श्री मनु शर्मा - ”कृष्ण की आत्मकथा“
परिचय -
सन् 1928 की शरत् पूर्णिमा को अकबरपुर (अब अम्बेडकर नगर), फैजाबाद (उ0प्र0) में जन्में श्री हनुमान प्रसाद शर्मा जो लेखन जगत् में ”मनु शर्मा“ के नाम से विख्यात है। लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास, दो सौ कहानियों और कविताओं के प्रणेता श्री मनु शर्मा की साहित्य साधना हिन्दी की किसी खेमेबंदी से दूर, अपनी ही बनाई पगडंडी पर इस विश्वास के साथ चलती रही है कि ”आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, परसों नहीं तो बरसों बाद मैं डाइनासोर के जिवाश्म की तरह पढ़ा जाऊँगा।“
गोरखपुर विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट. की मानद उपाधि और उत्तर प्रदेश हिन्दी समिति द्वारा ”साहित्य भूषण“ सहित अनेक सम्मानों और पुरस्कारों से विभूषित श्री मनु शर्मा ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लिखा है, पर कथा आपकी मुख्य विधा है। ”तीन प्रश्न“, ”मरीचिका“, ”के बोले माँ तुमि अबले“, ”विवशिता“ एवं ”लक्षण रेखा“ आपके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। ”पोस्टर उखड़ गया“ सामाजिक कहानियों का संग्रह है। ”मुंशी नवनीतलाल“ और अन्य कहानियों में सामाजिक विकृतियों तथा विसंगतियों पर कटाक्ष करनेवाले तीखे व्यंग हैं। ”द्रोपदी की आत्मकथा“, ”अभिशप्त कथा“, ”कृष्ण की आत्म कथा“ (आठ भागों में), ”द्रोण की आत्मकथा“, ”कर्ण की आत्मकथा“ और ”गान्धारी की आत्मकथा“ आपकी आश्चर्यजनक यथार्थ रोचक कृति है जहाँ चमत्कारी कम यथार्थ के धरातल पर सबकुछ घटित होता हुआ दिखता है।
यहाँ प्रस्तुत है आपके ”कृष्ण की आत्मकथा“ का परिचय एवं प्रत्येक खण्ड के कुछ अंश।
परिचय - कृष्ण के अनगिनत आयाम (डायमेन्सन) हैं। दूसरे उपन्यासों में कृष्ण के किसी विशिष्ट आयाम को लिया गया है। किन्तु आठ खण्डों में विभक्त इस औपन्यासिक श्रृंखला में कृष्ण को उनकी सम्पूर्णता और समग्रता में उकेरने का सफल प्रयास किया गया है। किसी भी भाषा में कृष्णचरित को लेकर इतने विशाल और प्रशस्त कैनवस का प्रयोग नहीं किया गया है। यथार्थ कहा जाये तो ”कृष्ण की आत्मकथा“ एक उपनिषदीय ग्रन्थ है। श्रृंखला के आठ खण्ड इस प्रकार है। 1. नारद की भविष्यवाणी 2. दुरभिसंधि 3. द्वारका की स्थापना 4. लाक्षागृह 5. खंाडव दाह 6. राजसूय यज्ञ 7. संघर्ष 8. प्रलय।
1. ”नारद की भविष्यवाणी“ के कुछ अंश
”युद्धस्थल में मोहग्रस्त एवं भ्रमित अर्जुन से ही मैंने नहीं कहा था कि तुम निमित्त मात्र हो वरन् इस पुस्तक के लेखक से भी कहा हूँ कि तुम निमित्त मात्र हो, कत्र्ता तो मैं हूँ।... अन्यथा तुम आज की आँखों से उस अतीत को कैसे देख सकोगे, जिसे मैंने भोगा है? उस संत्रास का कैसे अनुभव करोगे, जिसे मेरे युग ने झेला है? उस मथुरा को कैसे समझ सकोगे, जो मेरे अस्तित्व की रक्षा के लिए नट की डोर की तनाव पर केवल एक पैर से चली है?.... और दुःखी ब्रज के उस प्रेमोन्माद का तुम्हें क्या आभास लगेगा, जो मेरे वियोग में आकाश के जलते चंद्र को आँचल में छिपाकर करील के कुंजो में विरहाग्नि बिखेर रहा था?“
