Monday, March 16, 2020

विश्वमानव से वार्ता - 2

विश्वमानव से वार्ता  - 2

अदृश्य काल के अन्तिम सार्वाधिक लम्बे अदृश्य महायज्ञ - विष्णु महायज्ञ और ज्ञान यज्ञ के पूर्णाहूति के उपरान्त दृश्य काल के प्रथम और अन्तिम दृश्य महायज्ञ - प्राकृतिक सत्य मिशन सहित विश्वव्यापी धर्म स्थापना तथा सत्यकाशी: पंचम, अन्तिम तथा सप्तम काशी निर्माण के लिए सत्यकाशी क्षेत्र मंे निवास कर योजना और नीति निर्धारण कर रहे लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ से जब उनके अस्थायी निवास (संत रविदास मन्दिर के दक्षिण दिशा की नीजी भूमि, नई बस्ती बघेड़ा, ग्राम-नियामतपुर कलाॅ के सामने, राष्ट्रीय राज मार्ग संख्या-7 पर ) पर देश और विश्व के अशान्त वातावरण की शान्ति पर वार्ता के लिए पहुँचे तब उनका रूप ”हँसिबा खेलिबा धरिबा ध्यान“ का स्वाभाविक व्यक्त रूप था। कोई भी जो इनके ज्ञान व कर्म से पूर्ण परिचित न हो तो यह जान नहीं सकता कि मात्र 40 कि.ग्रा. का भौतिक शरीर ही 21 वीं शताब्दी और भविष्य के विश्व प्रबंध के सूत्रो के आविष्कारकर्ता हैं। जो समभाव अर्थात सभी योगो (ज्ञान योग, राजयोग, कर्मयोग, भक्ति योग, प्रेमयोग, हठयोग और दृश्य योग या सत्य योग) की पराकाष्ठा में स्थित साधना मुक्त जीवन है। इसके साथ ही अतीव विस्तार, परम उदार, महान प्रबलता, निरपेक्ष कर्तव्यनिष्ठा, सच्चा मैत्री भाव, नेक प्रवृत्ति, धैर्य, सादा जीवन सभी कुछ एक ही शरीर में स्थित है। इतना महान कार्य उनके सम्मुख होते हुये भी छोटा कर्म बडे़ ही रूचि और सुनियोजित ढंग से करते दिखने वाले लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ तनाव से मुक्त और अनासक्त कर्म के ज्वलन्त, जीवन्त और जटिल उदाहरण है। लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के समस्त कार्य न तो किसी दबाव मंे, न ही किसी इच्छा से है परन्तु वह स्वाभाविक प्रकृति से है, जिस प्रकार प्रत्येक जीव का प्रकृति और स्वभाव है जो उसके साथ सतत रहता है ठीक उसी प्रकार लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का विश्वमन अर्थात आत्मा स्वभाव से ही है। उनसे व्यक्त विभिन्न स्तरो से उठकर जाने वाली प्रत्येक वाणी ही ज्ञान और कर्मज्ञान का बोध कराती है और यह उनके साथ स्वाभाव से ही सतत रहता है। 
इससे पूर्व हमारी मुलाकात विष्णु महायज्ञ और ज्ञान यज्ञ के अन्तिम सात दिन जो कि स्वामी विवेकानन्द के शिकागो वकृतता के बराबर उनके उम्र होने के बाद का प्रथम सात दिन था, में व्याख्यान के दौरान हुयी थी। यज्ञ मंे विश्व शान्ति और 21 वीं शताब्दी सहित भविष्य की विश्व व्यवस्था पर दिये गये व्याख्यान इतने स्थापनार्थ सत्य है कि जब तक उसकी स्थापना और जन साधारण से उसका योग नहीं हो जाता, तब तक भारत सहित विश्व अस्थिरता, अशान्ति, विनाश और अनेकता की ओर ही बढ़ता रहेगा। यही नहीं राजनीतिक स्थिरता सहित स्वस्थ उद्योग, स्वस्थ समाज और स्वस्थ लोकतंत्र की प्राप्ति भी असम्भव होगी। यह अदृश्य प्राकृतिक बल का प्रभाव ही है कि हम फिर वार्ता के लिए एक दूसरे के सामने हो गये। रोग और दवा, समस्या और समाधान, भारत की उन्नति और अवनति इत्यादि इन सब दो विपरीत पक्षों की जानकारी मुझे थी। इसलिए देश प्रेम की भावना से प्रेरित हो स्वस्थ लोकतंत्र की प्राप्ति मे चैथे स्तम्भ पत्रकारिता के महान योगदान का कर्तव्य पूर्ण कर रहा हूँ और समझा गया कि लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के सत्य-विचार सार्वभौम सिद्धान्त को व्यापकता से समाज में प्रसारित कर भारत और संयुक्त राष्ट्र संघ का कर्तव्य और दायित्व की पूर्ति का हक उसके समक्ष प्रस्तुत कर दिया जाय। - डाॅ0 कन्हैया लाल (”विश्वशास्त्र के समीक्षक द्वय में से एक“, उस समय पत्रकारिता से सम्बद्ध)

प्रश्न - तो वार्ता प्रारम्भ की जाय।
