Monday, March 16, 2020

सत्य-अर्थ

सत्य-अर्थ 


(1) सम्बन्ध का सत्य आधार
(2) सिर्फ ज्ञानी होना कालानुसार अयोग्यता ही नही सृष्टि में बाधक भी
(3) सफलता की सरल और कालानुसार विधि
(4) ध्यान अभ्यास की कालानुसार विधि
(5) निर्माण के मार्ग और पूर्वी तथा पश्चिमी देशांे के स्वभाव
(6) मैं भविष्य या तू भूत? और वर्तमान का सत्य अर्थ
(7) आस्था या मूर्खता ? और आस्था का सत्य अर्थ
(8) ”निर्माण और उत्पादन“ भावना की उपयोगिता
(9) भारत और सयंुक्त राष्ट्र संघ को आह्वान
(10) ईश्वर, देवता और विज्ञान
(11) विद्रोही या सार्वजनिक प्रमाणित कृष्णकला समाहित विश्वमानव कला
(12) पहले संविधान या मनुष्य?
(13) नया, पुराना और वर्तमान
(14) मुझे (आत्मा) को प्राप्त करने का मार्ग
(15) प्राथमिकता किसकी- चरित्र की या सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त की?
(16) व्यक्त होने का कारण और व्यक्त होने में कष्ट
(17) कालजयी, जीवन और व्यर्थ साहित्य
(18) भाग्य और कर्म
(19) अवतार, महापुरूष और साधारण मानव
(20) मनुष्य जीवन के प्रकार
(21) गुरू के प्रकार

(1) सम्बन्ध का सत्य आधार
”मैं जब भी आता हूँ, व्यक्ति मुझे पूर्व के नियमों और सांसारिकता में बँाधना चाहते हैं परन्तु मैं उन नियमों में बँधने जैसा दिखते हुये भी उससे सदा मुक्त रहता हँूू। नियम सांसारिक मनुष्य के लिए होते हैं। मेरा नियम सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त है। मैं स्वयं इसको व्यक्त कर इसी के अनुसार ही संचालित होता हूँ। मेरे सम्बन्धों का आधार सांसारिक सम्बन्ध रक्त और रिश्ता पर आधारित नहीं होता। मेरे सम्बन्धों का आधार नाम, रूप, गुण, कर्म, ज्ञान, काल, ध्यान, भाव और मेरा शास्त्र होता है। सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त ही मेरा शास्त्र है। यही मेरी विधि है। इसी से मैं योगमाया और भोगमाया का संचालन करता हँू। इसी से मैं अपने पूर्व के सम्बन्धियों को वर्तमान में पहचान करता हँू। इसी के अनुसार मैं सदा से व्यक्त और अव्यक्त होता रहा हूँ“

(2) सिर्फ ज्ञानी होना कालानुसार अयोग्यता ही नही सृष्टि में बाधक भी
”ज्ञानी अर्थात समभाव अर्थात् सभी को उसी एक के रूप में देखना अर्थात् तू भी वही मैं भी वही अर्थात् व्यक्त और अव्यक्त एक समान अर्थात असमानता के पहचान से मुक्त अर्थात नीति मुक्त अर्थात शासकीय गुण से मुक्त अर्थात सत्य से युक्त और सिद्धान्त से मुक्त अर्थात् काल से मुक्त अर्थात परिणाम ज्ञान से मुक्त अर्थात अपने स्तर पर ही यथावत रहते हुये कर्मशील अवस्था। यह अवस्था वर्तमान दृश्य काल के लिए कालानुसार नहीं है अर्थात् अयोग्य भी है और बाधक भी। वर्तमान दृश्य काल की अवस्था ध्यान अर्थात ज्ञान का समय के साथ योग अर्थात् सभी को समभाव देखते हुये भी असमान देखना अर्थात् व्यक्त और अव्यक्त असमान अर्थात नीतियुक्त अर्थात शासकीय गुण से युक्त अर्थात सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त से युक्त अर्थात् काल से युक्त अर्थात परिणाम ज्ञान से युक्त समभाव के साथ अपने स्तर से उच्चतम की ओर गति करते हुये अन्य को भी उच्चतम की ओर ले जाने की अवस्था है। व्यक्ति से विश्व स्तर तक के ज्ञान से समय को जोड़कर जो जितने विस्तार के कर्मक्षेत्र में स्वयं को व्यक्त कर सकता है। वह उतना ही व्यापक ध्यानी होगा। क्योंकि तभी उसका ज्ञान प्रमाणिकता को व्यक्त होगा। अर्थात ज्ञान ही ज्ञान नहीं, ध्यान ही ज्ञान है। ज्ञान हृदय को अच्छी लगने वाली सत्य-वाणी है तो ध्यान जीवन को संचालित करने वाला व्यावहारिक सिद्धान्त है। ध्यानी, ज्ञानी को सिर्फ उतनी ही सूचना देते हैं जो कालानुसार होती है। क्योंकि ज्ञानी बिना परिणाम ज्ञान सोचे ही व्यक्त कर देते हंै। ध्यानी परिणाम के पूर्व जोड़ना चाहते है। परन्तु ज्ञानी परिणाम के बाद जुड़ना चाहते हैं। जबकि परिणाम के बाद जुड़ने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती क्योंकि कार्य सम्पन्न हो जाता है। इसलिए ज्ञानी सृष्टि में बाधक भी होते हैं। ध्यानी योजनाबद्ध कार्य करते हैं जिससे परिणाम उनके अधीन होता है। जबकि ज्ञानी योजनामुक्त कार्य करते हैं। इसलिए परिणाम अन्य के अधीन होता है। पुराणों में ज्ञानी के प्रक्षेपण ब्रह्मा तथा ध्यानी के प्रक्षेपण शिव-शंकर है।“

(3) सफलता की सरल और कालानुसार विधि
”स्वयं को विलीन अर्थात स्व या अहंकार को भुलाकर अपने रुचि के विषय क्षेत्र की वैश्विक स्थिति के अनुसार किसी भी प्रकार वैधानिक मार्ग से स्वयं का निर्माण अर्थात योग्य बनाकर उससे जोड़ देना सफलता का सरल और कालानुसार विधि है।“

(4) ध्यान अभ्यास की कालानुसार विधि
  ”जब तू भी ईश्वर, मैं भी ईश्वर अर्थात् सभी ईश्वर। तब स्वयं अपने आप की पूरी तस्वीर अपने समक्ष रख मन को एकाग्र कर यह चिंतन करना कि- ‘मैं इस शरीर से कैसे-कैसे विभिन्न प्रकार के कर्म कर रहा हँू, ध्यान अभ्यास की सरल विधि है। अभ्यास होने के उपरान्त ध्यान के कालानुसार विषय पर चिंतन, मन को एकाग्र कर करना ध्यान की सर्वोच्च, सर्वोत्तम और कालानुसार विधि है।“

