पहले अदृश्य सात मनु और अब दृश्य आठवाँ सांवर्णि मनु मैं
अदृश्य सात मनु
मन्वन्तर
हिन्दू पुराण के अनुसार ब्रह्माण्ड का सृजन क्रमिक रूप से सृष्टि के ईश्वर ब्रह्मा द्वारा होता है जिनकी जीवन 100 ब्राह्म वर्ष होता है। ब्रह्मा के 1 दिन को 1 कल्प (1. हेमत् कल्प, 2. हिरण्यगर्भ कल्प, 3. ब्राह्म कल्प, 4. पाद्य्म कल्प, 5. श्वेत बाराह कल्प-वर्तमान) कहते हैं। 1 कल्प, 14 मनु (पीढ़ी) के बराबर होता है। 1 मनु का जीवन मनवन्तर कहलाता है और 1 मनवन्तर में 71 चतुर्युग (अर्थात 71 बार चार युगों का आना-जाना) के बराबर होता है। ब्रह्मा का एक कल्प (अर्थात 14 मनु अर्थात 71 चतुर्युग) समाप्त होने के बाद ब्रह्माण्ड का एक क्रम) समाप्त हो जाता है और ब्रह्मा की रात आती है। फिर सुबह होती है और फिर एक नया कल्प शुरू होता है। इस प्रकार ब्रह्मा 100 वर्ष व्यतीत कर स्वयं विलिन हो जाते हैं। और पुनः ब्रह्मा की उत्पत्ति होकर उपरोक्त क्रम का प्रारम्भ होता है। गिनीज बुक आॅफ वर्ल्ड रिकार्ड्स ने कल्प को समय का सर्वाधिक लम्बा मापन घोषित किया है।
हिन्दू धर्म अनुसार, मानवता के प्रजनक की आयु होती है। यह समय मापन की खगोलीय अवधि है। मन्वन्तर एक संस्कृत शब्द है, जिसका संधि-विच्छेद करने पर मनु़ अन्तर मिलता है। इसका अर्थ है मनु की आयु।
प्रत्येक मन्वन्तर एक विशेष मनु द्वारा रचित एवं शासित होता है, जिन्हें ब्रह्मा द्वारा सृजित किया जाता है। मनु विश्व की और सभी प्राणियों की उत्पत्ति करते हैं, जो कि उनकी आयु की अवधि तक बनती और चलती रहतीं हैं, (जातियां चलतीं हैं, ना कि उस जाति के प्राणियों की आयु मनु के बराबर होगी)। उन मनु की मृत्यु के उपरांत ब्रह्मा फिर एक नये मनु की सृष्टि करते हैं, जो कि फिर से सभी सृष्टि करते हैं। इसके साथ साथ विष्णु भी आवश्यकता अनुसार, समय समय पर अवतार लेकर इसकी संरचना और पालन करते हैं। इनके साथ ही एक नये इंद्र और सप्तर्षि भी नियुक्त होते हैं।
चैदह मनु और उनके मन्वन्तर को मिलाकर एक कल्प बनता है। यह ब्रह्मा का एक दिवस होता है। यह हिन्दू समय चक्र और वैदिक समय रेखा के अनुसार होता है। प्रत्येक कल्प के अन्त में प्रलय आती है, जिसमें ब्रह्माण्ड का संहार होता है और वह विराम की स्थिति में आ जाता है, जिस काल को ब्रह्मा की रात्रि कहते हैं।
इसके उपरांत सृष्टिकर्ता ब्रह्मा फिर से सृष्टि रचना आरम्भ करते हैं, जिसके बाद फिर संहारकर्ता भगवान शिव इसका संहार करते हैं। और यह सब एक अंतहीन प्रक्रिया या चक्र में होता रहता है।
1. महर्षिदयानन्द रचित ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के आधार पर गणना
सृष्टि कि कुल आयु - 4294080000 वर्ष इसे कुल 14 मन्वन्तरों मे बाँटा गया है। वर्तमान मे 7वें मन्वन्तर अर्थात् वैवस्वत मनु चल रहा है। इस से पूर्व 6 मन्वन्तर जैसे स्वायम्भव, स्वारोचिष, औत्तमि, तामस, रैवत, चाक्षुष बीत चुके है और आगे सावर्णि आदि 7 मन्वन्तर और भी आयेंगे।
1 मन्वन्तर त्र 71 चतुर्युगी
1 चतुर्युगी त्र चार युग (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग)
चारों युगों की आयु -
सतयुग = 1728000 वर्ष
त्रेतायुग = 1296000 वर्ष
द्वापरयुग = 864000 वर्ष
कलियुग = 432000 वर्ष
इस प्रकार 1 चतुर्युगी की कुल आयु = 1728000 + 1296000 + 864000 + 432000 = 4320000 वर्ष
1 मन्वन्तर = 71 X 4320000 (एक चतुर्युगी) = 306720000 वर्ष चूंकि ऐसे - ऐसे 6 मन्वन्तर बीत चुके है इसलिए
6 मन्वन्तर की कुल आयु = 6 X 306720000 = 1840320000 वर्ष
वर्तमान मे 7 वें मन्वन्तर के भोग मे यह 28वीं चतुर्युगी है इस 28वीं चतुर्युगी मे 3 युग अर्थात् सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग बीत चुके है और कलियुग का 5115 वां वर्ष चल रहा है
27 चतुर्युगी की कुल आयु = 27 X 4320000 (एक चतुर्युगी) = 116640000 वर्ष
और 28वें चतुर्युगी के सतयुग, द्वापर, त्रेतायुग और कलियुग की 5115 वर्ष की