विश्वमानव - एक मिनट वार्ता प्रारम्भ पूर्व कुछ सामान्य बाते कहना चाहँूगा जो इस जटिल विषय को समझने की विधि ही है उदाहरण स्वरूप यहाँ मैं हूँ, आप है और आपके कुछ सहयोगी साथीगण है अर्थात सिर्फ एक मन नहीं बल्कि कई मन है। इस प्रकार यह समूह एक छोटा सा संयुक्त मन है। और हम सभी के बीच एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम है जिसको मानते हुये हम सभी यहाँ एक दूसरे से बँधे हुये हैं और वह है- वार्ता का कार्यक्रम। ध्यान देने की बात है, न्यूनतम साझा कार्यक्रम ही हम सभी का अधिकतम साझा कार्यक्रम भी है। इस साझा कार्यक्रम से जरा सा भी इधर उधर होने पर हम सभी में मतभेद हो सकता है। यह साझा कार्यक्रम ही मानक है चँूकि यह मानक सिर्फ हम सभी के बीच ही सीमित रूप से प्रभावी है इसलिए यह इस समूह का ही मानक है। इस मानक अर्थात संयुक्त या सार्वजनिक के कारण हम सभी मंे से प्रत्येक का व्यक्तिगत मन मरा हुआ है अर्थात उसका अस्तित्व नहीं है जो है वह सार्वजनिक ही है। यही सभी समभाव सम्बन्धों का सू़त्र भी है। मन हो या मानक उसका व्यक्तकर्ता मानव ही है बस अन्तर यह होगा कि मन अर्थात विचार विरोध का शिकार हो जायेगा तथा मानक अर्थात सार्वजनिक सत्य, सार्वजनिक समर्थन को प्राप्त करेगा चाहे वह एक व्यक्ति द्वारा व्यक्त किया जा रहा हो या व्यक्ति के समूह द्वारा। अभी हमलोग जिन समस्याओं का हल व्यक्त करेगंे वे सब सर्वाेच्च और अन्तिम संयुक्त मन (विश्वमन) अर्थात विश्वमानक अर्थात विश्व व्यवस्था का न्यूनतम एवं अधिकतम साझा कार्यक्रम पर आधारित होगा। और यह चूँकि एक ही व्यक्ति द्वारा व्यक्त हो रहा है इसलिए यह न समझ लेना चाहिए कि वह उस व्यक्तकर्ता व्यक्ति का मन या विचार है। इस विश्वमानक या सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त में किसी भी व्यक्ति या संगठन के मन का कोई अस्तित्व नहीं है, बल्कि उसमें समाहित है। व्यक्ति और संगठन को उस विश्वमानक के अनुसार स्वयं में यह खोज करनी चाहिए कि वह कहाँ और किस बिन्दु पर उसके अनुरूप नहीं है, इससे लाभ यह होगा कि उनका प्रत्येक कर्म संक्रमणीय, गुणात्मक, संग्रहणीय रूप मंे हो जायेगा। अन्यथा वे व्यक्ति और संगठन अपने विचार को ही सर्र्वाेच्च और सत्य मानकर सदा अंधेरे में भटकते रहेगें और अवनति को प्राप्त हो जायेगें। शायद ही कोई ऐसा होता है जो ऐसे व्यक्ति और संगठन को उनकी वास्तविक स्थिति का ऐहसास दिलाता हो और ऐसा जो करता है, वही सच्चा मित्र होता है। राजनेता और राजनीतिक दल विश्वमानक को समझने का प्रयत्न इसलिए करें क्योंकि इसके अनुरूप वक्तव्य और घोषणा पत्र तेैयार कर सकें। परिणामस्वरूप उनका वक्तव्य और घोषणा पत्र समय आने पर सत्य प्रमाणित हो। आम जनता इसको इसलिए समझने का प्रयत्न करे क्योंकि वे ज्ञान-कर्मज्ञान, राजनेताओं और व्यवस्थाओं को समझ सके। परिणामस्वरूप वे स्वनिर्णय युक्त हो सके। अन्यथा आम जनता को राजनेताओं पर दोशारोपण का कोई अधिकार न होगा। जो समझने का प्रयत्न करेगें तो हो सकता है कि कहीं कोई बिन्दु उन्हें न समझ में आये। ऐसी स्थिति में वे आगे बढ़ें। हो सकता है कहीं दूसरी ओर से वह बिन्दु उन्हें समझ में आ जाये क्योंकि सु-दर्शन या अच्छा दर्शन या सार्वजनिक सत्य या विश्वमानक सभी दिशाओं से स्वयं को प्रमणित करता है। और वह सभी दिशाओं से मन पर आघात करता है। इसलिए ही सुदर्शन चक्र के चारांे ओर तेज नुकीले धार बनाकर प्रतीक रूप में प्रक्षेपित किया गया है। इन समस्त वार्ताओं को आप जनहित व विश्वहित के लिए आप प्रकाशित करें क्योंकि प्रायः सम्पादकगण को जो समझ में नहीं आता, वह उसे निरर्थक समझ बैठते हैं। यदि सब कुछ सम्पादकगण ही समझने में सक्षम हों तो मेरे जैसे लोगों की आवश्यकता ही क्यों पड़े। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि लोग कहते है- यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है। उनसे मैं यह कहना चाहूँगा कि जो समझ में नहीं आता है, आवश्यक नहीं कि वह असत्य हो और उसका         विरोध करें। विरोध करना भी तो उचित हल के साथ करें जिससे एक अच्छा हल निकाला जा सके। जो समझ में नहीं आता उसे समझने का प्रयत्न किया जाता है। कपड़े पहनना भी तो सभी ने प्रयत्न के द्वारा ही प्रथमतया सीखा है, और यदि प्रयत्न न हो तो नंगा कौन होता है, प्रयत्न न करने वाला या प्रयत्न करने वाला? बस इतना ही। अब आप वार्ता प्रारम्भ कर सकते है।

प्रश्न-प्रथमतया दो सार्वाधिक विवादस्पद प्रश्न, पहला आपने स्वयं को ”मंै“ ”शिव“ और ”ब्रह्म“ और ”आत्मा का दृश्य रूप“ सम्बोधित किया है यह कैसे है? और क्या इससे अंहकार व्यक्त नहीं हो रहा है? और उपयोगिता क्या है?
