Monday, March 16, 2020

विश्वमानव से वार्ता - 3

विश्वमानव से वार्ता  - 3

एक तरफ है विश्व का वर्तमान समाज जो सार्वजनिक प्रमाणित रूप से व्यक्ति से विश्व स्तर तक के समक्ष व्यक्त है जिसमें व्यक्ति से विश्व स्तर तक के प्रत्येक स्तर पर अपने-अपने समस्याओं के अनुसार प्र्रश्न ही प्रश्न है, जिसके उत्त्र व उसके कल्याण के लिए ज्योतिषि, धार्मिको के अनुष्ठान, राजनीतिज्ञ, जनजागरण, वैज्ञानिक अनुसंधान इत्यादि अनवरत जारी है परन्तु स्थितियाँ एकता या सार्वभौमिकता के वजाय विपरित दिशा अनेकता और व्यक्ति केन्द्रीत होती जा रही है।
दूसरी तरफ है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के समक्ष व्यक्त एक ऐसा मानव शरीर व सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त जिसके द्वारा व्यक्ति स्तर से विश्व ब्रह्माण्ड स्तर तक के समस्याओं का सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित हल प्रस्तुत किया जा चुका है। चाहे वह पूर्ण मानव निर्माण हो चाहे स्वस्थ लोकतन्त्र, स्वस्थ समाज, स्वस्थ उद्योग, स्वस्थ अर्थ प्रणाली, स्वस्थ शिक्षा पाठ्यक्रम-प्रणाली या ब्रह्माण्ड की व्याख्या जिसे वर्तमान भौतिक विज्ञान के दूसरे आईन्सटीन कहे जाने वाले ब्रिटिश वैज्ञानिक प्रो0 स्टीफेन हाकिंग सुलझाने में उलझे हुये है।
सहस्त्राब्दि के प्रथम महाकुम्भ के अवसर पर सभी आध्यात्मिक, धार्मिक संतो, आचार्यों व संगठनों-सस्थाओं के अपने-अपने स्वभावानुसार क्रियाकलाप व्यक्त करने के उपरान्त महाकुम्भ के अन्तिम दिन 21 फरवरी, 2001 (महाशिवरात्रि) को इस सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के आविष्कार के आधार को ‘‘प्रकटीकृत अमृत कुम्भ’’ के रूप में प्रकाशित कर भारत में तथा भारत में स्थित दूतावासों को लगभग 1000 प्रति डाक द्वारा प्रेषित की गयी थी। यहाँ प्रस्तुत है अमृत कुम्भ प्रकट करने वालें उस असीम मानव-विश्वमानव से की गयी भेंट वार्ता। - डाॅ0 विकास मानव (संपादक - ”उपासना देश, जौनपुर, उ0 प्र0, भारत“)

प्रश्न - अमृत कुम्भ पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई जबकि यह देश के धार्मिक संस्थाओं, समाचार पत्र के सम्पादक, समाचार ऐजेन्सीयों, विश्वविद्यालय - महाविद्यालय के प्रोफेसर इत्यादि को व्यापक रूप से प्रेषित किया गया था। इस पर आपके विचार से क्या कारण हो सकते हैं?
विश्वमानव- किसी भी नवीन संस्करण के आविष्कार के प्रति निष्क्रियता नया नहीं है, प्रतिक्रिया का न होना दो कारणों को व्यक्त करता है। पहला यह कि आविष्कार नया नहीं है। दूसरा यह कि नवीनता की पहचान का अभाव। अमृत कुम्भ पिछले चरण के आविष्कारों से आगे के चरण के नवीन आविष्कार का ही सूचना पत्र था। उसमें सिर्फ भूतकाल की ही बातें नहीं थी, वर्तमान और भविष्य की भी थी। इसका अर्थ यह है कि नवीनता की पहचान का आभाव समाज में व्याप्त है। और यह इसलिए है कि समाज में प्रत्येक स्तर पर बैठा व्यक्ति अलग-अलग किसी विशेष विषय का विशेषज्ञ है। वह जिस विषय का विशेषज्ञ है उसके अलावा दूसरे विषय से वह पूर्ण अनभिज्ञ है। जैसे जो दर्शन का विशेषज्ञ है तो वह भौतिक विज्ञान का नहीं। जो भौतिक विज्ञान का है वह दर्शन का नहीं। यदि है तो अन्य विषय का नहीं। वह अपने विषय की ओर से सिद्धान्त को तो जानता है परन्तु दूसरे विषय की ओर के सिद्धान्त को नहीं। यहाँ हम यह कहना चाहेगें कि किसी एक विषय के एकीकरण के सिद्धान्त को हम सिद्धान्त कहते हैं। जबकि अनेकांे विषय के एकीकरण के सिद्धान्त को हम सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त कहते है और वह तभी समझा जा सकता है जब सार्वभौम दृष्टि हो। जिसका वर्तमान समय में अभाव है। और यह कुछ तो मैकाले शिक्षा प्रणाली की देन है तो कुछ व्यक्ति का अपने दायरे में सिमट जाने का परिणाम है। प्रत्येक महापुरूषों ने कहा है कि भविष्य का मनुष्य दर्शन तथा विज्ञान दोनों से युक्त होना चाहिए।

