पौराणिक देवी-देवता: मनुष्य समाज के विभिन्न पदों के मानक चरित्र
पृथ्वी की उत्पत्ति कैसे हुई, मानव एवं अन्य जीवधारी तथा वनस्पतियों का क्रमिक विकास कैसे हुआ? फिर ईश्वर, अवतार, देवी-देवता कैसे आये? इसे जानने के केवल दो रास्ते हैं।
अ. अदृश्य काल - यह वह समय है जिसमें आधुनिक भौतिक विज्ञान का विकास नहीं हुआ था। इस काल में 1. सत्ययुग, 2. त्रेतायुग और 3. द्वापर युग था।
1. धार्मिक मत का रास्ता: वर्तमान से 5000 वर्ष पुराने वैदिक धर्म के अनुसार
2. वैज्ञानिक मत का रास्ता: आधुनिक विज्ञान उपलब्ध नहीं था
ब. दृश्य काल - यह वह समय है जिसमें आधुनिक भौतिक विज्ञान का विकास हो चुका था। इस काल में 4. कलियुग था।
1. धार्मिक मत का रास्ता: वर्तमान से 2000 वर्ष पुराने ईसाइ धर्म और वर्तमान से 1400 वर्ष पुराने इस्लाम धर्म के अनुसार
2. वैज्ञानिक मत का रास्ता: आधुनिक विज्ञान के अनुसार
धार्मिक मतानुसार सृष्टि की रचना ईश्वर ने की और ईश्वर द्वारा ही जल-प्रलय किया गया। सभी धर्मो में जीव उत्पत्ति, सृष्टि संरचना एवं जल-प्रलय की विचारधारा समान ही है। जो ईसाई, मुस्लिम, चीनी, असीरियन, मैक्सिको, पर्शिया, युनान, अर्गगीज और पुराण जैसे शास्त्र व इतिहास में मिलता है। धार्मिक दृष्टिकोण से सबसे प्राचीन और धर्म का प्रारम्भ वैदिक धर्म ही सनातन धर्म है जिसमें विश्व के शेष अन्य धर्म-सम्प्रदायों का अंश विद्यमान है। ईश्वरीय आदेश पर मात्र नूह या मनु तथा उनके साथ अन्य जीवधारी ही बचे, जिससे सृष्टि के सृजन का कार्य चला।
वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार, अरबों वर्ष पहले इस पृथ्वी का आविर्भाव हुआ। प्रारम्भ में यह आग के गोले के रूप में थी। धीरे-धीरे यह ठण्डी होती गई। करोड़ों वर्ष बीतने पर इसमें जल, वायु, मिट्टी, अग्नि और आकाश पंच महाभूतों के संयोजन से जीवन का क्रमशः विकास हुआ। धीरे-धीरे महासागरों का आविर्भाव हुआ। प्रारम्भ में इसमें जल में रहने वाले जीवों का विकास हुआ, जैसे मछली। फिर जल और थल दोनों में जीवित रह सकने वाले प्राणी विकसित हुए, जैसे मेढक, केंकड़ा इत्यादि। तदन्तर केवल स्थल में जीवित रहने वाली प्राणी विकसित हुए। कालचक्र की गति चलती रही और नभचर प्राणियों का भी विकास हुआ। प्रकृति के तमाम थपेड़ों अनेकानेक बार बाढ़, जलप्लावन, अकाल, सामूहिक मृत्यु आदि से बहुत से जीवों की जातियां विकसित भी हुई और बहुत सी लुप्त भी हो गईं, जैसे विसालकाय डायनासोर। क्रमिक विकास के द्वारा जीवधारीयों में मछली, स्तनपायी, वानर, चिम्पैंजी, वनमानुष और फिर मनुष्य का विकास हुआ। वैज्ञानिक मान्यता है कि मनुष्य का पूर्वज बंदर था। विचार की शक्ति से धीरे-धीरे बन्दर जैसा प्राणी चार पैरों में से अगले दो पैरों का उपयोग फल आदि तोड़ने में करने लगा और चैपाये से दो पाये वाले मनुष्य का विकास हुआ। बन्दर की पूँछ का उपयोग न होने से धीरे-धीरे वह गायब हो गई। मनुष्य की रीढ़ के अन्तिम छोर पर उसका अवशेष अब भी पाये जाते हैं।
इस प्रकार धार्मिक एवं वैज्ञानिक मतों का तालमेल एवं वर्णन लगभग समान ही है। जिस इतिहास के बारे में जानकारी नहीं है, मात्र कल्पना, तर्क तथा तत्कालीन वस्तुओं, घटनाओं के आधार पर काल निर्धारण किया जाता है, वह प्रागैतिहासिक काल कहा जाता है। और जिस इतिहास के बारे में क्रमबद्ध सही जानकारी प्राप्त होती है, उसे ऐतिहासिक काल कहा जाता है। यह आधार हमारी सृष्टि रचना एवं आदिमानव की उत्पत्ति एवं विकास पर भी लागू होती है। विश्व की संस्कृति एवं सभ्यताओं का उद्भव व विकास नदी घाटीयों से प्रारम्भ हुआ। विश्व की सभी सभ्यताओं का समय लगभग एक ही है। जो पूर्वी विश्व के भू-भाग से प्रारम्भ हुई, इस कारण उनमें आपस में बहुत ही सामंजस्य है।
वैदिक-सनातन-हिन्दू धर्म में जो बातें उपलब्ध होती है, उनमें सबसे प्राचीन वंश स्वायंभुव मनु से प्रारम्भ होता है। स्वायंभुव मनु से पहले का समय प्रागैतिहासिक काल था। स्वायंभुव मनु से ही ऐतिहासिक काल प्रारम्भ होता है। स्वायंभुव मनु से प्रारम्भ हुये ऐतिहासिक काल को पौराणिक, ऐतिहासिक व भविष्य के वंश में विभाजित किया जा सकता है। स्वायंभुव मनु के स्वयं उत्पन्न होने के कारण इन्हें स्वायंभुव मनु कहा गया है। यह सर्वमान्य सत्य है कि बिना स्त्री-पुरूष के सम्बन्ध से किसी का उत्पन्न होना विश्वसनीय नहीं माना जा सकता है। यह हो सकता है कि स्वायंभुव मनु के पूर्वजों के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं थी इसलिए इन्हें स्वायंभुव मनु कहा गया। स्वायंभुव मनु के बारे में भिन्न-भिन्न धर्म ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न नाम से वर्णन किया गया है जैसे आदेश्वर, अशिरष, वैवस्वत मनु, आदम और नूह। अतः यहाँ से शुरू होता है - ”सर्वप्रथम विकसित मानव का इतिहास“। (विस्तार से जानने के लिए विश्व-बन्धुत्व/यूनिवर्सल ब्रदरहुड देखें)
अ. पौराणिक वंश -
संसार के सर्वप्रथम मनु-स्वायंभुव मनु थे। उनके दो पुत्र थे- प्रियव्रत और उत्तानपाद। साथ ही तीन पुत्रियाँ थीं- आकूति, प्रकूति तथा देवहूति। देवहूति का विवाह कर्दम ऋषि से हुयी जिनसे विश्व का प्राचीन और प्रथम सांख्य दर्शन को देने वाले कपिल मुनि पैदा हुये। प्रियव्रत और उत्तानपाद के वंशज मनुर्भरत कहे गये हैं। मनुर्भरतों की कुल 45 पीढ़ियाँ थीं। अन्तिम व्यक्ति दक्ष प्रजापति थें। उस समय के समूची मानवजाति के प्रजापति ये ही 45 पीढ़ियाँ थीं।
मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा में स्वायंभुव मनु से लेकर दक्ष वंश तक का काल सत्ययुग काल कहा गया। इसी दक्ष वंश के प्रजापति उर के वंशजों का एक राज्य कर्तार प्रदेश (वर्तमान कतर) में था जहाँ का राजा सर्वप्रथम विष्णु कर्तार नाम से हुआ। इस गद्दी पर बैठने वाले सभी विष्णु कर्तार कहलाये। गद्दी पर बैठने वाले पाँचवें विष्णु कर्तार के पुत्र का नाम नाभि कर्तार, और नाभि कर्तार के पुत्र का नाम कमल कर्तार, और कमल कर्तार के पुत्र का नाम ब्रह्मा कर्तार था। विष्णु कर्तार के साम्राज्य का विस्तार प्रथम विष्णु कर्तार ने वर्तमान क्षीर सागर तथा अराल सागर तक फैलाया। इन सागरों के आस-पास नागवंशीयों तथा गरूण वंशीयों का साम्राज्य था जिसे प्रथम विष्णु ने विजित कर अपने अधीन कर लिया। ब्रह्मा कर्तार ने ही सर्वप्रथम वेदों की ऋचाओं की संरचना एवं संकलन किया।
ब. ऐतिहासिक वंश
ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों 1. मन से मरीचि, 2. नेत्रों से अत्रि, 3. मुख से अंगिरा, 4. कान से पुलस्त्य, 5. नाभि से पुलह, 6. हाथ से कृतु, 7. त्वचा से भृगु, 8. प्राण से वशिष्ठ, 9. अँगूठे से दक्ष तथा 10. गोद से नारद उत्पन्न हुये। मरीचि ऋषि, जिन्हें ‘अरिष्टनेमि’ के नाम से भी जाना जाता है, का विवाह देवी कला से हुआ। देवी कला कर्दम ऋषि की पुत्री और कपिल देव की बहन थी। उनकी कोख से महातेजस्वी दो पुत्र 1. कश्यप और 2. अत्रि हुये। संसार के सर्वप्रथम मनु-स्वायंभुव मनु की पुत्री देवहूति से कर्दम ऋषि का विवाह हुआ था।
कश्यप की 13वीं अदिति नामक स्त्री से आदित्य (सूर्य) उत्पन्न हुए। अदिति, मनुर्भरतवंश के 45वीं पीढ़ी में उत्तानपाद शाखा के प्रजापति दक्ष की पुत्री थी (बृहद्वेता, 3.57)।
कश्यप-अदिति के आदित्य (सूर्य) की दूसरी पत्नी संज्ञा से यम नामक पुत्र और यमी नामक पुत्री थी। यम की दो पत्नीयाँ 1. संध्या और 2. वसु थी। यम की पहली पत्नी संध्या से सांध्य (सीदीयन जाति) पुत्र हुये जिनके तीन पुत्र 1. हंस (जर्मन जाति) 2. नीप (नेपियन जाति) 3. पाल (पलास जाति)। यम की दूसरी पत्नी वसु से 8 पुत्र 1. धर 2. धुन 3. सोम 4. अह 5. अनिल 6. अनल 7. प्रत्यूष और 8. प्रभाष पैदा हुये जो अष्टवसु कहलाये। अष्टवसु धर की पत्नी उमा से महाप्रतापी पुरूष त्रयम्बक रूद्र पुत्र उत्पन्न हुए थे जिन्हें शिव की उपाधि मिली। यही रूद्र शिव शिवदान (वर्तमान सूडान) प्रदेश के राजा थे जिन्हें दक्ष ने अपनी पुत्री उमा के विवाह में दान में दिया था। यही उमा अपने पति का अपमान न सहन कर सकने के कारण अपने पिता के यज्ञ कुण्ड में कूदकर आत्मदाह कर लिया था। इस पर क्रुद्ध होकर शिव ने इस वंश का नाश ही कर दिया था और यहीं से उमा का नाम सती हो गया।
शिव गद्दी पर बैठने वाले सभी राजा शिव कहलायें। इस वंश में 12 चक्रवर्ती राजा हुये। शेष अन्य छोटे राजा थे। इस प्रकार कुल 52 साम्राज्य शिव वंश के थे। शिव वंश का साम्राज्य वर्तमान भारत का शैव पीठ, ईरान का रूद्रवर क्षेत्र, वर्तमान अफ्रीका के सूडान (शिवदान), वर्तमान उमा प्रदेश (उर्मिया झील के आस-पास का क्षेत्र), बगदाद का उत्तरी हिस्सा, कुर्दिस्तान का दक्षिणी भाग, अरब के काव्य क्षेत्र काबा तक स्थापित था। इसके अतिरिक्त एशिया माइनर सरवन प्रदेश तथा वाणासुर की राजधानी ”वन“ में रूद्र शिव का निवास रहा। रूद्र शिव से 11 कुल चले जिनसे द्रविण और हूण जाति का विकास हुआ।
पुराणों में पौराणिक वंश के विष्णु कर्तार व ब्रह्मा कर्तार ही विष्णु और ब्रह्मा के नाम से तथा ऐतिहासिक वंश के शिव, शिव के नाम से दिखाये गये हैं।
किसी संस्था के मुख्य व्यक्ति, व्यक्ति नहीं बल्कि संस्था होता है। उसका पद ही उसका पहचान होता है और उसके द्वारा की गई समस्त कार्यवाही व्यक्ति की नहीं बल्कि संस्था की होती है। व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है परन्तु संस्थायें लम्बी अवधि तक चलती रहती है। उदाहरणस्वरूप वर्तमान समय में देश, संस्थायें और पीठ हैं। जैसे विदेशों में जाने पर जब किसी देश का मुख्य व्यक्ति कोई समझौता करता है तब वह देश होता है न कि व्यक्ति। प्राचीन समय में भी इसी प्रकार के अनेक पीठ थे और बनते चले गये जैसे- ब्राह्मण, परशुराम, विश्वामित्र, व्यास, वशिष्ठ, नारद, इन्द्र, गोरक्षपीठ (क्षत्रिय पीठ), शंकराचार्य पीठ (ब्राह्मण पीठ) इत्यादि। जब तक संस्था नहीं रहती तब तक व्यक्ति, व्यक्ति रहता है जब उसके द्वारा संस्था स्थापित हो जाती है तब व्यक्ति, व्यक्ति न रहकर संस्था हो जाता है। उस संस्थापक व्यक्ति के जीवन काल तक उसे साकार रूप में फिर उसके उपरान्त उसके निराकार रूप विचार का साकार रूप संस्था के रूप में समाज याद करता है। ऐसी स्थिति में जब संस्थापक व्यक्ति का नाम ही संस्था का नाम हो तब संस्था द्वारा किये गये समस्त कार्य एक भ्रमात्मक स्थिति को उत्पन्न करते हैं और एक लम्बे समय के उपरान्त यह नहीं समझ में आता कि वह संस्थापक व्यक्ति इतने लम्बे समय तक कैसे जिवित था? सत्य तो यह है कि शरीर मर जाता है लेकिन विचार या विचार पर किये गये कार्य नहीं मरते। इस सत्य के आधार की दृष्टि से यदि हम देखें तो स्थिति स्पष्ट हो जायेगी कि-
1. वशिष्ठ के सम्बन्ध में - सर्वप्रथम वशिष्ठ सूर्यवंश के प्रथम पुरूष महाराज इच्छवाकु के सामने पैदा होते हैं। दूसरी बार वशिष्ठ मैथिली वंश के यज्ञ में ऋत्विक कार्य सम्पन्न कराते हैं। इच्छवाकु से मैथिली वंश में चैथी पीढ़ी का अन्तर है। तीसरी बार वशिष्ठ राजा त्रिशंकु के समय में प्रकट होते हैं। चैथी बार वशिष्ठ राजा दिलीप के समय भी होते हैं पाँचवीं बार महाराजा दशरथ के समय उपस्थित होते हैं। छठवीं बार महाभारत काल में होते हैं जो आबू पर्वत पर अग्नि पैदा करके अग्नि से क्षत्रिय पैदा करते हैं।
2. नारद के सम्बन्ध में - युग कोई भी हो वहाँ नारद की उपस्थिति सदैव रहती है। नारद त्रेता के राम काल में भी हैं तो द्वापर के कृष्ण काल में भी और इनसे प्राचीन ब्रह्मा-विष्णु-महेश काल में भी।