(5) निर्माण के मार्ग और पूर्वी तथा पश्चिमी देशांे के स्वभाव
विभिन्न मतों द्वारा निर्माण के मार्ग का सूत्र है- ‘मतवाद के मार्ग से व्यक्ति, धर्म, राष्ट्र, मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र का निर्माण’। स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्माण के मार्ग का सूत्र है-‘धर्म के मार्ग से व्यक्ति, धर्म, राष्ट्र, मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र का निर्माण’। पं0 नारायण दत्त ‘श्रीमाली’ द्वारा निर्माण के मार्ग का सूत्र है- ‘मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र के मार्ग से व्यक्ति, धर्म, राष्ट्र, मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र का निर्माण’। आचार्य रजनीष ‘ओशो’ द्वारा निर्माण के मार्ग का सूत्र है- ‘व्यक्ति के मार्ग से व्यक्ति, धर्म, राष्ट्र, मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र का निर्माण’। योगाचार्य बाबा रामदेव द्वारा निर्माण के मार्ग का सूत्र है- ‘योग के मार्ग से व्यक्ति, धर्म, राष्ट्र, मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र का निर्माण’। मेरे द्वारा निर्माण के मार्ग का सूत्र है-‘राष्ट्र के मार्ग से व्यक्ति, धर्म, राष्ट्र, मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र का निर्माण’। और मेरे राष्ट्र का अर्थ सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विश्व सहित ब्रह्माण्ड है यदि भारत इस पर कार्य करता है तो साकार भारत सहित निराकार भारत अर्थात् विश्वभारत का निर्माण होगा अन्यथा सिर्फ निराकार भारत अर्थात् विश्वभारत का निर्माण होगा क्योंकि कम से कम लाभ और नीतिगत विषयों में पश्चिमी देश भारत से अधिक समझदार, क्रियाशील और अनुकूलन क्षमता वाला है। पश्चिमी देश इसे वैश्विक शासन की दृष्टि से देखेंगे जबकि भारत के नेतृत्वकर्ता पहले व्यक्तिगत लाभ का गणित आलस्य के साथ लगायेंगे। भारत के नेतृत्वकर्ता इस अज्ञानता में न पड़े कि जनता ज्ञानी, शिक्षित हो जायेगी तो उनके पद पर संकट आ जायेगा। ज्ञानी, शिक्षित होना चमत्कार नहीं एक लम्बी अवधि की प्रक्रिया है इसलिए नेतृत्वकर्ता राजनीतिज्ञ का वर्तमान जीवन तो उनके वर्तमान चरित्र के साथ ही व्यतीत हो ही जायेगी। यह एक युग कार्य है, कालजयी कार्य है जो राजनीति क्षेत्र नहीं दे सकती। ये है परिणाम का ज्ञान।

(6) मैं भविष्य या तू भूत? और वर्तमान का सत्य अर्थ
”तुम्हारें समझने, न समझने, मानने या न मानने से मेरे ऊपर कोई अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि मेरा कार्य सिर्फ इतना था कि जिस प्रकार तुम वेद-उपनिषद्-पुराण का मार्गदर्शन आज भी अपने जीवन में प्रयोग करते हो। उसी प्रकार जब भी सत्य जीने की कला, पूर्ण ज्ञान-कर्मज्ञान, व्यक्ति प्रबन्ध और विश्व प्रबन्ध के क्षेत्र में आगे बढ़ो तो तुम्हें कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद अर्थात् विश्वमानक - शून्य: मन की गुणवत्ता का विश्वमानक श्रृंखला से मार्ग दर्शन लेना ही पड़े या तुम इसमें ही विलीन हो जाओं। तुम समझते हो मैं या कोई अवतार भविष्य की बातें कहता है- कदापि नहीं, वह सदा वैयक्तिक और वैश्विक-रूप से वर्तमान होता है, तुम्हें भविष्य इसलिए लगता हैं क्योंकि तुम वैयक्तिक और वैश्विक रूप से भूतकाल होते हो। क्योंकि तुम सपनों में विचरण करते हो। ऐसे व्यक्तियों के विरोध और समर्थन दोनों के प्रभाव से मैं मुक्त होता हूँ। वर्तमान में होने का अर्थ यह नहीं है कि वैयक्तिक रूप से ही तुम वर्तमान में रहो। इसका अर्थ यह है कि तुम वैयक्तिक सहित वैश्विक रूप से वर्तमान में रहो। मैं वर्तमान से योग करने के लिए ही तो व्यक्त होता हूँ?“
(7) आस्था या मूर्खता ? और आस्था का सत्य अर्थ
”मैं (सार्वभौम आत्मा) अदृश्य रूप से भोग करते-करते यह संकल्प लिया कि मेरे इस सत्य रूप को संसार देखे। इसके लिए मैंने मानव शरीर को योग्य समझा और उसे संस्कारित करने की योजना बनाई और फिर विभिन्न शरीरों के माध्यम से संस्कारित करने के लिए शब्द, वेद, उपनिषद, अरण्यक, ब्राह्मण, वेदांग, स्मृति, मूर्ति, दर्शन, पूजा-उपासना, कर्मकाण्ड, यज्ञ, गृहसूत्र, धर्मसूत्र और वैयक्तिक आश्रम, सामाजिक आश्रम, प्रबन्ध सूत्र, शासन सूत्र इत्यादि की श्रृंखला को व्यक्त किया। परिणामस्वरूप मनुष्य शरीर मेरे योग्य बना। और मैं सर्वप्रथम इन समस्त संस्कारित करने की क्रिया को एकीकृत अर्थात् योग कर भोगेश्वर समाहित योगेश्वर रूप में व्यक्तिगत प्रमाणित रूप से व्यक्त होकर योगेश्वर रूप में संस्कारित करने के लिए गीतोपनिषद् को व्यक्त किया। फिर मैं अपने सत्य रूप सम्पूर्ण विषयों का भोग करते हुये योगेश्वर समाहित भोगेश्वर रूप में सार्वजनिक प्रमाणित रूप से व्यक्त होकर भोगेश्वर रूप में अन्तिम रूप से संस्कारित करने के लिए कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद को व्यक्त कर दिया। परन्तु मैं देख रहा हूँ कि प्रत्येक संस्कारित करने की क्रिया जो उस काल के लिए आस्था का विषय था। उसके अगले काल के लिए संस्कारित करने की नयी क्रिया उपलब्ध हो जाने के बावजूद, मानव शरीर पिछले काल के संस्कारित करने वाली क्रिया के प्रति आस्था रखते हुये मूर्खता का स्पश्ट प्रदर्शन कर रहा है। सभी कालों में, सभी संस्कारित करने की क्रियाओं में मैं (सार्वभौम आत्मा) ही आस्था का विषय था परन्तु क्रिया के प्रति आस्था रखना मूर्खता का स्पष्ट प्रमाण ही तो है। चाहे वह व्यक्तिगत इच्छा से हो या सामाजिक प्रदर्शन की इच्छा से। इन समस्त संस्कारित करने के क्रिया के पीछे जो रहस्य आज तक गोपनीय था उसे मैंने तुम्हारें समक्ष सार्वजनिक प्रकाशित कर दिया है। अब कुछ भी गोपनीय नहीं। बावजूद इसके प्रत्येक मनुष्य अपनी मूर्खता रूपी आस्था को प्रदर्शित करने के लिए स्वतन्त्र है। परन्तु वह मुझ (सार्वभौम आत्मा) को प्राप्त नहीं कर सकता।“
 
