स्वामी विवेकानन्द की वाणीयाँ जो श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ के जीवन में सत्य हुईं - व्यक्तिगत जीवन के सम्बन्ध में
1.आखिर इस उच्च शिक्षा के रहने या न रहने से क्या बनता बिगड़ता है? यह कहीं ज्यादा अच्छा होगा कि यह उच्च शिक्षा प्राप्त कर नौकरी के दफ्तरों को खाक छानने के बजाय लोग थोड़ी सी यान्त्रिक शिक्षा प्राप्त करे जिससे काम-धन्धे में लगकर अपना पेट तो भर सकेंगे। (विवेकानन्द जी के सान्निध्य में, पृ0-5)
2.पर ब्राह्मण का पुत्र सर्वदा ब्राह्मण ही नहीं होता, यद्यपि उसके ब्राह्मण होने की सम्भावना अवश्य रहती है। जाति से ब्राह्मण होना और गुणों से ब्राह्मण होना-ये दो भिन्न बातें हैं। भारत वर्ष में ब्राह्मण कुल मंे जन्म लेने से कोई ब्राह्मण कहलाने लगता है, पर पश्चिम में यदि कोई ब्राह्मण गुण युक्त हो तो उसे ब्राह्मण ही मानना चाहिए। यह स्पष्ट है कि मनुष्य के लिए एक जाति से दूसरी जाति में चला जाना सम्भव है। यदि नहीं है तो विश्वामित्र ब्राह्मण कैसे बन सके और परशुराम क्षत्रिय कैसे बन सके?(विवेकानन्द जी के सान्निध्य में, पृ0-34)
3.मन में ऐसे भाव उदय होते हैं कि यदि जगत् के दुःख दूर करने के लिए मुझे सहस्त्रों बार जन्म लेना पड़े तो भी मैं तैयार हूँ। इससे यदि किसी का तनिक भी दुःख दूर हो, तो वह मैं करूंगा और ऐसा भी मन में आता है कि केवल अपनी ही मुक्ति से क्या होगा। सबको साथ लेकर उस मार्ग पर जाना होगा। (विवेकानन्द जी के संग में, पृ0-67)
4.समस्त ब्रह्माण्ड जब नित्य आत्मा ईश्वर का ही विराट शरीर है तब विरोध-विशेष स्थानों (तीर्थस्थान) के महात्म्य में आश्चर्य की क्या बात है? विशेष स्थानों पर उनका विशेष विकास है। कहीं पर आप ही से प्रकट होते हैं और कहीं शुद्ध सत्य मनुष्य के व्याकुल आग्रह से प्रकट होते हैं। फिर भी यह तुम निश्चित जानो कि इस मानव शरीर की अपेक्षा और कोई बड़ा तीर्थ नहीं है। इस शरीर में जितना आत्मा का विकास हो सकता है उतना और कहीं नहीं। (विवेकानन्द जी के संग में, पृ0-98)
5.छात्रजीवन में (स्वामी विवेकानन्द) दिन भर अपने साथियों के साथ आमोद-प्रमोद में ही रहते थे। रात को घर के द्वार बन्द कर अपना अध्ययन करते थे। दूसरे किसी को यह नहीं जान पड़ता था कि वे कब अपना अध्ययन कर लेते थे। (विवेकानन्द जी के संग में, पृ0-102)
6.इस संसार में निरी दुनियादारी है जो यथार्थ, साहसी और ज्ञानी है। वह क्या ऐसी दुनियादारी से कभी घबड़ाता है? ‘जगत चाहे जो कहे, क्या परवाह है, मैं अपना कत्र्तव्य पालन करता चला जाऊँगा’ यह वीरों की बातें हैं। यदि ‘वह क्या कहता है और क्या लिखता है’ ऐसी ही बातों पर रात-दिन ध्यान रहे तो जगत् में कोई महान कार्य हो ही नहीं सकता। (विवेकानन्द जी के संग में, पृ0-105)
7.बहुत दिनों तक मास्टरी करने से बुद्धि बिगड़ जाती है। ज्ञान का विकास नहीं होता। दिन रात लड़कों के बीच रहने से धीरे- धीरे जड़ता आ जाती है; इसलिए आगे अब मास्टरी न कर। (विवेकानन्द जी के संग में, पृ0-126)
8.जाकर सभी को यह बात सुना ‘तुम्हारे भीतर अनन्त शक्ति मौजूद है, उसी शक्ति को जागृत करो।’ केवल अपनी मुक्ति प्राप्त कर लेने से क्या होगा? मुक्ति की कामना भी तो महा स्वार्थपरता है। छोड़ दे ध्यान, छोड़ दे मुक्ति की आकांक्षा- मैं जिस काम में लगा हूँ उसी में लग जा। (विवेकानन्द जी के संग में, पृ0-161)
9.अतः जब कर्म करके उसे शान्ति प्राप्त नहीं होती तभी साधक कर्मत्यागी बनता है। परन्तु देह धारण करके मनुष्य को कुछ न कुछ लेकर तो रहना ही होगा- क्या लेकर रहेगा बोल? इसलिए साधक दो चार सत्कर्म करता जाता है, परन्तु उस कर्म के फलाफल की आशा नहीं रखता, क्योंकि उस समय उसने जान लिया है कि उस कर्मफल में ही जन्म मृत्यु के नाना प्रकार के अंकुर भरे पड़े हैं। इसलिए ब्रह्मज्ञ व्यक्ति सारे कर्म त्याग देते हैं- दिखाने के दो चार कर्म करने पर भी उनमें उनके प्रति आकर्षण बिल्कुल नहीं रहता। ये ही लोग शास्त्र में निष्काम कर्मयोगी बताये गये हैं। (विवेकानन्द जी के संग में, पृ0-193)
10.निष्क्रियता, हीनबुद्धि और कपट से देश छा गया है। क्या बुद्धिमान लोग यह देखकर स्थिर रह सकते हैं? रोना नहीं आता? मद्रास, बम्बई, पंजाब, बंगाल-कहीं भी तो जीवनी शक्ति का चिन्ह दिखाई नहीं देता। तुम लोग सोच रहे हो, ‘हम शिक्षित हैं’ क्या खाक सीखा है? दूसरों की कुछ बातों को दूसरी भाषा में रटकर मस्तिष्क में भरकर, परीक्षा में उत्तीर्ण होकर सोच रहे हो कि हम शिक्षित हो गये हैं। धिक्धिक्, इसका नाम कहीं शिक्षा है? तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है? या तो ? क्लर्क बनना या एक दुष्ट वकील बनना, और बहुत हुआ तो क्लर्की का ही दूसरा रूप एक डिप्टी मजिस्टेªट की नौकरी यही न? इससे तुम्हे या देश को क्या लाभ हुआ? (विवेकानन्द जी के संग में, पृ0-196)
11.ब्रह्म ज्ञानी को भोजन किसी परिश्रम के बिना अपने आप मिल जाता है। वह जहाॅ पाता है पानी पी लेता है, वह स्वेच्छानुसार सर्वत्र विचरण करता है- वह निर्भय, कभी जंगल में और कभी श्मशान में सो जाता है और जिस मार्ग पर जाने से वेद भी शेष हो जाते है, वहाॅ वह संचरण करता है। वह बालको की तरह दूसरो की इच्छानुसार परिचालित होता है, कभी नंगा, कभी वस्त्रालंकारमण्डित रहता है। और कभी कभी तो उसका आच्छादन ज्ञान मात्र रहता है, कभी अबोध बालक की भाॅति, कभी उन्मत्त के समान और कभी पिशाचवत् व्यवहार करता है। (पत्रावली भाग-1, पृ0-40)
