शिव और जीव
‘‘शिव से व्यक्त यह समस्त सूक्ष्म एवम् स्थूल, चेतन एवं अचेतन जगत प्रपंच और प्रत्येक प्रपंच में स्वयं उसी का प्रकाश अर्थात बहुरूप मंे प्रकाशित एक सत्ता“ यही है, सम्पूर्ण सत्य जिसे अब तक के अदृश्य आध्यात्म और दृश्य पदार्थ विज्ञान केे सम्पूर्ण आविश्कार के फलस्वरूप पाया और आत्मसात् किया गया। जिस प्रकार हवा, गन्ध इत्यादि या पदार्थ विज्ञान द्वारा आविश्कृत विद्युत निराकार निगुर्ण अदृश्य है, सिर्फ उसके गुणो क्रमशः त्वचा से स्पर्श, नाक से स्पर्श और विद्युत यन्त्रों का प्रकाषित व गतिशील होना, द्वारा ही साकर-सगुण-दृश्य और निराकार-निर्गुण- अदृश्य दोनांे रूप सार्वजनिक प्रमाणित है। उसी प्रकार शिव निराकार-निर्गुण-अदृश्य है, सिर्फ उनके गुण अपरिवर्तनीय-अटल-सर्वव्यापी प्राकृतिक नियम परिवर्तन या आदान-प्रदान द्वारा ही साकार-सगुण-दृश्य और निराकार-निर्गुण-अदृश्य रूप सार्वजनिक प्रमाणित है अर्थात निराकार से साकार को सार्वजनिक प्रमाणित करने का मार्ग सीमाबद्ध, अवरूद्ध तथा साकार से साकार एवं निराकार दोनों रूपों को सार्वजनिक प्रमाणित करने का मार्ग असीम, व्यापक, खुला एवं अन्तिम मार्ग है। गुण अलग करने पर विशय र्का अिस्तत्व विवादित है। निराकार सत्य है तो गुण सिद्धान्त है। शिव सत्य है तो प्राकृतिक नियम सिद्धान्त गुण और शक्ति है जिस प्रकार शक्ति के बिना न शिव और न ही शक्ति सार्वजनिक प्रमाणित है उसी प्रकार सिद्धान्त के बिना न सत्य और न ही सिद्धान्त सार्वजनिक प्रमाणित है।
प्राकृतिक नियम परिर्वतन या आदान-प्रदान से अप्रभावी रहने का प्रयत्न या संघर्श ही सर्वोच्च और अन्तिम चेतना है। इस चेतना के ज्ञान से ही काल का सर्वोच्च और अन्तिम ज्ञान है। तद्नुसार कर्म चेतना या काल ज्ञान युक्त सर्वोच्च और अन्तिम कर्म है। इस पर मन को केन्द्रित करना सर्वोच्च और अन्तिम धारणा है। इस प्रकार सतत प्रवाहित धारणा ही सर्वोच्च और अन्तिम ध्यान है। यह चेतना प्राकृतिक नियम काल का ज्ञान, ध्यान और धारणा जिस शिव से प्रकाशित हो रही है। उसके अर्थ मंे मन को स्थापित कर देना सर्वोच्च और अन्तिम समाधि है। ध्यान, धारणा और समाधि तीनांे का संयुक्त रूप ही सर्वोच्च और अन्तिम संयम है। जो सर्वोच्च और अन्तिम है, वही प्रथम है। प्रथम, अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित है तो अन्तिम, दृश्य सार्वजनिक प्रमाणित है। चेतना के दो अवस्था है।
प्रथम- प्राकृतिक चेतना या उसका गुण रूप- अन्य द्वारा निर्मित परिस्थितियांे मंे प्राथमिकता से वर्तमान में कार्य करना।
प्राकृतिक चेतना के भी दो रूप है- प्रथम, अदृश्य प्राकृतिक चेतना या उसका गुण रूप अदृश्य चेतना द्वारा निर्मित परिस्थतियांे मंे प्राथमिकता से वर्तमान में कार्य करना। द्वितीय, दृश्य प्राकृतिक चेतना या उसका गुण रूप अन्य अदृश्य चेतना युक्त मानव या प्रकृति द्वारा निर्मित परिस्थतियांे में प्राथमिकता से वर्तमान मंे कार्य करना।
द्वितीय- सत्य चेतना या उसका गुण रूप स्वयं द्वारा निर्मित परिस्थतियों मंे प्राथमिकता से भूतकाल का ज्ञान और भविश्य की आवश्यकतानुसार वर्तमान मंे कार्य करना।
