Monday, March 16, 2020

शिक्षण क्षेत्र से जुड़े आचार्याे को आह्वान

शिक्षण क्षेत्र से जुड़े आचार्याे को आह्वान

तेेेजी से बदलते विश्व और 21 वीं सदी की चुनौतियों के लिए स्वयं को उच्च मानसिक स्तर से जोड़ना अति आवश्यक है तथा आने वाली पीढ़ी को भी उस अनुसार शीघ्रता से तैयार करना भी हमारा दायित्व है। वर्तमान समय में शिक्षा का उद्देश्य नौकरी न मिलने पर शिक्षा के प्रति अरूचि, अपराधिक प्रवृत्ति, दिग्भ्रमित युवा पीढ़ी इत्यादि का दोषी न तो शिक्षा, न ही शिक्षक बल्कि इसका दोषी वर्तमान अपूर्ण पश्चिमी संस्कृति अधारित मैकाले शिक्षा प्रणाली है जो जीवकोपार्जन का ज्ञान तो देती हैं। परन्तु जीवन निर्माण का ज्ञान नहीं देती अर्थात निर्भरता उत्पन्न करती है, न कि आत्मनिर्भरता। प्रश्न यह भी हो सकता है कि पहले जीवकोपार्जन आवश्यक है या जीवन निर्माण। तो उत्तर स्पष्ट है कि यदि पहले जीवन निर्माण पर प्रयत्न किया जाए तो जीवन भर जीवकोपार्जन की समस्या समाप्त हो जाती है लेकिन जीवन भर जीवकोपार्जन पर प्रयत्न किया जाए तो जीवन निर्माण छुट जाता साथ ही जीवकोपार्जन की तलाश भी जारी रहती है और एक समय व्यक्ति स्वयं उलझ जाता है क्यांेकि इस रास्ते में कर्म, ज्ञान-कर्मज्ञान से मुक्त होकर हेाता है। वर्तमान पाठ्यक्रम से शिक्षित हर युवा को, हर कदम एक प्रबंधक या मार्गदर्शक की आवश्यकता पड़ती है। परन्तु हम सभी मंे से किसी एक की वश की बात नहीं कि इस शिक्षा पाठ्यक्रम को परिवर्तित कर दें। इसका एक मात्र अन्तिम रास्ता यह है कि न्यूनतम सम्पूर्ण ज्ञान-कर्मज्ञान जो विद्यार्थी को युवा काल के पाठ्यक्रम मंे उपलब्ध होना चाहिए वह उन्हंे अलग से उपलब्ध कराया जाय और विद्यार्थी उन्हंे अन्य मनोरंजक साहित्य की भँाति बार-बार पढ़ते और समझते रहे, जिससे उनके जीवन में कार्यकुशलता और सम्पूर्ण विषयो का समझने की सूक्ष्मता व समझ लायी जा सके। परिणामस्वरूप वे दृष्टि (एक दिशा/गुण द्वारा देखना) से निकल कर दिव्यदृष्टि (अनेक दिशा/गुण को एक साथ देखना) मंे स्थापित हो जाये। 
वेद, वेदान्त, धर्मशास्त्र, आध्यात्म इत्यादि के सम्बंध में प्रायः यह आम धारणा बन चुकी है कि यह युवाओं का विषय नहीं है परन्तु यह जान लेना अति आवश्यक है कि ज्ञान जितनी जल्दी ग्रहण कर लिया जाए वह उतना ही जीवन निर्माण के लिए उपयोगी होता है। इस प्रकार युवाआंे के पास जीवन निर्माण के लिए लम्बा समय होता है। इस धारणा के उत्पन्न होने का कारण यह है कि ज्ञान से कर्मज्ञान के विकास क्रम में अभी तक कर्मज्ञान समाज में उपलब्ध नहीं था। कर्मज्ञान, कार्यकुशलता सिखाता है न कि वैराग। यह कर्मज्ञान पूर्णतः ज्ञान के व्यावहारिकता का 21वीं सदी व भविष्य के लिए कालानुसार रूपान्तरण है जिसके अभाव मंे ही संसाधन होते हुये भी शिक्षित बेरोजगार, रोजगार सृजन व रचनात्मक कार्य करने में असमर्थ हंै। अगर ऐसा न होता तो स्वामी विवेकानन्द द्वारा वेदान्त की व्यवहारिकता तथा आचार्य रजनीश ”ओशो“ द्वारा शिक्षा से क्रान्ति विषयांे पर जोर क्यांे होता? यदि एक क्षण के लिए यह मान भी लिया जाय कि इनके विचार असत्य है तो इनका क्या बिगड़ा ये तो इतिहास पुरूष बन गये। बिगड़ा तो उनका ही जो विचारो को नहीं माने। 
”विश्वशास्त्र“ वही पूर्ण शास्त्र-साहित्य है। इस शास्त्र-साहित्य को अपने विद्यालय परिवार में वितरण कराने के लिए विद्यालय परिवार में आप सूचित करें और विद्यार्थीयांे को उसी भँाति आवश्यकता बता कर लेने को बाध्य करेगंे, जैसे कोई माता-पिता आवश्यक कड़वी दवा अपने सन्तान को उसके हित के लिए ही खाने को विवश करते हंै क्यांेकि आप आचार्यगण से समाज इसी कार्य की उम्मीद रखता है। ऐसा उम्मीद हम भी आपसे करते हैं।


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