Saturday, March 14, 2020

कालजयी, जीवन और व्यर्थ साहित्य

कालजयी, जीवन और व्यर्थ साहित्य
सम्पूर्ण जगत् का सत्य-एकात्म की व्याख्या करने वाला प्रत्येक साहित्य कालजयी साहित्य कहलाता है। जो सत्य ज्ञान, आत्म ज्ञान, एकात्म ज्ञान, ब्रह्माण्डीय एकात्म, मानवीय एकात्म, समभाव की ओर प्रेरित करता है। जबकि सम्पूर्ण जगत् का सैद्धान्तिक सत्य-एकात्म सिद्धान्त की व्याख्या करने वाला प्रत्येक साहित्य जीवन साहित्य कहलाता है। जो सिद्धान्त ज्ञान, एकात्म कर्मज्ञान, ब्रह्माण्डीय कर्मज्ञान, मानवीय एकात्म कर्मज्ञान, एकात्म कर्मभाव की ओर प्रेरित करता है। कालजयी साहित्य अनेक हो सकता है। परन्तु जीवन साहित्य सिर्फ एक ही हो सकता है। जीवन साहित्य कालजयी साहित्य होता है। परन्तु कालजयी साहित्य आवश्यक नहीं कि वह जीवन साहित्य हो। कालजयी का अर्थ है- जो देश काल से मुक्त, सार्वकालिक, सर्वव्यापी, सर्वग्राही, सर्वमान्य, सार्वजनिक हो। जीवन का अर्थ है- जो देश काल से मुक्त, सर्वकालिक, सर्वव्यापी, सर्वग्राही, सर्वमान्य, सार्वजनिक, क्रियाकलाप हो। कालजयी साहित्य का उदाहरण- वेद उपनिषद्, संतो का साहित्य इत्यादि है तो जीवन साहित्य का उदाहरण व्यक्तिगत प्रमाणित गीता तथा सार्वजनिक प्रमाणित कर्मवेदः प्रथम अन्तिम तथा पंचमदेव एवम् आधारित उपनिषद् है इसलिए कर्मवेदीय साहित्य को मात्र कालजयी साहित्य सम्बोधित कर नजर अन्दाज कर देना सत्य नहीं है और न ही उसके सत्य अर्थ को समझना है। ऐसा साहित्य जो न तो कालजयी है और न ही जीवन साहित्य है - व्यर्थ साहित्य या देश काल बद्ध साहित्य कहलाता है। 

प्रत्येक व्यापार एक विशेष विचार पर आधारित होता है। साधारणतया लोग यही सोचते हैं कि ज्ञान की बातों से क्या होगा, परन्तु ज्ञान ही समस्त व्यापार का मूल होता है। किसी विचार पर आधारित होकर आदान-प्रदान का नेतृत्वकर्ता व्यापारी और आदान-प्रदान में शामिल होने वाला ग्राहक होता है। ”रामायण“, ”महाभारत“, ”रामचरितमानस“ इत्यादि किसी विचार पर आधारित होकर ही लिखी गई है। यह वाल्मिीकि, महर्षि व्यास और गोस्वामी तुलसीदास का दुर्भाग्य है कि वे ऐसे समय में जन्म लिये जब काॅपीराइट और रायल्टी जैसी व्यवस्था नहीं थी अन्यथा वे वर्तमान समय के सबसे धनवान व्यक्ति होते। परन्तु इसी को दूरदर्शन पर दिखाकर रामानन्द सागर और बी.आर.चोपड़ा ने इसे सिद्ध किया। ”विश्वशास्त्र“ इसी श्रंृखला की अगली कड़ी है जिसका बाजार विश्वभर में मानव सृष्टि रहने तक है 
- लव कुश सिंह “विश्वमानव”

