श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के उद्गार
1. व्यष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान को ही हम देश-काल बद्ध सत्य-धर्म-ज्ञान अर्थात मानवीय कार्य अर्थात ब्रह्मचर्य एवं गृह्स्थ आश्रम कहते है। यही पंचन्द्रियग्राह्य एवं उनसे उपस्थापित अर्थात विज्ञान है तथा समष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान को हम देश-काल मुक्त सत्य-धर्म-ज्ञान अर्थात ईश्वरीय सत्य-धर्म-ज्ञान अर्थात ईश्वरीय कार्य अर्थात वानप्रस्थ आश्रम कहते हैं। यही इन्द्रियातीत सूक्ष्म योगज शक्ति अर्थात वेद है। वर्तमान समय में इन आश्रमों के मूल सत्य को जानकर समाज में ही कार्य करना सम्भव है न कि किसी विशेष स्थल पर।
2. व्यष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान से उच्च समष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान होता है। समष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान की जीत हमेशा निश्चित भी होती है। ज्ञान में कृष्ण ओर भीष्म पितामह दोनों ही बराबर थे लेकिन कृष्ण समष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान के लिए अपने व्यष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान को उसमें बँधे रहने के बाद भी छोड़ दिये थे जबकि भीष्म पितामह, इसके विपरीत कार्य किये थे।
3. ज्ञानी या शिक्षित वही हंै जो क्रियाकलापों के अध्ययन द्वारा कार्य के महत्व, क्षेत्र एवं भविष्य को समझ जाते हैं। जो नहीं समझ पाते वे सलाह लेने पर भ्रमित भी हो सकते है। लोग कहते है भाग्य से ज्यादा कुछ नहीं मिलता, मैं कहता हूँ ज्ञान व उसके अनुसार कर्म करने से ज्यादा कुछ भी प्राप्त नहीं होता। वहीं जब दृश्य भविष्य हो तो कर्म के साथ न जुड़ना दृश्य मूर्खता के प्रदर्शन के सिवा कुछ भी नहीं होता।
4. ज्ञानी अर्थात शिक्षित मानव के नीचे तीन स्तर हैं। उपर-साहित्यीकृत, मध्य-साक्षर एवं नीचे-निरक्षर। साहित्यीकृत मानव बिना स्वयं का ज्ञान रखे पुस्तकों पर आधारित रहते है। मध्य-साक्षर स्तर का मानव ज्ञानी एवं साहित्यीकृत मानव के बीच का संर्घषमय स्तर है। साहित्यीकृत स्तर बुद्धि को बद्ध कर देता है जबकि साक्षर स्तर साहित्यीकृत एवं ज्ञानी स्तर की ओर जाने के लिए खुला होता है। केवल ज्ञानी अर्थात शिक्षित स्तर ही मानव को प्रबन्धकीय नियंत्रण एवं नेतृत्व से युक्त कर अपने मालिक स्वयं या स्वतंत्र कर सकता है।
5. उच्च शिक्षा प्राप्त मनुष्य को अपनी शिक्षा के आधार पर, मध्यम शिक्षा प्राप्त मनुष्य को शिक्षा व अनुभव के आधार पर, स्वरोजगार में संघर्ष करना चाहिए जिससे वे स्वयं के साथ दूसरों को रोजगार उपलब्ध करा सके। ऐसे मनुष्य यदि नौकरी करते हैं तो वह अपना स्वार्थमय जीवन व्यतीत कर सकते है। वे अपने ज्ञान व विचारों को कार्य रूप नहीं दे सकते। ऐसे मनुष्य द्वारा स्वरोजगार की शिक्षा देना भी शोभा नहीं देता न ही उनके विचार प्रभावकारी होते हैं।
6. यदि तुम समग्र जगत के ज्ञान से पूर्ण होना चाहते हो तो पाँच भाव विचार एवं साहित्य, विषय एवं विशेषज्ञ, ब्रह्ममाण्ड (स्थूल एवं सूक्ष्म) प्रबन्ध या क्रियाकलाप मानव प्रबन्ध या क्रियाकलाप एवं उपासना स्थल का सामंजस्य कर एक मुखीकर जो। समग्र जगत का भविष्य हैं पूर्ण ज्ञान है। एकमन है। समान गठन का रहस्य है।
7. सम्पूर्ण मानव समाज में पूछता हँू कि उनमें में से अधिकतम के मन की स्थिरता वर्तमान समय में किन विषयों पर केन्द्रित है। स्पष्ट है वर्तमान समय में न तो ज्ञान पर केन्द्रित है न ही इन्द्रिय पर बल्कि वह बाह्य विषयों धन एवं संसाधन पर केन्द्रित है। वे उनके लिए ही जीते हैं मरते हैं। यही उनका लक्ष्य है। और यह लक्ष्य पाश्चात्य विज्ञान के ज्ञान द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। लेकिन उसकी स्थिरता तभी तक रह सकती है। जब उसके साथ आध्यात्म अर्थात ज्ञान हो और यह है वेदान्त न तो सिर्फ वेदान्त से कार्य होगा, न ही सिर्फ पाश्चात्य से बल्कि चाहिए उनका संयुक्त दृश्य ज्ञान व सर्वोच्च दृश्य कर्मज्ञान। जो मानव, मानव के लिए राजनीति करता है उसकी एक सीमा है वह एक सीमा तक जाकर उससे आगे नहीं बढ़ सकता क्योंकि वह मानक विहीन कार्य करता है। जो मानव, सत्य या ईश्वर या आत्मा के लिए राजनीति करता है वह असीम है। अर्थात वह मानक युक्त कार्य करता है। प्राकृतिक सन्तुलन के लिए आत्मा है। मानव के सन्तुलन के लिए धन है। प्रकृति के असीम मे मानव ससीम है।
8. आत्मा मानक है। मन का क्रम विकास एवं क्रम संकुचन मानव स्वयं करता है। जब यह मन दोनों दिशाओं में से किसी एक को पार करता है तब इस मन की तात्विक स्थिति, आत्मा अर्थात मानक की स्थिति में पहुॅच जाता है। यही स्थिति आत्म प्रकाश की स्थिति है। इस मानक का ज्ञान ही सत्य-धर्म है और लाने वाले कालानुसार सूत्र को ईश्वर नाम कहते हैं। मानक अर्थात आत्मा अर्थात सत्य-धर्म-ज्ञान स्थिर रहता है। लेकिन मन को इस ओर लाने वाले सूत्र भिन्न-भिन्न होते हैं और होंगे क्योकि जो उत्पन्न है, वह स्थिर नहीं है। अदृश्य काल में यह सूत्र अनेक होंगे लेकिन दृश्य काल के लिए हमेशा एक ही होगा क्यांेकि वह सार्वजनिक प्रमाणित होगा।
9. सभी सम्प्रदायों के मूल में जो निहित हैं। जिससे वे अपना जीवकोपार्जन करते हैं। वह हैं कर्म यह मानव का एक उत्पाद है। यह देश -काल बद्ध है। इस कर्म को सही दिशा में ले जाने के लिए मानक चाहिये- यह है ईश्वर या सत्य या आत्मा। यही ज्ञान है यह देश काल मुक्त है। यही वेद का सत्य ज्ञान है। यही धर्मनिरपेक्ष है, सर्वधर्मसमभाव है, धर्म है। जब मानक ज्ञान युक्त कार्य करते है। तब ब्रह्मभाव व्यक्त होता है। जो सभी सम्प्रदाय की आवश्यकता है। वर्तमान में समष्टि (समाज) दृश्य कर्म में केन्द्रित है। आवश्यकता है दृश्य कर्मज्ञान की। कर्मवेद-प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद अर्थात विश्वमानक-शून्य श्रृंखला उसी सत्य का सत्य रूप है। जो बारम्बार परिष्कृत होकर शुद्ध रूप से व्यक्त हो चुका है। और संगम है सत्य ज्ञान व सत्य कर्म (अदृश्य एवं दृश्य) का।
10. ज्ञान का सामान्यीकरण पूर्णता की ओर अर्थात व्यष्टि एवं समष्टि की ओर तथा विशेषीकरण अपूर्णता अर्थात् सिर्फ व्यष्टि की ओर ले जाता है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली मानव को विशेषीकरण की ओर ले जा रही है जो मानसिक पराधीनता, समाज के रूग्णता एवं विवाद का मुख्य कारण है। इस शिक्षा प्रणाली को पूर्ण बनाना अतिआवश्यक है क्योंकि अपूर्ण मानव मन को उत्पन्न करने का यही मुख्यश्रोत है। परिणाम पुरानी पीढ़ी एवं नई पीढ़ी के बीच टकराव एवं विवाद है।
11. अतः यदि भारत को महान बनाना है। भारतीय संविधान को विश्व संविधान में परिवर्तित करना है तो एकात्मकर्मवाद पर आधारित दृश्यकाल के लिए एक शब्द चाहिए। जो परिचित कराना मात्र हो, स्वभाव से हो, सन्तुलित हो, स्थिर हो, व्यापक हो, समष्टि हो, विद्यमान हो, सर्वमान्य हो, दृश्य हो, कारण युक्त हो, आध्यात्मिक एवं भौतिक कारण युक्त हो, विश्वभाषा में हो, सभी तन्त्रों, व्यक्ति से अन्तर्राष्ट्रीय संघ के सच्चे स्वरूप एवं विश्व के न्यूनतम एवं अधिकतम साझा कार्यक्रम को प्रक्षेपित करने में सक्षम हो। अदृश्य काल के विकास के सात चक्रों (पाँच अदृश्य कर्म चक्र, दो अदृश्य ज्ञान कर्म चक्र) को प्रक्षेपित करने में सक्षम हो, को स्थापित करना पडे़गा। वही नव विश्व निर्माण का सूत्र है, अन्तिम रास्ता है और उसकी प्रस्तुती प्रथम प्रस्तुती होगी। वही अन्तिम प्रस्तुती भी होगी क्योंकि सार्वजनिक प्रमाणित सत्य सिर्फ एक ही होता है।
