Thursday, March 26, 2020

विश्वमानव और राम मनोहर लोहिया (23 मार्च, 1910 - 12 अक्टुबर, 1967)

 राम मनोहर लोहिया (23 मार्च, 1910 - 12 अक्टुबर, 1967)

परिचय -
डाॅ0 राममनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च, 1910 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जनपद में अकबरपुर नामक गाँव में हुआ था। पिताजी श्री हीरालाल पेशे से अध्यापक व हृदय से सच्चे राष्ट्रभक्त थे। ढाई वर्ष की आयु में ही उनकी माताजी (चन्दा देवी) का देहान्त हो गया। उन्हें दादी के अलावा सरयूदेई (परिवार की नाईन) ने पाला। टण्डन पाठशाला में चैथी तक पढ़ाई करने के बाद विश्वेश्वरनाथ हाईस्कूल में दाखिल हुए। उनके पिताजी गाँधीजी के अनुयायी थे। जब वे गाँधी जी से मिलने जाते तो राममनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे। इसके कारण गाँधी जी के विराट व्यक्तित्व का उन पर गहरा असर हुआ। पिताजी के साथ 1918 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए। बम्बई के मारवाड़ी स्कूल में पढ़ाई की। लोकमान्य गंगाधर तिलक के मृत्यु के दिन विद्यालय के लड़कों के साथ 1920 में 1 अगस्त को हड़ताल की। गाँधी जी की पुकार पर 10 वर्ष की आयु में स्कूल त्याग दिया। पिताजी को विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आन्दोलन के चलते सजा हुई। 1921 में फैजाबाद किसान आन्दोलन के दौरान जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात हुई। 1924 में प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस के गया अधिवेशन में शामिल हुए। 1925 में मैट्रिक की परीक्षा दी। कक्षा मे1 61 प्रतिशत अंक लाकर प्रथम आये। इण्टर की 2 वर्ष की पढ़ाई काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में हुई। कालेज के दिनों से ही खद्दर पहनना शुरू कर दिया। 1926 में पिताजी के साथ गौहाटी कांग्रेस अधिवेशन में गये। 1927 में इण्टर पास किया तथा आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता जाकर ताराचन्द दत्त स्ट्रीट पर स्थित पोद्दर छात्र हाॅस्टल में रहने लगे। विद्यासागर कालेज में दाखिला लिया। 
अखिल बंग विद्यार्थी परिषद् के सम्मेलन में सुभाष चन्द्र बोस के न पहुँचने पर उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता की। 1928 में कलकत्ता में कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए। 1928 से अखिल भारतीय विद्यार्थी संगठन में सक्रिय हुए। साइमन कमीशन के बहिष्कार के दिए छात्रों के साथ आन्दोलन किया। कलकत्ता में युवकों के सम्मेलन में जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष तथा सुभाष चन्द्र बोस और लोहिया जी विषय निर्वाचन समिति के सदस्य चुने गये। 1930 में द्वितीय श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा पास की। 30 सितम्बर, 1967 को लोहिया को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल अब जिसे लोहिया अस्पताल कहा जाता है, को पोरूष ग्रन्थि के आपरेशन के लिए भर्ती किया गया जहाँ 12 अक्टुबर, 1967 को उनका देहान्त 57 वर्ष की आयु में हीे गया।