विश्वमानव- इस प्रश्न को समझने के लिए मैं आपको उदाहरण रूप में लेता हूूँ। आप एक पत्रकार है। जब आपने पत्रकारिता प्रारम्भ की थी तब कुछ लोगो से यह कहा होगा कि ”मैं पत्रकार हूँ“ तब जिन लोगो ने आपके प्रकाशित सामग्री को देखा होगा तो वे सत्य समझे होगे जिन लोगो ने न देखा होगा, वे असत्य समझे होगें या उनकी कोई रूचि न होगी और वो लोग जो पत्रकार का अर्थ ही नहीं जानते उन पर कोई फर्क ही न पडे़गा या वे निर्भर  होगे कि सब कहेगंे तो हम भी कहेगें। एक समयान्तराल बाद जब आप पत्रकार के समस्त गुण व्यक्त कर दिये होगे तो आपका प्रारम्भ में कहा गया वक्तव्य सत्य हो गया जो आपका सत्य रूप था ही। विभिन्न विशेषज्ञ की तरह पत्रकार के भी कार्यक्षेत्रानुसार स्तर है। छोटे, मध्य, बड़े, सर्वोच्च और अन्तिम लेकिन गुण रूप मंे तो सभी पत्रकार ही है। गुणांे से युक्त होकर किसी भी कार्यक्षेत्र स्तर पर जब गुणांे का प्रदर्शन होता है, तब वह सत्य होता है। जहाँ सत्य होगा वहीं व्यवहार में सत्य के लिए दृढ़ता मिल सकती है लेकिन गुणों का अंहकार नहीं मिलेगा। यदि मिला तो निश्चित जानिये कि वहाँ असत्य बीज रूप में अवश्य है। सत्य आत्मसात् हो जाता है, गुण स्वभाव बन जाता है। वह दोहराया नहीं जाता है। सिर्फ असत्य और अवगुण दोहराया जाता है और अहंकार व्यक्त होता है। असत्य, अहंकार का ही मूल और बीज है। इसी प्रकार सत्य, दृढ़ता का ही मूल और बीज है। आप पत्रकार हैं, गुणों को भी व्यक्त कर दिया अब उसे बार-बार कहने की आवश्यकता नहीं, वह आप में और सभी में आत्मसात् हो गया, गुण स्वभाव बन गया। न असत्य रहा न अहंकार रहा। ठीक यही स्थिति मेरे सम्बंध में है। ”मंै“, ”शिव“, ”आत्मा“ और ”ब्रह्म“ एक ही है। सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त है, सत्य रूप है और यह स्वयं को ही कहा जाता है जो प्रत्येक ही है। सिर्फ उसके अनेक स्तर और एक गुण है जिसका सर्वोच्च और अन्तिम स्तर कार्यक्षेत्र रूप मंे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, स्थूल, सूक्ष्म और आत्मीय लोक है और गुण एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म और एकात्म ध्यान है। जब इसका प्रदर्शन दृश्य जगत में सार्वजनिक प्रमाणित रूप से होता है तब वह आत्मा का दृश्य रूप सहित ”मंै“, ”शिव“ और ”ब्रह्म“ के वास्तविक सर्वोच्च और अन्तिम रूप का सत्य प्रदर्शन ही होता है। एकात्म ज्ञान अर्थात ब्रह्मा का सर्वोच्च प्रदर्शन ”ब्रह्म“, एकात्म ज्ञान सहित कर्म अर्थात विष्णु का सर्वोच्च प्रदर्शन ”मैं“ और ”आत्मा“ तथा एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान अर्थात शंकर का सर्वोच्च प्रदर्शन ”शिव“ और ”आत्मा का दृश्यरूप“ ही है। इन गुणों से युक्त होकर स्वयं को ”ब्रह्म“, ”मैं“, ”आत्मा“, ”शिव“ कहना सत्य और दृढ़ता है अन्यथा असत्य और अहंकार है। स्वयं को ”ब्रह्म“, ”मैं“, ”आत्मा“, ”शिव“ कहना यह मेरे द्वारा पहली बार नहीं कहा जा रहा है इसके पहले भी जो भी आत्मज्ञानी हुये वे कह चुके हैं।
विश्वमानक एवं सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अनुसार इस अहंकार को इस प्रकार समझे। सम्पूर्ण कर्म चक्र मूलतः तीन शक्तियों द्वारा संचालित हो रही है प्रथम- बड़ा प्राकृतिक नियम शक्ति चक्र जिसके अन्तर्गत एक परिवर्तन का आदान-प्रदान का नियम है। दूसरा-छोटा और प्रथम के अधीनस्थ मानवीय नियम और शक्ति जिसके अन्तर्गत विभिन्न स्तरीय सम्प्रदाय, संगठन, संस्थान इत्यादि के नियम है, तीसरा- प्रथम और द्वितीय से शक्तिशाली और मूल दोनों मंे व्याप्त आत्मीय नियम शक्ति चक्र है