12. क्या उस स्वर्ण सूत्र की भाषा हिन्दी, संस्कृत, उर्दु इत्यादि साम्प्रदायिक भाषा हो सकती है। कदापि नहीं। क्योकिं जो स्वर्ण सूत्र सम्पूर्ण मानव समाज, सभी सम्प्रदायों को जोड़ने वाली होगी वह विश्व भाषा अर्थात अंग्रेजी में ही होगी। नहीं तो वह विवादयुक्त हो जायेगा। इसकी अनुभूति स्वामी विवेकाननद जी को पूर्ण रूप से थी क्योंकि पाश्चात्य विज्ञान की उपयोगिता जिस प्रकार बढ़ रही थी। और उसके प्रत्येक आविष्कार का नामकरण विश्व भाषा में हो रहा था उसके आधार पर ही उन्होंने कहा था-‘‘हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना.... जिसे बच्चा-बच्चा समझ सके’’। भाषा तो ज्ञान को व्यक्त करने का साधन मात्र है। इसलिए स्वर्ण सूत्र अंगे्रजी भाषा में ही है। जिसका अनुवाद विश्व के प्रत्येक भाषा में होगा ताकि सम्पूर्ण मानव समाज को एक सूत्र में बाँधा जा सके।
13. यदि ‘ओम’ शब्द अदृश्य काल में व्यष्टि को शान्ति प्रदान करने एवं ‘‘मैैं ही ब्रह्म हूँ’’ को सिद्ध करने का सूत्र अर्थात ईश्वर नाम है तो दृश्य काल के लिए शब्द या सूत्र ईश्वर नाम, व्यष्टि को शान्ति अर्थात ‘‘सभी ब्रह्म हैं’’ को सिद्ध करने में सक्षम होगा और वह विश्व भाषा में ही होगा नहीं तो विवादयुक्त हो जायेगा।
14. सम्पूर्ण मानव समाज मेें अव्यवस्था अशान्ति, शोषण, अस्थिरता अत्यादि विकास के बाधकों का अस्तित्व तब तक कायम रहेगा जब तक स्थूल कारण एवं पदार्थ पर केन्द्रित मानव मन की स्थिरता के लिए स्थूल गुणों से युक्त ईश्वर नाम का आविष्कार एवं स्थापना नहीं हो जाता और तब तक न ही काल परिवर्तन होगा न ही मानव समाज स्थिरता को प्राप्त करेगा।
15. ऋग्वेद ज्ञान आधारित है। सामवेद ज्ञान और गायन आधारित है, यजुर्वेद ज्ञान तथा प्रकृति एवम् मानव के संतुलन के लिए अदृश्य कर्म अर्थात अदृश्य यज्ञ आधारित हैं, अथर्ववेद ज्ञान एवम् औषधि आधारित है। अगला वेद जब भी होगा वह ज्ञान तथा प्रकृति एवम् मानव के सन्तुलन के लिए दृश्य कर्म अर्थात अदृश्य यज्ञ अर्थात् व्यष्टि एवम् समष्टि कर्मज्ञान पर आधारित होगा क्योंकि इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं है।
16. ईश्वर नाम का उत्पत्तिकत्र्ता देश-काल मुक्त ज्ञान आधारित साहित्य को वेद कहते है। ईश्वर नाम के व्यापक अर्थ को व्यक्त करने वाले साहित्य को उपनिषद् कहते है। व्यष्टि या अदृश्य ईश्वर नाम के अर्थ को व्यक्त करने वाले साहित्य व्यष्टि-उपनिषद् तथा समष्टि या दृश्य ईश्वर नाम के अर्थ को व्यक्त करने वाले साहित्य को समष्टि उपनिषद् कहते है। ईश्वर नाम से उत्पन्न मानवीय साकार कथा साहित्य को पुराण कहते है।
17. आप सभी अपने धर्म पुस्तको को देखें उसमें दृश्य काल में प्रकृति एवम् मानव के सन्तुलन के लिए दृश्य कर्मज्ञान उपलब्ध नहीं है। क्योंकि वे ज्ञान के क्रम विकास द्वारा सर्वोेच्च स्तर तक तो पहँुच गये है। लेकिन उनका मार्ग अदृश्य काल का है। उस वक्त उन्हें दृश्य काल का आभास भी नहीं था।
18. मानव एवम् प्रकृति के प्रति निष्पक्ष, सन्तुलित एवम् कल्याणार्थ कर्मज्ञान के साहित्य से बढ़कर आम आदमी से जुड़ा कोई भी साहित्य कभी भी आविष्कृत नहीं किया जा सकता। यही एक विषय है। जिससे एकता, पूर्णता एवम् रचनात्मकता एकात्म भाव से लाई जा सकती है। संस्कृति से राज्य नहीं चलता। कर्म से राज्य चलता है। संस्कृति तभी तक बनी रहती है जब तक पेट में अन्न हो, व्यवस्थायें सत्य-सिद्धान्त युक्त हो, दृष्टि पूर्णमानव के निर्माण पर केन्द्रित हो। संस्कृति कभी एकात्म नहीं हो सकती लेकिन रचनात्मक दृष्टिकोण एकात्म होता है। जो कालानुसार, कर्मज्ञान और कर्म है। अदृश्य काल में अनेकात्म और दृश्य काल में एकात्म कर्मज्ञान होता है। और यही कर्म आधारित भारतीय संस्कृति है जो सभी संस्कृतियों का मूल हैंे।
19. प्रत्येक समय में धर्म ग्रन्थ, उस समय के राजनीतिक, आर्थिक एवम् सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए लिखे गये थे। जो समयानुसार सही भी थी। लेकिन यह आवश्यक नहीं कि वह हमेशा सही ही रहेगीं क्योंकि मानव समाज के बढ़ते बौद्धिक स्तर एवम् बदलते मानसिकता के परिणामस्वरूप मूल्यांकन का आधार भी बदलता रहता है। सम्पूर्ण मानव समाज चाहे जिस समय में क्यों न रहा हो लेकिन प्राकृतिक सत्य ही उसका मूल रहा है जो हमेशा रहेगा भी।
20. तुम लोगों से मेरा एक सूत्रीय कहना यह है कि देखो ईश्वर भी अपनी स्थिरता, शान्ति एवम् एकता के लिए समान भाव से नियमानुसार व्यापार करते है। तुम भी ईश्वर के उस समान भाव से नियमानुसार व्यापार के दर्शन के ज्ञान से युक्त हो जाओ।
21. यह मानव क्रियाकलापों का विश्वमानक विश्व के सभी भूत, वर्तमान और भविष्य के महापुरूषों एवम् पुरूषों के क्रियाकलापों का मानक है। जिससे मैं भी बाहर नहीं हँू। क्योंकि मै भी एक मानव हूँ।
22. वर्तमान समय तक एवम् भविष्य में जितने भी महापुरुष हुये या होंगे उन सभी को तुम कर्मो के उपरान्त ही जानते हो यदि उन्हें तुम कर्म के पहले ही जान जाते तो उन्हें कर्म करने एवम् कष्ट उठाने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती।
23. जब तक मानव रहेगा या अब तक जितने महापुरुष हुये या होगें उन सभी के क्रियाकलाप मानव क्रियाकलापों के विश्वमानक या ईश्वर की कार्यप्रणाली या व्यापार के दर्शन या विकास दर्शन से बाहर न थे, और न ही जा सकते हैं।
24. विश्वमानक की स्थापना किसी व्यक्ति की विचारधारा की स्थापना नही, न ही यह किसी सम्प्रदाय का विरोध है बल्कि यह सभी सम्प्रदायों का मूल है और कार्य निर्माण है जिसका वर्तमान समाज में पूर्ण अभाव हो गया है। जब तक इसकी पूर्ण स्थापना नहीं हो जाती तब तक न ही ”वसुधैव-कुटुम्बकम्“ एवं ”बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय“ को सत्यार्थ कर सकते है, न ही मानव समाज शान्ति, एकता, स्थिरता एवं नैतिक उत्थान की ओर अग्रसर हो सकता है। यह विश्वमानव का मानव समाज के लिए श्राप है तथा आविष्कार एवं कार्य वरदान है।
25. सम्पूर्ण मानव समाज अपने अस्तित्व कि अन्तिम क्षणों तक चाहे क्यों न प्रयत्न कर ले विश्वमानक शून्य श्रृंखला की स्थापना ही उसकी एकता, स्थिरता एवं शान्ति का प्रथम एवं अन्तिम मार्ग है।
26. भारत में अनेकों महापुरूषों ने जन्म लिया लेकिन समाज उस सत्य को आत्मसात् नहीं कर पाया जब कि सभी सत्य-सिद्धान्त से युक्त थे। मैं इस सत्य को स्वीकार करता हूँ कि मैं भी ऐसा नहीं कर पाऊँगा क्यांेकि सुधारक से अधिक सुधरने की इच्छा प्रबल होनी चाहिए। इसलिए मैं आन्दोलन कदापि नहीं करना चाहता। वर्तमान समय मे ऐसे सिद्धान्त का अभाव है जिसमें कोई राजनीतिक दल अपने को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध कर सके। यदि कोई दल भारत सहित विश्व के नेतृत्व इच्छा रखता है तो उसके नियंत्रणकर्ता इस सिद्धान्त (विश्वमानक शून्य श्रृंखला) को धारण करे जो अहिसंक अन्तिम मार्ग भी है अन्यथा यह तब तक मेरे पास रहेगा जब तक वे भारतीय प्राचीन ज्ञान के अनुरूप समाज का निर्माण करने में पूर्ण रूप से परास्त नहीं हो जाते।
