Saturday, March 14, 2020

स्वामी विवेकानन्द और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के जीवन काल का घटना-चक्र: एक आश्चर्यजनक समानता

स्वामी विवेकानन्द और श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के जीवन काल का घटना-चक्र: एक आश्चर्यजनक समानता 
श्रीकृष्ण व महाभारत काल
ऐसा नहीं है कि श्री लव कुश सिह ”विश्वमानव“ ने यह कार्य बस यूँ ही प्रारम्भ किया और बिना किसी बाधा के उसे पूर्ण कर दिया।  यह एक विचित्रता भरे, त्याग और अति संकल्प युक्त जीवन का परिणाम रहा है जिसमें एक साधारण मनुष्य टूटने के सिवा और कुछ परिणाम नहीं दे सकता था। उनके जीवन को इस एक लघु कथा से समझा जा सकता है- 
”मै भी संसार को सुबास दूँगा, यह संकल्प कर एक नन्हा सा पुष्पबीज धरती को गोद में अपने शिव संकल्प के साथ करवट बदल रहा था। धरती उसके बौनेपन पर हँस पड़ी और बोली - ‘बावले, तू मेरा भार सहन कर जाये, यही बहुत है। कल्पना लोक की मृग मरीचिका में तू कबसे फँस गया?’ पुष्पबीज मुस्कराया, पर कुछ नहीं बोला। मृत्तिका कणों व जल की कुछ बूँदों के सहयोग से वह ऊपर उठने लगा। जमीन पर उगी हुई टहनी को देखकर वायु ने अट्टास किया - ‘अरे अबोध पौघे, तूने मेरा विकराल रूप नहीं देखा। मेरे प्रचण्ड वेग के आगे तो बड़े-बड़े वृक्ष उखड़ जाते हैं, फिर तेरी औकात ही क्या हैं?’ फूल का वह पौधा अभी भी विनम्र बना रहा। वायु के वेग में वह कभी दायें झुका तो कभी बाँए। लहराना उसके जीवन की मस्ती बन गई। इस तरह वह धीरे-धीरे विकसित होता रहा। उपवन में उगे झाड़-झंखाड़ से भी उस नन्हें पौघे का बढ़ना नहीं देखा गया। ऐसी झाड़ियों से सारा उद्यान भरा पड़ा था। उन्होंने चारो ओर से पुष्प-वृक्ष पर आघात करना आरम्भ कर दिया। किसी ने उसकी जड़ों को आगे बढ़ने से रोका, किसी ने तने को, तो किसी ने उसके पत्तों को उजाड़ने की साजिश की, पर उस पौधे ने हिम्मत नहीं हारी और वह तमाम दिक्कतें झेलने के बाद भी बढ़ता रहा। माली उसकी धुन पर मुग्ध हो उठा और उसने विध्न डालने वाली तमाम झाड़ियों को काट गिराया। अब वह पौधा तेजी से बढ़ने लगा। उसे ऊपर उठता देख सूर्य कुपित हो उठे और बोले - ‘मेरे प्रचण्ड ताप के कारण भारी वृक्ष तक सूख जाते हैं। आखिर तू कब तक मेरे ताप को झेल पायेगा? कर्मठ-कर्मयोगी पौधा कुछ नहीं बोला और निरन्तर बढ़ता रहा। उसमें प्रथम कलिका विकसित हुई और फिर संसार ने देखा कि जो बीज की तरह अपने आप को गलाना जानता है, जो बाधाओं से टक्कर लेना जानता है, प्रतिघातों से भी जो उत्तेजित और विचलित नहीं होता, तितिक्षा से जो कतराता नहीं, उसी का जीवन सौरभ बनकर प्रस्फुटित होता है, देवत्व की अभ्यर्थना करता है और संसार को ऐसी सुगन्ध से भर देता है, जिससे जन-जन का मन पुलकित और प्रफुल्लित हो उठता है।“ 
इसी पुष्प बीज की भाँति रहा है श्री लव कुश सिह ”विश्वमानव“ का जीवन। महानता-अमरता जैसी वस्तु कोई विरासत या उपहार या आशीर्वाद में मिलने वाली वस्तु नहीं है। वह तो इसी पुष्प बीज वालेे जीवन मार्ग से ही मिलता रहा है, मिलता ही है और मिलता ही रहेगा।  यहाँ कुछ घटना क्रम प्रस्तुत किये जा रहें हैं जिससे लगातार विकास की दिशा में बढ़ते क्रम को समझा जा सके, क्यूंकि यूँ नहीं कुछ हो जाता सब विकस क्रम का परिणाम है-