(8) ”निर्माण और उत्पादन“ भावना की उपयोगिता
”निर्माण और उत्पादन“ आज के विकसित औद्योगिक युग में यह शब्द न तो अनजाना है और न हम यह कह सकते हैं कि हमारा व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन इस शब्द में व्याप्त नहीं है। बल्कि यह कहें तो अधिक स्पष्ट होगा कि हम सभी के मन अन्य संगठन, दल, व्यक्ति, मत, विचार, देश, राज्य, विश्व, प्रकृति, ब्रह्माण्ड इत्यादि के प्रक्रिया द्वारा निर्मित और उत्पादित हो रहे है। और हम सभी स्वयं अपने अधीन अन्य मानव शरीर के मन को निर्मित और उत्पादित कर रहे है। इसलिए व्यक्ति, संगठन, दल, मत, देश व विश्व को यह सदा ध्यान में रखना होगा कि हम किसी के द्वारा निर्मित और उत्पादित हो रहे हैं तो किसी का निर्माण और उत्पादन हम कर रहे हैं। और प्रत्येक निर्माणकत्र्ता और उत्पादनकत्र्ता, स्वयं अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही निर्माण और उत्पादन करता है। और इस कार्य में लगने वाले मनुष्य को उसका पारिश्रमिक विभिन्न रूपों- धन, नाम, यश, कीर्ति, आत्मीय सुख, सम्मान, इत्यादि के रूप में भुगतान होता है। आतंकवाद, धर्मनिरपेक्षता, दल या मत आधारित सम्प्रदाय इत्यादि का यही सूत्र है। इसलिए व्यक्ति को स्वयं अपने लिए यह ध्यान रखना होगा कि वह कहीं ऐसे विचार से निर्मित तो नहीं हो रहा जो स्वयं उसके लिए और देश सहित विश्व और ब्रह्माण्ड के लिए विनाशात्मक हो। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के विश्व व्यापक होने के लिए उसके जन्म से ही उसके निर्माण की प्रक्रिया माता-पिता, भाई-बहन, रिश्तेदार, पड़ोस, जाति, धर्म, मित्र, मत-सम्प्रदाय, नियम-संविधान, संघ, दल, संगठन, प्रदेश, देश इत्यादि अनेकों वातावरण द्वारा होती है। जो विश्वव्यापक होने के मार्ग में बैरियर है और व्यक्ति को इसे स्वीकार करते हुये पार करना होगा। इसलिए आवश्यक है कि पहले वह मन की सर्वोच्च और अन्तिम स्थिति-विश्वमन के व्यक्तरूप विश्वमानक: शून्य श्रृंखला से युक्त हो और फिर वहाँ से नीचे की ओर देखते हुये अपने स्वभाव को स्वीकार करे। ताकि उसका उच्च मानसिक स्तर द्वारा गलत उपयोग न हो सके।“