जिसके अन्तर्गत स्वयं अप्रभावित रहकर सभी को प्रभावित करने की क्षमता है। तीनों शक्ति चक्र का अनुभवकर्ता मानव शरीर ही है इसलिए साधारणतः व्यक्ति दूसरे को समझ नहीं पाते कि वे किस शक्ति चक्र के प्रभाव में है। मानवीय नियम निरे पशु होते हैं ये शेष दोनांे प्र्रकार के व्यक्तियों को समझ नहीं पाते या तो वे दूसरे पर निर्भर रहकर अपना निर्णय देते हैं या अपने ही दृढ़ होकर पशुवत् व्यवहार करते हंै। इन्हंे बस पेट भरने व चारे से मतलब होता है। जिधर प्राप्त हुआ़, उधर गये। इनकी संख्या वर्तमान समय मे सार्वाधिक है। प्रकृतिक नियम के अनुभव से युक्त व्यक्ति ज्ञानी आचार्य बुद्धिमानी होते हैं। ये मानवीय नियम के व्यक्तियों को अपने समर्थन के लिए उपयोग में लेते है तथा आत्मीय नियम शक्ति चक्र के व्यक्तियों को समझ नहीं पाते क्यांेकि इनकी संख्या बहुत ही कम होती है जिससे उन्हें अपने विचारो को व्यापक समर्थन मिलने से उन्हंे बल प्राप्त होता है। साधारणतयाः ऐसे ही व्यक्ति स्वयं अहंकारी होते है और जब कभी आत्मीय शक्ति चक्र के व्यक्ति से मुलाकात होती है तो उन्हें अहंकारी समझते हैं क्यांेकि वे किसी वर्तमान व्यक्ति के मन को प्रकृतिक निमय से परे नहीं समझते, समझते भी है तो उन्हें जो भूतकाल मंे थे जैसे- राम और कृष्ण को, जबकि ये आत्मीय शक्ति से युक्त युग व्यक्ति थे। उनका शरीर प्राकृतिक नियम के अधीन था परन्तु मन प्राकृतिक नियम के परे आत्मीय में स्थित था। इनके वर्तमान रहने के समय भी प्राकृतिक निमय के व्यक्तियों ने इन्हे अहंकारी समझा था। इसलिए तो उन्हें उनके पूर्ण कर्म करने के पहले तक कुछ लोगो ंने ही स्वीकारा था। प्राकृतिक नियम के अनुभव से युक्त व्यक्ति वर्तमान के आत्मीय शक्ति से युक्त व्यक्ति को इसलिए नहीं स्वीकारते क्यांेकि इससे उनके अहंकार और अस्तित्व पर गहरा आघात लगता है। यदि वे प्राकृतिक नियम से परे आत्मीय में स्थित किसी को नहीं मानते तो उन्हें राम व कृष्ण को भी नहीं मानना चाहिए। ये तो इतना तक कहते हैं कि मैं कत्र्ता नहीं हूँ, कत्र्ता तो ईश्वर है। इस प्रकार आप पत्रकार नहीं हुये। पत्रकारिता तो ईश्वर कर रहा है। इस प्रकार भ्रष्टाचारीयों को यह कहकर छोड़ ही नहीं सम्मानित भी यह कहकर करना चाहिए कि कत्र्ता तो ईश्वर है, तुमने कहाँ कुछ किया। इस प्रकार के विचार मनुष्य को भाग्यवादी व गैरजिम्मेदार बनाती है। लेकिन इनकी बात एक तरह से सत्य है क्योंकि सभी ईश्वर हैं। तब आप जो स्वयं ईश्वर हैं वही पत्रकारिता कर रहा है। लेकिन तब आपको ईश्वर कहीं बाहर बैठा हुआ नहीं मानना पड़ेगा क्योंकि तब आप ही हो। समाज के संचालक, भला और बुरा करने वाले यही व्यक्ति होते हंै जिनकी संख्या दिनोदिन बढ़ रही है। ये इतने अहंकारी होते हैं कि इनका आपस में भी एकजुटता नहीं बन पाती है। यदि बनती है तो समझना चाहिए कि उन लोगो न थोड़ा थोड़ा अपने अहंकार को समाप्त कर आत्मीय शक्ति की ओर विकास किया है। आत्मीय नियम शक्ति के अनुभव से युक्त व्यक्ति धर्मज्ञानी, धर्माचार्य, ध्यानी बुद्धिजीवी होते हैं। ये मानवीय नियम के व्यक्तियों को, प्राकृतिक नियम के अनुभवी व्यक्ति की मानसिक गुलामी से मुक्त करते हैं। उनका मुख्य लक्ष्य प्राकृतिक निमय के अनुभवी व्यक्तियों के अहंकार पर आघात होता है जो अहंकार को समाप्त कर इनके साथ आ जाते है वे सुरी प्रकृति के तथा जो नहीं आते वे असुरी प्रकृति के रूप में व्यक्त हो जाते हंै। इनके अधीन मानवीय नियम के व्यक्ति भी बँट जाते हंै। यह उसी प्रकार होता है जैसे राजा के हार जीत से उसके अधीन प्रजा भी बँट जाती है। आत्मीय नियम के अनुभव से