बुधवार, भाद्रपद कृष्णपक्ष, अष्टमी, 3228 ई0 पू0
- चन्द्रमा वृष राशि में उच्च लग्न में स्थित, सूर्य सिंह राशि में स्थित, नक्षत्र रोहिणी में श्रीकृष्ण भगवान का जन्म।
- भारतीय विद्वान पी.वी.वारटक महाभारत में वर्णित ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर महाभारत को 16 अक्टुबर, 5561 ई0पू0 में आरम्भ हुआ मानते हैं। उनके अनुसार यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक ”इण्डिका“ में अपनी भारत यात्रा के समय जमुना (यमुना) के तट पर बसे मेथोरा (मथुरा) राज्य में शूरसेनियों से भेंट का वर्णन किया था। मेगस्थनीज ने यह बताया था कि ये शूरसेनी किसी हेराकल्स नामक देवता की पूजा करते थे और ये हेराकल्स काफी चमत्कारी पुरूष होता था तथा चन्द्रगुप्त से 138 पीढ़ी पहले था। हेराकल्स ने कई विवाह किए और कई पुत्र उत्पन्न किये परन्तु उसके सभी पुत्र आपस में युद्ध करके मारे गये। 

कलियुग का प्रारम्भ 18 फरवरी 3102 ई0 पू0
ध्यान रहे कि 12 ज्योतिर्लिंग में से प्रथम साोमनाथ तीर्थ (गुजरात, भारत) के ”भीड़िया तीर्थ“ में एक शिलालेख पर लिखा है कि-”भगवान श्रीकृष्ण ई0 पू0 3102 चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (शुक्रवार, 18 फरवरी) के दिन और मध्यान्ह के बाद 2 बजकर 27 मिनट 30 सेकण्ड के समय इस हिरण्य के पवित्र तक से प्रस्थान किये।“ जिस दिन भगवान श्रीकृष्ण धराधाम से स्वधाम गए। उसी दिन से धरती पर कलियुग का आगमन हो गया और धीरे-धीरे इसका प्रभाव बढ़ने लगा ।
वेदव्यास जी रचित महाकाव्य ”जय“, ”भारत“ और ”महाभारत“ इन तीन नामों से प्रसिद्ध है। वास्तव में वेदव्यास जी ने सबसे पहले 1 लाख श्लोकों के परिमाण के ”भारत“ नामक ग्रन्थ की रचना की थी, इसमें उन्होंने भारतवंशियों के चरित्रों के साथ-साथ अन्य कई महान ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों सहित कई अन्य धार्मिक उपाख्यान भी डाले। इसके बाद व्यास जी ने 24,000 श्लोकों का बिना किसी अन्य उपाख्यानों का केवल भारतवंशियों को केन्द्रित करके ”भारत“ काव्य बनाया। इन दोनों रचनाओं में धर्म की अधर्म पर विजय होने के कारण इन्हें ”जय“ भी कहा जाने लगा। महाभारत में एक कथा आती है कि जब देवताओं ने तराजू के एक पासे में चारों ”वेदों“ को रखा और दूसरे पर ”भारत ग्रन्थ“ को रखा, तो ”भारत गन्थ“ सभी वेदों की तुलना में सबसे अधिक भारी सिद्ध हुआ, अतः ”भारत“ ग्रन्थ की इस महत्ता (महानता) को देखकर देवताओं और ऋषियों ने इसे ”महाभारत“ नाम दिया और इस कथा के कारण मनुष्यों में भी यह काव्य ”महाभारत“ के नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ। वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में 3 वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विेकास नहीं हुआ था, उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था। उस समय संस्कृत ऋषियों की भाषा थी और ब्राह्मी आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी। इस प्रकार ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मौखिक रूप से याद कर पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्षो तक याद रखा गया। फिर धीरे-धीरे जब समय के प्रभाव से वैदिक युग के पतन के साथ ही ऋषियों की वैदिक साहित्यों को याद रखने की शैली लुप्त होने लगी तब से वैदिक साहित्य को पाण्डुलिपियों पर लिखकर सुरक्षित रखने का प्रचलन हो गया। यह सर्वमान्य है कि महाभारत का आधुनिक रूप कई अवस्थाओं से गुजर कर बना है। विद्वानों द्वारा इसकी रचना की चार प्रारम्भिक अवस्थाएँ पहचानी गयी है। ये अवस्थाएँ सम्भावित रचना काल क्रम में निम्नलिखित हैं-
1. 3100 ई0पू0 - प्रथम बार - सर्वप्रथम वेदव्यास द्वारा 100 पर्वो के रूप में एक लाख श्लोकों का रचित ”भारत“ महाकाव्य, जो बाद में ”महाभारत“ नाम से प्रसिद्ध हुआ।
2. 3100 ई0पू0 - दूसरी बार - व्यास जी के कहने पर उनके शिष्य वैशम्पायन जी द्वारा जनमेजय के यज्ञ समारोह में ऋषि-मुनियों को सुनाना।
3. 2000 ई0पू0 - तीसरी बार - फिर से वैशम्पायन और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी ”महाभारत“ को सूत जी द्वारा पुनः 18 पर्वो के रूप में सुव्यवस्थित करके समस्त ऋषि-मुनियों को सुनाना।