(9) भारत और सयंुक्त राष्ट्र संघ को आह्वान
”शासन और शासक, विकासात्मक हो या विनाशात्मक। प्रणाली कोई भी हो- एकतन्त्रात्मक अर्थात राजतन्त्र या बहुतन्त्रात्मक लोकतन्त्र। वह तब तक अब स्थायी और अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता जब तक कि वह अपने उद्देश्य की प्राप्ति के अनुरूप जनता का निर्माण और उत्पादन न करें। हमारा उद्देश्य है- ‘अपने सीमित कर्म सहित असीम मन युक्त मानव का निर्माण और उत्पादन’, जिसके लिए हमारे सम्मुख दो मार्ग है- एक-गणराज्यों का संघ भारत, दुसरा-राष्ट्रों का संघ संयुक्त राष्ट्र संघ। दोनों एक ही है। बस कर्म क्षेत्र की सीमा में अन्तर है। दोनों का उद्देश्य एक है बस कार्य अलग है। भारत का अपने जनता के प्रति कर्तव्य और दायित्व तथा विश्व के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा ऐसी विवादमुक्त प्रबन्ध नीति उपलब्ध कराना है जिससे दोनों अपने उद्देश्य को निर्वाध गति से प्राप्त करें। जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ को सिर्फ अपने अधीन कार्य सम्पादन ही करना मात्र है। उसे प्रबन्ध नीति का आविष्कार नहीं करना है। वह कर भी नहीं सकता और न ही किया क्योंकि वह पाश्चात्य के प्रभाव मण्डल में है। पाश्चात्य के पास सत्य के आविष्कार का इतिहास नहीं है। जबकि प्राच्य के पास सनातन से सत्य के आविष्कार का व्यापक संक्रमणीय, संग्रहणीय और गुणात्मक रूप से अनुभव संग्रहीत है। अब भारत व्यक्तिगत प्रमाणित भाव आधारित सत्य नहीं कहेगा क्योकि अब सार्वजनिक प्रमाणित कर्म, व्यक्त और मानक आधारित समय आ गया है। जो विश्व व्यापी रूप से पदार्थ विज्ञान और आध्यात्म विज्ञान सहित प्राच्य और पाश्चात्य संस्कृतियों में सार्वजनिक रूप से प्रमाणित होगा। और उस विवादमुक्त प्रबन्ध नीति से जब मूल अधिकार शिक्षा द्वारा मनुष्य का निर्माण और उत्पादन होगा। तब भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ को उसका उद्देश्य प्राप्त होगा अन्यथा वह रोको-रोको, निरोध-निरोध वाले कानून में ही अधिकाधिक समय व धन खर्च करता रहेगा। जिसकी जटिलता बढ़ते ही जाना है। भारत और संयुक्त राष्ट्र संघ दोनों में से किसी के प्रारम्भ से मनुष्य का ”विश्वमानव“ के रूप में निर्माण और उत्पादन प्रारम्भ हो जायेगा। विश्व के सभी देशों के बीच संस्कृतियों का मिश्रण तेजी से हो रहा है ऐसी स्थिति में उसे मानव संसाधन जो कि समस्त निर्माण और उत्पादन का मूल है, का भी विभिन्न विषयों की भांति मानकीकरण तथा विश्व प्रबन्ध के लिए प्रबन्ध का मानकीकारण करना ही होगा। सम्पूर्ण विश्व में निर्माण से उत्पन्न उत्पाद की गुणवत्ता का मानक, संस्था की गुणवत्ता ISO-9000 फिर प्रकृति के कत्र्तव्य व दायित्व को स्वयं का कर्तव्य व दायित्व मानकर पर्यावरण की गुणवत्ता का मानक ISO-14000 स्वीकारा जा चुका है तो फिर गुणवत्ता से युक्त प्रकृति की भाँति स्वयं मनुष्य अपना गुणवत्ता का मानकीकारण कब करेगा? वह मार्ग जो अभी तक उपलब्ध नहीं था वह  विश्वमानक: शून्य (WS-0) - मन की गुणवत्ता का विश्व मानक श्रृंखला के रूप में उपलब्ध हो चुका है जो मेरा कत्र्तव्य था और अब अन्य मानवों का अधिकार है। संसाधन, ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी से युक्त पृथ्वी कमल की भाँति खिलने को उत्सुक है, मानवता का रचनात्मक सहयोग लेकर भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ, उसके खिलने में सहयोग करें जो उसका कर्तव्य और दायित्व है। जिस पर मनुष्य ईश्वर रूप में विराजमान हो सके।
(10) ईश्वर, देवता और विज्ञान
”जिस प्रकार दृश्य पदार्थ विज्ञान अपने रसायन विज्ञान द्वारा यह कहता है कि सम्पूर्ण दृश्य जगत नाभिक (न्यूट्राॅन और प्रोटान) और इलेक्ट्रान से युक्त परमाणु के संयुग्मन से व्यक्त तत्वों और उसके संयुग्मन से व्यक्त यौगिक द्वारा व्यक्त है तथा प्रत्येक में शक्ति है जिसका अध्ययन वह अपने भौतिक विज्ञान द्वारा करता है। ठीक उसी प्रकार अदृश्य आध्यात्म विज्ञान अपने आत्म विज्ञान द्वारा यह कहता है कि यह सम्पूर्ण दृश्य जगत आत्मा (मार्ग दर्शक और विकास दर्शन या सत्व गुण) और मन (क्रियान्वयन दर्शन) से युक्त सूक्ष्म के संयुग्मन से व्यक्त स्थूल और उसके संयुग्मन से व्यक्त यौगिक द्वारा व्यक्त है। तथा प्रत्येक में शक्ति है जिसका अध्ययन वह अपने तन्त्र विज्ञान द्वारा करता है।
मैं भारत (सार्वभौम आत्मा) सत्य स्वरूप में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपना स्वरूप समझा और अपने स्वरूप को ब्रह्माण्ड समझा और उसी से व्यक्त सभी ग्रह, नक्षत्र, तारे, सूर्य, पृथ्वी, अग्नि, वायु, नदी, वृक्ष, अन्य जीव, जल इत्यादि को माना। मैं भारत (सार्वभौम आत्मा) को शिव तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सर्वव्यापी परिवर्तन या आदान-प्रदान या तन्त्र को शक्ति के रूप देखा। और जहाँ भी जिसमें भी व्यक्तिगत या सामूहिक जीव शरीर को प्रभावित कर देने वाली आदान-प्रदान की शक्ति को पाया उसे, उसके आत्म रूप को देवता तथा तंत्र रूप को देवी शक्ति का रूप दिया। इस प्रकार हम उनके प्रभाव के प्रति समर्पण या भक्ति, उपासना और पूजा करने लगे। परिणामस्वरूप हमारे पास इतने देवी-देवता हो गये कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही हमारे लिए देवी-देवता है। और यदि ऐसा नहीं है तो निश्चय ही हमारा शरीर स्थायी होता।
पदार्थ विज्ञान अपने प्रत्येक आविष्कार द्वारा यह सिद्ध करता चला गया कि वायु देवता नहीं, विभिन्न गैसों का मिश्रण है, जल देवता नहीं हाइड्रोजन और आक्सीजन का यौगिक है, चन्द्रमा देवता नहीं पृथ्वी का उपग्रह है, मंगल, बृहस्पति इत्यादि देवता नही ग्रह हैं इत्यादि। ऐसा सार्वजनिक प्रमाणित रूप से मैं भारत भी मानता हँू परन्तु क्या पदार्थ विज्ञान यह बता सकता है कि उसे जान लेने मात्र से तथा उसके कुछ प्रभाव पर नियत्रंण प्राप्त हो जाने से उसके पूर्ण प्रभाव से कब तक बचा जा सकता है? हम कभी नहीं बचे और न कभी बच सकते हैं। हमें उससे हारना ही होगा। हमें उससे हारना ही है। हमने उन्हें देवी-देवता रूप में, इस रूप में नहीं देखा था जैसा कि वर्तमान में समझा जाता है। वर्तमान में समझा जाने वाला रूप जो मूर्तियों में दिखाई देता है वह उनके गुणों को प्रदर्शित करता मानवीय रूप में प्रक्षेपण है। क्योंकि मनुष्य या कोई भी प्राणी जब भी अपने ईश्वर की कल्पना करेगा तो वह स्वयं जैसे शरीर से युक्त अनेक गुणों के साथ ही देखेगा। हमने ईश्वर को सिद्वान्त या आदान-प्रदान या परिवर्तन से युक्त शरीर रूप में स्वीकारा था। जो जीवों को व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से अनियंत्रित रूप में प्रभावित करती थी चाहे वह लाभकारी हो या हानिकारक। हम भारतीय सगुण मानव शरीर को ईश्वर के व्यक्त अवतार रूप में सिर्फ उसी को मानते है। और स्वीकार करते हो जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को एकात्म रूप में स्वीकार करते हुये उसके स्थायित्व के लिए ब्रह्माण्ड और प्रकृति के सिद्धांतानुसार प्रबन्ध नीति स्थापित करता है। और उसका यह विचार सदैव सत्य रूप में विद्यमान रहता है। हम भारतीय ऐसे किसी सगुण मानव शरीर को ईश्वर रूप में स्वीकार नहीं करते जिसकी सीमा मात्र जीव जगत तक ही व्यक्त और एकात्म करने की होती है। क्योंकि ऐसे जीव मानव का विचार एक निश्चित समय तक ही विद्यमान रहकर विलीन हो जाता है। शरीर तो सभी का ही परिवर्तित होना निश्चित है।
(11) विद्रोही या सार्वजनिक प्रमाणित कृष्णकला समाहित विश्वमानव कला
मैं कभी भी किसी भी जीवन में विद्रोही नहीं था और न हँू, क्योकि विद्रोह तो उसे कहते है जो सामाजिक धारा, इन्द्रिय, सांसारिकता और सांसारिक प्रबन्ध का पूर्ण विरोध करता है। व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य रूप से सर्वप्रथम मैं (सार्वभौम आत्मा) ”लव कुश“ के रूप में व्यक्ति ”राम“ के विरूद्ध चलकर ”राम“ में ही समाहित हो गया। व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य रूप से मध्य में मैं (सार्वभौम आत्मा) ”कृष्ण“ के रूप में समाज की धारा के विरूद्व चलकार समाज की धारा में ही व्यक्तिगत रूप से समाहित हो गया। इसलिए धारा के विरूद्ध अर्थात ”राधा“ प्रिय होते हुये भी मेरा लक्ष्य ”राधा“ नहीं थीं यही मेरा व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य कला अर्थात् व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य कृष्णकला थी। सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य रूप से अन्त में मैं (सार्वभौम आत्मा) ”विश्वमानव“ के रूप में विश्व की धारा के विरूद्व चलकर विश्व की धारा में ही सार्वजनिक रूप से समाहित हो गया। यह मेरी सार्वजनिक प्रमाणित कृष्ण कला है। जो मुझे प्रिय होते हुये भी मेरा लक्ष्य नहीं है। क्या मैं (सार्वभौम आत्मा) ”लव कुश“, ”कृष्ण“ और ”विश्वमानव“ के रूप में एक ही नही हँू? क्या मेरी प्रिय कला-समाज के विरूद्व ”राधा“ और ”कृष्णकला“ एक ही नहीं है।
प्रत्येक पूर्णावतार के जीवन में उसके व्यक्त होने की कला तथा अगले पूर्णावतार के व्यक्त होने की कला का संकेत रूप दिया रहता है। ब्रह्मा के पूर्णावतार श्रीराम के जीवन मे वर्तमान परिस्थितियों पर कर्म करना राम कला थी जबकि लव कुश का व्यवहार-विरूद्व फिर समाहित होना अगले पूर्णावतार की कला का व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य संकेत रूप था। विष्णु के व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्णावतार श्रीकृष्ण के जीवन में रामकला समाहित समाज की धारा के विरूद्व चलकर समाज की धारा में ही समाहित हो जाना कृष्ण कला थी। जो कि अगले पूर्णावतार की कला का व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य संकेत रूप था। शिव-शंकर के पूर्णावतार तथा विष्णु के सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार के जीवन में कृष्णकला का सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य रूप है। जबकि विश्व की धारा जहाँ तक पहँुच चुकी है, वहाॅ से स्वयं को जोड़ लेना ”विश्वमानव कला“ है।
(12) पहले संविधान या मनुष्य?
पहले मनुष्य नियम बनाता है, फिर उस नियम से मनुष्य स्वयं चलने अर्थात निर्मित होने लगता है। जैसे तुम व्यक्तिगत नियम बनाते हो, फिर स्वयं उसी नियम से निर्मित होने लगते हो। यदि तुम नियम बनाने लगते हो तो तुम मनुष्य कहे जाते हो अन्यथा तुम प्रकृति के नियम से निर्मित होने वाले प्रकृति के नियम के ज्ञान से मुक्त पशुमानव हो, क्योंकि पशुओं का कोई नियम नहीं होता उनका सिर्फ स्वभाव होता है। इसी प्रकार जब समाज (व्यक्ति समूह) के लिए नियम बनता है। तो वह संयुक्त मन का नियम होता है जिसे संयुक्त मन से युक्त विशेष मनुष्य बनाते हैं। और फिर बनाने वाले मनुष्य सहित समाज के व्यक्ति उसी नियम से संचालित अर्थात निर्मित होने लगते है। जैसे शासन व्यवस्था के संचालन के लिए सर्वप्रथम संयुक्त मन से युक्त मानवों ने नियम अर्थात संविधान बनाया, फिर बनाने वाले सहित राज्य के नागरिक उसी नियम अर्थात संविधान से संचालित अर्थात निर्मित हो रहे है। अब इस नियम से कोई राष्ट्रपति है, कोई प्रधानमंत्री, तो कोई मंत्री, सांसद, विधायक, जिलाधिकारी, कर्मचारी इत्यादि। और जब तक इनके साथ नियम का गुण है तब तक ये है। नहीं तो वे मनुष्य नागरिक है। इस क्रम में हम देखते है कि पहले मनुष्य, फिर संयुक्त मन से युक्त विशेष मनुष्य, फिर नियम अर्थात संविधान है फिर नियम अर्थात संविधान से विशेष मनुष्य है, और फिर अन्त में मनुष्य। उदाहरण रूप में- यदि कोई संविधान से विधायक है तो उसका पुत्र भी विधायक पुत्र कहा जायेगा। और यदि उसका पुत्र आगे बढ़कर मुख्यमंत्री या नीचे गिरकर चोर या कुछ और भी बन गया अर्थात अपने पिता से अलग दुसरे गुण में चला गया तो वह उस विशेष गुण द्वारा जाना जायेगा। फिर उसके पिता के विधायक होने से नहीं जाना जायेगा।
मैं भी प्रकृति के नियम के ज्ञान से मुक्त पशु मानव था। फिर व्यक्तिगत नियम से युक्त मनुष्य बना, फिर प्रकृति के नियम के ज्ञान से युक्त ज्ञानी मानव बना, फिर व्यक्तिगत प्रमाणित सत्य ज्ञान से युक्तमानव बना, फिर व्यक्तिगत प्रमाणित सत्य ज्ञान और संयुक्त मन से युक्त मानव बना। फिर व्यक्तिगत प्रमाणित सत्य, व्यक्तिगत प्रमाणित सिद्वान्त और संयुक्त मन से युक्त मानव बना। फिर मैं व्यक्तिगत प्रमाणित सार्वजनिक सत्य, व्यक्तिगत प्रमाणित सिद्वान्त और संयुक्तमन से युक्त मानव बना अन्त में मैं सार्वजनिक प्रमाणित सार्वजनिक सत्य, सार्वजनिक सिद्वान्त और संयुक्त मन से युक्त मानव बना।
इस क्रम में मैं जब व्यक्तिगत प्रमाणित सत्य, व्यक्तिगत प्रमाणित सिद्वान्त और संयुक्त मन से युक्त मानव था, तब समाज की शासन व्यवस्था के संचालन के लिए नियम अर्थात संविधान निर्माण में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त प्रकृति अर्थात स्वभाव को तीन भागों में गुणों के आधार पर विभाजित किया। (1) सत्व गुण- सुख, ज्ञान और प्रकाश का स्वभाव अर्थात आत्मा और सुक्ष्म बुद्धि अर्थात मार्ग दर्शक और विकास दर्शन। (2) रज गुण - आंकाक्षा, इच्छा, सकाम कर्म का स्वभाव अर्थात भाव हृदय और मन अर्थात क्रियान्वयन दर्शन (3) तम गुण- अज्ञान, दुःख और अन्धकार का स्वभाव अर्थात अनात्म, प्राण इन्द्रिय और स्थूल शरीर अर्थात विनाश दर्शन। इन गुणों के नियम के आधार पर सभी जीव विभाजित किये गये। मनुष्य में चार विभाजन हुए। (1) सत्व गुण प्रधान-ब्राह्मण (2) रज गुण प्रधान-क्षत्रिय (3) रज- तम गुण प्रधान वैश्य (4) तम गुण प्रधान- शुद्र। और इस नियम को बनानंे वाला स्वंय मैं और समाज इसी नियम से निर्मित होने लगा। जिस प्रकार तुम्हारे द्वारा निर्मित संविधान के अनुसार कोई विधायक तभी तक विधायक कहा जा सकता है। जब तक उस नियम का गुण उसके साथ है उसी प्रकार मेरे द्वारा निर्मित संविधान से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तभी तक कहा जा सकता है। जब तक उस नियम का गुण उसके साथ है। और उसका पुत्र तभी तक ब्राह्मण पुत्र, क्षत्रिय पुत्र, वैश्य पुत्र, या शूद्र पुत्र कहा जा सकता है जब तक कि वह अपने पिता के गुण के अनुसार है। अन्यथा वह अपने गुण के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र होगा। क्योंकि पहले मनुष्य है। फिर मनुष्य उस नियम या गुण अनुसार है। अन्त में फिर पुनः मनुष्य है। तुम पहले गुण से नहीं, पहले नियम या गुण के अनुसार उसके पिता मनुष्य को देखते है और उस अनुसार ही सन्तान को भी देखते चले जाते हो। इसलिए तुम उलझ गये हो। जिस प्रकार संविधान बनाने वाला स्वयं संविधान के अनुसार विभाजित हो गया उसी प्रकार मैं भी मूल मनुष्य में विभाजन कर उसी में से एक हो गया। मूल मानव जाति कौन है? व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य बीज-सत्य से मत मतान्तरों का वृक्ष, शाखा, पत्ते, फूल और फल बने और अन्त में सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य बीज सिद्वान्त है। यही चक्र है। सभी विवाद-शाखा, पत्ते, फूल और फल में है।
(13) नया, पुराना और वर्तमान
जिस प्रकार वाहन-कार का आविष्कार हुआ। फिर उसका नवीन संस्करण आया, पुनः फिर उसका नवीन संस्करण आया। इस प्रकार नवीनीकृत किया जा रहा है परन्तु हैं सभी कार। इसी प्रकार सत्य का आविष्कार हुआ। फिर उसका नवीन संस्करण आया पुनः फिर उसका नवीन संस्करण आया। इस प्रकार नवीनीकृत किया जा रहा है। परन्तु हैं सभी सत्य। जिस प्रकार वाहन ”कार“ वर्तमान है उसी प्रकार सत्य भी वर्तमान है सिर्फ उसके व्यवहार में लाने के लिए संस्करण नवीन हो रहे है। नवीन संस्करण की पहचान तभी हो सकती है जब पुराने संस्करण की पहचान हो और उसका ज्ञान हो। अन्यथा वह सब पुराना ही लगेगा या नया ही लगेगा। नवीन संस्करण अधिक व्यवहारिक होता है। इसलिए वह अधिक क्रिया-प्रतिक्रियापूर्ण होता है और यदि क्रिया-प्रतिक्रिया पूर्ण नहीं है तो उसके दो कारण होगें। पहला नवीनत्व के पहचानने का अभाव या दूसरा वह संस्करण नवीन ही नहीं है ”कार“ हो या ”सत्य“ उसका नवीन संस्करण तब तक आता रहेगा जब तक कि वह पूर्ण विकसित और व्यावहारिक रूप को प्राप्त नहीं कर लेता। और सिर्फ वही संस्करण स्थिरता और व्यवहार में रहेगा जो पूर्ण व्यावहारिक और विकसित होगा। शेष विकास के क्रम के इतिहास के रूप में जाने जायेंगे। ऐसा ही होता हैं।
(14) मुझे (आत्मा) को प्राप्त करने का मार्ग
”जब मुझे तुमसे मिलना होता है तो पहले मैं भाव फिर कर्म व्यक्त करता हँू। तुम भी ऐसा ही करते हो और यदि तुम मुझसे मिलते हो तो पहले मैं कर्म फिर भाव द्वारा तुम्हें देखता है। यदि तुम मुझे प्राप्त करना चाहते हो तो मेरे लिए कर्म करो। तुम पहले भाव देखते हो, मैं पहले कर्म देखता हूँ यहीं तुममें और मुझमें अन्तर है“
(15) प्राथमिकता किसकी- चरित्र की या सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त की?
”चरित्र को प्राथमिकता देने से सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त की अवनति होती है। सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त को प्राथमिकता देने से चरित्र समाज का दर्पण बन समाज को ही प्रक्षेपित हो जाता है। वर्तमान समय को सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त की प्राथमिकता की आवश्यकता है चरित्र की प्राथमिकता उसके बाद आयेगी। श्रीकृष्ण, सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को प्राथमिकता देते थे। इसलिए ही उनका जीवन और मन समाज का दर्पण था और उनकी हिंसा, अहिंसा थी। परिणास्वरूप कहते हैं- ‘तेरा मन दर्पण कहलाये तू देखे और दिखाये’ अर्थात तू कत्र्ता भी है और द्रष्टा भी है।“

