Monday, March 16, 2020

विश्वमानव से वार्ता - 1

विश्वमानव से वार्ता  - 1
(स्वामी विवेकानन्द के ऐतिहासिक शिकागो वकृतता से भारत लौटने के 100वें वर्ष-1997 के एक जनवरी को विश्वमानव ने इस प्रथम आत्म परिचय वार्ता द्वारा अपना स्वरूप व्यक्त किया था।)

जब किसी व्यक्ति को कम उम्र में ही संसाधन, ज्ञान, जीवन के उतार-चढ़ाव के कटु अनुभव इत्यादि प्राप्त हो जाते हैं तो सत्य मार्ग पर चलने पर उसके विचार भी कम उम्र में उच्च हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति या तो निवृति मार्ग की ओर जाता है या प्रवृति मार्ग की ओर और वह इस संसार में रहते हुए भी संसार में नहीं होकर कार्य करता है। ऐसे व्यक्ति के पास जो कुछ भी ज्ञान होते हैं वह साधारण व्यक्तियों के लिए महत्व नहीं रखता परन्तु वे असाधारण ज्ञान किसी निर्माण के परमाणु बम से कम नहीं होता। निवृत्ति मार्गी इस ज्ञान का प्रयोग व्यष्टि शान्ति के लिए तथा प्रवृत्ति मार्गी व्यष्टि एवं समष्टि शान्ति के लिए करते हैं। ये प्रवृत्ति मार्गी ही पुरूषार्थी एवम् क्रान्तिकारी के रूप से समाज में प्रकट होते हैं। 
यहाँ प्रस्तुत हैं श्री विजय कुमार राय, पत्रकार खगड़िया (बिहार) द्वारा ऐसे ही एक युवा प्रवृत्तिमार्गी, कर्मयोगी एवम् क्रान्तिकारी से की गई विस्तृत भेटवार्ता जिसने स्वामी विवेकानन्द के वेदान्त के अन्तिम व्याख्या पर आधारित विश्वमन की शान्ति एवम् स्थिरता के लिए विश्व के अन्तिम शास्त्र साहित्य देश-काल एवम् विवादमुक्त कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद या विश्वमानकः शून्य श्रृंखला की घोषणा ‘‘सम्पूर्णक्रान्ति’’ के द्वारा कर रखी है। इस साहित्य में सभी विषयों को परिभाषित करने के लिए मन का सम्पूर्ण मानक, मानव प्रबन्ध तथा क्रियाकलाप, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (स्थल तथा सूक्ष्म) के प्रबन्ध तथा क्रियाकलाप और ज्ञान आधारित पूजास्थल के विश्व मानक की विशेषता की भी घोषणा की गई है।                           
वर्तमान समय में जहाँ हमारे देश के युवावर्ग सहित अधिकतम व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी करने को तैयार हो वहाँ कोई युवा इन सब विषयों से तथा अपने उम्र से भी उठकर यदि कहें कि ‘‘मुझे विश्व को एक नई दिशा देना है और मेरी नियुक्ति इसके लिए हुई हैं’’ तो इसकी गहराई में जाना एक देशभक्ति का कार्य बन जाता है। सम्पर्क कर इस युवा की गहराई एवम् जटिलता को समझने के उपरान्त जो तथ्य सामने आये उसके अनुसार विश्व के सर्वाेच्च, प्रथम तथा आखिरी पद को प्राप्त कर यह युवा वास्तविक रूप में अपने कार्य को अन्तिम रूप दे चुका है। जो व्यक्ति होते हुये भी समष्टि को समेटे हुये है, उसे व्यष्टि दुःख की चिन्ता नहीं, उसे समष्टि दुःख की चिन्ता हैं, लेकिन महामाया से बंधा हैं वह महामाया से मुक्त होने की तैयारी कर चुका है। वह सुखी नहीं लेकिन सबसे ज्यादा सुखी हैं, वह दुःखी नहीं लेकिन सबसे ज्यादा दुःखी है। वह धार्मिक नहीं लेकिन सबसे अधिक धार्मिक है। वह नीतिज्ञ नहीं लेकिन सबसे बड़ा नीतिज्ञ है। वह शक्तिशाली नहीं लेकिन सबसे अधिक शक्तिशाली है। देश-विश्वस्तर की समस्याओं और उसके निदान के साथ विश्वमन (लोकतन्त्र का मन या संयुक्तमन) की स्थायी स्थिरता विषय पर हुयी वार्ता का कुछ अंश यहाॅ प्रस्तुत की जा रही है।

प्रश्न -आज जब आपका वास्तविक स्वरूप स्पष्ट हो रहा है तो मैं यह चाहूॅगा कि सर्वप्रथम आप अपना संक्षिप्त परिचय दें।
विश्वमानव-सर्वप्रथम मैं विश्व राष्ट्र के नागरिकों को नये वर्ष 1997 विश्वमन (लोकतन्त्र का मन या संयुक्तमन) के पचासवें वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें देता हूॅ। मेरा धर्मयुक्त नाम लव कुश सिंह तथा धर्मनिरपेक्ष या सर्वधर्म समभाव नाम विश्वमानव, उम्र 29 वर्ष 2 माह, जन्म तिथि 16 अक्टूबर 1967, जन्म स्थान- बेगुसराय (बिहार), निवासी - नियामतपुर कलाॅ, पुरूषोत्तमपुर, मीरजापुर उ0प्र0 प्रमाणित शैक्षणिक योग्यता- बी0एस0सी0 (जीव विज्ञान) एवम् तकनीकी योग्यता स्नातकोत्तर डिप्लोमा (कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग एण्ड सिस्टम एनलिसिस) है। अपने जीवन के 29 वर्ष में से 22 वर्ष मैने बिहार प्रदेश में व्यतीत किये। सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर चुका हूॅ। मैंने किसी धर्मग्रन्थ का विशेष अध्ययन नहीं किया। जिस विषय को मैं समाज को भेंट कर रहा हॅू वह मुझे दृश्ययोग तथा व्यक्ति रूपी पुस्तक के अध्ययन द्वारा प्राप्त हुआ है। कुल मिलाकर मैं आप जैसा ही साधारण इन्सान हॅॅॅू।

प्रश्न -दृश्य योग से आपका क्या तात्पर्य है।
विश्वमानव-योग का अर्थ होता है जुड़ना और प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी विषय से अवश्य जुड़ता है। जब व्यक्ति मन द्वारा व्यष्टि अदृश्य विषयों से जुड़ता है तो वह अदृश्य योगी कहलाता है। तथा जब व्यक्ति अदृश्य विषय सहित समष्टि दृश्य विषयों से जुड़ता है। तो वह दृश्य योगी कहलाता है। अदृश्य योगी निवृत्ति मार्गी तथा दृश्ययोगी प्रवृत्ति मार्गी होते है। दृश्य योगी आध्यात्म विज्ञान सहित पदार्थ विज्ञान दोनों में प्रवेश करते है। फलस्वरूप अदृश्य योगी सिर्फ सूक्ष्म ब्रह्माण्ड के ज्ञानी तथा दृश्य योगी सूक्ष्म और स्थूल अर्थात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ज्ञानी होते है। धर्म ज्ञान, आध्यात्म तथा पदार्थ विज्ञान दोनांे से मुक्त होने पर ही प्राप्त होता है। धर्म ज्ञान तक दोनों योगी पहुँचते हैं परन्तु एक का रास्ता न जानते हुये सब जानना तथा दूसरे का रास्ता सब कुछ जानकर जानने जैसा है। अदृश्य योगी व्यष्टि शरीर के अदृश्य विषयों के प्रयोग से व्यष्टि को नियंत्रित एवम् रोगमुक्त करते हैं जबकि दृश्य योगी व्यष्टि शरीर के अदृश्य विषयों एवम् समष्टि शरीर के दृश्य विषयों दोनों के उपयोग से व्यष्टि एवं समष्टि को नियंत्रित एवं रोगमुक्त कर सकते है। जब भी समाज रोगग्रस्त होता है तो दृश्य योगी उसे रोगमुक्त कर सकने में सक्षम होते हें। रोगग्रस्त समाज को कभी भी अदृश्य योगी रोगमुक्त नहीं कर सकते। जब भी समाज रोगग्रस्त हुआ उसे रोग मुक्त करने का कार्य दृश्य योगी ने ही किया। यहाँ एक रहस्य और बता देते हैं अदृश्य योगी की पहचान आप आसानी से कर सकते हैं क्योंकि उन्हें योग में जाने के लिए एक विशेष वातारण एवम् स्थिति में जाना पड़ता है जबकि दृश्य योगी साधारण व्यक्ति की तरह समाज में रहकर साधारण व्यक्ति की तरह क्रियाकलाप करते हैं इसलिए इन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है और ये अपने कार्य को आसानी से पूर्ण करते हैं। उसके उपरान्त उनका रूप स्पष्ट हो जाता है और लोग उन्हें विशेष नाम दे देते हैं। जबकि ऐसा कुछ भी नहीं होता।

