Saturday, March 14, 2020

स्वामी विवेकानन्द की वाणीयाँ जो श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के जीवन में सत्य हुईं - सामाजिक जीवन के सम्बन्ध में

स्वामी विवेकानन्द की वाणीयाँ जो श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के जीवन में सत्य हुईं - सामाजिक जीवन के सम्बन्ध में
1.यह भी न भूलना चाहिए कि हमारे बाद जो लोग आएंगे, वे उसी तरह हमारे धर्म और ईश्वर सम्बन्धी धारणा पर हंसेंगे, जिस तरह हम प्राचीन लोगों के धर्म और ईश्वर की धारणा पर हंसते हैं। यह सब होने पर भी, इन सब ईश्वर सम्बन्धित धारणाओं का संयोग करने वाला एक स्वर्ण सूत्र है और वेदान्त का उद्देश्य है - इस सूत्र की खोज करना। भागवान कृष्ण ने कहा है-‘‘भिन्न भिन्न मणियां जिस प्रकार एक सूत्र में पिरोयी जा सकती हैं, उसी प्रकार इन सब विभिन्न भावों के भीतर भी एक सूत्र विद्यमान है। (ज्ञानयोग, पृष्ठ-65)
2.हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाएं और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्क वालों को संतुष्ट कर सके- इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्त में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवन दायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है। अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से जीवन प्रकृत चरित्रों के उदाहरण समूह निकालने हैं और बुद्धि को भ्रम में डालने वाली योगविद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है और इन सब को एक एैसे रुप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके। (पत्रावली, पृष्ठ-425)
3. विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं है। ज्योंही कोई विज्ञान शास्त्र पूर्ण एकता तक पहुँच जायेगा, त्योंहीं उसका आगे बढ़ना रुक जायेगा क्योंकि तब तो वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर चुकेगा। उदाहरणार्थ रसायनशास्त्र यदि एक बार उस एक मूल द्रव्य का पता लगा ले, जिससे वह सब द्रव्य बन सकते हैं तो फिर वह और आगे नहीं बढ़ सकेगा। पदार्थ विज्ञान शास्त्र जब उस एक मूल शक्ति का पता लगा लेगा जिससे अन्य शक्तियां बाहर निकली हैं तब वह पूर्णता पर पहुँच जायेगा। वैसे ही धर्म शास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त हो जायेगा जब वह उस मूल कारण को जान लेगा। जो इस मत्र्यलोक में एक मात्र अमृत स्वरुप है जो इस नित्य परिवर्तनशील जगत का एक मात्र अटल अचल आधार है जो एक मात्र परमात्मा है और अन्य सब आत्माएं जिसके प्रतिबिम्ब स्वरुप हैं। इस प्रकार अनेकेश्वरवाद, द्वैतवाद आदि में से होते हुए इस अद्वैतवाद की प्राप्ति होती है। धर्मशास्त्र इससे आगे नहीं जा सकता। यहीं सारे विज्ञानों का चरम लक्ष्य है। (हिन्दू धर्म, पृष्ठ-16)
4. यह समझना होगा कि धर्म के सम्बन्ध में अधिक और कुछ जानने को नहीं, सभी कुछ जाना जा चुका है। जगत के सभी धर्म में, आप देखियेगा कि उस धर्म में अवलम्बनकारी सदैव कहते हैं, हमारे भीतर एक एकत्व है अतएव ईश्वर के सहित आत्मा के एकत्व ज्ञान की अपेक्षा और अधिक उन्नति नहीं हो सकती। ज्ञान का अर्थ इस एकत्व का आविष्कार ही है। यदि हम पूर्ण एकत्व का आविष्कार कर सकें तो उससे अधिक उन्नति फिर नहीं हो सकती। (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-7)
