Saturday, March 14, 2020

स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान 3. हिन्दू धर्म - 19 सितम्बर, 1893

स्वामी विवेकानन्द के 
व्याख्यान 3. हिन्दू धर्म - 19 सितम्बर, 1893
प्रागैतिहासिक युग से चले आने वाले केवल तीन ही धर्म आज संसार में विद्यमान हैं- हिन्दू धर्म, पारसी धर्म और यहूदी धर्म। उनको अनेकानेक प्रचण्ड आघात सहने पड़े हैंै किन्तु फिर भी जीवित बने रहकर वे अपनी आन्तरिक शक्ति का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। पर जहाँ हम यह देखते हैं कि यहूदी धर्म, ईसाई धर्म को आत्मसात् नहीं कर सका, वरन् अपनी सर्वविजयिनी दुहिता- ईसाई धर्म द्वारा अपने जन्म स्थान से निर्वासित कर दिया गया, और केवल मुट्ठीभर पारसी ही अपने महान धर्म की गाथा गाने के लिए अब अवशिष्ट हैं। वहाँ भारत में एक के बाद एक, न जाने कितने सम्प्रदायों का उदय हुआ और उन्होंने वैदिक धर्म को जड़ से हिला दिया, किन्तु भयंकर भूकम्प के समय समुद्रतट के जल के समान वह कुछ समय पश्चात् हजारगुना बलशाली होकर सर्वग्रासी आप्लावन के रूप में पुनः लौटने के लिए पीछे हट गया, और जब यह सारा कोलाहल शान्त हो गया, तब इन समस्त धर्म-सम्प्रदायों को उनकी धर्ममाता (हिन्दू धर्म) की विराट काया ने चूस लिया, आत्मसात् कर लिया और अपने में पचा डाला।
वेदान्त दर्शन की अत्युच्च आध्यात्मिक उड़ानों को लेकर, आधुनिक विज्ञान के नवीनतम आविष्कार जिसकी केवल प्रतिध्वनि मात्र प्रतीत होते हैं, मूर्तिपूजा के निम्नस्तरीय विचारों एवं तदानुषंगिक अनेकानेक पौराणिक दन्तकथाओं तक, और बौद्धों के अज्ञेयवाद तथा जैनों के निरीश्वरवाद, इनमें से प्रत्येक के लिए हिन्दू धर्म में स्थान है। तब यह प्रश्न उठता है कि वह कौन सा सामान्य बिन्दु है, जहाँ पर इतनी विभिन्न दिशाओं में जानेवाली त्रिज्यायें केन्द्रस्थ होती हैं? वह कौन सा एक सामान्य आधार है जिस पर ये प्रचण्ड विरोधाभास आश्रित है? इसी प्रश्न का उत्तर देने का अब मैं प्रयत्न करूँगा।
हिन्दू जाति ने अपना धर्म श्रुति वेदों से प्राप्त किया है। उसकी धारणा है कि वेद अनादि और अनन्त है। श्रोताओं को सम्भव है, यह बात हास्यास्पद लगे कि कोई पुस्तक अनादि और अनन्त कैसे हो सकती है। किन्तु वेदों का अर्थ कोई पुस्तक है ही नहीं। वेदों का अर्थ है- भिन्न-भिन्न कालोें में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष। जिस प्रकार गुरूत्वाकर्षण का सिद्धान्त मनुष्यों के पता लगने के पूर्व भी अपना काम करता चला आया था और आज यदि मनुष्यजाति उसे भूल जाए, तो भी वह नियम अपना काम करता रहेगा, ठीक यही बात आध्यात्मिक जगत का पालन करने पाले नियमों के सम्बन्ध में भी है। एक आत्मा का दूसरी आत्मा के साथ और जीवात्मा का आत्माओं के परमपिता के साथ जो नैतिक सम्बन्ध हैं, वे उनके आविष्कार के पूर्व भी थे और हम यदि उन्हें भूल भी जाएँ, तो बने रहेंगे। इन नियमों या सत्यों का आविष्कार करने वाले ऋषि कहलाते हैं और हम उनको पूर्णत्व तक पहुँची हुई आत्मा मानकर सम्मान देते हैं। श्रोताओं को यह बतलाते हुए मुझे हर्ष होता है कि इन महानतम ऋषियों में कुछ स्त्रियाँ भी थीं।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि ये नियम, नियम के रूप में अनन्त भले ही हैं, पर इनका आदि तो अवश्य ही होना चाहिए। वेद हमें यह सिखाते हैं कि सृष्टि का न आदि है न अन्त। विज्ञान ने हमें सिद्ध कर दिखाया हैं कि समग्र विश्व की सारी ऊर्जा-समष्टि का परिमाण सदा एक सा रहता है। तो फिर, यदि कोई ऐसा समय था, जब किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं था, उस समय यह सम्पूर्ण ऊर्जा कहाँ थी? कोई-कोई कहता है कि ईश्वर में ही वह सब अव्यक्त रूप में निहीत थी। तब तो ईश्वर कभी अव्यक्त और कभी व्यक्त है, इससे तो वह विकारशील हो जायेगा। प्रत्येक विकारशील पदार्थ यौगिक होता है और हर यौगिक पदार्थ में वह परिवर्तन अवश्य सम्भावी है, जिसे हम विनाश कहते हैं। इस तरह तो ईश्वर की मृत्यु हो जायेगी, जो अनर्गल है। अतः ऐसा समय कभी नहीं था, जब यह सृष्टि नहीं थी।
मैं एक उपमा दूँ, स्रष्टा और सृष्टि मानो दो रेखाएँ है जिनका न आदि है, न अन्त, और जो समानान्तर चलती हैं। ईश्वर नित्य क्रियाशील विधाता है जिसकी शक्ति से प्रलयपयोधि में से नित्यशः एक के बाद एक ब्रह्माण्ड का सृजन होता है, वे कुछ काल तक गतिमान रहते हैं, और तत्पश्चात् वे पुनः विनष्ट कर दिये जाते हैं। ”सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वकल्पयत्“ अर्थात इस समय और इस चन्द्रमा को विधाता ने पूर्व कल्पों के सूर्य और चन्द्रमा के समान निर्मित किया है। इस वाक्य का पाठ हिन्दू बालक प्रतिदिन करता है।