प्रश्न -काल और धर्म के विषय में आप कुछ बतायें ?
विश्वमानव-काल अर्थात समय। यह व्यष्टि और समष्टि पर अलग अलग या एक समान रूप से प्रभावी होता हैं जब व्यष्टि मन की शान्ति अन्तः विषयों जो सिर्फ अदृश्य विषय अर्थात जो मन द्वारा ही केवल प्रमाणित होता हैं पर केन्द्रित होती है तो उसे व्यष्टि अदृश्य काल कहते हैं। तथा जब व्यष्टि मन ही शान्ति दृश्य विषयों अर्थात वाह्य विषयों जो सार्वजनिक रूप से प्रमाणित है पर केन्द्रित होता है तो व्यष्टि दृश्य काल करते है। उसी प्रकार समष्टि अर्थात समाज का मन अदृश्य विषयों पर केन्द्रित होता है तो उसे समष्टि अदृश्य काल कहते हैं तथा जब दृश्य विषयों पर केन्द्रित होता हैं तो उसे समष्टि दृश्य काल कहते है। वर्तमान समय या काल पूर्ण रूप से समष्टि दृश्य काल में स्थित हो गया हैं। जिसको घोषणा व्यापक रूप से होनी चाहिए। व्यक्ति जब सम्पूर्ण समष्टि दृश्य काल में हो तो उसे दृश्य कर्म ज्ञान के अनुसार कर्म करने चाहिए। तभी वह ब्रह्माण्डीय विकास में अपने स्तर से एक कड़ी की भांति कार्य करेगा और उसका कार्य धर्म युक्त कार्य कहलायेगा। प्रत्येक सम्पूर्ण काल में एक कर्म या धर्मसूत्र उपलब्ध होता हैं जो व्यक्ति के उसके स्तर से ब्रह्माण्डीय विकास का सूत्र होता है यह सूत्र व्यष्टि एवम् समष्टि कर्म या धर्म सूत्र का सम्मिलित सूत्र होता है जिसे अलग-अलग व्यष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान और समष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान कहते हैं। दूसरे अर्थ में क्रमशः देश-काल बद्ध और देश-काल मुक्त सत्य-धर्म-ज्ञान कहलाते हैं। यही क्रमशः मानवीय कार्य एवम् ईश्वरीय कार्य कहलाता हैं। यही ब्रहमचर्य तथा गृहस्थ आश्रम के रूप में मानवीय धर्म तथा वानप्रस्थ एवम् सन्यास आश्रम के रूप में ईश्वरीय कार्य था। समाज में जब व्यष्टि धर्म की अधिकता होती है तब अव्यवस्था बढ़ती है और जब समष्टि धर्म की अधिकता होती है तब सामाजिक विकास अवरूद्ध हो जाता हैं। धर्मयुक्त एवं विकासशील समाज तब होता है जब अधिकतम व्यक्ति दोनों धर्मों (व्यष्टि एवं समष्टि) पर समान दृष्टि रखते हुए कार्य करते है अर्थात समष्टि धर्म ही मानव का मूल धर्म है क्योंकि व्यष्टि धर्म का तो प्रत्येक जीव अर्थात पशु-पछी भी पूर्ण रूप से पालन करते हैं। काल चाहे जो भी हो धर्म की परिभाषा और उसका अर्थ वही था। ‘धर्म, ज्ञान की वह अवस्था है। जहाँ वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपना स्वरूप समझता हैं ऐसी अवस्था में स्वार्थ अर्थात कार्य के परिणाम की इच्छा व्यक्त अवस्था में तथा मन विषयों से मुक्त होता है ऐसे सत्य-धर्म-ज्ञान को             धारण कर मानव शरीर धार्मिक मानव की अवस्था को प्राप्त होता है ऐसे अवस्था को प्राप्त कर अपने स्तर से ब्रह्माण्ड के क्रमिक विकास के लिए किया गया कार्य, निःस्वार्थ कार्य कहलाता है। धर्म का संकीर्ण दायरे में फंस जाने का कारण यह होता है कि प्रत्येक धर्मज्ञानी के उपरान्त मानव समूह ज्ञान कारण की ओर कम जन्म एवं कर्म कारण की ओर अधिक झुक जाते हैं। 

प्रश्न -आप अपने शास्त्र-साहित्य ‘‘कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद अर्थात विश्वमानकः शून्य श्रृंखला’’ के विषय में कुछ बतायेंगे।
विश्वमानव-ऋग्वेद ज्ञान आधारित है, सामवेद ज्ञान और गायन आधारित है, यजुर्वेद ज्ञान तथा प्रकृति एवम् मानव के संतुलन के लिए अदृश्य कार्य अर्थात अदृश्य यज्ञ आधारित है। अथर्ववेद ज्ञान व औषधि आधारित है। अगला वेद जब भी होगा वह ज्ञान तथा प्रकृति एवम् मानव के संतुलन के लिए दृश्य कार्य अर्थात् व्यष्टि एवम् समष्टि कर्म ज्ञान पर आधारित होगा क्योंकि इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं है। जब वेद की बात आती है तो एक ऐसे शास्त्र-साहित्य के ज्ञान का बोध होता है जो देश-काल मुक्त होता है अर्थात मनुष्य का अस्तित्व रहे या न रहे उसके सिद्धान्त हमेशा प्रभावी होते हैं। जब जब समाज भंयकर रोगों से ग्रस्त हुआ तो मानव ने ही ईश्वरस्थ होकर संजीवनी रूपी वेद से समाज को रोगमुक्त किया। वैदिक साहित्य में कर्मज्ञान तथा ज्ञान के भाग है। अदृश्य काल के अदृश्य कर्मो का प्रयोग जो मानव सहित प्रकृति के सन्तुलन को बनाये रखने में सक्षम है कि विस्तृत विधि है। जबकि वर्तमान में हमारा समाज दृश्य काल में है। इसलिए हमें मानव तथा प्रकृति के सन्तुलन स्थिरता एवम् शान्ति के लिए दृश्य कर्म का ज्ञान रखना होगा। वैदिक साहित्य का ज्ञान का भाग व्यष्टि मन की शान्ति के ज्ञान है जबकि हमारे समाज को समष्टि मन की शान्ति का ज्ञान रखना होगा। इसका जो मुख्य विषय है - ”समस्त विषयों की परिभाषित करने के लिए सम्पूर्ण मानक“, ‘‘मानव के प्रबन्ध व क्रियाकलापों का विश्व मानक’’, ‘‘सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (स्थूल एवं सूक्ष्म) के प्रबन्ध व क्रियाकलापों का विश्व मानक’’ एवं ‘‘ज्ञान आधारित पूजास्थल का विश्व मानक’’। कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद विवादमुक्त भी है तथा देश-काल मुक्त अन्तिम शास्त्र-साहित्य भी है। जिसका मूल उद्देश्य काल के अनुसार कर्म करने का ज्ञान प्रदान करना है जिससे ब्रह्माण्डीय विकास में कोई बाधा उत्पन्न न हो

प्रश्न -जब आपने इस शास्त्र-साहित्य के लिए कोई व्याख्यान नहीं दिया, प्रकाशित नहीं कराया, किसी के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया तो यह कैसे मान लिया जाये कि यह विवादमुक्त अन्तिम शास्त्र-साहित्य है।
विश्वमानव-आपका यह प्रश्न बहुत अधिक महत्व रखता हैं। यहाँ हम आपको बताना चाहेंगे कि जिस विषय के अन्त को आप समझते हैं तो उस विषय के उत्पत्ति को भी आप समझ सकते है। वैदिक साहित्य का अन्तिम ज्ञान आधारित साहित्य उपनिषद् अर्थात वेदान्त कहलाया। स्वामी विवेकानन्द जी ने इसके दर्शन के स्तर के अनुसार अन्तिम व्याख्या किये। जब आप वेदान्त अर्थात वेद के अन्त को समझ सकते है। तो वेद की उत्पत्ति को भी समझ सकते है। इसी प्रकार जब हम कर्मवेद को अन्तिम शास्त्र-साहित्य कह रहे हैं तो यह प्रथम शास्त्र-साहित्य भी होगा अर्थात इसमें वही सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त प्रयोग किये गये होगें जो वेद की उत्पत्ति के समय भी अनुभव किये गये होगें। यह विवाद मुक्त इसलिए है कि इसमें सार्वजनिक रूप से प्रमाणित सिद्धान्त, शब्द एवम् दर्शन प्रयोग किये गये हैं। क्योंकि हमारा समाज दृश्य काल में स्थित हैं। जैसे कोई व्यक्ति व्यष्टि शान्ति के विभिन्न शब्द ऊॅ, अल्ला, यीशू, वाहे गुरू इत्यादि अनेकों नामों से किसी एक का प्रयोग करता है और दूसरा व्यक्ति यह पुछे कि तुम्हें इस शब्द से शान्ति कैसे मिलती है तो वह इसे प्रमाणित नहीं कर सकता हैं क्योंकि यह उसकी व्यष्टि अनुभूति हैं जबकि कर्मवेद में प्रयुक्त व्यष्टि तथा समष्टि शान्ति के लिए एक ही शब्द सार्वजनिक रूप से प्रमाणित कर सकता है। बल्कि यह कहे कि प्रत्येक सफल व्यक्ति और सफलता प्राप्त कर रहे व्यक्ति का यही एक शब्द और दर्शन हैं। इसके विवादमुक्त होने का यह भी कारण है कि इसमें मेरा कोई भी व्यक्तिगत निर्माण या उत्पत्ति नहीं है और वेद का यह गुण भी हैं और अन्तिम इसलिए है कि अदृश्य ईश्वर नाम कई हो सकते है लेकिन दृश्य ईश्वर नाम तो सिर्फ एक ही होगा। सब कुछ मानव बोध के अन्दर ही है और सार्वजनिक रूप से प्रमाणित है। बस समाज को उससे परिचित करा देना है। वैसे भी अब तक उपलब्ध ज्ञान का शास्त्र-साहित्य अभी अधूरा है क्योंकि ”मैं ही ब्रह्म हूँ” को सिद्ध करने वाला शब्द या ईश्वर नाम ऊँ, इत्यादि उपलब्ध है जबकि ”सभी ब्रह्म हैं“ जो कि शास्त्रानुसार हैं को सिद्ध करने वाला शब्द या ईश्वर नाम अभी समाज को उपलब्ध नहीं हुआ हैं। वहीं वेदों में ज्ञान और अदृश्य कर्म ज्ञान उपलब्ध है लेकिन दृश्य कर्म ज्ञान उपलब्ध नहीं है जबकि ज्ञान हमेशा सभी कालों में स्थिर रहता है। इन सभी का उत्तर कर्मवेद में समाज को मिल जायेगा।