कुल आयु = 1728000 + 1296000 + 864000 + 5115 = 3893115 वर्ष
इस प्रकार वर्तमान में 28 वें चतुर्युगी के कलियुग की 5115 वें वर्ष तक की
कुल आयु = 116640000 + 3893115 = 120533115 वर्ष
इस प्रकार कुल वर्ष जो बीत चुके है-
6 मन्वन्तर की कुल आयु + 7 वें मन्वन्तर के 28वीं चतुर्युगी के कलियुग की 5115 वें वर्ष तक की
कुल आयु = 1840320000 + 120533115 = 1960853115 वर्ष
अतः वर्तमान मे 1960853115 वां वर्ष चल रहा है
सृष्टि की बची हुई आयु = 4294080000 (सृष्टि की कुल आयु) - 1960853115 (बीत चुकी आयु) = 2333226885 वर्ष।
और बचे हुए 2333226885 वर्ष भोगने है।
2. पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य के आधार पर गणना
”अखिल विश्व गायत्री परिवार“ के संस्थापक, ”युग निर्माण योजना“ के संचालक व 3000 से भी अधिक पुस्तक-पुतिकाओं के लेखक पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य (जन्म-20 सितम्बर, 1911, मृत्यु-2 जून, 1990), जिनके कई लाख समर्थक-सदस्य हैं, के द्वारा लिखित व विश्लेषित पुस्तक ”युग-परिवर्तन: कैसे और कब“ में काल सम्बन्धित शास्त्रीय व्याख्या व कलयुग की समाप्ति का तथ्य प्रस्तुत किया गया है। (विस्तार से विश्वशास्त्र के विषय प्रवेश में दिया गया है)
पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा विश्लेषण के अनुसार -युगों की गणना कितने प्रकार से होती है। उनमें एक गणना हजार वर्ष की है। प्रायः हर सहस्त्राब्दि में वातावरण बदल जाता है, परम्पराओं में उल्लेखनीय हेर-फेर होता है। बीसवीं सदी के अन्त और इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ को एक युग के समापन और दूसरे युग का शुभारम्भ माना गया है। इसी भाँति पंचांगों में कितने ही संवत्सरों के आरम्भ सम्बन्धी मान्यताओं की चर्चा है। एक मत के अनुसार युग करोड़ो वर्ष का होता है। इस आधार पर मानवीय सभ्यता की शुरूआत के खरबों वर्ष बीत चुके हैं और वर्तमान कलयुग की समाप्ति में अभी लाखों वर्ष की देरी है। पर उपलब्ध रिकार्डो के आधार पर तत्ववेक्ताओं और इतिहासकारों का कहना है कि मानवीय विकास अधिकतम उन्नीस लाख वर्ष पुराना है। इसकी पुष्टि भी आधुनिक तकनीकों द्वारा की जा चुकी है।
उनके विश्लेषण के अनुसार- सतयुग त्र 4800 वर्ष, त्रेतायुग त्र 3600 वर्ष, द्वापरयुग त्र 2400 वर्ष और कलियुग त्र 1200 वर्ष का होता है।
उपरोक्त दोनों गणनाओं में इतना अन्तर है कि एक मनुष्य इतने समयान्तराल में प्रमाणिकता के लिए जीवित नहीं रह सकता। अतः जो महर्षिदयानन्द रचित ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के आधार पर गणना को ठीक मानते हैं वे उस समय के लिए प्रतीक्षा करें और जो पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य के आधार पर गणना को आधार मानते हैं वे वर्तमान समय की आवश्यकता और उसकी उपयोगिता पर कार्य करने वालों में खोजें।
वर्तमान श्वेतवाराह कल्प के मनु और वंश
1. मनुर्भरत वंश की प्रियव्रत शाखा
अ. पौराणिक वंश अवतार काल
01. स्वायंभुव मनु यज्ञ भूतकाल
02. स्वारचिष मनु विभु भूतकाल
03. उत्तम मनु सत्यसेना भूतकाल
04. तामस मनु हरि भूतकाल
05. रैवत मनु वैकुण्ठ भूतकाल
2. मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा
06. चाक्षुष मनु अजित भूतकाल
ब. ऐतिहासिक वंश
07. वैवस्वत मनु वामन वर्तमान
स. भविष्य के वंश
08. सांवर्णि मनु सार्वभौम भविष्य
09. दत्त सावर्णि मनु रिषभ भविष्य
10. ब्रह्म सावर्णि मनु विश्वकसेन भविष्य
11. धर्म सावर्णि मनु धर्मसेतू भविष्य
12, रूद्र सावर्णि मनु सुदामा भविष्य
13. रौच्य या देव सावर्णि मनु योगेश्वर भविष्य
14. भीम या इन्द्र सावर्णि मनु वृहद्भानु भविष्य
