श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ की वाणी
01. काशी (वाराणसी) की परम्परा सत्य के समर्थक एवम् प्रवर्तक के रूप में रही है। सत्य को किसी विशेष के समर्थन की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वह प्रत्यक्ष होता है। मुझे विश्वास है कि काशी अपने परम्परा का पालन अवश्य करेगा।
02. राम प्राकृतिक थे अर्थात व्यष्टि थे क्योंकि वे अपना कार्य परिस्थितियों के अनुसार कियेे जो उनके द्वारा निर्मित नहीं थे। कृष्ण सत्य थे अर्थात समष्टि थे क्योंकि वे अपना कार्य परिस्थितियों के अनुसार, अपने कार्य के लिये परिस्थितियोें का निर्माण कर किये जिसके फलस्वरूप अन्त में सभी परिस्थितियाँ उन पर ही निर्भर करने के लगी और वे यह कहने में सक्षम हुये ‘मै प्रकृति को नियंत्रित कर स्वयं उत्पन हूँ। जिसे कृष्ण चेतना के रूप में माना जाता है। कृष्ण में राम समहित थे। धर्म स्थापना का कार्य जब भी होता है वह कृष्ण चेतना से ही होता है। राम चेतना से नहीं।
03. राम अर्थात व्यष्टि अर्थात प्राकृतिक चेतना से धर्म स्थापना उस समय होता है जब धर्म संस्थापक के जन्म का समाज धर्म युक्त होता है। तथा कृष्ण समष्टि अर्थात सत्य चेतना से धर्म स्थापना उस समय होता है। जब धर्म स्थापना के जन्म समय का समाज अधर्मयुक्त होता है। राम के समय के उपरान्त से धर्म का लगातार ह्रास होता जा रहा है। इसलिए जब भी धर्म स्थापना होगा वह कृष्ण चेतना अर्थात सत्य चेतना से ही होगा।
043. रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द के गुरू थे जिनके नाम उन्होने 1897 में ‘रामकृष्ण मिशन’’ की स्थापना की। वर्तमान काल क्रम में में 100 वर्ष बाद 1997 मंे ‘प्राकृतिक सत्य मिशन ’ की स्थापना लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा की जा रही है जो सभी सर्वोच्च कार्यों का नये नाम से अन्तिम रूप है।
05. प्रकृति का अरिवर्तनीय, सर्वव्यापी, दृश्य, सर्वमान्य, विवादमुक्त, अटलनीय नियम आदान-प्रदान ही प्राकृतिक सत्य है। जब व्यक्ति प्राकृतिक होता है तो उसका अधिकतम नियंत्रण व्यक्ति के बाहर होता है। जब व्यक्ति सत्य होता है तो इसका अधिकतम नियंत्रण व्यक्ति के अधीन होता है। जिसका उच्चतम स्तर मृत्यु को छोड़कर सभी अदान-प्रदान पर नियंत्रण होता है।
06. जो प्राकृतिक है, वही भाग्यवादी है, बुद्धिबद्ध है, विषेशीकृत है। जो सत्य है, वही कर्मयोगी है, ज्ञानी है, सामान्यीकृत है। जो प्राकृतिक है वही व्यष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान में स्थित है। जो सत्य है वही समष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान में स्थित है।
07. वर्तमान काल सम्पूर्ण दृश्य काल में है परन्तु उसका ज्ञान न होने से यह काल अदृश्य एवम् दृश्य काल का मिश्रित काल प्रतीत होता है जो एक से चलकर अदृश्य काल एवं दृश्य काल से होता हुआ पुनः उस एक की ओर ही जा रही है। जब तक काल के पूर्णज्ञान व कर्मज्ञान का परिचय नहीं होता तब तक यह मिश्रित काल ही प्रतीत होगा और विवाद, अशान्ति एवम् अस्थिरता बढ़ती ही जायेगी।
08. व्यष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान से साम, दाम, दण्ड, भेद की रीति से मुक्ति एवम् समष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान का लगातार पालन करने का प्रयत्न ही सत्य है। यही कर्मयोग हैं। यही समष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान की रक्षा है। यही धर्म की रक्षा है। जब-जब इसका अभाव हुआ धर्म की हानि हुयी और जब भी होगा, धर्म की हानि ही होगी।
09. काल परिवर्तन (अदृश्य से दृश्य) की घोषणा मानव सृष्टि में सिर्फ एक बार होती है। मैं अदृश्य से प्रारम्भ हुआ था तथा दृश्य में अन्त हो जाऊँगा। यह प्रारम्भ और अन्त में मैं एक ही हँू। काल परिवर्तन के उपरान्त सत्य-धर्म-ज्ञान का प्रयोग करके परिवर्तित काल के प्रत्येक विषय को विवाद मुक्त करना ही मेरा धर्म है। यह एक व्यापक कार्य है। ऐसे में कार्य से बद्ध होते हुए भी मुक्त होकर कार्य करना पड़ता है। यही माया मुक्त अवस्था है।
10. सत्य चेतना युक्त मानव को दो प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है एक वह जो उसे जीवन निर्माण में सहायता करता है। जिससे वह अपने को आत्मप्रकाश की ओर ले जाता है। यही देश काल मुक्त ज्ञान अर्थात समष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान कहलाता है। दूसरा वह जो कि आजीविका का निर्माण में सहायता करता है जिसमें वह अपने को जीवित व इन्द्र्रिय सुख प्राप्त करता है यही देश-काल-बद्ध ज्ञान अर्थात व्यष्टि सत्य-धर्म-ज्ञान कहलाता है।
11. व्यापार अर्थात आदान-प्रदान का दर्शन अर्थात आदान-प्रदान, ग्रामीण, आधुनिकता, विकास एवम् शिक्षा का शारीरीक, आर्थिक एवम् मानसिक क्षेत्र का विकास ही पाश्चात्य विज्ञान, संस्कृति एवम् भाव है। क्योंकि यह दिशा विहिन है अर्थात यह केन्द्र अर्थात एकता, शान्ति स्थिरता की ओर नहीं है। अर्थात इसमंे आध्यात्म एवम् धर्म की दिशा का अभाव है।
12. योग का अर्थ होता है-जुड़ना। और प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी विषय से अवश्य जुड़ता है। जब व्यक्ति मन द्वारा व्यष्टि अदृश्य विषयों सहित समष्टि दृश्य विषयों से जुड़ता है तो वह अदृश्य योगी कहलाता है। तथा जब व्यक्ति दृश्य विषयों से जुड़ता है तो वह दृश्य योगी कहलाता है। अदृश्य योगी निवृत्ति मार्गी तथा दृश्य योगी प्रवृत्ति मार्गी होते है। निवृत्ति मार्गी आध्यात्म विज्ञान में तथा प्रवृत्ति मार्गी आध्यात्मिकता सहित पदार्थ विज्ञान दोनो में प्रवेश करते है। धर्मज्ञान, आध्यात्म तथा पदार्थ विज्ञान दोनांे से मुक्त होने पर ही प्राप्त होता है। अदृश्य योगी की पहचान आप आसानी से कर सकते हैं। क्योंकि उन्हे योग में जाने के लिए एक विशेष वातावरण एवम् स्थिति में जाना पड़ता है। जबकि दृश्य योगी साधारण व्यक्ति की तरह समाज में रहकर क्रियाकलाप करते है। इसलिए इनको पहचानना मुश्किल हो जाता है। अदृश्य योगी आत्मा का अध्ययन करते हैं जबकि दृश्य योगी आत्मा सहित क्रियाकलाप का अध्ययन करते है। धर्म स्थापना हमेशा दृश्य योगी द्वारा ही होता है। धर्मज्ञान तक दोनांे योगी पहुँचते है। लेकिन अदृश्य योगी अर्थात निवृत्ति मार्गी समष्टि मन की स्थिति का ज्ञान न होने से वे समाज से प्राप्त अवश्य करते है। जबकि दृश्य योगी समाज से जितना प्राप्त करते हैं कहीं उससे ज्यादा समाज को देते है।
13. जो दृश्य योगी होता है लगातार क्रियाकलापों पर ही ध्यान देता है न कि साधना पर। जब उसे, व्यष्टि कार्य करना होता है तो व्यष्टि क्रियाकलापों पर और जब समष्टि कार्य करना होता है तो समष्टि क्रियाकलापों पर ही ध्यान केन्द्रित करता हैा। यही कारण है कि भगवान कृष्ण का जीवन साधना रहित जीवन था। और जो भी ऐसे कार्यो को करेगा उसका जीवन साधना रहित हो जायेगा।