4. 1200-600 ई0पू0 - चैथी बार - सूत जी और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी ”महाभारत“ का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम ब्राह्मी या संस्कृत में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में लिपिबद्ध किया जाना।
इसके बाद भी कई विद्वानों द्वारा इसमें बदलती हुई रीतियों के अनुसार बदलाव किया गया, जिसके कारण उपलब्ध प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में कई भिन्न-भिन्न श्लोक मिलते हैं। इस समस्या के निदान के लिए पुणे में स्थित भांडारकर प्राच्य शोध संस्थान ने पूरे दक्षिण एशिया में उपलब्ध महाभारत की सभी पाण्डुलिपियाँ (लगभग 10 हजार) का शोध और अनुसंधान करके उन सभी में एक ही समान पाये जाने वाले लगभग 75 हजार श्लोकों को खोजकर उनका सटिप्पण एवं समीक्षात्मक संस्करण प्रकाशित किया। कई खण्डों वाले 13 हजार पृष्ठों के इस ग्रन्थ का सारे संसार के सुयोग्य विद्वानों ने स्वागत किया। महाभारत के दक्षिण एशिया में कई रूपान्तर मिलते हैं। इण्डोनेशिया, श्रीलंका, जावा द्वीप, जकार्ता, थाइलैण्ड, तिब्बत, बर्मा (म्यांमार) में महाभारत के भिन्न-भिन्न रूपान्तर मिलते हैं। दक्षिण भारतीय महाभारत में अधिकतम 1,40,000 श्लोक मिलते है जबकि उत्तर भारतीय महाभारत के रूपान्तर में 1,10,000 श्लोक मिलते हैं। इस तरह से अनेकों बार महाभारत को परिष्कृत किया गया है। दृश्य पदार्थ विज्ञान के इस काल में विज्ञान के द्वारा आयी तकनीकों से दृश्य-श्रव्य (आॅडियो-विजुअल) माध्यम के आ जाने के बाद सभी महाभारत का अध्ययन व विवादित अंशो को त्यागते हुए श्री बी.आर चोपड़ा ने महाभारत के इस कथा का ”महाभारत“ नाम से उसका दृश्य-श्रव्य रूपान्तरण कर दूरदर्शन के माध्यम से प्रसारित कराया। जिसके फलस्वरूप वर्तमान में शायद ही कोई बचा हो जो महाभारत से परिचित न हो। इसके उपरान्त भी अन्य ने भी दृश्य-श्रव्य माध्यम में इस कथा का प्रस्तुतिकरण करने का प्रयत्न किये परन्तु बी.आर चोपड़ा कृत ”महाभारत“ एक मानक बन चुका है और जनमानस में उसके जीवन्त पात्रों के प्रति ऐसी छवि बन गई कि वे उसके पात्रों के रूप में उस काल के पात्रों को सत्य रूप में देखते हैं। फलस्वरूप चाहे जितनी बार महाभारत का दृश्य-श्रव्य रूपान्तरण क्यों न हो, पर जनमानस में वह रूप नहीं उतरता। 
कुछ ऐतिहासिक एवं भाषाई प्रमाण निम्नलिखित हैं-
1. 1000 ईसा पूर्व - महाभारत में गुप्त और मौर्य कालीन राजाओं तथा जैन (1000-700 ई0पू0) और बौद्ध धर्म (700-200 ई0पू0) का भी वर्णन नहीं आता। साथ ही शतपथ ब्राह्मण (1100 ई0पू0) एवं छान्दोग्य उपनिषद् (1000 ई0पू0) में भी महाभारत के पात्रों का का वर्णन मिलता है। अतएव यह निश्चित तौर पर 1000 ई0पू0 से पहले रची गयी होगी।
2. 600-400 ईसा पूर्व - पाणिनी द्वारा रचित अष्टाध्यायी (600-400 ई0पू0) में महाभारत और भारत दोनों का उल्लेख है तथा इसके साथ-साथ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का भी सन्दर्भ आता है अतएव यह निश्चित है कि महाभारत और भारत पाणिनी के काल के बहुत पहले से ही अस्तित्व में रहे थे।
3. प्रथम शताब्दी - यूनान के पहली शताब्दी के राजदूत डियो क्रायसोसटम यह बताते है कि दक्षिण भारतीयों के पास एक लाख श्लोकों का एक ग्रन्थ है, जिससे यह पता चलता है कि महाभारत पहली शताब्दी में भी एक लाख श्लोकों का था। महाभारत की कहानी को ही बाद के मुख्य यूनान ग्रन्थों इलियड और ओडिसी में बार-बार अन्य रूप से दोहराया गया, जैसे धृतराष्ट्र का पुत्र मोह, कर्ण-अर्जुन प्रतिस्पर्धा आदि। संस्कृत की की सबसे प्राचीन पहली शताब्दी की एम.एस.स्पित्जर पाण्डुलिपि में भी महाभारत के 18 पर्वो की अनुक्रमणिका दी गयी है, जिससे यह पता चलता है कि इस काल तक महाभारत 18 पर्वो में प्रसिद्ध थी, यद्यपि 100 पर्वो की अनुक्रमणिका बहुत प्राचीन काल में प्रसिद्ध रही होगी, क्योंकि वेदव्यास जी ने महाभारत की रचना सर्वप्रथम 100 पर्वो में की थी, जिसे बाद में सूत जी ने 18 पर्वो के रूप में व्यवस्थित कर ऋषियों को सुनाया था।
4. पाँचवी शताब्दी - महाराजा शरवन्थ के 5वीं शताब्दी के तांबे की स्लेट पर पाये गये अभिलेख में महाभारत को एक लाख श्लोकों की संहिता बताया गया है।
- महाभारत का संकलन। 

