Saturday, March 14, 2020

स्वामी अड़गड़ानन्द - ”यथार्थ गीता“

स्वामी अड़गड़ानन्द - ”यथार्थ गीता“
                    

परिचय - स्वामी अड़गड़ानन्द महाराज, श्री परमानन्द परमहंस महाराज के शिष्य हैं। श्री परमानन्द परमहंस महाराज उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के रामकोला गांव के एक साधारण परिवार में सम्वत् विक्रम 1969 (सन् 1911 ई0) में जन्म लिये थे। इनकी माँ का नाम श्रीमती फुलमनी देवी तथा पिता का नाम श्री जगरूप शर्मा था। जब एक प्रख्यात ज्योतिषि ने उनको बाल्यकाल में देखा तो उनकी माँ से कहा कि- जिसे बच्चे को तुमने जन्म दिया है वह या तो एक राजा या एक निपुण गुरू के रूप में जाना जायेगा। यह सुनकर उनकी माँ ने बच्चे को बुरी नजर से बचाने के लिए सिर पर मिर्च और नमक द्वारा क्रिया की। 5 वर्ष की उम्र में जब स्कूल में भेजा गया तब उन्हें एक दिन शिक्षक द्वारा हल्का दण्ड मिलने पर, बच्चा स्कूल से बाहर आकर रोया। तब माँ ने कहा- स्कूल के साथ नरक, मेरा बेटा अब से अध्ययन नहीं करेगा। यह उनकी शिक्षा का आकस्मिक अन्त ही था। श्री श्री 1008 श्री स्वामी परमानन्द परमहंस जी महाराज दिनांक 23 मई, 1969 (ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी, वि0सं0 2026) को महाप्रयाण हो गये।
श्री परमानन्द परमहंस महाराज का परमहंस आश्रम अनुसूईया, चित्रकूट, सतना (मध्य प्रदेश) में स्थित है। यह आश्रम जंगली जानवरों और जंगलों से घिरे हुए स्थान में स्थित था। इस आश्रम की स्थिति ही व्यक्त करता था कि यहाँ कोई महान ऋषि रहते होगें। स्वामी अड़गड़ानन्द जी 23 वर्ष की उम्र में नवम्बर, 1955 में सत्य की खोज में यहाँ आये। अपने गुरू के प्रति अनन्त भक्ति और सत्य की खोज की तीव्रता ने श्री अड़गड़ानन्द जी को सत्य के साक्षात्कार की उपलब्धि करायी। श्री अड़गड़ानन्द महाराज जी की लेखन में कोई रूचि नहीं थी। वे केवल धार्मिक उपदेश व सामाजिक कल्याण के हल का ही उपदेश देते थे। इस पर उनका पहला प्रकाशन ”जीवनादर्श और आत्मानुभूति“ जो अपने गुरू के आध्यात्मिक खोज पर आधारित है, प्रकाशित हुई। यह उनके जीवन के अनुभव और अनेक आश्चर्यजनक घटनाओं का एक संग्रह है। लोगों में से अनेक आज भी हैं जिन्होंने ऐसे अद्वितीय व्यक्तित्व को देखा है और इसके लिए महाराज जी खुद को बहुत भाग्यशाली मानते हैं। महाराज जी अपने गुरू के निकटता और गहरे ध्यान में 15 वर्ष व्यतीत किये। महाराज जी के नाम से ”श्री परमहंस स्वामी अड़गड़ानन्दजी आश्रम ट्रस्ट“ पंजीकृत है जिसका कार्यालय चैपाटी, मुम्बई में स्थित है। ”यथार्थ गीता“ का प्रकाशक यही ट्रस्ट है। महाराज जी का आश्रम चुनार क्षेत्र, मीरजापुर जिला, उत्तर प्रदेश के सक्तेशगढ़ के पास जौगढ़ नामक स्थान पर स्थित एक पुराने किले का नवीनीकरण कर बनाया गया है।

गीता मानव मात्र का धर्म शास्त्र है- वेदव्यास
श्रीकृष्णकालीन महर्षि वेदव्यास से पूर्व कोई भी शास्त्र पुस्तक के रूप में उपलब्ध नहीं था। श्रुतज्ञान की इस परम्परा को तोड़ते हुए उन्होंने चार वेद, ब्रह्मसूत्र, महाभारत, भागवत एवं गीता जैसे ग्रन्थों में पूर्वसंचित भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञानराशि को संकलित कर अन्त में स्वयं कहा कि-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्य्मनाभस्य मुखपद्य्माद्विनिःसुता।। (महाभारत, भीष्म पर्व, 43.1)
गीता भली प्रकार मनन करके हृदय में धारण करने योग्य है, जो पद्य्मनाभ भगवान के श्रीमुख से निःसृत वाणी है। फिर अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता? मानव सृष्टि के आदि में भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निःसृत अविनाशी योग अर्थात् श्रीमद्भगवदगीता, जिसकी विस्तृत व्याख्या वेद और उपनिषद् हैं, विस्मृति आ जाने पर उसी आदिशास्त्र को भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रति पुनः प्रकाशित किया, जिसकी यथावत् व्याख्या ”यथार्थ गीता“ है।