2. ”दुरभिसंधि“ के कुछ अंश
”मेरी अस्मिता दौड़ती रही। नियति की अँगुली पकड़कर आगे बढ़ती गई-उस क्षितिज की ओर, जहाँ धरती और आकाश मिलते हैं। नियति भी मुझे उसी ओर संकेत करती रही, पर मुझे आजतक वह स्थान नहीं मिला और शायद नहीं मिलेगा। फिर भी मैं दौड़ता ही रहूँगा, क्योंकि यही मेरा कर्म है। मैंने युद्ध में मोहग्रस्त अर्जुन से यह नहीं कहा था, अपितु जीवन में बारम्बार स्वयं से भी कहता रहा हूँ-”कर्मण्येवाधिकारस्ते“।
वस्तुतः क्षितिज मेरा गन्तव्य नहीं, मेरे गन्तव्य का आदर्श है। आदर्श कभी पाया नहीं जाता। यदि पा लिया जाता तो वह आदर्श नहीं। इसलिए न पाने की निश्चिन्तता के साथ भी कर्म में अटल आस्था ही मुझे दौड़ाये लिये जा रही है। यही मेरे जीवन की कला है। इसे लोग ’लीला’ भी कह सकते है, क्योंकि वे मुझे भगवान मानते हैं।.... और भगवान का कर्म ही तो लीला है।“
3. ”द्वारका की स्थापना“ के कुछ अंश
”मैंने जीवन भर कभी तर्क में विश्वास नहीं किया, क्योंकि तर्क अपने विरूद्ध स्वयं खड़ा हो जाता है। वह मानव बुद्धि का परम चतुर किंतु आदर्शहीन शिशु है। उसका जन्म भी उस समय हुआ था जब सत्य और झूठ की पहली लड़ाई हुई थी। तब से वह झूठ का ही प्रवक्ता रहा है। कभी-कभी वह सत्य के पक्ष में भी खड़ा हो जाता है। केवल इसलिए कि वह सत्य से प्रतिष्ठा पाता है और झूठ से जीवन रस।
वस्तुतः सत्य को उसकी आवश्यकता भी नहीं है। सत्य तो स्वयं भासित है, स्वयं प्रमाण है। कभी-कभी वह बादलों के घेरे में आ जाता है, तब हम उसे छिपता हुआ देखते हैं। वास्तव में वह हमारा बुद्धि भ्रम है। बादलों के छँटते ही उसकी ज्योति अपने स्थान पर स्वतः चमकती दिखाई देने लगती है।“
4. ”लाक्षागृह“ के कुछ अंश
”मैं नियति के तेज वाहन पर सवार था। सब कुछ मुझसे पीछे छुटता जा रहा था। वृन्दावन और मथुरा, राधा और कुब्जा- सब कुछ मार्ग के वृक्ष के तरह छूट गये थे। केवल उनकी स्मृतियाँ मेरे मन से लिपटी रह गई थी। कभी-कभी वर्तमान की धूल उन्हें ऐसा घेर लेती है कि वे उनसे निकल नहीं पाती थी। मैं अतीत से कटा हुआ केवल वर्तमान का भोक्ता रह जाता।
माना कि भविष्य कुछ भी नहीं; वह वर्तमान की कल्पना है, मेरी आकांक्षाओं का चित्र है- और यह वह है, जिसे मैंने अभी तक पाया नहीं है, इसलिए उसे मैं एक आदर्श मानता हूँ। आदर्श कभी पाया नहीं जाता। जब तक मैं उसके निकट पहुँचता हूँ, हाथ मारता हूँ तब तक हाथ में आने के पहले झटककर और आगे चला जाता है। एक लुभावनी मरीचिका के पीछे दौड़ना भर रह जाता है।“
5. ”खंाडव दाह“ के कुछ अंश
”जीवन को मैंने उसकी समग्रता में जीया है। न लोभ को छोड़ा; न मोह को; न काम को; न क्रोध को; न मद को; न मत्सर को। शास्त्रो में जिसके लिए वर्जना थी, वे भी मेरे लिए वर्जित नहीं रहे। सब वंशी की तरह मेरे साथ लगे रहे। यदि इन्हें भी छोड़ देता तो जीवन एकांगी हो जाता। तब मैं यह नहीं कह पाता कि करील की कुंजो में रास रचाने वाला मैं ही हूँ और व्रज के जंगलो में गायें चराने वाला मैं ही हूँ। चाणूर आदि का वधक मैं ही हूँ और कलिय नाग का नाथक भी मैं ही हूँ। मेरी एक मुठ्ठी में योग है और दूसरी में भोग। मैं रथी भी हूँ और सारथि भी। अर्जुन के मोह में मैं ही था और उसकी मोह मुक्ति में भी मैं ही था।