यहाँ पर मैं खड़ा हूँ और अपनी आँखें बन्द करके यदि अपने अस्तित्व ”मैं“, ”मैं“, ”मैं“ को समझने का प्रयत्न करूँ, तो मुझमें किस भाव का उदय होता है? इस भाव का कि मैं शरीर हूँ, तो क्या मैं भौतिक पदार्थो के संघात के सिवा और कुछ नहीं हूँ? वेदों की घोषणा है- ”नहीं मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूँ, मैं शरीर नहीं हूँ। शरीर मर जायेगा, पर मैं नहीं मरूँगा। मैं इस शरीर में विद्यमान हूँ और इस शरीर का पतन होगा, तब भी मैं विद्यमान रहूँगा ही। मेरा एक अतीत भी है।“ आत्मा की सृष्टि नहीं हुई है, क्योंकि सृष्टि का अर्थ है- भिन्न-भिन्न द्रव्यों का संघात और इस संघात का भविष्य में विघटन अवश्यम्भावी है। अतएव यदि आत्मा का सृजन हुआ, तो उसकी मृत्यु भी होना चाहिए। कुछ लोग जन्म से ही सुखी होते हैं और पूर्ण स्वास्थ्य का आनन्द भोगते हैं, उन्हें सुन्दर शरीर, उत्साहपूर्ण मन और सभी आवश्यक सामग्रीयाँ प्राप्त रहती है। दूसरे कुछ लोग जन्म से ही दुःखी होते हैं, किसी के हाथ या पाँव नहीं होते, तो कोई मूर्ख होते हैं, और येन-केन प्रकारेण अपने दुःखमय जीवन के दिन काटते हैं। ऐसा क्यों? यदि सभी को एक ही न्यायी और दयालु ईश्वर ने उत्पन्न किया है, तो फिर उसने एक को सुखी और दुसरे को दुःखी क्यों बनाया? ईश्वर ऐसा पक्षपाती क्यों? फिर ऐसा मानने से बात नहीं सुधर सकती कि जो वर्तमान जीवन में दुःखी है, भावी जीवन में पूर्ण सुखी रहेंगे। न्यायी और दयालु ईश्वर के राज्य में मनुष्य इस जीवन में भी दुःखी क्यों रहे?
दूसरी बात यह है कि सृष्टि उत्पादक ईश्वर को मान्यता देने वाला सिद्धान्त वैषम्य की कोई व्याख्या नहीं करता, बल्कि वह तो केवल एक सर्वशक्तिमान पुरूष का निष्ठुर आदेश ही प्रकट करता है। अतएव इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिए, जिनके फलस्वरूप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुःखी हुआ करते हैं, और ये कारण है, उसके ही पूर्वनुष्ठित कर्म।
क्या मनुष्य के शरीर और मन की सारी प्रवृत्तियों की व्याख्या उत्तराधिकारी से प्राप्त क्षमता द्वारा नहीं हो सकती? यहाँ जड़ और चैतन्य (मन), सत्ता की दो समानान्तर रेखाएँ हैं। यदि जड़ और जड़ के समस्त रूपान्तर ही, जो कुछ यहाँ उसके कारण सिद्ध हो सकते हैं, तो फिर आत्मा के अस्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता ही न रह जाती। पर यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि चैतन्य (विचार) का विकास जड़ से हुआ है, और यदि कोई दार्शनिक अद्वैतवाद अनिवार्य है, तो आध्यात्मिक अद्वैतवाद निश्चय ही तर्कसंगत हैं और भौतिक अद्वैतवाद से किसी भी प्रकार कम वाँछनीय नहीं, परन्तु यहाँ इन दोनों की आवश्यकता नहीं है। 
हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि शरीर कुछ प्रवृत्तियों को आनुवंशिकता से प्राप्त करता है, किन्तु ऐसी प्रवृत्तियों का अर्थ केवल शारीरिक रूपाकृति से है जिसके माध्यम से केवल एक विशेष मन, एक विशेष प्रकार से काम कर सकता है। आत्मा को कुछ ऐसी विशेष प्रकृत्तियाँ होती हैं, जिसकी उत्पत्ति अतीत से होती है। एक विशेष प्रवृत्तिवाला जीवात्मा ”योग्य योग्येन युज्यते“ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करती है, जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सब से उपयुक्त आधार हो। यह विज्ञानसंगत है, क्योंकि विज्ञान हर प्रवृत्ति की व्याख्या आदत से करना चाहता है, और आदत आवृत्तियों से बनती है। अतएव नवजात जीवात्मा की नैसर्गिक आदतों की व्याख्या के लिए आवृत्तियाँ अनिवार्य हो जाती है। और चूँकि वे प्रस्तुत जीवन में प्राप्त नहीं होती, अतः वे पिछले जीवन से ही आयी होंगी।
एक और दृष्टिकोण है। ये सभी बातें यदि स्वयंसिद्ध भी मान लें, तो मैं अपने पूर्व जन्म की कोई बात स्मरण क्यों नहीं रख पाता? इसका समाधान सरल है। मैं अभी अंग्रेजी बोल रहा हूँ। वह मेरी मातृ भाषा नहीं हैं। वस्तुतः इस समय मेंरी मातृभाषा का कोई भी शब्द मेरे चित्त में उपस्थित नहीं है, पर उन शब्दों को सामने लाने का थोड़ा प्रयत्न करते ही वे मन में उमड़ आते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि चेतना मनसागर की सतह मात्र है और भीतर, उसकी गहराई में, हमारी समस्त अनुभवराशि संचित है। केवल प्रयत्न और उद्यम किजिए, वे सब ऊपर उठ आएँगे, और आप अपने पूर्व जन्मों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। यह प्रत्यक्ष एवं प्रतिपाद्य प्रमाण है। सत्यसाध नहीं किसी परिकल्पना का पूर्ण प्रमाण होता है और ऋषिगण यहाँ समस्त संसार को एक चुनौति दे रहे हैं। हमने उस रहस्य का पता लगा लिया है, जिससे स्मृतिसागर की गम्भीरतम गहराई तक मन्थन किया जा सकता है। उसका प्रयोग किजिए और आप अपने पूर्व जन्मों का सम्पूर्ण संस्मृति प्राप्त कर लेंगे।