12. तुमने मांस खाने वाले क्षत्रियों की बात उठाई है। क्षत्रिय लोग चाहे मांस खाये या ना खाये, वे ही हिन्दू धर्म की उन सब वस्तुओं के जन्मदाता हैं जिनको तुम महत और सुन्दर देखते हो। उपनिषद् किसने लिखे थे? राम कौन थे? कृष्ण कौन थे? बुद्ध कौन थे? जैनों के तिर्थंकर कौन थे? जब कभी क्षत्रियों ने धर्म का उपदेश दिया, उन्होंने सभी को धर्म पर अधिकार दिया। और जब कभी ब्राह्मणों ने कुछ लिखा उन्होंने औरों को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित करने की चेष्टा की। गीता और व्यास सूत्र पढ़ो या किसी से सुन लो। गीता में मुक्ति की राह पर सभी नर-नारियों, सभी जातियों और सभी वर्णों को अधिकार दिया गया है, परन्तु व्यास गरीब शूद्रों को वंचित करने के लिए वेद की मनमानी व्याख्या कर रहे हैं। क्या ईश्वर तुम जैसा मूर्ख है कि एक टुकड़े मांस से उसकी दया रुपी नदी में बाधा खड़ी हो जायेगी? अगर वह ऐसा ही है तो उसका मोल एक फूटी कौड़ी भी नहीं। (पत्रावली भाग-1, पृ0-115)
13.मैं व्याख्यान देते देते और इस प्रकार के निरर्थक वाद से थक गया हूँ। सैकड़ों प्रकार के मानवी पशुओं से मिलते-मिलते मेरा मन अशान्त हो गया है। मैं मेरी मनोनुकूल बात आपको बतलाता हूँ। मैं लिख नहीं सकता, मैं बोल नहीं सकता, परन्तु मैं गम्भीर विचार कर सकता हूँ और जब मुझे स्फुर्ति आ जाती है तो अग्निरूपी वचन बोल सकता हूँ। परन्तु यह होना चाहिए कुछ चुने हुए, केवल चुने हुये लोगों के सामने ही। वे यदि चाहे तो मेरे विचारों को ले जाकर चारों और फैला दे- परन्तु यह मैं नहीं कर सकता। यह तो कर्म का ठीक ही बंटवारा है, एक ही आदमी सोचने में और विचारों के प्रसार करने में सफल नहीं हो सकता। इस तरह के दिये हुए विचारों का मूल्य कुछ नहीं होता। सोचने वाले मनुष्य को अन्य कार्यों से मुक्त होना चाहिए, विशेषतः जबकि विचार आध्यात्मिक हो। (पत्रावली भाग-1, पृ0-117)
14.पूर्णता का मार्ग यह है कि स्वयं पूर्ण बनने का प्रयत्न करना तथा कुछ थोड़े से स्त्री-पुरुषों को पूर्ण बनाने का प्रयत्न करना। ‘भला करने’ का मेरा यह अर्थ है कि कुछ असाधारण योग्यता के मनुष्यों का विकास, न कि ‘‘भैंस के आगे बीन बजाकर’’ समय, स्वास्थ्य और शक्ति का नाश करना।(पत्रावली भाग-1, पृ0-118)
15.जिस देश में करोड़ांे मनुष्य महुए के फूल खाकर दिन गुजारते हैं, और दस बीस लाख साधु और दस बारह करोड़ ब्राह्मण उन गरीबों का खून चूसकर पीते हैं और उनकी उन्नति के लिए कोई चेष्टा नहीं करते, क्या वह देश है या नरक? क्या वह धर्म है या पिशाच का नृत्य ? भाई, इस बात को गौर से समझो- मैं भारत वर्ष को घूमघाम कर देख चुका और इस देश को भी देखा-क्या बिना कारण के कहीं कार्य होता है? क्या बिना पाप के सजा मिल सकती है। (पत्रावली भाग-1, पृ0-123)
16.वह हार प्रेम का हार है और वह धागा धनीभूत प्रेम का भावरूप अपूर्व धागा है। मूर्ख तुम इस रहस्य को नहीं जानते हो कि वह असीम तत्व प्रेम के बन्धन में फंसकर मेरी मुट्ठी के अन्दर आ चुका है। क्या तुम्हे यह पता नहीं है कि वे जगन्नाथ प्रेमडोर से बंध जाते हैं- क्या तुम यह नहीं जानते हो कि इस विशाल विश्व के संचालक वृन्दावन की गोपियों की नूपुरध्वनि के साथ नाचते फिरते थे। (पत्रावली भाग-1, पृ0-140)
17.यह तो तुम्हे पता ही है कि रूपया रखना, यहां तक कि रूपया छूना भी मेरे लिए कठिन है। इसे मैं अत्यन्त कष्टदायक कार्य समझता हूँ और इससे मन अधोगामी बन जाता है। अतः कार्य संचालन तथा आर्थिक मामलों की व्यवस्था के लिए तुम लोगों को संगठित होकर किसी समिति की स्थापना करनी ही होगी। यहां पर जो मेरे मित्र हैं- आर्थिक मामलों की व्यवस्था वे ही करते हैं। अर्थ-विषयक इस भयानक झंझट से मुक्ति मिलने पर ही मैं सुख के श्वास ले सकूँगा। अतः तुम लोग जितना शीघ्र संगठित होकर मन्त्री तथा कोषाध्यक्ष बनकर मेरे मित्र तथा सहायकों से स्वयं पत्र व्यवहार कर सको, उतना ही तुम्हारे तथा मेरे लिए मंगल है।(पत्रावली भाग-1, पृ0-164)
18.आलासिंगा (एक मद्रासी मित्र), यह निश्चित जानना कि भविष्य में तुमकों अनेक महान कार्य करने होंगे। यदि तुम उचित समझो तो कुछ बड़े आदमियों को राजी कर समिति के कार्यकत्र्ताओं के रूप में उनका नाम प्रकाशित करना-उनके नाम से बहुत कुछ कार्य होंगे, किन्तु वास्तव में कार्य तुमको ही करना होगा। (पत्रावली भाग-1, पृ0-165)
19.हम ठीक वैसे ही हैं। गुलाम कीड़े-पैर उठाकर रखने की भी ताकत नहीं-बीबी का आंचल पकड़े ताश खेलते और हुक्का गुड़गुड़ाते हुए जिन्दगी पार कर देते हैं, और अगर उनमें से कोई एक कदम बढ़ जाता है तो सब के सब उसके पीछे पड़ जाते हैं- हरे हरे! (पत्रावली भाग-1, पृ0-234)
20.सैकड़ों युगों के उद्यम से चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ। सत्य का एक शहद भी लोप नहीं हो सकता। वह दीर्घकाल तक चाहे कूड़े के नीचे भले ही दबा पड़ा रहे, परन्तु शीघ्र हो या देर से हो, वह प्रकट होगा ही। सत्य अनश्वर है, पवित्रता अनश्वर है। मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है, मुझे शंख-ढपोल चेले नहीं चाहिए। (पत्रावली भाग-1, पृ0-241)