3. विश्वामित्र के सम्बन्ध में - विश्वामित्र सूर्यवंश के 32वीं पीढ़ी के राजा हरिश्चन्द्र का राज्य दान में लेते हैं। फिर इसी वंश की 62वीं पीढ़ी में राजा दशरथ से यज्ञ रक्षार्थ उनके पुत्र राम और लक्ष्मण को साथ ले गये थे।
4. ब्राह्मण के सम्बन्ध में - यह एक विद्यापीठ था जो उस समय राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवऋषि इत्यादि उपाधियों को प्रदान करता था जैसे वर्तमान समय के शिक्षा संस्थान उपाधियाँ प्रदान कर रहीं हैं। संस्कृत विश्वविद्यालयों से आज भी शास्त्री, आचार्य, शिक्षा शास्त्री इत्यादि उपाधि उनको दी जा रहीं हैं जो इसके योग्य हैं। बिना कोई परीक्षा उत्तीर्ण किये विशेषज्ञता के आधार पर विश्वविद्यालय मानद उपाधि भी प्रदान करती हैं।
5. परशुराम के सम्बन्ध में - त्रेता युग में जनकपुरी में सीता स्वयंवर के समय परशुराम उपस्थित होते हैं और द्वापर युग में भीष्म और कर्ण को भी शिक्षा देते हैं। साथ ही भविष्य के एक मात्र शेष अन्तिम अवतार कल्कि के भी वे गुरू होगें, ऐसा पुराण में है।
6. दुर्वासा के सम्बन्ध में - दुर्वासा ऋषि राम काल के थे जो अत्रि-अनुसूईया के पुत्र थे और राम वनवास समय में श्री राम से मिले भी थे। फिर दुर्वासा महाभारत काल में द्वापर के अन्त तक भी उपस्थित रहते हैं।
7. व्यास के सम्बन्ध में - समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र की रचना करना व उसका प्रचार-प्रसार करने के लिए व्यास सदैव हर युग में उपस्थित रहते हैं।
वैदिक काल में ऋषियों का वर्णन आया है। कुछ को छोड़कर सभी ऋषि परिवार वाले थे। वैदिक काल के ऋषि दार्शनिक, विद्वान, योद्धा एवं कृषक तीनों थे। ऋचाओं को लिखने वाले ऋषियों को देवर्षि की संज्ञा प्राप्त थी। प्राचीन ऋषियों में बहुत से ऋषि, राजर्षि से ब्रह्मर्षि हो गये तथा ब्रह्मर्षि से राजर्षि भी हुए लेकिन इनकी संख्या कम है। आरम्भ में ब्राह्मण कोई जाति नहीं थी बल्कि यह विद्यापीठ था। यही कारण है कि अनेक राजर्षि, ब्रह्मर्षि उपाधि प्राप्त किये। यही नहीं प्राचीन वंशावली में भी सूर्य के 12 पुत्रों में बहुत से अग्निहोत्र करने के कारण ब्राह्मण की उपाधि धारण किये। सूर्य के पुत्र वरूण से ही ब्रह्म वंश चला जिसमें भृगु, वशिष्ठ, वाल्मिकि, जमदग्नि, पुलस्त्य थे जबकि ब्रह्म वंशीय भी विशुद्ध सूर्यवंशीय ही है। केवल अग्निहोत्र करने के कारण ही ये ब्राह्मण कहलाये।
मानव सभ्यता के विकास के कालक्रम में कर्म कर अनुभव के ज्ञान सूत्र का संकलन ही वेद के रूप में व्यक्त हुआ जिससे आने वाली पीढ़ी मार्गदर्शन को प्राप्त कर सके और अपना समय बचाते हुए कर्म कर सके। अर्थात प्रत्येक साकार सफल नेतृत्व के साथ उसके अनुभव का निराकार ज्ञान सूत्र के संकलन की समानान्तर प्रक्रिया भी चलती रही। और यह सभी प्रक्रिया मानव जाति के श्रेष्ठतम विकास के लिए ही की जा रही थी। समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र की रचना करना व उसका प्रचार-प्रसार करने वाले व्यास कहलाये।
जिनके द्वारा शास्त्र रचना के युगानुसार निम्न चरण पूरे हुए।
1. सार्वभौम आत्मा के ज्ञान द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - वेद
2. सार्वभौम आत्मा के नाम द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - उपनिषद्
3. सार्वभौम आत्मा के कृति कथा द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - पुराण
4. सार्वभौम आत्मा के प्रकृति द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र - महाभारत
5. सार्वभौम आत्मा के कर्मज्ञान द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए शास्त्र -विश्वशास्त्र-द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज
वेद के ज्ञान सूत्र व उपनिषद् की वार्ता के अलावा मनुष्य को एकात्म करने के लिए दृश्य चित्र या वस्तु की आवश्यकता की विधि का प्रयोग ही पौराणिक देवी-देवता हैं। सार्वभौम आत्मा के कृति कथा द्वारा समाज को एकात्म करने के लिए पुराण शास्त्र ही देवी-देवताओं के उत्पत्ति का कारण है। जिसे उत्पन्न करने का कारण मानव को एक आदर्श मानक पैमाना व लक्ष्य देना था जिससे वे मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें। वेद और उपनिषद् शास्त्र में देवी-देवता के स्थान पर मात्र प्रकृति-पुरूष का प्रतीक चिन्ह - शिवलिंग ही व्यक्त था। मनुष्य या कोई भी जीव जब अपने ईश्वर का रूप निर्धारित करेगा तब वह अपनी ही शारीरिक संरचना रूप में ही कल्पना कर सकता है। इस मानवीय रूप के निर्धारण में गुणों को वस्त्र-आभूषण, वाहन इत्यादि के प्रतीक के माध्यम से व्यक्त किया गया। पुराणों में निम्नलिखित विधि से देवी-देवताओं की उत्पत्ति की गयी है-
1. सार्वभौम आत्मा से ब्रह्माण्ड और उसके परिवार जैसे सूर्य, चाँद, ग्रह, नक्षत्र, नदी, समुद्र, पर्वत इत्यादि को देवी-देवता के रूप में एक मानवीय रूप द्वारा गुणों के अनुसार निरूपित कर प्रक्षेपित किया गया। जिससे यह ज्ञान प्राप्त हो सके कि उस अदृश्य ईश्वर की कृति यह ब्रह्माण्ड उसका दृश्य रूप है अर्थात यह दृश्य ब्रह्माण्ड ही हमारा दृश्य ईश्वर है। अर्थात जिस प्रकार हम ईश्वर से प्रेम करते हैं उसी प्रकार हमें इस दृश्य ईश्वर - ब्रह्माण्ड से प्रेम करना चाहिए जो हमें प्रत्यक्ष रूप में जीवन संसाधन उपलब्ध कराता है।
2. सार्वभौम आत्मा से मनुष्य और उसके परिवार को देवी-देवता के रूप में एक मानवीय रूप द्वारा गुणों के अनुसार निरूपित कर प्रक्षेपित किया गया। जिससे यह ज्ञान प्राप्त हो सके कि उस अदृश्य ईश्वर की कृति यह मनुष्य उसका दृश्य रूप है अर्थात यह दृश्य मनुष्य ही हमारा दृश्य ईश्वर है। अर्थात जिस प्रकार हम ईश्वर से प्रेम करते हैं उसी प्रकार हमें इस दृश्य ईश्वर - मानव से प्रेम करना चाहिए जो हमें प्रत्यक्ष रूप में जीवन संसाधन उपलब्ध कराता है।