5. हमें देखना है कि किस प्रकार यह वेदान्त हमारे दैनिक जीवन में, नागरिक जीवन में, ग्राम्य जीवन में, राष्ट्रीय जीवन में और प्रत्येक राष्ट्र के घरेलू जीवन में परिणत किया जा सकता है। कारण, यदि धर्म मनुष्य को जहाॅ भी और जिस स्थिति में भी है, सहायता नहीं दे सकता, तो उसकी उपयोगिता अधिक नहीं - तब वह केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए कोरा सिद्धान्त हो कर रह जायेगा। (व्यावहारीक जीवन में वेदान्त, पृष्ठ-11)
6.प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अन्तः प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्म भाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मनः संयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्म भाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस यहीं धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रियाकलाप तो असके गौड़ अंग-प्रत्यंग मात्र हैं। (विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, पृष्ठ-32)
7.तत्व समूह पहले से ही विद्यमान है, हम उसकी सृष्टि नहीं करते, केवल उसका आविष्कार करते हैं। धर्म केवल सत्य का साक्षात्कार मात्र है। विभिन्न मतवाद, विभिन्न पथ, प्रणाली मात्र है। वे धर्म नहीं है। जगत के विभिन्न धर्म विभिन्न जातियों के आवश्यकतानुसार समयोचित एक ही धर्म के प्रयोग हैं।
8. हमें दिखलाना है- हिन्दुओं की आध्यामिकता, बौद्धो की जीवदया, ईसाइयों की क्रियाशीलता एवं मुस्लिमों का बन्धुत्व, और ये सब अपने व्यावहारिक जीवन के माध्यम द्वारा। हमने निश्चय किया- हम एक सार्वभौम धर्म का निर्माण करेंगें। 
9.उसी मूल सत्य की फिर से शिक्षा ग्रहण करनी होगी, जो केवल यहीं से, हमारी इसी मातृभूमि से प्रचारित हुआ था। फिर एक बार भारत को संसार में इसी मूल तत्व का-इसी सत्य का प्रचार करना होगा। ऐसा क्यों है? इसलिए नहीं कि यह सत्य हमारे शास्त्रों में लिखा है वरन् हमारे राष्ट्रीय साहित्य का प्रत्येक विभाग और हमारा राष्ट्रीय जीवन उससे पूर्णतः ओत-प्रोत है। इस धार्मिक सहिष्णुता की तथा इस सहानुभूति की, मातृभाव की महान शिक्षा प्रत्येक बालक, स्त्री, पुरुष, शिक्षित, अशिक्षित सब जाति और वर्ण वाले सीख सकते हैं। तुमको अनेक नामों से पुकारा जाता है, पर तुम एक हो। (जितने मत उतने पथ, पृष्ठ-39)
10.हम मनुष्य जाति को उस स्थान पर पहुुँचाना चाहते हैं, जहाँ न वेद है, न बाइबिल है, न कुरान है परन्तु वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्य जाति को यह शिक्षा देनी चाहिए कि सब धर्म उस धर्म के, उस एकमेवाद्वितीय के भिन्न-भिन्न रुप हैं, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति उन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है। (विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, पृष्ठ-32)
11.आज हमे आवश्यकता है वेदान्त युक्त पाश्चात्य विज्ञान की, ब्रह्मचर्य के आदर्श और श्रद्धा और आत्मविश्वास की। वेदान्त का सिद्धान्त हे कि मनुष्य के अन्तर में- एक अबोध शिशु में भी- ज्ञान का समस्त भण्डार निहित है, केवल उसके जागृत होने की आवश्यकता है और यही आचार्य का काम है। पर इस सब का मूल है धर्म-वहीं मुख्य है। धर्म तो भात के समान है, शेष सभी वस्तुयें तरकारी और चटनी जैसी हैं। केवल तरकारी और चटनी खाने से अपच्य हो जाता है, और केवल भात खाने से भी। (विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, पृष्ठ-35)