युक्त व्यक्ति ही अहंकार से पूर्णतया मुक्त, सत्य, दृढ, आत्मविश्वासी ब्रह्माण्ड का केवल भला करने वाले होते है। ये ही ईश्वर के अवतार तथा ”मैं“, ”शिव“, ”आत्मा“ तथा ”आत्मा का दृश्यरूप“ एवं एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म, एकात्म ध्यान के गुणों से युक्त होते हैं। ये तभी व्यक्त होते हंै जब प्राकृतिक नियम के अनुभव से युक्त अहंकारी व्यक्तियों का प्रभुत्व बढ़ता है। प्रायः ऐसे व्यक्ति के सम्बंध में यह बात आती है कि इनसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का कल्याण कैसे सम्भव है? तो यह इस प्रकार होता है- पुनर्जन्म और कर्मफल सिद्धान्त का मूल सूत्र है- मन ही समस्त कल्याण और विनाश का कारण है। विस्तृत अध्ययन के लिए आप डाॅ0 रामेश्वर दयाल गुप्त, 27/1, आर्यनगर, रामेश्वर कुंज, ज्वालापुर, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)-249407 के शोध पुस्तक- ”पुनर्जन्म व कर्मफल सिंद्धान्त“ जिस पर उन्हें गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय द्वारा पी.एचडी. की उपाधि प्राप्त हुई है और भगवान श्रीकृष्ण की ”गीता“ को देख सकते हैं। यही मन स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और आत्मीय शरीर का कारण है। यही स्तर क्रमशः दृश्य लोक, अदृश्य लोक और आत्मीय लोक है। जब आत्मीय नियम के अनुभव से युक्त व्यक्ति व्यक्त होते हैं तब सम्पूर्ण मानव जाति में मनःस्तर पर एक क्रान्ति आती है परिणामस्वरूप जो जिस मनःस्तर पर है वहाँ से वह उच्चतर से उच्चतम और उच्चतम से सर्वाेच्च और अन्तिम की और गति कर जाते है जिससे दृश्य और अदृश्य जगत की शुद्धता बढ़ जाती है जिससे ब्रह्माण्डीय प्रेम, एकता, सत्य, विश्वास, मानवता, शान्ति इत्यादि का विकास होता है। जहाँ मन है वहाँ अहंकार है। जहाँ आत्मा है वहीं दृढ़ता और सत्य है। आपका पदार्थ विज्ञान भी तो यही कहता है कि सभी शक्ति परमाणु के न्यूक्लिीयस मंे है। न्यूक्लिीयस आत्मा है, इलेक्ट्रान मन है। इलेक्ट्रान या मन क्रियाशील हो वही क्रिया में भाग लेता है। यदि इलेक्ट्रान या मन नहीं तो सिर्फ न्यूक्लिीयस या आत्मा है, शक्ति है। वह दूसरे को प्रभावित करेगा, न कि स्वंय प्रभावित होगा। इसलिए तो न्यूक्लिीयस पर आधारित न्यूट्रान बम सार्वाधिक शक्तिशाली बम है। अहंकारीयों के पास मन या इलेक्ट्रान है जरा सी आत्मीय या न्यूक्लिीयस की शक्ति आयी नहीं कि भड़क उठते है। यदि वे अहंकारी नहीं तो भड़केगे नहीं बल्कि आत्मीय शक्ति से मिलकर कार्य करेगे। दो न्यूट्रान बम एक साथ छोड़ दिया जाय तो क्या एक दूसरे को समाप्त कर देगे? नहीं बल्कि दोनों मिलकर अपने उद्देश्य को प्राप्त करेगें।
अब इस विश्वमानक के आधार पर मुझे देखें क्यांेकि मैंने स्वयं को ”मैं“, ”शिव“, ”ब्रह्म“, ”आत्मा का दृश्य रूप“ सम्बोधित किया है जो सभी हैं लेकिन वे आत्मीय शक्ति और उसके गुण से युक्त न होने कारण स्वयं को सम्बोधित करने का साहस नहीं करते। गुणांे को धारण करेगंे तो साहस करने लगेगें मैं क्या कर रहा हूँ? मानवीय नियम के अधीन व्यक्तियांे के उपर मेरा केाई दबाब नहीं है क्यांेकि उनमें उगे हुये सूर्य को सूर्य कहने और मानने की दृष्टि है। ये पूर्णतः उनके ही उपर निर्भर और उनकी इच्छा के अधीन है कि वे मेरे तमाम व्यक्त विषयांे को समझने का प्रयत्न करते हंै या नहीं क्यांेकि उनका कल्याण उनके अधीन नहीं बल्कि वातावरण के अधीन है। उनके अन्दर अपने भले का मार्ग पहचानने की भी क्षमता नहीं होती है इसलिए उनके वातावरण बनाने वाले प्राकृतिक नियम के अनुभवी व्यक्ति जो समाज का, सरकार