अतएव हिन्दू का यह विश्वास है कि वह आत्मा है। ”उसको शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल भीगो नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती (गीता, 2.23)।“ हिन्दुओं की यह धारणा है कि आत्मा एक ऐसा वृत्त है जिसकी कोई परिधि नहीं है, किन्तु जिसका केन्द्र शरीर में अवस्थित है और मृत्यु का अर्थ है, इस केन्द्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाना। यह आत्मा जड़ की उपाधियों से बद्ध नहीं है। वह स्वरूपतः नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव है। परन्तु किसी कारण से वह अपने को जड़ से बँधी हुई पाती है और अपने को जड़ ही समझती है।
अब दूसरा प्रश्न है कि यह विशुद्ध, पूर्ण और विमुक्त आत्मा इस प्रकार जड़ का दासत्व क्यों करती है? स्वयं पूर्ण होते हुए भी इस आत्मा को अपूर्ण होने का भ्रम कैसे हो जाता है? हमें यह बताया जाता है कि हिन्दू लोग इस प्रश्न से कतरा जाते है और यह कह देते हैं कि ऐसा प्रश्न हो ही नहीं सकता। कुछ विचारक पूर्णप्राय सत्ताओं की कल्पना कर लेते हैं और इस रिक्त को भरने के लिए बड़े-बड़े वैज्ञानिक नामों का प्रयोग करते हैं। परन्तु नाम दे देना व्याख्या नहीं है। प्रश्न ज्यों का त्यों ही बना रहता है। पूर्ण ब्रह्म पूर्णप्राय अथवा अपूर्ण कैसे हो सकता है, शुद्ध, निरपेक्ष ब्रह्म अपने स्वभाव को सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण भर भी परिवर्तित कैसे कर सकता है? पर हिन्दू ईमानदार हैं। वह मिथ्या तर्क का सहारा नहीं लेना चाहता। पुरूषोचित रूप में इस प्रश्न का सामना करने का साहस वह रखता है और इस प्रश्न का उत्तर देता है। ”मैं नहीं जानता। मैं नहीं जानता कि पूर्ण आत्मा अपने को अपूर्ण कैसे समझने लगी, जड़ पदार्थो के संयोग से अपने को जड़नियमाधीन कैसे मानने लगी।“ पर इस सब के बावजूद तथ्य जो है, वही रहेगा। यह सभी की चेतना का एक तथ्य है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने को शरीर मानता है। हिन्दू इस बात की व्याख्या करने का प्रयत्न नहीं करता कि मनुष्य अपने को शरीर क्यों समझता है। यह ईश्वर की इच्छा है। यह उत्तर का कोई समाधान नहीं है। यह उत्तर हिन्दू के ”मैं नहीं जानता“ के सिवा और कुछ नहीं है।
अतएव मनुष्य की आत्मा अनादि और अमर है, पूर्ण और अनन्त है और मृत्यु का अर्थ है- एक शरीर से दूसरे शरीर में केवल केन्द्र परिवर्तन। वर्तमान अवस्था हमारे पूर्वानुष्ठित कर्मो द्वारा निश्चित होती है और भविष्य, वर्तमान कर्मो द्वारा। आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र में लगातार घूमती हुई कभी ऊपर विकास करती है, कभी प्रत्यागमन करती है। पर यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठता है-क्या मनुष्य प्रचण्ड तुफान में ग्रस्त वह छोटी सी नौका है, जो एक क्षण किसी वेगवान तरंग के फेनिल शिखर पर चढ़ जाती है, और दूसरे क्षण भयानक गर्त में नीचे धकेल दी जाती है। अपने शुभ और अशुभ कर्मो की दया पर केवल इधर-उधर भटकती फिरती है। क्या वह कार्य-कारण की सतत प्रवाही, निर्मम, भीषण तथा गर्जनशील धारा में पड़ा हुआ अशक्त, असहाय भग्न पोत है, क्या वह उस कारणता के चक्र के नीचे पड़ा हुआ एक क्षुद्र शलभ है, जो विधवा के आँसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी चिन्ता न करते हुए, अपने मार्ग में आने वाली सभी वस्तुओं को कुचल डालता है? इस प्रकार के विचार से अन्तःकरण काँप उठता है, पर यही प्रकृति का नियम है। तो फिर क्या कोई आशा ही नहीं है? क्या इससे बचने का कोई मार्ग नहीं हैं? यही करूण पुकार निराशाविह्वल हृदय के अन्तःस्थल से ऊपर उठी और उस करूणामय के सिंहासन तक जा पहुँची। वहाँ से आशा तथा सन्तावना की वाणी निकली और उसने एक वैदिक ़ऋषि को अन्तःस्फूर्ति प्रदान की, और उसने संसार के सामने खड़े होकर तूर्यस्वर में इस आनन्द सन्देश की घोषणा की- ”हे अमृत के पुत्रों! सुनो! हे दिव्यधामवासी देवगण!! तुम भी सुनो! मैंने उस अनादि, पुरातन पुरूष को प्राप्त कर लिया है, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है। केवल उस पुरूष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो। दूसरा कोई पथ नहीं (श्वेताश्वतरोपनिषद्, 2.5,3-8)“ अमृत के पुत्रों, कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन है यह! बन्धुओं! इसी मधुर नाम- अमृत के अधिकारी से, आपकों सम्बोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दें। निश्चय ही हिन्दू आपको पापी कहना अस्वीकार करता है। आप ईश्वर की सन्तान है, अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस मत्र्यभूमि पर देवता हैं। आप भला पापी? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है। वह मनुष्य स्वरूप पर घोर लांछन है। आप उठें! हे सिंहो! आएँ, और इस मिथ्या भ्रम को झटक कर दूर फेक दें की आप भेड़ हैं। आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनन्दमय और नित्य! आप जड़ नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं, जड़ तो आपका दास है, न कि आप जड़ के दास। अतः वेद ऐसी घोषणा नहींे करते कि यह सृष्टि - व्यापार कतिपय निर्मम विधानों का सघात है, और न यह कि वह कार्य-कारण की अनन्त कारा है, वरन् वे यह घोषित करते हैं कि इन सब प्राकृतिक नियमों के मूल मंे, जड़तत्व और शक्ति के प्रत्येक अणु-परमाणु में ओतप्रोत वही एक विराजमान है, जिसके आदेश से वायु चलती है, अग्नि दहकती है, बादल बरसते है और मृत्यु पृथ्वी पर नाचती है। (कठोपनिषद्, 2.3.3) और उस पुरूष का स्वरूप क्या है? वह सर्वत्र है, शुद्ध, निराकार, सर्वशक्तिमान है सब पर उसकी पूर्ण दया है। तू हमारा पिता है, तू हमारी माता है, तू हमारा परम प्रेमास्पद सखा हैं, तू ही सभी शक्तियों का मूल है, हमें शक्ति दे। तू ही इन अखिल भुवनों का भार वहन करने वाला है। तू मुझे इस जीवन के क्षुद्र भार को वहन करने में सहायता दे। वैदिक ऋषियों ने यही गाया है। हम उसकी पूजा किस प्रकार करें? प्रेम के द्वारा। ऐहिक तथा पारत्रिक समस्त प्रिय वस्तुओं से भी अधिक प्रिय जानकर उस परम प्रेमास्पद की पूजा करनी चाहिए।
वेद हमें प्रेम के सम्बन्ध में इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं। अब देखें कि श्रीकृष्ण ने, जिन्हें हिन्दू लोग पृथ्वी पर ईश्वर का पूर्णावतार मानते हैं, इस प्रेम के सिद्धान्त का पूर्ण विकास किस प्रकार किया है और हमें क्या उपदेश दिया है। उन्होंने कहा है कि मनुष्य को इस संसार में पद्य्मपत्र की तरह रहना चाहिए। पद्य्मपत्र जैसे पानी में रहकर उससे नहीं भींगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिए- उसका हृदय ईश्वर में लगा रहे और हाथ कर्म में लगे रहे।
इहलोक या परलोक में पुरस्कार की प्रत्याशा से ईश्वर से प्रेम करना बुरी बात नहीं, पर केवल प्रेम के लिए ही ईश्वर से प्रेम करना सब से अच्छा है, और उसके निकट यही प्रार्थना करनी उचित है- हे भगवन, मुझे न तो सम्पत्ति चाहिए, न सन्तति, न विद्या। यदि दो तो सहस्रों बार जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ूँगा, पर हे प्रभो, केवल इतना ही दो कि मैं फल की आशा छोड़कर तेरी भक्ति करूँ, केवल प्रेम के लिए ही तुझ पर मेरा निःस्वार्थ प्रेम हो (शिक्षाष्टक, 4)। श्रीकृष्ण के एक शिष्य युधिष्ठिर उस समय सम्राट थे। उनके शत्रुओं ने उन्हें राजसिहांसन से च्युत कर दिया और उन्हें अपनी सम्राज्ञी के साथ हिमालय के जंगलों में आश्रय लेना पड़ा था। वहाँ एक दिन सम्राज्ञी ने उनसे प्रश्न किया- मनुष्यों में सर्वोपरि पुण्यवान होते हुए भी आपको इतना दुःख क्यों सहना पड़ता है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- महारानी देखो, यह हिमालय कैसा भव्य और सुन्दर है। मैं इससे प्रेम करता हूँ। यह मुझे कुछ नहीं देता, पर मेरा स्वभाव ही ऐसा है कि मैं भव्य और सुन्दर वस्तु से प्रेम करता हूँ और इसी कारण मैं उससे प्रेम करता हूँ। उसी प्रकार मैं ईश्वर से प्रेम करता हूँ। उस अखिल सौन्दर्य, समस्त सुषमा का मूल है। वही एक ऐसा पात्र है, जिससे प्रेम करना चाहिए। उससे प्रेम करना मेरा स्वभाव है और इसीलिए मैं उससे प्रेम करता हूँ। मैं किसी बात के लिए उससे प्रार्थना नहीं करता, मैं उससे कोई वस्तु नहीं माँगता। उसकी जहाँ इच्छा हो, मुझे रखें। मैं तो सब अवस्थाओं में केवल प्रेम से ही उस पर प्रेम करना चाहता हूँ, मैं प्रेम में सौदा नहीं कर सकता (महाभारत, वनपर्व, 31.2.5)।