21.परन्तु वही महात्मा काम कर सकता है जो दूसरों में परमाणु के बराबर गुण देखकर उसे पर्वत के समान मानता है और जिसे जगत् की भलाई छोड़कर कोई भी इच्छा नहीं है- ‘‘परगुणपरमाणु पर्वतीकृत्य’’ इसलिए जिनकी मन्द गति है, जिनकी बुद्धि अज्ञान में डूबी हुई है और जो अनात्मा को ही सर्वस्व मानते हैं उन्हें अपनी बाल-क्रीड़ा करने दो। जब वे प्रबल कष्ट का अनुभव करेंगे तब वे उसी क्षण छोड़ देंगे। उन्हें चन्द्रमा पर थूकने दो, वह थूक उलटकर उन्हीं पर पड़ेगी। (पत्रावली भाग-1, पृ0-256)
22.मैं बराबर न्यूयार्क और बोस्टन के बीच यात्रा करता रहा। इस देश के ये दो ही बड़े केन्द्र है, जिनमें से बोस्टन की मस्तिष्क से तुलना की जा सकती है और न्यूयार्क की जेब से। दोनों स्थानों में आशातीत सफलता प्राप्त हुई है। मैं समाचार पत्रों के वर्णन से उदासीन हूँ, इसलिए तुम यह आशा मुझसे न करो कि उनमें से किसी के उल्लेख मैं तुम्हे भेजूंगा। काम आरम्भ करने के लिए थोड़े से शोर की आवश्यकता थी, वह जरूरत से अधिक हो चुका है। (पत्रावली भाग-1, पृ0-273)
23.मुझे चुपचाप शान्ति से काम करना अच्छा लगता है और प्रभु हमेशा मेरे साथ हैं। यदि तुम मेरे अनुगामी बनना चाहते हो तो सम्पूर्ण निष्कपट होओ, पूर्णरूप से स्वार्थ त्याग करो,...और सबसे अधिक पूर्णरूप से पवित्र बनो। मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है। इस अल्पायु में परस्पर प्रशंसा का समय नहीं है। संग्राम के बाद किसने क्या किया इसकी तुलना करेंगे और एक दूसरे की यथेष्ट प्रशंसा करेंगे। (पत्रावली भाग-1, पृ0-275)
24.अगले जाड़े में मैं लौट रहा हूँ। दुनिया में आग फूंक दूंगा, जो मेरे साथ चाहे आये, उसका भाग्य अच्छा है; जो न आयेगा, इहकाल तथा परकाल वह पड़ा ही रह जायेगा, उसे पड़े रहने दो। कुछ परवाह नही, तुम लोगों के मुंह तथा हाथों पर बागदेवी का अधिष्ठान होगा, हृदय में अनन्तवीर्य श्री भगवान अधिष्ठित होंगे- तुम लोगों से ऐसे कार्य सम्पादित होंगे कि जिन्हें देखकर दुनिया आश्चर्यचकित हो उठेगी। (पत्रावली भाग-1, पृ0-281)
25.मुझे संसार से मधुर व्यवहार करने का समय नहीं है, और मधुर बनने का प्रत्येक यत्न मुझे कपटी बनाता है। चाहे स्वदेश हो या विदेश, परन्तु इस मूर्ख संसार की प्रत्येक आवश्यकता पूरी करने की अपेक्षा तथा निरन्तर स्तर का आसार जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा मैं सहस्त्र बार मरना अच्छा समझता हूँ। (पत्रावली भाग-1, पृ0-291)
26.अन्तः प्रेरणा से मनुष्य को काम करना चाहिए और यदि वह काम शुभ और कल्याणप्रद है तो अपनी मृत्यु के पश्चात्, शताब्दियों के बाद, समाज की भावना में परिवर्तन अवश्य ही उत्पन्न होगा। मन, प्राण और शरीर से हमें काम में लग जाना चाहिए। और जब तक हम एक और एक ही आदर्श के लिए अपना सर्वस्व त्यागने को तैयार न रहेंगे तब तक हम कदापि आलोक नहीं देख पायेंगे। जो मनुष्य जाति की सहायता करना चाहते हैं उन्हें उचित है कि अपना सुख और दुःख, नाम और यश और सब प्रकार के स्वार्थ की एक पोटली बनाकर समुद्र में फेंक दे और तब वे ईश्वर के समीप आये। सब गुरुजनों ने यही कहा और किया है। (पत्रावली भाग-1, पृ0-300)
27.मैं आपकी पत्रिका सम्बन्धी विचार से पूरी तरह सहमत हूँ, परन्तु यह सब करने के लिए व्यवसाय बुद्धि का मुझमें पूरा अभाव है। मैं शिक्षा और उपदेश दे सकता हूँ और कभी-कभी लिख सकता हूँ, परन्तु सत्य पर मुझे श्रद्धा है। प्रभु मुझे सहायता देंगे और मेरे साथ काम करने के लिए मनुष्य भी वही देंगे। मैं पूर्णतः शुद्ध, पूर्णतः निष्कपट और पूर्णतः निःस्वार्थ रहूं- यही मेरी एकमेव इच्छा है। (पत्रावली भाग-1, पृ0-309)
28.श्रीरामकृष्ण की कृपा से किसी व्यक्ति के चेहरे की ओर देखते ही मैं अपने स्वाभाविक संस्कार के द्वारा तत्काल ही भांप लेता हूं कि वह व्यक्ति कैसा है और मेरी धारणा प्रायः ठीक हुआ करती है। (पत्रावली भाग-1, पृ0-313)
29.हर काम को तीन अवस्थाओं में से गुजरना होता है- उपहास, विरोध और फिर स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे निश्चय ही गलत समझते हैं, इसलिए विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं।(पत्रावली भाग-1, पृ0-335)
30.मैं बराबर यह देख रहा हूँ कि मानव जब वेदान्त के महान गौरव की उपलब्धि करने लगता है, तब मन्त्रतन्त्रादि अपने आप छूट जाते हैं। जिस समय मनुष्य को सत्य के किसी उच्चतर अवस्था विशेष का आभास मिलता है, तत्काल ही तद्विषयक निम्नतर अवस्था स्वतः ही विलुप्त हो जाती है। संख्या बाहुल्य का कोई महत्व नहीं है। असंगठित जनता सौ वर्ष में भी जिस कार्य को नहीं कर सकती, कुछ थोड़े से निष्कपट, संगठित तथा उत्साही युवक एक वर्ष के अन्दर उससे कहीं अधिक कार्य कर सकते हैं। एक देह की ताप उसके निकटवर्ती अन्यान्य देहों में भी संक्रमित होता है-प्रकृति का यही नियम है। (पत्रावली भाग-1, पृ0-337)
31.जगत के लिए-जिससे कि मुझे यह शरीर मिला है, देश के लिए-जिसने कि मुझे यह भावना प्रदान की है तथा मनुष्य जाति के लिए-जिसमें कि मैं अपनी गणना कर सकता हूँ-कुछ करना है। जितनी मेरी उम्र बढ़ रही है, उतना ही मैं ‘‘मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है’’-हिन्दुओं की इस धारणा का तात्पर्य अनुभव कर रहा हूँ। मुसलमान भी यही कहते है, अल्ला न देवदूतों से आदम को प्रणाम करने के लिए कहा था। इवलिस ने ऐसा नहीं किया, इसलिए वह शैतान बना। यह पृथ्वी सब स्वर्गों से ऊँची है। सृष्टि का यही सर्वश्रेष्ठ विद्यालय है। केवल मनुष्य ही ईश्वर बन सकता तथा अन्य लोगों को पुनः मनुष्य जन्म मिलने के बाद फिर ईश्वरत्व की प्राप्ति हो सकती है। (पत्रावली भाग-1, पृ0-348)