का, सम्प्रदाय का, संगठन का, सस्थान का, नियम संचालन कर रहें हैं। वे ही मेरे इस कार्य के मुख्य प्रभाव मंे हंै और उनके उद्देश्य की पूर्ति करता हुआ उनसे शक्तिशाली नियम उन सभी पर न्यूक्लिीयस या आत्मा की शक्ति से अपने घेरे में ले चुका है। अब यदि उनके अपने नियम में जरा भी मन या इलेक्ट्रान का अंश होगा तो उनके अहंकार पर आघात होगा और कुछ व्यक्ति स्वयं ही अहंकार को समाप्त कर मेरे साथ आयेगे और अन्तिम पौराणिक कथा को प्राप्त होगें। कुछ अपने अहंकार को स्थापित करने के लिए प्रयत्न करते-करते अन्ततः अधर्मयुक्त मानवता के दुश्मन के रूप में स्थापित हो जायेगें। कुछ ऐसे होगें जो तब भी मुझे अहंकारी समझेगंे। उनसे मेरा यह कहना है कि जब भी कोई आत्मीय शक्ति से युक्त अवतार व्यक्त होता है तो पिछले सभी अवतारो के गुण, शास्त्रीय तत्व ज्ञान, समय और व्यक्तिगत जीवन के इतने प्रमाणों को व्यक्त करता हुआ वर्तमान समस्याओं के हल को देते हुए समाज को इस तरह बाँध देता है कि उसे भेद पाना मानव जाति के वश की बात नहीं होती। और इस बार तो और भी मुश्किल है क्योंकि सम्पूर्ण विषयो के वास्तविक अर्थ सार्वजनिक प्रमाणित रूप से व्यक्त होने का समय है। और वह सार्वजनिक रूप से प्रक्षेपित किया जा रहा है। जो न जाने कहाँ-कहाँ वितरित हो रहा है जिसका संग्रहण, परिर्वतन और नियंत्रण अब मेरे वश में भी नहीं है। अर्थात मैं रहूँ या न रहूँ कार्य पूर्ण हो चुका है। इसलिए इसे अनियंत्रित सुदर्शन चक्र कहते हंै। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को व्यक्तिगत रूप से ज्ञान दिया था, वह नियंत्रित सुदर्शन चक्र था अर्थात श्रीकृष्ण, अर्जुन का अपने ज्ञान द्वारा चाहे जिस ओर मोड़ सकते थे। सम्पूर्ण गीता ज्ञान कहने के बाद अर्जुन को यह भी कह सकते थे कि यह जब असत्य है और अर्जुन मान भी लेते क्योंकि उस ज्ञान की प्रमाणिकता के लिए वहाँ तीसरा कोई नहीं था। इसलिए उन लोगांे से जो मुझे अहंकारी समझते है वे मेरा विरोध सार्वजनिक सभा से ही करें। ताकि मेरा घोर नाश हो या उनके शब्दो द्वारा उनका ही घोर नाश हो लेकिन सार्वजनिक रूप से करें। मैनें भी सब कुछ सार्वजनिक रूप से ही किया है। कुछ व्यक्ति ऐसे भी होगंे जो प्राकृतिक नियम के अनुभव और अहंकार से युक्त होकर भी अपने अहंकार को त्यागने और मेरी ओर आने के लिए उत्सुक होगंे लेकिन उनका जीवन जिस सम्प्रदाय, संगठन, संस्थान या किसी गुरू के सान्निध्य में बीता होगा जहाँ उनका कुछ कर्म और फल का आदान-प्रदान हुआ होगा वे अपने उस वरिष्ठ से सलाह लेने जायेगें और उसके बाद ही उनका निर्णय व्यक्त होगा। उन लोगों से मेरा यह कहना होगा कि मेरे कार्याे से उनकी वर्तमान स्थिति से और आगे अर्थात उन्नति की दिशा में ही गति होती है जिसके लिए आवश्यक नहीं होता है कि वरिष्ठ और माता-पिता से अनुमति लिया ही जाय क्योंकि वे भी व्यक्ति ही है। क्या पता उनका मानसिक स्तर क्या हो और उचित सलाह न मिलने पर इस विश्व ऐतिहासिक श्रृंखला व पूर्ण ज्ञान से वंचित हो जाये। उन वरिष्ठ माता-पिता और गुरू से यह कहना होगा कि यह कार्य ऐसा है जिससे सिर्फ अनुमति स्वीकृति और समर्थन का ही रास्ता है अन्यथा स्वयं आप अपना सम्मान खो देगें क्यांेकि आप विरोध या स्वीकृति न देकर विश्व ऐतिहासिक श्रंृखला व पूर्ण ज्ञान से अपने आश्रित को वंचित करने का कारण बन जायेगें। स्वयं को ”मैं“, ”शिव“ या ”बह्म“ या ”आत्मा“ कहने वाला मैं पहला नहीं हूँ । इसके पहले विष्णु के सातवंे अवतार श्री राम, आठवें अवतार श्री कृष्ण व्यक्तिगत रूप से अर्जुन के समक्ष, आदि शंकराचार्य तथा