गीता का सारांश ”गीता माहात्म्य“ के इस श्लोक से प्रकट होता है-
एकं शास्त्रं देवकीपुत्र गीतम्, एको देवो देवकीपुत्र एव।
एको मंत्रस्तस्य नामानि यानि, कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।।
अर्थात एक ही शास्त्र है जो देवकीपुत्र भगवान ने श्रीमुख से गायन किया-गीता। एक ही प्राप्त करने योग्य देव है। उस गायन में जो सत्य बताया- आत्मा। सिवाय आत्मा के कुछ भी शाश्वत नहीं है। उस गायन में उन महायोगेश्वर ने क्या जपने के लिए कहा? ओम्। अर्जुन अक्षय परमात्मा का नाम है, उसका जप कर और ध्यान मेरा धर। एक ही कर्म है- गीता में वर्णित परमदेव एक परमात्मा की सेवा। उन्हें श्रद्धा से अपने हृदय में धारण करें। अस्तु, आरम्भ से ही गीता आपका शास्त्र रहा है। भगवान श्रीकृष्ण के हजारों वर्ष पश्चात् परवर्ती जिन महापुरूषों ने एक ईश्वर को सत्य बताया, गीता के ही सन्देश वाहक हैं। ईश्वर से ही लौकिक एवं परलौकिक सुखों की कामना, ईश्वर से डरना, अन्य किसी को ईश्वर न मानना- यहाँ तक तो सभी महापुरूषों ने बताया, किन्तु ईश्वरीय साधना, ईश्वर तक की दूरी तय करना- यह केवल गीता में ही सांगोपांग क्रमबद्ध सुरक्षित है। गीता से सुख-शान्ति तो मिलती ही है, यह अक्षय अनामय पद भी देती है। देखिये श्रीमद्भगवदगीता की टीका - ”यथार्थ गीता“।
यद्यपि विश्व में सर्वत्र गीता का समादर है फिर भी यह किसी मजहब या सम्प्रदाय का सहित्य नहीं बन सकी, क्योंकि सम्प्रदाय किसी न किसी रूढ़ि से जकड़े हैं। भारत में प्रकट हुई गीता विश्व-मनीषा की धरोहर है, अतः इसे राष्ट्रीय शास्त्र का मान देकर ऊँच-नीच, भेदभाव तथा कलह-परम्परा से पीड़ित विश्व की सम्पूर्ण जनता को शान्ति देने का प्रयास करें। (पुस्तक - ”यथार्थ गीता“ से साभार)

”श्रीकृष्ण जिस स्तर की बात करते हैं, क्रमशः चलकर उसी स्तर पर खड़ा होने वाला कोई महापुरूष ही अक्षरशः बता सकेगा कि श्रीकृष्ण ने जिस समय गीता का उपदेश दिया था, उस समय उनके मनोगत भाव क्या थे? मनोगत समस्त भाव कहने में नहीं आते। कुछ तो कहने में आ पाते हैं, कुछ भाव-भंगिमा से व्यक्त होते हैं और शेष पर्याप्त क्रियात्मक हैं-जिन्हें कोई पथिक चलकर ही जान सकता है। जिस स्तर पर श्रीकृष्ण थे, क्रमशः चलकर उसी अवस्था को प्राप्त महापुरूष ही जानता है कि गीता क्या कहती है। वह गीता की पंक्तियाँ ही नहीं दुहराता, बल्कि उनके भावों को भी दर्शा देता है क्योंकि जो दृश्य श्रीकृष्ण के सामने था, वही उस वर्तमान पुरूष के समक्ष भी है। इसलिए वह देखता है, दिखा देगा, आपमें जागृत भी कर देगा, उस पथ पर चला भी देगा। पूज्य श्री परमहंस जी महाराज भी उसी स्तर के महापुरूष थे। उनकी वाणी तथा अन्तः प्रेरणा से मुझे गीता का जो अर्थ मिला, उसी का संकलन यथार्थ गीता है।“ - अड़गड़ानन्द महाराज

गीता राष्ट्रीय साहित्य घोषित हो“
-स्वामी अड़गड़ानन्द, परमहंस आश्रम, सक्तेशगढ़, चुनार क्षेत्र 
(विभिन्न प्रवचनों में बोले गये और अनेकों समाचार पत्र में प्रकाशित शब्द)

श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
यद्यपि कि गीता की व्याख्या अनेकों बार हुई है परन्तु श्री अड़गड़ानन्द महाराज जी द्वारा प्रस्तुत ”यथार्थ गीता“ इस संसार में उपलब्ध गीता के अनेक व्याख्याओं में से सर्वोच्च, अन्तिम, यथार्थ और प्रथम व्याख्या है। 
”निश्चित ही गीता शास्त्र है परन्तु पूर्ण शास्त्र नहीं। गीता में सत्य-ज्ञान है परन्तु कर्म-ज्ञान नहीं। गीता में सत्य-सिद्धान्त है परन्तु सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त नहीं। गीता में प्रकृति की व्याख्या है परन्तु ब्रह्माण्ड की व्याख्या नहीं। गीता व्यक्ति (व्यक्तिगत मन) की पूर्णता का शास्त्र है परन्तु समष्टि (संयुक्त मन) की पूर्णता का शास्त्र नहीं। गीता में ज्ञान की परिभाषा है परन्तु ध्यान की परिभाषा नहीं। गीता व्यक्तिगत प्रमाणित है परन्तु सार्वजनिक प्रमाणित नहीं। गीता व्यक्ति को कैसे चलना चाहिए यह आंशिक रुप से बताती है परन्तु व्यक्ति सहित सम्पूर्ण राष्ट्र को पूर्ण रुप से कैसे चलना चाहिए यह नहीं बताती। गीता ज्ञान व सिद्धान्त का बीज शास्त्र है न कि वृक्ष शास्त्र। गीता में योग है परन्तु ध्यान व चेतना नहीें। गीता में दर्शन है परन्तु विकास दर्शन नहीें। गीता में ईश्वर की व्याख्या है परन्तु अवतार की व्याख्या नहीें। गीता चेला बनाने में उपयोगी है परन्तु गुरू बनाने में नहीें। गीता अर्जुन बनाने में उपयोगी है परन्तु कृष्ण बनाने में नहीं। 
