Monday, March 16, 2020

राजनीतिक दलों को आह्वान

राजनीतिक दलों को आह्वान

भारत के स्वतन्त्रता से अब तक भारत ने अनेकों उतार चढ़ाव को अपनी चेतना से सम्भालते हुये विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र की परम्परा को यथावत् तथा सामयिक आवश्यकताओं के अनुसार विकास कार्याे को संचालित करते हुये प्रत्येक क्षेत्र में अपनी एक मिसाल कायम की है। जो वर्तमान तक के महापुरूषों, वैज्ञानिकांे, राजनेताआंे तथा सहनशील जनता के सम्मिलित योगदान से ही सम्भव हुआ है। निश्चय ही वे इस श्रेय के पात्र है। परन्तु इसी बीच हमने यह भी दौर देखा कि एक दलीय सरकार से बहुदलीय सरकार हो गयी है। यह कोई विशेष दुर्भाग्य पूर्ण घटना नहीं बल्कि लोकतन्त्र से स्वस्थ लोकतन्त्र तक के विकास क्रम का ही एक चरण है। पहले लोकतन्त्र व्यक्तिगत मन का संयुक्त रूप था। अब संयुक्त मनों (दलो) का संयुक्त रूप है। और इसके उपरान्त सयुक्त मनांे के सिद्धान्त सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त की आवश्यकता है जो लोकतन्त्र की पूर्ण स्वस्थता के लिए आवश्यक और अन्तिम चरण है। 
यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि लोकतन्त्र का वर्तमान दौर एक ऐसे दौर से गुजर रहा है। जहाँ जनता की भावना इस लोकतन्त्र व्यवस्था से उबने की ओर है। वहीं संविधान के प्रति समर्पित लोकतन्त्र को यथावत रखने के लिए विवशता भी है। सभी राजनीतिक दलों को लोकतन्त्र की स्वस्थता के लिए प्रयत्न और ऐसे सिद्धान्त का पूर्ण समर्थन करना चाहिए जो लोकतन्त्र की पूर्ण स्वस्थता के लिए सकारात्मक कदम हो क्यांेकि लोकतन्त्र व्यवस्था रहेगी तभी दलो का अस्तित्व रहेगा। संासद और विधायक रहेेगें। इससे पहले कि लोकतन्त्र व्यवस्था के विरूद्ध जनता की आवाज उठे, हमें उसके स्वस्थता के लिए प्रयत्न करना चाहिए। 
लोकतन्त्र के इस दौर मंे हमने यह भी देखा कि व्यक्तिवाद के आधार और उसकी शक्ति का प्रयोग कर दल विभाजित हुये तथा उसी पुरानी शैली भूतकाल के महापुरूषों के नाम, विचार को मुख्य बिन्दु, भ्रष्टाचार मिटाने, रोजगार दिलाने इत्यादि का नारा देकर सिर्फ व्यक्तिगत प्रभाव का ही प्रयोग कर जनता को धर्म संकट में डालने का कार्य हुआ। और परिणाम शून्य मिला। ”बहुजन हिताय बहुजन सुखाय“ , ”एकात्म मानवतावाद“, ”वसुधैव कुटुम्बकम“, ”विश्व बन्धुत्व“, ”भूमण्डलीकरण“, ”धर्म निरपेक्ष“, ”सर्वधर्मसम्भाव“ शब्दो को सिर्फ कह देने से ही उसके अर्थ की स्थापना नहीं हो जाती वरन् इन सभी की स्थापना का पूर्ण व्यावहारिक सिद्धान्त होता है। जिसे बिना प्रस्तुत किये सभी दलों में कोई भेद नहीं, न ही वे समाज का वास्तविक हित ही कर सकता है। अर्थात वे सभी एक ही स्तर के हैं जो लोकतन्त्र के सिर्फ तन्त्र है लोक नहीं। ”लोक अर्थात ”जन“ अर्थात ”समाज“ का तन्त्र जो सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त अर्थात वर्तमान व्यवस्था प्रणाली के अनुसार विश्वमानक शून्य - मन की गुणवत्ता का विश्वमानक श्रंृखला है जिसे राष्ट्रीय शास्त्र या जन ऐजेण्डा या धर्मनिरपेक्ष धर्मशास्त्र या लोकतन्त्र धर्मशास्त्र-साहित्य ”विश्वशास्त्र“ के रूप मंे प्रस्तुत किया जा चुका है। 21 वीं सदी और सहस्त्राब्दि के लिए विश्व का माॅडल प्रस्तुत कर देने के बाद आपके ”शब्दो“ से कल्याण कर देने का तथा सिर्फ सदस्यता बनाकर राजनीति करने की शैेली पुरानी पड़ चुकी है। क्योकि अब ”सिद्धान्त और रचनात्मक कार्याे“ से जोड़कर राजनीति करने की सत्य शैली प्रारम्भ हो चुकी है। ध्यान रहे कि समय का मोड़ वहाँ पहुँच चुका है, जहाँ समाज और राष्ट्र के हित का रचनात्मक दर्शन प्रस्तुत करना और शब्दों के अलावा वास्तविक विकास कार्य करना राजनीतिक दलों की विवशता है।

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