वेद कहते हैं कि आत्मा दिव्यस्वरूप हैं, वह केवल पंचभूतों के बन्धन में बँध गयी है और उन बन्धनों के टूटने पर वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगीं। इस अवस्था का नाम मुक्ति है जिसका अर्थ है- स्वाधीनता। अपूर्णता के बन्धन से छुटकारा, जन्म-मृत्यु से छुटकारा। और यह बन्धन केवल ईश्वर के दया से ही छूट सकता है और वह दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती है। अतएव पवित्रता ही उसके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय है। उसकी दया किस प्रकार काम करती है? वह पवित्र हृदय में अपने को प्रकाशित करता है। पवित्र और निर्मल मनुष्य इसी जीवन में ईश्वर दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता है। ”तब उसकी समस्त कुटिलता नष्ट हो जाती है, सारे सन्देह दूर हो जाते हैं (मुण्डकोपनिषद्, 2.2.8)।“ तब वह कार्य-कारण के भयावह नियम के हाथ खिलौना नहीं रह जाता। यही हिन्दू धर्म का मूलभूत सिद्धान्त है- यही उसका अत्यन्त मार्मिक भाव है। हिन्दू शब्दों और सिद्धान्तों के जाल में जीना नहीं चाहता। यदि इन साधारण इन्द्रिय-संवेद्य विषय के परे और भी कोई सत्ताएँ है, तो वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता है। यदि उसमें कोई आत्मा है, जो जड़ वस्तु नहीं है, यदि कोई दयामय सर्वव्यापी विश्वात्मा है तो वह उसका साक्षात्कार करेगा। वह उसे अवश्य देखेगा और मात्र उसी से समस्त शंकाएँ दूर होंगी। अतः हिन्दू ़ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देता है। ”मैंने आत्मा का दर्शन किया है, मैंने ईश्वर का दर्शन किया है।“ और यही पूर्णत्व की एक मात्र शर्त है। हिन्दू धर्म भिन्न-भिन्न मत-मतान्तरों या सिद्धान्तों पर विश्वास करने के लिए संघर्ष और प्रयत्न में निहित नहीं हैं, वरन् वह साक्षात्कार है, वह केवल विश्वास कर लेना नहीं, वह होना और बनना है।
इस प्रकार हिन्दूओं की सारी साधना प्रणाली का लक्ष्य है- सतत अध्यवसाय द्वारा पूर्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना और उसके दर्शन कर लेना। उस स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण हो जाना, हिन्दूओं का धर्म है। और जब मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता है, तब क्या होता है? तब वह असीम परमानन्द का जीवन व्यतीत करता है। जिस प्रकार एकमात्र वस्तु में मनुष्य को सुख पाना चाहिए, उसे अर्थात ईश्वर को पाकर वह परम तथा असीम आनन्द का उपभोग करता है और ईश्वर के साथ भी परमानन्द का आस्वादन करता है। यहाँ तक सभी हिन्दू एकमत हैं। भारत के विविध सम्प्रदायों का यह सामान्य धर्म है। परन्तु पूर्ण निरपेक्ष है, और निरपेक्ष दो या तीन नहीं हो सकता। उसमें कोई गुण नहीं हो सकता, वह व्यक्ति नहीं हो सकता। अतः जब आत्मा पूर्ण और निरपेक्ष हो जाती है, और ईश्वर के केवल अपने स्वरूप की पूर्णता, सत्यता और सत्ता के रूप में, परमसत्, परमचित्त, परम आनन्द के रूप में प्रत्यक्ष करती है। इसी साक्षात्कार के विषय में हम बारम्बार पढ़ा करते हैं कि उसमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व को खोकर जड़ता प्राप्त करता है या पत्थर के समान बन जाता है। जिन्हें चोट कभी नहीं लगी है, वे चोट के दाग की ओर हँसी की दृष्टि से देखते हैं। मैं आपको बताता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं होती। यदि इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना आनन्द होता है, तो दो शरीरों की चेतना का आनन्द अधिक होना चाहिए, और उसी प्रकार क्रमशः अनेका शरीरों की चेतना के साथ आनन्द की मात्रा भी अधिकाधिक बढ़नी चाहिए, और विश्वचेतना का बोध होने पर आनन्द की परम अवस्था प्राप्त हो जायेगी।
अतः उस असीम विश्वव्यक्तित्व की प्राप्ति के लिए इस कारास्वरूप दुःखमय क्षुद्र व्यक्तित्व का अन्त होना ही चाहिए। जब मैं प्राण स्वरूप से एक हो जाऊँगा, तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता है। जब मैं आनन्दस्वरूप हो जाऊँगा, तभी दुःख का अन्त हो सकता है। जब मैं ज्ञानस्वरूप हो जाऊँगा, तभी सब अज्ञान का अन्त हो सकता है, और यह अनिवार्य वैज्ञानिक निष्कर्ष भी है। विज्ञान ने मेरे निकट यह सिद्ध कर दिया है कि हमारा यह भौतिक व्यक्तित्व भ्रम मात्र है, वास्तव में मेरा यह शरीर एक अविच्छिन्न जड़सागर में एक क्षुद्र सदा परिवर्तित होता रहने वाला पिण्ड है, और मेरे दूसरे पक्ष- आत्मा के सम्बन्ध में अद्वैत ही अनिवार्य निष्कर्ष है।
विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं है। ज्योंही कोई विज्ञान शास्त्र पूर्ण एकता तक पहुँच जायेगा, त्योंहीं उसका आगे बढ़ना रुक जायेगा क्योंकि तब तो वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर चुकेगा। उदाहरणार्थ रसायनशास्त्र यदि एक बार उस एक मूल द्रव्य का पता लगा ले, जिससे वह सब द्रव्य बन सकते हैं तो फिर वह और आगे नहीं बढ़ सकेगा। पदार्थ विज्ञान शास्त्र जब उस एक मूल शक्ति का पता लगा लेगा जिससे अन्य शक्तियां बाहर निकली हैं तब वह पूर्णता पर पहुँच जायेगा। वैसे ही धर्म शास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त हो जायेगा जब वह उस मूल कारण को जान लेगा। जो इस मत्र्यलोक में एक मात्र अमृत स्वरुप है जो इस नित्य परिवर्तनशील जगत का एक मात्र अटल अचल आधार है जो एक मात्र परमात्मा है और अन्य सब आत्माएं जिसके प्रतिबिम्ब स्वरुप हैं। इस प्रकार अनेकेश्वरवाद, द्वैतवाद आदि में से होते हुए इस अद्वैतवाद की प्राप्ति होती है। धर्मशास्त्र इससे आगे नहीं जा सकता। यहीं सारे विज्ञानों का चरम लक्ष्य है। समग्र विज्ञान अन्ततः इसी निष्कर्ष पर अनिवार्यतः पहुँचेंगे। आज विज्ञान का शब्द अभिव्यक्ति हैं, सृष्टि नहीं, और हिन्दू को यह देखकर बड़ी प्रसन्न है कि जिसको वह अपने अन्तःस्थल में इतने युगों से महत्व देता रहा है, अब उसी की शिक्षा अधिक सषक्त भाषा में विज्ञान के नूतनतम निष्कर्षों के अतिरिक्त प्रकाश में दी जा रही है।
अब हम दर्शन की अभीप्साओं से उतरकर ज्ञानरहित लोगों के धर्म की ओर आते हैं। यह मैं प्रारम्भ में ही आप को बता देना चाहता हूँ कि भारतवर्ष में अनेकेश्वरवाद नहीं है। प्रत्येक मन्दिर में यदि कोई खड़ा होकर सुने, तो यही पायेगा कि भक्तगण सर्वव्यापित्व आदि ईश्वर के सभी गुणों का आरोप उन मूर्तियों में करते हैं। यह अनेकेश्वरवाद नहीं है, और न एकदेववाद से ही इस स्थिति की व्याख्या हो सकती है। गुलाब को चाहे दूसरा कोई भी नाम क्यों न दे दिया जाए, पर वह सुगन्ध तो वैसी ही मधुर देता रहेगा। नाम ही व्याख्या नहीं होती। बचपन की एक बात मुझे यहाँ याद आती है। एक ईसाई पादरी कुछ मनुष्यों की भीड़ जमा करके धर्मोपदेश का रहा था। बहुतेरी मजेदार बातों के साथ वह पादरी यह भी कह गया कि- अगर मैं तुम्हारी देवमूर्ति को एक डंडा लगाऊँ, तो वह मेरा क्या कर सकती है? एक श्रोता ने चट चुभता सा जबाब दे डाला कि- अगर मैं तुम्हारे ईश्वर को गाली दे दूँ, तो वह मेरा क्या कर सकता है? पादरी बोला, मरने के बाद वह तुम्हें सजा देगा। हिन्दू भी तनकर बोल उठा- तुम मरोगे, तब ठीक उसी तरह हमारी देवमूर्ति भी तुम्हें दण्ड देगी। वृक्ष अपने फलों से जाना जाता है। जब मूर्तिपूजक कहे जानेवाले लोगों में ऐसे मनुष्य को पाता हूँ जिनकी नैतिकता, आध्यात्मिकता और प्रेम अपना सानी नहीं रखते, जब मैं रूक जाता हूँ और अपने से यही पूछता हूँ कि क्या पाप से भी पवित्रता की उत्पत्ति हो सकती है?
अन्धविश्वास मनुष्य का महान शत्रु है, पर धर्मान्धता तो उससे भी बढ़कर है। ईसाई गिरजारघर क्यों जाता है? क्रूस क्यों पवित्र है? प्रार्थना के समय आकाश की ओर मुँह क्यों किया जाता है? कैथोलिक ईसाईयों के गिरजाघरों में इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती है? प्रोटेस्टेन्ट ईसाईयों के मन में प्रार्थना के समय इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती है? मेरे भाईयों! मन में किसी मूर्ति के आए बिना कुछ सोच सकना उतना ही असम्भव है जितना श्वास लिये बिना जीवित रहना। साहचर्य के नियमानुसार भौतिक मूर्ति से मानसिक भावविशेष का उद्दीपन हो जाता है अथवा मन में भावविशेष का उद्दीपन हाने से तदनुरूप मूर्तिविशंेष का भी आविर्भाव होता है। इसीलिए तो हिन्दू आराधना के समय बाह्य प्रतीक का उपयोग करता है। वह आपको बतलाएगा कि बाह्य प्रतीक उसके मन को ध्यान के विषय परमेश्वर में एकाग्रता से स्थिर रखने में सहायता देता है। वह भी यह बात उतनी ही अच्छी तरह से जानता है, जितना आप जानते हैं कि वह मूर्ति न तो ईश्वर ही है और न सर्वव्यापी ही। और सच पूछिए तो दुनिया के लोग ”सर्वव्यापित्व“ का अर्थ क्या समझते हैं? वह तो केवल एक शब्द या प्रतीक मात्र है। क्या परमेश्वर का भी कोई क्षेत्रफल है? यदि नहीं, तो जिस समय हम सर्वव्यापी शब्द का उच्चारण करते हैं, उस समय विस्तृत आकाश या देश की ही कल्पना करने के सिवा हम और क्या करते हैं? अपनी मानसिक संरचना के नियमानुसार, हमें किसी प्रकार अपनी अनन्तता की भावना को नीले आकाश या अपार समुद्र की कल्पना से सम्बद्ध करना पड़ता है। उसी तरह हम पवित्रता के भाव को अपने स्वभावानुसार गिरजाघर या मस्जिद या क्रूस से जोड़ लेते हैं। हिन्दू लोग पवित्रता, नियत्व, सर्वव्यापित्व आदि आदि भावों का सम्बन्ध विभिन्न मूर्तियों और रूपों