श्री राम कृष्ण व विवेकानन्द काल
बुधवार, 18 फरवरी, 1836 (कलियुग के प्रारम्भ के 4937 वर्ष बाद का दिनांक)
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) से सत्तर मील दूर पश्चिम में कमारपुकुर ग्राम में गदाधर का जन्म जो बाद में अपने मन की अवस्था के कारण श्री रामकृष्ण परमहंस के नाम से प्रसिद्ध हुये।

बृहस्पतिवार, 22 दिसम्बर, 1853
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- पश्चिम बंगाल के बाँकुड़ा जिले के जयरामबटी नामक गाँव में सारदामणि देवी का जन्म जो बाद में श्रीमाँ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इनकी माता का नाम श्रीमती श्यामसुन्दरी देवी तथा पिता का नाम श्री रामचन्द्र मुखर्जी था जो एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे।

सन् 1859
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- ईश्वर में लीन रहने वाले गदाधर (23 वर्ष) व सारदा (5 वर्ष) का विवाह।

सोमवार, 12 जनवरी, 1863
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- पश्चिम बंगाल के बाँकुड़ा जिले के जयरामबटी नामक गाँव में नरेन्द्र नाथ दत्त का जन्म जो बाद में स्वामी विवेकानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुये। इनकी माता का नाम श्रीमती भुवनेश्वरी तथा पिता का नाम श्री विश्वनाथ था जो एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे। वाराणसी के विश्वेश्वर महादेव की अराधना से प्राप्त होने के कारण, माता ने वीरेश्वर नाम दिया और प्रेम से ”विले“ पुकारती, परन्तु पिता ने नरेन्द्रनाथ नाम दिया। बचपन से ही ये नटखटी और जिज्ञासु प्रकृति के थे। नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से ही तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी।

