Saturday, March 14, 2020

लक्ष्य - गणराज्यों का संघ - देश और देशों का संघ - विश्व राष्ट्र

लक्ष्य - गणराज्यों का संघ - देश और देशों का संघ - विश्व राष्ट्र
ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के छठें अंश अवतार परशुराम के समय तक मानव जाति का विकास इतना हो गया था कि अलग-अलग राज्यों के अनेक साकार शासक और मार्गदर्शक राजा हो गये थे उनमें से जो भी राज्य समर्थक असुरी गुणों से युक्त थे उन सबको परशुराम ने साकार रुप में वध कर डाला। परन्तु बार-बार वध की समस्या का स्थाई हल निकालने के लिए उन्होंने राज्य और गणराज्य की मिश्रित व्यवस्था द्वारा एक व्यवस्था दी जो आगे चलकर ”परशुराम परम्परा“ कहलायी। व्यवस्था निम्न प्रकार थी-
1. प्रकृति में व्याप्त तीन गुण- सत्व, रज और तम के प्रधानता के अनुसार मनुष्य का चार वर्णों में निर्धारण। सत्व गुण प्रधान - ब्राह्मण, रज गुण प्रधान- क्षत्रिय, रज एवं तम गुण प्रधान- वैश्य, तम गुण प्रधान- शूद्र।
2.गणराज्य का शासक राजा होगा जो क्षत्रिय होगा जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति जो रज गुण अर्थात् कर्म अर्थात् शक्ति प्रधान है।
3. गणराज्य में राज्य सभा होगी जिसके अनेक सदस्य होंगे जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति के सत्व, रज एवं तम गुणों से युक्त विभिन्न वस्तु हैं।
4. राजा का निर्णय राजसभा का ही निर्णय है जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति का निर्णय वहीं है जो सत्व, रज एवं तम गुणों का सम्मिलित निर्णय होता है। 
5. राजा का चुनाव जनता करे क्योंकि वह अपने गणराज्य में सर्वव्यापी और जनता का सम्मिलित रुप है जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति सर्वव्यापी है और वह सत्व, रज एवं तम गुणों का सम्मिलित रुप है।
6. राजा और उसकी सभा राज्य वादी न हो इसलिए उस पर नियन्त्रण के लिए सत्व गुण प्रधान ब्राह्मण का नियन्त्रण होगा जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति पर नियन्त्रण के लिए सत्व गुण प्रधान आत्मा का नियन्त्रण होता है।
ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के सातवें अंश अवतार श्रीराम ने इसी परशुराम परम्परा का ही प्रसार और स्थापना किये थे। 
ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के आठवें अवतार श्रीकृष्ण के समय तक स्थिति यह हो गयी थी राजा पर नियन्त्रण के लिए नियुक्त ब्राह्मण भी समाज और धर्म की व्याख्या करने में असमर्थ हो गये। क्योंकि अनेक धर्म साहित्यों, मत-मतान्तर, वर्ण, जातियों में समाज विभाजित होने से व्यक्ति संकीर्ण और दिग्भ्रमित हो गया था और राज्य समर्थकों की संख्या अधिक हो गयी थी परिणामस्वरुप मात्र एक ही रास्ता बचा था- नवमानव सृष्टि। इसके लिए उन्होंने सम्पूर्ण धर्म साहित्यों और मत-मतान्तरों के एकीकरण के लिए आत्मा के सर्वव्यापी व्यक्तिगत प्रमाणित निराकार स्वरुप का उपदेश ”गीता“ व्यक्त किये और गणराज्य का उदाहरण द्वारिका नगर का निर्माण कर किये । उनकी गणराज्य व्यवस्था उनके जीवन काल में ही नष्ट हो गयी परन्तु ”गीता“ आज भी प्रेरक बनीं हुई है।
  ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के नवें अवतार भगवान बुद्ध के समय पुनः राज्य एकतन्त्रात्मक होकर हिंसात्मक हो गया परिणामस्वरुप बुद्ध ने अहिंसा के उपदेश के साथ व्यक्तियों को धर्म, बुद्धि और संघ के शरण में जाने की शिक्षा दी। संघ की शिक्षा गणराज्य की शिक्षा थी। धर्म की शिक्षा आत्मा की शिक्षा थी। बुद्धि की शिक्षा प्रबन्ध और संचालन की शिक्षा थी जो प्रजा के माध्यम से प्रेरणा द्वारा गणराज्य के निर्माण की प्रेरणा थी। 
  ईश्वर (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त) के दसवें और अन्तिम अवतार के समय तक राज्य और समाज स्वतः ही प्राकृतिक बल के अधीन कर्म करते-करते सिद्धान्त प्राप्त करते हुए पूर्ण गणराज्य की ओर बढ़ रहा था परिणामस्वरुप गणराज्य का रुप होते हुए भी गणराज्य सिर्फ राज्य था और एकतन्त्रात्मक अर्थात् व्यक्ति समर्थक तथा समाज समर्थक दोनों की ओर विवशतावश बढ़ रहा था। 
जिस प्रकार केन्द्र में संविधान संसद है, प्रदेश में संविधान विधान सभा है उसी प्रकार ग्राम नगर में भी संविधान होना चाहिए जिस प्रकार केन्द्र और प्रदेश के न्यायालय और पुलिस व्यवस्था है उसी प्रकार ग्राम नगर के भी होने चाहिए कहने का अर्थ ये है कि जिस प्रकार की व्यवस्थाये केन्द्र और प्रदेश की अपनी हैं उसी प्रकार की व्यवस्था छोटे रुप में ग्राम नगर की भी होनी चाहिए। संघ (राज्य) या महासंघ (केन्द्र) से सम्बन्ध सिर्फ उस गणराज्य से होता है प्रत्येक नागरिक से नहीं संघ या महासंघ का कार्य मात्र अपने गणराज्यों में आपसी समन्वय व सन्तुलन करना होता है उस पर शासन करना नहीं तभी तो सच्चे अर्थों में गणराज्य व्यवस्था या स्वराज-सुराज व्यवस्था कहलायेगी। यहीं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की प्रसिद्ध युक्ति ”भारत ग्राम (नगर) गणराज्यों का संघ हो“ और ”राम राज्य“ का सत्य अर्थ है। 
प्रबन्ध का विश्वमानक  (World Standard of Management) के अनुसार - प्रत्येक स्वायत्तशासी इकाई या मन अपने से बड़े स्वायत्तशासी इकाई या मन जो उसमें व्याप्त है, के प्रति समर्पित और केन्द्रित रहते हुये आवश्यकता और समयानुसार स्वायत्तशासी इकाई या मन के रूप में संयुग्मन और विखण्डन आधारित प्रबन्ध, प्रबन्ध का विश्व मानक कहलाता है।  
क्रियाकलापों के विश्व मानक के अनुसार (World Standard of Management & Activity) के अनुसार - कर्मशील प्रत्येक कत्र्ता स्वायत्तशासी इकाई या मन के रूप में क्रियाकलापों के विश्व मानक के अनुसार कर्मशील अपने से बड़े स्वायत्तशासी इकाई या मन जो उसमें व्याप्त है, के प्रति समर्पित और केन्द्रित रहते हुये आवश्यकता और समयानुसार क्रियाकलापों के विश्व मानक के अनुसार स्वायत्तशासी इकाई या मन के रूप में सयुग्मन और विखण्डन, प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्व मानक कहलाता है।
उपरोक्त के अनुसार - जिस राज्य क्षेत्र स्तर तक में ”एक” का विचार स्थापित करना हो, उस स्तर के क्षेत्र की छोटी इकाई को गणराज्य के रूप में निर्माण करके उनका सम्बन्ध सीधे उस राज्य से होना चाहिए। नियंत्रण हेतु बीच के जितने भी स्तर होंगे वे विकास में बाधक ही होंगे और वह गणराज्य का सत्य रूप नहीं कहलायेगा।
भारत देश के संविधान के प्रस्तावना में निम्नलिखित संकल्प हैं-
”हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न धर्म निरपेक्ष समाजवादी लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए और इसके सब नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्त, धर्म, विश्वास व पूजा की स्वतन्त्रता, हैसियत तथा अवसर की समानता प्राप्त करने के लिए और राष्ट्र की एकता तथा एक बद्धता बनाये रखते हुये सभी में बन्धुत्व की भावना बढ़ाने के लिए संकल्प होकर अपनी इस संविधान में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई0 मिती मार्गशीर्ष, शुक्ला सप्तमी, सम्वत् दो हजार छः विक्रमी को एतद्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित तथा आत्मापिर्त करते है।“
भारत देश के संविधान के प्रस्तावना में ”समाजवादी लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए“ वाक्य आता है। अवतारी श्रृंखला अनुसार, प्रबन्ध और क्रियाकलाप के विश्वमानक अनुसार और भारतीय संविधान के अनुसार देखा जाये तो ”आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत के आधार पर एक भारत - श्रेष्ठ भारत“ निर्माण के लिए ग्राम पंचायत और नगर पंचायत का अपना संविधान उसी रूप में होना चाहिए जिस रूप में भारत का है। क्योंकि भारतीय गणराज्य में सबसे छोटी इकाई यही हंै, और इनका सीधा सम्बन्ध केन्द्र से होना चाहिए। बीच के क्षेत्र पंचायत, जिला पंचायत, राज्य सरकार या कोई अन्य स्तर की कोई आवश्यकता ही नहीं है। ये गणराज्य के स्वरूप के अनुसार बीच के           बाधक हैं और गणराज्य की एकता और विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं। इनके न रहने से राज्यों के प्राकृतिक संसाधन विवाद, बार-बार चुनाव, राजनीतिक अस्थिरता और राजनीतिक भ्रष्टाचार आम जनता के विकास में बाध उत्पन्न करती है। गणराज्य के सत्य रूप में प्राकृतिक संसाधन या तो ग्राम-नगर गणराज्य के होते है या भारत गणराज्य के। भारत में निम्न्लिखित रुप व्यक्त हो चुका है-
1. ग्राम, विकास खण्ड, नगर, जनपद, प्रदेश और देश स्तर पर गणराज्य और गणसंघ का रुप।
2. सिर्फ ग्राम व नगर स्तर पर राजा (ग्राम व नगर पंचायत अध्यक्ष ) का चुनाव सीधे जनता द्वारा।
3. गणराज्य को संचालित करने के लिए संचालक का निराकार रुप- संविधान। 
4. गणराज्य के तन्त्रों को संचालित करने के लिए तन्त्र और क्रियाकलाप का निराकार रुप-नियम और कानून।
5. राजा पर नियन्त्रण के लिए ब्राह्मण का साकार रुप- राष्ट्रपति, राज्यपाल, जिलाधिकारी इत्यादि। 
अवतारी श्रृंखला के अनुसार गणराज्य के मुख्य नेतृत्व (प्रधानमंत्री/राष्ट्रपति) का चुनाव जनता द्वारा सीधे किया जाता है न कि सदस्यों द्वारा। 
भारत के सम्बन्ध में यदि ”एक भारत - श्रेष्ठ भारत“ का निर्माण करना हो तो भारतीय गणराज्य के मुख्य नेतृत्व का चुनाव सीधे जनता द्वारा होना चाहिए। जिस प्रकार भारतीय गणराज्य की सबसे छोटी इकाई ग्राम पंचायत और नगर पंचायत में उसके मुख्य नेतृत्व (अध्यक्ष/ग्राम प्रधान) ज्यादातर व्यवस्था में सीधे जनता द्वारा चुने जाते हैं। जबकि बीच के क्षेत्र पंचायत, जिला पंचायत, राज्य सरकार में उसके मुख्य नेतृत्व (अध्यक्ष) सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं। यही स्थिति भारत के मुख्य नेतृत्व के सम्बन्ध में भी है।