32.कल रात मैंने खुद भोजन बनाया था। केशर, गुलाबजल, जावित्री, जायफल, दालचीनी, लौंग, इलायची, मक्खन, नींबू का रस, प्याज, किसमिस, बदाम, काली मिर्च, तथा चावल...ये सब मिलाकर ऐसी स्वादिष्ट खिचड़ी बनायी थी कि मैं स्वयं ही उसे गले से नीचे नहीं उतार सका। घर पर हींग नहीं थी, नहीं तो कुछ हींग मिला देने पर कम से कम निगलने में सुविधा होती। (पत्रावली भाग-1, पृ0-445)
33.मेरे पिताजी यद्यपि वकील थे, फिर भी मेरी यह इच्छा नहीं कि मेरे परिवार में कोई वकील बने। मेरे गुरुदेव इसके विरोधी थे एवं मेरा भी यह विश्वास है कि जिस परिवार के कुछ लोग वकील हो उस परिवार में अवश्य ही कुछ न कुछ गड़बड़ी होगी। हमारा देश वकीलों से छा गया है-प्रतिवर्ष विश्वविद्यालयों से सैकड़ों वकील निकल रहे हैं। हमारी जाति के लिए इस समय कर्मतत्परता तथा वैज्ञानिक प्रतिभा की आवश्यकता है। (पत्रावली भाग-1, पृ0-449)
34.बीस वर्ष की अवस्था में मैं ऐसा असहिष्णु और कट्टर था कि किसी से सहानुभूति नहीं कर सकता था। कलकत्ता में रास्तों के जिस किनारे पर थियेटर है, उस किनारे से ही नहीं चलता था। अब तैंतीस वर्ष की उम्र में मैं वेश्याओं के साथ एक ही मकान में ठहर सकता हूँ- उनसे तिरस्कार का एक शब्द कहने का विचार भी मेरे मन में नहीं आयेगा। क्या यह अधोगति है? अथवा मेरा हृदय बढ़ता हुआ मुझे उस अनन्त प्रेम की ओर ले जा रहा है जो साक्षात् भगवान है। लोग कहते हैं कि वह मनुष्य जो अपने चारों ओर होने वाली बुराईयों को नहीं देख पाता, अच्छा काम नहीं कर सकता- वह एक तरह का अदृष्टवादी बना बैठा रहता हैं मैं तो ऐसा नहीं देखता हूँ। वरन् मेरी कार्य करने की शक्ति प्रचण्ड वेग से बढ़ रही है और साथ ही असीम सफलता भी मिल रही है। (पत्रावली भाग-2, पृ0-4)
35.मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि सैकड़ों वेश्याएं आये और उनके (श्रीरामकृष्ण) चरणों में अपना सिर नवाये और यदि एक भी सज्जन न आये तो भी कोई हानि नहीं। आओ वेश्याआंे, आओ शराबियों, आओ चोरों, सब आओ, श्री प्रभु का द्वार सबके लिए खुला है- ‘‘धनवान के ईश्वर के राज्य में प्रवेश करने की अपेक्षा ऊँट का सूई के छिद्र में घुसना सहज है।’’(पत्रावली भाग-2, पृ0-24)
36.किसी मत विशेष का समर्थन किया जा रहा हो, ऐसी एक भी बात उसके सम्पादकीय लेख में नहीं रहनी चाहिए और सदा यह ख्याल रखना कि केवल भारत को नहीं, अपितु समग्र जगत् को सम्बोधित कर तुम बातें कह रहे हो और तुम जो कुछ कहना चाहते हो, जगत् उसके बारे में सम्पूर्ण अज्ञ है। (पत्रावली भाग-2, पृ0-58)
37.आप तो अच्छी तरह से जानती हैं कि बाधा जितनी अधिक होती है, मेरे अन्दर की भावना भी उतनी ही जागृत हो उठती है। (पत्रावली भाग-2, पृ0-66)
38.मैं यहां बहुत अच्छा हूँ क्योंकि शहरों में मेरा जीवन कष्टप्रद सा हो गया था। यदि राह में मेरी झलक भी दिख जाती थी तो तमाशा देखने वालों का जमघट लग जाता था। विख्याति में केवल दूध और शहद घुला हुआ नहीं मिलता। अब मैं बड़ी सी दाढ़ी बढ़ाने वाला हूँ जिसके बाल तो अब सफेद हो ही रहे हैं। इससे रूप पूज्यनीय हो जाता है और वह मुझे अमेरिकन निन्दा करने वालांे से भी बचाती है। हे श्वेतकेश, तुम कितना क्या न छुपा सकते हो, धन्य हो तुम! (पत्रावली भाग-2, पृ0-81)
39.बिस्तरे पर लेटने के साथ ही साथ मुझे कभी नींद नहीं आती थी- घण्टे दो घण्टे तक मुझे इधर-उधर करवट बदलनी पड़ती थी। इधर-उधर करवट बदलने की मेरी वह पुरानी आदत पुनः वापस लौट आयी है तथा रात्रि में भोजन के बाद गर्मी लगने लगती है। दिन में भोजन के बाद कोई खास गर्मी का अनुभव नहीं होता। हाँ एक बात और है, मैं सहज ही में मलेरिया ग्रस्त हो जाता हूँ। (पत्रावली भाग-2, पृ0-92)
40.मुझे अपने बारे में बहुत कुछ कहना पड़ा, क्योंकि मुझे तुमको कैफियत देनी थी। मैं जानता हूँ कि मेरा कार्य समाप्त हो चुका-अधिक से अधिक तीन या चार वर्ष आयु के और बचे हैं। (चिरशान्ति में लीन के 4 वर्ष 11 माह 25 दिन पूर्व एक पत्र में लिखित) (पत्रावली भाग-2, पृ0-115)
41.कुछ लोग किसी के नेतृत्व में सर्वोत्तम काम करते हैं। हर मनुष्य का जन्म पथ-प्रदर्शन के लिए नहीं होता है। परन्तु सर्वोत्तम नेता वह है जो ‘‘शिशुवत् मार्ग दर्शन करता है’’। शिशु स्व पर आश्रित रहते हुए भी घर का राजा होता है। कम से कम मेरे विचार से यही रहस्य है--बहुतों को अनुभव होता है, पर प्रकट कोई-कोई ही कर सकते हैं। (पत्रावली भाग-2, पृ0-153)
42.महान कठिनाई यह है: मैं देखता हूँ कि लोग प्रायः अपना सम्पूर्ण प्रेम मुझे देते हैं। परन्तु इसके बदले में मैं किसी को अपना पूरा-पूरा प्रेम नहीं दे सकता, क्योंकि उसी दिन कार्य का सर्वनाश हो जायेगा। परन्तु कुछ लोग ऐसे हैं जो ऐसा बदला चाहते हैं, क्योंकि उनमें व्यक्ति निरपेक्ष सर्वव्यापक दृष्टि का अभाव होता है। कार्य के लिए यह परमाआवश्यक है कि अधिक से अधिक लोगों का मुझसे उत्साहपूर्ण प्रेम हो परन्तु मैं स्वयं बिल्कुल निःसंग व्यक्ति-निरपेक्ष होऊं। नहीं तो ईष्र्या और झगड़ों में कार्य का सर्वनाश हो जायेगा। नेता को व्यक्तिनिरपेक्ष निःसंग होना चाहिए। (पत्रावली भाग-2, पृ0-153)
