स्वामी शिवानन्द
(माघ शुक्ल बसन्त पंचमी, सरस्वती जन्मोत्सव, 1932 ई0 में - )
परिचय -
दण्डी स्वामी शिवानन्द सरस्वती जी बीसवीं शताब्दी के सुविख्यात सन्त धर्म सम्राट स्वामी हरिहरानन्द सरस्वती स्वामी करपात्री जी महाराज (सन् 1902-1982) के कृपापात्र शिष्य हैं और आपने सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार में युगान्तकारी योगदान किया है। दण्डी स्वामी शिवानन्द जी का जन्म सन् 1932 ई0 में माघ शुक्ल बसन्त पंचमी, सरस्वती जन्मोत्सव के दिन प्रातः 7 बजे काशी के मणिकर्णिका घाट पर हुआ। दण्डी स्वामी शिवानन्द सरस्वती जी के बचपन का नाम शिवनारायण उपाध्याय था। इनके पिता अयोध्या हनुमानगढ़ी के रहने वाले थे। पिता का नाम भोला नाथ व माता का नाम उमा देवी था। सन् 1948 में इन्होंने करपात्री जी से दीक्षा ग्रहण की। स्वामी शिवानन्द सरस्वती जी ने अपने अथक परिश्रम से काशी की वृहद चैरासी कोस यात्रा की खोज की है। रूद्र प्रताप गौतम जी ने अपनी पुस्तक ”काशी यात्रा“ में लिखा है कि मुगल शासन काल में लुप्त हुई अनेक यात्रा के समान यह यात्रा भी लुप्त हो गई थी। चैरासी कोस परिक्रमा दर्शन यात्रा स्वामी शिवानन्द जी प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा के दिन प्रातः 8 बजे अपने भक्तों के साथ करते हैं।
दण्डी स्वामी शिवानन्द सरस्वती द्वारा रचित पुस्तकें-
1. काशी की महिमा, 2. काशी मोक्ष निर्णय, 3. काशी का इतिहास, 4. वाराणसी प्रदक्षिणा यात्रा, 5. पंचकोशी यात्रा, 6. काशी दर्शन, 7. काश्यां मरणान्मुक्ति, 8. सिद्ध सन्तों का चमत्कार, 9. काशी में सिद्ध शिवलिंगो का चमत्कार, 10. काशी में सोमवार से रविवार तक के वार यात्रा, 11. काशी का लघु माहात्म्य, 12. काशी की वार्षिक यात्रा, 13. राम नाम की महिमा, 14. एक दिव्य जीवन दर्शन, 15. काशी की पंचकोशी यात्रा महात्म्य, 16. काशी में प्रत्येक तिथि के दिन के एक वर्ष तक नेम से दर्शन यात्रा महात्म्य, 17. धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज के यज्ञ चमत्कार और जीवन दर्शन, 18. सन्यास ग्रहण पद्धति, 19. काशी गौरव, 20. वाराणसी महात्म्य, 21. काशी दिव्य दर्शन, 22. काशी का महात्म्य, 23. कामधेनु कलि काशी पंचकोशी माहात्म्य, 24. लोलार्क कुण्ड दर्शन स्नान महिमा, 25. काशी खण्डोक्त काशी दर्शन, 26. काशी की चैरासी कोस परिक्रमा यात्रा, दर्शन-पूजन माहात्म्य, 27. काशी वैभव, 28. काशी दर्शन, 29. काशी रहस्य भाषा टीका हिन्दी, 30. शिव रहस्य हिन्दी भाषा टीका, 31. स्वामी शिवानन्द सरस्वती का जीवन दर्शन
पुस्तक प्राप्ति का स्थान -
1- करपात्री धाम मठ, केदारघाट, वाराणसी (उ0 प्र0)
2- काशी विश्वेश्वर (व्यक्तिगत) मन्दिर, मीरघाट, चैखम्बा संस्कृत भवन, वाराणसी (उ0 प्र0)
3- संकठा प्रसाद, कचैड़ी गली, चैक, वाराणसी (उ0 प्र0)
‘‘काशी की प्राचीन सीमा से बाहर ‘नयी काशी’ की स्थापना आध्यात्मिक व धार्मिक दानों दृष्टिकोण से अनुचित है क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर प्रलयकाल तक काशी का स्थान भिन्न नहीं हो सकता ’’ - स्वामी शिवानन्द महाराज,
साभार - राष्ट्रीय सहारा, वाराणसी, दि0 8-9-98
लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
‘‘स्वामी जी काशी क्या है ? काशी सत्य का प्रतीक है। इसके सत्य अर्थ को समझने के लिए सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित सृष्टि के उत्पत्ति से प्रलय को व्यक्त करने वाला शिव-शंकर अधिकृत कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद को समझना पड़ेगा। कालभैरव जन्म कथा इसका प्रमाण है। सर्वोच्च मन सें व्यक्त यह पौराणिक कथा स्पष्ट रुप से व्यक्त करती है कि ब्रह्मा और विष्णु से सर्वोच्च शिव-शंकर हैं। चारो वेदों को प्रमाणित करने वाले शिव-शंकर हैं। चार सिर के चार मुखों से चार वेद व्यक्त करने वाले ब्राह्मण ब्रह्मा जब पाँचवे सिर के पाँचवे मुख से अन्तिम वेद पर अधिपत्य व्यक्त करने लगे तब शिव-शंकर के द्वारा व्यक्त उनके पूर्ण रुप कालभैरव ने उनका पाँचवा सिर काट डाला जिससे यह स्पष्ट होता है कि काल ही सर्वोच्च है, काल ही भीषण है, काल ही सम्पूर्ण पापों का नाशक और भक्षक है, काल से ही काल डरता है। अर्थात् पाँचवा वेद काल आधारित ही होगा। पुराणों में ही व्यक्त शिव-शंकर से विष्णु तथा विष्णु से ब्रह्मा को बहिर्गत होते अर्थात् ब्रह्मा को विष्णु के समक्ष तथा विष्णु को शिव-शंकर के समक्ष समर्पित और समाहित होते दिखाया गया है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि शिव-शंकर ही आदि और अन्त हैं। अर्थात् जो पंचम वेद होगा वह अन्तिम वेद होगा, साथ ही प्रथम वेद भी होगा। शिव-शंकर ही प्रलय, स्थिति और सृष्टिकर्ता हैं। चूँकि वेद शब्दात्मक होते हैं इसलिए पंचम वेद शब्द से ही प्रलय, स्थिति और सृष्टिकर्ता होगा। पुराण-शास्त्र को रचने वाले व्यास हैं तो पुराण जिस कला से रची गयी है वह व्यास ही बता सकते हैं या जो शास्त्र रचने की योग्यता रखता हो। सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय या प्रलय और उत्पत्ति की क्रिया उसी भाँति है जैसे जन्म के बाद मृत्यु, पुनः मृत्यु के बाद जन्म अर्थात् उत्पत्ति और प्रलय या जन्म और मृत्यु एक ही विषय हैं इसलिए ही कहा जाता है कि जो प्रथम है वहीं अन्तिम है। कर्मवेद में सृष्टि की उत्पत्ति से प्रलय को व्यक्त किया गया है जिसके बीच सात चरण है और यही सात काशी है। यदि गिने तो प्रलय प्रथम तथा उत्पत्ति अन्तिम व सातवाँ चरण है। इस प्रकार उत्पत्ति व प्रलय अलग-अलग दिखाई पड़ते हुए भी एक हैं। सृष्टि के विकास क्रम में ही मनुष्य की सृष्टि है यह जैसे-जैसे प्राकृतिक नियम से दूर होता जाता है वह पतन की अवस्था को प्राप्त होता जाता है जिसकी निम्नतम अवस्था पशुमानव अर्थात् पूर्णतः इन्द्रिय के वश में संचालित होने वाली अवस्था है। अब यदि यह पशुमानव अवस्था चरम शिवत्व की स्थिति तक उठना चाहे तो उसे मानवीय व प्राकृतिक मूल पाँच चरणों को पार करना पड़ता है। यदि वह अन्तः जगत अर्थात् सार्वभौम सत्य ज्ञान से सृष्टि की उत्पत्ति की ओर जाता है तब वह योगेश्वर की अवस्था प्राप्त करता है। यदि वह वाह्य जगत् अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त ज्ञान से सृष्टि के प्रलय की ओर जाता है तब