डाॅ0 लोहिया का समाजवाद
लोहिया के समाजवादी आन्दोलन की संकल्पना के मूल में अनिवार्यतः ”विचार और कर्म“ की उभय उपस्थिति थी जिसके मूर्तिमंत स्वरूप स्वयं डाॅ0 लोहिया थे और आजन्म उन्होंने ”विचार और कर्म“ की इस संयुक्ति को अपने आचरण से जीवन्त उदाहरण भी प्रस्तुत किया। अंग्रेजों के खिलाफ भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेने वाले तमाम व्यक्तियों की भाँति लोहिया भी प्रभावित थे। वे जेल भी गये और वैसी ही यातनाएँ भी सही। आजादी से पूर्व ही कांग्रेस के भीतर उनका सोशलिस्ट ग्रुप था, लेकिन 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों से मुक्ति पाने पर वे उल्लसित तो थे लेकिन विभाजन की कीमत पर पाई गई इस स्वतन्त्रता के कारण नेहरू और नेहरू की कांग्रेस से उनका रास्ता हमेशा के लिए अलग हो गया। स्वतन्त्रता के नाम पर सत्ता की लिप्सा का यह खुला खेल लोहिया ने अपनी नंगी आँखों से देखा था और इसलिए स्वतन्त्रता के बाद की कांग्रेस पार्टी और कांग्रेसियों के प्रति उनमें इतना रोष और क्षोभ था कि उन्हें धुर दक्षिणपंथी और बामपंथियों को साथ लेना भी उन्हें बेहतर विकल्प ही प्रतीत हुआ। स्वतन्त्रता बाद के राजनेताओं में लोहिया मौलिक विचारक थे। लोहिया के मन में भारतीय गणतन्त्र को लेकर ठेठ देसी सोच थी। अपने इतिहास, अपनी भाषा के सन्दर्भ में वे कतई पश्चिम से कई सिद्धान्त उधार लेकर व्याख्या करने को राजी नहीं थे। सन् 1932 में जर्मनी से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करने वाले राममनोहर लोहिया ने साठ के दशक में देश से अंगे्रजी हटाने का जो आह्वान किया, वह अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन की गणना अब तक के कुछ इने गिने आन्दोलनों में की जा सकती है। उनके लिए स्वभाषा राजनीति का मुद्दा नहीं बल्कि अपने स्वाभिमान का प्रश्न और लाखों-करोड़ों को हीन ग्रन्थि से उबारकर आत्मविश्वास से भर देने का स्वप्न था- ”मैं चाहूँगा कि हिन्दुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएँ नहीं, बल्कि गर्व करें। इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके माँ-बाप अगर शरीर से नही ंतो आत्मा से अंग्रेज रहें हैं।“ 
हालांकि लोहिया भी जर्मनी यानी विदेश से पढ़ाई कर के आये थे, लेकिन उन्हें उन प्रतीकों का अहसास था जिनसे इस देश की पहचान है। शिवरात्रि पर चित्रकूट में ”रामायण मेला“ उन्हीं की संकल्पना थी, जो सौभाग्य से अभी तक अनवरत चला आ रहा है। आज भी चित्रकूट के उस मेले में हजारों भूखे-नगें-निर्धन भारतवासीयों की भीड़ स्वयंमेव जुटती है तो लगता है कि ये ही हैं जिनकी चिंता लोहिया को थी, लेकिन आज इनकी चिंता करने के लिए लोहिया के लोग कहाँ है? लोहिया ही थे जो राजनीति की गंदी गली में शुद्ध आचरण की बात करते थे। वे एकमात्र ऐसे राजनेता थे जिन्होंने अपनी पार्टी की सरकार से खुलेआम त्यागपत्र की माँग की, क्योंकि उस सरकार के शासन में आन्दोलनकारियों पर गोली चलाई गई थी। 
ध्यान रहे स्वाधीन भारत में किसी राज्य में यह पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी- ”हिन्दुस्तान की राजनीति में तब सफाई और भलाई आएगी जब किसी पार्टी के खराब काम की निन्दा उसी पार्टी के लोग करें। और मैं यह याद दिला दूँ कि मुझे यह कहने का हक है कि हम ही हिन्दुस्तान में एक राजनीतिक पार्टी हैं जिन्होेंने अपनी सरकार की भी निन्दा की थी और सिर्फ निन्दा ही नहीं बल्कि एक मायने में उसको इतना तंग किया कि उसे हट जाना पड़ा।“ गाँधी जी के साथ एक सप्ताह रहकर लोहिया ने गाँधी जी को वाइसराय के नाम पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया। जिसमें गाँधी जी ने लिखा कि- ”अहिंसानिष्ठ सोशलिस्ट डाॅ0 लोहिया ने भारतीय शहरों को बिना पुलिस व फौज के शहर घोषित करने की कल्पना निकाली है।“ 
लोहिया जी के द्वारा दुनिया की सभी सरकारों को नई दुनिया की बुनियाद बनाने की योजना की कल्पना गाँधी जी के सामने रखी गई, जिसमें एक देश की दूसरे देश में जो पूँजी लगी है उसे जब्त करना, सभी लोगों को संसार में कहीं भी आने-जाने व बसने का अधिकार देना, दुनिया के सभी राष्ट्रों को राजनैतिक आजादी तथा विश्व नागरिकता की बात कही गई थी। गाँधी जी ने इसे ”हरिजन“ में छापा और अपनी ओर से समर्थन भी किया तथा अंग्रेजों के खिलाफ जल्दी लड़ाई छेड़ने को लेकर गाँधी जी ने दस दिन रूकने के लिए लोहिया को कहा। दस दिन बाद 7 अगस्त, 1942 को गाँधी जी ने तीन घंटे तक भाषण देकर कहा, कि ”हम अपनी आजादी लड़कर प्राप्त करेंगे।“ अगले दिन 8 अगस्त, 1942 को ”भारत छोड़ो“ प्रस्ताव बम्बई में बहुमत से स्वीकृत हुआ। गाँधी जी ने ”करो या मरो“ का सन्देश दिया।
एक समाजवादी विचारक। इनकी दिशा से शेष कार्य यह हैै कि समाजवाद कहने से नहीं बल्कि समाजवाद का बीज मानव के मन में विविधताओं के एकीकरण से उगता है। इसलिए मन के एकीकरण का सिद्धान्त प्रस्तुत कर समाजवाद के इनके सपने को पूरा करें।