14. जब जब मानव समाज भयंकर रोगों से ग्रस्त हुआ तो मानव ने ही ईश्वरस्थ होकर संजीवनी रूपी वेद से समाज को रोग मुक्त किया। वेद मूलतः मानव तथा प्रकति दोनों को संयुक्त रूप से सन्तुलन, स्थिरता एवम् शान्ति प्रदान करने में सक्षम होते है। वेद किसी भी मानव अविष्कृत सम्प्रदाय का नहीं, वह मूलतः प्रकृति आविष्कृत मानव सम्प्रदाय का है। वेदांे का ज्ञान शाश्वत, सत्य एवम् ईश्वरीय ज्ञान है। न कि वेद पुस्तक।
15. सामाजिक व्यवस्था तीन आधार पर टिकी है प्रथम-धर्म विज्ञान, द्वितीय-आध्यात्म विज्ञान अर्थात अदृश्य विज्ञान, तृतीय-पदार्थ विज्ञान अर्थात दृश्य विज्ञान। आध्यात्म विज्ञान के द्वारा व्यष्टि मन को सन्तुष्ट किया जाता जाता है। पदार्थ विज्ञान के द्वारा व्यष्टिमन एवम् समष्टिमन को सन्तुष्ट किया जाता है। और धर्म विज्ञान के द्वारा जब भी समाज रोगग्रस्त होता है तों उसे रोगमुक्त कर दिया जाता है।
16. आध्यात्म एवम् धर्म चर्चा में प्रायः निवृत्ति मार्गी एवम् प्रवृत्ति मार्गी (अदृश्य योगी एवम् दृश्य योगी) दोनों आपस में एक दूसरे से सहमत होते हैं। परन्तु उसकी स्थापना वही कर सकता है जो समष्टि मन की केन्द्रित वर्तमान स्थिति को निर्धारित कर सकता है। और उसके अनुसार सूत्र उपलब्ध करा सकता है। ऐसा न होने पर चर्चा का स्तर सहमत होते हुए भी वे दोनों स्थापना स्तर पर असहमत एवम् विवाद में हो जाते है।
17. जिस प्रकार व्यष्टि रोगों की मुक्ति के लिए एक चिकित्सक व्यष्टि शरीर के साथ आपरेशन करता है लेकिन वह कार्य अवैध नहीं कहा जाता उसी प्रकार समष्टि (समाज) रोगों की मुक्ति के लिए धर्मज्ञानी समाज का आपरेशन करता है ऐसे में उसके ऐसे भी कार्य जो अव्यावहारिक, असंगत एवम् अवैध दिखते है, नजर अंदाज कर दिये जाते हैं। क्योंकि अस्त से असत्य की उत्पत्ति तथा सत् से सत् की उत्पत्ति होती है।
18. पूर्ण ज्ञान तीन दर्शन का संयुक्त ज्ञान है। प्रथम-गाइडर फिलासोफी (मार्गदर्शन दर्शन), द्वितीय-आपरेटिंग फिलासोफी (क्रियान्वयन दर्शन), तृतीय-डेवलपमेन्ट फिलासोफी (विकास दर्शन) मार्गदर्शक दर्शन वेदान्त का अदृश्य अद्वैत दर्शन है। क्रियान्वयन दर्शन वेदान्त का अदृश्य एवम् दृश्य विशिष्टाद्वैत तथा द्वैत दर्शन है। विकास दर्शन वेदान्त का दृश्य अद्वैत दर्शन है। मार्गदर्शक दर्शन एवम् क्रियान्वयन दर्शन वर्तमान समाज में पूर्णतया प्रकृति एवम् मानव द्वारा प्रभावी हो चुकी है। विकास दर्शन स्वयं प्रकृति द्वारा आंशिक रूप से प्रभावी हो चुकी हैै। जिसका पूर्ण रूप ही विश्वमानक शून्य श्रृंखला अर्थात कर्मवेद प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेदीय श्रृंखला है।
19. भगवान कृष्ण ने कहा है ‘‘कर्म की कुशलता ही योग है’’ अर्थात सर्वोच्च कर्म की कुशलता, सर्वोच्च योग है और एकत्व, स्थिरत्व, शान्ति से युक्त होकर धारण करने वाला सर्वोच्च योगी अर्थात योगेश्वर है और कर्मक्षेत्र है- यही दृश्य मानव जगत। समस्त विषय मानव मन से उत्पन्न होकर वह दृश्य जगत में व्यक्त होता है। स्वर्ग की धारणा भी उच्च मन स्तर से उत्पन्न हुआ है। वह भी व्यक्त होगा। वह यही मृत्यु लोक ही होगा। वह तभी होगा जब हम स्वयं को शून्य को अर्थात मृत्यु स्थापित होकर कर्म करेंगे। यही योगेश्वर का रहस्य है। फिर तुम मृत्युलोक को ही स्वर्ग कहोगे। इसलिए मैं यह कहता हॅू कि यह वही सत्य है जिसे तुम वर्तमान में आत्मसात् करने की क्षमता खो बैठे हो।
20. ओ भारत के सिद्ध पुरूषों, योगियों, बुद्धजीवियों, सामाजिक नेतृत्वकर्ताओं आप सब क्या तलाश कर रहे हैं आप यदि भारतीय प्राचीन ज्ञान द्वारा भारत सहित विश्व के निर्माण हेतू प्रयासरत है तो इसके लिए प्रयत्न समाप्त कर दें। वह सभी कुछ तलाश किया जा चुका है। आ जाये समाज में और विश्व कल्याण हेतू सत्य-धर्म-ज्ञान आचार्य का सर्वोच्च स्थान ग्रहण करें। देखे समाज बिखर कर विनाश की कगार पर खड़ा हो गया है।
21. मैं (आत्मा) जानता हँू कि तुम में से अधिकतम व्यक्ति ईश्वर नाम को धारण कर चुका है। इसलिए तुम्हें उसके वास्तविक अर्थ में स्थापित करने के लिए पूर्ण ज्ञान से युक्त होना पड़ेगा इस नाम के कारण ही तुम लड़ने में कम लड़ाने में अधिक कुशल हो गये हो। मैं चाहता हँू कि तुम सभी स्वार्थी बन जाओ जिसका स्तर स्वयं, ग्राम, क्षेत्र, जनपद, प्रदेश, देश या विश्व का में से कुछ भी चुन लो और अपने उस लड़ाने के गुण का प्रयोग करो जिससे एक ऐसे आत्मशक्ति आधारित युद्ध का जन्म हो जिसमें एक तरफ मैं रहूँ दूसरी तरफ सम्पूर्ण मानव समाज। विश्वास मानो आत्मशक्ति की विजय होगी और इस युद्ध का परिणाम सम्पूर्ण मानव समाज के लिए पूर्ण लाभकारी ही होगी। यदि मेरी बलि भी चढ़ गयी तो इसमें तुम्हारा क्या जायेगा?
22. हम राजतंत्र से निकलकर प्रजातंत्र (लोकतंत्र) की ओर बढ़ गये हैं जो मानव आविष्कृत राष्ट्र की सीमा में बद्ध हो गया है। लेकिन भविष्य में ये मानव आविष्कृत राष्ट्र की सीमा भी टूटकर पूर्ण प्रजातंत्र के लिए प्रकृति आविष्कृत राष्ट्र (विश्व) के रूप में परिवर्तित हो जायेगा, तभी हम पूर्ण प्रजातंत्र को प्राप्त कर पायेगें।
23. स्वतंत्रता के तीन स्तर है - निम्न - शारीरिक, मध्य-आर्थिक, उच्च-मानसिक। लेकिन पूर्ण स्वतंत्रता तभी आती है। जब आध्यत्मिक स्वतंत्रता प्राप्त होती है। वर्तमान विश्व राष्ट्र को पूर्ण स्वतन्त्रता की अत्यन्त आवश्यकता है। क्योंकि इसके बिना कार्य की दिशा निर्धारित करना असम्भव है।
24. जब व्यक्ति एवम् देश के शरीर को स्वतंत्र करना था अर्थात प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम था। तब देश भक्तों की आवश्यकता थी। अब जब द्वितीय स्वतन्त्रता संग्राम का अवसर है तब देश भक्त (भारत भक्त) सहित राष्ट्र भक्त (विश्व भक्त) की आवश्यकता है। क्योंकि देशभक्त की भावना में दूसरे देश के प्रति अपनत्व नहीं आ पाती। दूसरे देश के प्रति अपनत्व की भावना तभी आ सकती है जब वह राष्ट्र भक्त हो। प्रकृति अविष्कृत राष्ट्र एक विश्व है। जिसमें मानव अविष्कृत राष्ट्र-देश समाहित हैं।
25. यह प्रश्न हो सकता है कि पूर्ण ज्ञान या पूर्ण स्वतन्त्रता के बाद समाज और लोकतंत्र बिखर नहीं जायेगा? ऐसा कदापि नहीं होगा बल्कि वह स्वस्थ हो जायेगा क्योंकि व्यक्ति समाज और लोकतंत्र का देश काल मुक्त ज्ञान एवम् कर्मज्ञान सभी में समान हो जायेगा और देश काल बद्ध ज्ञान एवम् कर्मज्ञान से युक्त होकर अपने अधिकार क्षेत्र में ही वे कार्य करेंगे। वर्तमान समय के तरह नहीं कि जो कर्म व्यक्ति को स्वयं कर लेने चाहिए उसे भी वे नेताओं पर छोड़े रहते है।
26. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से प्राप्त स्वतन्त्रता के उपरान्त भारत के संविधान का निर्माण हुआ जो सुरक्षा, कर्मफल एवम् पश्चिमी भाव आधारित संविधान है। अब द्वितीय एवम् पूर्ण स्वतंत्रता के उपरान्त भारतीय संविधान का विष्व संविधान में परिवर्तित करना हो तो शान्ति, कर्म-कारण एवम् भारतीय भाव आधारित संविधान का निर्माण करना होगा जो एकात्म कर्मवाद पर आधारित होना चाहिए न कि एकात्मवाद (एकात्म संस्कृति) पर आधारित।
27. वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति का क्रियाकलाप विश्व स्तर तक को प्रभावित करने लगा है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति को इसके ज्ञान से युक्त करना आवश्यक है। जिसके लिए राष्ट्र एवम् देश को परिभाषित करना पडे़गा। प्रकृति अविष्कृत राष्ट्र विश्व है। तथा मानव अविष्कृत राष्ट्र देश है यदि ऐसा नहीं है तो हम कभी भी विश्व से नहीं जुड सकते क्योंकि राष्ट्र भक्त एवम् देश भक्त की सीमा मानव अविष्कृत राष्ट्र तक ही सीमित रह जायेगी। हमें अपने समस्त सम्बन्धों को विश्व राष्ट्र से जोड़ देना चाहिए।
28. राष्ट्र जिसे हमें विश्व के विभिन्न अंशों में से किसी एक को कहते है। वह मानव द्वारा सीमा बद्ध किया गया है। प्रकृति से उत्पन्न राष्ट्र विश्व है। मानवीय सत्य, प्राकृतिक सत्य में निहित है। यह प्राकृतिक सत्य मानव निर्मित राष्ट्रों को मानव द्वारा ही तोड़ने पर मजबूर कर देगा और उसे उसके द्वारा निर्मित विश्व राष्ट्र की प्राप्ति हो जायेगी। राष्ट्र एक था और उस एक को वह प्राप्त करेगा ही।
29. हम राजनीतिक पार्टियों से उनके क्रियाकलापों का मानक माँगते है जिन पर वे अपने कार्यो की माप करते है। हम जानते हैं कि उनके पास कोई मानक नहीं क्योंकि उन्हें कोई धर्म ज्ञान नहीं। वे कभी गाँधी के एक विचार को लेंगे कभी अम्बेडकर के, कभी कुरान के, कभी विवेकानन्द के, कभी राम के, कभी गीता के, कभी मनु के, कभी लेनिन के, कभी माक्र्स के और कभी जो मन में आये स्वंय बोल लिए। यही उनका मानक है लेकिन वे ये नहीं जानते कि ये सभी व्यक्ति किसी न किसी रूप में प्राकृतिक सत्य के ज्ञान से युक्त थे लेकिन इनका विषय सन्तुलित न होकर सिर्फ एक ही था।
30. यह अतिशीघ्र सोचने का विषय है कि एक तरफ हम दूसरे ग्रहों पर स्वयं को स्थापित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। दूसरी तरफ परमाणु युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं। ऐसे वातावरण में हम दो तरह के भविष्य का निर्माण कर रहे हंै। प्रथम यह कि आने वाली पीढ़ी को शायद यह कहकर आधुनिक विज्ञान का परिचय कराना पडे़ कि यह हमारे पूर्वजांे की तकनीकी थी जो अब विलुप्त हो गयी है दूसरा यह कि दूसरे ग्रह पर स्थापित करने के बाद वहां से सम्बन्द्ध विच्छेद हो जाये और वहाँ भी कुछ पीढ़ियों के बाद यह कार्य जो सत्य था एक कहानी मात्र बनकर रह जाये। इन दोनों रास्तों में से किसी रास्तों पर चलने के लिए मानव निर्माण नहीं हुआ है। मानव का निर्माण सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आत्मासात्््् करने के लिए हुआ है।
31. यदि भारत आज समृद्धि की ओर है। सोने की चिड़िया पुनः बनने की ओर है अगर इसका श्रेय किसी को है तो इसके साथ आज भी बेरोजगारी का चादर ओढे़ युवक, गंदे राजनीति को बढ़ावा, अपराध, शोषण, अपूर्ण शिक्षा प्रणाली, महिलाओं को अभी भी अधिकार न देना, भ्रष्टाचार मानव अविष्कृत धर्म एवम् जातियों को बढ़ाने की श्रेय भी उसी को है।
32. हम बेरोजगारी को दान से, साम्प्रदायिक दंगों को कानून से, मानव अविष्कृत धर्म को मानव अविष्कृत धर्म से, स्वार्थ को स्वार्थ से, गंदे राजनीति को गंदे राजनीति से कभी समाप्त नहीं कर सकते। इन सभी का समाप्त करने का एक ही उपाय है वह है देश काल विवादमुक्त दृश्य प्राकृतिक सत्य धर्म का ज्ञान।
33. भारत की एकता को खतरा मानव अविष्कृत धर्मो के समर्थकांे से नहीं बल्कि उस भक्ति से है जो मानव ज्ञान को बद्ध कर देती है। यह भक्ति चाहे माँ का हो, पिता का हो, भाई का हो, बहन का हो, पुत्र का हो, पुत्री का हो, प्रेमी का हो, प्रेमिका का हो, अदृश्य ईश्वर/अल्ला का हो या किसी और का हो हमारे ज्ञान को अवरूद्ध कर देता है। हम प्रबन्धकीय क्षमता, नेतृत्वशीलता, संचालक गुणों को तो प्राप्त नहीं कर पाते साथ ही इन गुणों को पहचानने की क्षमता भी खो बैठते है। यह भक्ति उस काल का अविष्कार था जब मानव की आवश्यकतायें नगण्य थी। और हमारे मन को किसी के भक्ति पर केन्द्रित करने की आवश्यकता थी। आज हमारा मन जिन स्थूल आवश्यकताओं पर केन्द्रित है उसके प्राप्ति के लिए प्राकृतिक सत्य के ज्ञान की आवश्यकता है। जिससे प्रबन्धकीय क्षमता, संचलनकर्ता, दार्शनिक, आविष्कारक जैसे गुण उत्पन्न होते हैं। ये वर्तमान स्थूल आवश्यकतायें कभी भी भक्ति से प्राप्त नहींेेेे हो सकती। यदि हमें भक्ति करना है तो स्थूल आवश्यकताओं की कामना छोड़नी होगी। यदि स्थूल आवश्यकताओं को प्राप्त करना है तो प्राकृतिक सत्य के ज्ञान को धारण करना पडे़गा।
34. भारत के राजनीतिक पार्टियों की पचास वर्षो की उपलब्धियों को यदि देखें तो पायेगें कि कोई भ्रष्टाचार से युक्त मानव मन का निर्माण कर रहा है तो कोई बुद्धि बद्ध मानव मन का निर्माण कर रहा है। तो कोई जातिवाद एवम् सम्प्रदायवाद से युक्त मानव मन का निर्माण कर रहा है और इसके दोषी भी ये नहीं है क्योंकि जो ज्ञान उपलब्ध नहीं है उसके कारण उत्पन्न दोष का दोषी मैं हँू। आप स्वयं इन्हें नहीं पहचान सकते क्योंकि वेदान्त-सिद्धान्त का पूर्ण अभाव हो गया है। सत्य तो यह है कि कोई आप के लिए कार्य नहीं करता, सभी अपने लिए ही कार्य करते है। मैं भी यही कर रहा हँू। बस अन्तर यह है कि मेरी शान्ति एवं स्थिरता का पूर्ण अंश समष्टि धर्म में है और अन्य का व्यष्टि धर्म में है।
35. निःस्वार्थ भाव से सामाजिक विकास एवं ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करने वालो के संदेश से यह आवश्यक है कि लोग उसे निःस्वार्थ होकर ही समझने की कोशिश करें। यदि वे ऐसा नही करते तो निश्चय ही उनका मन ज्ञान पर केन्द्रित नहीं है। ऐसे में मार्ग प्रशस्त करने वाले इतिहास बन जाते है। और वे लोग जिनका मन ज्ञान पर केन्द्रित नहीं होता, भाग्य को कोसते रहते है।
36. वह मनुष्य क्या करे ? जो धर्म, न्याय, सत्य की रक्षा करना चाहता हो लेकिन समाज में रहने के कारण उससे बड़े एवम् छोटे व्यक्ति भी है। यदि बड़े लोग ही अधर्म, अन्याय व असत्य पर हो तो विरोध करने पर स्वयं उसके चरित्र पर कलंक लगता है और विरोध न करने पर वह मनुष्य स्वयं अपनी नजर में अधर्मी, अन्यायी व असत्य पर चलने वाला हो जाता है।
37. समाज, जाति या धर्म आधारित होती है। यह जाति प्रकृति द्वारा निर्धारित विभिन्न जीवों की जातियाँ है। तथा धर्म, ज्ञान है। प्रकृति द्वारा निर्धारित जातियों में मानव एक जाति है जिसका समाज, मानव समाज है। जो प्रकृति से अलग नहीं है। प्रकृति से मिलकर मानव प्राकृतिक समाज का निर्माण करता है। तथा धर्म, प्राकृतिक धर्म कहलाता है।
38. जो धर्म है। वह एकतावादी है। जो वाद है वह अलगावादी है, सम्प्रदायवादी है ये न ही एकतावादी है और न ही धर्म ज्ञान से युक्त है। समाजवाद, धर्म का तथा सम्प्रदायवाद, वाद अर्थात अधर्म का स्वरूप है।
39. यह मै नहीं जानता कि मेरा भविष्य क्या है, लेकिन मै यह जानता हूँ कि मंै संपूर्ण मानव समाज को धर्म का अर्थ समझाने के लिए प्रयत्नरत हूँ जिस ओर बढ़ा प्रत्येक कदम ही अर्थ को प्रदर्शित एवम उसके रहस्य को उजागर करता कदम होगा। जिसका अन्त खुद के अन्तिम संस्कार को जलाने के अलावा किसी अन्य विधि से करवाने की इच्छा होगी। जिसका उद्देश्य किसी मानव अविष्कृत धर्म को प्रभावित करना नहीं बल्कि धर्म इन संस्कारों से मुक्त है को प्रमाणिक आधार देना होगा।