वैदिक-सनातन-हिन्दू धर्म में जो बातें उपलब्ध होती है, उनमें सबसे प्राचीन वंश स्वायंभुव मनु से प्रारम्भ होता है। स्वायंभुव मनु से पहले का समय प्रागैतिहासिक काल था। स्वायंभुव मनु से ही ऐतिहासिक काल प्रारम्भ होता है। स्वायंभुव मनु से प्रारम्भ हुये ऐतिहासिक काल को पौराणिक, ऐतिहासिक व भविष्य के वंश में विभाजित किया जा सकता है। स्वायंभुव मनु के स्वयं उत्पन्न होने के कारण इन्हें स्वायंभुव मनु कहा गया है यह सर्वमान्य सत्य है कि बिना स्त्री-पुरूष के सम्बन्ध से किसी का उत्पन्न होना विश्वसनीय नहीं माना जा सकता है। यह हो सकता है कि स्वायंभुव मनु के पूर्वजों के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं थी इसलिए इन्हें स्वायंभुव मनु कहा गया। स्वायंभुव मनु के बारे में भिन्न-भिन्न धर्म ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न नाम से वर्णन किया गया है जैसे आदेश्वर, अशिरष, वैवस्वत मनु, आदम और नूह। अतः यहाँ से शुरू होता है - ”सर्वप्रथम विकसित मानव का इतिहास“।
वंश - अ. पौराणिक वंश
मनुर्भरत वंश की प्रियव्रत शाखा में 1. स्वायंभुव 2. स्वारचिष, 3. उत्तम, 4. तामस, 5. रैवत मनु हुए। मनुर्भरत वंश की प्रियव्रत शाखा स्वांयभुव मनु से लेकर 28वें पीढ़ी में 5वें रैवत मनु तक पैदा हुए। उसके बाद इस वंश के शासकों का पता नहीं चलता।
मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा में 6वें मनु चाक्षुष और वर्तमान में चल रहे 7वें मनु वैवस्वत मनु हुए और इस शाखा से ही भारतीय राजवंश चला तथा 45वें पीढ़ी के प्रजापति दक्ष पर समाप्त हुआ। मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा से 36वें पीढ़ी के प्रजापति व 6वें मनु चाक्षुष मनु थे। इनके वंशज 10 पीढ़ी तक प्रजापति रहे। 46वें पीढ़ी के दक्ष इनमें से अन्तिम प्रजापति थे।
स्वायंभुव मनु से लेकर दक्ष वंश तक का काल सत्ययुग काल कहा गया। दक्ष वंश के प्रजापति उर के वंशजों का एक राज्य कर्तार प्रदेश (वर्तमान कतर) में था जहाँ का राजा सर्वप्रथम विष्णु कर्तार नाम से हुआ। इस गद्दी पर बैठने वाले सभी विष्णु कर्तार कहलाये। गद्दी पर बैठने वाले पाँचवें विष्णु कर्तार के पुत्र का नाम नाभि कर्तार, और नाभि कर्तार के पुत्र का नाम कमल कर्तार, और कमल कर्तार के पुत्र का नाम ब्रह्मा कर्तार था। विष्णु कर्तार के साम्राज्य का विस्तार प्रथम विष्णु कर्तार ने वर्तमान क्षीर सागर तथा अराल सागर तक फैलाया। इन सागरों के आस-पास नागवंशीयों तथा गरूण वंशीयों का साम्राज्य था जिसे प्रथम विष्णु ने विजित कर अपने अधीन कर लिया। ब्रह्मा कर्तार ने ही सर्वप्रथम वेदों की ऋचाओं की संरचना एवं संकलन किया। देव-दैत्य-दानव-नाग-गरूड़ इत्यादि दायाद बान्धव जन एक ही स्थान कश्यप सागर तट पर रहते थे। तब उनमें विविध भू-सम्पत्ति के मामले में परस्पर संग्राम होते रहे (मत्स्य पुराण, 47.41)।
वंश - ब. ऐतिहासिक वंश
ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों 1. मन से मरीचि, 2. नेत्रों से अत्रि, 3. मुख से अंगिरा, 4. कान से पुलस्त्य, 5. नाभि से पुलह, 6. हाथ से कृतु, 7. त्वचा से भृगु, 8. प्राण से वशिष्ठ, 9. अँगूठे से दक्ष तथा 10. गोद से नारद उत्पन्न हुये। मरीचि ऋषि, जिन्हें ‘अरिष्टनेमि’ के नाम से भी जाना जाता है, का विवाह देवी कला से हुआ। संसार के सर्वप्रथम मनु-स्वायंभुव मनु की पुत्री देवहूति से कर्दम ऋषि का विवाह हुआ था। देवी कला कर्दम ऋषि की पुत्री और विश्व का प्राचीन और प्रथम सांख्य दर्शन को देने वाले कपिल देव की बहन थी। मरीचि ऋषि द्वारा देवी कला की कोख से महातेजस्वी दो पुत्र 1. कश्यप और 2. अत्रि हुये। 1. कश्यप से सूर्य वंश और ब्रह्म वंश तथा 2. अत्रि से चन्द्र वंश का आगे चलकर विकास हुआ।
