी देश का संविधान, उस देश के स्वाभिमान का शास्त्र तब तक नहीं हो सकता जब तक उस देश की मूल भावना का शिक्षा पाठ्यक्रम उसका अंग न हो। इस प्रकार भारत देश का संविधान भारत देश का शास्त्र नहीं है। संविधान को भारत का शास्त्र बनाने के लिए भारत की मूल भावना के अनुरूप नागरिक निर्माण के शिक्षा पाठ्यक्रम को संविधान के अंग के रूप में शामिल करना होगा। जबकि राष्ट्रीय संविधान और राष्ट्रीय शास्त्र के लिए हमें विश्व के स्तर पर देखना होगा क्योंकि देश तो अनेक हैं राष्ट्र केवल एक विश्व है, यह धरती है, यह पृथ्वी है। भारत को विश्व गुरू बनने का अन्तिम रास्ता यह है कि वह अपने संविधान को वैश्विक स्तर पर विचार कर उसमें विश्व शिक्षा पाठ्यक्रम को शामिल करे। यह कार्य उसी दिशा की ओर एक पहल है, एक मार्ग है और उस उम्मीद का एक हल है। राष्ट्रीयता की परिभाषा व नागरिक कर्तव्य के निर्धारण का मार्ग है। जिस पर विचार करने का मार्ग खुला हुआ है।
आचार्य रजनीश ”ओशो“ की वाणी है- ”जो एक गुरू बोल रहा है, वह अनन्त सिद्धों की वाणी है। अभिव्यक्ति में भेद होगा, शब्द अलग होगें, प्रतीक अलग होगें मगर जो एक सिद्ध बोलता है, वह सभी सिद्धो की वाणी है। इनसे अन्यथा नहीं हो सकता है। इसलिए जिसने एक सिद्ध को पा लिया, उसने सारे सिद्धो की परम्परा को पा लिया। क्यांेकि उनका सूत्र एक ही है। कुंजी तो एक ही है, जिसमें ताला खुलता है अस्तित्व का।“ इसलिए उन लोगों को सदैव यह ध्यान में रखना चाहिए कि सिद्ध (आध्यात्मिक आविष्कारक) को नहीं बल्कि सिद्ध की वाणी (आविष्कार) को पकड़ना-समझना चाहिए। परन्तु सदैव होता यह इसका उल्टा। लोग सिद्ध की वाणी को नहीं, सिद्ध को पकड़ लेते हैं। विज्ञान में ऐसा नहीं होता। विज्ञान में वैज्ञानिक (भौतिक आविष्कारक) को नहीं पकड़ते बल्कि उत्पाद (आविष्कार) को पकड़ते हैं। इसी कारण पिछड़े-दलित वहीं के वहीं रह जाते हैं और सामाजिक क्रान्ति मात्र भीड़ बनकर ही रह जाती है।
दृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में सार्वजनिक प्रमाणित अंश दृश्य सत्य चेतना से युक्त संघ और योजना आधारित कलियुग के प्रारम्भ में नवें अवतार - बुद्ध अवतार के समय तक एकतन्त्रात्मक राज्यों का विकास, विभिन्न नेतृत्व मनों आधारित जातियों, हिंसा, कर्म का प्राथमिता का विकास हो उसकी दिशा प्रसार की ओर ही थी। कृष्ण के अंश अपूर्ण मन अर्थात् अंश सूक्ष्म शरीर के स्थूल शरीर ही बुद्ध थे परिणामस्वरूप वे स्वयं को पहचानकर कालानुसार आवश्यक मुख्य कार्य अर्थात् जनता द्वारा लोक धर्म शिक्षा और गणराज्य की स्थापना का शुभारम्भ का कार्य कर्मयोगी-वैरागी-सन्यासी की भाॅति पूर्ण किये। लोकधर्म शिक्षा के अन्तर्गत वे व्यक्तिगत कर्म के लिए -सत्यपात्र को दान नैतिकता के नियमों का पालन, अपने पुण्य का भाग दूसरों को देना, दूसरे द्वारा दिये गये पुण्य के भाग को स्वीकारना अपने त्रुटियों का सुधार, सम्यक-सिद्धान्त का श्रवण और प्रसार: सम्यक सिद्धान्त के अन्तर्गत - अन्धविश्वास तथा भ्रम रहित सम्यक दृष्टि, उच्च तथा बुद्धियुक्त सम्यक संकल्प, नम्रता-उत्सुक्तता-सत्यनिष्ठ युक्त सम्यक वचन, शान्तिपूर्ण-निष्ठापूर्ण-पवित्रता युक्त