सन् 1867
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- विवाह के आठ वर्षो बाद पहली बार श्री रामकृष्ण (उम्र 31 वर्ष) का सारदा (उम्र 13 वर्ष) से परिचय।
सन् 1871
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- सारदा के 18 वर्ष की उम्र होने पर एक पुण्य तिथि को सारदा का जगदम्बा के रूप में श्री रामकृष्ण द्वारा आराधना।

सन् 1868 से सन् 1881 तक
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- श्री रामकृष्ण व सारदा देवी का संयुक्त रूप से आध्यात्कि साधना।
- नरेन्द्र नाथ दत्त (18 वर्ष तक) का पाश्चात्य शिक्षा, भ्रमण, सूचना संग्रह, तर्क, जिज्ञासा, दर्शन, अनुभव, संगीत एवं द्वन्द काल का समय।

सन् 1881
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- श्री रामकृष्ण से नरेन्द्र नाथ दत्त (उम्र 18 वर्ष) का प्रथम मिलन।

बृहस्पतिवार, 13 अगस्त 1886
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- शिष्य नरेन्द्र नाथ (उम्र 23 वर्ष) में श्री रामकृष्ण (उम्र 50 वर्ष) द्वारा आध्यात्मिक शक्ति का संचरण।

रविवार, 16 अगस्त 1886
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- श्रीमाँ सारदा (उम्र 33 वर्ष) व शिष्य नरेन्द्र नाथ (उम्र 23 वर्ष) एवं अपने आध्यात्मिक उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए विशेष रूप से शिक्षित नवयुवको के एक दल को छोड़कर श्री रामकृष्ण (उम्र 50 वर्ष) का महाप्रयाण।

शुक्रवार, 25 दिसम्बर 1886
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- श्री रामकृष्ण (उम्र 50 वर्ष) के महाप्रयाण के लगभग 4 माह बाद गुरू भाइयों के साथ नरेन्द्र नाथ (उम्र लगभग 24 वर्ष) का अग्नि के समक्ष सन्यास ग्रहण व नाम परिवर्तन नरेन्द्र नाथ से स्वामी विवेकानन्द।

सन् 1887 से जून, 1890 तक
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- स्वामी विवेकानन्द (उम्र 24 से 27 वर्ष तक) द्वारा अध्ययन, साधना, दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन।

जुलाई, 1890 से सोमवार, 30 मई 1893 तक
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- स्वामी विवेकानन्द (उम्र 30 वर्ष 4 माह 18 दिन तक) का परिव्राजक स्थिति।
मंगलवार, 31 मई 1893 
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- स्वामी विवेकानन्द (उम्र 30 वर्ष 4 माह 19 दिन ) का अमेरिका यात्रा प्रारम्भ।
रविवार, 11 सितम्बर 1893 
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- स्वामी विवेकानन्द (उम्र 30 वर्ष 7 माह 29 दिन ) का अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्वधर्म संसद में ऐतिहासिक वकृतता।
जून, 1893 से दिसम्बर, 1896 तक
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- स्वामी विवेकानन्द (उम्र 34 वर्ष तक) का पश्चिमी देशों में अनेक वकृतताएँ। मुख्य बिन्दु- 
”समग्र संसारका अखण्डत्व, जिसकें ग्रहण करने के लिए संसार प्रतीक्षा कर रहा है, हमारे उपनिषदों का दूसरा भाव है। प्राचीन काल के हदबन्दी और पार्थक्य इस समय तेजी से कम होते जा रहे हैं। हमारे उपनिषदों ने ठीक ही कहा है- ”अज्ञान ही सर्व प्रकार के दुःखो का कारण है।“ सामाजिक अथवा आध्यात्मिक जीवन की हो जिस अवस्था में देखो, यह बिल्कुल सही उतरता है। अज्ञान से ही हम परस्पर घृणा करते है, अज्ञान से ही एक दूसरे को जानते नहीं और इसलिए प्यार नहीं करते। जब हम एक दूसरे को जान लेगे, प्रेम का उदय हेागा। प्रेम का उदय निश्चित है क्योंकि क्या हम सब एक नहीं हैं? इसलिए हम देखते है कि चेष्टा न करने पर भी हम सब का एकत्व भाव स्वभाव से ही आ जाता है। यहाँ तक की राजनीति और समाजनीति के क्षेत्रो में भी जो समस्यायें बीस वर्ष पहले केवल राष्ट्रीय थी, इस समय उसकी मीमांसा केवल राष्ट्रीयता के आधार पर और विशाल आकार धारण कर रही हैं। केवल अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय विधान ये ही आजकल के मूलतन्त्र स्वरूप है।“- (विवेकानन्द का मानवतावाद, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन, पृष्ठ-48)