सत्य चेतना के भी दो रूप है- प्रथम, दृश्य सत्य चेतना या उसका गुण रूप स्वयं द्वारा निर्मित परिस्थतियांे में प्राथमिकता से भूतकाल का ज्ञान और भविश्य की आवश्यकतानुसार वर्तमान मंे कार्य करते हुये अपने उद्देश्य को व्यक्तिगत रूप से उस समय व्यक्त करना जब उद्देश्य पूर्ण होने मंे कोई सन्देह न हो। द्वितीय, दृश्य सत्य चेतना या उसका गुण रूप स्वयं द्वारा निर्मित परिस्थतियांे में प्राथमिकता से भूतकाल का ज्ञान और भविश्य की आवश्यकतानुसार वर्तमान मंे कार्य करते हुये अपने उद्देश्य को कार्य प्रारम्भ पूर्व सार्वजनिक रूप से ऐसे समय में व्यक्त करना जब उद्देश्य पूर्ण होने मंे कोई सन्देह न हो।
चेतना का सम्मिलित रूप अदृश्य प्रकृतिक चेतना मूल और आन्तरिक चक्र, द्वितीय बाह्य चक्र दृश्य प्राकृतिक चेतना, तृतीय द्वितीय का बाह्य चक्र अदृश्य सत्य चेतना तथा अन्तिम, सर्वोच्च , बाह्य और मूल का दृश्य चक्र दृश्य सत्य चेतना है। यही चक्र क्रमशः व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य काल, सार्वजनिक प्रमाणित अदृश्य काल व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य काल और सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य काल कहलाते है। तथा सिद्धान्त कर्म और कर्मज्ञान क्रमशः व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य, सार्वजनिक प्रमाणित अदृश्य, व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य और सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य सिद्धान्त कर्म और ज्ञान कहलाते है। इन कालो मंे शिव का रूप क्रमशः व्यक्तिगत प्रमाणित निराकार-निर्गुण-अदृश्य-अव्यक्त-एकेश्वर, सार्वजनिक प्रमाणित निराकार-निर्गुण-अदृश्य अव्यक्त-एकेश्वर सहित सार्वजनिक प्रमाणित निराकार-निर्गुण-दृश्य-व्यक्त-बहुदेव, व्यक्तिगत प्रमाणित निराकार निर्गुण-अदृश्य-एकेश्वर सहित व्यक्तिगत प्रमाणित साकार-सगुण-दृश्य-व्यक्त- एकेश्वर, सार्वजनिक प्रमाणित साकार सगुण-दृश्य-व्यक्त-एकेश्वर सहित सभी ईश्वर या शिव होता है।
निराकार शिव और उसके सगुण रूप प्राकृतिक नियम परिर्वतन या आदान-प्रदान को छोड़ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड निराकार शिव और उसके सगुण रूप प्राकृतिक नियम परिर्वतन या आदान-प्रदान के प्रभाव में है। जो सर्वव्यापी, अटलनीय, अपरिर्वतनीय और प्रत्येक क्षण विद्यमान है, जो चेतना से सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य व्यक्त होता है। चेतना निराकार शिव और उसके सगुण प्राकृतिक नियम परिर्वतन या आदान प्रदान के व्यक्त होने का मार्ग मानव शरीर है।
प्राकृतिक नियम परिर्वतन या आदान-प्रदान के अतीत का ज्ञान अर्थात ज्ञानातीत ज्ञान अर्थात निर्गुण-निराकार-सर्वोच्च और अन्तिम, अदृश्य, शिव का ज्ञान ही साकार-सगुण-दृश्य अवतारी शिव मानव का ज्ञान है। प्राकृतिक नियम परिर्वतन या आदान प्रदान का ज्ञान ही साकार-सगुण-दृश्य ज्ञानी मानव का सर्वोच्च और अन्तिम ज्ञान है। प्राकृतिक नियम परिर्वतन या आदान प्रदान की अज्ञानता अर्थात द्वन्द युक्त साधारण ज्ञान अर्थात माया के आवरण से ढका ज्ञान ही साकार-सगुण-दृश्य साधारण मानव का सर्वोच्च और अन्तिम ज्ञान है। तद्नुसार व्यक्त कर्म ज्ञानातीत कर्म, ज्ञान युक्त कर्म और मन युक्त कर्म क्रमशः अवतारी शिव मानव, ज्ञानी मानव और साधारण मानव का सर्वोच्च और अन्तिम कर्म है।
No comments:
Post a Comment