आदि पुरूष महर्षि कूर्म कश्यप - त्रेता युग के प्रारम्भ में मारीचि कश्यप हुए हैं (वायु पुराण, 6.43)। सम्पूर्ण मानव जाति के आदि पुरूष कूर्म कश्यप अत्यन्त पुरातन काल में विद्यमान थे। कश्यप ऋषि प्राचीन वैदिक ऋषियों में प्रमुख ऋषि हैं जिनका उल्लेख एक बार ऋग्वेद में हुआ है। अन्य संहिताओं में भी यह नाम बहुप्रयुक्त है। इन्हें सर्वदा धार्मिक एंव रहस्यात्मक चरित्र वाला बतलाया गया है एंव अतिप्राचीन कहा गया है। एक बार समस्त पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर परशुराम ने वह कश्यप मुनि को दान कर दी। कश्यप मुनि ने कहा-”अब तुम मेरे देश में मत रहो।“ अतः गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए परशुराम ने रात को पृथ्वी पर न रहने का संकल्प किया। वे प्रति रात्रि में मन के समान तीव्र गमनशक्ति से महेंद्र पर्वत पर जाने लगे। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार उन्होंने विश्वकर्मभौवन नामक राजा का अभिषेक कराया था। ऐतरेय ब्राह्मणों ने कश्यपों का सम्बन्ध जनमेजय से बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति को कश्यप कहा गया है
”स यत्कुर्मो नाम। प्रजापतिः प्रजा असृजत। यदसृजत् अकरोत् तद् यदकरोत् तस्मात् कूर्मः कश्यपो वै कूर्म्स्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः कश्यपः“
महर्षि कश्यप एक महान विचारक, वक्ता, वैज्ञानिक, विद्वान, कलाकार, साहित्यकार, कवि और अत्यन्त कुशल कृषिकार थे। वे सफल साधक और महान समाजसेवी थे। वे महान तपस्वी और त्यागी थे। सद्गृहस्थ होने के साथ-साथ उन्होंने जनहित के लिए अपने जीवन को तपा-तपा कर अन्यन्त निर्मल और दीप्तिमान कर लिया था। किसी भी प्रकार का दोष उनमें शेष नहीं बचा था। महर्षि कूर्म ने कृषि और औषधियों के सम्बन्ध में वैज्ञानिक प्रयोग करके उसकी प्रगति के लिए अनेक प्रयास किये। इस दिशा में उन्हें सफलता भी मिली। उन्होंने कृषि के विकास के लिए जल में डूबी हुई भूमि को जल से बाहर निकालने का भी पुरूषार्थ किया। अपने पराक्रम और चतुराई से उन्होंने एक विशाल भूभाग पर अपना स्थायी आधिपत्य स्थापित कर लिया था। कश्यप द्वीप के नाम से उन्होंने मध्य एशिया में अपना उपनिवेश स्थापित किया था (महाभारत, भीष्म पर्व, 6.11)। कश्यप सागर (वर्तमान कैस्पियन सी) उनकी सीमा के भीतर था (हिस्ट्री आॅफ पर्सिया, खण्ड-1, प्ष्ठ-28)। कश्यप सागर वर्तमान समय में ईरान के काश्यपी प्रदेश में है।
महर्षि कश्यप ने कश्यप सागर के किनारे अनेक विकास कार्य समपन्न किये। इसी कश्यप सागर में ही पौराणिक समुद्र-मन्थन हुआ था। समुद्र मन्थन से लक्ष्मी की उपलब्धि हुई थी। इस आख्यान का तात्पर्य यही है कि महर्षि कश्यप के निर्देश में आर्यजनों ने मध्य एशिया में अपने श्रम, चातुर्य और पराक्रम के सहारे सोने की खानों का पता लगाया और खोदाई करके बड़ी मात्रा में सोना प्राप्त किया (कूर्म पुराण, पूर्व भाग, 1.27-29)।
कर्मशीलता और दूरदर्शिता के बल पर ही परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना की, इसलिए उसे ”कूर्म“ और ”कश्यप“ कहा जाता है। ”कूर्म“ का शाब्दिक अर्थ ”कर्मशील“ और ”कश्यप“ का शाब्दिक अर्थ ”दृष्टा“ है। कर्म और ज्ञान दोनों की समन्वित शक्तियों के बल पर अभी भी सृष्टि का विकास हो रहा है। सृष्टिकर्ता को कूर्म कहा जाता है क्योंकि उसमें श्रेष्ठ कर्मशीलता और पराक्रम है। साथ ही वह महान ज्ञानी, सर्वदृष्टा और सूक्ष्मदर्शी है, इसलिए उसे कश्यप भी कहा जाता है। इस प्रकार कूर्म और कश्यप दोनों एक ही शक्ति के दो पहलू हैं।
भागवत पुराण, मार्कण्डेय पुराण के अनुसार महर्षि कश्यप का विवाह दक्ष वंश की 13 कन्याओं से हुआ जिनके नाम हैं- 1. दिति, 2. दनु, 3. क्रोधवशा, 4. ताम्रा, 5. काष्ठा, 6. अरिष्ठा, 7. सुरसा, 8. इला, 9. मुनी, 10. सुरभि, 11. शरमा और 12. तिमिय 13. अदिति। इन 13 स्त्रीयों से 13 मानव जातियाँ बनीं और इनसे इस वंश का विस्तार होता गया।
कश्यप की 01. दिति नामक स्त्री के ज्येष्ठ पुत्र देव से देव जाति की स्थापना देवराज इन्द्र ने अपने पिता देव के नाम पर किया था। वैदिक काल से सुर और असुर एक ही थे। बाद में इनको अलग-अलग किया गया। कश्यप की 1. दिति नामक स्त्री के दूसरे पुत्र दैत्य से दैत्य जाति की स्थापना हुई।
कश्यप की 02. दनु नामक स्त्री से उत्पन्न वंश दानव वंश कहा गया।