से जोड़ते हैं। अन्तर यह है कि जहाँ अन्य लोग सारा जीवन किसी गिरजाघर की मूर्ति की भक्ति में ही बिता देते हैं और उससे आगे नहीं बढ़ते, क्योंकि उनके लिए तो धर्म का अर्थ ही यही है कि कुछ विशिष्ट सिद्धान्तों को वे अपनी बुद्धि द्वारा स्वीकृत करे लें और अपने मानवबन्धुओं की भलाई करते रहें। वहाँ एक हिन्दू की सारी धर्मभावना प्रत्यक्ष अनुभूति या आत्म साक्षात्कार में केन्द्रीभूत होती है। मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके दिव्य बनाना है। मूर्तियाँ, मन्दिर, गिरजाघर या ग्रन्थ तो धर्म जीवन में केवल आधार या सहायक मात्र हैं, पर उससे उत्तरोत्तर उन्नति ही करनी चाहिए।
मनुष्य को कहीं पर रूकना नहीं चाहिए। शास्त्र का वाक्य है कि ”बाह्य पूजा या मूर्तिपूजा सबसे नीचे की अवस्था है। आगे बढ़ने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था है और सबसे उच्च अवस्था तो वह है, जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाए (महानिर्वाणतन्त्र, 4.12)। देखिए, वही अनुरागी साधक, जो पहले मूर्ति के सामने प्रणत रहता था, अब क्या कह रहा है- ”सूर्य उस परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता, न चन्द्रमा या तारागण ही, तब विद्युत प्रभा भी परमेश्वर को उद्भासित नहीं कर सकती, तब इस समान्य अग्नि की बात क्या! ये सभी इसी परमेश्वर के कारण प्रकाशित होते हैं (कठोपनिषद्, 2.2.15)।“ पर वह किसी की मूर्ति को गाली नहीं देता और न उसकी पूजा को पाप ही बताता है। वह तो उसे जीवन की एक आवश्यक अवस्था जानकर उसको स्वीकार करता है। बालक ही मनुष्य का जनक है। तो क्या किसी वृद्ध पुरूष का बचपन या युवावस्था को पाप या बुरा कहना उचित होगा?
यदि कोई मनुष्य अपने दिव्य स्वरूप को मूर्ति की सहायता से अनुभव कर सकता है, तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा? और जब वह उस अवस्था से परे पहुँच गया, तब भी उसके लिए मूर्ति पूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं हैं। हिन्दू की दृष्टि में मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जा रहा है, वह तो सत्य से सत्य की ओर, निम्न श्रेणी के सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर अग्रसर हो रहा है। हिन्दू के मतानुसार निम्न जड़-पूजावाद से लेकर सर्वोच्च अद्वैतवाद तक जितने धर्म हैं, वे सभी अपने जन्म तथा साहचर्य की अवस्था द्वारा निर्धारित होकर उस असीम के ज्ञान तथा उपलब्धि के निमित्त मानवात्मा के विविध प्रयत्न हैं। और यह प्रत्येक उन्नति की एक अवस्था को सूचित करता है। प्रत्येक जीव उस गरूड़ पक्षी के समान है जो धीरे-धीरे ऊँचा उड़ता हुआ तथा अधिकाधिक शक्तिसंपादन करता हुआ अन्त में उस भास्कर सूर्य तक पहुँच जाता है।
अनेकता में एकता प्रकृति का विधान है और हिन्दुओं ने इसे स्वीकार किया है। अन्य प्रत्येक धर्म में कुछ निर्दिष्ट मतवाद विधिबद्ध कर दिये गये हैं और सारे समाज को उन्हें मानना अनिवार्य कर दिया जाता है। वह समाज के सामने केवल एक कोट रख देता है जो जैक, जाॅन और हेनरी, सभी को ठीक होना चाहिए। यदि जाॅन या हेनरी के शरीर में ठीक नहीं आता, तो उसे अपना तन ढँकने के लिए बिना कोट के ही रहना होगा। हिन्दूओं ने यह जान लिया है कि निरपेक्ष ब्रह्मतत्व का साक्षात्कार, चिन्तन या वर्णन सापेक्ष के सहारे ही हो सकता है, और मूर्तियाँ, क्रूस या नवोदित चन्द्र केवल विभिन्न प्रतीक हैं, वे मानो बहुत सी खूँटियाँ हैं जिनमें धार्मिक भावनाएँ लटकायीं जाती हैं। ऐसा नहीं है कि इन प्रतीकों की आवश्यकता हर एक के लिए हो, किन्तु जिनको अपने लिए इन प्रतीकों की सहायता की आवश्यकता नहीं है, उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं है कि वे गलत हेैं। हिन्दू धर्म में वे अनिवार्य नहीं हैं।
एक बात आपको अवश्य बतला दूँ। भारतवर्ष में मूर्तिपूजा कोई जघन्य बात नहीं है। वह व्यभिचार की जननी नहीं है। वरन् वह अविकसित मन के लिए उच्च आध्यात्मिक भाव को ग्रहण करने का उपाय है। अवश्य, हिन्दूओं के बहुतेरे दोष हैं, उनके कुछ अपने अपवाद हैं, पर यह ध्यान रखिए कि उनके दोष अपने शरीर को उत्पीड़ित करने तक सीमित हैं, वे कभी अपने पड़ोसियों का गला नहीं काटने जाते। एक हिन्दू धर्मान्ध भले ही चिता पर अपने आप को जला डाले, पर वह विधर्मियों को जलाने के लिए ”इन्क्विजिशन“ की अग्नि कभी प्रज्वलित नहीं करेगा। और इस बात के लिए उसे उससे अधिक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जितना डाइनों को जलाने का दोष ईसाई धर्म पर मढ़ा जा सकता है।
