नागरिको को आह्वान
प्रिय विश्व राष्ट्र के नागरिको, आप सभी को अब यह अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि इस धरती को स्वर्ग बनाने के लिए एक मात्र आप ही कारण हो। और इस कार्य में जो मनुष्यों के वश की बात नहीं थी उस कार्य को समयानुसार प्रकृति ने उपलब्ध करा दिया है। यह अन्तिम कार्य व्यक्ति, संत-महात्माओं-धर्माचार्यो, राजनेताओं और विद्वानों द्वारा क्यों असम्भव था, इसके सम्बन्ध में आपको बताना चाहता हूँ।
विज्ञान, धर्म, राज्य, समाज, परिवार और व्यक्ति के विश्व, भारत, अन्तर्राष्ट्रीय, राज्य, भारतीय समाज, भारतीय परिवार और भारतीय व्यक्ति स्तर पर व्यक्त सार्वजनिक प्रमाणित सिद्धान्तों अर्थात् परिणामों का प्रयोग करते हुए वर्तमान शासन प्रणाली की स्वस्थता सहित शासन प्रणाली के अनुसार वैश्विक एकता की स्थापना तथा मनुष्य जीवन के प्रत्येक विषय के वर्तमान तथा भविष्य के लिए व्यवहारिक स्वरुप को प्रदान करना मनुष्य के लिए चुनौती और ईश्वर के लिए शेष कार्य बन चुकी थी। जिसके निम्न कारण सार्वजनिक रुप से व्यक्त हो चुके थे।
1. व्यक्तिगत मन से युक्त व्यक्ति से यह कार्य इसलिए असम्भव था क्योंकि व्यक्ति संकीर्ण होकर स्वयं से बाहर नहीं निकल पा रहा था। जबकि सभी सार्वजनिक प्रमाणित परिणाम उसके समक्ष व्यक्त थे।
2. संयुक्त मन से युक्त व्यक्ति से यह कार्य इसलिए असम्भव था क्योंकि व्यक्ति स्वयं से बाहर निकलकर संयुक्त मन से युक्त अवश्य हो चुका था परन्तु सभी सार्वजनिक प्रमाणित परिणाम उसके सामने व्यक्त होने के बावजूद एक साथ उसकी दृष्टि में नहीं थे। सिर्फ वे ही सिद्धान्त उन सभी संयुक्त मन से युक्त व्यक्तियों के समक्ष अलग-अलग रुप से व्यक्त थे जिस विषय की ओर से विशेषीकृत होकर व्यक्ति संयुक्त मन में स्थापित हुआ था। अर्थात् जो अध्यात्म की ओर से आ रहा था वह अध्यात्म के परिणाम को तो जानता था परन्तु अन्य विषयों की ओर से व्यक्त परिणामों को नहीं जानता था। इसी प्रकार जो विज्ञान की ओर से आया था वह विज्ञान के परिणामों को तो जानता था परन्तु अध्यात्म की ओर के परिणामों को नहीं जानता था। यदि दोनों को जानता था तो अन्य के परिणामों को नहीं जानता था।
3. संत-महात्माओं-धर्माचार्यो से यह कार्य इसलिए असम्भव था क्योंकि उनकी स्थिति संयुक्त मन से युक्त व्यक्ति की स्थिति से भिन्न नहीं थी। उनकी मानसिक विकास की गति नीचे से उपर अर्थात् शाखा से जड़ की ओर होती है जबकि भगवान विष्णु के आठवें व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्णावतार श्रीकृष्ण ने यह स्पष्ट रुप से कहा था कि यह संसार उल्टे वृक्ष के समान है जिसका जड़ (मूल) ऊपर तथा शाखाएँ संसार में व्याप्त हैं। संत-महात्मा अपनी-अपनी परम्परा अनुसार अपने शाखा की ओर से मन की उच्चता द्वारा सिर्फ शाखा के मूल तक ही जाकर उसी को वृक्ष का मूल मान बैठते हैं। यदि वे वृक्ष के मूल तक पहुँचते तो संसार के सभी विषय में व्याप्त मूल की शाखायें उन्हें प्राप्त हो जाती। संत-महात्मा अपनी-अपनी परम्परा अनुसार शाखा से मूल की ओर गति में इतने बद्ध और सार्वजनिक रुप से व्यक्त हो जाते हैं कि उनका फिर वापस लौटना या ऐसे सत्य-विचार का समर्थन करना जो उनकी महत्ता को सीमित करता है, उनके आत्म-सम्मान या अहंकार पर आघात होता है। इस कारण यह कार्य सन्त-महात्माओं से भी होना असम्भव था। साथ ही विशेष वेशधारी होने के कारण भी सम्भव नहीं था क्योंकि समय अन्तिम अवतार के अवतरण के लिए निर्मित था और प्रत्येक पूर्णावतार विशेष वेशधारी नहीं बल्कि संसार के अनुसार अर्थात् कालानुसार सामान्य वेशधारी और कार्य मानवमात्र के लिए होता है और यदि यह कार्य संत-महात्मा पूर्ण ही करने में सक्षम होते तो अन्तिम अवतार के लिए कार्य ही शेष न रह जाता।