प्रश्न - सार्वभौम सिद्धान्त की उपयोगिता क्या है ?
विश्वमानव - सार्वभौम सिद्धान्त मनुष्य के मस्तिष्क द्वारा सर्वोच्च अन्तिम अविष्कार है जो प्रत्येक विषयों को विवादमुक्त करने का मूल आधार है। वर्तमान समय के चर्चित मुद्दों जैसे - संविधान का सत्यरूप, शिक्षा पाठ्यक्रम का सत्यरूप, धर्म का सत्यरूप, लोकतन्त्र का सत्य रूप, आदर्श वैश्विक मानव का सत्य रूप, क्रियाकलाप का सत्य रूप, जीने की सत्य कला, अर्थतन्त्र का सत्य रूप, प्रबन्ध का सत्य रूप, विकास का सत्य रूप इत्यादि को कैसे प्राप्त करेगें? ये सब वर्तमान रूप में भारत सहित विश्व के लिए चर्चित और आवश्यक राजनीतिक मुद्दे है। बड़े बड़े संस्थाओं द्वारा सेमिनार, विचार मंथन, शोध, आयोग होते है कि इसे कैसे प्राप्त किया जाये परन्तु वहाँ सिर्फ भूतकाल को देखकर एक कदम आगे के लिए अपनी दिशा से रिर्पोट प्रस्तुत कर दिये जाते है जो एक समयान्तराल बाद पुनः विचार करने व संशोधन के योग्य हो जाता है इस प्रकार से संशोधन करते-करते अन्ततः हम वही प्राप्त करेगें जो सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त द्वारा पहले ही इन विषयों का विवादमुक्त स्वरूप व्यक्त कर दिया गया है। इन मुद्दों को जो भी राजनीतिक दल प्रस्तुत करेगा वह वर्तमान राजनीति क्षेत्र में तथा मानव के स्वर्णिम भविष्य को प्रारम्भ करने का श्रेय प्राप्त करेगा। और यह कर्म एक व्यक्ति का नहीं बल्कि राष्ट्र का है इसलिए इसे सार्वभौम कार्य माना जाना चाहिए। परन्तु लोग अपने अंहकार से बाहर नहीं निकल पाते है। जबकि हमारा उद्देश्य राष्ट्र निर्माण के लिए दार्शनिक, नैतिक व नीतिक परम्परा का उत्थान व पुर्नस्थापना है। यह सब कैसे होगा उसका सम्पूर्ण दर्शन और योजना ‘‘विश्वभारत’’ में प्रकाशित है।

प्रश्न - मीडिया के लिए तो यह समाचार था उसके विषय में आपका विचार क्या है ?
विश्वमानव - मीडिया क्या है, वर्तमान में सूचना का एक व्यापारिक संस्था। जिसमें व्यक्ति ही कार्य करते है और जब व्यक्ति सार्वभौम सिद्धान्त या दृष्टि से युक्त न हो तो उसके लिए वह व्यर्थ ही होगी, परन्तु जिस दिन उसे यह एहसास हो जायेगा कि इस समाचार से उसका कारोबार और गुणवत्ता बढ़ सकता है वह सक्रिय हो जायेगी, ठीक वैसे ही जैसे प्रो0 स्टीफेन हाकिंग के जनवरी 2001 में भारत यात्रा पर मीडिया ने अपनी सक्रियता दिखाई थी जबकि उनका व्याख्यान गिनती के लोगों को ही समझ मंे आया होगा।

प्रश्न - मीडिया की स्थिति के सम्बन्ध में आपके क्या विचार है ?
विश्वमानव - लोक तंत्र के चार स्तम्भो-कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका और पत्रकारिता(मीडिया) है। पत्रकारिता को चैथा स्तम्भ कहा जाता है। कुछ लोग पत्रकारिता को पहला स्तम्भ का दर्जा दिलाने के लिए कहते हंै परन्तु कोई भी दर्जा देने से पहले दर्जा लेने वाले को योग्यता दिखानी पड़ती है। योग्यता दिखाने के पश्चात दर्जा स्वतः प्राप्त हो जाता है। पत्रकारिता लोकतंत्र व समाज का दर्पण है परन्तु यदि दर्पण ही धंुधला हो जाय तो समाज व लोकतंत्र का चेहरा भी धंुधला हो जायेगा। फिर इस दर्पण को कौन साफ करेगा ? वर्तमान समय में यह पत्रकारिता रूपी दर्पण धुंधला हो चुका है। इसकी सफाई के लिए वह विषय चाहिए जो पत्रकारिता का लक्ष्य है अर्थात ‘‘स्व’’ या ‘‘लोक’’ या ‘‘गण’’ या ‘‘जन’’ का सार्वभौम रूप और इसका स्वरूप व्यक्त हो चुका है। इसके बाद भी पत्रकारिता अपने को पहला स्तम्भ होने का दर्जा प्राप्त नहीं कर पाती तो यहाँ से पत्रकारिता का पतन प्रारम्भ होगा क्योंकि पत्रकारिता की गुणवत्ता नापने का पैमाना व्यक्त हो चुका है। वर्तमान तथा भविष्य की पत्रकारिता  - रचनात्मक पत्रकारिता का ही समय है और यह वही से प्रारम्भ होगा जहाँ ‘‘स्व’’ का वैश्विक रूप का ज्ञान होगा जिससे व्यक्ति स्तर से विश्व स्तर तक के लिए रचनात्मक मार्गदर्शन दिया जा सके। पत्रकारिता को शीघ्रता से इसे अपनाना चाहिए जिससे उसके प्रति समाज मंे विश्वास, गुणता और उपयोगिता का विकास हो जिसके लिये पत्रकारिता से जुड़े लोगो को ‘‘विश्वभारत’’ का अध्ययन करना चाहिए।