43.तुम्हे मुसलमान लड़कों को भी लेना चाहिए परन्तु उनके धर्म को कभी दूषित न करना। तुम्हें यही करना होगा कि उनके भोजन आदि का प्रबन्ध अलग कर दो और उन्हें शुद्धाचरण, पुरुषार्थ और परहित में श्रद्धापूर्वक तत्परता की शिक्षा दो। यह निश्चय ही धर्म है। सब धर्मों के लड़कों को लेना हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या कुछ भी हो, परन्तु धीरे-धीरे आरम्भ करना। (पत्रावली भाग-2, पृ0-155)
44.चाहे और कुछ भी क्यों न हो, रूपये-पैसे, मठ-मन्दिर, प्रचारादि की सार्थकता ही क्या है? क्या समग्र जीवन का एकमेव उद्देश्य शिक्षा नहीं है? शिक्षा के बिना धन-दौलत, स्त्री-पुरुषों की आवश्यकता ही क्या है? इसलिए रूपयों का नाश हुआ अथवा हार हुई-मैं इन बातों को न तो समझ ही पाता हूँ और न समझना ही चाहता हूँ। (पत्रावली भाग-2, पृ0-162)
45.मेरा स्वास्थ्य ठीक है। रात में प्रायः उठना नहीं पड़ता, सुबह-शाम भात, आलू, चीन जो कुछ मिलता है खा लेता हूँ। दवा किसी काम की नहीं है- ब्रह्म ज्ञानी के शरीर पर दवा का कोई असर नहीं होता! वह हजम हो जायेगी...कोई डर की बात नहीं है। (पत्रावली भाग-2, पृ0-197)
46.साथ ही मेरी आयु भी समाप्त हो रही है- खासकर इस बात को सत्य मानकर ही मुझे चलना होगा। (चिरशान्ति में लीन के 2 वर्ष 11 माह 20 दिन पूर्व एक पत्र में लिखित) (पत्रावली भाग-2, पृ0-206)
47.यूरोपियनों के साथ मैं भोजन करता हूँ इसलिए मुझे एक पारिवारिक देव-मंदिर से निकाल दिया गया था। मैं चाहता हूँ कि मेरी गठन इस प्रकार की हो कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार मुझे मोड़ सके। किन्तु यह दुर्भाग्य की बात है कि मुझे ऐसा व्यक्ति देखने को नहीं मिलता जिससे कि सब कोई संतुष्ट हो। खासकर जिसे अनेक स्थलों में घूमना पड़ता है, उसके लिए सब को संतुष्ट करना संभव नहीं है। (पत्रावली भाग-2, पृ0-211)
48.अपनी ओर से मैं अपने स्वभाव तथा नीति पर अवलम्बित हूँ-एक बार जिसको मैंने अपने मित्र रूप में माना है, वह सदा के लिए मेरा मित्र है। इसके अलावा भारतीय रीति के अनुसार बाहरी घटनाओं के कारणों का अविष्कार करने के लिए मैं भीतर की ओर ही देखता हूँ; मैं यह जानता हूँ कि मुझ पर चाहे जितनी भी विद्वेष व घृणा की तरंगे उपस्थित क्यों न हो, उसके लिए मैं जिम्मेदार हूँ एवं यह जिम्मेदारी एकमात्र मुझपर ही है। ऐसा न होकर उसका और कोई रूपान्तर होना संभव नहीं है। (पत्रावली भाग-2, पृ0-212)
49.मेरे जीवन में मैंने अनेक गलतियां की है; किन्तु उसमें प्रत्येक का कारण रहा है अत्यधिक प्यार। अब प्यार से मुझे द्वेष हो गया है! हाय! यदि मेरे पास वह बिल्कुल न होता! भक्ति की बात आप कह रही है! हाय, यदि मैं निर्विकार और कठोर वेदान्ती हो सकता! जाने दो, यह जीवन तो समाप्त ही हो चुका। अगले जन्म में प्रयत्न करूंगा। (पत्रावली भाग-2, पृ0-219)
50.मेरे लिए कार्य करना तभी संभव होता है, जबकि मुझे पूर्णतया अपने पैरों पर ही खड़ा होना पड़ता है। निःसंग दशा मंे मेरी शक्ति का विकास अधिक होता है। (पत्रावली भाग-2, पृ0-227)
51.मुझे यह दिखायी दे रहा है कि वक्तृता-मंच से अब वाणी प्रचार करना मेरे लिए सम्भव नहीं है। इससे मैं आनन्दित ही हूँ। मैं विश्राम चाहता हूँ। मैं थक गया हूँ ऐसी बात नहीं है; किन्तु अगला अध्याय होगा-वाक्य नहीं, किन्तु अलौकिक स्पर्श, जैसा कि श्रीरामकृष्ण देव का था। (पत्रावली भाग-2, पृ0-229)
52.मेरे अन्दर एक विराट परिवर्तन की सूचना दिखाई दे रही है-मेरा मन शान्ति से परिपूर्ण होता जा रहा है। मैं जानता हूँ कि माँ ही सब कुछ उत्तरदायित्व ग्रहण करेगी। मैं एक संन्यासी के रूप में ही मृत्यु को अलिंगन करूंगा। (पत्रावली भाग-2, पृ0-247)
53.हम अपनी सारी शक्तियों को किसी एक विषय की ओर लगा देने के फलस्वरूप उसमें आसक्त हो जाते हैं तथा उसकी और भी एक दिशा है, जो नेतिवाचक होने पर भी उसके सदृश ही कठिन है- उस ओर हम बहुत कम ध्यान देते हैं- वह यह है कि क्षण भर में किसी विषय से अनासक्त होने की, उससे अपने को पृथक कर लेने की शक्ति। आसक्ति और अनासक्ति, जब दोनों शक्तियों का पूर्ण विकास होता है, तभी मनुष्य महान एवं सुखी हो सकता है। (पत्रावली भाग-2, पृ0-248)
54.भोग अवश्यम्भावी है, वह तो करना ही होगा, अतएव जितनी जल्दी हो वह कर लिया जाय, उतना ही मंगल है। अतएव पति-पत्नी सम्बन्धी, मित्र सम्बन्धी तथा और भी जो सब छोटी छोटी प्रेम की आकांक्षाएं हैं सभी का भोग कर डालो। यदि अपना स्वरूप तुम्हे सदा याद रहे, तो तुम शीघ्र ही निर्विघ्न इसके पास हो जाओेगे। भोग-सुख-दुःख का यह अनुभव ही-हमारा एकमात्र महान शिक्षक है। (राजयोग-पृ0-177)
55.सिर्फ पुस्तकों पर निर्भर रहने से मानव-मन केवल अवनति की ओर जाता है। यह कहने से और घोर नास्तिकता क्या हो सकती है कि ईश्वरीय ज्ञान केवल इस पुस्तक में या उस शास्त्र में आबद्ध है। (राजयोग-पृ0-91)
56.जो मनुष्य अपने जीवन के चैदह वर्षों तक लगातार उपवास का मुकाबला करता रहा हो, जिसे यह भी न मालूम रहा हो कि दूसरे दिन का भोजन कहां से आयेगा, सोने के लिए स्थान कहां मिलेगा, वह इतनी सरलता से धमकाया नहीं जा सकता। जो मनुष्य बिना कपड़ों के और बिना यह जाने कि दूसरे समय भोजन कहां से मिलेगा, उस स्थान पर रहा हो, जहां का तापमान शून्य से भी तीस डिग्री कम हो, वह भारतवर्ष में इतनी सरलता से नहीं डराया जा सकता। यही पहली बात है जो में उनसे कहूंगा- मुझमें अपनी थोड़ी दृढ़ता है, मेरा थोड़ा निज का अनुभव भी है, और मुझे संसार को कुछ संदेश देना है और यह सन्देश मैं बिना किसी डर के, बिना किसी प्रकार भविष्य की चिन्ता किये सब के समक्ष घोषित करूंगा। (मेरी समर नीति-पृ0-12)