27. तुम यदि यथाशीघ्र धर्म ज्ञान से युक्त होना चाहते हो तो ज्ञान के साहित्य-वेद का अध्ययन तुम्हारे लिए सबसे अधिक समय को लेने वाला होगा। यदि पुराण का अध्ययन करते हो तो कम, उपनिषद् का अध्ययन करते हो तो और भी कम, यदि गीता का अध्ययन करते हो तो और भी कम यदि विवेकानन्द के वेदान्त व्याख्या का अध्ययन करते हो तो और भी कम और कर्मवेद, प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद अर्थात विश्वमानक शून्य श्रृंखला का अध्ययन करते हो तो यह सबसे कम समय को लेने वाला होगा।
28. मानव जीवन में अब इतने अधिक विषय हो गये हैं कि वे वेद, पुराण, उपनिषद्, गीता इत्यादि के माध्यम से यदि ज्ञान प्राप्त करना चाहे तो उनकी अपनी जीवन निर्वाह की स्थिरता असन्तुलित हो सकती है। इसलिए अब उन्हें शुद्ध ज्ञान के साहित्य की आवश्यकता हो गई है। जिससे वे जीवन निर्वाह के लिये ज्ञान व संसाधन के लिए विज्ञान का ज्ञान प्राप्त कर सके।
29. मैं विश्वमानक शून्य श्रृंखला अर्थात कर्मवेद की स्थापना से न तो किसी के पद को छिनना चाहता हूँ और न ही ऐसी इच्छा है बल्कि मैं इस कार्य से मैं उन सभी पद को जो वर्तमान में विवाद, संदेह एवं अविश्वास से घिर गये है उनमें विश्वास एवं वास्तविक अर्थ को स्थापित करना चाहता हूँ।
30. मैं विश्वमानक शून्य श्रृंखला अर्थात कर्मवेद की स्थापना के महत्व, क्षेत्र एवं सर्वोच्चता से भली-भाँति परिचित हूॅ। फिर भी यह कहता हूँ कि विश्वमानव कोई अवतार नहीं, कोई ईश्वर नहीं, न ही कोई ईश्वर नाम है। यह मानव मन के सर्वोच्च स्तर अर्थात मानव एवं प्रकृति के प्रति निष्पक्ष एवं निःस्वार्थ कल्याणार्थो से युक्त मानव है जो प्रत्येक मानव के क्रम विकास का सर्वोच्च स्तर है। जहाँ तक प्रत्येक मानव को आना ही है। दृश्य रूप में इससे ज्यादा कोई स्वयं को सिद्ध भी नहीं कर सकता।
31. साधारण व्यक्ति मुझे साधारण रूप में देखते हैं, राजनेता, मुझे राजनेता के रूप में देखते हैं। व्यापारी, मुझे व्यापारी के रूप में देखते हैं। देश भक्त, मुझे देश भक्त के रूप में देखते हैं। ज्ञानी मुझे ज्ञानी के रूप में देखते हैं। अन्य जो जिस विषय से जुड़े है,ं वे मुझे उस रूप में देखते है। क्योंकि वे स्वंय को बद्ध करके देखते हैं। वे यदि स्वयं को व्यापक कर देखें तो पायेंगे मैं इन सब से मुक्त हूँ। मैं मुक्त था, मुक्त हँू, और मुक्त ही रहूँगा। लेकिन क्या वे ऐसा कर पायेंगे ? जितना शीघ्र वे ऐसा कर पाये उतना ही अच्छा हो। एक आकाश के नीचे सभी समान भाव से विकास करते है। क्या एक मानव को आकाश के रूप में स्वीकार कर पायेेंगे ? मेरा प्रत्येक कार्य स्वयं मेरा नहीं बल्कि सार्वजनिक व्यापक मानव के अधीन है।
32. यह विश्वमानक शून्य श्रृंखला अर्थात कर्मवेद का आविष्कार जो वर्तमान में पूर्ण हुआ आज के सौ वर्ष पहले भी पूर्ण हो सकता था। लेकिन उस वक्त इसकी स्थापना नहीं हो सकती थी क्योंकि विश्वमन, लोकतंत्र का मन है जिसका उस वक्त भारत में अभाव था और मूल मंत्र स्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय संगठन- संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन भी नहीं हुआ था। जब कि वर्तमान समय में भारत सहित संयुक्त राष्ट्र संघ को इसकी आवश्यकता है।
33. यह अद्वैत ही धर्म है, धर्मनिरपेक्ष है, सर्वधर्मसमभाव है, वेदान्त तथा मानव का सर्वोच्च दर्शन है, जहाँ से मानव विशिष्टताद्वैत, द्वैत एवम् वर्तमान में मानसिक गुलामी से गिरा है परन्तु पुनः मानव इसी के उल्टे क्रम से उठकर अद्वैत में स्थापित हो जायेगा तब वह धर्म में स्थापित एवम् विश्वमन से युक्त होकर पूर्ण मानव (ईश्वरस्थ मानव) को उत्पन्न करेगा।
34. एक ही वस्तु जीवन-मृत्यु, सुख-दुःख, अच्छे-बुरे के रूप में व्यक्त होती है। यह विभिन्नता प्रकारगत नहीं परिमाणगत है। और यह दोनों एक साथ रहते है। इसी प्रकार धर्म और धर्मनिरपेक्ष (सर्वधर्मसमभाव) भी एक साथ रहते हैं। हम जितना धर्म के नजदीक होते हैं। ठीक उतना ही धर्मनिरपेक्ष (सर्वधर्मसमभाव) के नजदीक पाते है। जितना धर्मनिरपेक्ष के नजदीक होते हैं, ठीक उतना ही धर्म के नजदीक पाते है। बस यही बात धर्मज्ञानी के साथ होती है।
35. जब सभी सम्प्रदायों को धर्म मानकर हम एकत्व का खोज करते हैं, तब दो भाव उत्पन्न होते हैं। पहला यह कि सभी धर्मो को समान दृष्टि से देखे।ं तब उस एकत्व का नाम सर्वधर्मसमभाव होता है। दूसरा यह है कि सभी धर्मों को छोड़कर उस एकत्व का देखे तब उस एकत्व की नाम धर्मनिरपेक्ष होता है। जब सभी सम्प्रदायों को सम्प्रदाय की दृष्टि से देखते है। तब उस एकत्व का नाम धर्म होता हैं। इन सभी रूपों में हम सभी उस एकत्व के ही विभिन्न नामों के कारण विवाद करते हैं। अर्थात जब नहीं जानते तब सर्वधर्मसमभाव और धर्मनिरपेक्ष कहते है। और जब जान जाते है। तब धर्म कहते हैं। इसी प्रकार विश्वमानक-शून्य श्रृंखला उसी एकत्व का धर्मनिरपेक्ष एवम् सर्वधर्मसमभाव नाम तथा कर्मवेद प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेदीय श्रंृखला उसी एकत्व का धर्म युक्त नाम है। तथा इन समस्त कार्यो को जिस भौतिक शरीर के माध्यम से पूर्ण किया जा रहा हैं उसका धर्मयुक्त नाम ”लव कुश सिंह“ एवम् सर्वधर्मसमभाव तथा धर्मनिरपेक्ष नाम ”विश्वमानव“ है। जबकि मैं (आत्मा) इन सभी नामों से मुक्त है।
36. धर्म ज्ञान की वह अवस्था है जहाँ वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपना स्वरूप समझता है। ऐसी अवस्था में स्वार्थ अर्थात् कार्य के परिणाम की इच्छा व्यक्त अवस्था में तथा मन विषयों से मुक्त होता है। ऐसे सत्य-धर्म-ज्ञान को धारण कर मानव शरीर, धार्मिक मनाव की अवस्था को प्राप्त होता है। ऐसे अवस्था को प्राप्त कर मानव अपने स्तर से ब्रह्माण्ड के क्रमिक विकास के लिए कार्य करना धार्मिक कार्य अर्थात् निःस्वार्थ कार्य कहलाता है। धर्म, कार्य का मार्ग है जिससे शान्ति प्राप्त होती हैं।
37. राजनीति सामाजिक विकास के नेतृत्व के लिए की जाती है जिसकी उद्देश्य एकता, शान्ति, स्थायित्व एवम् सन्तुलन है जिसका मार्ग धर्म निर्धारित करता है। और ज्ञान प्राकृतिक सत्य के ज्ञान से प्राप्त होता है।
38. हम विभिन्न वादो (मानव आविष्कृत धर्म) को धर्म समझकर उसके लिए समर्पित रहते है। फिर भी उनसें सन्तुलन एवं स्थिरता की प्राप्ति नहीं होती। वे इसलिए कि ये धर्म नहीं है। जो वाद है वह मात्र रहन-सहन की प्रक्रिया है। जो धर्म है उसकी कोई प्रक्रिया नहीं होती। वह ज्ञान है। वही सत्य है और प्राकृतिक धर्म है और वही सभी मानव आविष्कृत धर्मो का उत्पत्तिकत्र्ता है।
39. मानव समाज को जानना चाहिए कि समग्र जगत में बहुरूप में प्रकाशित एक ही सत्ता है जिसे आत्मा कहते है। इसलिए समष्टि आत्मा ही व्यष्टि आत्मा है। इस आत्मा का यथार्थ स्वरूप जिस प्रकार व्यष्टि रूप में व्यक्त होता है। ठीक उसी प्रकार समयोपरान्त समष्टि रूप में भी होता है। व्यष्टि से समष्टि रूप मंे व्यक्त होने के बीच का समय ही विवाद, अविश्वास, अशान्ति अनेकता इत्यादि का समय होता है।