कश्यप की 03. क्रोधवसा नामक स्त्री से उत्पन्न पुत्र का नाम नाग था और इनके वंशज नागवंशी कहलाये।
कश्यप की 04. ताम्रा नामक स्त्री से उत्पन्न वंश का नाम जटायुवंश और गरूणवंश था।
कश्यप की 05. काष्ठा नामक स्त्री से घोड़े आदि एक खुर वाले पशु उत्पन्न हुए।
कश्यप की 06. अरिष्ठा नामक स्त्री से से गन्धर्व का जन्म हुआ।
कश्यप की 07. सुरसा नामक स्त्री से यातुधान (राक्षस) उत्पन्न हुए।
कश्यप की 08. इला नामक स्त्री से वृक्ष, लता आदि पृथ्वी में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों का जन्म हुआ।
कश्यप की 09. मुनी नामक स्त्री से अप्सरागण का जन्म हुआ।
कश्यप की 10. सुरभि नामक स्त्री से भैंस, गाय तथा दो खुर वाले पशुओं की उत्पति की।
कश्यप की 11. शरमा नामक स्त्री से बाघ आदि हिंसक जीवों को पैदा किया।
कश्यप की 12. तिमिय नामक स्त्री से जलचर जन्तुओं को अपनी संतान के रूप में उत्पन्न किया।
कश्यप की 13. अदिति नामक स्त्री से आदित्य (सूर्य) उत्पन्न हुए। अदिति, मनुर्भरतवंश के 45वीं पीढ़ी में उत्तानपाद शाखा के प्रजापति दक्ष की पुत्री थी (बृहद्वेता, 3.57)। प्राचीन विश्व में प्रमुख 2 वंश 1. सूर्य वंश और 2. चन्द्र वंश इन्हीं की सन्तानों से विकसित हुए।
प्राचीन विश्व में 2 वंश ही प्रमुख रूप से प्रचलित रहें हैं- 1. सूर्य वंश और 2. चन्द्र वंश। सूर्यवंश (सूर्य उपासक) और चन्द्रवंश (चन्द्र उपासक), इन दो वंशों से ही क्षत्रियों की उत्पत्ति हुई है। सूर्यवंश के मूल पुरूष सूर्य तथा चन्द्रवंश के प्रथम पुरूष बुध दोनों के नाना मनुर्भरत दक्ष प्रजापति थे। ये दोनों आपस में मौसेरे भाई थे। इन वंशों के बीच आपस में वैवाहिक सम्बन्ध होते थे।
कश्यप-अदिति के आदित्य (सूर्य) - इनकी चार पत्नीयाँ 1. तपसी 2. संज्ञा, 3. बडवा और 4. छाया थी। चारो पत्नीयों से कुल 16 पुत्र (पत्नी संज्ञा से एक यम, पत्नी बडवा से बारह पुत्र, पत्नी तपसी से एक और पत्नी छाया से दो पुत्र) हुये।
सूर्य की पत्नी 1. तपसी से एक पुत्र तपन सन्यासी हो गये।
सूर्य की पत्नी 2. संज्ञा से यम नामक पुत्र और यमी नामक पुत्री थी। यम की दो पत्नीयाँ 1. संध्या और 2. वसु थी। यम की पहली पत्नी संध्या से सांध्य (सीदीयन जाति) पुत्र हुये जिनके तीन पुत्र 1. हंस (जर्मन जाति) 2. नीप (नेपियन जाति) 3. पाल (पलास जाति)। यम की दूसरी पत्नी वसु से 8 पुत्र 1. धर 2. धुन 3. सोम 4. अह 5. अनिल 6. अनल 7. प्रत्यूष और 8. प्रभाष पैदा हुये जो अष्टवसु कहलाये। अष्टवसु धर की पत्नी उमा से महाप्रतापी पुरूष त्रयम्बक रूद्र पुत्र उत्पन्न हुए थे जिन्हें शिव की उपाधि मिली। यही रूद्र शिव शिवदान (वर्तमान सूडान) प्रदेश के राजा थे जिन्हें दक्ष ने अपनी पुत्री उमा के विवाह में दान में दिया था। यही उमा अपने पति का अपमान न सहन कर सकने के कारण अपने पिता के यज्ञ कुण्ड में कूदकर आत्मदाह कर लिया था। इस पर क्रुद्ध होकर शिव ने इस वंश का नाश ही कर दिया था और यहीं से उमा का नाम सती हो गया। शिव गद्दी पर बैठने वाले सभी राजा शिव कहलायें। इस वंश में 12 चक्रवर्ती राजा हुये।
वंश - ब. ऐतिहासिक वंश 1. ब्रह्म वंश
सूर्य की पत्नी 3. बडवा से जन्में 12 पुत्रों को जहाँ वेदों में आदित्य कहा गया वहीं सूर्य को भी आदित्य कहा गया है।
सूर्य की पत्नी 3. बड़वा के सबसे बड़े आदित्य वरूण से ही ब्रह्मवंश चलां। वरूण की प्रथम पत्नी दैत्यराज हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या थी और द्वितीय पत्नी दानव राज पुलोमा की पुत्री थी। इसी ब्रह्म वंश में ही अंगिरा, भृगु उनके बाद बृहस्पति, शुक्र हुये। इनके वंश में ही दधीचि, सारस्वत, उर्व, जमदग्नि, परशुराम इत्यादि हुए।
वंश - ब. ऐतिहासिक वंश 2. सूर्य वंश