सम्यक कर्म, अहिंसा युक्त सम्यक आजीवन, आत्म निग्रह और आत्म प्रशिक्षण युक्त सम्यक व्यायाम, सक्रीय सचेतन मन युक्त सम्यक स्मृति, जीवन की यर्थाथता पर गहन अध्ययन युक्त सम्यक समाधि तथा यह लोक धर्म शिक्षा अनवरत चलती रहे इसलिए लोक शिक्षकों के रूप में साधुओं और भिक्षुओं का निर्माण सहित ‘‘बुद्धं शरणं गच्छामि’’ अर्थात् बुद्धि या प्रबुद्धों के शरण मंे जाओ और ‘‘धर्मम् शरणं गच्छामि’’ अर्थात् धर्म के शरण में जाओ का उपदेश देने का कार्य किये। गणराज्य स्थापना के शुभारम्भ के अन्तर्गत ग्राम, सभा, संघ या पंचायत से जुड़ने के लिए ‘‘संघ शरणं गच्छामि’’ का उपदेश देने का कार्य किये।
कृष्णावतार के समय गणराज्य स्थापना के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य सत्य चेतना द्वारा अदृश्य मन में तय की गई सम्पूर्ण नीति का वह हिस्सा अर्थात् वह अपूर्ण मन जो कृष्ण पूर्ण नहीं कर पाये थे उसके कुछ प्राथमिक अंश जैसे -सन्यास, लोकधर्म, ध्यान अर्थात् काल चिन्तन और गणराज्य व्यवस्था का बीज जो मानव समाज का नये सिरे से सृष्टि का प्रथम चरण था वही कार्य बुद्धावतार में पूर्व कृष्णावतार से प्राप्त कर्मयोगी मन द्वारा ही बुद्ध ने पूर्ण किया था। बुद्ध द्वारा दिया गया ‘‘सम्यक’’ शब्द एकात्म ध्यान अर्थात् समभाव युक्त काल चिन्तन का ही बीज था जो कृष्ण के जीवन में समाहित था और गीतोपनिषद् में अव्यक्त रहा। चूॅकि एकात्म ध्यान, भगवान शिव-शंकर का स्वरूप है इसलिए वे अगले अवतार की दृष्टि रखते हुये अपने प्रचार का समस्त केन्द्र शिव-शंकर से जुड़ी स्थली के निकट ही रखें। बुद्ध अपने समस्त कार्यो को स्वयं जानते हुये कोई दार्शनिक आधार इसलिए नहीं दिये कि दार्शनिक आधार देने पर वह गीतोपनिषद् और कृष्ण में समाहित हो जाता परिणामस्वरूप कृष्ण का विवशतावश ही सही हिंसक जीवन और हिंसा कर्म की प्रधानता की ओर बढ़ते समाज में अहिंसा आधारित नये मानव समाज की सृष्टि कार्य असफल हो जाता। बुद्ध की कार्यप्रणाली दार्शनिक न होकर व्यावहारिक थी जो कर्मज्ञान अर्थात् कर्मवेद का सूक्ष्म बीज था। जिसकी व्यापकता के लिए उन्होंने हिंसक राजा सम्राट अशोक को अपने शरण में कर आन्दोलन का रूप दिये जो उस समय तक का दार्शनिक दृष्टि से पूर्णमुक्त सबसे बड़ा धर्मिक आन्दोलन था जो उनके महानिर्वाण के बाद इमारतों, मन्दिरों और बौद्ध धर्म में परिणत हो गया। बुद्ध का पूर्व नाम ‘‘सिद्धार्थ’’ अर्थात् ‘‘वह जिसने अपना उद्देश्य पूर्ण कर लिया हो।“ बुद्ध, मन की एक व्यावहारिक अवस्था अर्थात् बुद्धि है जो ज्ञान के साथ काल चिन्तन के संयोग से उत्पन्न होती है। छः वर्षो की साधना उन्होनें उम्र की परिपक्वता, सामाजिक विश्वसनीयता, कालानुसार कार्य और कार्यनीति के निर्धारण के लिए की थी। यदि बुद्ध व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य सत्य चेतना युक्त कृष्ण के अपूर्ण मन न होते तो वे बाह्य कारणों से प्रेरित होकर निष्काम कर्म की ओर बढ़ते परन्तु वे तो स्वयं अन्तः कारणों से प्रेरित थे जो उनमे कृष्ण के अपूर्ण मन का अंश था, से स्वयं अहैतुक कार्य के लिए कर्मयोगी बने थे।
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