12.सत्य, प्रचीन अथवा आधुनिक किसी समाज का सम्मान नहीं करता। समाज को ही सत्य का सम्मान करना पड़ेगा, अन्यथा समाज ध्वंस हो जाये, कोई हानि नहीं। सत्य ही हमारे सारे प्राणियों और समाजों का मूल आधार है, अतः सत्य कभी भी समाज के अनुसार अपना गठन नहीं करेगा। वहीं समाज सबसे श्रेष्ठ है, जहाँ सर्वोच्च सत्यों को कार्य में परिणत किया जा सकता है- यहीं मेरा मत है। और यदि समाज इस समय उच्चतम सत्यों को स्थान देने में समर्थ नहीं है, तो उसे इस योग्य बनाओ। और जितना शीघ्र तुम ऐसा कर सको उतना ही अच्छा। (विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, पृष्ठ-36)
13.हिन्दू कहते हैं कि सामाजिक और राजनितिक सवाधीनता बहुत अच्छी चीज है किन्तु वास्तविक चीज है- आध्यात्मिक स्वाधीनता अर्थात् मुक्ति। यही जातीय जीवन का उद्देश्य है। वैदिक, जैन, बौद्ध, द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत सभी इस सम्बन्ध में एकमत हैं। इसमें हाथ न लगाना नहीं तो सर्वनाश हो जायेगा। (जितने मत उतने पथ, पृष्ठ-38)
14.भारत और समाजवाद विषयक अथवा राजनितिक विचारों से प्लावित करने से पहले यह आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाये। सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य निहित है, उन्हें इन सब ग्रंथों के पृष्ठों से बाहर लाकर, मठों की चहारदिवारियाँ भेदकर, वनों की नीरवता से दूर लाकर, कुछ-सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारो ओर से लपेट लें- उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक सब जगह फैल जायें- हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्रा तक सर्वत्र वे धधक उठे। (विवेकानन्द की वाणी, पृष्ठ-56)
15.भारत के शिक्षित समाज में मैं इस बात पर सहमत हूँ कि समाज का आमूल परिवर्तन करना आवश्यक है। पर यह किया किस तरह जाये? सुधारकों की सब कुछ नष्ट कर डालने की रीति व्यर्थ सिद्ध हो चुकी है। मेरी योजना यह है, हमने अतीत में कुछ बुरा नहीं किया। निश्चय ही नहीं किया। हमारा समाज खराब नहीं, बल्कि अच्छा है। मैं केवल चाहता हूँ कि वह और भी अच्छा हो। हमे असत्य से सत्य तक अथवा बुरे से अच्छे तक पहुँचना नहीं है। वरन् सत्य से उच्चतर सत्य तक, श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम तक पहुँचना है। मैं अपने देशवासियों से कहता हूँ कि अब तक जो तुमने किया, सो अच्छा ही किया है, अब इस समय और भी अच्छा करने का मौका आ गया है। (जितने मत उतने पथ, पृष्ठ-46)
