स्वामी विवेकानन्द के
व्याख्यान 2. हमारे मतभेद का कारण - 15 सितम्बर, 1893
मैं आप लोगों को एक छोटी सी कहानी सुनाता हूँ। अभी जिन वाग्मी वक्ता महोदय ने व्याख्यान समाप्त किया है, उनके इस वचन को आप ने सुना है कि- आओ, हम लोग एक दूसरे को बुरा कहना बंद कर दें, और उन्हें इस बात का बड़ा खेद है कि लोगों में सदा इतना मतभेद क्यों रहता है। परन्तु मैं समझता हूँ कि जो कहानी मैं सुनाने वाला हूँ, उससे आप लोगों को इस मतभेद का कारण स्पष्ट हो जायेगा। एक कुएँ में बहुत समय से एक मेढ़क रहता था। वह वहीं पैदा हुआ था और वहीं उसका पालन-पोषण हुआ, पर फिर भी वह मेढ़क छोटा ही था। धीरे-धीरे यह मेढ़क उसी कुएँ में रहते-रहते मोटा और चिकना हो गया। अब एक दिन एक दूसरा मेढ़क, जो समुद्र में रहता था, वहाँ आया और कुएँ में गिर पड़ा। ”तुम कहाँ से आये हो?“, मैं समुद्र से आया हूँ। ”समुद्र!“ भला कितना बड़ा है वह? क्या वह इतना ही बड़ा है जितना मेरा यह कुआँ? और यह कहते हुए उसने कुएँ में एक किनारे से दूसरे किनारे तक छलाँग मारी। समुद्र वाले मेढ़क ने कहा- ”मेरे मित्र! भला, समुद्र की तुलना इस छोटे से कुँए से किस प्रकार कर सकते हो?“ तब उस कुँए वाले मेढ़क ने दूसरी छलाँग मारी और पूछा, ”तो क्या तुम्हारा समुद्र इतना बड़ा है?“ समुद्र वाले मेढ़क ने कहा, ”तुम कैसी बेवकूफी की बात कर रहे हो! क्या समुद्र की तुलना तुम्हारे कुँए से हो सकती है?“ अब तो कुएँ वाले मेढ़क ने कहा, ”जा जा! मेरे कुँए से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। संसार में इससे बड़ा और कुछ नहीं हैं! झूठा कहीं का? अरे, इसे बाहर निकाल दो।“
यही कठिनाई सदैव रही है। मैं हिन्दू हूँ। मैं अपने कुँए में बैठा यही समझता हूँ कि मेरा कुआँ ही सम्पूर्ण संसार है। ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठे हुए यही समझता है कि सारा संसार उसी के कुएँ में है। और मुसलमान भी अपने क्षुद्र कुँए में बैठा हुए उसी को सारा ब्रह्माण्ड मानता है। मैं आप अमेरिका वालों को धन्य कहता हूँ क्योंकि आप हम लोगों के इन छोटे छोटे संसारों की क्षुद्र सीमाओं को तोड़ने का महान प्रयत्न कर रहे हैं और मैं आशा करता हूँ कि भविष्य में परमात्मा आपके इस उद्योग में सहायता देकर आपका मनोरथ पूर्ण करेंगे।
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