(16) व्यक्त होने का कारण और व्यक्त होने में कष्ट
”तपोभूमि भारत में निवास कर रहे देवताओं, यज्ञों की आहूतियों, ग्रहों के सम्मिलन, पूर्ण सूर्य एवम् चन्द्रग्रहण, पूर्वजन्म के संकल्प, सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त की आवश्यकता, कर्म ज्ञान की भूख, समय की आवश्यकता, विश्वचिन्तकों की चिन्ता, मानवता के प्रति उठता दर्द, शहीदों की वर्तमान भारत पर रोती आत्माएँ, माताओं और विधवाओं के आँसू जिनके अपने भारत के लिए अपने खून बहाये, दलितों-मजदूरो जो शोषित होते हुए भी अपने खून-पसीने से भारत की इमारत को खड़ा किया, शान्ति के लिए परमाणु बम का विस्फोट, आधुनिक अस्त्र अर्थात कानून और नीति से विश्व शक्ति का आक्रमण, सेवकों का सेवाभाव, सखा और सखियों का असीम प्रेम, और इन सभी के साथ सम्पूर्ण विश्व सहित ब्रह्माण्ड के प्रति मेरा एकात्म प्रेम। ये ही मेरी शक्ति है। जिनके बल पर मै- सार्वभौम आत्मा व्यक्त हुआ हूँ। यदि ऐसा नहीं होता तो मैं भी तुम्हारी तरह अव्यक्त ही रहता। यह केवल मैं और सिर्फ मैं ही समझ सकता हूँ कि सभी मत-मतान्तर, अनेकों उपनिषद के एकीकरण और ऐकेश्वर की स्थापना सहित व्यक्तिगण प्रमाणित सार्वभौम आत्मा को प्रमाणित करने के लिए श्रीकृष्ण को योगेश्वर श्रीकृष्ण के रूप में व्यक्त होने में कितना सामाजिक व्यवधान उठाना पड़ा जबकि व्यक्तिगत कष्ट उन्हें नहीं के बराबर था। क्योंकि वे सार्वजनिक इच्छा पर व्यक्त हुए थे। और सिर्फ मैं ही यह समझ सकता हँू कि सम्पूर्ण और अन्तिम वैश्विक एकीकरण तथा ऐकेश्वर की स्थापना सहित आत्मा को सार्वजनिक प्रमाणित करने के लिए मुझे भोगेश्वर विश्वमानव के रूप में व्यक्त होने में कितना व्यक्तिगत व्यवधान उठाना पड़ा जबकि सार्वजनिक कष्ट नहीं के बराबर था क्योंकि मैं व्यक्तिगत इच्छा पर व्यक्त हुआ हूॅ। कृष्ण रूप में अन्त में मैनें परिणाम को प्राप्त किया था परन्तु विश्वमानव रूप में सर्वप्रथम मैं परिणाम को प्राप्त करूगाँ“
(17) कालजयी, जीवन और व्यर्थ साहित्य
सम्पूर्ण जगत् का सत्य, एकात्म की व्याख्या करने वाला प्रत्येक साहित्य कालजयी साहित्य कहलाता है। जो सत्य ज्ञान, आत्म ज्ञान, एकात्म ज्ञान, ब्रह्माण्डीय एकात्म, मानवीय एकात्म, समभाव की ओर प्रेरित करता है। जबकि सम्पूर्ण जगत् का सैद्धान्तिक सत्य-एकात्म सिद्धान्त की व्याख्या करने वाला प्रत्येक साहित्य जीवन साहित्य कहलाता है। जो सिद्धान्त ज्ञान, एकात्म कर्मज्ञान, ब्रह्माण्डीय कर्मज्ञान, मानवीय एकात्म कर्मज्ञान, एकात्म कर्मभाव की ओर प्रेरित करता है। कालजयी साहित्य अनेक हो सकता है। परन्तु जीवन साहित्य सिर्फ एक ही हो सकता है। जीवन साहित्य कालजयी साहित्य होता है। परन्तु कालजयी साहित्य आवश्यक नहीं कि वह जीवन साहित्य हो। कालजयी का अर्थ है- जो देश काल से मुक्त, सार्वकालिक, सर्वव्यापी, सर्वग्राही, सर्वमान्य, सार्वजनिक हो। जीवन का अर्थ है- जो देश काल से मुक्त, सर्वकालिक, सर्वव्यापी, सर्वग्राही, सर्वमान्य, सार्वजनिक, क्रियाकलाप हो। कालजयी साहित्य का उदाहरण- वेद उपनिषद्, संतो का साहित्य इत्यादि है तो जीवन साहित्य का उदाहरण व्यक्तिगत प्रमाणित गीता तथा सार्वजनिक प्रमाणित कर्मवेदः प्रथम अन्तिम तथा पंचमदेव एवम् आधारित उपनिषद् है इसलिए कर्मवेदीय साहित्य को मात्र कालजयी साहित्य सम्बोधित कर नजर अन्दाज कर देना सत्य नहीं है और न ही उसके सत्य अर्थ को समझना है। ऐसा साहित्य जो न तो कालजयी है और न ही जीवन साहित्य है - व्यर्थ साहित्य या देश काल बद्ध साहित्य कहलाता है। 