अन्तः दृष्टि में भिन्नता होने से ही अलग-अलग मनुष्य एक ही विषय को भिन्न-भिन्न रूपों में देखते है और अपने स्वरूप या दृष्टि के अनुसार उसकी व्याख्या करते है। यह उसी प्रकार से होता है जैसे एक सोने के गिलास को एक बच्चा खिलौने की दृष्टि से देखेगा, तो धन की प्राथमिकता वाला व्यक्ति उसे धन रूप में देख सकता है, तो एक चोर उसी को चोरी करने योग्य वस्तु की दृष्टि से देखेगा, तो कोई प्यासा व्यक्ति उसे पीने के पात्र के रूप में देखेगा। इसी प्रकार पुराण कथा के सम्बन्ध में भी हैं। तो फिर पुराणों को समझने के लिए की सत्य दृष्टि क्या है? आत्मतत्व निराकार है उसकी उपस्थिति गुणों से ही प्रमाणित होती है। जैसे-अदृश्य हवा और विद्युत इत्यादि का प्रमाण उसके गुणों और यन्त्रों के गतिमान होने पर प्रमाणित होती है। उसी प्रकार आत्मा का पूर्ण सार्वजनिक प्रमाणित व्यक्त गुण एकात्म ज्ञान, एकात्मकर्मं और एकात्मध्यान का संयुक्त रूप है। जिन्हें पुराणों में क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के सगुण रूप में प्रक्षेपित किया गया है। परन्तु मनीषी यह जानते थे कि एकात्मज्ञान बिना एकात्मकर्म के सामाजिक प्रमाणित नहीं हो पाता और एकात्मज्ञान और एकात्मकर्म बिना एकात्मध्यान के सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय प्रमाणित नहीं हो पाता। इसलिए पुराण में शिव-शंकर से विष्णु को तथा पुनः विष्णु से ब्रह्मा को बहिर्गत अर्थात् ब्रह्मा को विष्णु के समक्ष तथा विष्णु को शिव-शंकर के समक्ष समर्पित या समाहित होते दिखाया गया है। परिणामस्वरूप एकात्मज्ञान, एकात्मज्ञान सहित एकात्मकर्म और एकात्मज्ञान तथा एकात्मकर्म सहित एकात्मध्यान क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिवशंकर का सत्य गुण हैं चॅूकि शिव-आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म का पूर्ण सार्वजनिक प्रमाणित गुण एकात्मज्ञान, एकात्मकर्मं और एकात्मध्यान का संयुक्त रूप है जो शंकर के अधीन है। इसलिए उनका पूर्ण रूप शिव-शंकर है। और महादेव, त्रिदेव, विश्वेश्वर जैसे सर्वोच्च नाम को प्राप्त हैं। सिर्फ शंकर, एकात्मध्यान के रूप है। सिर्फ विष्णु, एकात्मकर्म के रूप है। सिर्फ ब्रह्मा, एकात्मज्ञान के रूप है। पूर्ण विष्णु एकात्मज्ञान सहित एकात्मकर्म के रूप है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव-शंकर ईश्वर-आत्मा-शिव-ब्रह्म के संक्रमणीय, संग्रहणीय गुणात्मक मूल गुण के सगुण रूप है। जिनका कार्य तभी सक्रिय होता हैं जब दृश्य जगत में आत्मीय कर्म, आत्मीय ज्ञान और आत्मीय ध्यान की सर्वोच्चता समाप्त हो जाती है। दृश्य जगत में आत्मीय ध्यान के संरक्षक देवताओं के राजा इन्द्र और उनके परिवार के मूल सगुण रूप में है। जब भी दृश्य जगत में देवता जैसा कर्म होता था तो इन्द्र परिवार से उसके सूक्ष्म शरीर को जोड़ा जाता है। और जब भी दृश्य जगत में अवतार जैसा कार्य होता है तब उन्हें ईश्वर के मूल गुणों ब्रह्मा, विष्णु, शिव-शंकर से उनके सूक्ष्म शरीर को जोड़ा जाता है। इसके अलावा दृश्य जगत में एक पक्ष और होता है जो आत्मीय से मुक्त ज्ञान, कर्म और ध्यान से जुड़ा रहता है। वह है- असुर पक्ष। इनके भी सूक्ष्म शरीरों को मूल असुर परिवार से जोड़ा जाता है। ब्र्रह्मा, विष्णु, शिव-शंकर का लोक ब्रह्म, विष्णु, शिव लोक तथा इन्द्र का इन्द्र लोक या स्वर्गलोक तथा असुरों का लोक-नरक लोक कहा जाता है। लोक का अर्थ मन स्तर से है जहाॅ उनकी अपनी मन का स्तर और दृष्टि है। सत्य रूप से नरक, स्वर्ग और अन्य लोक एक ही मन की क्रमशः निम्न, उच्च, उच्चतर और सर्वोच्च अवस्था युक्त स्थान या स्तर है। अब यहाॅ पुराणों में प्रेक्षेपित सगुण रूपों के साथ उनके परिवारों का धर्मनिरपेक्ष-सत्य दृष्टि प्रस्तुत की जा रही है। उस सत्य दृष्टि-गुण से उन्हें देखने पर पुराणों की दैनिक जीवन में उपयोगिता आत्मसात् करने लगेगी। उदाहरण के रूप में यदि ब्रह्मा बोल रहे है तो यह समझें कि एकात्म ज्ञान व्यक्त हो रहा है। यदि नारद बोल रहे है तो समझे कि एकात्म मन व्यक्त हो रहा है।-इस प्रकार। इस क्रम में मनुष्य को उसके कार्य क्षेत्र के अनुसार सर्वोच्च आदर्श मानक चरित्र प्रक्षेपित किये गये जिससे मनुष्य मार्गदर्शन प्राप्त कर सके। कार्य क्षेत्र अनुसार सर्वोच्च आदर्श मानक चरित्र निम्नवत् हैं-
1. व्यक्तिगत कार्य क्षेत्र स्तर - बह्मा अर्थात एकात्मज्ञान परिवार
व्यक्तिगत कार्य क्षेत्र स्तर पर चरित्र और मानक चरित्र को जानने के लिए पहले समाज की सबसे छोटी और मूल इकाई व्यक्ति को जानना होगा। व्यक्ति के साथ शरीर, ज्ञान, वाणी और मन होता है जब तक यह स्वतन्त्र है तब तक वह वह व्यक्ति है जैसे ही उसकी दिशा सार्वभौम एकात्म हो जाती है वह आदर्श मानक चरित्र में परिवर्तित हो जाता है अर्थात ईश्वरीय हो जाता है। इसी को पुराणों में ब्रह्मा एवं परिवार को प्रक्षेपित किया गया जिससे व्यक्ति व्यक्तिगत क्षेत्र स्तर पर स्वयं को समझ सके। बह्मा एकात्मज्ञान परिवार इस प्रकार हैं-