40. समष्टि (समाज) का जन्म तो उसी दिन हो गया था जब मैं (आत्मा) एक से दो होता हुआ कई हो गया था। जिसकी पूर्ण प्रथम अनुभूति श्री रामकृष्ण देव ने की थी तथा अन्तिम व्याख्या स्वामी विवेकानन्द ने दी थी यह समष्टि अपनी परिपक्वता को तब प्राप्त होगा जब मानव समाज का प्रत्येक व्यक्ति समष्टि मन के गुण से पुर्णतया युक्त हो जायेगा।
41. मुझे इस बात का तनिक भी दुःख नहीं कि मैं (आत्मा) एक था फिर अलग-अलग कई हो गया। दुःख तो इस बात का है कि हम पुनः एक होने का प्रयत्न क्यों नहीं करते।
42. आत्मा भी सत्य है, ईश्वर भी सत्य है, मृत्यु भी सत्य है, यह जगत एक स्वप्न है तो क्या उसी क्षण मर जाना चाहिए, जिस क्षण हमें ज्ञान होता है? नहीं फिर भी कर्म करना पडे़गा। भगवान कृष्ण ने कहा है ‘‘कार्य की कुशलता ही योग है’’। और इस कार्य कुशलता का ज्ञान ही दृश्य ध्यान या दृश्ययोग या कर्म योग या विकास दर्शन या क्रियाकलापों का विश्वमानक है।
43. क्रिया-कारण नियम ही सर्वशक्तिमान है। इस कारण का ज्ञान ही धर्म का सर्वस्व है यह क्रिया ही ज्ञान है एवं उसकी प्रक्रिया का ज्ञान ही विज्ञान है। क्रिया ही प्राकृतिक सत्य विवाद मुक्त है। सार्वजनिक प्रमाणित सत्य है। जिसे भगवान कृष्ण ने ‘‘परिवर्तन ही संसार का नियम है’’ से सम्बोधित किया। पदार्थ विज्ञान ‘‘इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी स्थिर नहीं है“ को व्यक्त किया। यह पुनः आदान-प्रदान के शब्द द्वारा व्यक्त किया जा रहा है जो सम्पूर्ण मानक का विषय है।
44. भगवान कृष्ण ने गीता उपदेश में कहा था ‘‘फल की इच्छा मुझ पर छोड़कर कर्म करों’’। ऐसा इसलिए कहा गया था कि व्यक्ति अपने आत्मा अर्थात प्रकृति में स्थिर होकर कार्य कर सकें न कि मन में स्थित होकर। लेकिन आत्मा की दिशा विवादमुक्त न हो सकी क्योंकि कार्य का दर्शन स्पष्ट न हो सका परिणामस्वरूप वर्तमान समाज में किये जा रहे कर्मों को हम गलत नहीं कह सकते। बिना उचित समय आये कोई भी ज्ञान समाज में व्यक्त नहीं होता। अब कार्य करने का समय आ गया है जो विश्वमानक अर्थात कर्मवेद है।
45. वैदिक काल में अदृश्य विज्ञान द्वारा ज्ञान अपने चरम विकास को प्राप्त कर चुका है। जिसके अन्तिम साहित्य को वेदान्त कहा गया। उसके उपरान्त कर्मज्ञान का विकास होना शुरू हुआ जिसका प्रथम प्रयत्न भगवान कृष्ण ने किया। और अब मानव एवं प्रकृति के प्रति निष्पक्ष सन्तुलित पूर्ण कर्मज्ञान के लिए कर्मवेद है। जब तक प्रत्येक व्यक्ति कर्मज्ञान से युक्त होकर स्वयं के आत्मविश्वास से कर्म नहीं करता तब तक ”मैं ही ब्रह्म हूँ“, ‘‘हम सभी ईश्वर है’’ धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव रूप से एकता एवं धर्म रूप से अद्धैत दर्शन को प्राप्त नहीं किया जा सकता ।
46. आश्रम का अर्थ है - अवस्था। यह मन, शरीर और कर्म के विषय में हो सकती है। प्रत्येक व्यक्ति अपने मन के स्तर के केन्द्रित स्थिति से ही संसार को देखता है। और अपने मन के अनुसार उसका मूल्याकंन करता है। योगेश्वर, परमहंस, भोगेश्वर, ओशो, बुद्ध, विश्वमानव, सांसारिक इत्यादि मानव के ये सब मन की अवस्थाएं है। शरीर की अवस्था में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रम हैं। इसी प्रकार कर्म की अवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र आश्रम हैं। प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है तथा उस पर ही निर्भर है कि वह अपने मन, शरीर तथा कर्म के स्तर में परिवर्तन लाकर किसी भी आश्रम या अवस्था में प्रवेश कर सकता है।
47. ज्ञान तो शाश्वत से सर्वव्यापी है। आत्म ज्ञान या पूर्ण ज्ञान से युक्त सभी व्यक्ति हो सकते है परन्तु उसका संचालन काल के ज्ञान और उसके अनुसार कार्यप्रणाली अर्थात चेतना से होता है। कालानुसार ज्ञान ही ध्यान है। और ध्यान ही वास्तविक ज्ञान की प्रमाणिकता है। यही कारण है कि आध्यात्म चर्चा में निवृत्ति व प्रवृत्ति मार्गी प्रायः सहमत होते है। परन्तु काल और कालानुसार कार्यप्रणाली अर्थात चेतना का ज्ञान न होने से स्थापना स्तर पर सहमत नहीं हो पाते।
48. हम शरीर की अमरता को नहीं मानते, हम विचार की अमरता को मानते है। हम साकार ब्रह्म की अमरता को नहीं मानते, हम सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त अर्थात निराकार ब्रह्म अर्थात मानक की अमरता को मानते हैं। मानकीकरण की ओर बढ़ते विश्व के लिए यह आवश्यक है कि शीघ्रताशीघ्र ही आदर्श वैश्विक व्यक्ति का निराकार सत्य स्वरूप का भी मानकीकरण कर शिक्षा द्वारा प्रत्येक व्यक्ति में स्थापित किया जाय। हमें आदर्ष व्यक्ति आधारित समाज नहीं बल्कि उसके निराकार सत्य स्वरूप अर्थात सत्य-सिद्वान्त अर्थात मानक आधारित समाज चाहिए जिससे हम प्रत्येक व्यक्ति के आदर्श का मूल्याकंन कर सकें। ध्यान रहे चरित्र को प्राथमिकता देने से सत्य-सिद्वान्त अर्थात मानक की अवनति होती है तथा सत्य-सिद्वान्त अर्थात मानक को प्राथमिकता देने से चरित्र समाज का दर्पण बन, समाज को ही प्रक्षेपित हो जाता है। और चरित्र की रक्षा स्वतः हो जाती है।
49. ऋग्वेद, ज्ञान आधारित है। सामवेद, ज्ञान और गायन आधारित है। यजुर्वेद, ज्ञान तथा प्रकृति एवम् मानव के सन्तुलन के लिए अदृष्य व्यक्तिगत प्रमाणित कर्म अर्थात् अदृश्य यज्ञ आधारित है। अथर्ववेद, ज्ञान तथा औषधि आधारित है। अगला वेद जब भी होगा वह ज्ञान तथा प्रकृति एवम् मानव के सन्तुलन के लिए दृश्य सार्वजनिक प्रमाणित कर्म अर्थात दृश्य यज्ञ आधारित होगा क्योंकि इसके अलावा और कोई मार्ग नहीं है।
50. सर्वप्रथम मैं (आत्मा-कारण-CENTRE) व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य रूप से क्रिया-TRADE- सृष्टि करते हुये उसमें अदृश्य रूप से व्याप्त होता हूँ और फिर अन्त में मैं (आत्मा-कारण-CENTRE) ही दृश्य रूप से क्रिया-TRADE सृष्टि करते हुये उससे सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य रूप द्वारा व्यक्त होता हँू
51. मानव एवम् प्रकृति के प्रति निष्पक्ष, सन्तुलित एवम् कल्याणार्थ कर्मज्ञान के साहित्य से बढ़कर आम आदमी से जुड़ा कोई भी साहित्य कभी आविष्कृत नहीं किया जा सकता। यही एक विषय है जिससे एकता, पूर्णता एवम् रचनात्मकता एकात्मभाव से लायी जा सकती है। संस्कृति से राज्य नहीं चलता। कर्म से राज्य चलता है। संस्कृति तभी तक एकात्म बनी रहती है जब तक पेट में अन्न हो, व्यवस्थाएँ सत्य-सिद्धान्त युक्त हो, दृष्टि पूर्ण मानव के निर्माण पर केन्द्रित हो। संस्कृति कभी एकात्म नहीं हो सकती लेकिन रचनात्मक दृष्टिकोण एकात्म होता है जो कालानुसार कर्मज्ञान और कर्म है। अदृश्य काल में अनेकात्म और दृश्यकाल में एकात्म कर्मज्ञान होता है। और यही कर्म आधारित भारतीय संस्कृति है जो सभी संस्कृतियों का मूल है।