प्रश्न - भारत की स्थिति के सम्बन्ध में आपकी क्या दृष्टि है ?
विश्वमानव - वर्तमान समय में भारत दर्शन, नीतिक और नैतिक सहित इच्छा शक्ति के पूर्ण अभाव में है परिणामस्वरूप  भारत लगातार वैश्विक नीतियों से मार खा रहा है। और सिर्फ बचो और बचाओं की नीति में उलझा हुआ है। यहाँ न तो भविष्य में झाँककर नीतियों को प्रस्तुत करने की दृष्टि बची है न ही ऐसा करने की इच्छा शक्ति, और न ही अनुकूलन क्षमता है। कुल मिलाकर यथा स्थिति बनाये रखने का फार्मूला देश में व्याप्त है। भारत को वैश्विक नीतियों के मूल का सत्य सैद्धान्तिकरण के लिए प्रयत्न करना चाहिए, जिससे उससे निकलने वाली सभी शाखाएँ स्वतः ही सत्य-सिद्धान्त के अनुसार हो जायें। वर्तमान में ऐसा करने के लिए कोई राजनीतिक दल भी इच्छा शक्ति से युक्त नहीं है। जबकि स्थायी राजनीति के लिए यह एक अच्छा मुद्दा है जिससे राष्ट्रीय एकता, अखण्डता इत्यादि सहित व्यक्ति भारत व विश्व का कल्याण निश्चित है। और ऐसा करने से ही स्वदेशी, स्वराज और सुराज को प्राप्त किया जा सकता है अन्यथा नहीं।

प्रश्न - देश के तमाम धर्माचार्य यज्ञ कुण्ड में आहूति के द्वारा भी तो विश्व कल्याण कर रहे है ?
विश्वमानव - उद्देश्य सत्य है परन्तु उद्देश्य अनुसार कर्म नहीं। दोनो लगभग विपरीत दिशा में चल रहे है क्योंकि काल ज्ञान से वे मुक्त है। उद्देश्य सार्वजनिक प्रमाणित दृष्यकाल का है तो कर्म भूत काल के व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य काल का। यह ऐसे ही है जैसे कोई कहे कि - मैं चीनी खा रहा हूँ डायबीटीज समाप्त करने के लिए, तो फिर परिणाम आप स्वयं समझ सकते है। व्यक्तियों की भी यही स्थिति है। आप देखते होगें कोई धर्माचार्य ‘‘विचार क्रान्ति’’ की बात करता है तो कोई ‘‘आध्यात्मिक क्रान्ति’’ की। और कोई राजनेता ‘‘स्वराज’’ या ‘‘सुराज’’ या ‘‘स्वतन्त्र’’ इत्यादि की बात करता है। यह कैसे होगी ? यह तभी हो सकती है जब ‘‘स्व’’ का वैश्विक रूप व्यक्त होगी और वह हो चुकी है। यह वही कार्य है जिसके लिए धर्माचार्य, राजनेता, वैज्ञानिक तथा स्वयं भारत एवं संयुक्त राष्ट्र संघ व्यक्ति सहित विश्व के लिए करना चाहता है। देखना यह है कि इच्छा व्यक्त करने वालों की इच्छा पूर्ति होने पर वे अपना कर्तव्य निर्वाह कर पाते है कि नही।