57.मेरी नीति है- प्राचीन आचार्यों के उपदेशों का अनुसरण करना। मैंने उनके कार्य का अध्ययन किया है, और जिस प्रणाली से उन्होंने कार्य किया, उसके अविष्कार करने का मुझे सौभाग्य मिला। वे सब महान समाज संस्थापक थे। बल पवित्रता और जीवन शक्ति के वे अद्भुत आधार थे। उन्होंने सब से अद्भुत कार्य किया-समाज में बल, पवित्रता और जीवन शक्ति संचारित की। हमें भी सबसे अद्भुत कार्य करना है। आज अवस्था कुछ बदल गयी है, इसलिए कार्य-प्रणाली में कुछ थोड़ा-सा परिवर्तन करना होगा; बस इतना ही, इससे अधिक कुछ नहीं। (मेरी समर नीति-पृ0-27)
58.जो भी व्यक्ति अपने शास्त्र के महान सत्यों को दूसरों को सुनाने में सहायता पहुँचाएगा, वह आज एक ऐसा कर्म करेगा, जिसके समान दूसरे कोई कर्म नहीं। महर्षि मनु ने कहा है- ‘‘इस कलियुग में मनुष्यों के लिए एक ही कर्म शेष है। आजकल यज्ञ और कठोर तपस्याओं से कोई फल नहीं होता। इस समय दान ही अर्थात् एकमात्र कर्म है।’’ और दानों में धर्मदान, अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान का दान ही सर्वश्रेष्ठ है। दूसरा दान है विद्यादान, तीसरा प्राणदान और चैथा अन्नदान। (मेरी समर नीति-पृ0-30)
59.मैं अपने देश से प्रेम करता हूँ; मैं तुम्हें और अधिक पतित, और ज्यादा कमजोर नहीं देख सकता। अतएव तुम्हारे कलयाण के लिए, सत्य के लिए और जिससे मेरी जाति और अधिक अवनत न हो जाए इसलिए, मैं जोर से चिल्लाकर कहने के लिए बाध्य हो रहा हूँ-बस ठहरो! अवनति की ओर न बढ़ो। जहां तक गये हो, बस उतना ही काफी हो चुका। (मेरी समर नीति-पृ0-37)
60.लोग देश भक्ति की चर्चा करते हैं। मैं भी देश भक्ति में विश्वास करता हूँ और देशभक्ति के सम्बन्ध में मेरा भी एक आदर्श है। बड़े काम करने के लिए तीन बातों की आवश्यकता होती है। पहला है- हृदय-अनुभव की शक्ति। बुद्धि या विचारशक्ति में क्या धरा है? वह तो कुछ दूर जाती है और बस वहीं रूक जाती है। पर हृदय-हृदय तो महाशक्ति का द्वार है; अन्तःस्फूर्ति वहीं से आती है। प्रेम असम्भव को भी सम्भव कर देता है। यह प्रेम की जगत के सब रहस्यों का द्वार है। अतएव, ऐ मेरे भावी सुधारकों, मेरे भावी देशभक्तों-तुम हृदयवान बनो। (मेरी समर नीति-पृ0-38)
61.एक बात पर विचार करके देखिए, मनुष्य नियमों कांे बनाता है या नियम मनुष्य को बनाते हैं? मनुष्य रुपया पैदा करता है या रुपया मनुष्य पैदा करता है? मनुष्य किर्ति और नाम पैदा करता है या किर्ति और नाम मनुश्य को पैदा करते हैं? मेरे मित्रों, पहले मनुष्य बनिये, तब आप देखेंगे कि वे सब बाकी चीजें स्वयं आपका अनुसरण करेंगी परस्पर के घृणित द्वेशभाव को छोड़िये और सदुद्देश्य, सदुपाय, सत्साहस एवं सदीर्घ का अवलम्बन किजिए। आपने मनुष्य योनि में जन्म लिया है तो अपनी किर्ति यहीं छोड़ जाइये। (विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, पृष्ठ-55)
62.मेरी आशा मेरा विश्वास नवीन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। उन्हीं में से मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करुँगा। वर्तमान काल में अनुष्ठेय आदर्श को मैंने एक निर्दिष्ट रुप में व्यक्त कर दिया है और उसको कार्यान्वित करने के लिए मैने अपना जीवन समर्पित कर दिया है। वे एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र का विस्तार करेंगे- और इस प्रकार हम धीरे-धीरे समग्र भारत में फैल जायेंगे। (विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, पृष्ठ-61)
63.आत्मविश्वास रख। तुम्हीं लोग तो पूर्व काल में वैदिक ऋषि थे। अब केवल शरीर बदल कर आये हो। मैं दिव्य चक्षु से देख रहा हूँ, तुम लोगों में अनन्त शक्ति है। उस शक्ति को जगा दो। उठ, उठ, लग जा, कमर कस। क्या होगा दो दिन का धन-मान लेकर? मेरा भाव जानता है? - मैं मुक्ति आदि नहीं चाहता हूँ। मेरा काम है तुम लोगों में इन्हीं भावों को जगा देना। एक मनुष्य तैयार करने में लाख जन्म भी लेने पड़े तो मैं उसके लिए तैयार हूँ। (विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, पृष्ठ-61)
64.हमें इस अवसर पर मुख्यतः आवश्यकता है एक वीर के आदर्श की- ऐसा वीर जिसके सर से लेकर पैर तक नस-नस में प्रचण्ड ‘रजस’ की भावना ओत-प्रोत हो- ऐसा वीर जो सत्य को जानने के लिए कूद पड़े और प्राणों तक का मोह न करे- वह वीर जिसका कवच त्याग हो खड्ग ज्ञान। हमें इस समय जीवन के युद्ध क्षेत्र में आवश्यक है बहादुर सेनानी का जोश, न कि प्रणय में दिवाने व्यक्ति की भावुकता जो जीवन में सब्जबाग ही देखता रहता है।
65. मैं जिस आत्मतत्व की बात कर रहा हूँ वहीं जीवन है, शक्तिप्रद है और अत्यन्त अपूर्व है। केवल वेदान्त में ही वह महान तत्व है जिससे सारे संसार की जड़ हिल जायेगी और जड़ विज्ञान के साथ धर्म की एकता सिद्ध होगी। (हिन्दू धर्म, पृष्ठ-44)
66.दान से बड़ा और धर्म नहीं। हाथ सदा देने के लिए ही बनाए गये थे। कुछ मत माॅगों बदले में कुछ मत चाहो। तुम्हें जो देना है दे दो, वह तुम्हारे पास लौटकर आयेगा, पर अभी उसकी बात मत सोचो। वह वर्धिक होकर, सहस्त्र गुना वर्धिक होकर वापस आयेगा, पर ध्यान उधर न जाना चाहिए। तुममे केवल देने की शक्ति है। दे दो, बस बात वहीं पर समाप्त हो जाती है।