52. क्रिया-कारण सिद्वान्त ही सर्वशक्तिमान है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड क्रिया का क्षेत्र है तथा इसके अतीत, कारण का ज्ञान ही देश-काल मुक्त अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित सत्य-धर्म का सर्वस्व है। एवम् क्रिया ही ज्ञान है। क्रिया की प्रक्रिया का ही ज्ञान, विज्ञान है। क्रिया ही प्राकृतिक सत्य, सर्वव्यापी, अटलनीय, अपरिवर्तनीय, विवादमुक्त और सर्वमान्य है। सार्वजनिक प्रमाणित सत्य है जिसे भगवान योगेश्वर श्री कृष्ण ने ”परिवर्तन ही संसार का नियम है“ से सम्बोधित किया। दृश्य पदार्थ वैज्ञानिक आइन्सटाइन ने E=MC2 से सिद्ध किया और वर्तमान भौतिक युग ने ”इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी स्थिर नही है“ को व्यक्त किया। यह पुनः ”आदान-प्रदान” के शब्द से व्यक्त किया जा रहा है। यही शब्द सम्पूर्ण मानक का विषय व सूत्र है।
53. सूक्ष्म परमाणु से बृहद् ब्रह्माण्ड तक सभी स्वयं अपनी स्थिरता, शान्ति और एकता के लिए क्रियाशील है। मैं (आत्मा) भी अपनी स्थिरता, शान्ति और एकता के लिए क्रियाशील हूँ अर्थात सभी अपने धर्म में बद्ध होकर स्वयं या केन्द्र या CENTRE की ओर ही व्यापार या आदान-प्रदान या TRADE कर रहे है। प्रत्येक वस्तु के धर्म या क्रिया या व्यापार या अदान-प्रदान या TRADE का एक चक्र है। सभी के मन स्तर चक्र अर्थात धर्म का चरम विकसित और अन्तिम चक्र मैं (आत्मा) हूँ। तुम सब इस ओर ही आ रहे हो बस तुम्हें उसका ज्ञान नहीं, उसका ज्ञान होगा कार्यो से क्योंकि कर्म, ज्ञान का ही दृश्य रूप है। एक ही देश काल मुक्त अदृश्य ज्ञान है-आत्मा। और एक ही देश काल मुक्त दृश्य कर्म है- आदान-प्रदान।
54. ईश्वर नाम का उत्पत्तिकत्र्ता देश-काल मुक्त ज्ञान आधारित साहित्य को वेद कहते है। ईश्वरनाम के व्यापक दर्शन अर्थात अर्थ को व्यक्त करने वाले साहित्य को उपनिषद् कहते है। अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित ईश्वर नाम के व्यापक दर्शन अर्थात धर्म को व्यक्त करने वाला साहित्य को व्यष्टि उपनिषद् तथा दृश्य सार्वजनिक प्रमाणित ईश्वरनाम के व्यापक दर्शन अर्थात अर्थ को व्यक्त करने वाला साहित्य-समष्टि उपनिषद् कहते हैं। एकात्म को व्यक्त करने वाला देश काल मुक्त प्रक्षेपित सार्वजनिक प्रमाणित साकार कथा साहित्य की महापुराण तथा एकात्म को व्यक्त करने वाला देशकाल बद्ध प्रक्षेपित सार्वजनिक प्रमाणित साकार कथा साहित्य को पुराण कहते है
55. क्रियाकलापों के विश्वमानक के अनुसार कर्मशील प्रत्येक कत्र्ता स्वायत्तशासी इकाई संयुक्त मन के रूप में क्रियाकलापों के विश्वमानक के अनुसार कर्मशील अपने से बड़े स्वायत्तशासी इकाई या संयुक्त मन जो उसमें व्याप्त है के प्रति समर्पित और केन्द्रित रहते हुये आवश्यकतानुसार और समयानुसार क्रियाकलापों के विश्वमानक के अनुसार स्वायत्तशासी इकाई संयुक्त मन के रूप मे संयुग्मंन और विखण्डन, ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक कहलाता है। यही कर्मोपनिषद्-समष्टि का मूल सूत्र है।
56. क्रियाकलापों के विश्वमानक के अनुसार कर्मशील प्रत्येक कत्र्ता स्वायत्तशासी इकाई एकल मन के रूप में क्रियाकलापों के विश्वमानक के अनुसार कर्मशील अपने से बड़े स्वायत्तशासी इकाई एकल मन जो उसमें व्याप्त है के प्रति समर्पित व केन्द्रित रहते हुये आवश्यकता और समयानुसार क्रियाकलापों के विश्वमानक के अनुसार स्वायत्तशासी इकाई एकल मन के रूप मे संयुग्मन और विखण्डन, मानव (सूक्ष्म एवम् स्थूल) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक कहलाता है। यदि कर्मोपनिषद्-व्यष्टि का मूल सूत्र है।
57. यदि तुम समग्र जगत के ज्ञान से पूर्ण होना चाहते हो तो पाँच भाव- विचार एवं साहित्य, विषय एवं विशेषज्ञ, ब्रह्माण्ड (स्थूल एवं सूक्ष्म) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप, मानव (स्थूल एवं सूक्ष्म) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप तथा उपासना स्थल का सामंजस्य कर एक मुखी कर लो। यही समग्र जगत का ज्ञान है, भविष्य है, रहस्य है, पूर्ण ज्ञान है, समाज गठन है, पुस्तकालय के ज्ञान से सर्वोच्च है। 58. जब व्यष्टिमन की शान्ति अन्तः विषयों जो सिर्फ अदृश्य विषय मन द्वारा ही प्रमाणित होता है, पर केन्द्रित होती है तो उसे व्यष्टि अदृश्य काल कहते हंै तथा जब व्यष्टिमन की शान्ति दृश्य विषयों अर्थात् बाह्य विषयों, जो सार्वजनिक रुप से प्रमाणित है पर केन्द्रित होता है तो उसे व्यष्टि दृश्यकाल कहते हैं इसी प्रकार सम्पूर्ण समाज का मन जब अदृश्य विषयों पर केन्द्रित होती है तो उसे समष्टि अदृश्य काल कहते हंै तथा जब सम्पूर्ण समाज का मन दृश्य विषयों पर केन्द्रित होता है तो उसे समष्टि दृश्यकाल कहते हैं।
59. व्यक्ति जब सम्पूर्ण समष्टि अदृश्य काल में हो तो उसे अदृश्य कर्म ज्ञान के अनुसार तथा जब सम्पूर्ण समष्टि दृश्य काल में हो तो उसे दृश्य कर्म ज्ञान के अनुसार कर्म करने चाहिए तभी वह ब्रह्माण्डिय विकास के लिए धर्मयुक्त या एकता बद्ध होकर कार्य करेगा।
60. मानक अर्थात् आत्मा अर्थात् सत्य-धर्म-ज्ञान स्थिर रहता है लेकिन मन को इस ओर लाने वाले सूत्र भिन्न-भिन्न होंगे क्योंकि जो उत्पन्न है वह स्थिर नहीं है। अदृश्य काल में यह सूत्र अनेक होंगे लेकिन दृश्य काल के लिए हमेशा एक ही होगा क्योंकि वह सार्वजनिक प्रमाणित होगा।
61. विचार प्रसार एवं विचार स्थापना में एक मुख्य अन्तर है। विचार प्रसार, विचाराधीन होता है। वह सत्य हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता परन्तु विचार स्थापना सत्य होता है। विचार स्थापना में नीति प्रयोग की जाती है जिससे उसका प्रभाव सत्य के पक्ष में बढ़ता रहता है और यह विचार स्थापक एवं समाज पर निर्भर करता है जबकि विचार प्रसार में किसी नीति का प्रयोग नहीं होता है जिससे उसका प्रभाव पक्ष पर एवं विपक्ष दोनों ओर हो सकता है और वह सिर्फ समाज के उपर निर्भर करता हैै।
62. सत्य-धर्म-ज्ञान किसी भी व्यक्ति विषेश या सम्प्रदाय विशेष का नहीं हो सकता। वह तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त देश-काल-मुक्त सत्य-सिद्धान्त है जिसका विभिन्न धर्मों में समावेश की मात्रा पर ही उस धर्म की अमरता निर्भर करती है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि हिन्दू धर्म या वेदान्त धर्म या समष्टि धर्म ही विश्व का अन्तिम सत्य धर्म है। जिसका नाश नहीं किया जा सकता क्योंकि सत्य-सिद्धान्त अनश्वर है तथा शुद्ध दृश्य सत्य-धर्म-ज्ञान ही विश्व धर्म के रुप में व्यक्त हुआ है जो प्राचीन भारतीय वैदिक साहित्य में हजारों वर्ष पूर्व ही व्यक्त हो चुका है। विश्व धर्म और कुछ नहीं, सभी धर्मों के सत्य-धर्म-ज्ञान का संगम है, और जो सत्य है वह किसी भी सम्प्रदाय के व्यक्ति से व्यक्त हो सकता है, आवश्यक नहीं कि वह हिन्दू ही हो।