जब मेघ दहाड़ते रहे, यमुना हाहाकार करती रही ओर तांडव करती प्रकृति की विभिषिका किसी को कँपा देने के लिए काफी थी, तब भी मैं अपने पूज्य पिता की गोद में किलकारी भरता रहा। तब से नियति न मुझ पर सदय रही, न पूरी तरह निर्दय। मेरे निकट आया हर वर्ष एक संघर्ष के साथ था।“
6. ”राजसूय यज्ञ“ के कुछ अंश
”मेरी मनुजात की वास्तविकता पर जब चमत्कारों का कुहासा छा जाता था तब लोग मुझमें ईश्वरत्व का अनुभव करने लगते हैं। मैं भी अपने में ईश्वरत्व की तलाश में लग जाता हूँ। शिशुपाल के वध के समय भी मेरी मानसिकता कुछ ऐसे ही भ्रम में पड़ गई थी; पर जब उसके रक्त के प्रवाह में मुझे अपना ही रक्त दिखाई पड़ा तब मेरी मानसिकता धुल चुकी थी। उसका अहं अदृश्य हो चुका था। मेरा वह साहस छूट चुका था कि मैं यह कहूँ कि मैने इसे मारा है। मारने वाला तो कोई और ही था। वस्तुतः उसके कर्मो ने ही उसे मारा। वह अपने शापों से मारा गया।
संसार में सारे पापो से मुक्त होने का कोई न कोई प्रायश्चित है; पर जब अपने कर्म ही शापित करते हैं तब उसका कोई प्रायश्चित नहीं। आखिर वह मेरा भाई था। मैं उसे शाप मुक्त भी नहीं करा पाया। मेरा ईश्वरत्व उस समय कितना सारहीन, अस्तित्वहीन, निरूपाय और असमर्थ लगा।“
7. ”संघर्ष के कुछ अंश“
”नियति ने मुझ पर हमेशा युद्ध थोपा- जन्म से लेकर जीवन के अन्त तक। यद्यपि मेरी मानसिकता सदा युद्ध विरोधी रही; फिर भी मैंने उन युद्धों का स्वागत किया। उनसे घृणा करते हुये भी मैंने उन्हें गले लगाया। मूलतः मैं युद्धवादी नहीं था। जब से मनुष्य पैदा हुआ तब से युद्ध पैदा हुआ- और शान्ति की ललक भी। यह ललक ही उसके जीवन का सहारा बनी। इस शान्ति की ललक की हरियाली के गर्भ में सोये हुये ज्वाला मुखी की तरह युद्ध सुलगता रहा और बीच-बीच में भड़कता रहा।
लोगों ने मेरे युद्धवादी होने का प्रचार भी किया; पर मैंने कोई परवाह नहीं की, क्योंकि मेरी धारणा थी- और है कि मानव का एक वर्ग वह, जो वैमनस्य और ईष्र्या-द्वेष के वशीभूत होकर घृणा और हिंसा का जाल बुनता रहा - युद्धक है वह, युद्धवादी है वह। पर जो उस जाल को छिन्न-भिन्न करने के लिए तलवार उठाता रहा, वह कदापि युद्धवादी नहीं है।...... और यही जीवन भर मैं करता रहा।“
8. ”प्रलय“ के कुछ अंश
”मुझे देखना हो तो तूफानी सिंघु की उत्ताल तरंगो में देखो। हिमालय के उत्तुंग शिखर पर मेरी शीतलता अनुभव करो। सहस्त्रों सूर्यो का समवेत ताप ही मेरा ताप है। एक साथ सहस्त्रों ज्वालामुखियों का विस्फोट मेरा ही विस्फोट है। शंकर के तृतीय नेत्र की प्रलयकंर ज्वाला मेरी ही ज्वाला है। शिव का तांडव मैं ही हूँ; प्रलय में मैं हूँ; लय में मैं हूँ; विलय में मैं हूँ। प्रलय के वात्याचक्र का नर्तन मेरा ही नर्तन है। जीवन और मृत्यु मेरा ही विवर्तन है। ब्रह्माण्ड में मैं हूँ, ब्रह्माण्ड मुझमें है। संसार की सारी क्रियमाण शक्ति मेरी भुजाओं में है। मेरे पगो की गति धरती की गति है। आप किसे शापित करेगें, मेरे शरीर को? यह तो शापित है ही- बहुतो द्वारा शापित है; और जिस दिन मैंने यह शरीर धारण किया था उसी दिन यह मृत्यु से शापित हो गया था“
