क्या स्वामी विवेकानन्द की इच्छा को पूर्ण करने का कार्य ही लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का कार्य है?
ब्रह्मलीन श्री श्री 1008 सत्योगानन्द ”भुईधराबाबा“ (भगवान रामकृष्ण के पुनर्जन्म) द्वारा श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ को धर्मक्षेत्र के भोग द्वारा व्यक्त करने के लिए सत्यकाशी क्षेत्र के गोपालपुर, छोटा मीरजापुर, मीरजापुर (उ0प्र0)-231305 स्थान पर आयोजित सदी के सर्र्वािधक लम्बे यज्ञ-विष्णु महायज्ञ और ज्ञान यज्ञ (दि0 वृहस्पतिवार, 13 नवम्बर 1997 से सोमवार, 22 जून 1998 तक) स्वामी विवेकानन्द के शिकागो वकृतता के दिन उनके उम्र 30 वर्ष 7 माह 29 दिन का उम्र, उनके सम्मान में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ (स्वामी विवेकानन्द के पुनर्जन्म व पूर्ण ब्रहम की अन्तिम कड़ी) द्वारा पूर्ण करने के उपरान्त अपने ही विचार व संकल्प- ”विश्वबन्धुत्व के स्थायी स्थापनार्थ सार्वभौव धर्म का निर्माण“ के सूत्रों की व्याख्या श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्तिगत रूप से ब्रह्यलीन श्री श्री 1008 सत्ययोगानन्द के सहयोगी श्री श्री 108 बाबा दीपनाथ और अन्य प्रबुद्व व्यक्तियों के समक्ष की गयी थी।
सृष्टि का प्रारम्भ एकात्म-ज्ञान (ब्रह्मा) ही है, यह मानव ने कर्म द्वारा धीरे-धीरे ज्ञान की ओर अग्रसर होकर जाना। सत्य आत्मसात् और सहर्ष स्वीकार करने का विषय होता है। इससे युक्त होकर भगवान श्री राम ने धर्म स्थापना की। एकात्म ज्ञान (ब्रह्मा) से जीवन नहीं चलता बल्कि एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म (विष्णु) से जीवन चलता है। इससे युक्त होकर भगवान श्री कृष्ण ने धर्म स्थापना की। साथ ही एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म आधारित व्यक्तिगत प्रमाणित विश्वशास्त्र साहित्य ‘‘गीता या गीतोपनिशद्’’ उपलब्ध हुई। एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म (विष्णु) से व्यक्तिगत (व्यष्टि) जीवन चल सकता है परन्तु त्रिलोक (समष्टि या सार्वजनिक या संयुक्त या विश्व) नहीं चल सकता। बल्कि एकात्म ज्ञान एवम् एकात्म कर्म सहित एकात्म-ध्यान (शंकर) द्वारा त्रिलोक चलता है। इससे युक्त होकर भगवान श्री रामकृष्ण ने नरेन्द्र नाथ दत्त (स्वामी विवेकानन्द का पूर्व नाम) को सर्वस्व त्याग द्वारा पूर्णज्ञान दिये। नरेन्द्र नाथ दत्त द्वारा रामकृष्ण परमहंस से शरीर त्याग के अन्तिम दिनों मंे पूछे जाने पर कि आप कौन हैं। उन्होंने कहा- ‘जो राम है, जो कृष्ण है, अब दोनों ही इस शरीर में है। अर्थात् ‘जो एकात्म ज्ञान है, जो एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म है अब दोनों ही इस शरीर में है’। यह वार्ता राम कृष्ण मिशन के साहित्य ‘स्वामी विवेकानन्द के संग में’ के पृष्ठ संख्या 54 में लिखित है तथा फिल्म ‘स्वामी विवेकानन्द’ में फिल्मांकन भी किया गया है। स्वामी विवेकानन्द इस पूर्णज्ञान को 100 वर्ष पूर्व ही प्राप्त कर चुके थे लेकिन उसकी स्थापना नहीं कर सकते थे क्योंकि उस वक्त न तो भारत स्वतन्त्र था न ही समष्टि आधारित विश्व स्तरीय संगठन - संयुक्त राष्ट्र संघ का ही जन्म हुआ था परिणामस्वरूप उस समय के लिए जितना कार्य आवश्यक था पूर्ण करके अन्तिम इच्छा, सूक्ष्म शरीर के रूप में रही और समयानुसार आत्मा के दृश्य रूप और बहुरूप में प्रकाशित एक सत्ता- श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के रूप में अब