प्रश्न - आपकी दृष्टि में राजनीतिक संगठन का स्वरूप क्या होना चाहिए ? 
विश्वमानव - आदर्श राजनीतिक दल का रूप बहुमुखी होना चाहिए। उसे मूल रूप से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों कार्यो पर समान रूप से उर्जा खर्च करनी चाहिए। प्रत्यक्ष कार्यों में - जनसभा, जनजागरण, प्रदर्शन, रैली, अन्याय व अत्याचार के विरूद्ध आवाज व विरोध सहित संगठन संरचना में मूल विषयों के प्रकोष्ठ द्वारा व्यापक जाल आवश्यक है। अप्रत्यक्ष कार्यो में रचनात्मक दर्शन व उसका लगातार मीडिया, पत्र पत्रिका द्वारा प्रसार होना चाहिए जो व्यक्ति स्तर से विश्व स्तर तक के लिए हो तथा अन्य की आलोचना के बजाय अपने विचारों की प्राथमिकता होनी चाहिए। संगठन की संरचना को भी एक साथ प्रसारित करना चाहिए जिससे प्रत्येक व्यक्ति शीघ्रता से उसके व्यापक रूप को देख सके। रचनात्मक दर्शन होने से व्यक्ति को वह स्र्फूत स्व चेतना प्रदान करेगा। परिणामस्वरूप वे स्वयं अपनी चेतना से अन्य संगठन से तुलना कर सकेगें। प्रायः नेतृत्वकत्र्ता अप्रत्यक्ष कर्म को उतना महत्व नहीं देते परन्तु स्थायी सम्बन्ध और अपने निराकार रूप को प्रत्येक स्थान पर पहुँचाने के लिए यही अन्तिम माध्यम है। प्रत्यक्ष कर्म से नेतृत्वकर्ता बोलते ह,ै जनता सुनती है। जो केवल उसी समय के लिए ही होता है, परन्तु अप्रत्यक्ष कर्म से लम्बे समय के लिए नेतृत्वकर्ता जनता के समक्ष उपस्थित रहते है। और जनता बोलती रहती है जिससे संगठन अपने कार्यो का सत्य मूल्यांकन करते हैं। और यह अलग से आवश्यक योगदान होता है। प्रायः नेतृत्वकर्ता को जमीनी सत्य का पता नहीं चल पाता वे मात्र जातिय गणित और बोट बैंक के प्रतिशत से ही अपने भविष्य का गणित निकालते है जो प्रायः गलत हो जाता है। दल के कार्यकर्ताओं को हमेशा ऐसी दृष्टि में रहना चाहिए जिससे वे अन्य द्वारा प्रसार की जाने वाली विचारों को पकड़े तथा अपने दल के हित के लिए अपने दल के मुखिया तक पहुँचाये अन्यथा अपने पार्टी को कमजोर करने के जिम्मेदार वे स्वयं होते है।

प्रश्न - देश के लिए जाति और धर्म आधारित राजनीति का परिणाम क्या होगा। ?
विश्वमानव - दो बाते है - स्व का व्यक्तिगत रूप और स्व का सार्वभौम रूप। व्यक्तिगत रूप व्यक्ति धर्म तथा सार्वभौम रूप सार्वजनिक धर्म कहलाता है। सार्वजनिक धर्म ही मनुष्य का वास्तविक धर्म है। व्यक्ति धर्म का तो पशु भी पालन करते है। कार्य करने के दो तरीके है - पहला समाज में जनता के स्वभावानुसार, दूसरा अपने अनुसार। व्यक्ति धर्म मंे स्थित कोई भी राजनीतिज्ञ या धर्माचार्य जो अपने पीछे भीड़ चाहता है वह जनता के स्वभावानुसार ही कार्य करता है। उसे वह वही प्रस्तुत करेगा जो जनता को प्रिय लगे चाहे वह जनता को भ्रमित और दूरगामी परिणाम को खतरनाक ही क्यों न बनाता हो। जबकि सार्वजनिक धर्म में स्थित कोई भी राजनीतिज्ञ व धर्माचार्य जनता के समक्ष वही प्रस्तुत करेगा जो स्व के सार्वभौम रूप के अनुसार होगा चाहे उसे जनता समझे या न समझे। जबकि वह जनता में रचनात्मक बुद्धि व दूरगामी परिणाम सुखद ही बनाने का प्रयास होता है। देश में जाति-धर्म आधारित राजनीति व्यक्ति धर्म में स्थित राजनीतिज्ञों और धर्माचायों की देन है। इससे सिर्फ जाति-धर्म जागरण, उसके आधार पर व्यक्ति का शारीरिक एकीकरण तथा जाति-धमों का आपस में विरोध का विकास ही सम्भव है। न कि कोई बौद्धिक या मस्तिष्क या विकास का विकास। और जब तक कोई राजनीतिज्ञ व धर्माचार्य बुद्धि या मस्तिष्क विकास के लिए रचनात्मक ज्ञान नहीं देता तब तक जनता को यह समझना चाहिए कि वह उनके द्वारा उनके स्वार्थ के लिए इस्तेमाल हो रहे है। जिस प्रकार कोई राजनीतिज्ञ जाति आधारित व्यक्ति के शारीरिक एकीकरण से जाति कल्याण का दावा नहीं कर सकता उसी प्रकार कोई भी धर्माचार्य धर्म आधारित व्यक्ति के शारीरिक एकीकरण से धर्म के कल्याण का दावा नहीं कर सकता। क्योंकि वे अपने पीछे समर्थकों की भीड़ बढ़ाने के लिए ये मुद्दे उठाते है जबकि उनके लिए सार्वजनिक कार्य करना विवशता होती है। जाति-धर्म का कल्याण पूर्णतया राजनीतिज्ञ, धर्माचार्य और जनता के बुद्धि-मस्तिष्क पर निर्भर करता है न कि भीड़ पर। और ऐसी स्थिति में यह असम्भव हो जाता है जब राजनीतिज्ञों और धर्माचार्य की पूरी पीढी ही सार्वभौम धर्म से हटकर व्यक्ति धर्म में स्थापित हो गयी हो। प्रश्न हो सकता है कि ये राजनीतिज्ञ और धर्माचार्य जनता को मार्गदर्शन दे रहे हैं परन्तु इन्हें मार्गदर्शन कौन देगा?

