धर्म क्षेत्र को आह्वान
पूर्ण व्यक्त चेतना के साकार सगुण दृश्य रूप श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के अन्तिम समन्वयाचार्य, स्वामी विवेकानन्द की अगली और पूर्ण ब्रह्म की अन्तिम कड़ी, पूर्ण दृश्य विश्वात्मा, भगवान विष्णु के दसवें और अन्तिम कल्कि तथा भगवान शंकर के बाइसवें और अन्तिम भोगेश्वर अवतार के संयुक्त पूर्णावतार के रूप मंे दृश्य सत्य चेतना द्वारा व्यक्त होने के पूर्व तपोभूमि भारत में धर्म की अवनति का कारण तथा उत्थान का मार्ग प्रशस्त करने के लिए समाधिस्थ अवस्था में भ्रमण और पत्राचार करते हुये वे जो कारण पाये वे इस प्रकार है।
1. मानव मन का दृश्य बाह्य विषयों पर केन्द्रित हो जाने के बावजूद दृश्य की ओर से धर्म ज्ञान की ओर कालानुसार और वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था के वैधानिक प्रक्रिया के अनुसार ज्ञान का रूपान्तरण न होना तथा।
2. सुरी प्रवृत्तियों के एक साथ न होने के कारण असुरी प्रवृत्तियो का विकास, कारण असुरी प्रवृत्तिया कर्म पूर्व एकता में होती है तथा कर्म उपरान्त विभाजित होती है। जबकि सुरी प्रवृत्तियाँ कर्म पूर्व ही विभाजित हो जाती है। क्यांेकि इनके साथ ज्ञान होने से परिणाम का ज्ञान भी साथ होता है। यह जानते हुये कि समस्त कर्म उसी विश्वात्मा को समर्पित है तथा अन्ततः वही उसका भोग करता है। भ्रमवश सर्वज्ञ और सर्वोच्चता के अहंकार के कारण उनकी शारीरिक, आर्थिक, मानसिक सहयोग के सहित स्वयं उनके साथ भी एकता स्थापित नहीं करते जिनके कारण वे सर्वज्ञ और सर्वोच्चता को सार्वजनिक प्रमाणित कर सकते है।
उपरोक्त कारणो का नाश करने और विश्वव्यापी धर्म स्थापना के लिए जिन मार्गाे को प्रशस्त किया गया है। वे है-
1. धर्मज्ञान का कालानुसार और वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था के वैधानिक प्रक्रिया के अनुसार रूपान्तरण का धर्मयुक्त शास्त्र-साहित्य कर्मवेदः प्रथम अन्तिम तथा पंचम वेद तथा धर्मनिरपेक्ष और सर्वधर्मसमभाव शास्त्र-साहित्य के रूप में विश्वमानक शून्य श्रंृखला: मन की गुणवत्ता का विश्वमानक अर्थात ज्ञान और कर्मज्ञान आधारित समन्वयीकृत सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त समाहित ”विश्वशास्त्र“ साहित्य।
2. पूर्ण व्यक्त चेतना अर्थात दृश्य सत्य चेतना अर्थात भूतकाल का अनुभव और भविष्य की आवश्यकतानुसार प्राथमिकता के साथ वर्तमान में कार्य करते हुये अपने उद्देश्य को कार्य प्रारम्भ पूर्व सार्वजनिक रूप से ऐसे समय में व्यक्त करना, जब उद्देश्य प्राप्ति मंे कोई संदेह न हो, द्वारा प्रत्येक विषय के सुरी व असुरी प्रवृत्तियों के अहंकार पर ऐसा आघात करना कि उनका मानसिक वध होकर सुरी और असुरी प्रवृत्तियां स्पष्ट रूप से व्यक्त हो आमने-सामने हो जाये।
”विश्वशास्त्र“ साहित्य दृश्य चेतना युक्त ऐसा अभेद, अपरिवर्तनीय, सार्वकालिक, सार्वदेशीय, अन्तिम और पूर्ण शास्त्र-साहित्य है। जो कर्म प्रारम्भ पूर्व सार्वजनिक रूप से ऐसे समय में व्यक्त किया जा चुका है। जिसका समर्थन सुरी प्रवृत्ति, विरोध असुरी प्रवृत्ति तथा निष्क्रीयता अस्तित्व सामाप्ति के वर्गाे में विभाजित कर रहा है।
अतः आप धार्मिक संगठन, संस्था इत्यादि का आह्वान है कि अपने अस्तित्व तथा विश्वव्यापी धर्म स्थापना के लिए शास्त्र-साहित्य का वितरण अपने माध्यम से सतत करते हुये कर्मशील रहें क्यांेकि समाज आपसे यही उम्मीद कर रहा है। ध्यान रहे ज्ञानियो के लिए वाक्य ही चेतना प्रदान कर देता है। मूर्खाे के लिए साहित्य का अनन्त भण्डार भी कम है।
No comments:
Post a Comment