चूॅकि एकात्मज्ञान का व्यक्त रूप एकात्मवाणी है अर्थात् एकात्मज्ञान बिना एकात्म वाणी के नहीं हो सकती तथा एकात्मवाणी बिना एकात्मज्ञान के नहीं हो सकता इसलिए ब्रह्मा को एकात्मज्ञान और उनके अर्धांगनी सरस्वती को एकात्मवाणी के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। अर्धनारीश्वर रूप में एकात्म ज्ञान और एकात्मवाणी दोनों ही, प्रत्येक में अर्थात् ब्रह्मा और सरस्वती दोनों में विद्यमान है। चूॅकि ज्ञान रूपी कमल, सांसारिकता रूपी कीचड़ और जल मेें रहते हुये भी उससे मुक्त और अमिश्रित रहता है तथा हंस, गुण-अवगुण के बीच रहते हुये भी सिर्फ गुणों को आत्मसात् करने का गुण रखता है। इसलिए ब्रह्मा और सरस्वती को क्रमशः सांसारिकता और अवगुणों से ऊपर रहने वाले कमल और हंस को आसन और वाहन के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। चॅूकि एकात्मज्ञान और एकात्मवाणी से युक्त सांसारिकता और अवगुणों से मुक्त, एकात्मज्ञान और वाणी से सृष्टिकर्ता, नीति और ध्यान अर्थात् कालबोध से मुक्त, ये सत्व गुण ब्राह्मण के है इसलिए ब्रह्मा और सरस्वती को ब्राह्मण और ब्राह्मणी के रूप में प्रक्षेपित कर श्वेत वस्त्र धारण कराया गया है। साथ ही ब्रह्मा को कमण्डल, दण्ड, वेद धर्मग्रन्थ तथा नाम जप के लिए रूद्राक्षमाला धारण कराया गया है। उसी प्रकार सरस्वती को वाद्ययन्त्र वीणा (आत्मा को झंकरीत करने वाला), शास्त्र-साहित्य तथा नाम जप के लिए रूद्राक्ष माला धारण कराया गया है जिससे उनका स्वरूप क्रमशः दृष्टि और विद्या के मूल ईश्वर रूप में प्रक्षेपित हुआ है। क्यांेकि जहाॅ सृष्टिकत्र्ता है, वहीं विद्या है, जहाॅ विद्या है वही सृष्टिकत्र्ता है। एकात्म ज्ञान के पाॅच वेदों के अधिकारी प्रक्षेपित करते हुये ब्रह्मा को पाॅच सिर व मुख से युक्त प्रक्षेपित किया गया था। उसके उपरान्त सृष्टि के उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के अधिकारी सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी शिव-शंकर पर आधारित पुराण कथा के एक कथा (कालभैरव जन्म कथा) के माध्यम से ब्राह्मण ब्रह्मा के पाॅचवे सिर को काटकर पाॅचवे वेद को शिव-शंकर अधिकृत प्रक्षेपित किया गया। परिणामस्वरूप ब्रह्मा को चारों वेदों को प्रक्षेपित करते चार सिर व मुुख शेष (दिव्यरूप - चार सिर व मुुख) है। देश-काल मुक्त स्थिर एकात्मज्ञान और एकात्मवाणी का ही देश-काल बद्ध अस्थिर ज्ञान और वाणी रूप मन है, जिसे ब्रह्मा और सरस्वती के एक ही मानस पुत्र नारद के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। चॅॅूकि असुर, देवता और ईश्वर सभी के समक्ष मन की उपस्थिति होती है इसलिए नारद (एकात्म मन) के पूर्णतः ईश्वर नाम ‘‘नारायण’’ का उच्चारण करते हुये सभी लोको अर्थात् सभी स्थानों में भ्रमण करने वाले ब्राह्मण के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। जिस प्रकार समस्त ज्ञानियों के समष्टि संयुक्त मूल रूप मे ब्रह्मा (एकात्म ज्ञान) का प्रक्षेपण है, उसी प्रकार समस्त मनों के समष्टि संयुक्त मूलरूप में नारद (एकात्म मन) का प्रक्षेपण है। पुराणों में जहाॅ-जहाॅ नारद की उपस्थिति होती हैं, वहाॅ-वहाॅ यह समझना चाहिए कि एकात्म मन व्यक्त हो रहा है, सूचना व्यक्त हो रहा है या एकात्म मन का प्रश्न व्यक्त हो रहा है। यह एकात्म मन जिसके समक्ष व्यक्त हो रहा हैं उसका मन भी हो सकता है, अन्य व्यक्तियों का भी हो सकता है या कोई अन्य माध्यम भी हो सकता है। परन्तु पुराणों में उसे अलग-अलग न प्रक्षेपित कर समष्टि संयुक्त मूल रूप नारद (एकात्म मन) के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। इसी प्रकार जहाॅ-जहाॅ ब्रह्मा और सरस्वती व्यक्त हो रहे हैं वहाॅ-वहाॅ यह समझना चाहिए कि एकात्म ज्ञान और एकात्मवाणी व्यक्त हो रहा है। जो सृष्टि अर्थात एक नये एकात्म मन या सूचना या प्रश्न आधारित शाखा का निर्माण कर रहा है।
यहाॅ ज्ञानी और मन के प्रकृति पर ध्यान देने योग्य यह है कि ज्ञानी, नीति मुक्त, ध्यान मुक्त, परिणामज्ञान से मुक्त कालमुक्त, स्थिर और व्यक्त-अव्यक्त एक समान होता है जबकि मन, नीति, मुक्त, ध्यानमुक्त, परिणामज्ञान से मुक्त, कालबद्ध, अस्थिर और व्यक्त-अव्यक्त एक समान होता है। यही कारण है कि पुराण में ब्रह्मा (एकात्म ज्ञान) देवता और असुर दोनों को प्राप्त होते दिखाया गया है फलस्वरूप सृष्टि तो हो जाती हैं परन्तु उसका परिणाम कभी देवताओं का अधिपत्य होता है तो कभी असुरों का क्योंकि देवता स्वकल्याण सहित लोक कल्याण के लिए उसका (एकात्म ज्ञान) उपयोग करते है तो असुर सिर्फ स्वकल्याण के लिए उसका (एकात्म ज्ञान) दुरूपयोग करते है। अन्ततः असुरों के अधिपत्य से स्थिति देवताओं और स्वयं ब्रह्मा के नियन्त्रण से बाहर हो जाती है और विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) की आवश्यकता पड़ जाती हैं। नारद (एकात्म मन) के साथ सूचना ही सूचना तथा प्रश्न ही प्रश्न होता है। जब नारद (एकात्म मन), ब्रह्मा (एकात्म ज्ञान) के समक्ष व्यक्त होते है तब नारद (एकात्म मन) सूचना तो व्यक्त कर दंेते है परन्तु प्रश्नो का उत्तर नहीं जान पाते क्योंकि बह्मा (एकात्म ज्ञान), स्वयं ही स्थिर और परिणाम ज्ञान से मुक्त अवस्था है, उनका ज्ञान तो सूचना पर ही निर्भर रहता है परिणामस्वरूप ब्रह्मा (एकात्मज्ञान), नारद (एकात्म मन) को विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) के पास उत्तर के लिए भेज देते है या स्वयं जाते है।
ब्रह्मा अर्थात् एकात्म ज्ञान का व्यक्त रूप एकात्म वाणी अर्थात् सरस्वती है। एकात्म ज्ञान का कारण एकात्म वाणी तथा एकात्म वाणी का कारण एकात्म ज्ञान होता है। वह वाणी जो आत्मा के लिए हो और वह ज्ञान जो आत्मा के लिए हो अर्थात् सम्भाव वाणी और ज्ञानयुक्त मानव शरीर ही ब्रह्मा का अवतार है। बिना कर्म के ज्ञान प्रमाणित नहीं होता अर्थात् ज्ञान वही है जो व्यवहारिक हो। इस ज्ञान की खोज में भारत के ऋषि-मुनि, क्षत्रिय राजाओं ने लम्बे समय में चिन्तन और कर्म करके एकात्मज्ञान के शास्त्र-साहित्यों का भण्डार बना दिये है। उनमें से कुछ एकात्मज्ञान की ओर ले जाते है। तो कुछ संस्कारित मानव समाज के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य कर्म ज्ञान उपलब्ध कराते हैं। इस प्रकार वे सभी ऋषि-मुनि, और क्षत्रिय राजा एकात्म ज्ञान अर्थात् ब्रह्मा के ही अंशावतार है।
2. सामाजिक कार्य क्षेत्र स्तर - विष्णु अर्थात एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म परिवार