सूर्य की पत्नी 3. बड़वा के सबसे छोटे आदित्य विवस्वान से 7वें मनु - वैवस्वत मनु हुये। महाराज मनु के दूसरी पीढ़ी में कुल 10 सन्तानें 1. इक्ष्वाकु, 2. नाभागारिष्ट, 3. कारूष, 4. धृष्ट, 5. नाभाग या नृग, 6. नरिश्यन्त, 7. धृषध, 8. प्रान्शु या कुशनाभ, 9. शर्याति और 10. पुत्री इला (इनका विवाह चन्द्र के पुत्र बुध से हुआ) हुयीं। महाराज मनु के चालीसवीं पीढ़ी में राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुध्न इत्यादि हुए। इकतालीसवीं पीढ़ी में राम के दो पुत्र (कुश, लव), लक्ष्मण के दो पुत्र (अंगद, चन्द्रकेतु), भरत के दो पुत्र (तक्ष, पुष्कल) व शत्रुध्न के दो पुत्र (सुबाहु, श्रुतसेन) हुये।
वंश - ब. ऐतिहासिक वंश 3. चन्द्र वंश
ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों 1. मन से मरीचि ऋषि द्वारा देवी कला की कोख से महातेजस्वी दो पुत्र 1. कश्यप और 2. अत्रि हुये। 1. कश्यप से सूर्य वंश और ब्रह्म वंश तथा 2. अत्रि से चन्द्र वंश का आगे चलकर विकास हुआ।
अत्रि के पुत्र चन्द्र हुये। मनुर्भरतवंश के 45वीं पीढ़ी में उत्तानपाद शाखा के प्रजापति दक्ष की 60 कन्याओं में से 27 कन्याओं का विवाह चन्द्र से हुआ था। इन 27 कन्याओं के नाम से 27 नक्षत्रों 1. अश्विनी 2. भरणी 3. कृत्तिका 4. रोहिणी 5. मृगशिरा 6. आद्रा 7. पुनर्वसु 8. पुष्य 9. आश्लेषा 10. मघा 11. पूर्वा फाल्गुनी 12. उत्तरा फाल्गुनी 13. हस्ति 14. चित्रा 15. स्वाति 16. विशाखा 17. अनुराधा 18. ज्येष्ठा 19. मूल 20. पूर्वाषाढ़ 21. उत्तराषाढ़ 22. श्रवण 23. घनिष्ठा 24. शतभिषा 25. पूर्वभाद्रपद 26. उत्तर भाद्रपद 27. रेवती) का नाम पड़ा जो आज तक प्रचलित है। चन्द्र के नाम पर चन्द्रवंश चला। चन्द्र बहुत ही विद्वान, भूगोलवेत्ता, सुन्दरतम व्यक्तित्व वाला तथा महान पराक्रमी था। साहित्यिक अभिलेखों के अनुसार सुन्दर होने के कारण देवगुरू वृहस्पति की पत्नी तारा इस पर आसक्त हो गई, जिसे चन्द्र ने पत्नी बना लिया। इस कारण भयानक तारकायम संग्राम हुआ।
चन्द्रवंश के प्रमुख राजवंश के अतिरिक्त इन कन्याओं से कई कुल उत्पन्न हुए। चन्द्र के पुत्र बुध हुये इनका विवाह सूर्य के पुत्र अर्यमा के पुत्र 7वंे मनु-वैवस्वत मनु की पुत्री इला से हुआ। चन्द्रवंश यहीं से चला। इला के नाम पर इसे ऐल वंश भी कहा जाता है। सर्वप्रथम सूर्य की पत्नी 3. बड़वा के सबसे छोटे आदित्य 7वें मनु - वैवस्वत मनु अपने दामाद चन्द्र के पुत्र बुध के साथ ईरान के रास्ते हिन्दूकुश पर्वत पार करके भारत भूमि पर आये। वैवस्वत मनु ने अपने पूर्वज सूर्य के नाम पर सरयू नदी के किनारे सूर्य मण्डल की स्थापना किये और अपनी राजधानी अवध अर्थात वर्तमान भारत के अयोध्या में बनायी जिसे सूर्य मण्डल कहा जाता है। इसी प्रकार बुध ने अपने पूर्वज के नाम से गंगा-यमुना के संगम के पास प्रतिष्ठानपुरी में चन्द्र मण्डल की स्थापना कर अपनी राजधानी बनायी जो वर्तमान में झूंसी-प्रयाग भारत के इलाहाबाद जनपद में है। सूर्य मण्डल और चन्द्र मण्डल का संयुक्त नाम ”आर्यावर्त“ विख्यात हुआ। आर्यो का आगमन काल ई.पूर्व 4584 से 4500 ई.पूर्व के बीच माना जाता है। इसी समय के बीच विश्व में नदी घाटी सभ्यता का अभ्युदय हुआ था। बुध के दो पुत्र सुद्युम्न और पुरूरवा हुये।
चन्द्र वंश के राजा ययाति की प्रथम पत्नी देवयानी (दैत्य गुरू शुक्राचार्य की पुत्री) से दो पुत्र यदु (यदुवंश) और तुर्वसु (तुर्वसु) तथा दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा (दानव वंश के वृषपर्वा की पुत्री) से तीन पुत्र पुरू (पुरू वंश), अनु (अनुवंश) और द्रह्यु (द्रह्यु वंश) हुये। इन पाँच पुत्रों से पाँच शाखाएँ चली।
यदुवंश में श्रीकृष्ण, बलराम के वंशजों का भी बहुत अधिक विस्तार हुआ जिनके वंशज आज भी हैं। श्रीकृष्ण (पत्नीयाँ 1. रूक्मिणी 2. कालिन्दी 3. मित्रवृन्दा 4. सत्या 5. भद्रा 6. जाम्बवती 7. सुशीला 8. लक्ष्मणा) के 10 पुत्र 1. प्रद्युम्न 2. चारूदेण 3. सुवेष्ण 4. सुषेण 5. चारूगुप्त 6. चारू 7. चारूवाह 8. चारूविन्द 9. भद्रचारू 10. चारूक हुये। श्रीकृष्ण के बाद मथुरा के राजा ब्रजनाभ हुये।