महात्मन आदि शंकराचार्य के समय में न तो आज की तरह मोटर वाहन, रेलगाड़ी व हवाई जहाज था न ही मुद्रण व प्रसारण की आधुनिक तकनीकी। फिर भी वे भारत में गीता ज्ञान द्वारा अद्वैत की ज्योति जलाए थे। परन्तु आज सभी कुछ है साथ ही अनेकों गीता के प्रवचन कर्ता व मानस मर्मज्ञ। फिर भी प्रत्येक व्यक्ति अलगाववाद की भाषा तथा पशु की भाँति स्वयं के दायरे से उपर नहीं उठ पा रहा है व्यक्ति की स्थिति की भाँति प्रवचनकर्ता तथाकथित स्वघोषित गुरुओं की भी है। वे शास्त्रों के प्रमाण स्वरुप अवतार को भी नहीं पहचानते जिनके विषय में प्रवचन कर अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं। इसका क्या कारण है? कारण है तो सिर्फ यह कि ज्ञान नाम की वस्तु को व्यवहारिकता से नहीं जोड़ा गया। जिससे व्यक्ति को यह विषय निरर्थक और सिर्फ मान लेने में विश्वास है न कि जान लेने में। ध्यान रहे आस्था के विकास से बुद्धि का विकास नहीं होता और बिना बुद्धि के विकास के कर्म ज्ञान समझ में आना तो असम्भव ही है।
व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य बिजली और हवा पर हम प्रवचन कितना भी करते रहें वह व्यक्ति को तब तक अनुभव में नहीं आ सकती जब तक की बिजली से प्रकाश और हवा से हिलने और स्पर्श की क्रिया सम्भव न हो। इसी प्रकार आत्मा पर प्रवचन कितना भी क्यों न हो वह तब तक अनुभव में नहीं आ सकती जब तक की व्यक्ति से एकात्म ज्ञान, वाणी, मन, कर्म, प्रेम, ध्यान व समर्पण संयुक्त रुप से व्यक्त न हो। आत्मा के सार्वजनिक प्रमाणित व्यक्त होने के क्रम में ही श्री विष्णु (एकात्म ज्ञान, वाणी, प्रेम व कर्म) के पूर्णावतार श्रीकृष्ण हो चुके हैं। इस प्रकार अब श्री विष्णु समाहित शिवशंकर (एकात्म ध्यान व समर्पण) की आवश्यकता है। तभी पूर्ण शिवत्व की झलक सहित उनके दिव्यरुप पंचमुखी अर्थात् पंचमवेद का रुप व्यक्त होगा। अन्यथा अन्तिम अवतार की उपयोगिता क्या होगी। जबकि आप लोग अवतार को मानते हैं और अन्तिम अवतार आप लोगों की दृष्टि में शेष भी है। 
राष्ट्रीय साहित्य के रुप में स्थापित होने के लिए शास्त्र में गुण का होना आवश्यक है और यह गुण है- व्यक्ति स्तर से ब्रह्माण्ड स्तर को मार्गदर्शन देने की क्षमता। और यह मात्र वहीं है- जो शिवशंकर के पूर्णावतार से व्यक्त है अर्थात्- यह मात्र ”गीता“ समाहित ”विश्वशास्त्र“ है जिसमें व्यक्ति का धर्मयुक्त धर्मशास्त्र कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद और राष्ट्र का धर्मनिरपेक्ष धर्मशास्त्र विश्वमानक-शून्य श्रंृखला है, न कि उपनिषद् समाहित गीता। आप के शब्दों की क्या गलती ? प्रायः व्यक्ति उन्हीं में से सर्वोच्चता का निर्धारण करता है जितनी उसके जानकारी में होती है। परन्तु कमी या तो तब पता चलता है जब तत्व की जानकारी हों।
व्यक्तिगत प्रमाणित विश्वशास्त्र ”गीता“ राष्ट्रीय शास्त्र-साहित्य कभी नहीं हो सकती, एक मात्र धर्म नाम से ”कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद“ अर्थात सर्वधर्मसमभाव या धर्मनिरपेक्ष नाम से मन की गुणवत्ता का विश्व/अन्र्तराष्ट्रीय मानक समाहित सार्वजनिक प्रमाणित ”विश्वशास्त्र“ शास्त्र-साहित्य ही राष्ट्रीय शास्त्र-साहित्य के योग्य है। 
”गीता“ और ”विश्वशास्त्र“ दोनों एक ही शास्त्राकार से व्यक्त हुए शास्त्र आपस में टकरायेगें तो अपने आप दोनों राष्ट्रीय शास्त्र के रूप में स्थापित हो जायेंगे। बस एक व्यक्तिगत प्रमाणित रूप में होगा दूसरा सार्वजनिक प्रमाणि रूप में। बस राम पक्ष और लव-कुश युद्ध की तरह, स्थापित तो दोनों ही हो गये। श्रीराम कथा पहले ही पूर्ण हो चुकी है लव-कुश की अब शुरू हो चुकी है।