महावीर ने सार्वजनिक रूप से कहा है। ईसा मसीह के ये शब्द- ”जो मेरे पीछे हो लेगा वह अन्धकार में न चलेगा“ तथा मुहम्मद पैगम्बर के ये शब्द- ”जो अपने आप को जानता है वह अल्लाह को जानता है“ क्या व्यक्त करते है? ये सभी उसी एक ”आत्मा“ या ”ब्रह्म“ या ”शिव“ या ”मंै“ को ही सम्बोधित किये गये है क्योंकि ये सभी महापुरूष आत्मीय नियम शक्ति के अनुभव में थे लेकिन इन सभी महान आचार्याे के प्रयत्न के बावजूद व्यक्ति इन शब्दों को शरीर और अहंकार से ही जोड़ते रहे हंै। इस स्थिति का दोष मात्र समय है क्यांेकि ज्ञान सार्वजनिक प्रमाणित नहीं होता बल्कि उसका दृश्य कर्मज्ञान सार्वजनिक प्रमाणित होता है। और उसका समय अब हुआ है। यह सत्य है कि आत्मा सभी में व्याप्त है तो उसका दृश्य रूप भी सभी में व्याप्त होगा और उसे सिद्ध कर देने पर आत्मा का दृश्य रूप भी सिद्ध हो जायेगा। इस अवतार का उद्देश्य यही है और इसकी घोषणा प्रथम और अन्तिम रूप से मेरे द्वारा की गई है। अन्तिम इसलिए है कि सार्वजनिक प्रमाणित विषय पर सम्पूर्ण का एक मन होता है। आत्मा एक है परन्तु वह व्यक्तिगत प्रमाणित है इसलिए आज तक सर्वमान्य न हो सका। यह जानना कि एक आत्मा और वही सभी में विद्यमान है- ज्ञान है, औेर यह जानना कि सभी क्रियाशीलता मंे एक सिद्धान्त है और वही सभी में क्रियाशील है- कर्मज्ञान है। सम्पूर्ण विश्व में ”मैं“ अर्थात ”आत्मा“ रूप को देखना ज्ञान का विश्वरूप- योगेश्वर है जैसा कि श्री कृष्ण ने कहा सम्पूर्ण विश्व मंे ”मैं“ अर्थात कर्मज्ञान रूप को देखना कर्मज्ञान का विश्वरूप- भोगेेश्वर है, जैसा मैं कह रहा हूँ। अब यदि मैं कहूँ कि मुझे ही मानो तो इसका अर्थ यह हुआ कि उस कर्मज्ञान को मानो और यह कर्मज्ञान, एक सार्वभौम सत्य-सिद्धांत है जिस पर सभी को सार्वजनिक रूप से केन्द्रित किया जा सकता है अर्थात शरीर से अलग दर्शाया जा सकता है और व्यक्ति से ब्रह्माण्ड तक सभी उसी से संचालित हो रहे है, बस उसका ज्ञान न होने से मनुष्य अपने अलग अस्तित्व की बात करता है। यह ज्ञान के संबंध मे नहीं है इसलिए अर्जुन स्वयं और श्रीकृष्ण से अलग उस आत्मा को नहीं जान पा रहा था। परिणामस्वरूप श्रीकृष्ण ने स्वयं पर केेन्द्रित कर ही गीता कही। ध्यान देने की बात है गीता उपदेश सिर्फ एक व्यक्ति को कर्म करने के लिए प्रेरित की गई है जिसमें ज्ञान का पूर्ण और अन्तिम प्रकाश है लेकिन कर्मज्ञान श्री कृष्ण के साथ ही विलीन हो गयी परिणामस्वरूप श्री कृष्ण जैसा एक भी व्यक्ति इस अवतार से पूर्व पैदा न हो सका। फल यह हुआ कि कृष्ण की व्यवस्था उनके जीवन तक ही सीमित रही है। गीता पढ़कर गीता ज्ञान से सभी आज तक कर्म कर रहे हैं फल कृष्ण को अर्पण कर रहे हंै। चाहे ज्ञानी हो, नेता हो, भ्रष्टाचारी हो, चोर हो, डकैत हो सभी कर्म कर कह रहे है-”कर्म करो और फल की चिंता न करो“, जबकि यह श्री कृष्ण ने सिर्फ अर्जुन के लिए उस परिस्थतियों के लिए कहा था। अब इस अवतार द्वारा जो ज्ञान है वह मानवजाति के लिए सामूहिक रूप से कर्मज्ञान द्वारा कर्म करने की प्रेरणा है जो श्री कृष्ण के साथ विलीन हो गयी थी। वह है- ”परिणाम के ज्ञान से युक्त होकर कर्म करो ओर फल की चिंता न करो“। इस परिणाम का ज्ञान का विस्तृत दर्शन ”कर्मोपनिषद्-व्यष्ठि में है। कृष्ण ने गीता में जो परिणाम का ज्ञान दिया था वह सिर्फ अर्जुन जैसी परिस्थिति मे खड़े व्यक्ति के लिए ही था, न कि आम जनता के लिए। इस अवतार द्वारा व्यक्त ”कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद एवं आधारित उपनिषद्“ मंे आम जनता सहित संयुक्त मन को कर्म करने के लिए