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
”समाजवाद“, एक राजनीतिक शब्द। जिसका अर्थ है - एक समान भाव से रहन-सहन की पद्धति। यह फल है। जब तक मानव के अन्दर एकात्मक विचार का बीज नहीं बोया जायेगा, वह समाजवाद नामक फल नहीं दे सकता। इसके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी के निम्न विचार विचारणीय हैं-
”भारत और समाजवाद विषयक अथवा राजनितिक विचारों से प्लावित करने से पहले यह आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाये। सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य निहित है, उन्हें इन सब ग्रंथों के पृष्ठों से बाहर लाकर, मठों की चहारदिवारियाँ भेदकर, वनों की नीरवता से दूर लाकर, कुछ-सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारो ओर से लपेट लें- उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक सब जगह फैल जायें- हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्रा तक सर्वत्र वे धधक उठे।“ - स्वामी विवेकानन्द 
”भारत के शिक्षित समाज में मैं इस बात पर सहमत हूँ कि समाज का आमूल परिवर्तन करना आवश्यक है। पर यह किया किस तरह जाये? सुधारकों की सब कुछ नष्ट कर डालने की रीति व्यर्थ सिद्ध हो चुकी है। मेरी योजना यह है, हमने अतीत में कुछ बुरा नहीं किया। निश्चय ही नहीं किया। हमारा समाज खराब नहीं, बल्कि अच्छा है। मैं केवल चाहता हूँ कि वह और भी अच्छा हो। हमे असत्य से सत्य तक अथवा बुरे से अच्छे तक पहुँचना नहीं है। वरन् सत्य से उच्चतर सत्य तक, श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम तक पहुँचना है। मैं अपने देशवासियों से कहता हूँ कि अब तक जो तुमने किया, सो अच्छा ही किया है, अब इस समय और भी अच्छा करने का मौका आ गया है।“ - स्वामी विवेकानन्द
शासक और मार्गदर्शक आत्मा सर्वव्यापी है। इसलिए एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा या सार्वजनिक आत्मा है। जब एकात्म का अर्थ संयुक्त आत्मा समझा जाता है तब वह समाज कहलाता है। जब एकात्म का अर्थ व्यक्तिगत आत्मा समझा जाता है तब व्यक्ति कहलाता है। व्यक्ति (अवतार) संयुक्त आत्मा का साकार रुप होता है जबकि व्यक्ति (पुनर्जन्म) व्यक्तिगत आत्मा का साकार रुप होता है। शासन प्रणाली में समाज का समर्थक दैवी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था प्रजातन्त्र या लोकतन्त्र या स्वतन्त्र या मानवतन्त्र या समाजतन्त्र या जनतन्त्र या बहुतन्त्र या स्वराज कहलाता है और क्षेत्र गण राज्य कहलाता है ऐसी व्यवस्था सुराज कहलाती है। शासन प्रणाली में व्यक्ति का समर्थक असुरी प्रवृत्ति तथा शासन व्यवस्था राज्यतन्त्र या राजतन्त्र या एकतन्त्र कहलाता है और क्षेत्र राज्य कहलाता है ऐसी व्यवस्था कुराज कहलाती है। सनातन से ही दैवी और असुरी प्रवृत्तियों अर्थात् दोनों तन्त्रों के बीच अपने-अपने अधिपत्य के लिए संघर्ष होता रहा है। जब-जब समाज में एकतन्त्रात्मक या राजतन्त्रात्मक अधिपत्य होता है तब-तब मानवता या समाज समर्थक अवतारों के द्वारा गणराज्य की स्थापना की जाती है। या यूँ कहें गणतन्त्र या गणराज्य की स्थापना-स्वस्थता ही अवतार का मूल उद्देश्य अर्थात् लक्ष्य होता है शेष सभी साधन अर्थात् मार्ग।
समाज व्यक्ति के शारीरिक-आर्थिक-मानसिक विकास केन्द्रित है जबकि राजनीति सत्ता प्राप्ति केन्द्रित है। उसके बाद वह विकास की बात करेगी। अब यह उस पर निर्भर है कि एक समान भाव से करती है या पक्षपातपूर्ण या केवल सत्ताधारी स्वंय के लिए।  व्यक्तिवाद से बड़ा चक्र समाजवाद है। समाजवाद से बड़ा चक्र राष्ट्रवाद है। राष्ट्रवाद से बड़ा चक्र विश्वराष्ट्रवाद है। यह व्यक्ति के अन्दर व्यापक सोच और मस्तिष्क का विस्तार भी है और व्यापक समाज का निर्माण भी। बढ़ते बौद्धिक-ज्ञान के इस युग में छोटे चक्र से निकलना मनुष्य की प्रकृति है। बड़े लक्ष्य के सामने हमेशा छोटा चक्र विलीन हो जाता है, यह प्राकृतिक नियम है।
सत्य समाजवाद लाने की एक प्रक्रिया ही है हमारा - ”मानक ग्राम“ और ”मानक नगर वार्ड“ का व्यावहारिक सिद्धान्त और उसका क्रियान्वयन।



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