4. राजनेताओं से यह कार्य इसलिए पूर्ण होना असम्भव था क्यांेकि उनकी सीमा मात्र साम, दाम, दण्ड, भेद की रीति से सत्ता प्राप्ति तक ही थी। उनकी प्राथमिकता सत्ता होती है जनकल्याण नहीं, परिणामस्वरुप उनकी सम्पूर्ण बुद्धि शक्ति सत्ता प्राप्ति में ही खर्च होती थी। सत्ता प्राप्ति के बाद जन कल्याण के कार्य विवशता होती थी न कि कर्तव्य और दायित्व वश। उनकी समस्त नीति वर्तमान पर आधारित होती है न कि भविष्य की आवश्यकता पर। चाहें उनके लिये ही वह नीति क्यों न समय का निर्माण करती हो। परन्तु यह उनके समझ से परे का विषय होता है। परिणामस्वरुप उन्हें हमेशा अपने वक्तव्य बदलने व स्पष्ट करने पड़ते हैं।
5. विद्वानों के समूह द्वारा यह कार्य इसलिए असम्भव था क्यांेकि विद्वानों की दृष्टि अपने विषय की ओर से विद्वता सिद्ध करने पर थी न कि अपने विषय की ओर से सार्वजनिक प्रमाणित परिणामों को व्यक्त कर सकारात्मक, रचनात्मक और समन्वयात्मक दृष्टि पर। परिणामस्वरुप न तो परिणाम व्यक्त होता था न ही समन्वय की स्थापना ही। यदि सम्भव भी हो जाता तो विश्व स्तर पर अवतार, पुनर्जन्म, एकेश्वर, साकार ईश्वर, मूल मानव जाति जैसे अनेक विज्ञान आधारित विषय अप्रमाणित ही रह जाते क्योंकि ये सिर्फ एक शरीर द्वारा ही सिद्ध हो सकते हैं न कि शरीरों के समूह से।
उपरोक्त सार्वजनिक प्रमाणित कारणों से मनुष्य के समक्ष यह कार्य चुनौती के रुप में व्यक्त थी तो ईश्वर के लिए स्पष्ट रुप से कार्य के रुप में। मनुष्य के मानसिक विकास की गति व्यक्तिगत मन से युक्त व्यक्ति से, संयुक्त मन से युक्त व्यक्ति से, सत्य सहित संयुक्त मन से युक्त व्यक्ति की ओर होता है जबकि अवतारों की गति सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त सहित संयुक्त मन से युक्त शरीर की ओर से, संयुक्त मन से युक्त शरीर से, व्यक्तिगत मन से युक्त शरीर की ओर होता है। परिणामस्वरुप अवतारों के समक्ष पहले मूल फिर शाखाओं का स्वरुप व्यक्त होता है। मूल अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त तथा शाखा अर्थात् तन्त्र, और यहीं वृक्ष शास्त्र कहे जाते हैं। यह वृक्ष शास्त्र ही ”विश्वशास्त्र“ है।
यह विश्वशास्त्र - कितना छोटा और कितना बड़ा है, इसे जानना आवश्यक है।
1. कक्षा 8 तक की शिक्षा प्राप्त करने तक सभी विषयों को मिलाकर जिनते पृष्ठ पढ़ा जाता है, विश्वशास्त्र उससे छोटा है।
2. उच्च शिक्षा के किसी भी एक विषय के पाठ्य पुस्तक से विश्वशास्त्र छोटा है।
3. विश्वविद्य़ालय में किसी विषय पर किये गये 5 शोध-पत्रों से विश्वशास्त्र छोटा है।
4. किसी भी प्रतियोगी परीक्षा के लिए पढ़े गये पुस्तकों से विश्वशास्त्र छोटा है।
5. 5 उपन्यासों के कुल पृष्ठ से विश्वशास्त्र छोटा है।
6. किसी सबसे अधिक पढ़े जाने वाले हिन्दी समाचार पत्र के मात्र 15 दिनों के समाचार पत्र से विश्वशास्त्र छोटा है।
7. एक क्रिकेट टेस्ट मैच के दौरान क्रिकेट के सम्बन्ध में दूरदर्शन के चैनल पर किये गये कमेन्ट्री व वार्ता से निकले वाक्यों से विश्वशास्त्र छोटा है।