वह भोगेश्वर की अवस्था प्राप्त करता है। योगेश्वर व भोगेश्वर एक ही हैं बस एक अवस्था में दूसरा प्राथमिकता पर नहीं होता है। इस प्रकार सृष्टि के आदि में काशी और अन्त में सत्यकाशी व्यक्त होता है। इनके बीच पाँच अन्य काशी होती हैं। इस क्रमानुसार काशी: पंचम, प्रथम तथा सप्तम काशी तथा सत्यकाशी: पंचम, अन्तिम तथा सप्तमकाशी की स्थिति में होता है। योगेश्वर अवस्था ही अदृश्य विश्वेश्वर की अवस्था है तथा भोगेश्वर अवस्था ही दृश्य विश्वेश्वर की अवस्था है जबकि दोनों एक हैं और प्रत्येक वस्तु की भाँति एक-दूसरे के दृश्य और अदृश्य रुप हैं। इसलिए ही विष्णु और शिव-शंकर को एक दूसरे का रुप कहते हैं।
स्वामी जी, बिना गुण के अन्य काशीयों की स्थापना तो आध्यात्मिक एवं धार्मिक दोनों दृष्टिकोण से निश्चित ही अनुचित है परन्तु गुण-धर्म से युक्त स्थान व सीमा में काशी की स्थापना अनुचित नहीं उचित है। अब जबकि पाँच मुख वाले महादेव शिव-शंकर का वेद-कर्मवेद व्यक्त हो चुका है। सभी काशीयों का व्यक्त होना भी अतिआवश्यक है। क्योंकि अनेक तीर्थस्थलों को व्यक्त करने से मनुष्य की सृष्टि में कैसे-कैसे लाभ होते हैं यह तो आप सब भली-भाँति जानते हैं। आद्य शंकराचार्य जी ने भी भारत के चारों दिशाओं में चार पीठों की स्थापना उसी लाभ के लिए किये थे। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सभी वस्तु का प्रसार हो रहा है इसलिए अब समय आ गया है कि काशी का भी प्रसार हो क्योंकि प्रसार ही जीवन है। संकुचन ही मृत्यु है। ‘नयी काशी’ योजना का उचित स्थान (रामनगर से पड़ाव) पर निर्माण किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं है। क्योंकि रामनगर में शिवभक्त और शिव के अवतार माने जाने वाले महाराजा काशी नरेश तथा पड़ाव में शिव की एक धारा- अघोर के अवधूत भगवान राम का आश्रम व समाधि स्थल है तथा काशी का सम्बन्ध सत्य-धर्म-ज्ञान से है। सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर प्रलयकाल तक काशी का स्थान भिन्न नहीं हो सकता परन्तु काशी एक नहीं बल्कि सात काशियों का संयुक्त रूप है, जो पुराणों में वर्णित भी है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति और अन्त को प्रदर्शित करता शिव अधिकृत कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद में सात सत्य चक्र भी है जो सात काशियों को व्यक्त करते हैै जिसके अनुसार काशी (वाराणसी) पंचम, प्रथम तथा सप्तम एवं (वाराणसी)-विन्ध्याचल-शिवद्वार-सोनभद्र के बीच का सत्यकाशी-पंचम, अन्तिम तथा सप्तम काशी है जो शिव-शक्ति क्षेत्र है और पौराणिक भूमि भी है। सम्पूर्ण विश्व को मार्गदर्शन देने की ज्ञान बुद्धि भी अब सत्यकाशी क्षेत्र से व्यक्त हो चुका है। काशी मोक्षदायिनी जरुर है परन्तु विश्व को जीवन देने वाली जीवनदायिनी तो सत्यकाशी ही है क्योंकि इसी क्षेत्र से जीवन शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ व्यक्त हुआ है। मोक्ष तभी मिलता है जब जीवन मिलता है और जीवन तभी मिलता है जब मोक्ष मिलता है। इसलिए काशी और सत्यकाशी एक ही है अन्तर मात्र प्रसार का है। यह सत्य है कि अदृश्य शिव अकेले रह सकते हैं परन्तु दृश्य शिव-शंकर तो शक्ति के बिना रह नहीं सकते इसका ही परिणाम है शक्ति क्षेत्र-सत्यकाशी में दृश्य शिव-शंकर का व्यक्त होना।