40. राजनीति, धर्म की स्थापना की सम्पूर्ण नीति है जिसका उद्देश्य ब्रह्माण्ड के विकास के लिए एकता एवम् शान्ति को सन्तुलित बनाये रखना है। यह धर्म, प्राकृतिक धर्म है, न कि मानव अविष्कृत धर्म। यही राजनीति जब मानव अविष्कृत धर्म की स्थापना एवम् व्यक्तिगत स्वार्थ अर्थात विकास के लिए की जाती तो कूटनीति कहलाती है। वर्तमान समय में राजनीति शून्य अवस्था को तथा कूटनीति चरम अवस्था को प्राप्त है।
41. माया मुक्ति के पाँच रास्ते कर्म, ज्ञान, राज, प्रेम एवम् भक्ति योग है, ये स्थूल एवम् सूक्ष्म दोनों कार्यो में समयानुसार उपयुक्त है। ये मानव की असीम शक्तियाँ भी है। जिसके ज्ञान से मनुष्य को संघर्शशीलता, नेतृत्व क्षमता, धार्मिक कार्य, राजनीति, समय की पहचान जैसे गुण उत्पन्न होते है। इन रास्तों की अज्ञानता ही मनुष्य के दुःख का कारण है। क्योंकि इन रास्तांे की अज्ञानता ही समस्याओं का हल निकालने में बाधक बनती है। समाज ने समयानुसार उपयोगी इन रास्तों की जब भी उपेक्षा की है तब अधर्म, अन्याय, और असत्य की सत्ता कायम हुई है।
42. सभी मानव अविष्कृत धर्म राजतन्त्र के साम्राज्यवादी व्यवस्था में अविष्कृत किये गये हैै। जो अलगाववादी है जबकि धर्म एकतावादी है। वर्तमान समय में हम राजतंत्र एवम् साम्राज्यवादी व्यवस्था से निकलकर लोकतन्त्र एवम् राष्ट्रवादी व्यवस्था में आ गये है। हमें मजबूरन साम्राज्यवादी व्यवस्था को भूलना पड़ेगा। जब तक हम ऐसा नहीं करते हम अव्यवस्था एवम् अशान्ति का शिकार होते रहेंगे। हमें लोकतंत्र का धर्म व उसका धर्मशास्त्र निर्धारित करना पड़ेगा।
43. अपराध, निजी स्वार्थ के लिए किया गया अधार्मिक कार्य है। निजी स्वार्थ के लिए किया गया कार्य अपराध जो धर्म युक्त हो अपराध नहीं होता है। उसी प्रकार सामाजिक विकास के लिए किया गया अपराध, अपराध नहीं होता क्यांेकि धार्मिक कार्य जिस प्रकार अज्ञानी को ज्ञान देना, विकास कार्य करना, मुर्खों को यथावत् छोड़ देना है उसी प्रकार धार्मिक कार्य में बाधा उत्पन्न करने वालों का विनाश भी धार्मिक कार्य है लेकिन यह धर्म प्रकृति अविष्कृत धर्म होना चाहिए, मानव अविष्कृत धर्म (वाद) नहीं।
44. जिसे हम स्वर्ग या जन्नत कहते हैं वह अच्छे विचार, व्यवहार एवम् कार्य का परिणाम है। जिससें हमें सुख प्राप्त होता है। वहीं जिसे हम नरक या जहन्नुम कहते है। वह बुरे विचार, व्यवहार एवम् कार्य के परिणाम है। जिससे हमें दुःख प्राप्त होता है। जो यहीं हमारे जीवन में हमें और हमारे परिवार को भुगतना पड़ता है। यह व्यवहार ही मानव के मन में हमारे प्रति व्यवहार का निर्माण करवाता है। चाहे वह उस व्यक्ति द्वारा प्रकट रूप में महसूस हो या न हो, यही भविष्य में हमारे सुख एवम् दुःख का निर्माण एवम् वातावरण पैदा करता है। इस विश्व से बाहर नरक या स्वर्ग नाम की कोई जगह नहीं है।
45. थोड़ा स्वार्थ आने से अव्यवस्था आती है। थोड़ा निःस्वार्थ होने से व्यवस्था ठीक होने लगती है। थोड़ा सोने से कुछ खो जाना पड़ता है। थोड़ा जागने से कुछ बच जाता है। थोड़े समय के कारण कोई मर जाता है। थोड़े समय के कारण कोई जिन्दगी पा जाता है। यह थोड़ा बड़ी अजीब चीज है। थोड़ा स्वार्थी एवम् अज्ञानी होने से मन्दिर, मस्जिद टूट जाते है। दंगा हो जाता है। भ्रष्टाचार बढ़ जाता है। इसलिए हम आपको थोड़ा निःस्वार्थ एवम् निष्पक्ष होकर वक्त को पहचानने के लिए कह रहे है। इसलिए हमने थोड़ा सा ही कार्य किया, अपने मानव समाज के लिए, देश के लिए, विश्व के लिए। इस थोड़े से कार्य का हमारा उद्देश्य विषय, विशेषज्ञ, परिभाषा, शिक्षा, मानव विभेद, मानव क्रियाकलाप, नीति, अपराध एवम् मानव अविष्कृत धर्मो का विश्व मानकीकरण एवम् स्थापना है। आपका थोड़ा सहयोग प्राप्त हो तो निःस्वार्थ कुछ थोड़ा छोटा-छोटा कार्य और करना चाहुँगा।
46. यह बड़े दुःख ही बात है कि भारत जैसा देश जो दर्शन का जन्मदाता रहा है। आज तक विषय और विशेषज्ञों की परिभाषा, मानव क्रियाकलापों, मानव विभेद, शिक्षा, नीति, अपराध एवम् मानव अविष्कृत धर्मों का मानकीकरण नहीं कर सका। और न ही दृश्य गुणों से युक्त अर्थात लोकतंत्र के लिए धर्म, ईश्वरनाम, पूजास्थल एवम् धर्म ग्रन्थ का आविष्कार कर सका। यह इस बात को प्रदर्शित करता है कि हमारा मन ज्ञान पर नहीं बल्कि पद, प्रतिष्ठा, पूजास्थल, धन, मानव अविष्कृत धर्मो एवम् जातियों, वेशभूषा, संस्कृति, भोजन, मनोरंजन, भाषा एवं अनुपयोगी साहित्यों के सृजन पर टिकी हुयी है। साहित्य से समाज की रूचि कम होने के कारण भी यही है। हमारा मन पूर्णतः धन पर केन्द्रित हो गया है और वह भी चाहे जैसे कर्मो से। यही कारण भी रहा कि शिक्षा का उद्देश्य नौकरी द्वारा धन कमाने से हो गया। यदि पूर्ण शिक्षा प्रणाली होती तो देश बेराजेगारी से नही घिरा होता। शिक्षा का उद्देश्य धन कमाना तो होता लेकिन वह नौकरी के साथ उद्यम भी होता। यह सोचनें का विषय है कि यदि शिक्षा के प्रति भावना ये बन गयी हो कि ‘‘जिस शिक्षा से नौकरी नहीं वह शिक्षा क्यों’’? तो इस भावना को उत्पन्न करने का जिम्मेदार कौन है? जबकि ज्ञान से कर्म है, धर्म है, धन है, नेतृत्वकत्र्ता की पहचान है।
47. हम सभी को इस प्रश्न विचार करना होगा कि मानव जब पशु मानव के सहजात ज्ञान अवस्था से साधारण ज्ञान अवस्था में आया तो उसे प्राकृतिक सत्य का प्रथम अनुभव हुआ। उसके उपरान्त ही मानव ने सूक्ष्म विज्ञान के द्वारा ईश्वर, अल्ला, गाॅड का अविष्कार किया। तब से लेकर वर्तमान तक मानव आविष्कृत धर्म विद्वानों ने उस अदृश्य विवादमुक्त ईश्वर, अल्ला, गाॅड की ओर ही मानव का मन केन्द्रित करते रहे जबकि धार्मिक स्थलों के साथ जुड़ी घटनाये जो हुयी, हो रही है, होती रहेगी, सर्वज्ञ है। क्या कारण था कि धर्मं विद्वानों ने आज तक उस देश, काल मुक्त प्राकृतिक सत्य की ओर मानव का मन केन्द्रित नहीं किये। ऐसा नहीं कि वे प्राकृतिक सत्य ज्ञान से युक्त नहीं है। मानव आविष्कृत धर्म विद्वानों की यह अवस्था ज्ञानी मानव की स्वार्थमय अवस्था थी और है। यदि प्राकृतिक सत्य की ओर मानव मन को केन्द्रित कर देते तो उनकी सत्ता भी समाप्त हो सकती थी। और वे सुख साधन से वंचित हो सकते थे। यही वे कारण हैं जिनसे वे सिर्फ सूक्ष्म कार्य में मानव का ध्यान केन्द्रित करते रहते है। ईश्वर, अल्ला, गाॅड के अवतार द्वारा सामाजिक परिवर्तन की शिक्षा देने वाले, मानव की सेवा करने की शिक्षा एवं कार्य करने की शिक्षा के बजाए वे अपनी सेवा कराने में व्यस्त रहते हैं।
48. प्राकृतिक सत्य के ज्ञान के बिना मानव अन्य जीव की भाँति सिर्फ जीव है।
49. मानव प्रकृति के अदृश्य ज्ञान को दृश्य ज्ञान में परिवर्तित करने का माध्यम मात्र है।
50. जो ससीम में असीम है, जो बद्ध में मुक्त है, जो पक्ष में निष्पक्ष है, जो साधारण में असाधारण, जो शक्ति में महाशक्ति है, वही विजेता है, वही आश्चर्य है और वहीं समर्पण है।
51. मनुष्य के अन्दर उत्साह, धर्म, न्यायप्रियता व सत्यता के गुण सर्वप्रथम माता-पिता या अभिभावक से ही प्राप्त होते हैं लेकिन माता-पिता या अभिभावक में ही ये गुण न हो तो सन्तानों या आश्रितों का क्या दोष?