चूंकि एकात्म कर्म का व्यक्त रूप एकात्म प्रेम है अर्थात एकात्म कर्म बिना एकात्म प्रेम के नहीं हो सकता तथा एकात्म प्रेम बिना एकात्म कर्म के नहीं हो सकता। साथ ही एकात्म ज्ञान और एकात्म वाणी तो अकेले हो सकती है परन्तु एकात्म कर्म और एकात्म प्रेम बिना एकात्म ज्ञान और एकात्म वाणी के नहीं हो सकती इसलिए ब्राह्मण ब्रह्मा और ब्रह्मणी सरस्वती को विष्णु और उसकी अर्धांगनि लक्ष्मी में समाहित करते हुये विष्णु को एकात्म ज्ञान तथा एकात्म कर्म से युक्त और लक्ष्मी को एकात्म वाणी और एकात्म प्रेम से युक्त कर प्रक्षेपित किया गया है अर्थात विष्णु और लक्ष्मी से ही ब्रह्मा और सरस्वती बर्हिगत है। अर्धनारीश्वर रूप में एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म प्रेम, एकात्म कर्म सभी प्रत्येक मेें अर्थात विष्णु और लक्ष्मी दोनों में विद्यमान है। चंूकि विष्णु में बह्मा समाहित हैं इसलिए विष्णु के सृष्टि संचालन में सृष्टि करना भी समाहित है। संचालन गुण-सात योग का प्रतीक सात फनों से युक्त पूर्ण सांसारिकता युक्त कीचड़ और जल (क्षीर सागर) की निम्न तल में रहने वाला शेषनाग विष्णु-लक्ष्मी का आसन तथा सांसारिकता में रहते हुए भी अनाशक्त रहने का प्रतीक क्षीरसागर का निम्नतल निवासस्थल के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। संचालन की तीव्रता का प्रतीक शक्तिशाली और वेगवान गरूड़ पक्षी विष्णु के वाहन के रूप में तथा एकात्म प्रेम की सार्वभौमिकता का प्रतीक दिन अर्थात प्रकाश में न देखने वाला और रात में देखने वाला और कहीं भी बैठ जाने वाला उल्लू पक्षी लक्ष्मी के वाहन के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। चंूकि एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म, एकात्म प्रेम से युक्त संचालन, सांसारिकता से बद्ध एवम् मुक्त अर्थात अनासक्त, नीति और ध्यान अर्थात जीवन कालबोध से युक्त, सत्व-रज गुण से युक्त अर्थात मानक अनासक्त गृहस्थ मानव है इसलिए विष्णु और लक्ष्मी को क्रमशः पीला अैर लाल वस्त्र धारण करा, लक्ष्मी को विष्णु की चरण सेवा करते प्रक्षेपित किया गया है। साथ ही विष्णु को सुदर्शन चक्र अर्थात अच्छे विचार का मार्ग शस्त्र के रूप में, उद्घोष के लिए शंख, रक्षा के लिए गदा तथा ज्ञान का प्रतीक कमल पुष्प धारण करा कर प्रक्षेपित किया गया है। चूंकि ज्ञान रूप कमल का जड़ या मूल विष्णु के निवास स्थान सांसारिकता रूपी जल का निम्न तल कीचड़ होता है इसलिए उनकी नाभि से निकलकर जल के उपरी तल अर्थात सांसारिकता से मुक्त ज्ञान का प्रतीक कमल को ही ब्रह्मा का निवास स्थान बना प्रक्षेपित किया गया है। विष्णु की भांति लक्ष्मी को उदघेाष के लिए शंख, ज्ञान का प्रतीक कमल, आशिर्वाद मुद्रा और धन का दान करते हुये प्रक्षेपित किया गया है। जहॅंा अर्धांगनी में एकात्म वाणी और एकात्म प्रेम है वहीं संचालन है, समृद्वि है, धन है। जहां धन है, समृद्धि है वहीं संचालन है वहीं अर्धागनी का एकात्म वाणी और एकात्म प्रेम है इसलिए विष्णु और लक्ष्मी का स्वरूप क्रमशः सृष्टि संचालन और धन के मूल ईश्वर के रूप में प्रक्षेपित हुआ है। सृष्टि संचालन के लिए एकात्म कर्म, बिना एकात्म प्रेम के नहीं हो सकता तथा बिना एकात्म कर्म के सृष्टि संचालन और एकात्म प्रेम नहीं हो सकता। इसलिए विष्णु-लक्ष्मी के बीच बाधक रूप में उनका कोई पुत्र रूप प्रक्षेपित नहीं है। पुराणों में जहां-जहां विष्णु और लक्ष्मी व्यक्त हो रहे है वहाॅ-वहाॅ यह समझना चाहिए कि एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म और एकात्म प्रेम व्यक्त हो रहा है जो सृष्टि संचालन सहित देवताओं के अधिपत्य के लिए वातावरण का निर्माण कर रहा है। समस्त संचालकों के समष्टि मूल रूप में विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) का प्रक्षेपण है और इनका दिव्यरूप - विश्वरूप है।
कार्य की प्रथम शाखा अर्थात् भुजा- कालानुसार व्यक्तिगत और संयुक्त विचारों-दर्शनों से युक्त अर्थात् सुदर्शन चक्र, जिससे निम्न और संकीर्ण विचारांे का परिवर्तन या बध होता है। दूसरी भुजा- उद्घोष अर्थात् शंख जिससे चुनौती दी जाती है। तीसरी भुजा- रक्षार्थ अर्थात् गदा जिससे आत्मीय स्वजनों की रक्षा की जाती है। चैथी और अन्तिम भुजा- निर्लिप्त अर्थात् कमल जिससे सांसारिकता और असुरी गुणो से मुक्त समाज में आश्रय पाना आसान होता है क्योंकि सांसारिकता और असुरी गुणों से युक्त व्यक्ति अपने अहंकारी दृष्टि से ही देखते हैं। परिणामस्वरुप अच्छे विचार को सुरक्षित विकास का अवसर प्राप्त होता है। इन सभी गुणों से युक्त हो शक्तिशाली और तीव्र वेग अर्थात् गरुड़ पक्षी रुपी वाहन से व्यक्त होना, ये ही पालनकर्ता विष्णु के मूल लक्षण हैं जिससे वे समाज में व्यक्त हो संसार का पालन करते हैं।
विष्णु के अवतारों में चाहे श्रीराम, श्रीकृष्ण रहे हो या बुद्ध या लव कुश सिंह विश्वमानव किसी को भी पुत्र सुख प्राप्त नहीं हुआ। या तो उन्होंने उसे त्याग दिया या रहते हुये भी नहीं के जैसा रहा है।
