विश्व शान्ति के लिए मन का मानकीकरण केवल शब्द नहीं बल्कि उसके मानक का निर्धारण व प्रकाशन हो चुका है।
(सन् 2000-2001 ई0 के बीच श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा सर्वजीत साधना भवन, रेनुकूट, सोनभद्र (उ0प्र) भारत, पिन-231217 में दिया गया वक्तव्य)
हिन्दू धर्म के धर्म शास्त्रों में पुराण नामक धर्म शास्त्र विभिन्न स्तरीय मानक चरित्रों के कथाओं का प्रक्षेपण है जिससे ब्रह्मा परिवार व्यक्ति एवं व्यक्ति परिवार का मानक चरित्र, विष्णु परिवार सामाजिक व्यक्ति एवं सामाजिक परिवार का मानक चरित्र तथा शिव-शंकर परिवार वैश्विक-ब्रह्माण्डीय व्यक्ति एवं वैश्विक-ब्रह्माण्डीय परिवार का मानक चरित्र के रुप में प्रक्षेपित है। प्रक्षेपण का अर्थ है- उस मानक चरित्र में गुणों के संगम के साथ प्रस्तुत करना। स्वयं हिन्दू भी वर्तमान समय में इससे भ्रमित हो चुके हैं। वे समझते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु व शिवशंकर नाम से शरीर धारी मनुष्य रुप में कभी थे या हैं। उन्हें यह समझना चाहिए कि मनुष्य को मानवीय व्यवहारों द्वारा आदर्श एवं मानक चरित्र की ओर ले जाने के लिए पुराणों का सृजन किया गया था परन्तु कालान्तर से यह वर्तमान समय में उस दृष्टि से मनुष्य हट गया। धर्म शास्त्र हमेशा से एकात्मता व मनुष्य को आदर्श मानव के रुप में निर्माण के लिए सृजित किये जाते रहे हैं। जब-जब मनुष्य जिस रुप में समझने में सक्षम होता है उस रुप में उसका सृजन किया जाता रहा है। नये शास्त्र साहित्यों का सृजन हिन्दू धर्म में लगातार होता चला आ रहा है।
हिन्दू धर्म तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ही देवता के रुप में देखता है। जिसके परिणामस्वरुप ही तैंतीस करोड़ देवी देवताओं की चर्चा धर्म शास्त्रों में मिलती है जिसका आधार मात्र यह है कि मनुष्य इसी प्रकृति द्वारा सृजित है फलस्वरुप ब्रह्माण्ड के जिन-जिन वस्तुओं से वह प्रभावित होता है, उसकी दृष्टि में वे सभी देवी-देवता के ही रुप हैं। स्वाभाविक है मनुष्य जिनसे संरक्षण प्राप्त करता है वे पूज्यनीय ही होते हैं बावजूद इन सभी देवी-देवताओं के मूल रुप से देवी- देवताओं का त्रिस्तरीय संरचना ही सर्वोच्च है। ब्रह्मा-मूल स्तरीय, विष्णु- मध्यम स्तरीय तथा शिव-शंकर सर्वोच्च और अन्तिम स्तरीय। शिव-शंकर का स्वरुप विश्व-ब्रह्माण्डीय होने से वे सर्वत्र विद्यमान हैं इसी कारण वे सर्वमान्य और सार्वाधिक पूज्यनीय हैं। वर्तमान समय के विश्व समाज में जिस प्रकार से भूमण्डलीकरण हो रहा है उसमें विश्व शान्ति व विश्व कल्याण के लिए अब केवल शिव तन्त्र ही शेष अन्तिम मार्ग है। क्योंकि मात्र शिव और उनका तन्त्र ही सर्वत्र विद्यमान हैं। ईश्वर या शिव या आत्मा या ब्रह्म और कुछ भी नहीं सिर्फ सिद्धान्तों का समुच्चय अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त ही हैं। विश्वमानक - शून्य श्रृखला और कुछ भी नहीं विश्व कल्याण व शान्ति के लिए सिद्धान्तों का समुच्चय शिव तन्त्र है। जो व्यक्ति स्तर से ब्रह्माण्ड स्तर तक की व्याख्या करने में पूर्ण सक्षम है। व्यक्ति जब तक इस सर्वोच्च