52. पहले मनुष्य सिर्फ कार्य करता था फिर भूतकाल के कार्यों के सीख से वर्तमान में कार्य करने लगा। वर्तमान समय में वहीे मानव सफलता को प्राप्त करता है जो भूतकाल के सीख भविष्य की आवश्यकताओं के अनुसार वर्तमान में कार्य करता है।
53. किसी भी कार्य को करने में सफलता और असफलता दो रास्ते होते है लेकिन न करने में सिर्फ असफलता का एक ही रास्ता होता है।
54. उद्देश्य गलत अर्थात अधर्म युक्त होने पर, अच्छा कर्म अर्थात धर्म युक्त कार्य भी में विनाश का कारण होता है उद्देश्य अच्छा अर्थात धर्म युक्त होने पर, गलत अर्थात अधर्म युक्त कार्य भी विकास का कारण होता है।
55. कौन कहता है कि मोक्ष प्राप्त करना है, तुम्हारा यह मनुष्य जीवन ही सबसे बड़ा मोक्ष है बस तुम्हे कर्मज्ञान का ज्ञान न होने के कारण यह जीवन दुःखमय लगता है। तुम कर्म-ज्ञान से युक्त हो जाओ यह बात स्वतः प्रमाणित हो जायेगी।
56. वेद, सूक्ष्म विज्ञान द्वारा उत्पादित या अविष्कृत एक साहित्य है जो उस काल के ज्ञान, विज्ञान, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक, शारीरिक स्थिति की व्यक्त अवस्था हैै।
57. धर्म ग्रन्थ, धार्मिक कार्य करने के ज्ञान का व्यक्त अवस्था है जो साहित्य है। सूक्ष्म कार्य करने का धर्म ग्रन्थ, सूक्ष्म धर्म ग्रन्थ तथा स्थूल कार्य करने का धर्म ग्रन्थ, स्थूल धर्म ग्रन्थ कहलाता है।
58. पूजा स्थल, सूक्ष्म विज्ञान द्वारा आविष्कृत एक ऐसा स्थल है जहाँ मानव के सूक्ष्म कारण केन्द्रित अस्थिर मन को स्थिरता प्राप्त होती है। यह विधि मानव के स्थूल कारण एवम् विषयों पर केन्द्रित मन को कभी भी स्थिरता प्रदान नहीं कर सकती।
59. कर्म एवम् उद्देश्य प्राप्ति, बिना दृढ़ निश्चय के नहीं होता। दृढ़ निश्चय जीवन की एक तपस्या है, तपस्या में परीक्षा, अग्निपरीक्षा, धर्मसंकट आते ही है। जिससे मनुष्य को हारना नहीं चाहिए उसके बाद तो रास्ते स्वतः ही खुल जाते है।
60. माया मुक्ति या मोह मुक्ति या निःस्वार्थ का अर्थ यह नहीं कि मनुष्य अपने जीवन उपयोगी सभी संसाधनों एवं सम्बन्धों का त्याग कर दें। इसका अर्थ है कि संसाधनों एवं सम्बन्धों से व्यक्ति इस प्रकार जुड़ा रहे जैसे उन सम्बन्धों एवम् संसाघनों के रहने से कोई दुःख नहीं तो इसके न रहने से भी कोई दुःख न हो।
61. ‘रामायण’ व ‘महाभारत’ दो ऐसे ग्रन्थ है जिसमें पहले में मुख्यतः घर के सभी चरित्र तथा दूसरे में मुख्यतः समाज के सभी चरित्रों का चित्रण है जो आज भी हो रहा है आगे भी होता रहेगा। इनसे हमें शिक्षा लेकर चरित्र में धारण करना चाहिए। इनकी भक्ति से अच्छा इन्हे पढ़ना ही बेकार है।
62. माता और पिता तीन कारण से होते हैै - जन्म कारण, ज्ञान कारण एवम् कर्म कारण। शास्त्रों में माता पिता आचार्य को ईष्वर का सम्मान प्राप्त है। जिनका सम्मान तभी तक बना रहता है जब तक इन तीनों कारणों में से ये कम से कम दो कारणों से युक्त होतें है। और तभी तक पारिवारिक एवम् सामाजिक स्वथता बनी रहती है।
63. जिस प्रकार नियम होने से टूटने पर अव्यवस्था फैलती है। और नियम न रहने पर नियमबद्ध होने से अव्यवस्था फैलती है। उसी प्रकार मानव का मन और ज्ञान एक था। इनका अलग होना ही अव्यवस्था, अस्थिरता, एवम् असंतुलन का कारण है। हम अपने मन और ज्ञान को पुनः एक साथ कर दे तो धर्म को स्वतः ही समझ जायेंगे।
64. मानव प्रकृति से उत्पन्न, प्रकृति से युक्त एक ऐसा जीव है जिसका मन एवं ज्ञान पृृथक है जिसके कारण एक ही साधारण ज्ञान अर्थात द्वन्द अवस्था में रहता है। इन दोनांे का योग ही मानव को सन्तुलन एव् स्थिरता प्रदान करता है। यही अवस्था मानव की ज्ञानातीत अवस्था होती है।
65. साहित्य काल के आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक, स्थिति का व्यक्त अवस्था है। जिसका सृजन प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी विषय पर करना चाहिए। ये शोध, अनुसंधान, इत्यादि के स्रोत है। जो ज्ञान के योग्य होती है, भक्ति के नहीं।
66. प्रत्येक त्याग के बाद जो हम खोते हैं उससे अधिक उपलब्धि हमारे साथ होती है प्रत्येक स्वार्थ के साथ जो हम पाते है उससे अधिक हम खोते है। यह बात अलग है कि हमें प्राकृतिक सत्य का ज्ञान न होने से यह नहीं जान पाते कि हमनें क्या खोया? क्या पाया ? यह हमारी अज्ञानता है जो हमारे विकास में बाधक है।
67. हम कहाँ है? यह हमने नहीं सोचा लेकिन हम उस स्थिर, संतुलित, विवाद मुक्त अदृश्य कारण सत्य-धर्म-ज्ञान (ईश्वर, अल्ला, गाॅड) इत्यादि के दृश्य विवाद युक्त प्राकृतिक सत्य-धर्म-ज्ञान का अध्ययन करते हुये विकास कर उस स्थिर, संतुलित, विवाद युक्त, अदृश्य कारण सत्य-धर्म-ज्ञान की ओर स्थायित्व एवं संतुलन प्राप्ति के लिए बढ़ रहे है।
68. हम अगर यह सोचे कि धर्म, ज्ञान, मन एवं मानव में इस पृथ्वी पर इनका आने का क्रम क्या था तो पायेगें, पहले मानव आया जो मन और ज्ञान से युक्त था, फिर मन और ज्ञान अलग हो गया तब धर्म की उत्पत्ति हुई। उसके उपरान्त मानव आविष्कृत धर्मो की उत्पत्ति हुई और पुनः उस धर्म के वास्तविक अर्थ की ओर बढ़ रहे है।
69. भाषा, गुणों को प्रदर्शित करता हुआ शब्दों का ऐसा संग्रह है जिससे मानव एक दूसरे से सम्पर्क स्थापित करता है। शब्द के गुण का ज्ञान न होने से अर्थात नाम के गुण का भाव न होने से वह शब्द निरर्थक, गुणरहित, ध्वनि मात्र बनकर रह जाती है। यही मंत्र और ईश्वर नाम का रहस्य है।
70. गुण अवगुण तो हर मनुष्य मेें होते हैं। किसी विशेष अवगुण के कारण ही मनुष्य घृणा का पात्र बनता है लेकिन उससे सभी गुणों का नाश नहीं होता। उसके उस अवगुण में भी कोई न कोई कारण अवश्य छिपी रहती है। यह अलग बात है कि हम उसे जानना नहींें चाहते।
71. ज्ञान से भरे संसार में एक अज्ञानता या मूर्खता का कार्य उसे समस्त संसार में मूर्खता का कारण बनाता है। उसी प्रकार अज्ञानता से भरे संसार में एक ज्ञानता या बुद्धिमता का कार्य उस समस्त संसार में प्रसिद्धि का कारण बनाता है। हमें स्वयं की प्रसिद्धि के लिए वक्त का पहचान करना पड़ेगा नहीं तो वक्त हमें भी पहचानने से इन्कार कर देगा।
72. किसी भी कार्य को करने के लिए पहला कदम है दृढ़ संकल्प, दूसरा कदम है उपलब्ध सुविधा या सूचना, जिससे योजना का जन्म होता है। इसके उपरान्त ही कोई कार्य सम्भव है। सूचना के लिए सम्पर्क आवश्यक है। सम्पर्क ही न रहे तो कोई भी कार्य असम्भव ही नहीं नामुमकिन हैै।
73. विकास के दो अलग कार्यो में दो अलग-अलग व्यक्तियों में मतभेद हो सकता है। उसका मूल्यांकन विकास की गति, कार्यो द्वारा प्राप्त साख तथा कार्य के भविष्य के आधार पर कर मतभेद समाप्त करना चाहिए। यदि कार्यों द्वारा प्राप्त साख व्यक्तिगत है तो मूल्यांकन हमेशा सामाजिक साख से कम होगा।
74. भविष्य के आधार पर कार्य करना उचित ही नहीं सर्वोत्तम है। प्रकृति में उपलब्ध सभी विषयों को अध्ययन के रूप में लेना चाहिए। क्योंकि प्रकृति हमारे ज्ञान के अनुसार नहीं चलता बल्कि वह अपने ही नियमानुसार चलता है उसमें से किसी प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता असमय भी पड़ सकती है।
75. असाधारण एवम् साधारण व्यक्ति में एक ही अन्तर है। पहला व्यक्ति सभी गलत कार्य ज्ञानयुक्त अवस्था में करता है। जो समाज मे भौतिक साधन व ज्ञान उपलब्ध कराता है। दूसरा व्यक्ति अनजाने अर्थात अज्ञानयुक्त अवस्था में करता है जिससे समाज में विनाश अवस्था उत्पन्न होती है।
76. व्यक्ति का ज्ञान दो प्रकार का होता है बाह्य एवं अन्तः। बाह्य ज्ञान द्वारा उसका मूल्यांकन सभी कर लेते हैै। लेकिन अन्तः ज्ञान का मूल्यांकन करने के लिए मूल्यांकनकत्र्ता में भी अन्तः ज्ञान का होना आवश्यक है ऐसा न होने पर अन्तः ज्ञानी तो सभी को मूल्यांकन कर लेता है। लेकिन बाह्य ज्ञानी सिर्फ स्वयं का ही मूल्यांकन करवाता है वह कभी भी दूसरों का मुल्यांकन नहीं कर पाता।
