Saturday, March 14, 2020

विश्व धर्म संसद-सन् 1893 ई0 परिचय

 विश्व धर्म संसद
हाॅग्टन द्वारा सम्पादित ”नीली का विश्व धर्म महासभा का इतिहास“ नामक पुस्तक हमें दर्शाती है कि ”जिनकी धरती के कोने कोने से आए प्रतिनिधियों का समावेश होगा। ऐसी अनेक सभाओं के आयोजन द्वारा मानवता के कल्याणार्थ महानतम तथ्य उजागर करने की वह कल्पना सर्वप्रथम श्री चाल्र्स करल बाॅनी ने 1989 के ग्रीष्मकाल में की थी।“ श्री बाॅनी उस समय सुविख्यात वकील थे।1890 ई0 से वे ”इण्टरनेशनल लाॅ एण्ड आॅर्डर लीग“ के अध्यक्ष पद पर सुशोभित थे एवं कई महत्वपूर्ण संवैधानिक एवं आर्थिक सुधार के सृजक थे। उनकी बात आदर से मानी जाती थी और उन्हें जनसाधारण सदैव अनुमोदित करता था। 30 अक्टुबर 1890 को अमेरिकन प्रदर्शनी की एक विश्व सहायक सभा की संगठन हुआ जिसके अध्यक्ष श्री बाॅनी थे। विस्तृत एवं जटिल योजनाएँ बनायी गईं जिसके अन्तर्गत अकथनीय संख्या में पत्रों का आदान-प्रदान पृथ्वी के सभी कोनों से होता रहा। अन्ततः 15 मई एवं 28 अक्टुबर 1893 के बीच 20 सभाएँ हुईं थीं। इनमें विस्तारपूर्वक विभिन्न मुद्दों पर विचार विनिमय हुआ जैसे नारी जाति की प्रगति, सार्वजनिक प्रेस, औषधि एवं शल्य चिकित्सा, संयम, सुधार, अर्थ विज्ञान, संगीत, रविवासरीय अवकाश तथा धर्म, चूंकि अलौकिक शक्ति में विश्वास, सूर्य के सदृश ज्वलन्त, मनुष्य की बुद्धि एवं नैतिक उन्नति के पाश्र्व में ज्ञान प्रदायिनी शक्ति एवं फलोत्पादन में समर्थ तत्व हुआ करता है। हाॅग्टन कहते है- इनकी सभाएँ और क्रियाकलाप इतनी बहुसंख्यक और विस्तृत हुआ करती थी कि इनके कार्यक्रमों की 160 पृष्ठों वाली एक मनोरंजक पुस्तक छपी थी। 1893 ई0 की ”विश्व अमेरिकन प्रदर्शनी“ का मुख्य उद्देश्य मानव की भौतिक प्रगति को एकत्रित करना था। कल्पना करने योग्य प्रत्येक वस्तु वहाँ प्रदर्शित थी, न केवल पाश्चात्य सभ्यता की उपलब्धियों को वरन् विश्व की अधिक पिछड़ी संस्कृतियों को भी आदमकद नमूनों आदि के द्वारा बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया गया था। यह प्रदर्शिनी हालांकि तब तक पूर्णता को प्राप्त नहीं होती जब तक उसे विश्व-चिन्तन का प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं होता।