प्रश्न -मानक और सम्पूर्ण मानक से आपका क्या तात्पर्य हैं ?
विश्वमानव-आप भारत में खाद्य उत्पाद के लिए एगमार्क तथा अन्य उत्पादों के लिए आई0एस0आई0 (प्ैप्) मार्क से अच्छी तरह परिचित होंगे। यह क्या हैं ? यह एक विशेष उत्पाद के सर्वोच्च गुणवत्ता को प्रदर्शित करता है अर्थात उत्पाद की गुणवत्ता उसके मानक के जितनी नजदीक पायी जायेगी उसकी गुणवत्ता उतनी अच्छी होगी, इसी प्रकार जब किसी विशेष उत्पाद के अन्तर्राष्ट्रीय गुणवत्ता की बात आयेगी तो वह अन्तर्राष्ट्रीय या विश्व मानक कहा जायेगा। वर्तमान समय में विश्व व्यापार संगठन के लागू हो जाने से प्ैव् संख्या सेे भी आप परिचित होंगे। मानक हो या अन्र्तराष्ट्रीय मानक उसके निर्धारण के कुछ शर्ते होती हैं यदि वह उन शर्तों पर सही उतरता हैं तो वह उसके योग्य माना जाता हैं। इसी प्रकार व्यष्टि मन हो या समष्टि मन सभी अपने क्रियाकलापों से एक दूसरे को ज्ञानयुक्त करते हैं। ये क्रियाकलाप भिन्न-भिन्न संगठन के मिन्न-भिन्न होते हैं और सभी अपने को सर्वोच्च मानते हैं। ऐसी स्थिति में इसका निर्धारण विवादयुक्त हो जाता हैं कि कौन सी विचारधारा से मानव समाज को शिक्षित किया जाये और मानव का निर्माण किया जायें। तब हमें मानव क्रियाकलापों के मानक और अन्तर्राष्ट्रीय या विश्व मानक का आविष्कार करना पडे़गा। चूँकि मानव, प्रकृति का एक उत्पाद है इसलिए इसके देश स्तरीय मानक का प्रश्न ही नहीं उठता और यह प्रश्न इसलिए भी नहीं उठता कि व्यक्ति की समाज से निष्क्रियता अब विश्व के विकास की गति में अवरोध उत्पन्न कर रही है। ऐसी स्थिति में हमें सिर्फ ‘‘मानव क्रियाकलापों के अन्र्तराष्ट्रीय या विश्व मानक’’ को आविष्कृत करना पड़ेगा। जिसके पहले समस्त विषयों को परिभाषित करने के लिए ‘‘सम्पूर्ण मानक’’ को आविष्कृत करना पडे़गा। अर्थात ऐसे मूल एवं सार्वजनिक प्रमाणित विषय को आविष्कृत करना पडे़गा जिससे सभी विषयों को परिभाषित किया जा सके वही सम्पूर्ण मानक का विषय होगा। वर्तमान समय में औद्योगिक क्षेत्र में गुणवत्ता एवं पर्यावरण के लिए क्रमशः आई0एस0ओ0-9000 श्रृंखला एवं आई0एस0ओ0-14000 श्रृंखला की स्थापना अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर की जा रही हैं लेकिन जब तक मानव मन को अन्तर्राष्ट्रीय या विश्वमानक गुणवत्ता की श्रृंखला शून्य श्रृंखला से युक्त नहीं किया जाता ब्रह्माण्डीय विकास में बाधा उत्पन्न होती रहेगी इसलिए बाह्य विषय को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने के पहले अन्तः विषय मानव मन को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ले जाना अति आवश्यक हैं।

प्रश्न -‘‘मानव क्रियाकलापों के अन्र्तराष्ट्रीय या विश्व मानक’’ एवम् ‘‘सम्पूर्ण मानक’’ की उपयोगिता पर कुछ बतायें।
विश्वमानव-यह प्रश्न एक अति महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। वर्तमान दृश्य काल में सम्पूर्ण मानव समाज की सबसे बड़ी समस्या धर्म जैसे शब्द को विवादमुक्त, ज्ञान को विवादमुक्त, ईश्वर को विवादमुक्त बनाना है। ‘‘सम्पूर्ण मानक’’ के ज्ञान के बाद सबसे महत्वपूर्ण शब्द ‘धर्म’ तथा सभी विषयों की परिभाषा हमेशा के लिए विवादमुक्त हो जायेंगी। उसके उपरान्त आध्यात्म विज्ञान तथा पदार्थ विज्ञान आधारित पूर्वी एवं पश्चिमी देशों की संस्कृति में हमेशा के लिए एकता स्थापित हो जायेगी। आप मानव समाज में देख रहे होंगे कि कभी उपभोक्ता को जागृत करने के लिए, जन जागरण होते हैं तो कभी पर्यावरण के लिए, कभी चुनाव के लिए, कभी जीव-जन्तु कल्याण के लिए, तो कभी स्वच्छता के लिए और कभी जब कोई नयी नीति तय होती है तो वह भी विवादग्रस्त हो जाता हैं। शिक्षा नीति तय होती है तो पाठ्यक्रम के लिए दर्शन की पढ़ाई भी विवादग्रस्त हो जाती हैं। ”मानव क्रियाकलापों के अन्तर्राष्ट्रीय या विश्व मानक“ इन सभी विषयों को हमेशा के लिए विवादमुक्त कर देने में सक्षम है। साथ ही इसकी शिक्षा में पूर्ण मानव या ईश्वरस्थ मानव या जागृत मानव उत्पन्न करने की पूरी क्षमता है जिससे उसे जागृत करने की आवश्यकता ही न पड़े। इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं। मानव उस सर्वशक्तिमान ईश्वर के पद पर बैठेगा या बैठने की ओर अग्रसर है तो निश्चय ही उसे ईश्वर की कार्य प्रणाली को समझकर ही कार्य करना पडे़गा नहीं तो वह सन्तुलन नहीं बना पायेगा। यही ईश्वर की कार्य प्रणाली ही मानव क्रियाकलापों का अन्तर्राष्ट्रीय या विश्व मानक है। कुल मिलाकर सारांश में यह कहना चाहता हूँ कि दूरी, भार, द्रव इत्यादि को मापने के लिए मानक मीटर, किलो, लीटर इत्यादि तो आप लोगों ने बना लिए है परन्तु मनुष्य के मन और मस्तिष्क को मापने के लिए अभी तक कोई मानक नहीं बनाया है। ईश्वर और ईश्वर का मस्तिष्क और कुछ नहीं मानव के माप का मानक है। विश्व मानक उसी का सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त रूप है। क्या प्रत्येक मनुष्य यह नहीं चाहेगा कि वह जाने कि वह जन्म-मृत्यु-जन्म चक्र के फलस्वरूप वह ईश्वर के कितने पास तक पहुँच चुका है और क्या और करना है? जिससे वह तेजी से ईश्वर के करीब पहुँच सके।