77. जरा सोचिए हमारी मंजिल क्या है? हम क्या चाहते है? उसको प्राप्त करने के लिए हमारा दृढ़ निश्चयता कितनी है और उसके लिए कार्य कितना कर रहें है। हमारे पास उपलब्धता क्या है। अनुपलब्धता की जानकारी कितने लोंगो को है। वक्त को पहचानने की उपलब्धता कितनी है। यदि हम में ये सब नहीं है तो मंजिल विहिन व्यक्ति पशु के समान है, मनुष्य उद्देश्यपूर्ण कार्य करता है। पशुओं का अपना कोई उद्देश्य नहीं होता है।
78. जब किसी व्यक्ति का क्रियाकलाप समाज की समझ में न आये तथा ये क्रियाकलाप समाज के लिए नुकसानदायक हों तो वही व्यक्ति समाज का असामाजिक तत्व है। जिसका डटकर विरोध करना चाहिए। तथा जब किसी व्यक्ति का क्रियाकलाप समाज की समझ में न आये तथा ये क्रियाकलाप समाज के लिए नहीं बल्कि उसे स्वयं के लिए नुकसानदायक हो तो वह व्यक्ति असामाजिक तत्व हो ही नहीं सकता। तब उसका हर शब्द रहस्यमय होता है। उसका हर सम्भव सहयोग ही उचित है।
79. तुम स्वयं को केन्द्र मानकर इस समाज के विभिन्न विषयों के आदान-प्रदान को गति दो। यही तुम्हारा अधिकार है। जो जितने बड़े आदान-प्रदान की योजना बनाता है। वही समाज का नियंत्रण करता है। यदि वह एकता, स्थिरता एवम् शान्ति की ओर है तो यही ईश्वरीय कार्य है। व्यक्त ब्रह्म भाव है। जो तुम में से प्रत्येक कर सकता है। जिसमें तुम स्वयं को एक प्रबन्धक मात्र ही समझो।
80. यदि हमें किसी व्यक्ति से क्रोध है तो हम बदला अवश्य लेंगें। यदि हमंे परिवार से क्रोध है तो हम बदला अवश्य लेंगें। यदि हमें देश से क्रोध है तो हम बदला अवश्य लेंगें। यदि हमंें विश्व से क्रोध है तो हम बदला अवश्य लेंगंे। लेकिन यह बदला उसके विनाश से नहीं बल्कि स्वयं के विकास एवम् बेहतर व्यवस्था को देकर लेंगंे। हम क्रोध में ही जीयेंगेे, क्रोध में ही मरेंगे। लेकिन क्रोध विकास का होगा, विनाश का नहीं।
81. हमें स्वयं से निष्पक्ष होने के लिए, निःस्वार्थ होने के लिए मन को स्वयं से बाहर लाना होगा। परिवार से निष्पक्ष एवम् निःस्वार्थ होने के लिए मन को परिवार से बाहर लाना होगा। देश से निष्पक्ष एवम् निःस्वार्थ होने के लिए मन को देश से बाहर लाना होगा। विश्व से निष्पक्ष एवम् निःस्वार्थ होने के लिए मन को विश्व से बाहर लाना होगा। हम कभी भी मन को स्वयं से, परिवार से, देश से, विश्व से जोड़कर निष्पक्ष एवम् निःस्वार्थ नहीं हो सकते। उसी प्रकार बिना मानव अविष्कृत धर्मो से बाहर आये धर्म को नहीं जान सकते।
82. कौन कहता है कि तुम्हे जन्म दिया गया है। तुम स्वतः ही अपने पूर्व जन्मो के अधूरे संकल्पोें को पूर्ण करने हेतू अपने योग्य माता-पिता सहित वातावरण का चुनाव कर जन्म लेते हो और अपने संकल्पो को पूर्ण करते हो। यह मनुष्य जीवन तुम्हे पूर्व जन्म के अधूरे संकल्प अर्थात मुक्ति अर्थात आध्यात्मिक स्वतंत्रता के लिए प्राप्त हुआ है। और यदि तुम इसे नहीं पहचान पाते तो पुनः निम्न योनि को प्राप्त होते हो। यह पूर्णतः तुम्हारे अधीन है कि तुम पूर्व जन्म के संचित शुद्धता को कम करो या अधिक संग्रहित कर लो। यह मेंरे इस जीवन से सार्वजनिक रूप से प्रमाणित है।
83. महान व्यक्ति का जन्म विशेष रूप से नहीं होता है। प्रत्येक व्यक्ति ही महान व्यक्ति है। यह महानता प्राकृतिक सत्य के ज्ञान से उत्पन्न होती है। तथा उसका पुष्टिकरण कार्यों द्वारा होती है।
84. हम प्राकृतिक सत्य का अध्ययन करते हुए चाहे जितना भी विज्ञान युक्त क्यों न हो जाये। हम प्राकृतिक सत्य से आगे नहीं जा सकते क्योकि यह मानवीय ज्ञान से ही उत्पन्न है। हमारा ज्ञान तभी स्थायित्व एवम् संतुलन को प्राप्त करेगा जब हम सम्पूर्ण रूप से प्राकृतिक सत्य के ज्ञान से युक्त एवं आवश्यकताओं से तृप्त हो जायेगा।
85. मनुष्य अपनी परिस्थितियों का निमार्णकत्र्ता, नियंत्रणकर्ता एवम् भोगकर्ता है। यह यदि स्वयं के अज्ञानता के कारण उत्पन्न हुई हैं। तो भक्ति और ईश्वर जैसी भावना को उत्पन्न करता है। यदि दूसरे के अज्ञानता के कारण उत्पन्न हुयी है तो स्वयं में ज्ञान को उत्पन्न करता है। यदि ज्ञान द्वारा स्वयं तथा समाज के विकास के लिए उत्पन्न की गयी है तो राजनीति कहलाती है तथा यही सिर्फ स्वयं के विकास के लिए उत्पन्न की गयी है तो कूटनिति कहलाती है। जो भविष्य किये गये कार्यो द्वारा स्पष्ट होती है।
86. जो सपने देखता है, वह सोचता है। जो सोचता है, वह कार्य करता है। जो गलतियाँ करता है, वह गलतियाँ सुधारता है। जो गलतियाँ सुधारता है, वह सफल होता है।
87. धन अर्जित करने की इच्छा मनुष्य का गुण है, जो उसके स्थायित्व प्राप्ति के लिए आवश्यक भी है लेकिन इसे प्राप्त करने के लिए कौन से रास्ते अपनाने पड़े इसी से उसके चरित्र का मूल्यांकन होता है।
88. वर्तमान समय के विज्ञान युग में प्रत्येक व्यक्ति संसाधनो के लिए बहुत परेशान है। फिर भी व्यक्ति स्वतः के विकास के लिए कम, दूसरों के विनाश और सलाह के लिए अधिक सोचता है। यह विनाश का रास्ता है। और जब यह एक परिवार, संगठन, देश, राष्ट्र में उत्पन्न हो जाए तो विनाश निश्चित है।
89. इस संसार में मानव के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। जो आज असंभव लग रहा है उसे मानव कल अवश्य प्राप्त कर लेगा। यह मानव का ऐसा गुण है जिसके कारण वह विकास की चरम सीमा को प्राप्त कर विनाश को प्राप्त करेगा।
90. प्रकृति के सभी जीव गंुणों में अलग-अलग है। जिससे उनकी पहचान होती हैै। कुछ जीव ऐसे भी है जो समरूप है। उनमें मनुष्य के अन्दर सिर्फ सोचने की क्षमता उत्पन्न हो जाने के कारण जीवन रहस्य मतभेदों में उलझ गया। जिनमे मानव आविष्कृत एक रास्ते को उचित कहना असम्भव है।
91. इस प्रकृति के सभी जीव, प्रकृति में उपलब्ध पदार्थाें को उपभोग करते है। प्रकृति के जीवों में मानव एवम् सूकर सर्वाहारी है मानव भोजन से मन को जोड़कर करता है इसलिए वह इसे धर्म से जोड़ता है जबकि धर्म और भोजन का कोई सम्बन्ध नहीं है।
92. विकास, उस सामाजिक, आर्थिक, मानसिक, शारीरिक के संतुलन विकास को प्रदर्शित करता है। जिससे स्थायित्व एवं संतुलन प्राप्त होता है।
93. सम्पूर्ण विश्व के मानव समाज से हमारा कहना है कि कम से कम वे सामाजिक नेतृत्व के चुनाव में स्वयं को निःस्वार्थ करें। क्योंकि इस गलत नेतृत्व के चुनाव से सम्पूर्ण विश्व प्रभावित होता है। जिसका प्रभाव उन पर भी पड़ता है इस अव्यवस्था के जिम्मेदार हम स्वयं होते है।
94. यदि हमें कुछ पाना है तो स्वयं अपने लिए हमें जासूसी करना होगा कि हम कौन है ? हम क्या चाहते है ? हमारा अस्तित्व क्यों है ? हम मानव के विभिन्न स्तर में कहाँ है ? हमनें जो खोया उसके बदले मंे निश्चित रूप से मिला, वह क्या है ? मानव का सबसे कठिन कार्य, स्वयं का समाज में मूल्यांकन ज्ञात करना है। जिसके आधार पर वह परिस्थितियों को मुट्ठी में रख सकता है।
95. जिस प्रकार हम राजतंत्र से निकल कर प्रजातंत्र की ओर आ गये है। उसी प्रकार हम साम्राज्यवादी व्यवस्था से निकल कर राष्ट्रवादी व्यवस्था में सीमा बद्ध हो गये है। यह प्रजातंत्र समाजवादी व्यवस्था है, न कि साम्राज्यवादी इसलिए राष्ट्रवादी व्यवस्था ही समाजवादी व्यवस्था है, न कि साम्प्रदायवादी व्यवस्था है।
96. ग्रामीण का व्यापक अर्थ, किसी मानव के उसके आर्थिक, मानसिक एवं शारीरिक स्तर से कम उपलब्धता को प्राप्त मानव को प्रदर्शित करता हैै। अर्थात प्रत्येक मानव के नीचे ग्रामीण मानव है। इनका विकास ही उस मानव का विकास है। जिनके उपर उनसें सम्बन्धित है। इनका विनाश या शोषण उस मानव को आर्थिक, मानसिक, शारीरिक रूप से अस्थिर एवं असंतुलित कर देता है।
97. प्राकृतिक सत्य दृश्य है यह देश (स्थिति)-काल (समय) मुक्त एवं विवाद मुक्त भी है। इसका ज्ञान ही उस अदृश्य विवादमुक्त कारण सत्य-धर्म का ज्ञान है। यही ज्ञान ही मानव का सत्य-धर्म-ज्ञान है। यही ज्ञान ही सम्पूर्ण स्थिर ज्ञान है। यही ज्ञान मानव में प्रबन्धकीय क्षमता, नेतृत्व शीलता, दार्शनिक गुण एवं संचालक गुणों को जन्म देता है जिससे मानव महानता, स्थायित्व एवं संतुलन की ओर बढ़ता है।