अतः हिन्दुओं की दृष्टि में समस्त धर्मजगत भिन्न-भिन्न रूचिवाले स्त्री-पुरूष की, विभिन्न अवस्थाओं एवं परिस्थितियों में से होते हुए एक ही लक्ष्य की ओर यात्रा है, प्रगति है। प्रत्येक धर्म जड़भावापन्न मानव से एक ईश्वर का उद्भव कर रहा है, और ईश्वर उन सब का प्रेरक है। तो फिर इतने परस्पर विरोध क्यों हैं? हिन्दुओं का कहना है कि ये विरोध केवल आभासी हैं। उनकी उत्पत्ति सत्य के द्वारा भिन्न अवस्थाओं और प्रकृति के अनुरूप अपना समायोजन करते समय होती है। वही एक ज्योति भिन्न-भिन्न रंग के काँच में से भिन्न-भिन्न रूप से प्रकट होती हैं। समायोजन के लिए इस प्रकार की अल्प विविधता आवश्यक हैं। परन्तु प्रत्येक के अन्तःस्थल में उसी सत्य का राज है। ईश्वर ने अपने कृष्णावतार में हिन्दुओं को यह उपदेश दिया है- ”प्रत्येक धर्म में मैं, मोती की माला में सूत्र की तरह पिरोया हुआ हूँ (गीता, 7.7)। जहाँ भी तुम्हें मानवसृष्टि को उन्नत बनाने वाली और पावन करने वाली अतिशय पवित्रता और असाधारण शक्ति दिखाई दे, तो जान लो कि वह मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ है (गीता, 10.41)।“ और इस शिक्षा का परिणाम क्या हुआ? सारे संसार को मेरी चुनौति है कि वह समग्र संस्कृत दर्शनशास्त्र में मुझे एक ऐसी उक्ति दिखा दे जिसमें यह बताया गया हो कि केवल हिन्दुओं का ही उद्धार होगा ओर दूसरों का नहीं। व्यास कहते हैं - ”हमारी जाति और सम्प्रदाय की सीमा के बाहर भी पूर्णत्व तक पहुँचे हुए मनुष्य हैं (वेदान्त सूत्र, 3.4.36)।“ एक बात और है। ईश्वर में ही अपने सभी भावों को केन्द्रित करनेवाला हिन्दू अज्ञेयवादी बौद्ध और निरीश्वरवादी जैन धर्म पर कैसे श्रद्धा रख सकता है? यद्यपि बौद्ध और जैन ईश्वर पर निर्भर नहीं रहते, तथापि उनके धर्म की पूरी शक्ति प्रत्येक धर्म के महान केन्द्रित सत्य-मनुष्य में ईश्वर, के विकास की ओर उन्मुख हैं। उन्होंने पिता को भले न देखा हो, पर पुत्र को अवश्य देखा है, और जिसने पुत्र को देख लिया, उसने पिता को भी देख लिया।
भाईयों! हिन्दुओं के धार्मिक विचारों की यहीं संक्षिप्त रूपरेखा है। हो सकता है कि हिन्दू अपनी सभी योजनाओं को कार्यान्वित करने में असफल रहा हो, पर यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म हो सकता है, तो वह ऐसा ही होगा, जो देश या काल से मर्यादित न हो, जो उस अनन्त भगवान के समान ही अनन्त हो, जिस भगवान के सम्बन्ध में वह उपदेश देता है, जिसकी ज्योति श्रीकृष्ण के भक्तों पर और ईसा के प्रेमियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाशित होती हो, जो न तो ब्राह्मणों का हो, न बौद्धों का, न ईसाइयों का और न मुसलमानों का, वरन् इन सभी धर्मों का समष्टिस्वरूप होते हुए भी जिसमें उन्नति का अनन्त पथ खुला रहे, जो इतना व्यापक हो कि अपनी असंख्य प्रसारित बाहुओं द्वारा सृष्टि के प्रत्येक मनुष्य का प्रेमपूर्वक आलिंगन करें।... वह विश्वधर्म ऐसा होगा कि उसमें किसी के प्रति विद्वेष अथवा अत्याचार के लिए स्थान न रहेगा, वह प्रत्येक स्त्री और पुरूष के ईश्वरीय स्वरूप को स्वीकार करेगा और सम्पूर्ण बल मनुष्यमात्र को अपनी सच्ची, ईश्वरीय प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही केन्द्रित रहेगा। 
आप ऐसा धर्म सामने रखिए, और सारे राष्ट्र आपके अनुयायी बन जाएँगे। समा्रट अशोक की परिषद् बौद्ध परिषद् थी। अकबर की परिषद् अधिक उपयुक्त होती हुई भी केवल बैठक की ही गोष्ठी थी। किन्तु पृथ्वी के कोने-कोने में यह घोषणा करने का गौरव अमेरिका के लिए सुरक्षित था कि- प्रत्येक धर्म में ईश्वर है।
वह, जो हिन्दुओं का ब्रह्म, पारसियों का अहुर्मज्द, बौद्धों का बुद्ध, यहूदियों का जिहोवा और ईसाईयों का स्वर्गस्थ पिता है, आपको अपने उदार उद्देश्य को कार्यान्वित करने की शक्ति प्रदान करें! नक्षत्र पूर्व गगन में उदित हुआ और कभी धुँधला और कभी दैदीप्यमान होते हुए धीरे-धीरे पश्चिम की ओर यात्रा करते-करते उसने समस्त जगत की परिक्रमा कर डाली और अब फिर प्राच्य के क्षितिज में सहस्रगुणा अधिक ज्योति के साथ उदित हो रहा है।
ऐ स्वाधीनता की मातृभूमि कोलम्बिया, तू धन्य है! यह तेरा सौभाग्य है कि तूने अपने पड़ोसियों के रक्त से अपने हाथ कभी नहीं भिगोये, तूने अपने पड़ोसियों का सर्वस्व हरण कर सहज में ही धनी और सम्पन्न होने की चेष्टा नहीं की, अतएव समन्वय की ध्वजा फहराते हुए सभ्यता का अग्रणी होकर चलने का सौभाग्य तेरा ही था।



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