प्रश्न -‘‘सम्पूर्ण मानक’’ और ‘‘मानव क्रियाकलापों के विश्व मानक’’ के विषय क्या है कृपया इसे बतायें।
विश्वमानव-जो विषय सम्पूर्ण मानव समाज से सम्बन्धित हैं। उसे तो सम्पूर्ण मानव समाज में एक सार्वजनिक प्रसारित व्यापकता से प्रस्तुत किया जायेगा। जो विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र अर्थात विश्वमन आधारित देश के संसद पर निर्भर है। लेकिन उस विषय की दिशा तक मैं आपको पहुँचा देता हूूूूँ। सभी विषयों के दो रूप होते हैं, सूक्ष्म एवं स्थूल। सूक्ष्म रूप अदृश्य होते है तथा स्थूल रूप दृश्य। इन दोनों रूपों से मुक्त होने पर हम मूल ज्ञान तक पहुँचते हैं। सूक्ष्म रूप से मूल ज्ञान की ओर जाने पर हम उसे स्पष्ट नहीं कर पाते हैं। लेकिन स्थूल रूप से मूल ज्ञान की ओर जाने पर हम उसे आसानी से व्यक्त एवं स्पष्ट कर सकते है। यह ज्ञान का स्थूल रूप ही ‘‘सम्पूर्ण मानक’’ का विषय है जो एक ही हैं और सार्वजनिक रूप से प्रमाणित भी है जिसे हमारे ऋषि-मुनि आविष्कृत कर ज्ञान को उत्पन्न किये थे। वैदिक साहित्य में आपको शब्द ‘‘ओउम’’ मिलेगा। इस शब्द के दर्शन से स्थूल ब्रह्माण्ड के सभी विषयों की उत्पत्ति को जोड़ दिया गया है जिससे इस शब्द के अर्थ में व्यापकता आ गई और यह शब्द ईश्वर नाम के रूप में स्थापित हो गया। और व्यष्टि शान्ति के लिए सार्वाधिक शक्तिशाली दर्शन युक्त प्रथम शब्द बन गया। जब व्यष्टिक शान्ति की बात आती है तो वह दृश्य काल के लिए सार्वजनिक प्रमाणित नहीं हो पाता ऐसी स्थिति के परिणामस्वरूप ही विभिन्न सम्प्रदायों में शब्दों की उत्पत्ति हुयी परन्तु उसके अर्थ में व्यापकता नहीं आ पाई। वर्तमान समय मंे हमारा समाज दृश्य काल में है जिसके लिए पुनः हमें एक ऐसे शब्द को आविष्कृत करना पडे़गा जो व्यष्टि एवम् समष्टि शान्ति का सार्वजनिक प्रमाणित शब्द हो, मानव प्रकृति तथा ईश्वर के क्रियाकलापों का मानक भी हो। साथ ही साथ उस शब्द का चुनाव भी कारण युक्त हो। पुनः इसी शब्द के दर्शन से विश्वमन, संयुक्तमन या लोकतन्त्र के मन के सभी तन्त्र, नीति और विश्व व्यवस्था का न्यूतनम एवं अधिकतम साझा कार्यक्रम विवादमुक्त स्वरूप को लेकर उत्पन्न हो जायेंगे। इस दृश्य काल के लिए नया ईश्वर नाम विश्व भाषा में ही होगा, नहीं तो वह विवादयुक्त हो जायेगा। जिसे आविष्कृत किया जा चुका हैं। मात्र परिचय कराना शेष है।

प्रश्न -ज्ञान आधारित पूजा स्थल ‘‘सत्य-धर्म-ज्ञान केन्द्र’’ के सम्बन्ध में बतायें।
विश्वमानव-यह एक विश्व का प्रथम ज्ञान आधारित पूजा स्थल होगा। जिसके अन्दर प्रवेश के एक-एक कदम से ज्ञान का विकास होगा तथा अन्त तक व्यक्ति पूर्ण ज्ञान से युक्त हो जायेगा। इसमें कोई मूर्ति नहीं होगी। यह पूर्णतया समष्टि धर्म या ईश्वर धर्म या समाज धर्म या विश्व धर्म या लोकतन्त्र धर्म पर आधारित होगा। जो सम्पूर्ण मानव समाज के लिए खुला होगा। जिसका आकार अपने आप में बहुत से रहस्यों को स्पष्ट करता एवं समेटता हुआ होगा। जिसे सामान्य स्तर का व्यक्ति भी समझ सकने में समर्थ होगा। इस ज्ञान आधारित ”सत्य-धर्म-ज्ञान-केन्द्र“ के प्रथम निर्माण के लिए जनपद मीरजापुर (उत्तर प्रदेश) के सबडीवीजन चुनार जो प्रकृति के सुन्दर स्थल में स्थित हैं को चुना गया है। इसके पूर्ण नक्शें एव कुछ तकनीकी प्रयोग के लिए सम्पर्क किया जा रहा है। वहीं से पूर्ण ज्ञान की व्यावहारिक शिक्षा भी दी जायेगी। 

प्रश्न -विश्वमन से आपका क्या तात्पर्य हैं।
विश्वमानव-विश्वमन को हम संयुक्तमन या लोकतन्त्र का मन या समष्टि मन कह सकते हैं तथा धारणकर्ता शरीर विश्वमानव कहलाता है। जहाँ तक दृश्य रूप में प्रत्येक व्यक्ति को विकास कर आना है। जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति का अपना सुख, दुःख, कार्य, ज्ञान इत्यादि होता है ठीक उसी प्रकार सामष्टि मन का भी अपना सुख, दुःख, कार्य, ज्ञान इत्यादि होता है जिस प्रकार व्यक्ति अपनी स्थिरता शान्ति के लिए कर्म करता है। ठीक उसी प्रकार समष्टि मन भी अपनी स्थिरता के लिए कार्य करता है। अर्थात समष्टि मन के बल के विपरीत कार्य करने वाला कोई भी संगठन अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो सकता है। इसलिए किसी भी संगठन के गठन के पूर्व काल (दृश्य या अदृश्य) बल (आध्यात्मिक, पदार्थिक एवम् प्राकृतिक) का सूक्ष्म अध्ययन अवश्य करना चाहिए नहीं तो वह संगठन विरोध का शिकार हो जायेगा। विश्वमन को इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि जो मानव आविष्कृत तन्त्र शिक्षा, अर्थ, कर, नीति इत्यादि है, ये पूर्णतः विश्वमन से संचालित एवम् परिवर्तित होते हैं इसमें व्यष्टि मन के प्रभाव को लागू करने पर वह विरोध का शिकार हो जाता हैं।

प्रश्न -वर्तमान भारत तथा विश्व के इन तन्त्रों के सम्बन्ध में आपका क्या विचार हैं।
विश्वमानव-जब कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद प्रस्तुत कर दिया जायेगा तो इन तन्त्रों का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट हो जायेगा। फिर भी प्राकृतिक बल के आंशिक प्रभाव से वे वंचित नहीं हैं।  राजनीति तो समष्टि धर्म अर्थात ईश्वर के स्थापनार्थ की जाने वाली नीति ही कहलाती है। शेष सभी तो कूटनीति ही है।

प्रश्न -इस महत्वपूर्ण ज्ञान को आप कब मानव समाज को प्रदान करेंगे।
विश्वमानव-इस शास्त्र-साहित्य के सूत्रों की प्राप्ति तो मुझे जनवरी 1994 में ही हो गयी थी लेकिन जो विषय सम्पूर्ण मानव समाज के व्यावहारिक जीवन से सम्बन्ध रखता हो उसे पुस्तकालय की पुस्तक कैसे बना दी जाये? लेकिन अब मैं हर क्षण उसे सम्पूर्ण मानव समाज को भेंट करने के लिए तैयार हँू। चंूकि यह स्वामी विवेकानन्द जी के विचार के अन्तिम व्याख्या का स्थापना का भाग है। इसलिए इसे उनके जन्मदिन 12 जनवरी को या उसके उपरान्त विश्वव्यापी वितरण कर दिया जायेगा। एक बात ओर आपको बताना चाहता हूँ कि कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद की घोषणा से समाज एक ऐसे मोड़ पर आ चुका है जिसे अस्वीकार करने का अर्थ होगा एक मान्यता प्राप्त युवा सन्यासी स्वामी विवेकानन्द जी को अस्वीकार करना, जिन्होंने मानवता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था। यहाँ एक रहस्य और बता देते हैं। राम प्राकृतिक थे अर्थात व्यष्टि थे क्योंकि वे अपना कार्य परिस्थितियों के अनुसार किये जो उनके द्वारा निर्मित नहीं थे। कृष्ण सत्य थे अर्थात समष्टि थे क्योंकि वे अपना कार्य परिस्थितियों के अनुसार अपने कार्य के लिए परिस्थितियों का निर्माण कर किये जिसके फलस्वरूप अन्त में सभी परिस्थितियाँ उन पर निर्भर करने लगी। जिसे कृष्ण चेतना के रूप में जाना जाता है। कृष्ण में राम समाहित थे। धर्म स्थापना का कार्य जब भी होता है वह कृष्ण चेतना से होता है, राम चेतना से नहीं। रामकृष्ण स्वामी विवेकानन्द जी के गुरू थे जिनके नाम पर उन्होंने 1897 में ‘‘रामकृष्ण मिशन’’ की स्थापना की। वर्तमान में 100 वर्ष बाद 1997 में ”प्राकृतिक सत्य मिशन“ की स्थापना मैं कर रहा हँू जो नये धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव नाम से सभी सर्वोच्च कार्यो का अन्तिम रूप हैं। 

प्रश्न -‘‘सम्पूर्णक्रान्ति’’ से आपका क्या तात्पर्य हैं।
विश्वमानव-सम्पूर्ण क्रान्ति से आप ये समझें कि सभी शब्द, तन्त्र, पद, ज्ञान इत्यादि जो अपने वास्तविक स्वरूप को छोड़ चुके होते हैं, वे अपने वास्तविक स्वरूप को पुनः प्राप्त हो जाते हैं। इसी को सृष्टि करना भी कहते हैं। ‘‘सम्पूर्ण क्रान्ति’’ का अधिकारी वही दृश्य योगी होता है जो सम्पूर्ण मानव समाज से मुक्त होकर ब्रह्माण्ड विकास की रूकी स्थिति को समझकर अपने ज्ञान द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को विकसित करने के लिए रास्ता उपलब्ध करा देता हैं। ऐसी स्थिति में यह कार्य पूर्णतया दृश्ययोगी के ही पुरूषार्थ पर निर्भर करता है। वह किसी विज्ञान के पकड़ से बाहर होता हैं। वह कहता है ”मैं प्रकृति को अपने वश में करके स्वंय उत्पन्न होता हँू“ साथ ही गीता के समस्त ज्ञान सहित पूर्ण ज्ञान से युक्त हो जाता है। चाहे उसे वह पढ़ा हो या न पढ़ा हो।