16.यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म हो सकता है, तो वह ऐसा ही होगा, जो देश या काल से मर्यादित न हो, जो उस अनन्त भगवान के समान ही अनन्त हो, जिस भगवान के सम्बन्ध में वह उपदेश देता है, जिसकी ज्योति श्रीकृष्ण के भक्तों पर और ईसा के प्रेमियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाशित होती हो, जो न तो ब्राह्मणों का हो, न बौद्धों का, न ईसाइयों का और न मुसलमानों का, वरन् इन सभी धर्मों का समष्टिस्वरूप होते हुए भी जिसमें उन्नति का अनन्त पथ खुला रहे, जो इतना व्यापक हो कि अपनी असंख्य प्रसारित बाहुओं द्वारा सृष्टि के प्रत्येक मनुष्य का प्रेमपूर्वक आलिंगन करें।... वह विश्वधर्म ऐसा होगा कि उसमें किसी के प्रति विद्वेष अथवा अत्याचार के लिए स्थान न रहेगा, वह प्रत्येक स्त्री और पुरूष के ईश्वरीय स्वरूप को स्वीकार करेगा और सम्पूर्ण बल मनुष्यमात्र को अपनी सच्ची, ईश्वरीय प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही केन्द्रित रहेगा। 
17.ईसाई को हिन्दू अथवा बौद्ध नहीं होना पडे़गा, और न हिन्दू या बौद्ध को ईसाई ही, परन्तु प्रत्येक धर्म दूसरे धर्मो के सारभाग को आत्मसात् करके पुष्टिलाभ करेगा और अपने वैशिष्ट्य की रक्षा करते हुए अपनी निजी प्रकृति के अनुसार वृद्धि को प्राप्त होगा। यदि इस सर्वधर्म परिषद् ने जगत् के समक्ष कुछ प्रमाणित किया है तो वह यह कि उसने यह सिद्ध कर दिखाया है कि शुद्धता, पवित्रता और दयाशीलता किसी सम्प्रदाय-विशेष की सम्पत्ति नहीं है तथा प्रत्येक धर्म ने श्रेष्ठ एवं अतिशय उन्नत-चरित्र स्त्री पुरूषों को जन्म दिया है। अब इन प्रत्यक्ष प्रमाणों के बावजुुुुद भी यदि कोई ऐसा स्वप्न देखे कि अन्यान्य सारे धर्म नष्ट हो जायेंगे और केवल उसका धर्म ही अपना सर्वश्रेष्ठता के कारण जीवित रहेगा, तो उस पर मैं अपने हृदय के अन्तस्थल से दया करता हॅू और उसे स्पष्ट शब्दों में बतलाये देता हूॅ कि वह दिन दूर नहीं हैं, जब उस-जैसे लोगों के अड़ंगों के बावजूद भी प्रत्येक धर्म की पताका पर यह स्वर्णाक्षरों में लिखा रहेगा-‘सहयोग, न कि विरोध’, पर-भाव-ग्रहण न कि पर-भाव-विनाश, ‘समन्वय और शान्ति, न कि मतभेद और कलह’!
18.एक मात्र वेदान्त ही समाज तन्त्रवाद की युक्तिसंगत दार्शनिक भित्ति होने लायक है। मानव समाज की उन्नति चाहने वाले व्यक्तिगण, कम से कम उनके परिचालक गण, यह समझने का प्रयत्न कर रहे हैं कि उनके धन साम्य एवं समान अधिकार पर आधारित मतवादों की एक आध्यात्मिक भित्ति रहना संगत है, और एक मात्र वेदान्त ही यह भित्ति होने के योग्य हैं। सामाजिक, राजनीतिक एवं आध्यात्मिक, सभी क्षेत्रो में यथार्थ संगत स्थापित करने का केवल एक सूत्र विद्यमान है, और वह सूत्र- केवल इतना जान लेना कि मैं और मेरा भाई एक हैं। सब देशों में, सभी युगो में, सभी जातियों के लिए यह महान सत्य समान रूप से लागू है।
19.अब व्यावहारिक जीवन में उसके प्रयोग का समय आया है। अब और ‘रहस्य’ बनाये रखने से नहीं चलेगा। अब और वह हिमालय की गुहाओ। में, वन-अरण्यांे में साधु-सन्यासियों के पास न रहेगा, लोगों के दैनन्दिन जीवन में उसको कार्यन्वित करना होगा। राजा के महल में, साधु-सन्यासी की गुफा में, मजदूर की झोपड़ी में, सर्वत्र सब अवस्थाओं में- यहाॅ तक कि राह के भिखारी द्वारा भी - वह कार्य में लाया जा सकता है।
20.मैं अपने मनश्चक्षुओं से देख रहा हूॅ कि भावी सर्वांगपूर्ण भारत वैदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामी देह लेकर, इस विवाद-विश्रृंखला को चीरते हुये, महामहिमान्वित और अपराजेय शक्ति से युक्त होकर जागृत हो रहा है।