व्यक्त हुई है। चूँकि विष्णु का स्वरूप एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म से सम्बन्धित है इसलिए वे (विष्णु), ब्रह्मा और विष्णु के संयुक्त रूप है। चूँकि शंकर का स्वरूप एकात्म-ज्ञान और एकात्म-कर्म सहित एकात्म-ध्यान से सम्बन्धित है इसलिए वे शंकर, विष्णु और शंकर के संयुक्त रूप है। चूँकि शंकर, कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद के अधिकारी है और विष्णु धर्म स्थापना के अधिकारी है। इसलिए श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ की उत्पत्ति का रूप इन दोनों का संगम रूप है। जिसके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के ये दो कथन - ‘सम्भव है काल के प्रवाह में, कभी कभी ऐसा भास होता है कि वेदान्त का महाप्रकाश अब बुझा और जब ऐसी स्थिति आती है, तब भगवान मानवदेह धारण कर, पृथ्वी पर आते है और फिर धर्म में पुनः एक ऐसी शक्ति ऐसे जीवन का संचार हो जाता है कि वह फिर एकाध युग तक अदम्य उत्साह से आगे बढ़ता जाता है। आज वही शक्ति और जीवन उसमें फिर आ गया है। ‘(विवेकानन्द जी के सन्निध्य में’ पृष्ठ - 6) और मुझे अपनी मुक्ति की इच्छा अब बिल्कुल नहीं। सांसारिक भोग तो मैंने कभी चाहा नहीं। मुझे सिर्फ अपने यन्त्र को मजबूत और कार्योपयोगी देखना है और फिर निश्चित रूप से यह जानकर कि कम से कम भारत में मैंने मानव जाति के कल्याण का एक ऐसा यंत्र स्थापित कर दिया है, जिसका कोई शक्ति नाश नहीं कर सकती, मैं सो जाउँगा और आगे क्या होने वाला है, इसकी परवाह नहीं करूँगा। मेरी अभिलाषा है कि मैं बार बार जन्म लँू और हजारों दुःख भोगता रहूँ, ताकि मैं उस एक मात्र सम्पूर्ण आत्माओं के समिष्टरूप ईश्वर की पूजा कर सकूँ जिसकी सचमुच सत्ता है और जिसका मुझे विश्वास है। सबसे बढ़कर सभी जातियों और वर्गों के पापी और दरिद्र रूपी ईश्वर ही मेंरा विशेष उपास्य है। ‘‘(स्वामी विवेकानन्द का मानवतावाद’ पृष्ठ संख्या - 38) स्वंय प्रमाण है।
संयुक्त राष्ट्र संघ (U.N.O) द्वारा स्वामी विवेकानन्द के जीवन काल की भाँति श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के जीवन काल में भी विश्व शान्ति के लिए धर्माचार्यो व राष्ट्राध्यक्षों का सहस्त्राब्दि सम्मेलन क्रमशः 28-31 अगस्त 2000 व 5-7 सितम्बर, 2000 को न्यूर्याक में आयोजित किया गया था। जबकि स्वामी विवेकानन्द 11 सितम्बर 1893 को शिकागो के विश्व धर्म संसद में ही धर्म का विवादमुक्त स्वरूप और हिन्दू धर्म की सार्वभौमिकता को व्यापकता से व्यक्त कर चुके थे। परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजन की कोई आवश्यकता न थी। आवश्यकता यदि है तो सार्वभौम धर्म-विश्व धर्म के निर्माण के लिए धर्म द्वारा विश्व प्रबन्ध अर्थात लोकतन्त्र में लोक या गण या जन का स्पष्ट और विवादमुक्त स्वरूप व्यक्त करते हुए उसके अनुसार तन्त्रों की स्थापना का। जिसे विश्व के सबसे बड़े विश्वमन संसद अर्थात विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र आधारित संसद दिल्ली (भारत) में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। प्रश्न हो सकता है कि क्या भारत सहित विश्व का एक नागरिक भारत सहित विश्व के कल्याणार्थ स्वस्थ लोकतंत्र, स्वस्थ समाज, स्वस्थ उद्योग सहित पूर्ण मानव के निर्माण का महान उद्देश्य का वर्तमान व्यवस्थानुसार हल जो सत्य (न कि मत या विचार) पर आधारित हो, को संसद में प्रस्तुत और संसद को सम्बोधित करने का अधिकार नहीं रखता?