प्रश्न -आपका कार्य तो व्यापक है फिर राजनीति की ओर भी आप कार्य किये होगंे?
विश्वमानव - बिल्कुल हमने सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अप्रत्यक्ष कर्म को राजनीति के प्रत्यक्ष कर्म से जोड़कर ‘‘राष्ट्रीय क्रान्ति मोर्चा’’ का एक संगठन संरचना तैयार कर दिया है जिसमें देश के सक्रिय आन्देालन जो सत्य-सिद्धान्त के अनुरूप है, उन्हें शामिल कर दिया है, और राष्ट्रीय क्रान्ति मोर्चा का नेतृत्व करने के लिए मेरी ओर से स्पष्ट घोषणा है कि- ‘‘है कोई बचा भारत में पुरूष तत्व से युक्त राजनेता जो सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित योजनाबद्ध राष्ट्रीय क्रान्ति मोर्चा का नेतृत्व कर सके।’’ चूॅकि मोर्चा का सम्पूर्ण दर्शन ही रचनात्मक सार्वभौम सिद्धान्त पर आधारित है इसलिए उसकी समस्त योजनाएँ व नीतिया सफलता के लिए फिक्स है। और यह सभी राजनीतिक दलों के लिए आमंत्रण है।

प्रश्न - पुरूषतत्व से आपका तात्पर्य क्या हैं?
विश्वमानव - भारतीय दर्शन के सर्वप्राचीन और अभेद दर्शन में प्रकृति और पुरूष दो शब्द है। जो कुछ नित्य परिवर्तनशील है उसे प्रकृति तथा जो अपरिवर्तनशील है उसे पुरूष कहा गया है। इस प्रकृति को ही स्त्रीयोचित या माया कहा गया है। यह प्रकृति या पुरूष गुण नर या नारी दोनों में सम्भव है अर्थात कोई नारी पुरूषोचित भी हो सकती है तथा कोई पुरूष स्त्रीयोचित भी हो सकता हैं। यह व्यक्त व्यवहार से निर्धारित होता है।

प्रश्न -वर्तमान राजनीति में तो अधिकतम स्त्रीयोचित गुण ही दिखाई देते हे फिर आप स्वयं क्यों नहीं मोर्चा का नेतृत्व करतें ?
विश्वमानव - पहली बात, मोर्चा का समस्त दर्शन व्यक्त और स्थिर है इसलिए वह अपरिवर्तनीय पुरूषोचित है। कोेई भी नेतृत्वकत्र्ता मोर्चा का नेतृत्व सभालते ही वह अपने भूतकाल से मुक्त हो पुरूषोचित गुण के आवरण में आ जायेगा, इसलिए बात यह नहीं है कि नेतृत्वकत्र्ता कौन है। बात इच्छाशक्ति की है। और यह वही होगा जहाँ पुरूष तत्व का अंश या पूर्ण रूप विद्यमान होगा। दूसरी बात, मेरा कार्य देश काल मुक्त कार्य है यही मेरी सीमा है। विषय क्षेत्र असीम होने से मैं किसी क्षेत्र में प्रत्यक्ष रूप से बद्ध नहीं हो सकता। वैसे भी एक ही शरीर से अनेक क्षेत्रो के प्रत्यक्ष नेतृत्व की आशा लोगों को नहीं करनी चाहिए। समन्वय का सिद्धान्त है जो विषय जिसके पास न हो, उस विषय के विशेषज्ञ के साथ समन्वय स्थापित करना एकीकरण है। इस प्रकार आप अपने विषय के सीमा में रहकर कम समय में अधिक सफलता प्राप्त कर सकते है। इसे कहते हैं-ईश्वरत्व भाव से भोग। अभी लोग भोग करना भी नहीं जानते। मैं सिर्फ प्रेरक हूँ और प्रेरक ही रहूँगा। चाहे इसे मीडिया, राजनीति इत्यादि क्षेत्र राष्ट्र के निर्माण के लिए प्रयोग करे या न करें। मैं मात्र प्रेरक हूँ। प्रेरक सदा अदृश्य और अविश्वसनीय होता है ऐसा समाज मानता है। यदि समाज प्रेरक को दृश्य और विश्वसनीय मानता तब वह ‘‘आत्मा’’ को भी सत्य मानता परन्तु यह दुर्भाग्य है कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा के होने के कारण वह जीवित दिखायी पड़ता है। फिर भी वह आत्मा को नहीं मानता। यह एक ‘‘मूर्खता पूर्ण’’ स्थिति है कि जिसके कारण व्यक्ति है, जो उसे प्रेरित कर रहा है, उसी के प्रति उसका विश्वास नहीं है। जब व्यक्ति में विश्वास उत्पन्न हो जायेगा मैं प्रेरक भी प्रत्यक्ष हो जाऊॅगा।

