के.आर.नारायणन (27 अक्टुबर, 1920 - 9 नवम्बर, 2005)
परिचय -
कोच्चेरील रामन नारायणन (के.आर.नारायणन), भारत के 10वें राष्ट्रपति थे। साथ ही पहले मलयाली और पहले दलित राष्ट्रपति थे। आपकी गणना कुशल राजनीतिज्ञों में की जाती है। आपका कार्यकाल भारत की अस्थिर राजनीति के कारण सबसे पेचीदा रहा।
आपका जन्म केरल राज्य के कोट्टायम जिले के पेरूमथ्नम् उझावुर गांव के एक छोटे से फूस की झोपड़ी में 27 अक्टुबर, 1920 को हुआ था। वे अपने सिद्ध और आयुर्वेद के पारम्परिक भारतीय चिकित्सा प्रणालियों के अभ्यास चिकित्सक पिता कोच्चेरिल रमन वैद्यार और माता पुनाथ्थुरावेट्टील पाप्पियम्मा के सात बच्चों में चैथे थे। उनका परिवार नारीयल तोड़ने का कार्य करने वाले जाति से सम्बन्धित और गरीब था। उनकी प्राथमिक शिक्षा गांव के ही सरकारी स्कूल में हुई। उच्च प्राथमिक शिक्षा के लिए उन्हें धान के खेतों के बीच से होकर 15 किलोमीटर जाना पड़ता था और मामूली फीस के भुगतान के लिए भी उनका परिवार असमर्थ होता था। फीस के बकाये के स्थिति में वे कक्षा के बाहर खड़े कर दिये जाते थे, वे वहीं से सुनकर शिक्षा ग्रहण कर लेते थे। किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। वे अन्य छात्रों के पुराने किताबों से पढ़ते थे। उनके बड़े भाई अस्थमा से पीड़ित थे। उन्होंने 10वीं, सेंट मैरी हाईस्कूल से तथा छात्रवृत्ति की सहायता से सी.एम.एस कालेज, कोट्टायम से 12वीं की पढ़ाई की। त्रावणकोर विश्वविद्यालय से वे बी.ए. (आनर्स) और अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. करके इस डिग्री को प्रथम श्रेणी में प्राप्त करने वाले विश्वविद्यालय के पहले दलित बनें।
उनका परिवार आर्थिक कठिनाइयों का सामना कर रहा था। वे दिल्ली आकर द हिन्दू और द टाइम्स आॅफ इण्डिया में कुछ समय के लिए पत्रकार का काम किये। इस दौरान वे महात्मा गाँधी का साक्षात्कार भी लिये। 1945 में वे इंगलैण्ड जाकर लंदन स्कूल आॅफ इकोनामिक्स में राजनीतिक विज्ञान का अध्ययन किये। जे.आर.डी.टाटा से एक छात्रवृत्ति पाकर वे राजनीति विज्ञान में विशेषज्ञता के साथ बी.एससी (अर्थशास्त्र) की डिग्री प्राप्त किये। लंदन में रहने के दौरान वे साथी छात्र के.एन.राज और वी.के.मेनन के साथ भारत लीग में सक्रिय हुये।
नारायणन एक स्वतन्त्र और मुखर राष्ट्रपति के रूप में जाने जाते हैं। वे खुद को ”काम के राष्ट्रपति“ जो संविधान के नियमो को स्वतन्त्र रूप से लागू करने के लिए जाने जाते हैं। वे राष्ट्रपति के रूप में अपने विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग भी करते थे जिससे वे राष्ट्रपति के ”रबर स्टैम्प“ वाली छवि से बाहर निकल सके। उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता की स्वर्ण जयंती समारोह की अध्यक्षता भी की। वे 1998 के आम चुनाव में अपने कार्यालय में वोट कर एक नई मिसाल भी रखी।
भारत आकर 1948 में वे सार्वजनिक सेवा में विदेश सेवा से अपना कैरियर शुरू किये जिसमें पं0 नेहरू का विशेष योगदान था। वे रंगून, टोक्यो, लंदन, कैनबरा और हनोई में भारतीय दूतावास में राजनयिक के रूप में कार्य किये। वे थाईलैण्ड, तुर्की और चीनी गणराज्य के लिए भी राजदूत बनें। वे दिल्ली स्कूल आॅफ इकोनाॅमिक्स में भी पढ़ाये और विदेश मंत्रालय में सचिव भी रहे। 1978 में वे सेवानिवृत्त हो गये। उसके बाद वे 1978 से 1980 तक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। 1980-1984 के इन्दिरा गाँधी शासन के दौरान वे अमेरिका में भारतीय राजदूत भी बने। वे देश के सबसे अच्छे राजनयिक के रूप में भी जाने जाते हैं। इन्दिरा गाँधी के अनुरोध पर राजनीति में प्रवेश कर वे 1984, 1989, 1991 में तीन बार वे लोकसभा के लिए चुने भी गये। वे केन्द्रिय मन्त्रिमण्डल में राजीव गाँधी के साथ राज्य मंत्री भी रहे। भारत के उपराष्ट्रपति के रूप में 21 अगस्त, 1992 को निर्वाचित हुए। फिर वे 14 जुलाई, 1997 को राष्ट्रपति बने। राष्ट्रपति चुनाव में उनके विरूद्ध केवल पूर्व चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन थे जिनसे वे 95 प्रतिशत वोट से जीते थे।