”राम सेतू (राम से तू)“ का समाज से सम्बन्ध मात्र आस्था व भावनात्मक है इस रुप में उसकी रक्षा होनी ही चाहिए क्योंकि वह हमारे मूल व अस्तित्व का प्रमाण है। परन्तु वह आम जनता के शारीरिक, आर्थिक व मानसिक विकास के लिए कालानुसार उपयोगी नहीं है। आम जनता के शारीरिक, आर्थिक व मानसिक विकास के लिए कालानुसार उपयोगी “लव कुश सेतू (लव कुश से तू)“ अर्थात सार्वजनिक प्रमाणित ”विश्वशास्त्र“ शास्त्र-साहित्य की स्थापना है। हे भारत यदि तुम वास्तव में अपना विकास चाहता है तो यही एक मात्र मार्ग है। चाहे तो अन्य मार्ग के लिए प्रयत्न करके देख लो, परन्तु अभी तक तो तुम प्रयत्न ही तो कर रहेे थे। हम कोई और नहीं व्यष्टि मन (व्यक्तिगत मन) का समष्टि मन (संयुक्त/विश्व मन) से योग कराने के लिए ही व्यक्त हुए हैं।

महर्षि वेदव्यास का शास्त्र लेखन कला (संक्षिप्त, विस्तार अध्याय-तीन में है) 
मानव सभ्यता के विकास के कालक्रम में कर्म कर अनुभव के ज्ञान सूत्र का संकलन ही वेद के रूप में व्यक्त हुआ जिससे आने वाली पीढ़ी मार्गदर्शन को प्राप्त कर सके और अपना समय बचाते हुए कर्म कर सके। अर्थात प्रत्येक साकार सफल नेतृत्व के साथ उसके अनुभव का निराकार ज्ञान सूत्र के संकलन की समानान्तर प्रक्रिया भी चलती रही। और यह सभी प्रक्रिया मानव जाति के श्रेष्ठतम विकास के लिए ही की जा रही थी। मनुष्य को युगानुसार शास्त्र का अध्ययन करना चाहिए लेकिन समाज पुराने में ही उलझ जाता है इसलिए ही विकास अवरूद्ध होता है। समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र की रचना करना व उसका प्रचार-प्रसार करने वाले व्यास कहलाये। जिनके द्वारा शास्त्र रचना के युगानुसार निम्न चरण पूरे हुए।
1. सार्वभौम आत्मा के ज्ञान द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - वेद 
वेदों को मूलतः सार्वभौम ज्ञान का शास्त्र समझना चाहिए। जिनका मूल उद्देश्य यह बताना था कि ”एक ही सार्वभौम आत्मा के सभी प्रकाश हैं अर्थात बहुरूप में प्रकाशित एक ही सत्ता है। इस प्रकार हम सभी एक ही कुटुम्ब के सदस्य है।“
जब वेद लोंगो के समझ में कम आने लगा या समाज उसी में उलझ गया और उससे समाज को एकात्म करना कठिन होने लगा तब उसके व्याख्या का शास्त्र उपनिषद् की रचना की गई।

2. सार्वभौम आत्मा के नाम द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - उपनिषद् 
उपनिषद्ों की शिक्षा उस सार्वभौम आत्मा के नाम के अर्थ की व्याख्या के माध्यम से उस सार्वभौम आत्मा को समझाना है।
जब उपनिषद् लोंगो के समझ में कम आने लगा या समाज उसी में उलझ गया और उससे समाज को एकात्म करना कठिन होने लगा तब पौराणिक वंशावली में हुए साकार विष्णु कर्तार, कमल कर्तार, ब्रह्मा कर्तार और रूद्र-शिव के निराकार एवं साकार रूप को प्रक्षेपित कर मानक चरित्र (व्यक्तिगत, सामाजिक और वैश्विक) का शास्त्र पुराण की रचना की गई। 

3. सार्वभौम आत्मा के कृति कथा द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - पुराण
पुराण लिखने का मुख्य आधार -
जब उस सार्वभौम आत्मा का ही सब प्रकाश है, तब यह ब्रह्माण्ड ही ईश्वर का दृश्य रूप है। इसलिए पुराण की रचना कई चरणों में हुयी और प्रत्येक चरण की अलग-अलग शिक्षा है। 
प्रथम चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से ब्रह्माण्ड के विकास को कथा के माध्यम से समझाया गया है।
द्वितीय चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से सौर मण्डल के विकास को कथा के माध्यम से समझाया गया है।
तृतीय चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से प्रकृति के विकास को कथा के माध्यम से समझाया गया है।
चतुर्थ चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से जीवों के विकास को कथा के माध्यम से समझाया गया है।