63. पूर्ण ज्ञान अर्थात् अपने मालिक स्वयं केन्द्र में स्थित मार्गदर्शक दर्शन (Guider Philosophy) अर्थात् G एवं विकास दर्शन (Development Philosophy) अर्थात् D है। इसकी परिधि आदान-प्रदान या व्यापार या क्रियाचक्र या क्रियान्वयन दर्शन (Operating Philosophy) अर्थात् O है। यहीं आध्यात्म अर्थात् अर्थात् अदृश्य विज्ञान का सर्वोच्च एवं अन्तिम आविष्कार है। तथा यहीं पदार्थ अर्थात् दृश्य विज्ञान द्वारा अविष्कृत परमाणु की संरचना भी है। जिसके केन्द्र में G के रुप में प्रोटान P है तथा D के रुप में न्यूट्रान N है। इसकी परिधि O के रुप में इलेक्ट्रान E है। प्राच्य अदृश्य आध्यात्म विज्ञान तथा पाश्चात्य दृश्य पदार्थ विज्ञान में एकता का यहीं सूत्र है। विवाद मात्र नाम के कारण है। जिसके अनुसार इलेक्ट्रान या क्रियान्वयन दर्शन में विभिन्न सम्प्रदायों, संगठनों, दलों के विचार सहित व्यक्तिगत विचार जिसके अनुसार अर्थात् अपने मन या मन के समूहों के अनुसार वे समाज तथा राज्य का नेतृत्व करना चाहते हैं। जबकि ये सार्वजनिक सत्य नहीं है। इसलिए ही इन विचारों की समर्थन शक्ति कभी स्थिर नहीं रहती जबकि केन्द्र या आत्मा या एकता में विकास दर्शन स्थित है। केन्द्र में प्रोटान की स्थिति अदृश्य मार्गदर्शक दर्शन या अदृश्य विकास दर्शन की स्थिति, चूँकि यह सार्वजनिक सत्य विकास दर्शन का अदृश्य रुप है इसलिए यह व्यक्तिगत प्रमाणित है। इसी कारण आध्यात्म भी विवाद और व्यष्टि विचार के रुप में रहा जबकि यह सत्य था। लेकिन न्यूट्रान की स्थिति दृश्य मार्गदर्शक दर्शन या दृश्य विकास दर्शन की स्थिति है इसलिए यह सार्वजनिक सत्य है सम्पूर्ण मानक है, समष्टि सत्य है, सत्य सिद्धान्त है जिसकी स्थापना से व्यक्ति मन उस चरम स्थिति में स्थापित होकर उसी प्रकार तेजी से विश्व निर्माण कर सकता है जिस प्रकार पदार्थ विज्ञान द्वारा आविष्कृत न्यूट्रान बम इस विश्व का विनाश कर सकता है।
64. वर्तमान दृश्य पदार्थ विज्ञान के सत्य-सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण तत्व तीन अवस्थाओं में रहता है। जिनमें दो आभासी अवस्था तथा एक वास्तविक अवस्था। ये तीनों अवस्था क्रमशः ठोस, द्रव और गैस अवस्था है। इस तीनों अवस्थाओं में एक यदि उसकी सामान्य वातावरण में वास्तविक अवस्था है तो शेष दो उसकी विशेष वातावरण में आभासी अवस्था हो सकती है। जबकि परमाणु (न्यूक्लियस व इलेक्ट्रान) तीनों अवस्थाओं में विद्यमान रहता है। तत्वों में व्याप्त होने का सत्य-सिद्धान्त यह है कि परमाणु में इलेक्ट्रानों की संख्या के घटने बढ़ने से विभिन्न तत्व व्यक्त होते हैं। पुनः तत्वों के मिश्रण से विभिन्न यौगिक पदार्थ व्यक्त होते हैं अर्थात् एक ही परमाणु से इलेक्ट्रानों की संख्या को घटा-बढ़ाकर सभी तत्वों के गुणों को प्राप्त कर सकते हैं। यदि यह सम्भव हो कि एक चेतना युक्त परमाणु स्वयं अपने इलेक्ट्रानों को घटा-बढ़ा सके तो वह परमाणु सभी तत्वों के गुणों या प्रकृति को व्यक्त करने लगेगा। ऐसी स्थिति में उस जटिल परमाणु को किसी विशेष तत्व का परमाणु निर्धारित करना असमभव हो जायेगा। फिर उसे ”एक में सभी, सभी में एक“ कहना पड़ेगा अर्थात् उसकी निम्नतम एवं सर्वोच्चतम अन्तिम स्थिति ही उसकी निर्धारण योग्य प्रकृति होगी। वर्तमान अदृश्य आध्यात्म विज्ञान के अद्वैत सत्य-सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति भी तीन अवस्थाओं में रहता है जिसमें से दो आभासी अवस्था तथा एक वास्तविक अवस्था। ये तीनों अवस्था क्रमशः आत्मीय काल, अदृश्य काल तथा दृश्य काल अवस्था है। इन तीनों अवस्थाओं में यदि मन की एक वास्तविक अवस्था है तो शेष दो विशेष वातावरण में आभासी अवस्था हो सकती है। जबकि आत्मा सहित मन तीनों अवस्थाओं में रहता है। व्यक्ति के महत्ता के व्यक्त होने का सत्य-सिद्धान्त यह है कि व्यक्ति में मन की उच्चता और निम्नता से विभिन्न महत्ता के व्यक्तियों का व्यक्त होना होता है। पुनः इन व्यक्तियों के साथ आने से विभिन्न मतों पर आधारित सम्प्रदाय और संगठन व्यक्त होते हैं। अर्थात् एक ही व्यक्ति के मन की उच्चता एवं निम्नता से हम सभी महत्ता के व्यक्तियों, सम्प्रदायों और संगठनों के योग्य हो सकते हैं। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति में मन के निम्नतम स्थिति पशु मानव से सर्वोच्च और अन्तिम स्थिति विश्व मन से युक्त विश्वमानव तक को व्यक्त करने की सम्भावना नीहित है क्योंकि मानव वह चेतना युक्त आत्मा है जो स्वयं अपने मन की उच्चता एवं निम्नता पर आवश्यकता और समयानुसार नियन्त्रण कर सकता है और सभी तरह के व्यक्तियों या गुणों को व्यक्त कर सकता है। ऐसी स्थिति में उस जटिल व्यक्ति को किसी विशेष प्रकृति का व्यक्ति निर्धारण करना असम्भव हो जायेगा। फिर उसे ”एक में सभी, सभी में एक“ कहना पड़ेगा। अर्थात् उसकी निम्नतम पशु मानव और सर्वोच्चतम तथा अन्तिम विश्वमानव स्थिति ही उसकी निर्धारण योग्य प्रकृति होगी।
65. भारत के प्रचीन ऋषि बिना किसी यन्त्र की सहायता से यह जान चुके थे कि वस्तुओं का सम्पूर्ण नाश नहीं होता केवल उसका अवस्था परिवर्तन होता है जिस पर आधारित होकर ही उन्होंने विश्व कल्याणार्थ धर्म का आविष्कार किये थे। यह व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य दिशा से धर्म का आविष्कार था। इसलिए ही यह धर्म विवाद का विषय रहा। परन्तु इसी विषय को भी पदार्थ विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिखाया है, और इस ओर से सम्पूर्ण एकत्व का मन के विश्व मानक - शून्य श्रंृखला का आविष्कार सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य दिशा की ओर से धर्म का आविष्कार। अब और कोई दिशा नहीं जिस ओर से धर्म का आविष्कार किया जा सके। परिणामस्वरुप यह अन्तिम विश्वव्यापी विवादमुक्त रुप से धर्म का आविष्कार है।
66. सर्वोच्च और अन्तिम मन स्तर द्वारा व्यक्त ज्ञान-कर्मज्ञान के अन्तिम होने को इस प्रकार समझा जा सकता है। मान लीजिए बहुत से व्यक्ति हिमालय के चारो ओर से एवरेस्ट चोटी पर चढ़ रहे हैं। कुछ प्रारम्भ में हैं कुछ उससे ऊपर, कुछ और ऊपर, इस प्रकार से एक व्यक्ति शिखर पर बैठा है। प्रारम्भ से अन्तिम तक के व्यक्ति के पास वहाँ की स्थिति पर एक मन स्तर है। शिखर पर बैठा व्यक्ति अपने अन्तिम होने का प्रमाण सिर्फ दो मार्गों द्वारा व्यक्त कर सकता है। पहला यह कि वह उस अन्तिम स्तर का वर्णन करे। इस मार्ग में जब तक सभी व्यक्ति शिखर तक नहीं पहुँच जाते उसके अन्तिम होने की प्रमाणिकता सिद्ध नहीं हो पाती। इस मार्ग को व्यक्तिगत प्रमाणित ज्ञान का मार्ग कहते हैं। यह संतों का मार्ग है। दूसरा मार्ग यह है कि शिखर पर बैठा व्यक्ति अन्तिम को प्रारम्भ से अन्तिम तक के मनस्तर को इस भाँति जोड़े कि प्रत्येक मनस्तर पर बैठा व्यक्ति अपने स्थान से ही अन्तिम की अनुभूति कर ले। इस मार्ग को सार्वजनिक प्रमाणित कर्मज्ञान का मार्ग कहते हैं। प्रथम मार्ग जो कठिन मार्ग था, वह था श्रीकृष्ण का मार्ग। द्वितीय मार्ग जो सरल मार्ग है वह है- लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का मार्ग जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को उसके मन स्तर की ओर से सार्वजनिक प्रमाणित सर्वव्यापी सर्वोच्च और अन्तिम कर्म-आदान-प्रदान या परिवर्तन से जोड़ दिया गया है जिससे उसके अतीत का अनुभव कर सीधे व्यक्तिगत प्रमाणित आत्मोन्भूति तथा विवादमुक्त सिद्धान्तों की प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य कर सके। अन्तिम के पूर्ण प्रमाण प्रस्तुत कर देने के बावजूद व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह इसे अन्तिम न होने का प्रमाण प्रस्तुत करे परन्तु ऐसा न हो कि सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ के प्रयत्न में ही निकल जाये और हाथ कुछ भी न मिले। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि अन्तिम का परीक्षण एक समय सीमा तक करें और व्यक्त मार्ग के अनुसार जीवन में धारण कर जीवन को संचालित करें।