प्रश्न - यदि कोई नेतृत्वकत्र्ता मोर्चा का नेतृत्वकत्र्ता बनना चाहता हो तो आपकी मुलाकात कैसे होगी ?
विश्वमानव - मुलाकात तो तब आवश्यक है जब सूटकेस इधर-उधर करना हो या कोई गुप्त नीति तय करनी हो। यहाँ इनमंे से कुछ भी नहीं करना है, जो कुछ है सब व्यक्त है, वही वार्ता है, वही मुलाकात है जो अपरिवर्तनीय है। जिन्हें मोर्चा का नेतृत्व करना हो वे अपनी शैली में जनसभा मीडिया से सार्वजनिक रूप में ‘‘राष्ट्रीय क्रान्ति मोर्चा’’ के गठन की सूचना व अन्य दलों को शामिल होने का आमंत्रण की घोषणा करें। बस इतना ही पर्याप्त है, फिर अपने आप सभी सूत्र सक्रिय हो जायेंगे। और वही परिणाम प्राप्त होने लेगेंगे जो फिक्स किये गए हैं। यहाँ परिणाम व्यक्त है जो स्वयं के कमोें पर निर्भर है।

प्रश्न - ऐसा तो नहीं कि नेतृत्वकत्र्ता भी फिक्स हों।
विश्वमान - सब कुछ सम्भव है, और कुछ भी सम्भव नहीं। लोग एक दो कदम भी आगे नहीं सेाच सकते यहाँ तो दूरी इतनी है कि अनुमान लगाना ही असम्भव है मेरा सम्पूर्ण कार्य, जीवन, मन इत्यादि सभी विश्व ऐतिहासिक स्तर पर फिक्स है। मेरे सम्पूर्ण कार्य में दो राजनीति क्षेत्र से तथा दो धर्म क्षेत्र से स्थान फिक्स है लेकिन उस पर पीठासीन होने वाले शरीर फिक्स नहीं है। क्योंकि जिन्हें उस के लिए आमंत्रित किया जाता है, वे सतचण्डी, लक्षचण्डी यज्ञ इत्यादि अनुपयोगी कर्मकाण्ड तथा अपने सीमित बुद्धि-चेतना से मेरा मूल्यांकन करने लगते हैं तथा अपने भले सहित विश्व कल्याण के इस महान अन्तिम कार्य को भी त्याग देते है। मेरी स्थिति तो फिक्स है और मेरे समक्ष व्यक्त होने के अनेक विषय क्षेत्र है। इसलिए ही कहता हूँ आप लोग सिर्फ अपना लाभ इसमें देखे क्योंकि आप लोग ऐसा ही करते आये है। 

प्रश्न - आप यह कैसे सिद्ध कर सकते है कि आपका सम्पूर्ण कार्य फिक्स है ? 
विश्वमानव - इसे सर्वप्रथम एक उदाहरण से समझे, मान लिजिए आप हावड़ा से दिल्ली की ओर जा रहे है और इस यात्रा के बीच में आपकों कई स्थानों पर रूकना है जहाँ आपका कुछ कार्य है। दिल्ली की ओर आपकी यात्रा उत्थान हुआ और लक्ष्य दिल्ली की दृष्टि में बीच में रूकना पतन। अगर हमें यह पता हो कि आप पतन से फिर उत्थान की ओर अग्रसर होते हुये दिल्ली पहुँचेंगे ही, और मैं पहले से ही दिल्ली पहुँचकर बैठा रहूँ तो मुझे आपसे यह कहने में कोई शक नहीं होगा कि हमारा दिल्ली में मिलना फिक्स है। इसी प्रकार व्यक्तिगत प्रमाणित सत्य से सार्वजनिक प्रमाणित सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त तक की यात्रा में बीच-बीच में पतन के कार्य होने के बावजूद संयुक्त रूप से संयुक्त मानव समाज का मन उत्थान की ओर अग्रसर होते हुये सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अन्तिम लक्ष्य की ओर ही जा रहा है। जो लोग विश्व ब्रह्माण्ड स्तर पर अनेक विषयों की स्थिति का ज्ञान नहीं रखते उन्हें इसका ज्ञान नहीं हो पाता फलस्वरूप वे पतन को ही उत्थान समझ सकते है या अनजाने ही उत्थान की ओर जा रहे होते है। यहाँ स्थिति यह है कि यह सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त पहले ही आविष्कृत किया जा चुका है, ऐसी स्थिति में हमंे यह कहने में कोई शक नहीं कि मेरा सम्पूर्ण कार्य फिक्स है। लोगों ने व्यक्तिगत लाभ के लिए ‘‘फिक्सिंग’’ कर रखा है। मैने सर्वकल्याण के लिए ‘‘फिक्सिंग’’ कर रखा है। इस सर्व में मै भी हूँ। इसलिए हम अपने कार्यो के प्रति आश्वस्त हूँ, निर्विरोध हूँ, और बिना किसी को पदच्युत किये पीठासीन हूँ।