पंचम चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से मनुष्य के विकास को कथा के माध्यम से साथ ही मनुष्य को व्यक्तिगत, सामाजिक और वैश्विक मनुष्य तक उठने के उन गुणों को समझाया गया है। जो इस प्रकार हैं-
1. वैश्विक/ब्रह्माण्डिय (मानक वैश्विक चरित्र) मनुष्य के लिए - एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म, एकात्म प्रेम, एकात्म सर्मपण और एकात्म ध्यान से युक्त जीवन और वस्त्राभूषण का प्रक्षेपण शिव-शंकर परिवार।
2. सामाजिक (मानक सामाजिक चरित्र) मनुष्य के लिए - एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म, एकात्म प्रेम से युक्त जीवन और वस्त्राभूषण का प्रक्षेपण विष्णु परिवार।
3. व्यक्तिगत (मानक व्यक्ति चरित्र) मनुष्य के लिए - एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी से युक्त जीवन और वस्त्राभूषण का प्रक्षेपण ब्रह्मा परिवार।
जब पुराण लोंगो के समझ में कम आने लगा या समाज उसी में उलझ गया और उससे समाज को एकात्म करना कठिन होने लगा तब मानवीय वंशावली में हुए अनेक विभिन्न प्रकृति-चरित्र के साकार मानव और उनके निराकार एवं साकार रूप को प्रक्षेपित कर प्रकृति-चरित्र (व्यक्तिगत, सामाजिक और वैश्विक) का शास्त्र महाभारत की रचना की गई। 

4. सार्वभौम आत्मा के प्रकृति द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - महाभारत
महाभारत की शिक्षा अपनी प्रकृति में स्थित रहकर व्यक्तिगत प्रमाणित स्वार्थ (लक्ष्य) को प्राप्त करने के अनुसार सम्बन्धों का आधार बनाने की शिक्षा है। गीता कीे शिक्षा - गीता की मूल शिक्षा प्रकृति में व्याप्त मूल तीन सत्व, रज और तम गुण के आधार पर व्यक्त विषयों जिसमें मनुष्य भी शामिल है, की पहचान करने की शिक्षा दी गयी है और उससे मुक्त रहकर कर्म करने को निष्काम कर्मयोग तथा उसमें स्थित रहने को स्थितप्रज्ञ और ईश्वर से साक्षात्कार करने का मार्ग समझाया गया।
जब महाभारत लोंगो के समझ में कम आने लगा या समाज उसी में उलझ गया और उससे समाज को एकात्म करना कठिन होने लगा तब काल, चेतना, कर्मज्ञान एवं सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त और मानवी सिद्धान्त के एकीकरण सहित पूर्व के शास्त्र रचना का उद्देश्य का शास्त्र विश्वभारत समाहित विश्वशास्त्र की रचना की गई जिसका मुख्य गुण ”सार्वभौम“ है और महायोग-महामाया का अन्तिम उदाहरण बनाया गया।

5. सार्वभौम आत्मा के काल, चेतना और कर्मज्ञान द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र -विश्वशास्त्र: द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज 
विश्वशास्त्र की शिक्षा, उपरोक्त सभी को समझाना है और पूर्ण सार्वजनिक प्रमाणित काल, चेतना और ज्ञान-कर्मज्ञान से युक्त होकर कर्म करने की शिक्षा है। जिससे भारतीय शास्त्रों की वैश्विक स्वीकारीता स्थापित हो और देवी-देवताओं के उत्पत्ति के उद्देश्य से भटक गये मनुष्य को शास्त्रों के मूल उद्देश्य की मुख्यधारा में लाया जा सके। विश्वभारत कीे शिक्षा - विश्वभारत, विश्वशास्त्र के स्थापना की योजना का शास्त्र है, जो विश्वशास्त्र का ही एक भाग है। विश्वभारत, की शिक्षा अपनी प्रकृति में स्थित रहकर सार्वजनिक प्रमाणित स्वार्थ (लक्ष्य) को प्राप्त करने के अनुसार सम्बन्धों का आधार बनाने की शिक्षा है।
”कल्कि“ अवतार के सम्बन्ध में कहा गया है कि उसका कोई गुरू नहीं होगा, वह स्वयं से प्रकाशित स्वयंभू होगा जिसके बारे में अथर्ववेद, काण्ड 20, सूक्त 115, मंत्र 1 में कहा गया है कि ”ऋषि-वत्स, देवता इन्द्र, छन्द गायत्री। अहमिद्धि पितुष्परि मेधा मृतस्य जग्रभ। अहं सूर्य इवाजिनि।।“ अर्थात ”मैं परम पिता परमात्मा से सत्य ज्ञान की विधि को धारण करता हूँ और मैं तेजस्वी सूर्य के समान प्रकट हुआ हूँ।“ जबकि सबसे प्राचीन वंश स्वायंभुव मनु के पुत्र उत्तानपाद शाखा में ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में से मन से मरीचि व पत्नी कला के पुत्र कश्यप व पत्नी अदिति के पुत्र आदित्य (सूर्य) की चैथी पत्नी छाया से दो पुत्रों में से एक 8वें मनु - सांवर्णि मनु होगें जिनसे ही वर्तमान मनवन्तर 7वें वैवस्वत मनु की समाप्ति होगी। ध्यान रहे कि 8वें मनु - सांवर्णि मनु, सूर्य पुत्र हैं। अर्थात कल्कि अवतार और 8वें मनु - सांवर्णि मनु दोनों, दो नहीं बल्कि एक ही हैं और सूर्य पुत्र हैं।