(18) भाग्य और कर्म
भाग्य, किसी कार्य के परिणाम को प्राप्त हो जाने पर उसके परिणाम से निर्धारित होने वाला विषय है, जबकि कर्म परिणाम को प्राप्त करने को क्रिया है। आलसी, कामचोर, इच्छाहीन भाव, पहले ही हार मानकर बैठे व्यक्तियों का कर्म से बचने के लिए भाग्य प्राथमिक औजार है। जबकि पुरूषार्थी, जागरूक, आत्मबली, जीत के लिए सतत् प्रयत्नशील और आसानी से हार न मानने वाले व्यक्तियों के लिए कर्म प्राथमिक औजार है। उदाहरण स्वरूप- प्रत्येक वर्तमान व इतिहास में व्यक्त महापुरूष को परिणाम रूप में देख कामचोर उन्हें भाग्य का तेज मानकर कर्म से अपना पीछा छुड़ा लेते है। जबकि पुरूषार्थी उन्हें सतत् कर्म और संघर्ष की प्रक्रिया के फलस्वरूप व्यक्त होने के उदाहरण स्वरूप मान कर्मशील रहते है। भाग्यवादियों का भाग्य अन्य प्रभावी तत्व आसानी से परिवर्तित कर सकता है अर्थात भाग्यवादियों का भाग्य अन्य के अधीन होता है। जबकि पुरूषार्थी का भाग्य स्वयं उनके अधीन होता है। इसलिए पुरूषार्थियों का भाग्य अन्य प्रभावी तत्व आसानी से परिवर्तित नहीं कर सकते।
(19) अवतार, महापुरूष और साधारण मानव
विश्व को कालानुसार एकात्म करने के लिए सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त से युक्त होकर संसार में सिर्फ कर्म करने के लिए ही अवतार का अवतरण होता है। जबकि महापुरूष, एकात्म होने के लिए कर्म अर्थात पुरूषार्थ द्वारा सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त तक पहुँचता है। दूसरे रूप में अवतार की गति उपर से नीचे अर्थात मूलबीज सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से शाखा संसार की ओर होती है जबकि महापुरूष की गति नीचे से उपर अर्थात शाखा संसार से मूलबीज सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त की ओर होती है। साधारण मानव में आत्मा का अस्तित्व होते हुये भी वह प्रकाशित या जागृत अवस्था में नहीं होता अर्थात उसकी गति या तो यथावत् अपने स्तर पर होती है या शाखा संसार से भी नीचे फूल और फल अर्थात परिणाम को प्राप्त अर्थात पतन की ओर। शारीरिक रूप में अवतार, महापुरूष और साधारण मानव का शरीर समान रूप से मानवीय शरीर होता है परन्तु अवतार का शरीर ब्रह्माण्ड समर्पित, महापुरूष का शरीर समाज समर्पित तथा साधारण मानव का शरीर जीव समर्पित होता है। अवतार अपने अवतारी श्रृंखला की अगली कड़ी तथा अवतारी सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त से युक्त महापुरूष के पुनर्जन्म का संयुक्त रूप होता है जबकि महापुरूष सिर्फ पुनर्जन्म के रूप से युक्त उध्र्वगामी तथा साधारण मानव सिर्फ पुनर्जन्म के रूप में निम्नगामी होता है।