67. हम गुरु के बिना कोई ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। अब बात यह है कि यदि मनुष्य, देवता अथवा कोई स्वर्गदूत हमारे गुरु हो, तो वे भी तो ससीम हैं, फिर उनसे पहले उनके गुरु कौन थे? हमें मजबूर होकर यह चरम सिद्धान्त स्थिर करना ही होगा कि एक ऐसे गुरु हैं जो काल के द्वारा सीमाबद्ध या अविच्छिन्न नहीं हैं। उन्हीं अनन्त ज्ञान सम्पन्न गुरु को, जिनका आदि भी नहीं और अन्त भी नहीं, ईश्वर कहते हैं। (राजयोग, पृष्ठ-134)
68.बौद्ध धर्म और नव हिन्दू धर्म के सम्बन्ध के विषय में मेरे विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। उन विचारों को निश्चित रुप देने के लिए कदाचित् मैं जिवित न रहूँ परन्तु उसकी कार्य प्रणाली का संकेत मैं छोड़ जाऊँगा और तुम्हें और तुम्हारे भातृ-गणों को उस पर काम करना होगा। (पत्रावली भाग-2, पृष्ठ-310)
69.जीवन में मेरी सर्वोच्च अभिलाषा यह है कि ऐसा चक्र प्रर्वतन कर दूॅ जो कि उच्च एवम् श्रेष्ठ विचारों को सब के द्वार-द्वार पर पहुंचा दे। फिर स्त्री-पुरूष को अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करने दो। हमारे पूर्वजों ने तथा अन्य देशों ने जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है यह सर्वसाधारण को जानने दो। विशेषकर उन्हें देखने दो कि और लोग क्या कर रहे हैं। फिर उन्हंे अपना निर्णय करने दो। रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे किसी विशेष आकर धारण कर लेगें-परिश्रम करो, अटल रहो। ‘धर्म को बिना हानि पहुॅचाये जनता की उन्नति’ -इसे अपना आदर्श वाक्य बना लो।(विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, पृष्ठ-66)
70.जब तर्क से बुद्धि सत्य को जान लेती है, तब वह भावनाओं के स्रोत हृदय द्वारा अनुभूत होता है। इस प्रकार बुद्धि और भावना दोनों एक ही क्षण में आलोकित हो उठते है और तभी जैसे मुण्डकोपनिषद् (2-2-8) में कहा है- ”हृदय ग्रन्थि खुल जाती है, सब संशय मिट जाते है। (सूक्तिया एवम् सुभाषित, पृष्ठ-23)
71. यदि हृदय और बुद्धि में विरोध उत्पन्न हो तो तुम हृदय का अनुसरण करो, क्योंकि बुद्धि केवल एक तर्क के क्षेत्र में ही काम कर सकती है, वह उसके परे जा ही नहीं सकती, पर वह केवल हृदय ही है जो हमें उच्चतम भूमिका पर आरूढ़ करता है। वहाँ तक बुद्धि कभी नहीं पहुँच सकती। हृदय बुद्धि का अतिक्रमण कर जिसे हम ”अन्तः स्फुर्ति“ कहते है, उसे पा लेता है। ...हृदयवान व्यक्ति मक्खन पा लेते है और कोरे बुद्धिमानों के लिए सिर्फ छाछ बच जाती है। (आत्मानुभूति तथा उसके मार्ग, पृष्ठ-13-14)
72. ईसा के समान सहृदय बनो, तुम ईसा हो जाओंगे, बुद्ध के समान सहृदय बनो, तुम भी बुद्ध बन जाओंगे। भाव ही जीवन है, भाव ही बल है, भाव ही तेज है- भाव के बिना कितनी बुद्धि क्यों न लगाओं, ईश्वर प्राप्ति नहीं होगी। (व्यावहारिक जीवन में वेदान्त, पृष्ठ-25)
73.योग का शब्दिक अर्थ है- मिलन। दार्शनिक दृष्टि से इसका अर्थ परमात्मा से मिलन होता है और जो इस परमात्मा से हमें जोड़ता है, वह योग है। पूरे ब्रह्माण्ड में एक ही ब्रह्म है लेकिन जब यह अज्ञानवश देखा जाता है, तो वह अनेक दिखलाई पड़ता है। अज्ञान के फलस्वरूप हम अपने को परमात्मा से अलग समझते है। इतना ही नहीं, विविध वस्तुओं की आन्तरिक एकता को देखें बिना हम उन्हें भी भिन्न समझते है। यहीं दुःख का उदय होता है। (योग क्या है, पृष्ठ 13)
74.सम्भव है काल के प्रवाह में, कभी-कभी ऐसा भास होता है कि वेदान्त का महाप्रकाश अब बुझा अब बुझा, और जब ऐसी स्थिति आती है, तब भगवान मानव देह धारण कर, पृथ्वी पर आते हैं और फिर धर्म में पुनः एक ऐसी शक्ति, ऐसे जीवन का संचार हो जाता है कि वह फिर एकाध युग तक अदम्य उत्साह से आगे बढ़ता जाता है। आज वहीं शक्ति और जीवन उसमें फिर आ गया है।(विवेकानन्द जी के सान्निध्य में, पृष्ठ-6)
75.किसी प्रकार की राजनीति में मुझे विश्वास नहीं है। ईश्वर तथा सत्य ही जगत में एक मात्र राजनीति है, बाकी सब कुड़ा-करकट हैं। (विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, पृष्ठ-67)
76.शास्त्र कहते है कि कोई साधक यदि एक जीवन में सफलता प्राप्त करने में असफल होता है तो वह पुनः जन्म लेता है और अपने कार्यो को अधिक सफलता से आगे बढ़ाता है। (योग क्या है, पृष्ठ-83)
77.एक विशेष प्रवृत्ति वाला जीवात्मा ‘योग्य योग्येन युज्यते’ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह पूर्णतया विज्ञान संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है और चूंकि वर्तमान जीवन में इस स्वमाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है। ( हिन्दूधर्म, पृष्ठ-6)
78.सम्भवतः यह अच्छा होगा कि मैं अपने इस शरीर से बाहर निकल आॅउ और इसे जीर्ण वस्त्र की भाँति उतार फेकूँ, किन्तु फिर भी मैं कार्य करते रहने से रूकूगां नहीं मानव समाज में मैं सर्वत्र प्रेरणा प्रदान करता रहूॅगा जब तक कि संसार यह भाव आत्मसात् न कर लें कि वह ईश्वर के साथ एक है। (विवेकानन्द राष्ट्र को आहवान, पृष्ठ-23)
79.मन में ऐसे भाव उदय होते हैं कि यदि जगत का दुःख दूर करने के लिए मुझे सहस्त्रों बार जन्म लेना पडे़ तो भी मैं तैयार हूॅ। इससे यदि किसी का तनिक भी दुःख दूर हो तो वह मैं करुॅगा, और ऐसा भी मन में आता है कि केवल अपनी ही मुक्ति से क्या होगा सबको साथ लेकर उस मार्ग पर जाना होगा। (विवेकानन्द की वाणी, पृष्ठ-67)
