Thursday, March 26, 2020

विश्वमानव और जाॅन पाल, द्वितीय (18 मई, 1920 - 2 अप्रैल 2005)

जाॅन पाल, द्वितीय (18 मई, 1920 - 2 अप्रैल 2005)

परिचय -
पोप जाॅन पाॅल द्वितीय, 18 मई, 1920 को करोल जोजेफ वोजटाइला के रूप में वाडोवाइस, पोलैण्ड में जन्म लिये थे। जाॅन पाॅल का प्रारम्भिक जीवन बहुत दुःखदायी रहा है। वे जब 9 वर्ष के थे तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी थी और जब वे 12 वर्ष के थे तब उनके बड़े भाई एडमण्ड की मृत्यु हो गयी थी। 20 वर्ष की उम्र तक वे अपने सभी पारीवारिक करीबी लोगों को खो चुके थे।
जाॅन पाॅल अपने उम्र के बढ़ते समय में स्कीइंग और तैराकी में रूचि लेते थे। वे 1938 में क्राको के जेगिल्लोनियन विश्वविद्यालय में प्रवेश लिये जहाँ वे थियेटर और कविता में रूचि दिखाई। जर्मन नाजी सैनिकों द्वारा पोलैण्ड पर कब्जे से स्कूल अगले वर्ष बन्द करा दिया गया। वे एक पुजारी बनना चाहते थे। वे क्राको के एक आर्कविशप द्वारा गुप्त रूप से चलाये जा रहे धार्मिक अध्ययन केन्द्र में धार्मिक अध्ययन शुरू किये। द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के साथ ही उनका धार्मिक अध्ययन समाप्त हो गया और 1946 में वे आर्डिनाइड हो गये। जाॅन पाॅल रोम में दो वर्ष अध्ययन कर वे धर्मशास्त्र में डाॅक्टर की उपाधि प्राप्त की। इस समय के दौरान वे 12 विदेशी भाषाओं को भी सीखे। वे 1948 में अपने पैतृक स्थान क्राको, पोलैण्ड लौटे और आसपास के कई पारिशों में सेवा की। जाॅन पाॅल 1958 में ओम्बी के बिशप बने और उसके 6 वर्ष बाद क्राको के आर्कबिशप जो कैथोलिक चर्च के प्रमुख विचारकों में से एक माना जाता है। वे वेटिकन के दूसरे परिषद् में भाग लिये जिसे वेटिकन द्वितीय कहा जाता है। 1962 में कौंसिल ने चर्च के सिद्धांतों की समीक्षा शुरू की और अगले कई वर्षो तक कई सत्र आयोजित किये गये। कौसिंल के एक सदस्य के रूप में वे दुनियाँ में चर्च के लिए योगदान देने वालों में पहचाने गये। 1967 में वे छठें पोप पाॅल द्वारा कार्डिनल बनाये गये।
पोप के 400 वर्षो के इतिहास में 1978 में वे पोप बनकर गैर इतालवी पोप बनने का इतिहास बनाये। कैथोलिक चर्च के पोप के रूप में वे दुनिया भर की 100 से अधिक देशों के यात्रा के दौरान अपने विश्वास और शान्ति का सन्देश फैलाये। वे अपने यात्रा के दौरान सभी धर्मों के धार्मिक नेताओं से मुलाकात की और सामूहिम रूप से कार्यक्रमों में भागीदारी भी की। 14वें दलाई लामा ने उनसे कुल 8 मुलाकातें की। अपने निवास स्थान पर रहते हुये वे बहुत खतरे का समाना किये। 1981 में सेंट पीटर स्क्वायर, वेटिकन सीटी में गोली मारी गई जिससे उनकी हालत गम्भीर हो गई लेकिन वे बचने में सफल हुये और बाद में वे उस हमलावर को माफ कर दिये। 
मानव अधिकारों के अधिवक्ता की भाँति वे दुनिया में दुखियों व सताये गये लोगों के बारे में आवाज उठाई। वे मौत की सजा सहित अन्य कई विषयों पर दृढ़ता के साथ काम किये। एक करिश्माई व्यक्तित्व की भाँति वे राजनीतिक परिवर्तन लाने और अपने जन्मभूमि पोलैण्ड में समाम्यवाद के पतन का श्रेय पाते हैं। परन्तु वे आलोचना से मुक्त नहीं थे। बाद के वर्षो में धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य गिरने लगा और सर्वाजनिक उपस्थिति में वे अपने पैरों से भी चलने में असमर्थ होने लगे। 2001 से वे रोग से पिड़ित हो चुके थे लेकिन कोई भी आधिकारिक घोषणा नहीं की गई थी। उनका निधन 2 अप्रैल 2005 को वेटिकन सिटी के निवास स्थल पर हो गया। 8 अप्रैल को उनके अन्तिम संस्कार कार्यक्रम में 3 लाख लोगों ने हिस्सा लिया और अपने प्रिय धार्मिक नेता को श्रद्धाजंलि अर्पित की।