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा धर्माचार्यो व राष्ट्राध्यक्षों के सहस्त्राब्दि सम्मेलन के पूर्व (6 जून, 2000) को ही संयुक्त राष्ट्र महासचिव श्री कोफी अन्नान व भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री के0 आर0 नारायणन को पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी WCM-TLM-SHYAM.C और मन (मानव संसाधन) का विश्वमानव के आविष्कार की सूचना पंजीकृत डाक से लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा प्रेशित की जा चुकी थीं। जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप महासचिव श्री कोफी अन्नान ने राष्ट्राध्यक्षों को सम्बोधित अपने वक्तव्य में ये वाक्य भी कहें- ”भूमण्डलीय चुनौती जो मिलकर कार्य करने के लिए विवश करता है, हम सामना कर सकेंगे यदि यह आर्थिक और सामाजिक स्तर पर सत्य हो। लेकिन भूमण्डलीय क्रिया का प्रारम्भ कहीं निर्मित हो चुका है और यदि संयुक्त राष्ट्रसंघ में नहीं तो कहाँ? मैं जानता हूँ स्वयं की एक घोषणा कम महत्व रखती है परन्तु दृढ़ प्रतिज्ञा युक्त एक घोषणा और यथार्थ लक्ष्य, सभी राष्ट्रो के नेताओं द्वारा निश्चित रूप से स्वीकारने योग्य, अपने सत्ताधारी की कुशलता का निर्णय के लिए एक पैमाने के रूप में विश्व के व्यक्तियों के लिए अति महत्व का हो सकता है। और मैं आशा करता हूँ कि यह कैसे हुआ देखने के लिए सम्पूर्ण विश्व पीछे होगा।“ (वक्तव्य का अंश, पूर्ण वक्तव्य ”द टाइम्स आँफ इण्डिया“ नई दिल्ली, 7 सितम्बर, 2000 को अंग्रेजी में प्रकाशित)।
भारत तथा विश्व में यह अहंकार की प्राथमिकता का प्रभाव ही है कि एक तरफ व्यक्ति स्तर से लेकर विश्व स्तर तक के कल्याण व शक्ति के एकीकरण के लिए विश्वमानक - शून्य श्रृंखला तथा पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी WCM-TLM-SHYAM.C का आविष्कार हो चुका है तथा दूसरी तरफ महासचिव श्री कोफी अन्नान उसकी सूचना भी दे चुके है परन्तु आज भी विश्व कल्याण का उद्देश्य सामने रखकर ऐसे क्रियाकलाप व आयोजन संचालित हो रहे है जिसका सम्बन्ध विश्व कल्याण से है ही नहीं। फलस्वरूप संकीर्ण मानसिकता आधारित आतंकवादी गतिविधियाँ विश्व विकास के विरूद्व सक्रिय होती जा रही है। जिसके कारण विश्व चिंतक गण अब वैश्विक एकता, सुरक्षा, शान्ति, विकास पर सोचने को विवश होते जा रहे है। सार्वभौम सत्य-सिद्वान्त आधारित यह आविष्कार विचार आधारित नहीं बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त सार्वभौम नियम है जो स्थापना के लिए प्रकृति द्वारा ही मानव को विवश कर देने में सक्षम है। सन् 1998 से ही श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ इस आविष्कार का प्रकाशन व वितरण इसलिए रोक रखे थे क्योंकि व्यक्ति व विश्व जब तक समस्या ग्रस्त नहीं होता तब तक वह हल पर चिन्तन भी नहीं करता चाहे वह पहले से ही उपलब्ध क्यों न हो।
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ यह भलि-भांति जानते थे और जानते है कि सहस्त्राब्दि विश्व सम्मेलन हो या अन्य कोई इस प्रकार का सम्मेलन, चाहे उसमें भारत व विश्व से कितने भी विद्वान क्यों न शामिल हों परन्तु विश्व-कल्याण का यथार्थ लक्ष्य व मार्ग बिना ब्रह्माण्डीय नियमों को आत्मसात् किये प्राप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि समय की गति मानवीय और ब्रह्माण्डीय नियमों के एकीकरण की ओर है। और वह एक ही है तथा वह उनके द्वारा आविष्कृत होकर