प्रश्न - प्रो0 स्टीफेन हाकिंग का लक्ष्य क्या है ? 
विश्वमानव - प्रो0 स्टीफेन हाकिंग विश्व के सभी बलों को समेटने वाला एक सार्वभौमिक सिद्धान्त को खोजने में जुटे हुये है। वे कहते है कि यदि एक सार्वभौमिक सिद्धान्त उपलब्ध हो जाता है तो वह मानव मस्तिष्क की एक महान विजय मानी जायेगी, तब हम ईश्वर के दिमाग को भलि-भाँति समझ जायेगें। प्रो0 स्टीफेन हाकिंग भौतिक विज्ञान क्षेत्र से ब्रह्माण्ड की व्याख्या को उस मोड़ पर पहुँचा चुके है। जो मेरे विचार से भौतिक विज्ञान में सैद्धान्तिक क्षेत्र से अन्तिम शेष कार्य है। वे इसे ब्लैक होल के अपने नवीनतम व्याख्या से प्रस्तुत कर चुके है। इस सार्वभौमिक सिद्धान्त की खोज के लिए प्रो0 हाकिंग आगामी 20 वर्ष का लक्ष्य निर्धारित किये है। जबकि सेंटर फाॅर फिलाॅसफी एण्ड फाउण्डेशन आॅफ साइंस के निदेशक प्रो0 रंजीत नायर ने इस समय को बहुत कम बताया है। प्रो0 नायर का कहना है कि दर्शन और विज्ञान एक दूसरे से जुड़े हुये है, जिन समस्याओं का हल हम वैज्ञानिक ढंग से समाधान नहीं कर पाते, वहाँ दर्शन की जरूरत होती है। दर्शन, विज्ञान से अलग नहीं है। दर्शन ऐसा विषय है जहाँ सच तर्क से साबित होता है। आपको मै यह बताउँ कि प्रो0 हाकिंग ने ब्रह्माण्ड की व्याख्या को जहाँ लाकर भौतिक विज्ञान के लिए समस्या बताया है वे सब सत्य-सिद्धान्त के द्वारा व्याख्या किये जा चुके है जो मेरे शास्त्र-साहित्य के पुस्तक -‘‘विश्वभारत’’ में है। इस प्रकार सत्य-सिद्धान्त का व्यापक दायरा भौतिक विज्ञान के सबसे बड़ी अन्तिम समस्या को भी मार्गदर्शन व हल देने में सक्षम है। इसमें सबसे बड़ा लाभ व्यक्ति के दृष्टि में सुधार पर होगा अर्थात व्यक्ति जो एक आयामी दृष्टि को ही सत्य मानते है उन्हें अब बहुआयामी दृष्टि को सत्य मानना होगा। एक आयाम से ईश्वर या आत्मा या सिंगुलरिटी को सिद्ध किया जा सकता है परन्तु बहुआयामी से ईश्वर के मस्तिष्क अर्थात कार्यप्रणाली को जाना जाता है। ईश्वर के होने न होने का निर्धारण हमारे लिए जरूरी नहीं है परन्तु उसका मस्तिष्क हमारे लिए अति आवश्यक है। दर्शन आन्तरिक अनुभूति है। तो भौतिक विज्ञान बाह्य अनुभूति है, अब इन क्षेत्रों का पूर्ण मिलन हो चुका है। इस सम्बन्ध में मैने ब्रह्माण्ड वैज्ञानिकों के लिए सहायता सम्बन्धित सूचना टाटा इन्स्टीच्यूट आॅफ फण्डामेण्टल रिसर्च, मुम्बई का भेज दी है।