8. 10 फिल्मों के पटकथा से विश्वशास्त्र छोटा है।
9. किसी एक घोटाले के जाँच पर तैयार किये गये रिपोर्ट से विश्वशास्त्र छोटा है।
10. 4 औरतों को बिना किसी मुद्दे पर चर्चा के बात करने के लिए 1 सप्ताह एक साथ रखने पर निकले वार्ता से विश्वशास्त्र छोटा है।
11. एक सास-बहू या किसी दूरदर्शन धारावाहिक को देखने में जितना समय लगेगा, उससे कम समय में विश्वशास्त्र पढ़ा जा सकता है।
12. एक लड़की जिसका एक लड़का मित्र (ब्वाॅय फ्रेण्ड) हो, मोबाइल पर बात करने के लिए स्वतन्त्र कर दिया जाय तो वह 5 दिन में जितना बात करेगी, उसके मूल्य और निकले साहित्य से विश्वशास्त्र छोटा है।
13. निरक्षर के लिए इस शास्त्र का मूल्य शून्य है, साक्षर के लिए यह उपयोगी है, पशु-प्रवृत्तियों के लिए यह विश्वशास्त्र गोवर्धन पर्वत है, योगियों के लिए यह अँगुली पर उठाने योग्य है, धनिकों के लिए यह व्यर्थ है, नई पीढ़ीयों के लिए यह भविष्य निर्माता है, नेतृत्वकर्ताओं के लिए यह नेतृत्व की कला है, ज्ञान पिपासुओं के लिए यह मार्गदर्शक और उपलब्धि है।
14. काशी क्षेत्र का विश्वशास्त्र सत्य रूप है, उसकी संस्कृति है, उसका प्रतिनिधि शास्त्र है और उसका गौरव है।
15. भारत के लिए विश्वशास्त्र भारतीयता है तथा मानवता का चरम विकसित बिन्दु है। राष्ट्र के लिए राष्ट्रीयता है।
16. युग के लिए यह युग-परिवर्तक है, व्यवस्था के लिए यह व्यवस्था-सत्यीकरण है।
17. लोकतन्त्र के लिए यह पुष्टिकारक है, संविधान के लिए यह मार्गदर्शक है, विभिन्न शास्त्रों के बीच विश्वशास्त्र ही गुरू है और आत्मतत्व का दृश्य रूप है।
इस विश्वशास्त्र को आप सभी को समर्पित करने के बाद ईश्वर के पास कुछ भी शेष नहीं है और ईश्वर अपने कर्तव्य से मुक्त और मोक्ष को प्राप्त कर चुका है। निर्णय आपके हाथ में है कि आप ज्ञान-कर्मज्ञान का आस करेगें या समय का पास। यह पूर्णतः आप पर ही निर्भर हैै। केवल मन से युक्त होकर पशु मानव जीते है। संयुक्त मन से युक्त होकर जीना मानव का जीना है तथा सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से युक्त संयुक्त मन, ईश्वरीय मानव की अवस्था है। यह विश्वशास्त्र ही आपका अपना यथार्थ स्वरूप और आपका कल्याण कर्ता है इसलिए मैं आपका आह्वान करता हूँ कि अब आप मेरे ईश्वरीय समाज में आने के लिए स्वतन्त्र है जिसके लिए आपको कहीं आना-जाना नहीं है। आप जिस समाज, धर्म, सम्प्रदाय, मत इत्यादि में हैं, वहीं रहे। सिर्फ ”विश्वशास्त्र“ को पढ़े और पूर्णता को प्राप्त करें क्योंकि कोई भी विचारधारा चाहे उसकी उपयोगिता कालानुसार समाज को हो या न हो, यदि वह संगठन का रूप लेकर अपना आय स्वयं संचालित करने लगती है तो उसके साथ व्यक्ति जीवकोपार्जन, श्रद्धा व विश्वास से जुड़ता है न कि ज्ञान के लिए। पाँचवें युग-स्वर्णयुग और ईश्वरीय समाज में प्रवेश करने के लिए आप सभी को मैं लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ हृदय से आमंत्रित करता हूँ। साथ ही समस्त विश्व को ईश्वरीय समाज में प्रवेश कराने हेतू 1. पूर्ण शिक्षा का अधिकार 2. राष्ट्रीय शास्त्र 3. नागरिक मन निर्माण का मानक 4. सार्वजनिक प्रमाणित सत्य-सिद्धान्त 5. गणराज्य का सत्य रूप के लिए सर्वोच्च न्यायालय में अधिक से अधिक जनहित याचिका करने का आह्वान करता हूँ।
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