”सार्वभौम“ गुण 8वें सांवर्णि मनु का गुण है।  अवतारी श्रृंखला अन्तिम होकर अब मनु और मनवन्तर श्रृंखला के भी बढ़ने का क्रम है क्योंकि यही क्रम है। वैदिक-सनातन-हिन्दू धर्म के पुराणों में 14 मनुओं का वर्णन किया गया है। इन्हीं के नाम से मन्वन्तर चलते हैं। जो निम्नलिखित हैं-
1. मनुर्भरत वंश की प्रियव्रत शाखा 
अ. पौराणिक वंश  
वंश  अवतार काल
01. स्वायंभुव मनु यज्ञ  भूतकाल
02. स्वारचिष मनु विभु भूतकाल
03. उत्तम मनु सत्यसेना भूतकाल
04. तामस मनु हरि भूतकाल
05. रैवत मनु वैकुण्ठ भूतकाल
2. मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा 
06. चाक्षुष मनु अजित भूतकाल
ब. ऐतिहासिक वंश  
07. वैवस्वत मनु वामन वर्तमान
स. भविष्य के वंश
08. सांवर्णि मनु सार्वभौम भविष्य
09. दत्त सावर्णि मनु रिषभ भविष्य
10. ब्रह्म सावर्णि मनु विश्वकसेन          भविष्य
11. धर्म सावर्णि मनु धर्मसेतू  भविष्य
12, रूद्र सावर्णि मनु सुदामा भविष्य
13. दैव सावर्णि मनु योगेश्वर भविष्य
14. इन्द्र सावर्णि मनु वृहद्भानु भविष्य
पहले मनु - स्वायंभुव मनु से 7वें मनु - वैवस्वत मनु तक शारीरिक प्राथमिकता के मनु का कालक्रम हैं। 8वें मनु - सांवर्णि मनु से 14वें और अन्तिम - इन्द्र सांवर्णि मनु तक बौद्धिक प्राथमिकता के मनु का कालक्रम है इसलिए ही 9वें मनु से 14वें मनु तक के नाम के साथ में ”सांवर्णि मनु“ उपनाम की भाँति लगा हुआ है। अर्थात 9वें मनु से 14वें मनु में सार्वभौम गुण विद्यमान रहेगा और बिना ”विश्वशास्त्र“ के उनका प्रकट होना मुश्किल होगा। 
मात्र एक विचार- ”ईश्वर ने इच्छा व्यक्त की कि मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ“  और ”सभी ईश्वर हैं“ , यह प्रारम्भ और अन्तिम लक्ष्य है। मनुष्य की रचना ”पाॅवर और प्राफिट (शक्ति और लाभ)“ के लिए नहीं बल्कि असीम मस्तिष्क क्षमता के विकास के लिए हुआ है। फलस्वरूप वह स्वयं को ईश्वर रूप में अनुभव कर सके, जहाँ उसे किसी गुरू की आवश्यकता न पड़ें, वह स्वंयभू हो जाये, उसका प्रकाश वह स्वयं हो।  एक गुरू का लक्ष्य भी यही होता है कि शिष्य मार्गदर्शन प्राप्त कर गुरू से आगे निकलकर, गुरू तथा स्वयं अपना नाम और कृति इस संसार में फैलाये, ना कि जीवनभर एक ही कक्षा में (गुरू में) पढ़ता रह जाये। एक ही कक्षा में जीवनभर पढ़ने वाले को समाज क्या नाम देता है, समाज अच्छी प्रकार जानता है। ”विश्वशास्त्र“ से कालक्रम को उसी मुख्यधारा में मोड़ दिया गया है। एक शास्त्राकार, अपने द्वारा व्यक्त किये गये पूर्व के शास्त्र का उद्देश्य और उसकी सीमा तो बता ही सकता है परन्तु व्याख्याकार ऐसा नहीं कर सकता। स्वयं द्वारा व्यक्त शास्त्र के प्रमाण से ही स्वयं को व्यक्त और प्रमाणित करूँगा- शास्त्राकार महर्षि व्यास (वर्तमान में लव कुश सिंह ”विश्वमानव“)
शब्द से सृष्टि की ओर...
सृष्टि से शास्त्र की ओर...
शास्त्र से काशी की ओर...
काशी से सत्यकाशी की ओर...
और सत्यकाशी से अनन्त की ओर...
                  एक अन्तहीन यात्रा...............................
वर्तमान सृष्टि चक्र की स्थिति भी यही हो गयी है कि अब अगले अवतार के मात्र एक विकास के लिए सत्यीकरण से काल, मनवन्तर व मनु, अवतार, व्यास व शास्त्र सभी बदलेगें। इसलिए देश व विश्व के धर्माचार्यें, विद्वानों, ज्योतिषाचार्यों इत्यादि को अपने-अपने शास्त्रों को देखने व समझने की आवश्यकता आ गयी है क्योंकि कहीं श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ और ”आध्यात्मिक सत्य“ आधारित कार्य ”विश्वशास्त्र“ वही तो नहीं है? और यदि नहीं तो वह कौन सा कार्य होगा जो इन सबको बदलने वाली घटना को घटित करेगा?