67. इस वाह्य जगत को बृहद ब्रह्माण्ड तथा अन्तः जगत को क्षुद्र ब्रह्माण्ड कहते हैं। एक मनुष्य अथवा कोई भी प्राणी अर्थात् क्षुद्र ब्रह्माण्ड जिस नियम से गठित होता है उसी नियम से विश्व ब्रह्माण्ड अर्थात् वृहद ब्रह्माण्ड भी गठित है। जैसे हमारा एक मन व्यक्तिगत मन है। उसी प्रकार एक विश्वमन संयुक्त मन भी है। सम्पूर्ण जगत एक अखण्ड स्वरुप है वेदान्त उसी को ब्रह्म कहता है। ब्रह्म जब वृहद ब्रह्माण्ड के पश्चात् या अतीत में अनुभव होता हो तब उसे ईश्वर या परमात्मा कहते हैं। और जब ब्रह्म इस क्षुद्र ब्रह्माण्ड के पश्चात् या अतीत में अनुभव होता है तब उसे आत्मा कहते हैं। द्वैतवादी आत्मा और परमात्मा को दो मानते हैं जबकि अद्वैतवादी दोनों को एक ही मानते हैं। और इस आत्मा को ही मनुष्य के अन्दर स्थित ईश्वर या परमात्मा मानते हैं। अर्थात् इस मनुष्य से ही व्यक्तिगत मन और विश्व मन या संयुकतमन दोनों ही व्यक्त होता है। जिस मनुष्य शरीर से सर्वोच्च और अन्तिम, सर्वव्यापी संयुक्तमन या विश्वमन व्यक्त होगा उसी शरीर को हम ईश्वर या परमात्मा का साकार अन्तिम रुप या अवतार कहेंगे।
68. इस ईश्वर या परमात्मा के व्यक्तिगत प्रमाणित साकार प्रक्षेपण को पुराण में शिव-शंकर तथा सार्वजनिक प्रमाणित साकार प्रक्षेपण को पूर्णावतार कहते हैं। जिसका व्यक्त गुण सर्वोच्च और अन्तिम एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म समाहित एकात्म ध्यान होता है। इसके अंशों का प्रक्षेपण सार्वजनिक प्रमाणित साकार रुप में अंशावतार तथा व्यक्तिगत प्रमाणित साकार रुप मे विष्णु व ब्रह्मा कहते हैं। इसलिए ही पुराणों में शिव-शंकर से निकलते हुए विष्णु अर्थात् एकात्म ज्ञान समाहित एकात्म कर्म को तथा विष्णु से निकलते हुए ब्रह्मा अर्थात् एकात्म ज्ञान को प्रक्षेपित किया गया है। ब्रह्मा और विष्णु को देव तथा अन्तिम शिव-शंकर को महादेव कहते हैं।
69. इन तीनों देवताओं ब्रह्मा, विष्णु और शिव-शंकर के मूल गुणों के आधार पर उनके वास्तविक रुप अर्थात् चार वेदों को व्यक्त करने वाले चार मुखों से युक्त सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का रुप, चार भुजाओं से युक्त पालनकर्ता विष्णु का रुप तथा ब्रह्मा और विष्णु समाहित पाँचों वेदों को व्यक्त करने वाले पाँच मुखों से युक्त कल्याण कर्ता शिव-शंकर का अन्तिम रुप, तीनों देवताओं का दिव्यरुप कहलाता है। जबकि ईश्वर या आत्मा या परमात्मा के व्यक्तिगत प्रमाणित सर्वव्यापी सत्य-आत्मा रुप को व्यक्तिगत प्रमाणित विश्वरुप तथा सार्वजनिक प्रमाणित सर्वव्यापी सिद्धान्त रुप को अन्तिम सार्वजनिक प्रमाणित विश्वरुप कहते हैं। ईश्वर या परमात्मा या आत्मा के पूर्णावतार के साकार रुप से विष्णु और शिव-शंकर के दिव्यरुप सहित सार्वजनिक प्रमाणित विश्वरुप का संयुक्त रुप व्यक्त होगा। इसलिए ही विष्णु और शिव-शंकर को एक दूसरे का रुप कहा गया है।
70. कार्य की प्रथम शाखा अर्थात् भुजा- कालानुसार व्यक्तिगत और संयुक्त विचारों-दर्शनों से युक्त अर्थात् सुदर्शन चक्र, जिससे निम्न और संकीर्ण विचारांे का परिवर्तन या बध होता है। दूसरी भुजा- उद्घोष अर्थात् शंख जिससे चुनौती दी जाती है। तीसरी भुजा- रक्षार्थ अर्थात् गदा जिससे आत्मीय स्वजनों की रक्षा की जाती है। चैथी और अन्तिम भुजा- निर्लिप्त अर्थात् कमल जिससे सांसारिकता और असुरी गुणो से मुक्त समाज में आश्रय पाना आसान होता है क्योंकि सांसारिकता और असुरी गुणों से युक्त व्यक्ति अपने अहंकारी दृष्टि से ही देखते हैं। परिणामस्वरुप अच्छे विचार को सुरक्षित विकास का अवसर प्राप्त होता है। इन सभी गुणों से युक्त हो शक्तिशाली और तीव्र वेग अर्थात् गरुड़ पक्षी रुपी वाहन से व्यक्त होना, ये ही पालनकर्ता विष्णु के मूल लक्षण हैं जिससे वे समाज में व्यक्त हो संसार का पालन करते हैं जो लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के जीवन, कर्म व व्यक्त होने के मार्ग से पूर्ण प्रमाणित है और चतुर्भुज रुप है।
71. जिस प्रकार अदृश्य शिव अर्थात् अदृश्य विशेश्वर का प्रतीक चिन्ह शिव-लिंग है उसी प्रकार दृश्य शिव अर्थात् दृश्य भोगेश्वर का प्रतीक चिन्ह शिव-लिंग सहित सुदर्शन-चक्र और शंख है। कारण अन्तिम अवतार शिव-शंकर का पूर्णावतार है जिसमें विष्णु समाहित हैं। परिणामस्वरुप दृश्य शिव अर्थात् दृश्य भोगेश्वर का प्रतीक चिन्ह पूर्ण शिव तथा आधा विष्णु के प्रतीक चिन्ह से ही व्यक्त होगा। जिस प्रकार काशी अदृश्य विशेश्वर का निवास स्थान है उसी प्रकार सत्यकाशी दृश्य भोगेश्वर का निवास स्थान है।
72. चारों वेदों के ज्ञान और अनेकों उपनिषद् समाहित ”गीता“ व्यक्तिगत प्रमाणित मार्ग से आत्म ज्ञान, दिव्य-दृष्टि, सर्वव्यापी रुप-विश्वरुप, चतुर्भुज दिव्यरुप तथा कर्म की ओर प्रेरित करने का शास्त्र साहित्य है। क्योंकि इस उपदेश को कहीं से भी दो व्यक्ति एक साथ सुन और देख नहीं रहे थे। जब तक कम से कम दो व्यक्ति एक साथ किसी विषय या घटना को देखें या सुने नहीं वह सार्वजनिक प्रमाणित नहीं कहलाती है। इस उपदेश को सुनने व देखने वालों में पहला स्थान - सिर्फ अर्जुन अकेले देख व सुन रहा था। दूसरा स्थान- वृक्ष पर धड़ से अलग बरबरीक का सिर सिर्फ देख रहा था। तीसरा स्थान- दिव्य दृष्टि के द्वारा संजय अकेले देखकर साथ बैठे अन्धे धृतराष्ट्र व अन्धी बनीं गान्धारी को वर्णन सुना रहा था। चैथा स्थान- दोनों पक्षों की सेना सिर्फ श्रीकृष्ण और अर्जुन के अलावा न तो कुछ देख पा रही थी न ही सुन पा रही थी । पाँचवां स्थान-स्वयं महाभारत शास्त्र साहित्य के रचयिता महर्षि व्यास जी अकेले देख व सुन रहे थे। इन पाँचों स्थितियों में कहीं भी ऐसी स्थिति नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि गीता का उपदेश सार्वजनिक प्रमाणित रुप से दिया गया था बल्कि यह व्यक्तिगत प्रमाणित रुप से सिर्फ अर्जुन को व्यक्तिगत रुप सेे दिया गया था और विश्वरुप भी सिर्फ व्यक्तिगत प्रमाणित रुप से ही देखा गया था न कि सभी व्यक्ति जिनकी अलग-अलग स्थितियाॅ है उनके लिए। इस प्रकार व्यक्त आत्म ज्ञान सत्य होते हुए भी व्यक्तिगत प्रमाणित ही है। गीतोपनिषद् व्यक्तिगत सम्पूर्ण समाधान का शास्त्र साहित्य है न कि सार्वजनिक सम्पूर्ण समाधान का शास्त्र साहित्य यदि वह सम्पूर्ण समाधान का शास्त्र साहित्य होता तो ईश्वर के कुल दस अवतारों में दसवें और अन्तिम अवतार का कार्य क्या होता? अर्थात् उनके लिए कोई कार्य शेष नहीं होता। ब्रह्मा के पूर्ण अवतार और ईश्वर के अंशावतार आदर्श व्यक्ति चरित्र से युक्त श्रीराम थे। विष्णु के पूर्णावतार तथा ईश्वर के व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्णावतार आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र (व्यक्तिगत प्रमाणित आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र) से युक्त श्रीकृष्ण थे। तो शिव-शंकर के पूर्णावतार तथा ईश्वर के सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र से युक्त पूर्णावतार का कार्य क्या होता?