98. विश्व, जिसे हम भूमण्डल (जल मण्डल सहित) या पृथ्वी के नाम से जानते है। इसके समस्त संसाधन के उपभोगकर्ता इस पर रहने वाले जीव है विश्व उनका है। इस पर वे स्वतंत्र थे। स्वतंत्र रहना चाहते है और स्वतंत्र विचरण की ओर बढ़ रहे है। मानव अपने ज्ञान का विकास कर सभी जीवों में श्रेष्ठ हो गया। वह भी इस विश्व में स्वतंत्र विचरण की ओर बढ़ रहा है। यह विश्व ही उसका राष्ट्र है, इस स्वतंत्रता में बाधा ही विवाद का कारण है।
99. यह न देखें कि अन्य को क्या प्राप्त हो रहा है। यह देखें कि आप क्या प्राप्त कर सकते है। अन्यथा कुछ भी प्राप्त न कर पायेगें।
100. किसी व्यक्ति की महानता व सफलता, नौकरी प्राप्त कर जीवन यापन में निहित नहीं है। यह जीवन एक रंगमंच है जहाँ प्रदर्शन की आवश्यकता है, जितना अच्छा प्रदर्शन होगा, उतने ही महानता को हम प्राप्त होगे। सभी प्रदर्शन का निर्देशन इच्छाओं को प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प करता है।
101. संस्कृति, मानव समाज के रहन-सहन की स्थिति है जो साहित्य द्वारा व्यक्त होता हैै। इस संस्कृति को कभी हम एक समान न रख पायें है। और न रख पायेंगंे।
102. सफलता कीमत मांगती है, सफलता जितनी बड़ी होगी, कीमत उतनी ऊँची होगी। लेकिन विफलता कि कीमत चूकाने की अपेक्षा सफलता की कीमत चूकाना हमेशा बेहतर है।
103. आधुनिकता, विज्ञान के ज्ञान के नवीनतम उपलब्धियों को व्यवहार में लाना है। जिससे विकास होता है। ज्ञान स्थिर एवं विज्ञान गतिशील होता है। विज्ञान के गति के साथ ही विकास होता है। नवीनतम उपलब्धियों को व्यवहार में लाना ही अनुकूलन है।
104. धर्म केवल ज्ञान से सम्बन्धित है। यह मंत्र, तंत्र, यंत्र, पूजास्थल, ग्रन्थ, वेशभूषा, भोजन, संस्कृति, रहन-सहन, दाह संस्कार विधि से कोई सम्बन्ध नहीं रखता। यह मात्र मानव अविष्कृत धर्मो (वाद) के आविष्कारों के द्वारा अपने मानव को संस्कारित एवं स्वयं के अस्तित्व के पहचान के लिए निर्धारित है।
105. ईश्वर, अल्ला, गाॅड इत्यादि शब्द, सूक्ष्म विज्ञान द्वारा उत्पादित या अविष्कृत शब्द है। जो मानव के सूक्ष्म कारण केन्द्रित अस्थिर मन को स्थिरता प्रदान करतें है।
106. शिक्षा मानव ज्ञान के बढ़ाने का साधन है। माध्यम है। जिसका स्वरूप स्थिर ज्ञान अर्थात प्राकृतिक सत्य का ज्ञान, गतिशील ज्ञान अर्थात विज्ञान का ज्ञान तथा उनको व्यक्त करने का भाषा ज्ञान के सम्मिलित रूप से पूर्ण शिक्षा कहलाती है।
107. विनाश, विकास के मुख्य घटक सामाजिक, आर्थिक, मानसिक, शारीरिक से असंतुलित विकास का परिणाम है। जिससे स्थायित्व एवम् संतुलन प्राप्ति में बाधा पहुँचती है।
108. विषय, मन द्वारा अनुभूति की जाने वाली समस्त तथ्य है। जो विषय देश-काल बद्ध हैं वे दृश्य विषय है। जो देश काल मुक्त है वे अदृश्य विषय हैंै। देश-काल मुक्त दृश्य विषय सिर्फ एक विषय प्राकृतिक सत्य है।
109. सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, प्राकृतिक सत्य द्वारा प्रभावित क्षेत्र है। जिसमें मानव भी शामिल हैै। इसलिए मानव प्रकृति के सभी विषयों से प्रभावित होता है। यह सम्बन्द्ध ही विज्ञान का सम्पूर्ण स्रोत है। यह प्रभाव दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। क्योंकि मानव प्रकृति से दूर हटता जा रहा है।
110. स्वर, भाषा का ध्वनि रूप है। जिसकी तीव्रता से मन की स्थिति की अभिव्यक्ति स्पष्ट होती है।
111. मानक, एक ऐसा दृश्य, विवादमुुक्त सर्वमान्य विषय है। जिसके आधार पर विषयोें का मूल्यांकित एवम् परिभाषित किया जाता है। मानव समाज के सभी विषयों का सम्पूर्ण मानक प्राकृतिक सत्य-धर्म-ज्ञान है। जो देश-काल एवम् विवादमुक्त है तथा दृश्य भी है।
112. विज्ञान का उपयोग धर्म तथा दुरूपयोग अधर्म का स्वरूप होता है। चाहे वह सूक्ष्म विज्ञान हो या स्थूल विज्ञान।
113. कार्य सूक्ष्म हो या स्थूल उसका मूल पाँच कर्म ही है। ये हैं आदान-प्रदान, ग्रामीण, आधुनिकता, विकास एवम् शिक्षा को प्राकृतिक सत्य और धर्म के ज्ञान से युक्त होकर इसी की ओर आगे बढ़ाना, ये कार्य ही कर्म योग है।
114. मनुष्य परिस्थितियों का दास अवश्य है। लेकिन वह मृत्यु जैसी परिस्थिति का दास पूर्णरूप से है। शेष परिस्थितियांे का दास वह नहीं है। यदि वह है तो उस व्यक्ति के ज्ञान की स्थिति को कमजोर रूप में प्रकट करता है। जिसे वह आध्यात्म (अदृश्य आध्यात्म) या प्राकृतिक सत्य (दृश्य आध्यात्म) के द्वारा शक्तिशाली बना सकता है।
115. देश-काल मुक्त दृश्य ज्ञान अर्थात प्राकृतिक सत्य ज्ञान, एकता, शान्ति एवम् आत्मनिर्भरता को तथा देश-काल मुक्त अदृश्य ज्ञान अर्थात मानव अविष्कृत धर्म का ज्ञान विभिन्नता, अशान्ति एवम् समर्पण को उत्पन्न करता है।
116. शिक्षा का उद्देश्य धन अर्जित करना तो है। जो उसे स्थायित्व प्रदान करता है। साथ ही समाज को उचित आवश्यकता प्रदान करना, अन्याय और भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज भी उठाना है जो अपनत्व एवम् स्वार्थ की भावना से पूर्णतया मुक्त हो।
117. सभी मानव, धर्म में ही स्थित है लेकिन उसके ज्ञान की आवश्यकता मात्र एक ही कारण से होती है वह यह कि धर्म ज्ञानी अपने प्रत्येक कार्यो को लगातार समष्टि की ओर ले जाता है जिससे उसका परिणाम स्वंय एवं समाज के लिए अच्छा होता है जबकि धर्म अज्ञानी इसके विपरीत।
118. धर्म स्थापना का कार्य एक ही सूत्र से होता है वह यह कि समष्टि (समाज) का मन जिस अवस्था तक पहुँच गया है वहाँ से उसका केन्द्रियकरण। अदृश्य (व्यक्तिगत प्रमाणित) काल में यह अदृश्य ईश्वर नाम के दर्शन द्वारा तथा दृश्य (सार्वजनिक प्रमाणित) काल में यह दृश्य ईश्वर नाम के दर्शन द्वारा होता है। यही ईश्वर की स्थिरता का रहस्य भी है। केन्द्रियकरण का अर्थ मन को उसकी प्रकृति में स्थापित करना होता है।
119. धर्म स्थापना का कार्य ईश्वर की कार्यप्रणाली के अनुसार कोई भी मानव करने के लिए स्वतन्त्र है लेकिन समष्टि को धर्मपालन के लिए प्रेरित एवं लगातार धर्म में बाॅधे रहने का कार्य करने वाला ब्राह्मण कहलाता है तथा धर्म स्थापना करने वाला साकार ब्रह्म (अवतार) कहलाता है।
120. धर्म स्थापना की आवश्यकता तभी पड़ती है जब धर्मज्ञान पूर्ण लुप्त हो जाता है। तब धर्म ज्ञानी ईश्वर की कार्यप्रणाली के अनुसार मानव शरीर द्वारा ज्ञान उपलब्ध करा देता है जिससे एकता, स्थिरता एवं शान्ति के साथ सभी विषय अपने शुद्ध अर्थ को प्राप्त हो जाते है।
121. सबसे बड़ा अधर्म तो तब होता है जब व्यक्ति उसी धर्म के रक्षार्थ नियुक्त होता है और सत्य का साक्षात्कार होने के बाद भी निष्क्रीय रहता है।
122. आशीर्वाद देना हमारी सत्य संस्कृति है। आशीर्वाद देने वाला सत्य प्रेमी है। आशीर्वाद देकर अपने शब्दों को सत्यापित करने के लिए कर्म करना सत्य सम्बन्ध उत्पन्न करता है। यह एक ओर से होने पर अधूरा सम्बन्ध तथा दो या कई ओर से होने पर ईश्वरीय समाज को उत्पन्न करता है। जहाँ एकता एवं शान्ति का प्रयत्न है, वहीं धर्म है।
123. धर्मज्ञान की पूर्ण लुप्तता का आभास मूल तीन सम्बन्धो में विवाद से ही प्रकट हो जाता है- रक्त सम्बन्ध (निकटस्थ), रिश्ता सम्बन्ध (मध्यस्थ) एवं देश सम्बन्ध (दूरस्थ)। श्री राम (ब्रह्मा के पूर्णावतार) देश सम्बन्ध, श्री कृष्ण (विष्णु के पूर्णावतार) रिश्ता सम्बन्ध कारण से व्यक्त हुये थे। अब शिव-शंकर के पूर्णावतार का कारण, रक्त सम्बन्ध ही होगा।
124. मुझे वेद, पुराण, अन्य धर्म पुस्तको, दर्शन, जीवनी, भाषा और आधुनिक शास्त्र इत्यादि के विशेष अध्ययन का अवसर नहीं मिला। मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि उन सभी महापुरूषांे के सपनांे का समाज कैसा होना चाहिए, जो इतिहास के अनुभव से युक्त एवं दर्शन, पुराण अन्य धर्म पुस्तकों द्वारा समर्थित हो, विवादमुक्त हो और उसे मैं व्यक्त कर सकूँ। जो वर्तमान मानव समाज की आवश्यकता भी है। मैं तो मात्र उस दृश्य कर्म ज्ञान को उपलब्ध करा रहा हूॅ।
125. मानव जीवन में अब इतने अधिक विषय हो गये है कि ज्ञान के लिए उन्हे सिर्फ एक शास्त्र की आवष्यकता हो गयी है जिससे वे शीघ्रताशीघ्र मूल सत्य ज्ञान से जुड़ जाये। और जीवन निर्वाह के लिए विज्ञान के ज्ञान के लिए समय बच जाये।