जब वे रंगून में कार्य कर रहे थे, उनकी मुलाकात मा टिंट टिंट से मुलाकात हुई जो वाई.डब्ल्यू.सी.ए. में सक्रिय थी। उनसे वे बाद में 8 जून, 1951 को विवाह किये। बाद में मा टिंट टिंट का नाम उषा नारायणन (1923-2008) हुआ और वे भारतीय नागरिक बन गई। उषा नारायणन ने भारत में महिलाओं और बच्चों के लिए कई सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर कार्य किया। वे कई बर्मा के लघु कथाओं का अनुवाद भी कीं।
85 वर्ष की उम्र में सेना के रिसर्च और रेफरल अस्पताल नई दिल्ली में निमोनिया और गुर्दे की विफलता के साथ उनका निधन 9 नवम्बर, 2005 को हो गया। उनका अन्तिम संस्कार उनके भतीजे डाॅ0 पी.वी.रामचन्द्रन द्वारा अगले दिन पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनके संरक्षक जवाहर लाल नेहरू के स्मारक, यमुना किनारे, शान्ति वन, एकता स्थल, नई दिल्ली में किया गया।
उनके आदर्शो के प्रचार और उनकी स्मृति बनाये रखने के लिए दिसम्बर, सन् 2005 में के.आर.नारायणन् फाउण्डेशन की स्थापना की गई। जो मुख्यतः निम्न उद्देश्यों पर कार्य करती है- 1. ग्रामीण प्रौद्योगिकी पर आधारित गरीबों के विकास के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर अनुसंधान और विकास।, 2. मानव संसाधन विकास, 3. व्यवहार परिवर्तन और आत्म प्रबन्धन, 4. गरीबों का आर्थिक सशक्तिकरण। सार्वजनिक जीवन में सत्यनिष्ठा जैसे राष्ट्रीय महत्व के क्षेत्रों जैसे पत्रकारिता, सिविल सेवा, चिकित्सा विज्ञान, समाज सेवा, साहित्य, खेल, मनोरंजन, राजनीति आदि में सबसे अच्छा सम्मान है।
‘हमारी संस्कृति कभी एकात्म नहीं रही। भारतीय संस्कृति की विशेषता विभिन्न संस्कृतियों को स्वीकार करने और उनके प्रति रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने की रही है।’’ - श्री के0 आर0 नारायणन,
साभार - आज, वाराणसी, दि0. 23-9-97
लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा है - ‘‘अथर्ववेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा याद आ गई, जिसमें कहा गया है, तुम सब लोग एक मन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ। एक मन हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है। बस इच्छाशक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एक मुखी करना ही वह सारा रहस्य है।’’(‘‘नया भारत गढ़ो’’, रामकृष्ण मिशन, पृष्ठ संख्या-55)
‘‘संस्कृति से राज्य नहीं चलता। कर्म से राज्य चलता हैं। संस्कृति तभी तक स्वस्थ बनी रहती है, जब पेट मे अन्न हो, व्यवस्थायें सत्य-सिद्धान्त युक्त हों, दृष्टि पूर्ण मानव के निर्माण पर केन्द्रित हो। संस्कृति एकात्म कभी भी नहीं हो सकती लेकिन रचनात्मक दृष्टिकोण एकात्म होता है जो कालानुसार कर्मज्ञान और ज्ञान है। अदृश्यकाल में अनेकात्म और दृश्यकाल में एकत्म कर्म ज्ञान होता है और यहीं भारतीय संस्कृति है। जो प्रारम्भ में थी और पुनः व्यक्त हो रही है। जो सभी संस्कृतियों का मूल है। विश्वमानक शून्य: मन की गुणवत्ता का विश्व मानक श्रृंखला उसी एकात्म कर्मज्ञान का शास्त्र साहित्य है। वर्तमान समय कर्म करने का है न कि विचार प्रस्तुत करने का। क्योंकि सभी कुछ व्यक्त किये जा चुके है। सोचने का विषय है- मनुष्य नियमों को बनाता है या नियम, मनुष्य को बनाते हैं।’’
No comments:
Post a Comment