73. ”गीता“ समाहित ”कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद“ सार्वजनिक प्रमाणित मार्ग से आत्म ज्ञान, कर्म-ज्ञान, दिव्य-दृष्टि, सर्वव्यापी रुप-विश्वरुप, चतुर्भुज दिव्यरुप, पंचमुखी दिव्यरुप का शास्त्र साहित्य है। क्योंकि यह व्यक्ति से अनेक व्यक्ति और सम्पूर्ण विश्व एक साथ पढ़, सुन और देख सकता है। अर्थात् यह उपदेश सार्वजनिक रुप से दिया गया है न कि व्यक्तिगत रुप से। जिसमें कर्म करने की शिक्षा भिन्न-भिन्न अनेकों स्थितियों पर खड़े व्यक्ति के लिए दी गयी है। कर्मवेद, व्यक्ति सहित सार्वजनिक सम्पूर्ण समाधान का शास्त्र साहित्य है तथा शिव-शंकर के पूर्णावतार तथा ईश्वर के सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र से युक्त पूर्णावतार से व्यक्त है।
74. ”दिव्य रुप“ और ”विश्व रुप“ कभी साकार सार्वजनिक प्रमाणित नहीं हो सकता। वह जब भी होगा प्रथमतया ”गीता“ की भाँति व्यक्तिगत प्रमाणित निराकार तथा ”कर्मवेद“ की भाँति सार्वजनिक प्रमाणित निराकार रुप में। कारण वह व्यक्तिगत प्रमाणित निराकार आत्मा या सार्वभौम सत्य तथा सार्वजनिक प्रमाणित निराकार सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त की व्यापकता की एक साथ अनुभूति है। जो व्यापक ्रज्ञान उपदेशक के जीवन का व्यापक ज्ञान उसके बाद एक साथ देखने का गुण दिव्य दृष्टि के द्वारा ही देखी जा सकती है। कर्मवेद और विश्व मानक-शून्य श्रंृखला की असीम शाखाएं इसका उदाहरण हैं। ”गीता“ में अर्जुन को पहले व्यापक ज्ञान दिया गया फिर दिव्य दृष्टि दी गयी तब विश्व रुप और दिव्य रुप दिखाया गया। जो सेनाओं के होते हुए भी सिर्फ अर्जुन को ही दिखाई दिया। इसके लिए अर्जुन ही योग्य पात्र था क्योंकि वह उपदेशक के जीवन के अधिक पास से परिचित था जिससे वह दिव्य रुप और विश्व रुप को सरलता से देख सकता था। उपदेश के लिए दोनों सेनाओं से दूर रथ को ले जाना इसलिए आवश्यक था कि जो इसके योग्य पात्र न थे वे इसमें व्यवधान उत्पन्न न करें और न ही सुन सकें। परिणामस्वरुप उन्हें दिव्यरुप और विश्वरुप दिखाई नहीं दिया। सृष्टि का रुक जाना उसे कहते हैं जब सम्पूर्ण समाज की अन्तिम स्थिति से आगे निर्माण या सृष्टि नहीं होती तथा ऐसा व्यक्ति जो उसके आगे निर्माण की बात कर रहा हो और जो उस पर ही निर्भर है, उसे पीछे या भूतकाल के विषय में विवशतावश उलझा देने से सृष्टि अर्थात् आगे का निर्माण कार्य रुक जाता है। गीता उपदेश के समय ऐसा ही हुआ था क्योंकि उपदेश के लिए विवशतावश श्रीकृष्ण भूतकाल में चले गये थे इसलिए ही कहा गया है कि उपदेश के समय सम्पूर्ण सृष्टि अर्थात् समय रुक गया था।
75. ”परिवर्तन संसार का नियम है“ यह इसलिए नहीं कहा गया था कि वह संसार के लिए है मनुश्य के लिए नहीं। यह इसलिए कहा गया था कि मनुश्य अपने मनस्तर में परिवर्तन लाते हुए सदा उच्च से उच्चतर, उच्चतर से उच्चतम, उच्चतम से सर्वोच्च और अन्तिम की ओर गति करते रहे और कम समय में सांसारिकता से मन स्तर को उपर उठाकर परिवर्तन को धारण करते हुए सांसारिकता का संचालन कर सके। यदि मनुश्य परिवर्तन को संसार के लिए समझ स्वयं में परिवर्तन नहीं लाता तो यहीं परिवर्तन एस पर बुरा प्रभाव डालते हुए अन्ततः उसके षरीर को भी षीघ्र ही परिवर्तित कर देता है।
76. ”परिवर्तन संसार का नियम है“ यह इसलिए नहीं कहा गया था कि वह संसार के लिए है मनुष्य के लिए नहीं। यह इसलिए कहा गया था कि मनुष्य अपने मनस्तर में परिवर्तन लाते हुए सदा उच्च से उच्चतर, उच्चतर से उच्चतम, उच्चतम से सर्वोच्च और अन्तिम की ओर गति करते रहे और कम समय में सांसारिकता से मन स्तर को उपर उठाकर परिवर्तन को धारण करते हुए सांसारिकता का संचालन कर सके। यदि मनुष्य परिवर्तन को संसार के लिए समझ स्वयं में परिवर्तन नहीं लाता तो यहीं परिवर्तन एक समय पर बुरा प्रभाव डालते हुए अन्ततः उसके शरीर को भी शीघ्र ही परिवर्तित कर देता है।
77. जिस प्रकार अदृश्य हवा, बिजली इत्यादि का रुप बिना साधन के व्यक्त नहीं होता उसी प्रकार अदृश्य आत्मा का दृश्य रुप भी बिना साधन शरीर के व्यक्त नहीं होता। शरीर से एकात्म का व्यक्त होना ही आत्मा का व्यक्त होना है जब कि सम्पूर्ण विश्वव्यापी और सर्वोच्च एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म और एकात्म ध्यान का व्यक्त होना ही आत्मा का पूर्ण दृश्य व्यक्त होना है। जिस शरीर से एकात्म अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त व्यक्त होता है उसे साकार-सगुण-ईश्वर तथा सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को निराकार निर्गुण ईश्वर कहते हैं। जिस प्रकार बिना सगुण (माध्यम या शरीर) के निर्गुण (हवा, बिजली, सत्य-सिद्धान्त) की प्रमाणिकता असम्भव है उसी प्रकार बिना निर्गुण के सगुण की प्रमाणिकता असम्भव है।
78. यदि वह पशु मानव नहीं तो प्रत्येक मानव का एक स्तरीय लक्ष्य होता है। वह उसको प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। मैं अपना लक्ष्य प्राप्त कर चुका हूँ। हो सकता है किसी का लक्ष्य मैं होऊ, इसको पाने के लिए तुम्हें ही कर्म और प्रयत्न करना पड़ेगा। मेरी तो कोई इच्छा ही नहीं। भला दर्पण की भी कोई इच्छा होती है? दर्पण तो तुम्हारी इच्छा होती है। दर्पण तो तुम्हारे ही रूप को व्यक्त करता है। तुम मेरे जितना पास आते हो, ठीक उतना ही मैं भी पास आता हूँ। और यह बात दूर जाने में भी है। यह भाव कर्म में, प्रेम में, ज्ञान में, ध्यान में अर्थात सभी में है। क्योंकि मैं तुम पर ही निर्भर हूँ।
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