स्तर तक नहीं उठता तब तक उसे यह समझना चाहिए कि वह ईश्वर के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानता है और न ही ईश्वर का लाभ उठा सकता है। क्योंकि ईश्वर को मानने या न मानने से कोई कल्याण होने वाला नहीं जब तक कि ईश्वर को समझा न जाय ईश्वर को समझने का अर्थ होता हैै उन सिद्धान्तों को समझना जिससे व्यक्ति से लेकर ब्रह्माण्ड संचालित हो रहा है। फलस्वरुप मानवीय व्यवहारों को भी समझने की शक्ति आ जाती है जिससे उन रास्तों से जीने की कला का ज्ञान हो जाता है। जिस पर विरोध कम हो। साथ ही समन्वय की विचारधारा सहित वह सभी गुण स्वतः प्रकट होने लगते हैं। जो एक आदर्श मानक मानव के लिए आवश्यक होते हैं। ईश्वर मनुष्य की गुणवत्ता मापने का एक पैमाना है। कोई भी व्यक्ति अपने गुणों को धारण कर ब्रह्मा, विष्णु या शिव-शंकर रुप में व्यक्त हो सकता है परन्तु सर्वोच्चता के शिखर पर एक-एक ही हो सकता है।
महाशिवरात्रि की रात शिव और शक्ति के मिलन की रात हैै। पुराणों में शिव को धारण करने वाले शंकर तथा शक्ति को धारण करने वाली पार्वती है। इसलिए इस रात को ही शंकर-पार्वती के विवाह द्वारा मिलन के रुप में प्रक्षेपित किया गया है। शक्ति के बिना शिव का आभास नहीं होता उसी प्रकार शिव के बिना शक्ति की उपयोगिता नहीं समझ में आती। शिव, शक्ति बिना अधूरे हैं तो शक्ति, शिव बिना अधूरी हैं। दोनों का मिलन ही एक दूसरे के अस्तित्व का प्रमाण है। यह शक्ति ही माया, प्रकृति, नारी तथा शिव ही मायापति, पुरुष, नर के रुप में जाने जाते हैं। जब व्यक्ति प्रकृति के संरक्षण में जीता है तब वह संतान रुप में होता है, जब व्यक्ति प्रकृति से प्रेम करता है तब वह प्रेमी के रुप में होता है तथा जब व्यक्ति प्रकृति पर विजय प्राप्त करता है तब वह पति के रुप में होता है, इसी को मायापति कहते हैं। मुझे प्रकृति ने ही उत्पन्न किया, संरक्षण दिया जिससे कि मैं उससे प्रेम कर सकूँ और विजय प्राप्त कर सकूँ। मेरा प्रकृति के प्रति प्रेम, समर्पण, श्रद्धा, विश्वास यदि न होता तो विजय का परिणाम सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त मुझसे व्यक्त न होता। मन के विश्वमानक का प्रस्तुतीकरण सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रति मेरे असीम प्रेम का ही परिणाम है जिसके लिए मैं प्रकृति द्वारा उत्पन्न और संरक्षित किया गया था। धरती पर मेरे शरीर धारण का उद्देश्य यहीं था जो पूर्ण हुआ। विश्व कल्याण के समस्त प्रकाशित मार्गों से युक्त शरीर में स्थित मैं एक सार्वभौम आत्मा हूँ। जो अपना कार्य सम्पन्न कर मुक्त हो जायेगा।
सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त एक समन्वयीकृत सिद्धान्त है जिसका विस्तार सभी विषयों में प्रवेश उसी भाँति करता है जिस प्रकार शिव को सर्वव्यापी कहा जाता है परिणामस्वरुप धारणकर्ता व्यक्ति किसी भी विषय के साथ जुड़ने पर उसके मूल तक आसानी से पहुँचकर शीघ्रता से कुशलता प्राप्त कर लेता है। ऐसी स्थिति में ऐसे व्यक्ति का सम्बन्ध अनेकों विषयों से होता है तथा समाज में उसके अनेकों रुप व्यक्त होते है और सम्बन्ध रखने वाले अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग रुप में उसे देखते हैं परिणामस्वरुप व्यक्तियों के समक्ष भ्रम की स्थिति उत्पन्न होने लगती है जबकि धारणकर्ता व्यक्ति अभिनेता की भाँति विषयों से जुड़कर सफलतापूर्वक अभिनय करता चला जाता है।
सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित शास्त्र-साहित्य विश्वमानक - शून्य श्रंृखला वहीं शास्त्र है जिससे विश्व समाज मार्ग दर्शन प्राप्त कर स्वयं का कल्याण सहित विश्व की एकता के साथ उसका नियन्त्रण करेगा। समाज में अराजकता, अव्यवस्था और विकेन्द्रीकृत मानव शक्ति का एक ही उपाय है- मन का विश्वमानक तथा पूर्ण मानव निर्माण। यदि विश्व समाज ऐसा नहीं कर सकता है तो मनुष्यता की सारी शक्ति अराजकता और अव्यवस्था के लिए ही खर्च होती चली जायेगी इसलिए आवश्यक है कि संयुक्त राष्ट्र संघ और सदस्य देशों के द्वारा पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी द्वारा पूर्ण मानव निर्माण करना चाहिए क्योंकि ऐसी प्रक्रिया एक लम्बी अवधि की प्रक्रिया होती है जबकि समय व्यतीत होने के साथ-साथ सार्वभौम प्राकृतिक बल द्वारा व्यक्ति और समाज की यहीं अन्तिम परिणति है अर्थात् मन के विश्वमानक स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति व समाज का आना सुनिश्चित है जो उसके पूर्णता का प्रमाण है।
लोकतन्त्र का धर्म-विश्वधर्म है अर्थात् वर्तमान अर्थों में सभी धर्मों का समन्वयरुपी धर्म जिसमें सभी धर्मों के आध्यात्मिक सिद्धान्तों का समन्वय हो। जो मनुष्य के ज्ञान व कर्मज्ञान मात्र से सीधे जुड़ता हो न कि जीवन शैली से। निश्चित रुप से यह आवश्यकता है कि विश्व में एक धर्म हो, एक प्रबन्ध हो, एक शिक्षा हो तथा एक कर्मज्ञान हो जो अब मनुष्य की इच्छा नहीं बल्कि सावभौम प्राकृतिक बल द्वारा यह आवश्यकता उत्पन्न हो जायेगी। अन्यथा मनुष्यता ही खतरे में पड़ जायेगी। इसलिए इसके लिए विश्व के नीति निर्धारक स्वयं ही विवश हो जायंेगे।
भारत विश्व व्यापक होने की ओर नहीं बल्कि अपने सीमा में संकुचित होने की ओर बढ़ चुका है कारण सिर्फ वोट की राजनीति तथा ध्येय से दूर हटकर श्रेय की ओर नेतृत्वकर्ताओं का बढ़ जाना है। ऐसा कोई प्रयत्न या वक्तव्य नहीं दिखाई पड़ता जिससे विश्व शान्ति व कल्याण के लिए कोई प्रक्रिया प्रारम्भ होने की झलक दिखाई पड़े।
मैं एक योजनाबद्ध व परिणाम को जानते हुए इस कार्य को सम्पन्न किया। अब मेरा अगला लक्ष्य भौतिक विज्ञान की ओर से ब्रह्माण्ड की व्याख्या व सम्पूर्ण समन्वयीकृत सिद्धान्त को खोजने के लिए प्रयत्नशील ब्रिटिश ब्रह्माण्ड वैज्ञानिक प्रो0 स्टीफेन हाकिंग की सहायता दर्शन क्षेत्र के सहयोग द्वारा करना है जिससे वे अपने कार्य को इसी जीवन में सम्पन्न कर सकें। सम्पूर्ण एकीकृत सिद्धान्त व सार्वभौम सिद्धान्त इत्यादि के पूर्ण विवादमुक्त स्वरुप के व्यक्त हो जाने से धर्म और ईश्वर सम्बन्धी धारणा का यथार्थ रुप विश्व के समक्ष स्पष्ट हो जायेगा जिससे विश्व को एक नई दिशा मिलेगी और शायद विश्व के उज्ज्वल भविष्य के लिए वह नई सुबह भी होगी।
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