शनिवार, 22 दिसम्बर, 2012 से  प्रारम्भ हो चुका है-
1. काल के प्रथम रूप अदृश्य काल से दूसरे और अन्तिम दृश्य काल का प्रारम्भ।
2. मनवन्तर के वर्तमान 7वें मनवन्तर वैवस्वत मनु से 8वें मनवन्तर सांवर्णि मनु का प्रारम्भ।
3. अवतार के नवें बुद्ध से दसवें और अन्तिम अवतार-कल्कि महावतार का प्रारम्भ।
4. युग के चैथे कलियुग से पाँचवें युग स्वर्ण युग का प्रारम्भ।
5. व्यास और द्वापर युग में आठवें अवतार श्रीकृष्ण द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य “नवसृजन“ के प्रथम भाग ”सार्वभौम ज्ञान“ के शास्त्र ”गीता“ से द्वितीय अन्तिम भाग ”सार्वभौम कर्मज्ञान“, पूर्णज्ञान का पूरक शास्त्र“, लोकतन्त्र का ”धर्मनिरपेक्ष धर्मशास्त्र“ और आम आदमी का ”समाजवादी शास्त्र“ द्वारा व्यवस्था सत्यीकरण और मन के ब्रह्माण्डीयकरण और नये व्यास का प्रारम्भ।
सन् 1997 में जब आपके सक्तेशगढ आश्रम का निर्माण कार्य चल रहा था तब मेरे दो मामा (श्री बैजनाथ सिंह एवं श्री महंगी सिंह, निवासी-बकियाबाद, दोनों चचेरे भाई) ने कहा कि चलों आपके (सक्तेशगढ़ आश्रम) यहाँ चलते हैं। उनके बहुत कहने पर मैं तैयार हुआ शर्त यह थी कि आप लोग ”एक गुरू” के साथ (अर्थात मैं) जा रहें हैं इसलिए आश्रम के किसी भी नियम का पालन नहीं करना है क्योंकि नियम का पालन तो अधीनस्थ करते हैं, यह ध्यान रखेंगे। हम लोग पहुँचे, उस समय आप विश्राम में थे। 4 बजे दोपहर आप बाहर आये, हल्के मुस्कराहट के साथ प्रणाम हुआ। आपके आश्रम के मुख्य आॅगन से मुख्य द्वार के बाहर फव्वारे तक आपके साथ हमलोग चलकर आये। शेष मिलने वाले तो जमीन पर लम्बे धूल में ही लेट जा रहे थे। फव्वारे के पास आपको उस समय उपलब्ध मेरे द्वारा अंग्रेजी में लिखा कुछ सारांश कागजात दिये थे और निवेदन किया कि समय मिले तो देख लिजियेगा। तब आपने कहा था कि ”सब धर्म अंग्रेजी हो गया है।“ फिर हम लोग श्री बलवन्त सिंह (अब स्वर्गवासी, जो मेरे मामा श्री बैजनाथ सिंह से परिचित थे) जो पहले से शायद दोपहर में आपके साथ थे, उनके जीप मोटरगाड़ी से वापस लौट आये। 
स्वामी जी, एक आश्चर्य ये है कि नरायनपुर-जमुई-अहरौरा के त्रिकोण के बीच कभी आपके श्री मुख से प्रवचन का कार्यक्रम होते नहीं देखा, और ना सुना। यहाँ के लोग आपको बुलाते नहीं या आप आना नहीं चाहते? अभी 2 साल पहले आपने बाबतपुर एयरपोर्ट पर कहे थे कि लव कुश से कोई नहीं जीत सकता और हवाई जहाज से निकल गये। यह समाचार, समाचार पत्र में पढ़ा था, उस समय मैं वाराणसी में ही था। 
कहने का कुल तात्पर्य यह है कि किसी भी युग में अवतार, महापुरूष, संत या किसी भी व्यक्ति के गुण को सीधे देखकर पहचानने की क्षमता किसी भी व्यक्ति के अन्दर नहीं रही है। उस व्यक्ति को, स्वयं के अपने गुणों को ज्ञान, कर्म, जीवन के माध्यम द्वारा व्यक्त करना होता है। उसके बाद ही कुछ लोग उन्हें पहचानते हैं और उनके साथ एक-दूसरे के सदुपयोग के लिए साथ आते रहे हैं। प्राचीन समय में यह कार्य बहुत कठिन होता था इसके लिए वे अनेक प्रकार के आयोजन करते थे।
स्वामी जी, ”आकाश शब्द मंय“ अर्थात आकाश शब्द रूप में है। विचार ही आविष्कार का जन्मदाता है। फिर वही व्यापार का मूल होता है। आध्यात्म जगत हो या भौतिक जगत विचार द्वारा ही आविष्कार और व्यापार चल रहे हैं। आविष्कारकों के साथ निम्न विचार अवश्य जुड़ जाते हैं। उनके सत्य अर्थ को जानना आवश्यक है-
1. ”बहुत पहुँचे हुये हैं“ - इसका अर्थ होता है- पहला अन्तर्जगत के सम्बन्ध में - आध्यात्मिक सार्वभौम सत्य-सिद्धान्तों का अनुभव, दूसरा बाह्य जगत के सम्बन्ध में - उच्च पीठासीन राजनेता और धर्माचार्य से सम्बन्ध। जिससे कल्याण व स्वार्थ का कार्य सम्पन्न कर सकें। तीसरा कोई अर्थ नहीं होता।