इस प्रकार चन्द्र के वंशजों से चन्द्रवंश का साम्राज्य बढ़ा जिनका सम्पूर्ण भारत में फैलाव होता गया। वर्तमान में इस चन्द्रवंश की अनेक शाखाएँ है। विझवनिया चन्देल वंश (विशवन क्षेत्र में आबाद होने के कारण विशवनिया या विझवनिया नाम पड़ा। इनकी एक शाखा विजयगढ़ क्षेत्र सोनभद्र, दूसरी जौनपुर जिले के सुजानगंज क्षेत्र के आस-पास 15 कि.मी. क्षेत्र में आबाद हैं। इनकी दो मुख्य तालुका खपड़हा और बनसफा जौनपुर में है। इसी खपड़हा से श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के पूर्वज नियामतपुर कलाँ, शेरपुर, बगही, चन्दापुर, चुनार क्षेत्र, मीरजापुर में गये थे। श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ उनके तेरहवें पीढ़ी के हैं।)
वंश - स. भविष्य के वंश
श्री विष्णु पुराण (तृतीय अंश, अध्याय-तीन) में लिखा है कि - वेद रूप वृक्ष के सहस्त्रों शाखा-भेद हैं, उनका विस्तार से वर्णन करने में तो कोई भी समर्थ नहीं है अतः संक्षेप यह है कि प्रत्येक द्वापरयुग में भगवान विष्णु व्यासरूप से अवतीर्ण होते हैं और संसार के कल्याण के लिए एक वेद के अनेक भेद कर देते हैं। मनुष्यों के बल, वीर्य और तेज को अलग जानकर वे समस्त प्राणियों के हित के लिए वेदों का विभाग करते हैं। जिस शरीर के द्वारा एक वेद के अनेक विभाग करते हैं भगवान मधुसूदन की उस मूर्ति का नाम वेदव्यास है।
इस वैवस्वत मनवन्तर (सातवाँ मनु) के प्रत्येक द्वापरयुग में व्यास महर्षियों ने अब तक पुनः-पुनः 28 बार वेदों के विभाग किये हैं। पहले द्वापरयुग में ब्रह्मा जी ने वेदों का विभाग किया। दूसरे द्वापरयुग के वेदव्यास प्रजापति हुए। तीसरे द्वापरयुग में शुक्राचार्य जी, चैथे द्वापरयुग में बृहस्पति जी व्यास हुए, पाँचवें में सूर्य और छठें में भगवान मृत्यु व्यास कहलायें। सातवें द्वापरयुग के वेदव्यास इन्द्र, आठवें के वसिष्ठ, नवें के सारस्वत और दसवें के त्रिधामा कहे जाते हैं। ग्यारहवें में त्रिशिख, बारहवें में भरद्वाज, तेरहवें में अन्तरिक्ष और चैदहवें में वर्णी नामक व्यास हुए। पन्द्रहवें में त्रव्यारूण, सोलहवें में धनंन्जय, सत्रहवे में क्रतुन्जय और अठ्ठारवें में जय नामक व्यास हुए। फिर उन्नीसवें व्यास भरद्वाज हुए, बीसवें गौतम, इक्कीसवें हर्यात्मा, बाइसवें वाजश्रवा मुनि, तेइसवें सोमशुष्पवंशी तृणाबिन्दु, चैबीसवें भृगुवंशी ऋक्ष (वाल्मीकि) पच्चीसवें मेरे (पराशर) पिता शक्ति, छब्बीसवें मैं पराशर, सत्ताइसवें जातुकर्ण और अठ्ठाइसवें कृष्णद्वैपायन। अगामी द्वापरयुग में द्रोणपुत्र अश्वत्थामा वेदव्यास होगें।
सूर्य की पत्नी 4. छाया से दो पुत्र 1. 8वें मनु - सांवर्णि मनु व 2. शनिश्चर हुये। ये 8वें मनु-सांवर्णि मनु के द्वारा ही मनवन्तर बदलेगा साथ ही युग भी बदलेगा। सांवर्णि मनु के गुण अवतार ”सार्वभौम“ हैं ऐसा शास्त्र में दिया गया है।
पहले अदृश्य सात मनु और अब दृश्य आठवाँ सांवर्णि मनु मैं
श्री विष्णु पुराण (तृतीय अंश, अध्याय-दो) में लिखा है कि - यह सम्पूर्ण विश्व उन परमात्मा की ही शक्ति से व्याप्त है, अतः वे ”विष्णु“ कहलाते हैं। समस्त देवता, मनु, सप्तर्षि तथा मनुपुत्र और देवताओं के अधिपति इन्द्रगण, ये सब भगवान विष्णु की ही विभूतियाँ हैं।
सूर्य अपनी पत्नी छाया से शनैश्चर, एक और मनु तथा तपती, तीन सन्तानें उत्पन्न कीं। सूर्य-छाया का दूसरा पुत्र आठवाँ मनु, अपने अग्रज मनु का सवर्ण होने से सावर्णि कहलाया। नवें मनु दक्ष सावर्णि होगें दसवें मनु ब्रह्मसावर्णि होगें, ग्यारहवाँ मनु धर्म सावर्णि बारहवा मनु रूद्रपुत्र सावर्णि तेरहवा रूचि रूद्रपुत्र सावर्णि चैदहवा मनु भीम सावर्णि।
प्रत्येक चतुर्युग के अन्त में वेदों का लोप हो जाता है, उस समय सप्तर्षिगण ही स्वर्गलोक से पृथ्वी में अवतीर्ण होकर उनका प्रचार करते हैं। प्रत्येक सत्ययुग के आदि में (मनुष्यों की धर्म-मर्यादा स्थापित करने के लिए) स्मृति-शास्त्र के रचयिता मनु का प्रादुर्भाव होता है।
