मानव और पूर्ण मानव
इस ब्रह्माण्ड में अन्य जीवों की भाँति मनुष्य भी एक जीव है। एक मात्र मनुष्य के सामने यह अवसर है कि वह पशु मानव से पूर्ण मानव व ईश्वरीय मानव तक ज्ञान-ध्यान-चेतना का प्रयोग कर स्वयं को ऊपर उठा सकता है।
वर्तमान में विश्व (WORLD) पृथ्वी की सीमा तक के अर्थो में अधिकतम प्रयोग होता है। परन्तु मानवीय व्यक्तिगत दृष्टि में प्रत्येक मनुष्य का विश्व, जगत्, संसार, सृष्टि व दुनिया उतना ही बड़ा होता है जितने क्षेत्र तक का उसका ज्ञान होता है। इस प्रकार व्यक्ति का अपने व्यक्तिगत दृष्टि से विश्व को देखना उसका प्राथमिक विश्व तथा व्यक्ति का अपने सार्वभौम दृष्टि से विश्व को देखना उसकी अन्तिम व पूर्ण दृष्टि होती है।
संवेदना के अनुभव की सीमा ही व्यक्ति का शरीर होता है। जिस व्यक्ति की संवेदना उसके अपने शरीर तक होता है उसके शरीर की सीमा उसके अपने शरीर तक ही होती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने परिवार, मुहल्ला, गाँव, जिला, प्रदेश, देश, पृथ्वी और ब्रह्माण्ड तक की संवेदना का अनुभव करता है उस व्यक्ति का शरीर उस स्तर का होता है। अनन्त ब्रह्माण्ड तक के शरीर का अनुभव ही ”अंह ब्रह्मास्मि“ कहलाता है और अपने शरीर के सुख-दुःख का अनुभव करते हुए अपने उस शारीरिक सीमा के लिए कर्म करता है।
कुछ वर्षो पहले वैज्ञानिक डाॅ0 फ्रेड हाॅयल भारतवर्ष आये थे। विज्ञान भवन में उन्होंने कहा था - ”अंतरिक्ष की गहराइयाँ जितनी अनन्त की ओर बढ़ेंगी, उसमें झाँककर देखने से मानवीय अस्तित्व का अर्थ और प्रयोजन उतना ही स्पष्ट होता चला जायेगा। शर्त यह रहेगी कि हमारी अपनी अन्वेषण बुद्धि का भी विकास और विस्तार हो। यदि हमारी बुद्धि, विचार और ज्ञान मात्र पेट, प्रजनन, तृष्णा, अहंता तक ही सीमित रहता है, तब तो हम पड़ोस को भी नहीं जान सकेंगे, पर यदि इन सबसे पूर्वाग्रह मुक्त हों तो ब्रह्माण्ड इतनी खुली और अच्छे अक्षरों में लिखी चमकदार पुस्तक है कि उससे हर शब्द का अर्थ, प्रत्येक अस्तित्व का अभिप्राय समझा जा सकता एवं अनुभव किया जा सकता है।“
वस्तुतः चेतना का मुख्य गुण है-विकास। जहाँ भी चेतना या जीवन का अस्तित्व विद्यमान दिखाई देता है, वहाँ अनिवार्य रूप से विकास, वर्तमान स्थिति से आगे बढ़ने की हलचल दिखाई देती है। इस दृष्टि से मनुष्यों, जीव-जन्तु और पेड़-पौधों को ही जीवित माना जाता है। परन्तु भारतीय अध्यात्म की मान्यता है कि जड़ कुछ है ही नहीं, सब कुछ चैतन्य ही है। सुविधा के लिए स्थिर, निष्क्रिय और यथास्थिति में बने रहने वाली वस्तुओं को जड़ कहा जाता है, परन्तु वस्तुतः वे प्रचलित अर्थो में जड़ है ही नहीं। सृष्टि के इस विराट रूप, क्रमिक विस्तार एवं सतत गतिशीलता के मूल में झाँकने पर वैज्ञानिक पाते है कि यह सब एक सुनियोजित चेतना की विधि व्यवस्था के अन्तर्गत सम्पन्न हुआ क्रियाकलाप है।
इस सम्पूर्ण विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य को यह नहीं समझना चाहिए कि वह इस सृष्टि का सर्वतः स्वतन्त्र सदस्य है और उसे कर्म करने की जो स्वतन्त्रता मिली है, उसके अनुसार वह इस सृष्टि के महानियंता की नियामक व्यवस्था द्वारा निर्धारित दण्ड से भी बच पायेगा। इस विराट ब्रह्माण्ड में पृथ्वी का ही अस्तित्व एक धूलिकण के बराबर नहीं है तो मनुष्य का स्थान कितना बड़ा होगा? फिर भी मनुष्य नाम का यह प्राणी इस पृथ्वी पर कैसे-कैसे प्रपंच फैलाये हुए है यह जानने और उसे उस अन्तिम मार्ग से परिचय कराने हेतू ही इस ”विश्वशास्त्र“ को प्रस्तुत किया गया है। वस्तुतः यथार्थ में ऐसा होना चाहिए कि जीवकोपार्जन हेतू ज्ञान व कर्म मनुष्य-मनुष्य के अनुसार अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु जीवन का ज्ञान एक ही होना चाहिए और यदि मानव जाति के नियंतागण ऐसा कर सके तो भविष्य की सुरक्षा हेतू बहुत बड़ी बात होगी। साथ ही ब्रह्माण्ड के अनेक रहस्यों को जानने के लिए मनुष्य के शक्ति का एकीकरण भी कर सकने में हम सफल होगें।
जब मनुष्य वैश्विक ज्ञान-ध्यान-चेतना से मुक्त केवल स्वयं में ही स्थित रहता है तब वह मानव है, जब मनुष्य वैश्विक ज्ञान-ध्यान-चेतना से युक्त स्वयं में ही स्थित रहता है तब वह पूर्ण मानव है और जब मनुष्य वैश्विक ज्ञान-ध्यान-चेतना से युक्त होकर विश्व-ब्रह्माण्ड को अपना कार्य क्षेत्र समझ उसके लिए कार्य करता है तब वह ईश्वरीय मानव की अवस्था में होता है।
मनुष्य के समक्ष अनेक तर्क हैं, समस्यायें हैं, प्रश्न हैं, सफलताएँ हैं, असफलताएँ हैं। इसलिए उसे ऐसा भी लगता है कि कोई पूर्ण मानव नहीं हो सकता। अगर इसे स्वीकार भी कर लिए जाये तो क्या इस पूर्णता के लक्ष्य को पाने के लिए प्रयत्न भी बन्द कर देना चाहिए? तब तो मनुष्य, मानव से हिंसक पशु मानव में परिवर्तित होने लगेगा। इसलिए पूर्ण मानव का एक मापदण्ड निर्धारित कर हमें उस ओर ही जाना होगा, कम से कम लक्ष्य सत्य-शिव-सुन्दर होगा तो हम जितना भी उस ओर चले सके सत्य-शिव-सुन्दर के ही दिशा में हमारा विकास होगा।
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