(20) मनुष्य जीवन के प्रकार
ऐसा मनुष्य जीवन जो अपने जीवन काल की अवधि में समाज और व्यक्ति के शारीरिक, आर्थिक और मानसिक कल्याणार्थ देश काल मुक्त योगदान दे जाता है, सकारात्मक मनुष्य जीवन कहलाता है। जबकि इसके विपरीत ऐसा मनुष्य जीवन जो अपने जीवन की अवधि में अपने कल्याणार्थ समाज और व्यक्ति से शारीरिक, आर्थिक व मानसिक देश काल मुक्त योगदान ले जाता है, नकारात्मक मनुष्य जीवन कहलाता है। सत्य और चरित्र की प्रधानता पर आधारित देश काल मुक्त मनुष्य जीवन, मानक मनुष्य जीवन तथा सार्वभौम सत्य और सिद्धान्त की प्रधानता पर आधारित देश काल मुक्त मनुष्य जीवन, दर्पण जीवन कहलाता है। जबकि ऐसा देश काल बद्ध मनुष्य जीवन जो उपरोक्त में से कोई भी न हो तो वह मनुष्य जीवन व्यर्थ मनुष्य जीवन कहलाता है। प्रत्येक पूर्णावतार का जीवन, मानक जीवन और दर्पण जीवन का मिश्रित रूप होता है। जैसे व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य सत्य और चरित्र से युक्त आर्दश व्यक्ति का मानक जीवन तथा उस काल का मनुष्य जीवन के दर्पण रूप का मिश्रित जीवन ब्रह्मा के पूर्णावतार श्रीराम का जीवन। व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य सार्वभौम सत्य और सिद्वान्त से युक्त आर्दश सामाजिक व्यक्ति का मानक जीवन तथा उस काल के मनुष्य जीवन के दर्पण रूप का मिश्रित जीवन विष्णु के पूर्णावतार श्रीकृष्ण का जीवन। सार्वजनिक प्रमाणणित दृश्य सार्वभौम सत्य और सिद्वान्त से युक्त आर्दश वैश्विक व्यक्ति का मानक जीवन तथा उस काल के मनुष्य जीवन के दर्पण रूप का मिश्रित जीवन, शिव-शंकर के पूर्णावतार विश्वमानव का जीवन। पूर्णावतारांे के जीवन में मानक जीवन और दर्पण जीवन के मिश्रित होने के कारण अन्य मानव अवतारों के जीवन के सत्य अर्थ और रूप को समझ नहीं पाते हैं जबकि उन्हें इस प्रकार समझना चाहिए, जो धर्म स्थापना करता है वह सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त की प्राथमिकता वाला दर्पण जीवन का रूप तथा जो भाव द्वारा व्यवहार करता है, वह सत्य चरित्र की प्राथमिकता वाला मानव जीवन का रूप होता है। अन्तिम पूर्णावतार विश्वमानव द्वारा मानक जीवन अर्थात आर्दश वैश्विक मानव का सत्यरूप स्वयं से अलग इसलिए ही किया गया है। जिससें मानव अपने मानव जीवन को स्पष्ट रुप से पहचान सके। पूर्णावतार वास्ताविक जीवन का अभिनेता मात्र होता है। इसलिए वह प्रत्येक क्रियाकलापों में होते हुये भी नहीं होता।