126. व्यक्ति जब पूर्ण अदृश्य काल में हो तो उसे अदृश्य कर्मज्ञान के अनुसार तथा जब पूर्ण दृश्य काल में हो तो उसे दृश्य कर्मज्ञान के अनुसार कर्म करने चाहिए। तभी वह ब्रह्माण्डीय विकास के लिए धर्म युक्त कार्य करेगा।
127. समाज में जब व्यष्टि धर्म की अधिकता होती है, तब अव्यवस्था बढ़ती है। और जब समष्टि धर्म की अधिकता होती है तब समाज व्यवस्थित रहता है। धर्म युक्त समाज तब होता है जब अधिकतम व्यक्ति दोनो धर्माे अर्थात व्यष्टि व समष्टि धर्म पर समान दृष्टि रखते हुए कार्य करते है।
128. ज्ञान से आप है, ज्ञान से ही मैं हूँ। ज्ञान से पूजा स्थल है। ज्ञान से ही चाॅद है। ज्ञान से ही सूर्य है। ज्ञान से ही ईश्वर हैं। अल्ला और गाॅड है। ज्ञान से ही धर्म है। ज्ञान से ही धन है ज्ञान नहीं तो न ही ये विषय हैं, न ही किसी विषय की अनुभूति है। अर्थात ज्ञान ही धर्म है। ज्ञान ही सत्य है। यह ज्ञान यदि देश काल मुक्त दृश्य है तो सर्वमान्य सत्य-धर्म-ज्ञान है, यदि देश काल मुक्त अदृश्य है तो विवादयुक्त सत्य-धर्म-ज्ञान है।
129. सत्य या ज्ञान या ईश्वर या आत्मा का सम्बन्ध वेशभूषा, रहन-सहन, भोजन, वातावरण इत्यादि बाह्य विषयों से नहीं होता। न ही उसे प्राप्त करने के लिए किसी प्रक्रिया की अनिवयार्यता ही है। से मात्र साधन अवश्य हो सकते है पर यह अतिआवश्यक नहीं है। मैं स्वयं सत्य प्राप्ति के लिए अदृश्य काल के निर्धारित उन सभी नियमों को तोड़कर व्यक्त हुआ हँू। मेरा यह जन्म इसका प्रत्यक्ष एवम् सार्वजनिक रूप से प्रमाणित जीवन है।
130. मैं अदृश्य मार्गदर्शन दर्शन से अव्यक्त रूप से विकसित होकर, दृश्य विकास दर्शन (दृश्य मार्गदर्शन दर्शन) द्वारा व्यक्त होकर स्थिरता, शान्ति एवम् एकता को प्राप्त होता हूँ। मुझे वे प्राप्त करते हैं जो अदृश्य मार्ग द्वारा मुझ तक आते हंै। और जो प्रवृति मार्ग अर्थात दृश्य मार्ग द्वारा मुझ तक आते हैं उनमें मै स्वयं होता हूँ। जो अदृश्य या दृश्य क्रियान्वयन दर्शन में उलझ जाते है उन्हें मैं इस जीवन में प्राप्त नहीं हो पाता।
131. मैं यह नहीं जानना चाहता कि आज के पहले समाज, देश, विश्व इत्यादि की व्यवस्था क्या थी? और आज क्या है? मै सिर्फ यह जानता हूँ कि क्या होनी चाहिए जो निष्पक्ष हो, निःस्वार्थ हो और वह सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित हो।
132. मुझे इस बात का दुःख है कि चाहकर भी मैं अपने नाम, मानव आविष्कृत धर्म व जाति से मुक्त नहीं हो सकता क्योंकि यह नाम, धर्म एवम् जाति ही वर्तमान समाज का मूल आधार है। यह उसी समाज द्वारा मुझे प्रदान किया गया है। मेरे न चाहने के बावजूद भी वह मेरे जीवन के साथ जोड़ा ही जायेगा एवम् उस आधार पर मूल्याकिंत भी किया जायेगा। मेरे जीवन में वह सबसे महत्वपूर्ण व महान व्यक्ति होगा जो मुझे ऐसे उपाय से अवगत करा दें जिससे मैं अपने नाम, जाति व धर्म से मुक्ति पा सकूँ ताकि मुझे मानव आविष्कृत धर्म व जाति से न जोड़ा जा सके।
133. मानव आविष्कृत धर्म कहता है बार-बार के जन्म-मृत्यु से मुक्त होना ही हमारा लक्ष्य है। जिसके कारण हम अपने जीवन को और दुःखमय बना देते है। लेकिन जब तक इस विश्व का प्रत्येक मानव साधारण ज्ञान से ज्ञानातीत अवस्था अर्थात प्राकृतिक सत्य के ज्ञान से युक्त एवम् व्यवहार मुद्रा को भावातीत नहीं कर लेता तब तक मैं मानव आविष्कृत धर्म के अनुसार जन्म-मृत्यु से मुक्त नहीं होना चाहता और बार-बार जन्म लेकर कर्म करना चाहता हँू।
134. तुम इस जन्म में या किसी जन्म में यदि मोक्ष या मुक्ति प्राप्त करना चाहते हो तो अपने मन की इच्छा को मार डालो। इस स्थिति में तुम्हारी स्थिति ऐसी होनी चाहिए कि तुम्हारा मन सभी विषयो में होते हुये भी किसी भी विषय में न रहे। क्योंकि यही मन की इच्छा सूक्ष्म शरीर के रूप में परिवर्तित होकर पुर्नजन्म के लिए बाध्य करता है। और तुम्हें सुख एवम् दुःख का अनुभव कराता है।
135. जहाँ सघर्ष है, वहीं चेतना है। इसके दो रूप हैं। प्रथम- चेतना जो दूसरों (मानव या प्रकृति) द्वारा उत्पन्न की जाती है तथा व्यक्ति उस परिस्थिति के अनुसार कार्य करता है, प्राकृतिक चेतना या व्यष्टि चेतना कहलाती है। दूसरी- चेतना जो स्वयं व्यक्ति द्वारा उत्पन्न की जाती है तथा व्यक्ति उस परिस्थिति के अनुसार कार्य करता है, सत्य चेतना या समष्टि चेतना कहलाती है। दूसरे रूप में प्राकृतिक चेतना केवल अन्य द्वारा उत्पन्न वर्तमान परिथितियों पर कार्य करना तथा सत्य चेतना परिणाम ज्ञान से युक्त, भूतकाल का अनुभव तथा भविष्य की आवश्यकतानुसार वर्तमान में कार्य करना है। अर्थात प्राकृतिक चेतना में आदान-प्रदान का नियंत्रण दूसरों के अधीन तथा सत्य चेतना में आदान-प्रदान का नियंत्रण स्वयं व्यक्ति के अधीन होता है।
136. मानव समाज को जानना चाहिए कि समग्र जगत, बहुरूप में प्रकाशित एक ही सत्ता है। जिसे आत्मा कहते है। इसलिए समष्टि आत्मा ही व्यष्टि आत्मा है। इस आत्मा का यथार्थ रूप जिस प्रकार व्यष्टि रूप में व्यक्त होता है, ठीक उसी प्रकार समयोपरान्त समष्टि रूप में भी व्यक्त होता है। एक ही सत्ता का व्यष्टि रूप एवम् समष्टि रूप में व्यक्त होने के बीच का समय ही विवाद, अविश्वास, अशान्ति, अनेकता इत्यादि का समय होता है। वर्तमान समय ऐसा ही समय है।
137. व्यष्टि क्रियाकलापों का स्वरूप ही समष्टि क्रियाकलापों में व्यक्त होता है। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो व्यक्ति से व्यक्ति के सम्बन्ध के बीच एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम है। इस सीमा को पार करने पर वह सम्बन्ध टूट जाता है। इसके समष्टि स्वरूप को व्यक्त करता भारत का लोकतंत्र है जिसमे ”न्यूनतम साझा कार्यक्रम“ कार्यक्रम व्यक्त हुआ। जिसका विकसित रूप ही ”विश्व का न्यूनतम एवम् अधिकतम साझा कार्यक्रम“ है। जब यही सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से युक्त हो जायेगा तब वह विश्वमानक-शून्य श्रृंखला में अन्तिम को प्राप्त कर लेगा।
138. विश्व स्तरीय समस्यायें भी है। विश्व स्तरीय सत्य चेतना अर्थात एकता, शान्ति, स्थिरता की ओर बढ़ता कदम भी है। और समस्याओं का विवादमुक्त हल विश्वमानक-शून्य श्रृंखला अर्थात कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेद भी है।
139. मंै यह भलि-भाँति जानता हूँ कि यदि मैं वेशधारी सन्यासी या संत होता तो मुझे धन, समर्थन, यश आदि सभी कुछ प्राप्त हो जाता क्योंकि वर्तमान जन समुदाय में ऐसे कार्य को करने वालो के साथ ऐसा ही होता है। मैं ऐसा इसलिए नहीं होना चाहता कि फिर मैं यह कैसे कह सकता हूँ कि तुम में से प्रत्येक व्यक्ति यह कार्य कर सकता है। क्योंकि तुम सब शुद्ध, बुद्ध एवम् मुक्त आत्मा हो और यह शक्ति तुम में भी विद्यमान है। तुम सब मेरे स्वरूप ही हो।
140. सत्य, आत्मसात करने का विषय है न कि विचार करने का विषय।
141. जो मन कर्म में न बदले वह मन नहीं और व्यक्ति का अपना स्वरूप नहीं।
142. ज्ञान को जानो, वाणी को जान जाओगे। प्रेम को जानो, कर्म को जान जाओगे। ध्यान को जानो, समर्पण को जान जाओगे। क्योंकि ज्ञान, प्रेम और ध्यान का ही व्यक्त रूप वाणी, कर्म और समर्पण है। वाणी, कर्म और समर्पण को जान लेने पर तुम व्यक्ति को जान जाओगे।
143. आजीवन प्रयोगशाला के तरह कर्मो का प्रयोग करके ज्ञान की ओर जाने से अच्छा है, कुछ समय अकर्मण्य होकर पहले ज्ञान पर प्रयत्न करना।
144. मन की व्यापकता ही शक्ति है और मन की संकीर्णता ही दुर्बलता है। मन का विषयों से मुक्त होना ही ”मुक्ति“ अर्थात ”निर्वाण“ या ”मोक्ष“ है। और ऐसी अवस्था में होकर कर्म करना ही कर्मयोग है। अनासक्त कर्म है।
145. विज्ञान से संसाधन तथा ज्ञान से जीवन का निर्माण होता है।
146. यह न देखें कि अन्य को क्या प्राप्त हो रहा है। यह देखें कि आप क्या प्राप्त कर सकते हैं। अन्यथा आप कुछ भी प्राप्त न कर पायेगें।
147. मनुष्य को भाग्य से ज्यादा नहीं बल्कि उसके ज्ञान, ध्यान और कर्म से ज्यादा कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
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