जनवरी, 1897 
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- स्वामी विवेकानन्द (उम्र 34 वर्ष) स्वदेश भारत में आगमन, अनेक स्थान पर भव्य स्वागत और भारत के शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए आत्मशक्ति के रूप में कार्य करना। इस दौरान मूल विचार-”हिन्दू कहते हैं कि सामाजिक और राजनितिक स्वाधीनता बहुत अच्छी चीज है किन्तु वास्तविक चीज है- आध्यात्मिक स्वाधीनता अर्थात् मुक्ति। यही जातीय जीवन का उद्देश्य है। वैदिक, जैन, बौद्ध, द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत सभी इस सम्बन्ध में एकमत हैं। इसमें हाथ न लगाना नहीं तो सर्वनाश हो जायेगा।“- (जितने मत उतने पथ, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन, पृष्ठ-38)

सोमवार, 23 जुलाई, 1897 
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- स्वामी विवेकानन्द द्वारा अल्मोड़ा से स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र में-”फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्कराः प्राक्तना इव“ फल को देखकर ही कार्य का विचार सम्भव है। जैसे कि फल को देखकर पूर्व संस्कार का अनुमान किया जाता है।- (पत्रावली-2, राम कुष्ण मिशन प्रकाशन, पृष्ठ-129)

मंगलवार, 4 अगस्त, 1897
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- स्वामी विवेकानन्द (उम्र 34 वर्ष 6 माह 22 दिन) द्वारा ”रामकृष्ण मिशन व मठ“ का पश्चिम बंगाल के हुगली नदी किनारे बेलूड़ (हावड़ा) में स्थापना।  

रविवार, 9 फरवरी, 1902
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- स्वामी विवेकानन्द द्वारा वाराणसी कैण्ट से स्वामी स्वरूपानन्द को लिखित पत्र में-”बौद्ध धर्म और नव हिन्दू धर्म के सम्बन्ध के विषय में मेरे विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। उन विचारों को निश्चित रुप देने के लिए कदाचित् मैं जिवित न रहूँ परन्तु उसकी कार्य प्रणाली का संकेत मैं छोड़ जाऊँगा और तुम्हें और तुम्हारे भातृ-गणों को उस पर काम करना होगा।“- (पत्रावली भाग-2, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन, पृष्ठ-310)