(21) गुरू के प्रकार
गुरू अर्थात मार्गदर्शक। ऐसा गुरू जो एकात्म सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त से जोड़ने अर्थात योग कराने की ओर प्रेरित करता हो सकारात्मक गुरू कहलाता। तथा ऐसा गुरू जो अनेकात्म या अलगाववाद से योग कराने की ओर प्रेरित करता है नकारात्मक गुरू कहलाता। जबकि ऐसा गुरू जो स्वयं से अपने स्वार्थ हित के लिए योग कराने के लिए प्रेरित करता है आडम्बरी अर्थात मानसिक गुलामी दाता गुरू कहलाता है।
ऐसा गुरू जो व्यक्ति के व्यक्तिगत मन को व्यक्तिगत रूप से एकात्म सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से योग कराने की ओर प्रेरित करता है। सकारात्मक व्यक्तिगत प्रमाणित व्यष्टि अदृश्य गुरू कहलाता है। तथा ऐसा गुरू जो व्यक्ति के व्यक्तिगत मन को सार्वजनिक रूप से सार्वभौम एकात्म सत्य-सिद्वान्त से योग कराने की ओर प्रेरित करता है सकारात्मक व्यक्तिगत प्रमाणित व्यष्टि दृश्य गुरू कहलाता है  ऐसा गुरू जो व्यक्ति और शासन के संयुक्त मन को व्यक्तिगत रूप से एकात्म सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से योग कराने की ओर प्रेरित करता है सकारात्मक सार्वजनिक प्रमाणित समष्टि अदृश्य गुरू कहालाता है। तथा ऐसा गुरू जो व्यक्ति और शासन के संयुक्त मन को सार्वजनिक रूप से एकात्म सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त से योग कराने की ओर प्रेरित करता है सकारात्मक सार्वजनिक प्रमाणित समष्टि दृश्य गुरू कहलाता है।
इसी प्रकार नकारात्मक गुरू के भी नकारात्मक व्यक्तिगत प्रमाणित व्यष्टि अदृश्य, नकारात्मक व्यक्तिगत प्रमाणित व्यष्टि दृश्य, नकारात्मक सार्वजनिक प्रमाणित समष्टि अदृश्य तथा नकारात्मक सार्वजनिक प्रमाणित समष्टि दृश्य रूप होते है।
आडम्बरी अर्थात मानसिक गुलामी दाता गुरू अधिकतम रूप से व्यक्ति तक ही सीमित रहकर सक्रिय रहते है क्योंकि इनके स्वार्थ तुच्छ प्रकार के व्यक्तिगत ही होते है।
प्रत्येक अवतार सकारात्मक समष्टि गुरू का रूप तथा महापुरूष सकारात्मक व्यष्टि गुरू का रूप होता है। जब-जब समाज में सकारात्मक समष्टि गुरू का पूर्ण अभाव होता है तब-तब अवतार रूप में सकारात्मक समष्टि गुरू का अवतार होता है तथा सम्पूर्ण समष्टि कालानुसार सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त और संयुक्त मन से युक्त हो वर्तमान हो जाती है।




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