21.प्राच्य और पाश्चात्य देशों के आदर्श अलग-अलग है। भारत धर्ममुखी है, अन्तर्मुखी है, पाश्चात्य भुखण्ड बहिर्मुखी है। पाश्चात्य देश यदि धर्म के क्षेत्र में तनीक-सी भी उन्नति करना चाहता है, तो वह समाज की उन्नति के माध्यम से ही वैसा करेगा और प्राच्य देश यदि सामाजिक क्षेत्र में थोड़ी सी भी शक्ति हासिल करना चाहता है, तो वह धर्म के माध्यम से करेगा।...आधुनिक सुधारकगण सब से पहले भारत के धर्म को नष्ट कर देना चाहता है उनके बिना उन्हंे सुधार का दूसरा कोई मार्ग नहीं दिखता। उन्होंने उस दिशा में प्रयत्न भी किये हैं, पर विफल मनोरथ हुये हैं। इसका क्या कारण है? यही कि उनमें से केवल कुछ इने गिने लोगों ने ही अपने धर्म का उत्तम रूप से अध्ययन और उसकी आलोचना की है, ‘समस्त धर्मो के प्रस्त्रवण’ को समझाने के लिए जिस साधना की आवश्यकता है उनमें से कोई भी उस साधना में होकर नहीं गया है। मैं कहता हूॅ हिन्दू समाज की उन्नति के लिए धर्म को नष्ट करने की जरूरत नहीं। ऐसी बात नहीं कि हिन्दू धर्म प्राचीन रीति और आचार प्रथाओं को समर्थन करता रहा है, इसलिए उसके समाज की ऐसी दशा हुई हैैं। समाज की इस दुरवस्था का कारण तो यह है कि धर्म को सामाजिक क्षेत्र में जिस प्रकार कार्यान्वित करना चाहिए था, वैसा नहीं किया गया।..... ऋषिचरित्र यथार्थ जीवन, जो शक्ति का केन्द्र बनाकर ही देवत्व और मानवत्व की मिलनभूमि है- वही राह दिखायेगा। इनको केन्द्र बनाकर ही भिन्न भिन्न उपादान संघ बद्ध होंगेे और बाद में प्रचण्ड तरंग के समान समाज पर गिरकर सब कुछ बहा ले जायेंगे-सारी अपवित्रता दूर हो जायेगी। ... यह अवस्था लोगों को अधिक धर्म-निष्ठ होने की शिक्षा देकर तथा समाज को स्वाधीनता देकर, धीरे-धीरे लानी होगी।  प्राचीन धर्म से पुरोहित के इस अत्याचार और अनाचार को अलग-निकाल दो और देखोगे, यह धर्म संसार का श्रेष्ठ धर्म है।.... वही समाज सर्वश्रेष्ठ है जहाॅ सत्य कार्यन्वित को सकता है, यही मेरा मत है। पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं जो हिन्दू धर्म के समान इतने उॅचे स्वर से मानवता के गौरव का उपदेश करता हो और पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं जो हिन्दू धर्म के समान गरीबो और नीच जाति वालो का गला क्रुरता से घोंटता हो। प्रभु ने मुझे दिखा दिया है कि इसमें धर्म का कोई दोष नहीं है, वरन् दोष उनका है, जो ढ़ोगी और दम्भी है जो ‘परमार्थिक’ और ‘व्यावहारिक’ सिद्धान्तों के रूप में अनेक प्रकार के अत्याचार के अस्त्रों का निर्माण करते है।
20.मुझे उन लोगों पर तरस आता है।....उनकी नींद किसी तरह टुटती ही नहीं। सदियों के अत्याचार के फलस्वरूप जो पीड़ा, दुःख, हीनता, दारिद्रय की आह भारत-गगन मं गूंज रही है, उनसे उनके सुखकर जीवन को कोई जबरदस्त आघात नहीं लगता। युगों के जिस मानसिक, नैतिक और शारीरिक अत्याचार ने ईश्वर के प्रतिमा रूपों मनुष्य को भारवाही पशु, भवगती की प्रतिमारूपणी रमणी को सन्तान पैदा करने वाली दासी, और जीवन को अभिशाप बना दिया है, उसकी वे कल्पना भी नहीं कर पाते। परन्तु ऐसे भी अनेक मनुष्य है, जो देखते है अनुभव करते है, और दिलों में खून के आंसू बहाते है- जो सेाचते है कि इसका इलाज है, और किसी कीमत पर, यहां तक कि अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी जो इन्हें हटाने को तैयार है।