”प्रलय“ खण्ड के अन्त में निम्नलिखित अंतिका
आखिरकार इस आत्मकथा का अन्त हो ही गया। जिसका आदि होता है उसका अंत भी होता है; पर जो अनन्त है उसका आदि-अन्त क्या! उस अनन्त को इस आदि अन्त की आत्मकथा में बाँधने का प्रयास वैसा ही है जैसा सिन्धु को एक बड़े पात्र में समेटने का या हिमगिरि को पगों से नापने का अथवा समय को भूत और भविष्य से अलग कर केवल वर्तमान में ही रखने का।
फिर क्या मेरी यह चेष्टा व्यर्थ है? शायद नहीं। सागर भले ही पात्र में न समाए; पर पात्र में जो कुछ होगा, वह सागर का जल ही होगा। हिमगिरि भले ही पगों से न नापा जा सके; पर जो यात्रा होगी, वह हिमगिरि की ही होगी। समय भले ही भूत-भविष्य से अलग न हो सके; पर वर्तमान तो रहेगा ही और वर्तमान को जीने का आनन्द भी।
इस आत्मकथा के पहले भी कथा थी और बाद में भी कथा चलती रहेगी - ”हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता“।
यह उपन्यास है, शास्त्र नहीं। फिर भी यदि आपकी मानसिकता इसे या इसके किसी अंश को शास्त्र समझ बैठती है तो भी मुझे प्रसन्नता ही होगी; क्योंकि इसमें जो कुछ है, वह शास्त्र सम्मत ही है। कथा की बनावट, बुनावट तथा रूपाकंन मेरा है; पर सही तो यह है कि मेरे द्वारा किया गया है, कत्र्ता तो कोई और है।
कृष्ण के साथ छाया की तरह लगा छंदक काल्पनिक चरित्र है; जैसे सुदामा और राधा। सुदामा का जिक्र तो ”श्रीमद्भागवत“ मे थोड़ा सा आता है- और कहीं नहीं है; पर राधा तो कहीं दिखाई ही नहीं देती। फिर भी कृष्ण के साथ कैसे आ गई, उनपर इतनी कैसे छा गई- आज भी शोध का विषय है; यद्यपि इसपर शोध हुए हैं और हो रहे हैं।
कृष्ण कथा के अनेक अंश अनेक ग्रन्थों में अनेक तरह से है। किसी विशेष ग्रन्थ में उसकी तलाश करना उचित न होगा। कथाएँ आपस में इतनी उलझी हैं कि उन्हें सुलझाकर एक सूत्र में लाना कठिन है। स्वयं महाभारत में अनेक बातें अनेक स्थलो पर अनेक तरह से कहीं गयी है। उदाहराणार्थ केवल धृतराष्ट्रपुत्रों के नामों की तीन सूचियाँ बनती हैं, जिनमें काफी भिन्नता है।
शायद इन्हीं कारणों से कृष्ण पर अब तक जितनी पुस्तकें आई हैं, उनके रचयिताओं ने कृष्ण की समग्रता को नहीं छुआ है। कोई बाल कृष्ण पर मुग्ध है तो कोई रासबिहारी कृष्ण पर, तो कोई महाभारत के कृष्ण पर। किसी ने कुरूक्षेत्र पर स्वयं को सीमित रखा है तो किसी का मन वृन्दावन में रमा है, तो कोई यशोदा के आँगन में रस लेता रह गया है।
क्या यह छोटे मुँह बड़ी बात होगी, यदि मैं यह कहूँ कि आठ खण्डों की इस आत्मकथा में मैंने समग्र कृष्ण को अपने दृष्टि-पथ में रखा है?