1. विश्व धर्म संसद-सन् 1893 ई0 परिचय
इन सभाओं में से धर्म सभा ने ही सबसे अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की एवं वही सबसे विस्तृत मात्रा में उद्घोषित हुई। श्री बैरोज ”विश्व धर्म महासभा“ में लिखते है- इसके पूर्व ऐसी जनसभा कभी एकत्रित नहीं हुई थी जिसकी प्रतीक्षा इतनी उत्सुकता से विश्वव्यापी स्तर पर की गई। धर्म जगत के इतिहास में निश्चय ही यह एक अनुपम एवं अद्भुत घटना थी। यह सत्य है कि भारतीय इतिहास में सर्वत्र विभिन्न धर्मो की सभाएँ हुई हैं तथा यह भी सत्य है कि 1893 ई0 के पूर्व भी समय-समय पर ईसाई एवं मुसलमानों की धार्मिक सभाएँ हुई थी परन्तु यथार्थतः यह कहा जा सकता है कि पूर्वकाल में कभी भी दुनिया के महानतम धर्मो के प्रतिनिधियों को ऐसे किसी एक स्थान पर एकत्रित नहीं किया जा सका था जहाँ वे अपने-अपने धार्मिक विश्वासों पर निर्भय होकर हजारों मनुष्यों के समक्ष कह सकें। वह एक अतुलनीय सभा थी तथा उन असहिष्णुता एवं भौतिकवाद के दिनों में जब सर्वप्रथम इसका प्रस्ताव रखा गया तो बहुतेरों को यह मानवों के लिए असाध्य सा प्रतीत हुआ। किसी आकस्मिक निरीक्षक को भी वस्तुतः यह भान होता कि अतिमानवी शक्ति से गतिमान कर रही है एवं यह जानकर किसी को भी आश्चर्य न होगा कि स्वामी विवेकानन्द जी ने अमेरिका प्रस्थान से पूर्व ही स्वामी तुरीयानन्द से कहा था- ”धर्म महासभा का संगठन इसके लिए (अपनी ओर इशारा कर) हो रहा है। मेरा मन मुझसे ऐसा कहता है। सत्य सिद्ध होने में अधिक समय नहीं लगेगा।“
मधुर विद्वान सहिष्णु श्री बाॅनी जिनकी आत्मा उनकी उज्जवल आँखों के माध्यम से बोलती थी। बाॅनी ने स्वयं धर्म सभा द्वारा क्या उपलब्धि होगी, इस विषय में अपने स्वप्न का वर्णन किया है- ”मैं अपनी युवावस्था में ही विश्व की महानतम धार्मिक व्यवस्थाओं से परिचित हुआ था एवं परिपक्वावस्था में ही अनेक गिरिजाघरों के वरिष्ठतम लोगों का आनन्ददायक सान्निध्य लाभ किया था। इस तरह मैं विश्वास करने पर बाध्य हुआ कि यदि सभी महान धार्मिक विश्वासों को समीप लाकर उनमें सामंजस्य स्थापित किया जाय तो अनेक स्थलों पर उनमें सद्भाव एवं सामजंस्य स्थापित किया जा सकता है जिसके फलस्वरूप आने वाली मानवीय एकता प्रभु के प्रेम में मानव की सेवा में तत्पर एवं अधिक उन्नत होगी।“ यद्यपि धर्मसभा के पीछे श्री बाॅनी की ही प्रेरणा थी तथापि यथार्थतः वे नहीं अपितु शिकागो के प्रथम गिरिजाघर के वरिष्ठ पादरी माननीय जाॅन हेनरी बैरोज जो साधारण सभा के सभापति भी थे, वे ही विस्तृत पूर्वयोजना कार्यरूप में परिणत करने हेतू उत्तरदायी थे।
समिति का कार्य क्षेत्र बड़ा विशाल था। लगभग 10 हजार पत्र एवं 40 हजार से भी अधिक प्रलेख बाहर प्रेषित किए गये एवं पृथ्वी के हर भागों से बृहत् पैमाने पर उत्तर प्राप्त किए गये। बैरोज अभिमानपूर्वक लिखते हैं- ”करीब 30 महीनों तक संसार की सभी रेल पटरियाँ एवं जहाज मार्ग अनजाने में ही इस धर्मसभा के लिए कार्य करते रहें हैं। शिकागो डाकघर के क्लर्क उन पत्रों के बड़े गठ्ठरों से जूझते रहे जो पहले ही मद्रास, बम्बई एवं टोकियो के डाक कर्मियों की नीली अँगुलियों के बीच से निकल आईं थी।“ सलाहकार परिषद् के सदस्य सारी दुनिया से चुने गये जिनकी संख्या 3 हजार तक पहुँच गयी। भारत के चुने गए परिषद् के सदस्यों मे थे- जी.एस.अय्यर (हिन्दू पत्र के सम्पादक), बम्बई के बी.बी.नगरकर तथा कलकत्ता के पी.सी.मजुमदार। अन्त के दोनों व्यक्तियों ने ब्रह्म समाज का प्रतिनिधित्व किया था।
हालांकि धर्म सभा को संगठित करने वाले जो लोग विश्व के धर्मो को एकत्रित करने में मात्र यंत्र स्वरूप थे उनके मस्तिष्क में कभी भी यह बात नहीं उभरी, चाहे ईश्वरीय विधान कुछ भी क्यों न हो परन्तु इस संगठन के पीछे जो मानवीय उद्देश्य थे वे मिश्रित थे। स्वामी विवेकानन्द जी ने बाद के अपने पत्र में लिखा है- ”ईसाई धर्म का अन्य सभी धार्मिक विश्वासों के ऊपर वर्चस्व साबित करने हेतू ही विश्व धर्म महासभा का संगठन किया गया था“ तथा पुनः एक साक्षात्कार के दौरान वे बोले थे- ”मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व धर्म महासभा का संगठन जगत के समक्ष अक्रिस्तियों (गैर ईसाईयों) का मजाक उड़ाने हेतू हुआ है।“ जिस सर्वधर्मसभा ने स्वामी विवेकानन्द का पश्चिमी जगत से परिचय कराया उसके बारे में उनकी यह धारणा किसी के विचार में न्यायोचित नहीं है, परन्तु सभा की तैयारियों एवं क्रियाकलापों का यदि अध्ययन किया जाए तो किसी को इसमें लेशमात्र भी शंका नहीं रह जायेगी कि यह आयोजन सर्वत्र ईसाई अभिमान से ही व्याप्त था। ईसाई धर्म गौरवपूर्वक एवं निरपवाद रूप से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करेगा यह निश्चित पूर्व धारणा इसके संस्थापकों में से अनेकों की बन गई थी जिसपर उनकी उम्मीद के विपरीत स्वामी विवेकानन्द जी ने अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया।
दूसरी ओर, सभा से सम्बन्धित कुछ ऐसे भी लोग थे जो कोई धार्मिक मत से बद्ध नहीं थे जिन्हें किसी भी तरह कोई मतलब नहीं साधना था। जिन्हें धर्मसभा का व्यापक एवं यथार्थ रूप ही दिख रहा था। ऐसे लोगों के लिए तो यह सत्यान्वेषी लोगों से आपसी समझ एवं सद्भाव को बढ़ावा देने का एक अभूतपूर्व अवसर था। इनमें से एक थे अध्यक्ष बाॅनी जिन्होंने कार्य की योजना बनाई एवं उसे अत्यन्त सरलतापूर्वक सम्पन्न किया और वे कोई पादरी नहीं थे। वे एक अधिवक्ता थे जिन्होंने गिरिजाघरों के सभी प्रतिष्ठित व्यक्तियों का सभापतित्व किया।
विश्व धर्म महासभा (Parliament of the World's Religion's) के नाम से कई सभाएँ हुई है जिनमें सन् 1893 की विश्व धर्म महासभा सर्वाधिक उल्लेखनीय है जिसमें विश्व के सभी धर्मो के बीच में संवांद बनाने की कोशिश की गयी।



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