23.तथाकथित धनिकों पर भरोसा न करों, वे जीवित की अपेक्षा मृत ही अधिक है। आशा तुम लोगों से है-जो विनीत, निराभिमानी और विश्वासपरायण हैं।.... मैं देश में भूख या जाडे़ से भले ही मर जाऊँ, परन्तु युवकों! मैं गरीबों, मूर्खो और उत्पीड़ितों के लिए इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न की थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हॅॅू। प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ लोगों के उद्धार कार्य में लगा दोगे, जो दिनों दिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं।
24.हमारे अभिजात पूर्वज साधारण जनसमुदाय को पैंरो तले कुचलते रहे। इसके फलस्वरूप वे बेचारे एक दम असहाय हो गये। यहाॅ तक कि अपने आपको मनुष्य मानना भी भुल गये। भारत के इन दिन-हीन लोगों को, इन पददलित जाति के लोगों को, उनका अपना वास्तविक रूप समझा देना परमावश्यक है। जात-पात का भेद छोड़कर कमजोर और मजबुत का विचार छोड़कर हर एक स्त्री-पुरूष को, प्रत्येक बालक-बालिका को, यह संदेश सुनाओं और सिखाओं कि ऊँच-नीच, अमीर-गरीब और बड़े-छोटे में उसी एक अनन्त आत्मा का निवास है, जो सर्वव्यापी है। इसलिए सभी लोग महान तथा सभी लोग साधु हो सकते है। आओ हम प्रत्येक व्यक्ति में घोषित करें- उत्तिष्ठत् जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत् - उठो, जागो और जब तक तुम अपने अन्तिम ध्येय तक नहीं पहुॅच जाते, तब तक चैन न लो। उठो, जागो! निर्बलता के इस व्यामोह से जाग जाओं वास्तव में कोई भी दुर्बल नहीं है। आत्मा अनन्त, सर्वशक्तिसम्पन्न और सर्वज्ञ है। इसलिए उठो, अपने वास्तविक रूप को प्रकट करो। तुम्हारे अन्दर जो भगवान है, उसकी सत्ता को ऊँचे स्वर में घोषित करो, उसे अस्वीकार मत करो। तुम अपने को और प्रत्येक व्यक्ति को अपने सच्चे स्वरूप की शिक्षा दोे घोरतम मोहनिद्रा में पड़ी हुई जीवात्मा को इस नींद से जगा दो। जब तुम्हारा जीवात्मा प्रबुद्ध होकर सक्रिय हो उठेगी, तब तुम आप ही शक्ति का अनुभव करोगे, महिमा और महत्ता पाओगे, साधुता आयेगी, पवित्रता भी आप ही चली आयेगी- मतलब यह है कि जो कुछ अच्छे गुण है, वे सभी तुम्हारे पास आ पहुॅचेंगे।
25.वे जो लोग किसान हैं, वे कोरी, जुलाहे जो भारत के नगण्य मनुष्य हैं, विजित स्वजाति निन्दित छोटी-छोटी जातियाॅ है, वही लगातार चुप-चाप काम करती जा रही हंै, अपने परिश्रम का फल भी नहीं पा रही है। परन्तु धीरे-धीरे प्राकृतिक नियम से दुनिया में कितने परिवर्तन होते जा रहे हैं। देश, सभ्यता तथा सत्ता उलटते-पलटते रहे है। हे भारत के श्रमजीवियों, तुम्हारे नीरव, सदा ही निन्दित हुए परिश्रम के फलस्वरूप बाबिल, ईरान, अलेकजन्द्रिया, ग्रीस, रोम, वेनिस, जिनेवा, बगदाद, समरकन्द, स्पेन, पोर्तुगाल, फ्रांसीसी, दिनेमार, डच ओर अंगेजों का क्रमान्वय से आधिपत्य हुआ और उनको ऐश्वर्य मिला है। और तुम? कौन सोचता है उस बात को। स्वामी जी! तुम्हारे पितृपुरूष दो दर्शन लिख गये हैं, दस काव्य तैयार कर गये हैं, दस मन्दिर उठवा गये है और तुम्हारी बुलन्द आवाज से आकाश फट रहे हैं, और जिनके रूधिर-स्त्राव से मनुष्य जाति की यह जो कुछ उन्नति हुई है, उनके गुणों का ज्ञान कौन करता है? लोकजयी, धर्मवीर, रणवीर, काव्यवीर सबकी आॅखों पर, सबकें पूज्य हैं! परन्तु जहाॅ कोई