स्वामी जी, आपने भविष्य पुराण का उदाहरण देते हुए कहा है कि- ‘‘ग्यारह टोपी (राष्ट्रपति) तक मतपत्रों का राज्य चलेगा इसके बाद किसी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं होगा। माता-पिता, साधु-सन्त, ब्राह्मण-विद्वान अपमानित होंगे। तब भयानक युद्ध होगा। भारत पुनः अपने अस्तित्व में आकर विश्वगुरु पद पर स्थापित होगा।’’ वह समय तो वर्तमान में चल रहा है जो भी अपना गुण-धर्म त्यागता है वह अपमानित होने का रास्ता स्वयं निर्माण करता है। ऐसे ही अपमानित कोई भी नहीं करता बल्कि वे जिस पद जैसे- माता-पिता, साधु-सन्त, ब्राह्मण-विद्वान पर बैठे रहते हैं। उसका भी धर्म निर्वहन नहीं करते परिणामस्वरुप सत्य-धर्म-ज्ञानियों के लिए वे न तो सम्मान के योग्य होंगे न ही अपमान के। भारत पुनः अपने अस्तित्व में आकर विश्व गुरु पद पर स्थापित होगा। यह बात तो सत्य है परन्तु यह स्वतः नहीं हो जायेगा कोई न कोई तो इसका माध्यम अवश्य बनेगा और वह अन्तिम माध्यम ही शिव-शंकर के पूर्णावतार के रूप में होगा क्योंकि ब्रह्मा के पूर्णावतार श्रीराम तथा विष्णु के पूर्णावतार श्रीकृष्ण हो चुके हैं। इसलिए तीसरे नेत्र कीें दृष्टि से सत्यकाशी के निर्माण में काशी को ही अग्रसर होना चाहिए। यह काशी के लिए सम्मानजनक होगा।
काशी का स्थान, निर्माण, रक्षा और प्रसार महादेव विश्वेश्वर भगवान भोले शंकर के अधीन है और उनकी पहचान है-अनासक्त एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म एवं एकात्म ध्यान के संगम की व्यक्त अवस्था अर्थात् ऐसा सर्वोच्च और अन्तिम ज्ञान तथा कर्म जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (तीनों लोंको) के काल्याणार्थ अन्तिम रास्ता हो, समस्त विश्व एक मात्र कर्म के लिए बद्ध हो और ज्ञान से मुक्त हो। दर्शन के मुख्य तीन स्तर-अद्वैत, विशिष्टाद्वैत तथा द्वैत की स्थिति अदृश्य काल में अदृश्य तथा दृश्य काल में दृश्य की स्थिति होती है। वर्तमान समय चक्र की स्थिति दृश्य काल के दृश्य विशिष्टाद्वैत की स्थिति की ओर है। ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण दृश्य जगत को ही सत्य मानकर व्यक्ति कार्य करते हैं। यही भौतिकवाद की स्थिति भी है। ध्यान का विषय है-शिव से काशीवासी और काशी है या काशीवासी और काशी से शिव हैं। यह भी ध्यान रहे कि व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था। तब व्यासजी लोलार्क मन्दिर के आग्नेय कोण में गंगाजी के पूर्वी तट पर स्थित हुए। इस घटना का उल्लेख काशी खण्ड में इस प्रकार है-
लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि।
स्थितो ह्यद्यापि पश्चेत्सः काशीप्रासाद राजिकाम्।।
- स्कन्दपुराण, काशी खण्ड 96/201
और गंगा पार क्षेत्र से ही जीवन शास्त्र ”विश्वशास्त्र“ व्यक्त हुआ है। ध्यान का विषय है-शिव से काशीवासी और काशी है या काशीवासी और काशी से शिव हैं’’
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