80.यह जो मठ आदि बनवा रहा हूॅ, और दूसरों के लिए नाना प्रकार के काम कर रहा हूॅ उससे प्रशंसा हो रही है। कौन जाने मुझे ही फिर इस जगत में लौटकर आना पड़े“। (विवेकानन्द जी के संग में, पृष्ठ-167)
81.मानव स्वभाव की महिमा को कभी न भूलो। हम सब सर्वोच्च ईश्वर हैं- मैं वह अपार सागर हूँ जिसके ईसा, बुद्ध केवल तरंगे मात्र हैं। (विवेकानन्द का मानवतावाद, पृष्ठ-76)
82. कर्म के लिए अधिक भाव प्रवणता अनिष्टकर है। ”वज्र के समान दृढ़ तथा कुसुम के समान कोमल“ - यही सार नीति है। (पत्रावली-2, पृष्ठ-154)
83. ”फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्कराः प्राक्तना इव“ फल को देखकर ही कार्य का विचार सम्भव है। जैसे कि फल को देखकर पूर्व संस्कार का अनुमान किया जाता है। (पत्रावली-2, पृष्ठ-129)
84.वितरण करने से लोग प्रायः नहीं पढ़ते है इसलिए कुछ मूल्य रखना चाहिए। (पत्रावली-1, पृष्ठ-400)
85.कर्मकाण्ड को त्यागने का प्रयास करना,....जब तक ज्ञान की प्राप्ति न हो तभी तक कर्म आवश्यक है। (पत्रावली-1, पृष्ठ-328)
86.अकेेले रहो, अकेले रहो। जो अकेला रहता है उसका किसी से विरोध नहीं होता- वह किसी की शान्ति भंग नही करता, न उसकी शान्ति कोई दूसरा भंग करता है। (पत्रावली-1, पृष्ठ-287)
87.हम अनजान, बिना सहानुभूति के, विलापरहित, बिना सफल हुये मर जायेगें, परन्तु हमारा एक भी विचार नष्ट न होगा। वह कभी न कभी फल लायेगा। (पत्रावली-1, पृष्ठ-242)
88. हममें एक बड़ा दोष है- संन्यास की प्रशंसा। पहले-पहल उसकी आवश्यकता थी; अब तो हमलोग पक गये हैं, उसकी अब बिल्कुल आवश्यकता नहीं। समझे? सन्यासी और गृहस्थ में कोई भेद न देखेगा, तभी तो यथार्थ सन्यासी है। (पत्रावली-1, पृष्ठ-233)
89. श्रीकृष्ण ने आत्मस्थ होकर गीता कही थी। गीता में जिन-जिन स्थानों में ‘अहम’ शब्द का उल्लेख है वह ‘आत्म पर’ जानना। (पत्रावली-1, पृष्ठ-214)
90. तुझे प्राणपण से चेष्टा करते देखकर ही वे कृपा करेगें। उद्यम या प्रयत्न न करके बैठे रहा तो कभी कृपा न होगी। (विवेकानन्दजी के संग में, पृष्ठ-177)
91. यह सनातन धर्म का देश है। देश गिर अवश्य गया है, परन्तु निश्चय फिर उठेगा। और ऐसा उठेगा कि दुनिया देखकर दंग रह जायेगी। (विवेकानन्दजी के संग में, पृष्ठ-159)
92. अनात्मज्ञ पुरूषों की बुद्धि एकदेश-दर्शिनी होती है। आत्मज्ञ पुरूषों की बुद्धि सर्वग्रासिनी होती है। आत्मप्रकाश होने से, देखोगे कि दर्शन, विज्ञान सब तुम्हारे अधीन हो जायेगे। (विवेकानन्दजी के संग में, पृष्ठ-118)
93. भूत-प्रेत की चिन्ता करने से लोग भूत-प्रेत ही बन जाते है, और जो रात-दिन जानकर या न जानकर भी कहते है, ”मैं नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा हँू“ वे ही ब्रह्मज्ञ होते है। (विवेकानन्दजी के संग में, पृष्ठ-84)
94. किसी किसी को बिना कुछ देखे सुने ही पूर्ण विश्वास हो जाता है और किसी को बारह वर्ष तक प्रत्यक्ष सामने रहकर नाना प्रकार की विभूतियाँ देखकर भी सन्देह में पड़ा रहना होता है। (विवेकानन्दजी के संग में, पृष्ठ-55)
95. भगवान प्रकृति के सब नियमों के परे हैं अर्थात् किसी नियम के वश में नहीं है। श्री गुरूदेव जैसा कहा करते थे, ”उनका स्वभाव बच्चों के समान है। (विवेकानन्दजी के संग में, पृष्ठ-55)
96. तन्त्र कहते हैं कि कलियुग में वेदमन्त्र व्यर्थ है और कलियुग में पाँच कर्म निशिद्ध है- अश्वमेघ, गोवध, श्राद्ध में मांसपिण्ड दान, सन्यास ग्रहण और पति के अभाव में देवर के प्रति प्रजोत्पादन करना। (पत्रावली-1, पृष्ठ-16)
97. जीवन की अनित्यता के कारण युवाकाल में ही धर्मशील बनो। (विवेकानन्दजी के संग में, पृष्ठ-73)
98. सच्ची शिक्षा सर्वदा प्रकृति के सम्पर्क में रहने से ही प्राप्त होती है। (विवेकानन्द के सान्निध्य में, पृष्ठ-8)
99. हमारी मानसिक व शारीरिक शाक्तियों का उचित उपयोग ही पुण्य है और उनका अनुचित उपयोग व ह्रास ही पाप है। (विवेकानन्द के सान्निध्य में, पृष्ठ-44)
100. काम करने का एक गुप्त ज्ञान यह है कि जिधर कम से कम विरोध हो उस रास्ते चलो। (विवेकानन्द के सान्निध्य में, पृष्ठ-48)
101. आज प्रत्येक सामान्य मानव को महान बनना होगा। अन्यथा वह अपने ज्ञान और असफलता की सूली पर बिद्ध हो जायेगा। (विज्ञान और आध्यात्मिकता, पृष्ठ-78)
102. जाति तो व्यक्तियों को केवल समष्टि है। (प्राच्य और पाश्चात्य, पृष्ठ-3)
103. धर्म कार्यमूलक है। धार्मिक व्यक्ति का लक्षण ही सदा कर्मशीलता। इतना ही क्या, अनेक मीमांसको का मत है कि जिस प्रसंग में कार्य करने के लिए नहीं कहा गया है वह प्रसंग वेद का अंग ही नहीं है। (प्राच्य और पाश्चात्य, पृष्ठ-9)
104. मनुष्य वही है, जिसके जीवन में समन्वय है। (समन्वयाचार्य श्री रामकृष्ण, पृष्ठ-51)
105. समयानुसार समस्त संसार को श्रीरामकृष्ण का उदार भाव ग्रहण करना पड़ेगा। इसकी अभी सूचना मात्र हुई है। इस प्रबल बाढ़ के वेग में सभी को बह जाना पड़ेगा। (विवेकानन्दजी के संग में, पृष्ठ-298)
106. कर्म करके जिसका चित्त शुद्ध होता है वही पुरूष है। (प्राच्य और पाश्चात्य, पृष्ठ-9)
107. किसी विषय पर मन को एकाग्र करने का ही नाम ध्यान है। किसी एक विषय पर भी मन की एकाग्रता होने से उसकी एकाग्रता जिसमें चाहों उसमें कर सकते हों। (विवेकानन्दजी के संग में, पृष्ठ-47)
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