नहीं देखता, जहाॅ कोई वाह-वाह नहीं करता जहाॅ सब लोग घृणा करते हैं, वहाॅ वास करती है अपार सहिष्णुता, अनन्य प्रीती और निर्भीक कार्यकारिता। हमारे गरीब घर-द्वार पर दिन रात मुॅह बन्द करके कर्तव्य करते जा रहे है, उनमें क्या वीरत्व नहीं है? बड़ा काम आने पर बहुतेरे वीर हो जाते है, उस हजार आदमियों की वाहवाही के सामने कापुरूष भी सहज ही अपने प्राण दे देता है। घोर स्वार्थ पर भी निष्काम हो जाता है। परन्तु अत्यन्त छोटे से कार्य में भी सबसे अज्ञात भाव से जो वैसे ही निस्वार्थपरता कर्तव्यपरायणता दिखाते है, वे ही धन्य हैं- वे तुम लोग हो - भारत के हमेशा के पैरों तले कुचले हुए श्रमजीवियों। तुम लोगों को मैं प्रणाम करता हूॅ। 
26.मानवीय समाज पर चारों वर्ण-पुरोहित, सैनिक, व्यापारी और मजदूर बारी-बारी से शासन करते हैं। हर शासन का अपना गौरव अपना दोष होता है। जब ब्राह्मण का राज होता है, तब आनुवंशिक आधार पर भयंकर पृथकता रहती है- पुरोहित स्वयं और उनके वंशज नाना प्रकार के अधिकारों से सुरक्षित रहते हैं, उनके अतिरिक्त किसी को कोई ज्ञान नहीं होता, और उनके अतिरिक्त किसी को शिक्षा देने का अधिकार नहीं है। इस विशिष्ट युग में सब विधाओं की नींव पड़ती है, यह उसका गौरव हैं। ब्राह्मण मन को उन्नत करते है क्योंकि मन द्वारा ही वे राज्य करते है। क्षत्रिय शासन क्रूर और अन्यायी होता है, परन्तु उनमें पृथकता नहीं रहती और उनके युग में कला और सामाजिक संस्कृति उन्नति के शिखर पर पहुॅच जाती है। उसके बाद वैश्य शासन आता है। इसमें कुचलने की और खून चुसने की मौन शक्ति अत्यन्त भीषण होती है। इसका लाभ यह है कि व्यापारी सब जगह जाता है, इसलिए वह पहले दोनों युगों में एकत्र किये हुये विचारों को फैलाने में सफल होता है। उसमें क्षत्रियों से भी कम पृथकता होती है, परन्तु सभ्यता की अवनति आरम्भ हो जाता है। अन्त में आयेगा मजदूूूर का शासन। उसका लाभ होगा भौतिक सुखों का समान वितरण- और उससे हानि होगी, कदाचित संस्कृति का निम्न स्तर पर गिर जाना। साधारण शिक्षा का बहुत प्रचार होगा, परन्तु असामान्य प्रतिभाशाली व्यक्ति कम होते जायेंगे। यदि ऐसा राज्य स्थापित करना सम्भव हो जिसमें ब्राह्मण युग का ज्ञान, क्षत्रिय युग की सम्भता, वैश्य युग का प्रचार-भाव और शूद्र युग की समानता रखी जा सके- उसके दोषों को त्यागकर- तो वह आदर्श राज्य होगा। परन्तु क्या यह सम्भव हैं? परन्तु पहले तीनों का राज्य हो चुका है। अब शूद्र शासन का युग आ गया है- वे अवश्य राज्य करेंगे, और उन्हें कोई रोक नहीं सकता। मैं समाजवादी हॅॅू, इसलिए नहीं कि मैं पूूर्ण रूप से निर्दोष व्यवस्था समझता हूॅ परन्तु इसलिए कि रोटी न मिलने से आधी रोटी ही अच्छी है। और सब मतवाद काम में लाये जा चुके हैं और दोषयुक्त सिद्ध हुए हैं। इसकी भी अब परीक्षा होने दो- यदि और किसी कारण से नहीं तो नवीनता के लिए ही। सर्वदा एक ही वर्ग के व्यक्तियों को सुख और दुःख मिलने की अपेक्षा सुख और दुःख का बटवारा करना अच्छा है। शुभ और अशुभ की समष्टि संसार में समान ही रहती है। नये मतवादों से वह भार कन्धे से कन्धा बदल लेगा, और कुछ नहीं। इस दुःखी संसार में सबको सुख-भोग का अवसर दो, जिससे इस तथाकथित सुख के अनुभव के पश्चात् वे संसार, शासन-विधि और झंझटों को छोड़कर प्रभु के पास आ सकें। (विवेकानन्द का मानवतावाद, पृष्ठ-69)