श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा स्पष्टीकरण
आपकी आठ भागों की कृति ”कृष्ण की आत्मकथा“ सत्य रूप में कथा के माध्यम से शास्त्र ही है। भाग्यवादी और चमत्कार प्रेमियों के मस्तिष्क में भरे कूड़े की सफाई में यह सदैव एसिड (कूड़ों और गन्दगी को जलाने वाला एक रासायनिक द्रव पदार्थ) का काम करता रहेगा। प्रत्येक अवतार-महापुरूष या जीवन में सफल या सफलता प्राप्त कर रहे व्यक्ति का एक ही सूत्र होता है -”कर्मण्येवाधिकारस्ते“। परन्तु निकम्मे भाग्यवादी उनके जीवन से शिक्षा प्राप्त न करके एक पंक्ति में ”किस्मत की बात है, ये सब चमत्कार है“ कहकर स्वयं तो निकम्मे बने ही रहते हैं अन्य को भी शिक्षा दे डालते हैं।
चमत्कार और भाग्यवादी बाहुल्य भारतीय नागरिक कृष्ण के जीवन में इतने चमत्कार डाल दिये कि उनका सत्य व्यक्तित्व ही खो गया। भारत में चमत्कार आसानी से बिकता है। इसी प्रकार आशीर्वाद भी बिकता है। फटाफट मुझे सब मिल जाये, उसका सरल रास्ता है ये - चमत्कार और आशीर्वाद।
कृष्ण के जीवन की कथा आपके माध्यम से जो व्यक्त (लिखा) हुआ है वह जीवनभर संघर्षरत एक व्यक्ति की कथा है। उनके जीवन में जिसे लोग चमत्मकार समझते है वह कैसे योजनाबद्ध तरीके से घटीत हुआ, वह बेमिसाल सत्य तरीके से आप द्वारा व्यक्त है। जब व्यक्ति इसे पढ़ता है तो निश्चित ही उसे ऐसा लगता है कि यह मेरी अपनी कथा है। जब तक मानव सृष्टि रहेगी, तब तक यदि मनुष्य स्वयं को समझना चाहेगा तो आपकी आठ भागों की कृति ”कृष्ण की आत्मकथा“ ही उसका मार्गदर्शन करने में पूर्णतया सक्षम है। और यह सदैव पढ़ा जायेगा क्योंकि जहाँ तक ”विश्वशास्त्र“ पहुँचेगा, वहाँ तक आप भी पहुँचेंगे। आखिर ”विश्वशास्त्र“ के व्यक्तकर्ता का ही जीवन है आपकी कृति। परमात्मा को समझने का और उसे मनुष्य शरीर से व्यक्त होने के लिए परमात्मा ने अनेकों मनुष्य जीवन से कृति व्यक्त करवाया है जिनमें से उच्चस्तरीय रूप में आप भी है।
आपने लिखा कि - ”कृष्ण के साथ छाया की तरह लगा छंदक काल्पनिक चरित्र है; जैसे सुदामा और राधा। सुदामा का जिक्र तो ”श्रीमद्भागवत“ मे थोड़ा सा आता है- और कहीं नहीं है; पर राधा तो कहीं दिखाई ही नहीं देती। फिर भी कृष्ण के साथ कैसे आ गई, उनपर इतनी कैसे छा गई- आज भी शोध का विषय है; यद्यपि इसपर शोध हुए हैं और हो रहे हैं।“
यहाँ मैं यह व्यक्त करना चाहता हूँ कि - राधा एक विचार है। जिस प्रकार गायत्री मंत्र एक विचार है। भारत माता एक विचार है। इन विचारों को ही आकार देकर साकार मूर्ति में व्यक्त किया गया है। जिस प्रकार गायत्री मंत्र के विचार को पं0 श्री राम शर्मा ने आकार देकर साकार गायत्री की मूर्ति प्रकट किये, जिस प्रकार भारत माता के विचार से स्वामी सत्यमित्रानन्द जी के भारत माता मन्दिर में भारत माता की मूर्ति स्थापित है। उसी प्रकार राधा की मूर्ति भी प्रकट की गई है।
कृष्ण के जीवन में राधा, उम्र में बड़ी, विवाहित और उनकी प्रेमिका के रूप में दिखाया गया है। अर्थात राधा का जन्म कृष्ण से पहले, वह किसी और की लेकिन कृष्ण को प्रिय दिखाया गया है।
जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति, पुनर्जन्म अवस्था में ही होता है उसी प्रकार अवतारी श्रृंखला भी अपने पूर्व के अवतार के पुनर्जन्म की अवस्था का ही होता है। विचारों का पुनर्जन्म, पुनर्जन्म तथा सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का पुनर्जन्म, अवतरण कहलाता है। एक ही विचार के दो पुनर्जन्म एक साथ हो सकते हैं उसी प्रकार सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के भी दो पुनर्जन्म (अवतरण) एक साथ हो सकते हैं
ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के प्रथम अवतरण - मत्स्यावतार में धारा के उलट (धा रा - रा धा) चलने से ही मानव सभ्यता का संरक्षण हुआ था। इस प्रकार राधा विचार का जन्म तो प्रथम अवतार के समय ही हो गया था। और श्रीकृष्ण आठवें अवतार थे। अर्थात राधा, श्रीकृष्ण से बड़ी थीं। राधा, मत्स्यावतार से व्यक्त हुईं थी इसलिए उनकी थीं। और धारा से उलट चलने पर ही सृष्टि होती है जो कृष्ण को प्रिय थी। इस सम्बन्ध गाॅव-देहात में एक कहावत है-
लीक-लीक गाड़ी चले, लीक ही चले सपूत।
लीक छोड़ तीन ही चले, शायर, सिंह कपूत।
अर्थात गाड़ी (बैल गाड़ी, रथ, मोटर वाहन) और जिन्हें सपूत (पिता का कार्य सम्भालने वाला) कहा जाता है वे परम्परा वाले रास्ते (धारा) पर चलते हैं अर्थात इन्हें धारा प्रिय होती है। लेकिन शायर (ऋषि, कवि, आविष्कारक, स्थापक), सिंह (शेर) और कपूत (कु-पुत्र) परम्परा के उलट (राधा) में चलते हैं, वे अपना रास्ता स्वयं बनाते हैं। अर्थात इन्हें राधा प्रिय होती है।
कृष्ण, एक स्थापक थे, इसलिए उन्हें राधा प्रिय थी, उससे ही वे प्रेम करते थे। और जिससे प्रेम किया जाता है उसे जीवन में उतारा नहीं जाता बल्कि वो जीवन की कला के रूप में प्रयोग किया जाता है। जीवन में उतारने से तो मिलन हो जाता है। फिर प्रेम की सर्वोच्च अवस्था वह नहीं रह जाती। प्रेम की सर्वाेच्च अवस्था के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी की प्रेम योग में व्याख्या है- ”दैवी प्रेम के- (1) शान्त (2) दास्य (3) सख्य (4) वात्सल्य (5) मधुर (6) अवैध (परकीय) छः रूप है। प्रेमान्माद की यही (मधुर प्रेम) चरम अवस्था है। पर सच्चा भगवत्प्रेमी यहां पर भी नहीं रूकता; उसके लिए तो पति और पत्नी की प्रेमोन्मत्तता भी यथेष्ट नहीं। अतएव ऐसे भक्त ‘‘अवैध (परकीय)’’ प्रेम का भाव ग्रहण करते हैं, क्योंकि वह अत्यन्त प्रबल होता है। फिर देखो, उसकी अवैधता उनका लक्ष्य नहीं है। इस प्रेम का स्वभाव ही ऐसा है कि उसे जितनी बाधा मिलती है, वह उतना ही उग्र रूप धारण करता है। पति-पत्नी का प्रेम अबाध रहता है-उसमें किसी प्रकार की विध्नबाधा नहीं आती। इसलिए भक्त कल्पना करता है, मानो कोई स्त्री परपुरुष में आसक्त है और उसके माता, पिता या स्वामी उसके इस प्रेम का विरोध करते हैं।”
श्रीकृष्ण के जीवन में प्रेम के सभी रूप व्यक्त हुए हैं। और प्रेम की सर्वोच्च अवस्था अवैध (परकीय) प्रेम का विचार ”राधा“ की मूर्ति द्वारा वह उनके जीवन में छा गईं। अब वह विचार व्यापारिक रूप लेकर गहराई से व्याप्त हो चुका है। आवश्यकता इसके सही अर्थ को समझना व जीवन में उतारना है। जब कोई विचार-नाम व्यापारिक रूप में परिवर्तित हो जाता है तब उसे लोग समझने में कम, उससे धन लाभ के कारण प्रयोग करते रहते हैं। कृष्ण के बिना मथुरा, वृन्दावन, द्वारिका इत्यादि का क्या अस्तित्व? वैष्णों देवी के बिना कटरा का क्या अस्तित्व? साईं बाबा के बिना शिरडी का क्या अस्तित्व? लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के बिना ”सत्यकाशी“ का क्या अस्तित्व? भगवान श्रीकृष्ण के मथुरा-वृन्दावन को भी लोग उनके जाने के 4000 वर्ष बाद ही जाने जब चैतन्य महाप्रभु का आगमन हुआ और वह ”महाभारत“ शास्त्र साहित्य में लिखा था।
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