2. ”दर्शन“ -  इसका अर्थ होता है- पहला अन्तर्जगत के सम्बन्ध में - उनके सम्पूर्ण रूप जीवन, ज्ञान व कर्म को देखना, दूसरा बाह्य जगत के सम्बन्ध में - केवल शरीर, संसाधन और महिमामण्डन को देखना। तीसरा कोई अर्थ नहीं होता। दूसरे प्रकार के दर्शन से दर्शन करने वाले को कोई लाभ नहीं होता।
3. ”आशीर्वाद“ - इसका अर्थ होता है- पहला अन्तर्जगत के सम्बन्ध में - उनसेे अपने कल्याणार्थ शब्द सुनना।, दूसरा बाह्य जगत के सम्बन्ध में - उनसेे अपने कल्याण के लिए कार्य लेना या उनके ज्ञान को अपने कल्याण के लिए जीवन में उपयोग करना। तीसरा कोई अर्थ नहीं होता। पहलेे प्रकार के आशीर्वाद से आशीर्वाद लेने वाले को कोई लाभ नहीं होता।
स्वामी जी, अब दृश्य ईश्वर नाम अंग्रेजी में ही उपलब्ध है जो उस सारांश कागजात में भी लिखा था। फिर मैं कभी आपके आश्रम नहीं गया। 
स्वामी जी, भगवान बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति वाले प्रदेश बिहार के जिले बेगूसराय में कूर्म क्षत्रिय जाति में जन्म लिया। श्रीराम, श्रीकृष्ण और शिव की नगरी काशी (वाराणसी) वाले प्रदेश उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जिला, विन्ध्य क्षेत्र के भगवान विष्णु के 5वें वामन अवतार के कर्मक्षेत्र चुनार क्षेत्र के ग्राम नियामतपुर कलाँ (काशी चैरासी कोस यात्रा और सत्यकाशी के उभय क्षेत्र में स्थित) का निवासी हूँ। जो काशी (वाराणसी)-सोनभद्र-शिवद्वार-विन्ध्याचल से घिरा है जिसे मैं सत्यकाशी क्षेत्र कहता हूँ क्योंकि इसी क्षेत्र में इस जीवनदायिनी विश्वशास्त्र की अधिकतम रचना हुई। कितना विचित्र संयोग है कि विन्ध्य क्षेत्र से ही भारत का मानक समय निर्धारित होता है और इसी क्षेत्र से ही काल, मनवन्तर, युग, अवतार  और शास्त्र परिवर्तन की घोषणा हो रही है। यह भी विचित्रता ही है कि व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था और वे गंगा पार आ गये और गंगा पार से ही उनके बाद विश्वशास्त्र रचना हुई है। इस घटना का उल्लेख काशी खण्ड में इस प्रकार है-
लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि। 
स्थितो ह्यद्यापि पश्चेत्सः काशीप्रासाद राजिकाम्।। - स्कन्दपुराण, काशी खण्ड 96/201
महर्षि व्यास द्वारा रचित और श्रीकृष्ण के मुख से व्यक्त गीता के उसी मनस्तर पर स्थित होकर उसकी व्याख्या ”यथार्थ गीता“ से व्यक्त करने वाले आप का सक्तेशगढ़ आश्रम जरगो नदी के उद्गम स्थल पर स्थित है तो द्वापर युग में आठवें अवतार श्रीकृष्ण द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य ”नवसृजन“ के प्रथम भाग ”सार्वभौम ज्ञान“ के शास्त्र ”गीता“ के बाद कलियुग में शनिवार, 22 दिसम्बर, 2012 से काल व युग परिवर्तन कर दृश्य काल व पाँचवें युग का प्रारम्भ, व्यवस्था सत्यीकरण और मन के ब्रह्माण्डीयकरण के लिए दसवें और अन्तिम अवतार-कल्कि महावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त द्वितीय और अन्तिम भाग ”सार्वभौम कर्मज्ञान“ और ”पूर्णज्ञान का पूरक शास्त्र“, ”विश्वशास्त्र: द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज“ के व्यक्त करने वाले का निवास ग्राम नियामतपुर कलाँ गंगा-जरगो संगम के पास स्थित है। संत श्री स्वामी अड़गड़ानन्द जी प्रारम्भ हैं तो श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ अन्त हैं। ”गीता“ बीज है तो ”विश्वशास्त्र“ वृक्ष है।
स्वामी जी, आप, आपका आश्रम और मैं और मेरे शास्त्र और हमारे जीवन का सम्बन्ध सत्यकाशी क्षेत्र जो काशी (वाराणसी)- सोनभद्र-शिवद्वार-विन्ध्याचल से घिरा है, से है। इस क्षेत्र में ”सत्यकाशी पीठ“ पाँचवें शंकराचार्य पीठ की स्थापना होनी चाहिए। क्योंकि यह क्षेत्र अदृश्य काल के पाँचवें और अन्तिम तथा दृश्य काल के प्रथम और अन्तिम युग स्वर्णयुग का तीर्थ है। आपका आश्रम पाँचवें शंकराचार्य पीठ के पूर्णतः योग्य है।

कहिए
”ऊँ परमात्मने नमः“


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