प्रश्न -पूर्ण ज्ञान से आपका क्या तात्पर्य हैं।
विश्वमानव-पूर्ण ज्ञान तीन दर्शन का संयुक्त ज्ञान है। प्रथम- गाइडर फिलोसोफी (मार्गदर्शक दर्शन), द्वितीय- आपरेटिंग फिलोसीफी (क्रियान्वयन दर्शन), तृतीय- डेवलपमेन्ट फिलोसोफी (विकास दर्शन), मार्गदर्शक दर्शन वेदान्त का अदृश्य अद्वैत दर्शन हैं। क्रियान्वयन दर्शन वेदान्त का अदृश्य एवं दृश्य विशिष्टाद्वैत तथा द्वैत दर्शन है। विकास दर्शन वेदान्त का दृश्य अद्वैत दर्शन हैं। मार्गदर्शक दर्शन तथा क्रियान्वयन दर्शन वर्तमान समाज में पूर्णतया प्रकृति एवम् मानव द्वारा प्रभावी हो चुकी है। विकास दर्शन स्वयं प्रकृति द्वारा आंशिक रूप से प्रभावी हो चुकी है जिसका पूर्णरूप कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद में आपको प्राप्त होगा। इसके पूर्णरूप के न होने के कारण ही विवादयुक्त वातावरण की उत्पत्ति हुयी हैं। जब भी क्रान्तियाँ हुई हंै। वे क्रियान्वयन दर्शन के पूर्ण प्रभाव और विकास दर्शन के आंशिक प्रभाव के कारण हुईं हैं। पूर्णज्ञान से युक्त मानव पूर्ण मानव या ईश्वरस्थ मानव या अपना मालिक स्वंय या स्वतंत्र कहलाता है। जो प्रत्येक विषय के उद्देश्य के ज्ञान से युक्त होता है और उपने उद्देश्य के अनुरूप उस विषय से जुड़ता है। यदि आप पूर्ण ज्ञान से युक्त नहीं हंै तो यह निश्चित समझें कि आप जिस विषय से जुड़ रहे हैं। वहाँ शोषित होने की पूर्ण संभावना है। यह पूर्णज्ञान स्थिर रहता है जो ज्ञान अग्रसारित हो वह विज्ञान है। आप जिस दर्शन से युक्त होंगे उस दर्शन के स्तर से आप ज्यादा नहीं उठ सकते। स्वामी विवेकानन्द ने वेदान्त दर्शन के तीनों स्तर की व्याख्या की थी। सर्वोच्च, प्रथम एवम् अन्तिम अद्वैत, मध्य विशिष्टाद्वैत तथा द्वैत। ये दर्शन अदृश्य काल में अदृश्य तथा दृश्य काल में दृश्य होते हैं। जिस प्रकार बिना पूर्ण ज्ञान के पूर्ण भक्ति नहीं आ सकती, उसी प्रकार बिना पूर्ण भक्ति के पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता। व्यक्ति यह समझते हैं कि भाग्य से ज्यादा कुछ नहीं मिल सकता लेकिन मैं यह कहता हूँ कि ज्ञान और उसके अनुसार कर्म से ज्यादा कुछ नहीं मिल सकता।

प्रश्न -स्वंतत्रता से आपका क्या तात्पर्य हैं।
विश्वमानव-स्व अर्थात मैं अर्थात आत्मा। स्वंतत्रता अर्थात आत्मा का तन्त्र। इसी प्रकार स्वराज अर्थात आत्मा का राज। बिना पूर्ण ज्ञान के स्वतन्त्र कोई भी नहीं हो सकता। स्वतंत्रता के तीन स्तर हैं नीचे शारीरिक, मध्य आर्थिक तथा मानसिक एवं सर्वोच्च आध्यात्मिक। ये तीनों स्तर व्यष्टि एवं समष्टि दोनों के लिए होते हैं। आध्यात्मिक स्वतंत्रता न हो तो शेष दोनों स्वंतत्रता कभी भी परतंत्रता में बदल सकती है। भारत अपने स्वतंत्रता के इतने वर्ष अवश्य पूर्ण कर रहा है। लेकिन वह आध्यात्मिक स्वतंत्रता तो दूर अभी तक शेष दोनों स्तर को भी पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर पाया। भारत यदि अपने देशवासियों को अब जबकि पूर्णज्ञान का साहित्य कर्मवेद उपलब्ध है को व्यापकता से स्थापित नहीं करता तब वह स्वतंत्रता की ओर नहीं बल्कि वह शारीरीक व आर्थिक परतंत्रता की ओर ही बढ़ता रहेगा। हमारे देश का प्राचीन भाव का मूल भी आध्यात्मिक स्वतंत्रता ही था और रहेगा भी। स्वतंत्रता के अब तक के वर्ष में भारत की ओर से विश्व को विश्वमानक शून्य श्रृंखला से बढ़कर और कोई भेंट हो भी नहीं सकता।

प्रश्न -क्या आज की शिक्षा प्रणाली व पाठ्यक्रम पूर्णमानव को उत्पन्न करने के असमर्थ हैं।
विश्वमानव-सर्वप्रथम यह आप जाने की वर्तमान शिक्षा प्रणाली अपूर्ण शिक्षा प्रणाली है तो यह कैसे पूर्ण मानव को उत्पन्न कर सकती हैं। इसके लिए एक उदाहरण लें आप हाईस्कूल एवं इण्टरमीडिएट शिक्षा का पाठ्यक्रम उठा कर देखें तो पायेंगे कि विज्ञान एवं गणित के सभी सूत्र एवं सिद्धान्त उसमें होंगे। अब यह देखें कि कितने विद्यार्थी विभिन्न कारणों से इण्टरमीडिएट तक जाते-जाते पढ़ना छोड़ देते हैं। जितने विद्यार्थी पढ़ना छोड़ देते हैं क्या उनका पाठ्यक्रम उनके व्यावहारिक जीवन के लिए उपयोगी हैं। तो पता चलता हैं कि वे तमाम तन्त्र जो जीवन के एक अंग है उसके ज्ञान से वे शून्य हैं, न ही वे विचारशील बन सके। न ही वे प्रबन्धकीय, शासकीय एवं नेतृत्व गुणों से युक्त हो सके। क्या उनकी शिक्षा के प्रति रूचि कम नहीं होगी। क्या वे कोई उद्यम कर सकेंगे। वे सिर्फ नौकरी मांगेगे। भ्रमित होंगे और नेतृत्वकर्ता के लिए सिरदर्द बनकर शोषित होंगे। विश्वमानक: शून्य श्रृंखला की स्थापना मानव का सर्वोच्च एवं मूल अधिकार भी है क्योंकि यह प्रत्येक मानव को पूर्ण मानव के रूप में विकसित करने का रास्ता हैं।

प्रश्न -दर्शनों के स्तर के विषय में कुछ और विस्तृत बतायें।
विश्वमानव-यह व्याख्या किया हुआ विषय है जिसे आप विवेकानन्द साहित्य से प्राप्त कर सकते हैं। वर्तमान पूर्ण दृश्य काल में मैं, किसी ऐसे अदृश्य काल के कार्य जो व्यक्तिगत प्रमाणित हैं उन पर बहस नहीं करना चाहता क्योंकि उसका अन्त ही नहीं हैं। सिर्फ ज्ञान ही हमेशा स्थिर रहता है वही सभी कालों में उपयोगी होता हैं। एक बात यह आपकों बतायें कि व्यक्ति यह समझते हैं कि ऐसे साहित्यों को बुढ़ापे में पढ़ना चाहिए। मैं उनसे यह कहना चाहता हॅँ कि वे बुढ़ापे में इसे न ही पढ़े क्योंकि इससे उन्हें अपने कर्मो पर पछताना आ सकता हैंै। जिससे उनकी आत्मा ग्लानी युक्त हो सकती हैं। पढ़ना हो तो युवावस्था में पढ़े जिससे वे जो भी कार्य करे वह अगर सही परिणाम न दें तो कोई गलत परिणाम भी न दें सकें। 