यहां संचालक के प्रकृति पर घ्यान देने योग्य यह है कि संचालक, नीति युक्त, ध्यान युक्त परिणाम ज्ञान से युक्त, काल युक्त अर्थात कालानुसार, स्थिति और व्यक्त-अव्यक्त असमान होता है। यही कारण है कि ब्रह्मा (एकात्म ज्ञान) द्वारा सृष्टि होने पर जब असुरों का अधिपत्य हो जाता है तब विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) द्वारा पुनः देवताओं का अधिपत्य स्थापित कर दिया जाता है परन्तु यह स्थायी नहींे हो पाता क्योंकि विष्णु स्वयं कालानुसार ही होते है, कालमुक्त नहीं परिणामस्वरूप शिव-शंकर (एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान) की आवश्यकता आ जाती है। सृष्टि संचालन के लिए कर्म में सूचनाओं और सूचना माध्यमों अर्थात नारद (एकात्म मन) की प्राथमिकता के साथ आवश्यकता पड़ती है इसलिए नारद (एकात्म मन) का विष्णु परिवार के यहां उपस्थिति सर्वाधिक होता है। स्वयं विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) को भी नारद (एकात्म मन) की आवश्यकता हमेशा रहती है क्योंकि देवताओं के अधिपत्य के लिए वातावरण का मुख्य निर्माण नारद द्वारा ही होता है। विष्णु (एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म) के समक्ष व्यक्त होकर नारद (एकात्म मन) सूचना तो व्यक्त कर देंते हैं परन्तु प्रश्नों के उत्तर में विष्णु (एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म) सिर्फ उसी प्रश्न का उत्तर देते है जो देवताओं के अधिपत्य के लिए समयानुसार वातावरण बनाने में सहायक हो क्योंकि विष्णु, स्वयं स्थिर नीति, ध्यान, कालयुक्त, व्यक्त-अव्यक्त असमान परिणाम ज्ञान से युक्त अवस्था है। उनका कर्म तो सूचना पर ही निर्भर रहता है और वे नारद (एकात्म मन) की प्रकृति को भलि-भांति जानते है कि मन समय से मुक्त होता है जो असमय सूचना प्रसार कर कर्म नीति को निष्फल कर सकता है। इसलिए जो प्रश्न समयानुसार नहीं होते उनका उत्तर वे अगले कर्म के उपरान्त समयानुसार होने पर देते हैं। जिस प्रश्न का उत्तर विष्णु के परिणाम ज्ञान के बाहर होता है उसे वे शिव-शंकर (एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान) के पास उत्तर पाने के लिए नारद को भेज देते या स्वयं जाते हैं।
महाविष्णु के कुल चैबीस (1. सनकादि ऋषि (ब्रह्मा के चार पुत्र), 2. नारद, 3. वाराह, 4. मत्स्य, 5. यज्ञ (विष्णु कुछ काल के लिये इंद्र रूप में), 6.नर-नारायण, 7. कपिल, 8. दत्तात्रेय, 9. हयग्रीव, 10. हंस पुराण, 11. पृष्णिगर्भ, 12. ऋषभदेव, 13. पृथु, 14. नृसिंह, 15. कूर्म, 16. धनवंतरी, 17. मोहिनी, 18. वामन, 19. परशुराम, 20. राम, 21. व्यास, 22. कृष्ण, बलराम, 23. गौतम बुद्ध (कई लोग बुद्ध के स्थान पर बलराम को कहते है, अन्यथा बलराम शेषनाग के अवतार कहलाते हैं), 24. कल्कि) अवतार माने जाते हैं जिनमें कुल दस (1.मत्स्य, 2.कूर्म, 3.वाराह, 4.नृसिंह, 5.वामन, 6.परशुराम, 7.राम, 8.श्रीकृष्ण, 9.बुद्ध और 10.कल्कि) मुख्य अवतार हैं।
3. वैश्विक/ब्रह्माण्डिय कार्य क्षेत्र स्तर -शिव-शंकर अर्थात एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान परिवार
चूॅकि एकात्म ध्यान अर्थात कालधारण का व्यक्त रूप एकात्म समर्पण है अर्थात एकात्म ध्यान बिना एकात्म समर्पण के नहीं हो सकता तथा एकात्म समर्पण बिना एकात्म ध्यान के नहीं हो सकता। साथ ही एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म और एकात्म वाणी सहित एकात्म प्रेम तो अकेले हो सकता है परन्तु एकात्म ध्यान और एकात्म समर्पण बिना एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म और एकात्म वाणी सहित एकात्म प्रेम के नहीं हो सकता इसलिए आदर्श मानक अनासक्त गृहस्थ विष्णु और गृहणी लक्ष्मी को शिव-शंकर और उनकी अर्धागनी शक्ति-पार्वती में समाहित करते हुये शिव-शंकर को एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म तथा एकात्म ध्यान से युक्त और शक्ति-पार्वती को एकात्म वाणी, एकात्म प्रेम तथा एकात्म समर्पण से युक्त कर प्रक्षेपित किया गया है। अर्थात शिव-शंकर और शक्ति-पार्वती से ही विष्णु और लक्ष्मी बहिर्गत है। अर्धनारीश्वर रूप में एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म, एकात्म प्रेम, एकात्म ध्यान और एकात्म समर्पण सभी प्रत्येक में अर्थात शिव-शंकर और शक्ति पार्वती दोनों में विद्यमान है। चूंकि शिव-शंकर में विष्णु तथा विष्णु में ब्र्रह्मा समाहित है इसलिए शिव-शंकर के प्रलय या संहार में सृष्टि संचालन या स्थिति और सृष्टि करना दोनों समाहित है। शिव-शंकर में शिव रूप सृष्टि और संचालन या स्थिति का तथा शंकर रूप-संहार या प्रलय का प्रक्षेपण है। इसी प्रकार शक्ति-पार्वती में शक्ति रूप सत्ता का तथा पार्वती रूप-समपर्ण का प्रक्षेपण है। सृष्टि, संचालन और संहार में आवश्यक गुण ऐश्वर्य और वैभव से दूरी का प्रतीक पर्वत (कैलाश) शिव-शंकर और शक्ति-पार्वती के निवास स्थान के रूप में प्रक्षेपित है। निरर्थक वस्तुओं का सदुपयोग का प्र्र्र्रतीक मृगछाल का आसन तथा अपनी मस्ती में मस्त, निडर, शक्तिशाली परन्तु अहिंसक अर्थात आक्रमण के उपरान्त आक्रमण करनें वाला स्थिर शांन्तचित्त, समर्पण गुणों से युक्त बैल (नन्दी) चैपाया पालतू पशु को शिव-शंकर के वाहन के रूप में तथा एकात्म समर्पण गुण पतिपरमेश्वर के चरणों में आसन तथा अपनी मस्ती में मस्त, निडर, शक्तिशाली परन्तु हिंसक अर्थात प्रथमतया आक्रमण करने वाला, अस्थिर सतर्क चिंत्त, समर्पण न करने वाले गुणों से युक्त शेर चैपाया ंजंगली पशु को शक्ति-पार्वती के वाहन के रूप में प्रक्षेपित किया गया है। शिव-शंकर का दिव्यरूप - पाँच सिर व मुख वाला दिखाया गया है। इनके परिवार में दो पुत्र - गणेश व कार्तिकेय दिखाये गये हैं।
एकात्म नेतृत्व के प्रक्षेपण शिव-शंकर पुत्र गणेश हैं। गण अर्थात जन के ईश अर्थात ईश्वर, इस प्रकार गणेश का अर्थ जनता का ईश्वर से है। जनता का ईश्वर के गुण क्या होने चाहिए इसका ही प्रक्षेपण गणेश हैं। खाने के दाँत अलग और दिखाने के दाँत अलग होने चाहिए। नाक इतनी बड़ी होनी चाहिए जिससे दूर तक को सूँघा जा सके। कान इतने बड़े हों का दूर तक को सुना जा सके। पेट इतना बड़ा हो कि बहुत कुछ खाया व पचाया जा सके। सवारी चूहे से तात्पर्य कहीं भी छेद कर जाया जा सके या किसी को भी धीरे-धीरे ऐसा काटा जा सके कि पता ही न चले। गणेश की दो पत्नी बुद्धि और सिद्धि हैं। के मुख्य रूप से इतना जो करेगा वो ही घी के लड्डू को खायेगा। गणेश का दिव्य रूप - पाँच मुख व सिर वाला है अर्थात पाँच वेदों के ज्ञान से युक्त भी होना चाहिए।
