स्वामी विवेकानन्द के
व्याख्यान 6. धन्यवाद भाषण - 27 सितम्बर, 1893
विश्वधर्म महासभा एक मूर्तिमान तथ्य सिद्ध हो गई है और दयामय प्रभु ने उन लोगों की सहायता की है, तथा उनके परम निःस्वार्थ श्रम को सफलता से विभूषित किया है, जिन्होंने इसका आयोजन किया।
उन महानुभावों को मेरा धन्यवाद हैं, जिनके विशाल हृदय तथा सत्य के प्रति अनुराग ने पहले इस अद्भुत स्वप्न को देखा और फिर उसे कार्यरूप में परिणत किया। उन उदार भावों को मेरा धन्यवाद, जिनसे यह सभामंच आप्लावित होतारहा है। इस प्रबुद्ध श्रोतृमण्डली को मेरा धन्यवाद, जिसने मुझ पर अविकल कृपा रखी है और जिसने मत-मतान्तरों के मनोमालिन्य को हल्का करने का प्रयत्न करने वाले हर विचार का सत्कार किया। इस समसुरता में कुछ बेसुरे स्वर भी बीच-बीच में सुने गये हैं। उन्हें मेरा विशेष धन्यवाद, क्योंकि उन्होंने अपने स्वरवैचित्र्य से इस समरसता को और भी मधुर बना दिया है।
धार्मिक एकता की सर्वमान्य भित्ति के विषय में बहुत कुछ कहा जा चुका है। इस समय मैं इस सम्बन्ध में अपना मत आपके समक्ष नहीं रखूँगा। किन्तु यदि यहाँ कोई यह आशा कर रहा है कि यह एकता किसी एक धर्म की विजय और बाकी धर्मो के विनाश से सिद्ध होगी, तो उनसे मेरा कहना है कि भाई तुम्हारी यह आशा असम्भव है। क्या मैं यह चाहता हूँ कि ईसाई लोग हिन्दू हो जायँ? कदापि नहीं, ईश्वर भी ऐसा न करें! क्या मेरी यह इच्छा है कि हिन्दू या बौद्ध लोग ईसाई हो जाएँ ईश्वर इस इच्छा से बचाएँ।
बीज भूमि में बो दिया गया और मिट्टी, वायु तथा जल, उसके चारों ओर रख दिये गये । तो क्या वह बीज, मिट्टी हो जाता है, अथवा वायु या जल बन जाता है? नहीं, वह तो वृक्ष ही होता है, वह अपनी वृद्धि के नियम से ही बढ़ता है। वायु, जल और मिट्टी को पचाकर, उनको उद्भित पदार्थ में परिवर्तित करके एक वृक्ष हो जाता है।
ऐसा ही धर्म के सम्बन्ध में भी है। ईसाई को हिन्दू या बौद्ध नहीं होना चाहिए, और न ही हिन्दू अथवा बौद्ध को ईसाई ही। पर हाँ, प्रत्येक को चाहिए कि वह दूसरों के सारभाग को आत्मसात् करके पुष्टिलाभ करे और अपने वैशिष्ट्य की रक्षा करते हुए अपनी निजि बुद्धि के नियम के अनुसार वृद्धि को प्राप्त हो।
इस धर्म महासभा ने जगत् के समक्ष यदि कुछ प्रदर्शित किया है तो वह यह है-उसने सिद्ध कर दिया है कि शुद्धता, पवित्रता और दयाशीलता किसी सम्प्रदाय विशेष की ऐकान्तिक सम्पत्ति नहीं है एवं प्रत्येक धर्म में श्रेष्ठ एवं अतिशय उन्नतचरित्र स़्त्री-पुरूषों को जन्म दिया है। अब इन प्रत्यक्ष प्रमाणों के बावजूद भी कोई ऐसा स्वप्न देखे कि अन्यान्य सारे धर्म नष्ट हो जायेंगें और केवल उसका धर्म ही जीवित रहेगा, तो उस पर मै अपने हृदय के अंतराल से दया करता हूँ और उससे स्पष्ट बतलाए देता हूँ कि शीघ्र ही सारे प्रतिरोधों के बावाजूद प्रत्येक धर्म की पताका पर यह लिखा रहेगा- ”सहायता करों, लड़ो मत“, ”परभाव ग्रहण, न कि परभाव विनाश“, ”समन्वय और शान्ति, न कि मतभेद और कलह“।
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