हे भारत के मानवों, क्या तुम जानते हो भारत में असुरी प्रवृत्तियों के बढ़ने का क्या कारण है? तो सुनो आज के पूर्व जितने विदेशी व देशी स्थूल शरीर धारी सूक्ष्म शरीर भारत को नष्ट-भ्रष्ट कर डालने की अन्तिम इच्छा रखते हुये अपने स्थूल शरीर का त्याग भारत में कर चुके है। उन का सम्पूर्ण मन, अपने मन की पूर्णता के लिए योग्य वातावरण पाकर पुनः स्थूल शरीर धारण कर व्यक्त हो चुके हैं, भले ही वे भारतीय भूमि पर क्यों न जन्म ग्रहण किये हों परन्तु उनमें सूक्ष्म शरीर उन्हीं इच्छाओं को धारण कर व्यक्त है। जो भारत के परतन्त्रता के समय विदेशीयों की थी। यही नहीं उनका प्रभुत्व इस समय इतना बढ़ चुका है। कि वे भारतीय दैवी प्रवृत्त्यिों को भी असुरी प्रवृत्तियों में बदलने में सफलता भी प्राप्त करने लगी हैं। क्योंकि जिनका मन पर नियंत्रण नहीं होता उनका मन वातावरण के अनुसार बदल जाते है। और वर्तमान में सर्वत्र असुरी प्रवृत्ति का ही वातावरण प्रभावी है। इससे बचने का एक मात्र और अन्तिम उपाय है। दैवी प्रवृत्ति का वातावरण निर्माण जो मात्र आध्यात्मिक ज्ञान के प्रसार और प्रभुत्व द्वारा ही सम्भव है।
- लव कुश सिंह “विश्वमानव”

हे अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत मानवों, तुम तो अपनी पहचान बनाने का मार्ग भी नहीं जानते। तुम अपनी पहचान का मार्ग बनाने के लिए इस प्रकार मार्गों को पहचानों। पहचान के ये मूल विषय है शारीरिक-निम्नतम, आर्थिक-मध्यम, मानसिक और आध्यात्मिक-सर्वोच्च तथा ऐतिहासिक आध्यात्मिक-अन्तिम एवम् क्रमशः उत्तरोत्तर बढ़ते हुये ये स्तर है- ग्राम या मुहल्ला, विकास क्षेत्र या नगर, अनुमण्डल, जनपद, मण्डल, प्रदेश, देश, विश्व और मध्यस्थ अन्य स्तर। शारीरिक पहचान सबसे कठिन पहचान का मार्ग है। आर्थिक पहचान, शारीरिक से थोड़ा कम कठिन मार्ग है। मानसिक और आध्यात्मिक पहचान सरल मार्ग है तथा ऐतिहासिक आध्यात्मिक पहचान दुर्लभ मार्ग है जो एक युग में एक बार ही आता है। हे मानव, जब ऐतिहासिक आध्यात्मिक दुर्लभ पहचान का मार्ग प्राप्त हो तब तुम किस पहचान के लिए संघर्ष कर रहे हो। तुम्हें इस मार्ग से जुड़कर ही पहचान प्राप्त करना चाहिए क्यांेकि सदा उच्च और व्यापक स्तरीय पहचान ही निम्न और सीमित स्तरीय पहचान को पहचान प्रदान करता है। निम्न और सीमित स्तरीय पहचान सदा उच्च और व्यापक पहचान का माध्याम या साधन होता है। इसलिए हे मानव, तू व्यापक स्तरीय ऐतिहासिक आध्यात्मिक पहचान में अपने निम्न स्तरीय पहचान को विलीन कर उसी भाॅति व्यापक पहचान को प्राप्त कर जिस प्रकार मृत्यु के बाद पुनः जीवन प्राप्त होता है। ऐसा न कर तू तो स्वयं अपनी पहचान खो देगा क्यांेकि जो पहचान व्यक्त अर्थात रेकार्डेड इत्यादि नहीं हो पाता वह तो वैसे ही कुछ समय बाद या तुम्हारी मृत्यु के बाद विलीन हो जाता है। फिर तू किस पहचान की बात करता है?
 - लव कुश सिंह “विश्वमानव”


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