एकात्म रक्षा के प्रक्षेपण शिव-शंकर पुत्र कार्तिकेय हैं। इनकी सवारी मोर से तात्पर्य हर खतरे को समाप्त कर देना है। कार्तिकेय का दिव्य रूप - छः मुख व सिर वाला है अर्थात रक्षा के लिए चार दिशा सहित आकाश और पाताल में एक साथ दृष्टि रहनी चाहिए।
शंकर अर्थात् एकात्मध्यान का व्यक्त रूप एकात्म समर्पण अर्थात् पार्वती है। एकात्म ध्यान का कारण एकात्म समर्पण तथा एकात्म समर्पण का कारण एकात्म ध्यान होता है। वह ध्यान जो आत्मा के लिए हो और वह समर्पण जो ध्यान के लिए हो अर्थात् समभाव और ध्यान युक्त मानव शरीर ही शंकर का अवतार है। इस ध्यान का अर्थ काल चिन्तन है। विभिन्न कालों में विभिन्न रूपों में काल के प्रति समर्पण कराने अर्थात् एकात्मज्ञान और एकात्मकर्म की परीक्षा और परीक्षोपरान्त मार्ग प्रशस्त करने के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित शंकर अर्थात् एकात्म ध्यान के 21 अंशावतार जाने जाते है।
सम्पूर्ण आध्यात्मिक सूक्ष्म एवम् स्थूल सिद्धान्तों को व्यक्त करने का माध्यम मात्र मानव शरीर और कर्म क्षेत्र मात्र समाज ही है। साथ ही उसका मूल्यांकनकत्र्ता मानव का अपना मन स्तर ही है। इसलिए अवतार सम्पूर्ण सिद्धान्तों को कालानुसार व्यक्त सगुण रूप मानव शरीर ही होता है। मूलरूप से अवतार शिव-आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अवतार होते है परन्तु एकात्म ज्ञान अर्थात ब्रह्मा और एकात्मध्यान अर्थात् शंकर सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य न हो सकने के कारण एकात्म कर्म-विष्णु के ही अवतार के रूप में जाना जाता है। क्योंकि एक मात्र कर्म ही मानव समाज में सार्वजनिक प्रमाणित होता है। इस एकात्म कर्म का कारण एकात्म प्रेम और एकात्म प्रेम का कारण मात्र एकात्म कर्म होता है।
विकास क्रम को सार्वभौम सत्य-सिद्धान्तानुसार सदैव बनाये रखने वाले माध्यम शरीर को अवतार कहते हैं। अवतार के सम्बन्ध में कुछ मान्यता सृष्टि के प्रारम्भ से विकास क्रम को देखते हैं तो कुछ मानव सभ्यता के प्रारम्भ से। परन्तु दोनों ही सत्य हैं और विकास क्रम को ही प्रमाणित करती है। एक के अनुसार - सृष्टि के प्रारम्भ में जलीय जीव (1. मत्स्य, 2. कच्छप, 3. वाराह), फिर जल-थल जीव (4. नर सिंह), फिर थल मानव (5. वामन, 6. परशुराम, 7. राम, 8. कृष्ण, 9. बुद्ध, 10. कल्कि) का विकास हुआ और माध्यम को अवतार कहा गया। दूसरे के अनुसार - जल-प्लावन के समय मछली से मार्गदर्शन (मछली की गति का सिद्धान्त) पाकर मानव की रक्षा करने वाला 1. मत्स्यावतार, 2 कूर्मावतार (कछुए के गुण का सिद्धान्त), 3. वाराह अवतार (सुअर के गुण का सिद्धान्त) 4. नर-सिंह अवतार (सिंह के गुण का सिद्धान्त), 5. वामन अवतार (समाज का सिद्धान्त) 6. परशुराम अवतार (लोकतन्त्र का सिंद्धान्त) 7. राम अवतार (आदर्श व्यक्ति चरित्र का सिद्धान्त), 8. कृष्ण अवतार (व्यष्टि-आदर्श सामाजिक व्यक्ति चरित्र और समष्टि-सार्वभौम सत्य आत्मा का सिद्धान्त), 9. बुद्ध अवतार (धर्म-संघ-बुद्धि का सिद्धान्त) और अन्तिम 10. कल्कि अवतार (व्यष्टि-आदर्श वैश्विक व्यक्ति चरित्र और समष्टि-सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त)। ग्रन्थों में अवतारों की कई कोटि बतायी गई है जैसे अंशाशावतार, अंशावतार, आवेशावतार, कलावतार, नित्यावतार, युगावतार इत्यादि। जो भी सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करता है वे सभी अवतार कहलाते हैं। व्यक्ति से लेकर समाज के सर्वोच्च स्तर तक सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करने के क्रम में ही विभिन्न कोटि के अवतार स्तरबद्ध होते है। अन्तिम सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को व्यक्त करने वाला ही अन्तिम अवतार के रूप में व्यक्त होगा। अब तक हुये अवतार, पैगम्बर, ईशदूत इत्यादि को हम सभी उनके होने के बाद, उनके जीवन काल की अवधि में या उनके शरीर त्याग के बाद से ही जानते हैं। एक ही समय में कई अवतार हो सकते हैं परन्तु मुख्य अवतार का निर्धारण उसके कार्य के प्रभाव क्षेत्र से जाना जाता है।
उपरोक्त के अनुसार यह स्पष्ट है कि शास्त्राकार लेखक द्वारा पौराणिक देवी-देवताओं में ब्रह्मा-विष्णु-शिवशंकर परिवार के कार्य क्षेत्रानुसार मानक के रूप में प्रक्षेपित किये गये थे। मनुष्य की इच्छा पाने की अधिक होती है अलावा इसके कि हो जाने की। ऐसे व्यक्ति जो हो जाने में विश्वास रखते थे वे ही धरती पर मनुष्य रूप में आये और अवतार हो कर चले गये। अवतार का अर्थ ही होता है सर्वोच्च लक्ष्य सिद्धान्त के अनुसार नीचे उतरना जबकि मनुष्य का अर्थ होता है नीचे से ऊपर की ओर बढ़ना। शास्त्राकार लेखक ने मानव जाति को ईश्वर की ओर विकास करने या ईश्वर के रूप में बन जाने के लिए इन देवी-देवताओं का रूप प्रक्षेपित किया था लेकिन ये पूजा और आयोजन में बदल गया और अन्य धर्म-सम्प्रदाय के आ जाने से यह एक विशेष धर्म का ही जाना जाने लगा। जिस प्रकार आम की लकड़ी से कुर्सी, मेज, दरवाजा, खिड़की बनाया गया और आम गायब होकर कुर्सी, मेज, दरवाजा, खिड़की हो गया उसी प्रकार सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्य के मागदर्शन के लिए व्यक्त मानक देवी-देवताओं का अर्थ गायब होकर मूर्तिपूजा में बदलकर एक धर्म का हो गया।
जिस प्रकार लोग आत्मा की महत्ता को न समझकर शरीर को ही महत्व देते हैं उसी प्रकार लोग भले ही पढ़कर ही विकास कर रहें हो परन्तु वे शास्त्राकार लेखक की महत्ता को स्वीकार नहीं करते। जबकि वर्तमान समय में चाहे जिस विषय में हो प्रत्येक विकास कर रहे व्यक्ति के पीछे शास्त्राकार, लेखक, आविष्कारक, दार्शनिक की ही शक्ति है जिस प्रकार शरीर के पीछे आत्मा की शक्ति है।
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