27.क्या मनुष्य प्रचण्ड तुफान में ग्रस्त वह छोटी सी नौका है जो एक क्षण किसी वेगवान तरंग के फेनिल शिखर पर चढ़ जाती है और दूसरे क्षण भयानक गर्त में नीचे धकेल दी जाती है, अपनी शुभ और अशुभ कर्मो की दया पर केवल इधर-उधर भटकती फिरती है। क्या वह कार्य-कारण की सतह प्रवाही, निर्मम, भीषण तथा गर्जनशील धरा में पड़ी हुई अशक्त, असहाय भग्न पोत हैं, क्या वह उस कारणता के चक्र के नीचे पड़ा हुआ एक क्षुद्र शलभ है, जो विधवा के आॅसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी चिंता न करते हुए, अपने मार्ग में आने वाली सभी वस्तुओं को कुचल डालता हैं? इस प्रकार के विचार से अन्तःकरण काॅप उठता है पर यही प्रकृति का नियम है। तो फिर क्या कोई आशा ही नहीं है? क्या इससे बचने का कोई मार्ग नहीं है? यही करूण पुकार निराशाविह्वल हृदय के अन्तस्थल से ऊपर उठी और उसी करूणामय के सिंहासन तक जा पहॅुची। वहाॅ से आशा और सान्तवना की वाणी निकली और उसने एक वैदिक ऋषि को अन्तः स्फूर्ति प्रदान की, और उसने संसार के सामने खड़े होकर उॅचे स्वर में इस आनन्द संदेश की घोषणा की। ‘हे अमृत के पुत्रों! सुनो हे दिव्यधामवासी देवगण!! तुम भी सुनो मैंने उस अनादि पुरातन पुरूष को प्राप्त कर लिया है, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया के परे है। केवल उस पुरूष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो। दूसरा कोई पथ नहीं हैं।
28.एक नवीन भारत निकल पड़े-निकले हल पकड़ कर किसानों की कुटी भेद कर, मछुआ, मोची मेहतर की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से भुजवा के भांड़ के पास से, कारखानों से, हाट से, बाजार से। निकले झाड़ियों से, जंगलों, पहाड़ो पर्वतों से।
29.हे भाइयों, हम सभी लोगों को इस समय कठिन परिश्रम करना होगा। अब सोने का समय नहीं है। हमारे कार्यो पर भारत का भविष्य निर्भर है। यह देखिये, भारत माता धीरे-धीरे आॅखें खोल रही है। वे कुछ देर सोयी थी। उठिये, उन्हें जगाइये और पूर्वापेक्ष महागौरवमंडित करके भक्ति से उन्हें अपने चिरन्तन सिंहासन पर प्रतिष्ठित कीजिए।
30.ऐ भारत! तुम मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री, दमवन्ती है, तुम मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्वत्यागी उमानाथ शंकर है, मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, धन और तुम्हारा जीवन इन्द्रियसुख के लिए- अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं है, मत भूलना कि तुम जन्म से ही ‘‘माता’’ के लिए बलिस्वरूप रखे गये हो।.... तुम मत भूलना कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, चमार और मेहतर तुम्हारा रक्त और तुम्हारे भाई हैं।
31.जहाॅ पर महामारी हुई हो, जहाॅ पर लोगों को दुःख हो, जहाॅ दुर्भिक्ष पड़ा हो- चला जा उस ओर और उन लोगों का दुःख दूर कर। अधिक से अधिक क्या होगा, मर ही तो जाएगा। मेरे तेरे जैसे न जाने कितने कीड़े पैदा होते रहते है और मरते रहते हैं। इससे दुनिया को क्या हानि-लाभ है। एक महान उद्देश्य लेकर मर जा। मर तो जायेगा ही, पर अच्छा उद्देश्य लेकर मरना ठीक हैं।


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