शुक्रवार, 4 जुलाई, 1902
- भारत के प्रथम स्वतन्त्रता - शारीरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का समय।
- स्वामी विवेकानन्द का उम्र 39 वर्ष 5 माह 22 दिन में चिरशान्ति में लीन। और उनकी मानवता व राष्ट्र के विकास के लिए अनेक इच्छा का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन। जैसे-भारत और समाजवाद विषयक अथवा राजनितिक विचारों से प्लावित करने से पहले यह आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाये। सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य निहित है, उन्हें इन सब ग्रंथों के पृष्ठों से बाहर लाकर, मठों की चहारदीवारियाँ भेदकर, वनों की नीरवता से दूर लाकर, कुछ-सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारो ओर से लपेट लें-उत्तर से दक्षिण और पूरब से पष्चिम तक सब जगह फैल जायें- हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्रा तक सर्वत्र वे धधक उठे।-(विवेकानन्द की वाणी, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन, पृष्ठ-56)। भारत के शिक्षित समाज में मैं इस बात पर सहमत हूँ कि समाज का आमूल परिवर्तन करना आवश्यक है। पर यह किया किस तरह जाये? सुधारकों की सब कुछ नष्ट कर डालने की रीति व्यर्थ सिद्ध हो चुकी है। मेरी योजना यह है, हमने अतीत में कुछ बुरा नहीं किया। निश्चय ही नहीं किया। हमारा समाज खराब नहीं, बल्कि अच्छा है। मैं केवल चाहता हूँ कि वह और भी अच्छा हो। हमे असत्य से सत्य तक अथवा बुरे से अच्छे तक पहुँचना नहीं है। वरन् सत्य से उच्चतर सत्य तक, श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम तक पहुँचना है। मैं अपने देशवासियों से कहता हूँ कि अब तक जो तुमने किया, सो अच्छा ही किया है, अब इस समय और भी अच्छा करने का मौका आ गया है। (जितने मत उतने पथ, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन, पृष्ठ-46)। यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म हो सकता है, तो वह ऐसा ही होगा, जो देश या काल से मर्यादित न हो, जो उस अनन्त भगवान के समान ही अनन्त हो, जिस भगवान के सम्बन्ध में वह उपदेश देता है, जिसकी ज्योति श्रीकृष्ण के भक्तों पर और ईसा के प्रेमियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाशित होती हो, जो न तो ब्राह्मणों का हो, न बौद्धों का, न ईसाइयों का और न मुसलमानों का, वरन् इन सभी धर्मों का समष्टिस्वरूप होते हुए भी जिसमें उन्नति का अनन्त पथ खुला रहे, जो इतना व्यापक हो कि अपनी असंख्य प्रसारित बाहूओं द्वारा सृष्टि के प्रत्येक मनुष्य का प्रेमपूर्वक आलिंगन करें।... वह विश्वधर्म ऐसा होगा कि उसमें किसी के प्रति विद्वेष अथवा अत्याचार के लिए स्थान न रहेगा, वह प्रत्येक स्त्री और पुरूष के ईश्वरीय स्वरूप को स्वीकार करेगा और सम्पूर्ण बल मनुष्यमात्र को अपनी सच्ची, ईश्वरीय प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही केन्द्रित रहेगा। अब व्यावहारिक जीवन में उसके प्रयोग का समय आ गया है। अब और ‘रहस्य’ बनाये रखने से नहीं चलेगा। अब और वह हिमालय की गुहाओ। में, वन-अरण्यांे में साधु-सन्यासियों के पास न रहेगा, लोगों के दैनन्दिन जीवन में उसको कार्यन्वित करना होगा। राजा के महल में, साधु-सन्यासी की गुफा में, मजदूर की झोपड़ी में, सर्वत्र सब अवस्थाओं में- यहाॅ तक कि राह के भिखारी द्वारा भी - वह कार्य में लाया जा सकता है। मैं अपने मनश्चक्षुओं से देख रहा हूॅ कि भावी सर्वांगपूर्ण भारत वैदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामी देह लेकर, इस विवाद-विश्रृंखला को चीरते हुये, महामहिमान्वित और अपराजेय शक्ति से युक्त होकर जागृत हो रहा है। एक नवीन भारत निकल पड़े-निकले हल पकड़ कर किसानों की कुटी भेद कर, मछुआ, मोची मेहतर की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से भुजवा के भांड़ के पास से, कारखानों से, हाट से, बाजार से। निकले झाड़ियों से, जंगलों, पहाड़ो पर्वतों से। हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाएं और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्क वालों को संतुष्ट कर सके- इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्त में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवन दायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है। अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से जीवन प्रकृत चरित्रों के उदाहरण समूह निकालने हैं और बुद्धि को भ्रम में डालने वाली योगविद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है और इन सब को एक ऐसे रुप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके। -(पत्रावली, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन, पृष्ठ-425)। जीवन में मेरी सर्वोच्च अभिलाषा यह है कि ऐसा चक्र प्रर्वतन कर दूॅ जो कि उच्च एवम् श्रेष्ठ विचारों को सब के द्वार-द्वार पर पहुंचा दे। फिर स्त्री-पुरूष को अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करने दो। हमारे पूर्वजों ने तथा अन्य देशों ने जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है यह सर्वसाधारण को जानने दो। विशेषकर उन्हें देखने दो कि और लोग क्या कर रहे हैं। फिर उन्हंे अपना निर्णय करने दो। रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे किसी विशेष आकर धारण कर लेगें-परिश्रम करो, अटल रहो। ‘धर्म को बिना हानि पहुॅचाये जनता की उन्नति’-इसे अपना आदर्श वाक्य बना लो।-(विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन, पृष्ठ-66) इत्यादि।



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