प्रश्न - कहीं ऐसा तो नहीं कि पुनर्जन्म और अवतार के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करने के कारण मीडिया और अन्य लोगों के निष्क्रीयता का कारण हो ? 
विश्वमानव - ऐसा हो सकता है परन्तु सरलतम ढंग से समझने के लिए-इच्छाओं का पुनर्जन्म तथा सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का अवतरण होता है। व्यक्तिगत प्रमाणित सार्वभौम सत्य से सार्वजनिक प्रमाणित सार्वभौम सिद्धान्त तक की यात्रा अवतारी यात्रा है। और इस यात्रा में अंशावतार तथा पूर्णावतार होते है। पूर्णावतार वे होते है जिनसे सत्य या सिद्धान्त की पूर्णता व्यक्त होती है। श्री कृष्ण क्या है ? वे पिछले सभी विज्ञान सम्मत विचारों के एकीकरण के साथ स्वयं अपने मस्तिष्क के व्याख्याता और स्थापक है। चूंकि आत्मा अब तक व्यक्तिगत प्रमाणित ही रही इसलिए उनका गीतोपनिषद् सार्वभौम सत्य होते हुये भी उस रूप में स्थापित नहीं हो सका। सामान्यजन अपने वर्तमान समय के मस्तिष्क के बराबर भी नहीं होते, फिर उस समय के सार्वभौम मस्तिष्क से आगे की मस्तिष्क को इतनी सरलता से नहीं जाना जा सकता। फलस्वरूप अन्य लोगों द्वारा मेरे लिए अहंकारी जैसा भाव व्यक्त होना स्वाभाविक है जबकि यह स्वतः उनके भूतकाल में होने के कारण है। वह अवतार गुणों से पूर्ण हो ही कहता है, और प्रत्येक का यह अधिकार है कि वह अपने गुणों के अनुसार अपना निर्धारित पद स्वयं व्यक्त कर सकता है। जिन्हें गुणों के पहचान का ज्ञान नहीं वह कैसे अपना या किसी अन्य का पद निर्धारित कर सकते हैं। इसलिए लोगों के मानने या न मानने से अपने उपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त अन्तिम पूर्णावतार का ही निराकार रूप है, और जो अन्तिम होगा वह निश्चित रूप से किसी के अन्तिम इच्छा का पुनर्जन्म रूप भी होगा। अवतार तथा पुनर्जन्म विज्ञान के सिद्धान्त के अनुरूप होता है। अवतार कभी भी विज्ञान विरूद्ध नहीं चलता। इस प्रकार यह सत्य है कि जो कुछ विज्ञान सम्मत है सिर्फ वही धर्म का सत्य रूप है। अन्ततः सिर्फ वही बचेगा। न तो विज्ञान का सार्वजनिक विरोध हो सकता है न ही पूर्णावतार का। अद्वैत दर्शन का कहना है सभी ईश्वर है। परन्तु युगों में कोई एक ही उसे व्यक्त कर सकता है। अब तो व्यक्त करने की बात पुरानी हो गयी। अब सीधे सत्य-सिद्धान्त और ईश्वर के मस्तिष्क को जानकर लोग ईश्वर अनुसार बनें और कर्म करें यही बुद्धिमानी है। अन्य जो इस जीवन में न समझेगें उन्हें पुर्नजन्म में आना होगा। यह अवतार या पुनर्जन्म कोई नई बात तो है नहीं, पहले भी हुआ था और अब अन्तिम रूप से वर्तमान में प्रत्यक्ष है।

प्रश्न - आपका अपना कर्म-सिद्धान्त क्या है ?
विश्वमानव -  मेरा व्यक्तिगत कर्म सिद्धान्त यह है कि विषय क्षेत्रवार रचनात्मक योजनाओं को सम्बन्धित विषय पर कर्म करने वालों के समक्ष प्रस्तुत करो और उनके उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना आगे बढ़ते रहो। यह कुछ ऐसे ही है जैसे -स्टेशन पर खड़ा व्यक्ति और उसके मंजिल की ओर जाने वाला टेªन। ट्रेन पर वह यात्री न बैठे तो टेªन की क्या गलती ? यदि टेªन पर बैठता है तो व्यक्ति का सहयोगी टेªन और टेªन का सहयोगी व्यक्ति बन जाता है। मंजिल पर दोनों पहुँच जाते है। एक का पहुँचना ‘‘फिक्स’’ था, दूसरा सहयोग से पहुँच जाता है। साथ ही जो ‘‘फिक्स’’ था उसकी रूचि और गति बढ़ जाती है।

प्रश्न - अन्त में एक प्रश्न, आपकी दृष्टि में समाज का रूप क्या होना चाहिए।
विश्वमानव - पूर्ण ज्ञान-ध्यान-कर्मज्ञान से युक्त अपने अपने पेशे में संलग्न स्त्री-पुरूष और संस्था अर्थात् मानक आधारित समाज न कि विचार या व्यक्ति आधारित समाज। यही वर्तमान लडखड़ाती लोकतन्त्र का विकसित रूप पूर्ण स्वस्थ लोकतन्त्र में समाज का स्वरूप है। अभी समाज व लोकतन्त्र पतन और उत्थान के तरंगाकार गति से उत्थान की ओर बढ़ रहा है। जो इस कार्य से पहले ही जुड़ जायेगें, वे ही पूर्ण स्वस्थ लोकतंत्र व समाज के निर्माणकत्र्ता कहलायेगें। बस गति-देने की बात है सब कुछ तो अविष्कृत कर व्यक्त किये जा चुके है। यह सब बाते वर्तमान की है परन्तु अधिकतम लोगों का मस्तिष्क भूतकाल में होने से उन्हें भविष्य की बात लगती है।


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