विश्व राष्ट्र के लिए वर्तमान व्यवस्था में गणराज्य देशों का संघ, विश्व राष्ट्र होना चहिए। जिसका स्वरूप वर्तमान समय में संयुक्त राष्ट्र संघ है जहाँ निम्नलिखित रुप व्यक्त हो चुका है-
1. गणराज्यों के संघ के रुप में संयुक्त राष्ट्र संघ का रुप।
2. संघ के संचालन के लिए संचालक और संचालक का निराकार रुप- संविधान।
3. संघ के तन्त्रों को संचालित करने के लिए तन्त्र और क्रियाकलाप का निराकार रुप- नियम और कानून।
4. संघ पर नियन्त्रण के लिए ब्राह्मण का साकार रुप-पाँच वीटो पावर।
5. प्रस्ताव पर निर्णय के लिए सदस्यों की सभा।
6. नेतृत्व के लिए राजा- महासचिव।
विश्व राष्ट्र के लिए यदि ऐसा हो सके तो गणराज्य का सत्य रूप इस प्रकार होना चाहिए - सम्पूर्ण विश्व के ग्राम-नगर गणराज्य का सम्बन्ध सीधे विश्व राष्ट्र से। जिससे देशों के सीमा विवाद हमेशा के लिए समाप्त हो जायें और मनुष्यता की शक्ति - एकीकृत विश्व विकास के लिए एकीकृत हो सके। 
संयुक्त राष्ट्र संघ सदस्य देशों का एक ऐसा संगठन है जो अन्तराष्ट्रीय शान्ति एवम् सुरक्षा और ऐसी ही राजनैतिक, आर्थिक एवम् सामाजिक परिस्थितियों को बनायें रखने के लिए वचनबद्व है। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में मुख्य रूप से निम्न उद्देश्य दिये गये है जो किसी भी देश के घरेलू मामले में दखल देने की अनुमति प्रदान नहीं करता।
1. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शान्ति व सुरक्षा बनाये रखना।
2. राष्ट्रों के बीच, उनके सम्मान, अधिकार और आत्मनिर्णय के आधार पर मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों तथा सहयोग का विकास करना।
3. आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक समस्याओं को सुलझाने के लिए तथा मनवीय अधिकारों और उनके मौलिक स्वाधीनता के प्रति सम्मान भावना बढ़ाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मिलकर कार्य करना और सहयोग प्राप्त करना।
4. इन समान उद्देश्यों की सिद्धि के लिए उन सभी राज्यों की सहायता का केन्द्र बनना।
संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर ही उसका संविधान कहलाता है जिसमें 10 हजार शब्द, 111 धारा तथा 19 अध्याय है। संविधान के अनुसार- ”प्रत्येक राष्ट्र को अपनी सम्पदा और प्राकृतिक संसाधनों पर स्वतन्त्रता पूर्वक सम्पूर्ण प्रभुत्व जमाने का। अपने राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत किसी भी विदेशी पूंजी निवेश को नियंत्रित करने और उस पर अधिकार चलाने का और विदेशी सम्पत्ति को राष्ट्रीयकृत करने, विसम्पत्तिकृत करने या उसके स्वामित्व का स्थानान्तरण करने का अधिकार प्राप्त है।“
और यह सब तभी सम्भव है जब भारत स्वयं को ”आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत के आधार पर एक भारत - श्रेष्ठ भारत“ निर्माण करके एक मानक गणराज्य के रूप में स्वयं को विश्व के समक्ष प्रस्तुत करे। ऐसा करने से यही उदाहरण विश्व के लिए मागदर्शक बन जायेगा। और भारतीय दर्शन की सर्वश्रेष्ठता के साथ उपयोगिता और गुरूता दोनों सिद्ध होगी।


No comments:

Post a Comment