प्रश्न -वर्तमान भारत सहित विश्व में विवाद और अशान्ति का कारण क्या है।
विश्वमानव-सामाजिक व्यवस्था तीन आधार पर टीकी है। प्रथम- धर्म ज्ञान, द्वितीय- आध्यात्म विज्ञान एवम् तृतीय- पदार्थ विज्ञान। आध्यात्म विज्ञान के द्वारा व्यष्टि मन को सन्तुष्ट किया जाता है। पदार्थ विज्ञान के द्वारा व्यष्टि मन तथा समष्टि मन को सन्तुष्ट किया जाता है। और धर्म ज्ञान के द्वारा जब भी समाज रोगग्रस्त हो जाता है, तो उसे रोगमुक्त कर दिया जाता है। आप अपने मन को शुद्ध कर देखें तो पायेंगे कि जब-जब समाज रोगग्रस्त हुआ उसे रोग मुक्त करने के लिए कर्म व्यवस्था, जाति व्यवस्था, पूजा व्यवस्था, धर्मग्रन्थ व्यवस्था इत्यादि दी गयी चाहे ऋषि-मुनि रहे या बुद्ध या मुहम्मद या ईसा सभी ने यही किया लेकिन हमारा समाज उससे उस मूल तक नहीं पहुँचा वरन् वह उसी को पकड़ बैठा। इसे इस प्रकार समझें कि किसी भी दवा में मूलतत्व वही होकर नाम कई हो सकते हैं यदि कोई एक नाम को खोजने लगे और वह न मिले तो क्या वह रोगमुक्त हो पायेगा। या वह दवा रोगमुक्ती में असफल होने लगे तो क्या आप नये दवा का तलाश बन्द कर देगें। दूसरी प्रकार इसे ऐसे भी समझ सकते हैं। मैकेनिक जो मोटर बाईडिंग जानता है वह यह जानता हैं कि कौन सा तार कहाँ जुड़ेगा जिससे वह कार्य करना प्रारम्भ कर दें लेकिन वह उसका मूल सिद्धान्त नहीं जानता जिससे कि वह विभिन्न शक्ति के मोटर का आविष्कार कर सके। धर्म के सम्बन्ध में भी यही हो गया हैं। व्यक्ति यह तो जानता है कि पूजा, जप इत्यादि कैसे की जाती है परन्तु यह भूल गया कि उसका मूल सिद्धान्त क्या था। वर्तमान समाज को रोगमुक्त करने के लिए जो दवा उपलब्ध हैं। वे सभी अदृश्य काल के हैं। अब दृश्य काल के लिए नई दवा चाहिए। ऐसी स्थिति में जब शक्ति की इकाई परमाणु बम बन गयी हैं साथ ही अभी भुखमरी का भी उन्मुलन न हो सका और रोगग्रस्त समाज में नई दवा नहीं आ पायी तो इसका स्पष्ट अर्थ निकलता है कि वर्तमान समाज धर्मज्ञान के पूर्ण अभाव में हैं और पद पर होते हुए कार्य एवं समर्थन से मुक्त हैं। धर्म स्थापना का कार्य एक ही सूत्र से होता हैं। वह यह कि समष्टि मन जिस अवस्था तक पहुँच गया हैं वहाँ से उसका केन्द्रियकरण। अदृश्य (व्यक्तिगत प्रमाणित) काल में यह अदृश्य ईश्वर नाम के दर्शन द्वारा तथा दृश्य (सार्वजनिक प्रमाणित) काल में यह दृश्य ईश्वर नाम के दर्शन द्वारा होता हैं। यही ईश्वर के स्थिरता का रहस्य भी हैं, केन्द्रियकरण का अर्थ मन को उसकी प्रकृति में स्थापित करना होता हैं स्थापना का माध्यम चक्रीयरूप से देश सम्बन्ध (दूरस्थ सम्बन्ध), रिश्ता सम्बन्ध (मध्यस्थ सम्बन्ध) तथा रक्त सम्बन्ध (निकटस्थ सम्बन्ध) में विवाद होता है, ऐसा कर्मो से विमुक्त होने के कारण होता है तथा शैली कभी भी एक समान नहीं होती। संक्षिप्त रूप से विचार एवं साहित्य, विषय एवं विशेषज्ञ, ब्रह्माण्ड प्रबन्ध और क्रियाकलाप, मानव प्रबन्ध और क्रियाकलाप एवं पूजास्थल के विश्व मानक (विश्व मानक: शून्य श्रृंखला अर्थात कर्मवेद) का अभाव है जो अब उपलब्ध हो चुका है। यह विश्व मानक: शून्य श्रृंखला उसी एक का धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव नाम तथा कर्मवेद उसी का धर्मयुक्त नाम है। भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष या सर्वधर्मसमभाव है तो वह इसे विश्व मानक: शून्य श्रृंखला के रूप मे स्थापित करें।

प्रश्न -नई दवा या नई व्यवस्था कैसी होनी चाहिए?
विश्वमानव-मानव को अपने मालिक स्वयं के रूप में निर्माण करना पडे़गा। ताकि वह प्रत्येक विषय के उद्देश्य को समझ सके। वे प्रबन्धकीय, शासकीय, नेतृत्व, निर्णयक्षमता, नैतिकता से युक्त हो। यदि ऐसा नहीं करते तो इससे ईश्वर, ज्ञान, ब्रह्म, अल्ला, यीशु का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता हैं क्योंकि वे ज्ञान युक्त नहीं होंगे तो उन्हें कार्य में सफलता नहीं मिलेगी परिणामस्वरूप उनका विश्वास ईश्वर से उठेगा। क्योंकि वर्तमान में ईश्वर के समक्ष अपने आवश्यकताओं के आवेदन के साथ ही उपासना होने लगी है। और न ही स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ समाज तथा स्वस्थ उद्योग की प्राप्ति ही कभी सम्भव होगी।

प्रश्न -बहुत से संगठन और व्यक्ति यह भविष्यवाणी करते हैं कि अब सृष्टि का अन्त होने वाला है। इस सम्बनध में आपक क्या विचार है।
विश्वमानव-वे वर्तमान स्थिति को देख कर कहते हैं। वे धर्म की शक्ति को नहीं जानते। फिर भी हम आपको बताते हैं कि जब दो अज्ञानी युद्ध करते हैं तो एक ज्ञानी बीच में आकर शान्ति एवं एकता का मार्ग निकाल देता हैं। लेकिन जब दो ज्ञानी लड़ते हैं तो वहाँ शान्ति एवं एकता का प्रश्न ही नहीं उठता। वर्तमान स्थिति जो बना है वह अज्ञानता के वजह से हुयी हैं। उदाहरण स्वरूप महाभारत का युद्ध ज्ञानीयों के बीच हुई थी न कि अज्ञानियों के बीच। क्योंकि दोनों पक्ष में ज्ञानीयों की कोई कमी नहीं थी लेकिन एक का धर्म व्यष्टि था दूसरे का धर्म समष्टि था और धर्म युद्ध में समष्टि धर्म की जीत हमेशा सुनिश्चित होती हैं। प्रत्येक मानव का धर्म होता है, धर्म ही उद्देश्य है और उसको जानने वाला ही ईश्वरस्थ होता है। ईश्वर ने स्वयं को व्यक्त करने के लिए मनुष्य को उत्पन्न किया, जब तक वह उसमें पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं हो जाता, तब तक सृष्टि के अन्त का विचार ही नहीं आना चाहिए। हाँ इस रूप में सृष्टि के अन्त को आप मान सकते है कि जब काल परिवर्तन की घोषणा हो तब अर्थात एक अदृश्य काल युग के अन्त को माना जा सकता है।

प्रश्न -वर्तमान समाज की स्थिति का चित्रण करें।
विश्वमानव-वर्तमान समाज की स्थिति को एक उदाहरण से समझें। माना एक विकास खम्भा है। उस पर सभी लोग चढ़ रहे हैं। जहाँ खम्भे का अन्त होता हैं वहाँ तक लोग पहुँच गये अब क्या होगा? एक दूसरे के पैर को खींचना ही तो हमारा कार्य होगा। यही हो रहा है। दूसरे रूप से इसे इस प्रकार सकझें जब मानव ज्ञान विकास पथ पर अग्रसर हुआ तो वह सर्वप्रथम ज्ञान को आविष्कृत किया। फिर वह अदृश्य कर्म की ओर अग्रसर हुआ और पुनः उल्टे क्रम से पहले दृश्य कर्म की ओर अग्रसर होकर उसी ज्ञान की ओर बढ़ रहा हैं जबकि ज्ञान युक्त होकर कर्म करना उचित है न कि कर्म के बाद ज्ञान।

प्रश्न -कर्मवेद का अन्य सम्प्रदायों पर क्या प्रभाव पडे़गा?
विश्वमानव-सर्वप्रथम आप यह जाने कि वेद किसी भी मानव अविष्कृत सम्प्रदाय का नहीं। वह मूलतः प्रकृति अविष्कृत मानव सम्प्रदाय का है। इसलिए उसके ज्ञान मानव एवं प्रकृति की स्थिरता के लिए होते है, आप यह जानें कि विभिन्न सम्प्रदाय के जो कर्म हैं वे अदृश्य काल के व्यष्टि शान्ति के लिए हंै, समष्टि शान्ति के लिए नहीं हैं, न ही उससे यह सम्भव हैं। यदि सम्भव भी होगा तो वह भंयकर हिंसात्मक होगा। कर्मवेद किसी भी सम्प्रदाय को उसके व्यष्टि शान्ति के कार्यो में हस्तक्षेप नहीं करता बल्कि उसे स्वीकार करता है साथ ही सम्पूर्ण मानव समाज के विकास के उस खम्भे में एक ऐसा खम्भा जोड़ देता हैं। जो अनन्तकाल तक बढ़ते रहने के लिए खुला रहेगा। क्योंकि मानव को अभी ब्रह्माण्ड के अन्दर बहुत से कार्य सम्पादित करने हैं। यही नया खम्भा समष्टि धर्म अर्थात समाज धर्म अर्थात संयुक्तमन का धर्म अर्थात ईश्वर धर्म अर्थात विश्वमन का धर्म हैं। वर्तमान समय में सभी सम्प्रदाय दृश्य काल में है। ऐसे में तो सभी को दृश्य कर्म के ज्ञान की आवश्यकता है।