व्यक्त हैं। अब चूंकि मनुष्य धीरे-धीरे विवश हो रहा है इसलिए इस आविष्कार को श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के मार्गदर्शन में प्रकाशित किया जा रहा है। विश्व के सबसे बड़े विश्वमन व लोकतन्त्र आधारित भारतीय संसद को चाहिए कि श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ को विश्वमन संसद को सम्बोधित करने के लिए आमंत्रित कर सार्वजनिक सम्मान दें। जिसके वे पूर्ण योग्य भी हैं। साथ ही उनकी अन्तिम इच्छा को यथाशीघ्र पूर्ण करते हुए व्यापक सुरक्षा एवम् संसाधन उपलब्ध कराकर राष्ट्र निर्माण में अधिकतम उपयोंग करें। क्योंकि इसके अलावा कोई मार्ग भी नहीं है। ”वसुधैव-कुटुम्बकम्“, ”एकात्म मानवतावाद“, ”बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय“, ”सर्वेभवन्तु-सुखिनः“ सहित अपने ही विचार ”विश्व-बन्धुत्व“ के स्थायी स्थापनार्थ ”एकात्म कर्मवाद“ पर आधारित इस आविष्कार को लेकर समयानुसार अन्तिम समन्वयाचार्य और स्वामी विवेकानन्द के पुनर्जन्म के रूप में श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ का अवतरण समाज के लिए समाचार का विषय है जिसे पत्रकारिता का अपनी स्वस्थता के लिए शीघ्रताशीघ्र ही मुख्य समाचार बनाना चाहिए अन्यथा यह पत्रकारिता के लिए गैर जिम्मेदार होने का प्रतीक ही बनेगी। पत्रकारिता जन या गण या लोक के इसी कार्य के लिए लोकतन्त्र का चैथा स्तम्भ कहलाता है।
बहरहाल, व्यष्टि मानव (व्यक्तिगत) तथा समष्टि मानव (संगठन/समिति/विश्व इत्यादि संयुक्तमन) के लिए ज्ञान व कर्मज्ञान आधारित व कार्य जो समयानुसार न होने के कारण (क्योकि उस वक्त न तो भारत स्वतन्त्र था न ही संयुक्त राष्ट्र संघ का ही गठन हुआ था) स्वामी विवेकानन्द न कर सके वह अब उनके पुनर्जन्म व सार्वजनिक प्रमाणित पूर्णावतार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ ने पूर्ण किया। श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“, स्वामी विवेकानन्द के पुनर्जन्म हैं या नहीं इसके लिए इन बिन्दुओं पर ध्यान देने की बात है- ”शास्त्र कहते है कि कोई साधक यदि एक जीवन में सफलता प्राप्त करने में असफल होता है तो वह पुनः जन्म लेता है और अपने कार्यो को अधिक सफलता से आगे बढ़ाता है। (योग क्या है, राम कृष्ण मिशन, पृ0 83) , ”एक विशेष प्रवृत्ति वाला जीवात्मा ‘योग्य योग्येन युज्यते’ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह पूर्णतया विज्ञान संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है और चूंकि वर्तमान जीवन में इस स्वभाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है। (हिन्दूधर्म, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ-6) ज्ञातव्य हो कि श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त सभी शास्त्र-साहित्य उनके इस जीवन का न तो शैक्षणिक समय का विषय रहा है न ही किसी ने उनका मार्ग दर्शन ही किया है। यहाँ स्वामी विवेकानन्द के शब्द भी सोचने योग्य है- ”सम्भवतः यह अच्छा होगा कि मैं अपने इस शरीर से बाहर निकल आउँ और इसे जीर्ण वस्त्र की भाँति उतार फेकूँ, किन्तु फिर भी मैं कार्य करते रहने से रूकूँगा नहीं, मानव समाज में मैं सर्वत्र प्रेरणा प्रदान करता रहूँगा जब तक कि संसार यह भाव आत्मसात् न कर लें कि वह ईश्वर के साथ एक है। (राष्ट्र को आहवान, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ 23)।
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