इन चैदह मनवन्तरों के बीत जाने पर एक सहस्त्र युग रहने वाला कल्प समाप्त हुआ कहा जाता है। फिर इतने समय की रात्रि होती है।
स्थितिकारक भगवान विष्णु चारों युगों में इस प्रकार व्यवस्था करते हैं- समस्त प्राणियों के कल्याण में तत्पर वे सर्वभूतात्मा सत्ययुग में कपिल आदिरूप धारणकर परम ज्ञान का उपदेश करते हैं। त्रेतायुग में वे सर्वसमर्थ प्रभु चक्रवर्ती भूपाल होकर दुष्टों का दमन करके त्रिलोक की रक्षा करते हैं। तदन्तर द्वापरयुग में वे वेदव्यास रूप धारण कर एक वेद के चार विभाग करते हैं और सैकड़ों शाखाओं में बाँटकर बहुत विस्तार कर देते हैं। इस प्रकार द्वापर में वेदों का विस्तार कर कलियुग के अन्त में भगवान कल्किरूप धारणकर दुराचारी लोगों को सन्मार्ग में प्रवृत्त करते हैं। इसी प्रकार, अनन्तात्मा प्रभु निरन्तर इस सम्पूर्ण जगत् के उत्पत्ति, पालन और नाश करते रहते हैं। इस संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो उनसे भिन्न हो।
एकात्म मन के विचार से निर्मित करना ही ईश्वरीय कार्य है। कालक्रम में यह अन्तर बढ़ जाता है। मनुष्य अपने आवश्यकताओं-संसाधनों में फँस कर मूल सिद्धान्त-विचार से दूर हो जाता है। इस अन्तर को समाप्त करने के लिए मनु का आगमन होता है। मनु, भी मनुष्य ही होते हैं बस वे एकात्म मन के विचार से निर्मित करने के लिए मनुष्यों को उस काल के अनुसार नयी व्यवस्था देते हैं। एक मनवन्तर के अन्तर्गत समय-समय पर इस कार्य को छोटे रूप में अवतारों द्वारा स्थापित किया जाता है। एक मनवन्तर के अन्तर्गत चार युग की व्यवस्था है जो एकात्म मन के विचार में अन्तर आने के समय के कालक्रम का विभाजन है।
सबसे प्राचीन वंश स्वायंभुव मनु के पुत्र उत्तानपाद शाखा में ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में से मन से मरीचि व पत्नी कला के पुत्र कश्यप व पत्नी अदिति के पुत्र आदित्य (सूर्य) की चैथी पत्नी छाया से दो पुत्रों में से एक 8वें मनु - सांवर्णि मनु होगें जिनसे ही वर्तमान मनवन्तर 7वें वैवस्वत मनु की समाप्ति होगी। ध्यान रहे कि 8वें मनु - सांवर्णि मनु, सूर्य पुत्र हैं। ”मैं“, उसके ”सार्वभौम मैं“ का गुण है। ”अहमद“, उसके अपने सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त पर अतिविश्वास होने के कारण अंहकार का नशा अर्थात अहंकार के मद से युक्त अहंकारी जैसा अनुभव करायेगा। उसका कोई गुरू नहीं होगा, वह स्वयं से प्रकाशित स्वयंभू होगा जिसके बारे में अथर्ववेद, काण्ड 20, सूक्त 115, मंत्र 1 में कहा गया है कि
”ऋषि-वत्स, देवता इन्द्र, छन्द गायत्री। अहमिद्धि पितुष्परि मेधा मृतस्य जग्रभ। अहं सूर्य इवाजिनि।“
अर्थात ”मैं परम पिता परमात्मा से सत्य ज्ञान की विधि को धारण करता हूँ और मैं तेजस्वी सूर्य के समान प्रकट हुआ हूँ।“
पहले मनु - स्वायंभुव मनु से 7वें मनु - वैवस्वत मनु तक शारीरिक प्राथमिकता के मनु का कालक्रम हैं। 8वें मनु - सांवर्णि मनु से 14वें और अन्तिम - इन्द्र सांवर्णि मनु तक बौद्धिक प्राथमिकता के मनु का कालक्रम है इसलिए ही 9वें मनु से 14वें मनु तक के नाम के साथ में ”सांवर्णि मनु“ उपनाम की भाँति लगा हुआ है। अर्थात 9वें मनु से 14वें मनु में सार्वभौम गुण विद्यमान रहेगा और बिना ”विश्वशास्त्र“ के उनका प्रकट होना मुश्किल होगा।
मेरा यह जीवन और कार्य 8वें सावर्णि मनु का ही कार्य है जो ”सार्वभौम“ अवतार-गुण से युक्त है। जो पूर्णतः शास्त्र प्रमाणित है। और इस कार्य से श्वेतबाराह कल्प के आठवें मनवन्तर और 29वें चतुर्युगी के प्रथम युग सत्ययुग/स्वर्णयुग का प्रारम्भ होता है।
भविष्य के शेष मनु निम्न होगें-
मनु अवतार काल
09. दत्त सावर्णि मनु रिषभ भविष्य
10. ब्रह्म सावर्णि मनु विश्वकसेन भविष्य
11. धर्म सावर्णि मनु धर्मसेतू भविष्य
12, रूद्र सावर्णि मनु सुदामा भविष्य
13. दैव सावर्णि मनु योगेश्वर भविष्य
14. इन्द्र सावर्णि मनु वृहद्भानु भविष्य
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