प्रश्न -कर्मवेद का व्यक्ति एवं संगठन पर क्या प्रभाव पडे़गा?
विश्वमानव-कर्मवेद के प्रस्तुत कर दिये जाने पर व्यक्ति से लेकर विश्व तक का विकास एक ही दिशा विश्व विकास की दिशा में हो जायेगा। जिस प्रकार यदि एक जंजीर को विकास की दिशा में बढ़ाना हो तो उसके प्रत्येेक कड़ी को उसी दिशा में बढ़ाना होगा। नहीं तो वह तनाव के कारण टूट जाएगा। मानव क्रियाकलापों के मानक से व्यक्ति, परिवार, ग्राम, मोहल्ला, विकास खण्ड, अनुमण्डल, जिला, प्रदेश, देश, विश्व एवं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को संतुलित एवं पूर्ण कार्यक्रम निर्धारित करने के लिए सूत्र प्राप्त हो जायेगा। साथ ही आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक संस्थायें भी संतुलित एवं पूर्ण कार्यक्रम को अपनी सफलता के लिए संचालित करने लगेगी। मैं तो यहाँ तक कहता हॅँू कि जो भी स्वयं, व्यक्ति या किसी भी स्तर का संयुक्त मन अपने को विकास की ओर अग्रसर करना चाहता हो, वे यथाशीघ्र ही इसे स्वीकार करें। व्यक्ति या संगठन जो इसके प्रति उदासीन या नकारात्मक रास्ता अपनायेंगे उससे उनके अस्तित्व एवं साख का ही नुकसान होगा क्योंकि सत्य से जोड़ने से ही उनका अस्तित्व बच सकता हैं, दूर भागने से नहीं। और जो जुड़ने में जितनी शीघ्रता करेगा वह उतना ही जल्द अपने को सत्य के प्रकाश में ला सकेगा एवं अपने जीवन को सार्थक कर सकेगा क्योंकि ”कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद“ तथा सम्बन्धित ‘‘कर्मोंपनिषद् (व्यष्टि एवं समष्टि)’’ व ‘‘कर्मसूत्रसाहित्य’’ पूर्ण किया जा चुका हैं।

प्रश्न -भारत के भविष्य और राजनीति पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा?
विश्वमानव-राजनीति पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ेगा क्योंकि जब संयुक्तमन के सभी तन्त्र विवादमुक्त हो जायेंगे तो राजनीति में भाग लेने वाले हमारे नेतृत्वकर्ता सीधे व्यक्ति और समाज से जुड़ने लगेगंे। व्यक्ति का अपना चरित्र और कार्यकुशलता ही महत्वपूर्ण मुद्दा बन जायेगी। भारत के भविष्य पर भी इसका व्यापक अनुकुल प्रभाव पड़ेगा। कर्मवेद पर आधारित इसके विश्वव्यापी स्थापना के लिए दो रास्ते है प्रथम भारत के एक राजनीतिक पार्टी का सूक्ष्म दृश्टि से अध्ययन कर उसे ‘‘विश्व राजनीतिक पार्टी संघ’’ की स्थापना का दायित्व सौंपा जायेगा। जो राजनीतिक ज्वार-भाटा ला सकता है। क्योंकि कोई एक राजनितिक पार्टी देश के लिए सर्वोच्च बन जायेगी। दूसरा रास्ता यह है कि भारतीय सरकार या संयुक्त रूप से पार्टियाँ स्वंय स्वेच्छा से इसे स्थापित करे तथा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विश्वव्यापी स्थापना के लिए प्रयत्न करे जो सभी राजनीतिक पार्टियों को यथावत बनाये रख सकने का रास्ता होगा। यहाँ हम आपको यह बता दें कि भारत के खेलों में पदक जीतने या विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता आयोजित करने से विश्व में अपना स्थान नहीं बना पायेगा क्योंकि ये बार-बार आयोजित होते हैं। जो दूसरे देशों के पक्ष में भी जाते है। भारत को विश्व में स्थायी स्थान दिलाने के लिए विश्व मानक: शून्य श्रृंखला अर्थात कर्मवेद के सिद्धान्त ही हैं जो उसे स्थायी तौर पर विश्व गुरू बना देगा। 

प्रश्न -क्या आप बतायेगे कि भारत की वह कौन सी राजनितिक पार्टी होगी जो विश्व राजनितिक पार्टी संघ की स्थापना करेगी ?
विश्वमानव-पहले हम आपको यह बता दें कि यह मेरे द्वारा गठित या समर्थित कोई पार्टी नहीं होगी। अगर आप सभी पार्टी के मुद्दों को उठाकर देखें तो सभी में कुछ प्रकृति के पक्ष में हैं कुछ विपरीत हैं। ऐसी स्थिति में सभी राजनितिक पार्टी सही है। रहा मेरे जुड़ने का तो मैं उनके साथ हूँ, जो अब अपने प्रमाणित कर्मो द्वारा यह सिद्ध करेगा कि वे मानवता के प्रति अधिक चिन्तित है, देश के प्रति, विश्व के प्रति अधिक चिन्तित है। और कर्मो द्वारा ही मुझसे जुड़ने का प्रयत्न करेगा। वैसे भी मैं स्पष्ट कह देना चाहता हूँ, मैं जहां हूँ, वह ही मेरे लिए उचित स्थान है मैं सिर्फ विश्व मानक: शून्य श्रृंखला अर्थात कर्मवेद को प्रस्तुत करने तक ही विशेष हो सकता हूँं। उसके बाद साधारण ही रहना चाहता हूँ।

प्रश्न -संयुक्त राष्ट्र संघ पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा ?
विश्वमानव-आप यह जाने कि संयुक्त राष्ट्र संघ इस विषय का व्यापक स्वागत करेगी क्योंकि वहाॅँ अधिक निष्पक्षता है। और वह देशों के बीच एकता, शान्ति एवं स्थिरता के लिए गठित भी है। मूलतः विश्व मानक: शून्य श्रृंखला की स्थापना तो उसका ही कार्य हैं और प्रस्तुत करने का दायित्व तो भारत का ही है और यह अन्तिम रास्ता भी हैं। साथ ही यह भी निश्चित है कि संयुक्त राष्ट्र संघ भविष्य में पूर्ण लोकतन्त्र में स्थापित होकर विश्व राष्ट्र के रूप में परिवर्तित हो जायेगा, जिससे देशों के बीच सीमा विवाद जैसी असुलझने योग्य मुद्दें भी सुलझ जायेंगे। ये बात भविष्य की है इसलिए आपको इन पर विश्वास नहीं भी हो सकता है लेकिन यही सत्य है कि प्रकृति एक है। उसको वह प्राप्त करेगा ही।

प्रश्न -आप इतने महत्वपूर्ण ज्ञान को रखकर भी स्वतन्त्र एवम् निडर विचरण करते हैं। क्या आपको किसी अनहोनी से डर नहीं लगता ?
विश्वमानव-जिसे आप डर कहते है वह कार्य के पहले लगता है। कार्य के बाद नहीं। मैं व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य पूर्ण कर चुका हूँ। मैं कहता हूँ- मनुष्य अपनी मौत को छोड़कर शेष सभी परिस्थितियों का उत्पत्तिकत्र्ता, भोगकत्र्ता एवम् नियंत्रण कत्र्ता है। इसके अनुसार मैं सिर्फ प्राकृतिक मौत को स्वीकार कर इस शास्त्र-साहित्य को अपने कम्प्यूटर प्रोफेशनल साथियों के द्वारा प्रत्येक राज्यों में निर्देशित शर्तो पर कम्प्यूटर डिस्क में सुरक्षित कर दिया हूँ ताकि मैं रहूँ या न रहूँ यह ज्ञान सुरक्षित और वितरित होते रहें। बस उसी तरह जिस तरह आतंक फैलाने के लिए लोग विनाशक बम लगाते है। हमने निर्माण के लिए ज्ञान बम लगाया है। सिर्फ इसकी व्यापकता के लिए माननीय राष्ट्रपति महोदय को मंैने पत्र के द्वारा सूचना दिया है। देखना है कि वर्तमान वातावरण में सुरक्षा का मापदण्ड क्या है? स्वतन्त्र इसलिए रहता हूँ कि मुझे इस रूप में जानता ही कौन है। और आपको यह जानना चाहिए कि दूसरे वही देखते है जो हमारे कर्म दिखाते है ऐसी स्थिति में समाज में रहना कोई कठिन कार्य नहीं है। हमारा उद्देश्य समाज जहाँ रूका है उसको आगे बढ़ाना है, जो एक सही धर्मयुक्त कार्य है। क्रान्ति करने वाला प्रत्येक व्यक्ति कर्म को प्रधानता देता है। जीवन को नहीं। क्रान्तिकारी के जीवन को वे प्राथमिकता दे जिनके सपनों को भी वे साकार कर रहा है। हमारा लक्ष्य ‘‘सम्पूर्ण क्रान्ति’’ हैं और कार्य के अनुसार ज्ञान भी व्यक्ति को प्राप्त होता है। तभी उसका संकल्प पूर्ण होता है। साथ ही यदि किसी एक व्यक्ति को आगे आने से समस्त मानव समाज का कल्याण जो कि निर्माण के रास्ते से होता हो तो मैं नहीं समझता कि वह अनुचित है। यह कार्य देश के प्रेम, एकता एवं शक्ति का परिचायक भी है। अभी तक मैंने विश्व मानक: शून्य श्रृंखला अर्थात कर्मवेद की दिशा को ही प्रदर्शित किया है। जो विश्व के ज्ञानी जन के समर्थन के उपरान्त ही प्रस्तुत किया जायेगा। क्योंकि मैं नहीं चाहता कि समाज का किसी भी प्रकार से हानि हो। वर्तमान समय में प्राकृतिक बल इतना प्रभावी हो गया है कि यह स्वतः ही स्थापित होगा और लाभ वे ही प्राप्त कर पायेगें जो इस सर्वोच्च कार्य से स्वयं को जोड़ लेगें।