”विश्व का रूपान्तरण तभी सम्भव है जब सभी राष्ट्र मान ले कि मानवता के सामने एक मात्र विकल्प शान्ति, परस्पर समभाव, प्रेम और एकजुटता है। भारतीय धर्मो के प्रतिनिधियों से मित्रवत् सूत्रपात होगा। तीसरी सहस्त्राब्दि में एशियाई भूमि पर ईसाइयत की जड़े मजबूत होंगी। इस सहस्त्राब्दि को मनाने का अच्छा तरीका वही होगा। कि हम धर्म के प्रकाश की ओर अग्रसर हो और समाज के प्रत्येक स्तर पर न्याय और समानता के बहाल के लिए प्रयासरत हो। हम सबको विश्व का भविष्य सुरक्षित रखने और उसे समृद्ध करने के लिए एकजुट होना चाहिए। विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में प्रगति के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति भी उतनी ही आवश्यक है। धर्म को कदापि टकराव का बहाना नहीं बनाना चाहिए-भारत को आशीर्वाद“ (भारत यात्रा पर)
-पोप जान पाल, द्वितीय, 
साभार - अमर उजाला, इलाहाबाद, दि0 - 08-11-99

लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण 
”आपको जानना चाहिए कि सन् 1893 में भारत का एक युवा सन्यासी स्वामी विवेकानन्द अमेरिका और युरोपीय देशों में अन्य धर्मावलम्बीयों के विरोध और बाधा खड़ी करने के बावजुद जो विचार समझाने का प्रयत्न कर रहा था वह था- ‘विश्व बन्धुत्व’, ‘करूणावश दूसरो की भलाई करना अच्छा है पर शिव ज्ञान से जीव सबसे उत्तम’, ‘ मैं उसी को महात्मा कहता हँू कि जिसका हृदय गरीबों के लिए रोता है’। उस समय वह विचार लोगों को कितना प्रभावित किया यह बात अलग है परन्तु 111 वर्ष बाद वर्तमान में जो भी भारत की यात्रा पर आता है या विश्व एकता पर विचार करता है उसकी वाणी में ही विश्व-बन्धुत्व ही अन्य रूपों में व्यक्त होता है। और यही विचार ईसाइयत के भारत सहित एशिया में जड़ मजबूत करने का आधार है। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था- ‘यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म हो सकता है, तो वह ऐसा ही होगा, जो देश-काल से मर्यादित न हो, जो उस अनन्त भगवान के समान ही अनन्त हो, जिस भगवान के सम्बन्ध में वह उपदेश देता है, जिसकी ज्योति श्रीकृष्ण के भक्तों पर और ईसा के प्रेमियों पर, सन्तों पर या पापियों पर समान रूप से प्रकाशित होती है, जो न तो ब्राह्मणों का हो, न बौद्धों का, न ईसाइयों का और न मुसलमानों का वरन् इन सभी वर्गों का समष्टि स्वरूप होते हुये भी जिसमें उन्नति का अनन्तपथ खुला रहें, जो इतना सर्वव्यापक हो कि अपनी असंख्य बाहुओं द्वारा सृष्टि के प्रत्येक मनुष्य का प्रेम पूर्वक आलिंगन करें। वह विश्व धर्म ऐसा होगा कि उसमें किसी के प्रति विद्वेष अथवा अत्याचार के लिए स्थान न रहेगा, वह प्रत्येक स्त्री और पुरूष के ईश्वरीय स्वरूप को स्वीकार करेगा और उसका सम्पूर्ण बल मनुष्य मात्र को उसकी सच्ची ईश्वरीय प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही केन्द्रीत रहेगा। सभी समाजिक उत्थान करने वाले कम से कम उसके नेतागण, यह प्रयत्न कर रहे है कि उनके समस्त साम्यवाद या समानता स्थापित करने वाले सिद्धान्तों का आधार आध्यात्मिक हो और वह आध्यात्मिक आधार केवल वेदान्त में है। मेरे व्याख्यानों में उपस्थित होने वाले नेताओं ने मुझसे कहा है कि नई रचना के आधार के लिए उन्हें वेदान्त की आवश्यकता है। इस सामंजस्य को लाने के लिए दोनों को ही आदान-प्रदान करना होगा, त्याग करना पड़ेगा, यही नहीं कुछ दुःखद बातों को भी सहन करना पड़ेगा। मैं हिन्दू हूँ, मैं अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा यही समझता हूँ कि मेरा कुआँ सम्पूर्ण संसार है। ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा यही समझता है कि सारा संसार उसी के कुएँ में है और मुसलमान भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा उसी को सारा ब्रह्माण्ड मानता है। क्या मैं यह चाहता हूँ। कि ईसाई लोग हिन्दू हो जाये? कदापि नहीं, ईश्वर ऐसा न करें। क्या मेरी इच्छा है कि हिन्दू और बौद्ध लोग ईसाई हो जाय? ईश्वर इस इच्छा से बचाएँ! प्रतिकूल परिस्थितियों को वीरता पूर्वक पराभूति करने में ही आत्मोन्नति की कूंजी है। आध्यात्मिक उन्नति के नियमों को आत्मसात् करना ही जीवन का उद्देश्य है। हिन्दूओं से ईसाई लोग ज्ञान प्राप्त करें। और ईसाई लोग से हिन्दू। संसार के ज्ञान भण्डार में प्रत्येक का बहुमूल्य योग है। एक सच्चा ईसाई, सच्चा हिन्दू होता है और एक सच्चा हिन्दू, सच्चा ईसाई। आज हमें आवश्यकता है वेदान्त युक्त पाश्चात्य विज्ञान की ब्रह्मचर्य के आदर्श और श्रद्धा तथा आत्मविश्वास की। वेदान्त का सिद्धान्त है कि मनुष्य के अन्तर में- एक अबोध शिशु में भी- ज्ञान का समस्त भण्डार निहित है, केवल उसे जागृत होने की आवश्यकता है और यही आचार्य का काम है। पर इस सब का मूल है धर्म- वही मुख्य है । धर्म तो भात के समान है, शेष सब वस्तुएँ तरकारी और चटनी जैसी है। केवल तरकारी और चटनी, चाटने से अपथ्य हो जाता है, और केवल भात खाने से भी। पिछले महापुरूष अब कुछ प्राचीन हो चले है अब नवीन भारत है जिसमें नीवन ईश्वर, नवीन धर्म और नवीन वेद है। हे भगवान, भूतकाल का निरन्तर ध्यान रखने की आदत से हमारा देश कब मुक्त होगा?’ मात्र इतना ही समझने के लिए काफी होगा। भारतीय धर्मो से नये मित्रवत् सूत्रों को प्रस्तुत किया जा चुका है। जिसे आपकी भाषा में शब्दवेद या सत्यवेद कहते है। धर्म के प्रकाश की ओर शुद्ध सत्य अन्तिम आध्यात्म से जाने के लिए मार्ग वर्तमान व्यवस्था प्रणाली द्वारा ही प्रशस्त है इसलिए सभी धर्मो और देशों की विवशता भी है। भारत, भौतिक रूप से अपनी सीमा तक है परन्तु आध्यात्मिक रूप से विश्व भारत है। भारत, विश्व है। इसलिए इसका प्राकृतिक रूप से ही दो नाम-भारतीय भाषा में- भारत तथा विश्व भाषा में- इण्डिया है। भारत, अपने आपको विश्वरूप में सिद्व करने लिए ही सम्पूर्ण मानवता के दर्शन को सर्वधर्मसमभाव या धर्मनिरपेक्ष ईश्वर नाम- TRADE CENTRE  में स्थापित कर दिया है जो विश्व भाषा, आपकी भाषा और आपकी ही संस्कृति द्वारा आविष्कृत है। इसलिए अब मानव शरीर में उसका सत्यरूप वेदान्त रहेगा अर्थात मन-मस्तिष्क वेदान्ती होगा सिर्फ बाह्य आडम्बर अपने-अपने धर्मो के होंगे। भारत तो सनातन से विश्व के लिए आशीर्वाद  स्वरूप ही है। उसे आशीर्वाद की क्या आवश्यकता। और यदि कोई आशीर्वाद देता है तो हमारी संस्कृति के अनुसार उसे अपने आर्शीवाद की सत्यता प्रमाणित करने के लिए कर्म करना पड़ता है क्योंकि आशीर्वाद देने वाला अपने वाणी को असत्य नहीं देखना चाहता, चाहे उसके लिए उसे कई जन्म ही क्यों न लेने पड़े। प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता है?“


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