प्रेरित की गई है जिसमें कर्मज्ञान का पूर्ण और अन्तिम प्रकाश है। इस प्रकार इस विश्व के कल्याणार्थ सम्पूर्ण ज्ञान साहित्य धीरे धीरे संक्रमणीय, संग्रहणीय और गुणात्मक रूप से भारत व्यक्त कर अपने कर्तव्य और दायित्व की पूर्ति कर चुका है। अब विश्व को सिर्फ कर्म करना है। इसके बाद भी वर्तमान वातावरण में आम जनता से राजनेता तक को घर सफाई एक मन होकर करना चाहिए। न तो श्रीकृष्ण, न ही स्वामी विवेकानन्द ने किसी के उपर अपने अस्तित्व को स्थापित करना चाहा था। वे तो मात्र इतना चाहते थे कि प्रत्येक नेतृत्वकर्ता मानवता को प्राथमिकता में रखें जिससे आम जनता का हित हो और नेतृत्वकर्ता भी अपने को सदैव जनता से जुड़ा एवं समर्थन युक्त रहे। लेकिन स्वयं के प्रकृति के अनुसार अहंकार से युक्त नेतृत्वकर्ता इन जैसे लोगों को सदैव अपने लिए संकट ही समझते रहे। 
इस ”मैं“, ”शिव“, ”आत्मा“ और ”ब्रहम“ का बोध होने से सबसे बड़ी शक्ति जो प्राप्त होती है वह है- स्वयं को जिम्मेदार ठहराना। इस बोध का सबसे बड़ा लाभ भी यही है। इससे व्यक्ति स्वयं द्वारा स्वयं का निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण, नियंत्रण, कर्तव्य, दायित्व इत्यादि पूर्ण करता है। वह किसी दूसरे को जिम्मेदार नहीं ठहराता। ”मंै ही कर्ता हूूँ, मैं ही भोक्ता हूँ“ ऐसा बोध मानव को आत्मशक्ति और संघर्षशील बनाता है जो वर्तमान और भविष्य के समाज की नितांत आवश्यकता है या यूँ कहे कि मानव इसके बिना सफलता व पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पायेगा। 

प्रश्न-बहुत ही विस्तार से आपने पहले विवादास्पद प्रश्न की व्याख्या की इससे जनता को अवश्य बड़ा लाभ होगा।
विश्वमानव- प्रश्न विवादास्पद था इसलिए विस्तार से उत्तर देना पड़ा। यह आवश्यक इसलिए भी था कि भारत की स्थायी एकता का प्रश्न, अस्मिता को प्रश्न, वास्तविकता का प्रश्न, सर्वोच्चता का प्रश्न, देश प्रेेम का प्रश्न और उसके आत्मज्ञान सहित आत्म प्रकाश एवं आत्म शक्ति का बोध इस मेरे सम्पूर्ण कार्य से जुड़ा हुआ है ऐसे में समाज के सभी मन स्तर- निम्नतम से उच्चतम सभी की ओर से उसे सर्वाेच्च और अन्तिम तक जोड़ना था।

प्रश्न-अब दूसरा सार्वाधिक विवादास्पद प्रश्न-आपने स्वयं को भगवान विष्णु का 10 वाँ और अन्तिम कल्कि तथा भगवान शंकर का 22वाँ और अन्तिम भोगेश्वर का संयुक्त अवतार सम्बोधित किया है यह कैसे है और इसकी उपयोगिता क्या है?
विश्वमानव- वर्तमान में अवतारो की संख्या विशेषकर कल्कि की दक्षिण भारत में बाढ़ आ गयी है। एक बात का हमेशा ध्यान रखेगें जो कुछ भी मंै बोल रहा हूँ उसमें जो सार्वजनिक प्रमाणित है वही धर्म है, धर्मनिरपेक्ष है, सर्वधर्मसमभाव है, विश्वमानक है। अन्य सब मत और विचार है। बीच बीच में पैराणिक कथाओं के उल्लेख से यह न समझे कि मैं सीधे एक धर्म की सर्वोच्चता सिद्ध करना चाहता हूँ। उसका उद्देश्य मात्र यह है कि आज कल दूरदर्शन इत्यादि के माध्यम से आम जनता ने अनेक पौराणिक कथाआंे का परिचय प्राप्त कर लिया है जिससे उन्हंे विषय को समझने में सहायता प्राप्त होगी। और वर्तमान समय मंे उसके धर्मनिरपेक्ष और सर्वधर्मसमभाव स्वरूप को निकालने में भी सहायता होगी। धर्मनिरपेक्ष और सर्वधर्मसमभाव का अर्थ यह नहीं कि सत्य और एकता को छोड़ दिया जाये। क्यांेकि छोड़ने पर शेष रूप में असत्य और अनेकता ही बचता है। और यह धर्मनिरपेक्ष और सर्वधर्मसमभाव का अर्थ यह नहीं हो सकता अन्यथा यह विनाशकारी शब्द होगा। यदि ऐसा होता तो भारतीय संविधान मंे यह शब्द न आता।

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