प्रश्न -नयी पीढ़ी और युवा वर्ग के लिए आप क्या संदेश देंगे ?
विश्वमानव-यह कार्य नई पीढ़ी को पूर्ण मानव के रूप में विकसित करने का बीज है अर्थात स्वस्थ समाज का बीज हैं और युवा वर्ग से मात्र यही कहना है कि वे अपने जीवन को लाटरी की भाँति कभी यहाँ कभी वहाँ न लगायें बल्कि इस ज्ञान के प्रस्तुतीकरण के उपरान्त यदि कुछ महीने इस पर चिंतन कर लें तो उनका पूरा जीवन सुख पूर्वक, व्यवस्थित एवं सार्थक हो जाये। क्योंकि सभी मानव, धर्म में ही स्थित है लेकिन उसके ज्ञान की आवश्यकता मात्र एक ही कारण से होती है, वह यह कि धर्म ज्ञानी अपने प्रत्येक कार्यो को लगातार समष्टि की ओर ले जाता है। जिससे उसका परिणाम स्वयं एवं समाज के लिए अच्छा होता है। जबकि धर्म अज्ञानी इसके विपरित। यह नई पीढ़ी के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है क्योंकि अब उन्हें पूर्ण ज्ञान के लिए अनेको शास्त्र-साहित्य को पढ़ने की आवष्यकता नहीं रहेगी। उनसे मैं यह कहना भी चाहूँगा कि अपने शैक्षणिक साहित्य के साथ ही इसे एक बार अपने जीवन के लिए अवश्य पढ़े और समझें।

प्रश्न -आप कार्यक्रम के विषय में कुछ बतायेंगे जो आप चाहते हैं?
विश्वमानव-हाँ, यह कार्यक्रम कश्मीर से कन्याकुमारी तक के भारत का वर्णन नहीं होगा। यह कार्यक्रम किसी समस्याओं को उठाने का कार्यक्रम नहीं होगा। यह कार्यक्रम किसी ग्रन्थ पर आधारित प्रवचन का कार्यक्रम नहीं होगा। यह कार्यक्रम उन तमाम समस्याओं की दवा प्रस्तुत करने का कार्यक्रम होगा जिससे वर्तमान समाज पूर्णतया रोगग्रस्त हो चुका है। यह ‘‘सम्पूर्ण क्रान्ति’’ का कार्यक्रम विश्व का प्रथम तथा अन्तिम होगा। यह कार्यक्रम उस ज्ञान के लिए होगा जिससे व्यक्ति सहित विश्व अपने जीवन को नियंत्रित कर विकास के पथ पर अनवरत चलाता रहे। यह कार्यक्रम पृथ्वी सहित ब्रह्माण्ड के विकास के लिए होगा। यह कार्यक्रम उस धर्मशब्द के ज्ञान से पूर्णतया ज्ञान युक्त कर मुक्त करने के लिए होगा। जिसे मैं ही ब्रह्माण्डीय विकास के लिए उत्पन्न किया था। यह मैं का विषय क्या हैं? जानने के लिए  कार्यक्रम के आयोजन की प्रतीक्षा करें। कलम, कागज, रेकार्डिग मीडिया तैयार रखें। यह वह ज्ञान होगा जिससे इस विकास क्रम के निचले उपेक्षित दीन-हिन दुःखीयों को भी यह मनुष्य जीवन सुखमय लगने लगे।
आज के 100 वर्ष पूर्व विचार के अन्तिम एवं सर्वोच्च स्तर को व्यक्त एवं विश्वमन (समष्टि मन) की शान्ति एवं स्थिरता के लिए सूत्र प्रस्तुत करते हुये स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था कि - 
‘‘हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाएं और अनूठे आश्चर्य जनक मनोविज्ञान से ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्क वालों को सन्तुष्ट कर सकें- इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गूढ़ सिद्धान्त में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवनदायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है। अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से जीवन प्रकृत चरित्रों के उदाहरण समूह निकालने हैं, और बुद्धि को भ्रम में डालने वाली योग विद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है, और इन सबको एक ऐसे रूप में लाना पडे़गा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके।’’ और अब मैं यह कहना चाहता हूँ कि ‘‘यह कार्य जो वर्तमान में पूर्ण हुआ, आज के 100 वर्ष पूर्व भी हो सकता था लेकिन उस वक्त इसकी स्थापना नहीं हो सकती थी क्यांेकि विश्वमन लोकतन्त्र का मन है, जिसका उस वक्त अभाव था। जबकि वर्तमान समय में भारत सहित विश्व को इसकी आवश्यकता है। यह अद्वैत ही धर्म है, धर्म निरपेक्ष है, सर्वधर्म समभाव है, वेदान्त तथा मानव का सर्वोच्च दर्शन है। जहाँ से मानव विशिष्टाद्वैत, द्वैत एवं वर्तमान में मानसिक गुलामी में गिरा है। परन्तु पुनः मानव इसी के उल्टे क्रम से उठकर मानव अद्वैत में स्थापित हो जायेगा, तब वह धर्म में स्थापित एवं विश्वमन से युक्त होकर पूर्ण मानव (ईश्वरस्थ मानव) को उत्पन्न करेगा।’’

प्रश्न -कार्यक्रम के सम्बन्ध में ऐसी घोषणा से क्या अहंकार और स्वंयभू ईश्वर जैसी बात स्पष्ट नही होती ?
विश्वमानव-इसका निर्णय मेरे स्पष्टीकरण के उपरान्त आप लोगों को ही करना है। आप समाज की स्थिति देख रहे हंै। ऐसे में कहीं से कोई भी रास्ता उपलब्ध कराने एवम् भूल सुधार का हल भी नहीं आ रहा है। मैं थोड़ा प्रयत्न कर यह प्रथम एवं अन्तिम रास्ता उपलब्ध करा रहा हूँ। इस कारण आप मुझे ज्ञानी कहेंगे। और प्रत्येक ज्ञानी की श्रृद्धा उसके सत्य-धर्म-ज्ञान पर होता है। जिसका ज्ञान जितना व्यावहारिक होता है अर्थात स्थापनार्थ उपयोगी होता है वह उतना दृढ़ भी होता है। मैं अपने कार्यो की मात्र सूचना ही प्रेषित करता हूँ क्योंकि मानक एक दर्पण होता है जिसमें सभी, जिसमें मैं भी शामिल हूँ अपनी छवि देख सकते हैं। अब मुझे कोई किसी शर्त पर ही सहयोग करने को बाध्य करे या उम्र में कम होने के कारण साथ ने दे तो क्या मैं ज्ञान का प्रसार न करूँ, और दूसरों में ऐसी भावना आती है तो अहंकारी कौन होगा। मैं समष्टि धर्म अर्थात मानव एवम् प्रकृति के कल्याणार्थ दृढ़ और कोई मुझे व्यक्ति धर्म से जोड़े जो जुड़ा ही हैं, मेरे नाम से जुड़ा ही हैं तो मैं क्या करूँ अब यदि कोई मेरे नाम मानव अविष्कृत धर्म, जाति, रहन-सहन इत्यादि से देखता हो तो मैं क्या करूँ ? इस कारण से अगर कोई मुझसे न जुड़े तो अहंकारी कौन होगा ? रहा स्वयंभू ईश्वर की बात तो वे अदृश्य ही हैं। मैं तो मानव हूँ और जब मानव, विश्वमन अर्थात् मानव एवम् प्रकृति के प्रति निष्पक्ष एवं निःस्वार्थ भाव से कल्याण के लिए कार्य करता है तब वह विश्वमन से युक्त विश्वमानव कहलाता है। मैंने अदृश्य काल से दृश्य काल के परिवर्तन की घोषणा की है तो कैसे मैं स्वयं को अदृश्य काल में ले जाकर अदृश्य ईश्वर की घोषणा इस शरीर के लिए करूँगा। मैं विश्वमानव की घोषणा किया हूँ जो मेरे कार्याे द्वारा प्रमाणित भी है मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि मेरे जीवन का वह व्यक्ति मेरे लिए सर्वोच्च होगा जो यह बता दे कि मैं किस प्रकार अपने नाम व मानव अविष्कृत धर्म, जाति से मुक्त हो जाऊँ? जिससे मेरा परिचय केवल मानव के रूप में ही हो। यही मेरा मूल उद्देश्य है। अगर किसी और का मूल उद्देश्य यह न हो तो अहंकारी कौन होगा ? यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देते है धर्म प्रचार के लिए किसी विशेष पहनावा की आवश्यकता पड़ सकती है। यह कार्य धर्म प्रचार नही, धर्म स्थापना का है जिसे कोई भी समाज में प्रवृत्त व्यक्ति ही करता है। और करता रहेगा और इस कार्य के लिए किसी विशेष पहनावे की आवश्यकता न पड़ी है न पड़ेगी।
अन्त में एक बार फिर कहेंगे हम आपके जैसे हैं बस थोड़ा निःस्वार्थ और निष्पक्ष हैं। और हमारा उद्देश्य रूके सृष्टि को आगे बढ़ाना है। साथ ही सम्पूर्ण मानव समाज से यह कहना चाहूँगा कि वे अपने वेद, वेदान्त, शास्त्र, पुराण, अन्य धर्म पुस्तक इत्यादि को देखे यह कार्य उसके अनुरूप ही है और अन्तिम मार्ग भी है। जिसका समर्थन, सहयोग और स्थापना ही धर्म है। इस आत्मा का आप सभी को सप्रेम नमस्कार।


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