Saturday, March 14, 2020

एक आदर्श मानक वैश्विक नागरिक: मार्गदर्शक बिन्दु

एक आदर्श मानक वैश्विक नागरिक: मार्गदर्शक बिन्दु
”हमारे सम्मुख दो शब्द है- क्षुद्र ब्रह्माण्ड और बृहत् ब्रह्माण्ड। अन्तः और बहिः। हम अनुभूति के द्वारा ही इन दोनों से सत्य लाभ करते है। आभ्यन्तर अनुभूति और बाह्य अनुभूति। आभ्यन्तर अनुभूति के द्वारा संगृहीत सत्य समूह मनोविज्ञान, दर्शन और धर्म के नाम से परिचित है, और बाह्य अनुभूति सेे भौतिक विज्ञान की उत्पत्ति हुई है। अब बात यह है कि जो सम्पूर्ण सत्य है उसका इन दोनांे जगत् की अनुभूति के साथ समन्वय होगा। क्षुद्र ब्रह्माण्ड, बृह्त ब्रह्माण्ड के सत्य समूह को साक्षी प्रदान करेगा, उसी प्रकार बृहत् ब्रह्माण्ड भी क्षुद्र ब्रह्माण्ड के सत्य को स्वीकार करेगा।“    - स्वामी विवेकानन्द (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-10, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन)
एक आदर्श मानक वैश्विक नागरिक, बृह्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त सार्वभौम कर्मज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार अपने कार्य क्षेत्र में कार्य करता है जिस प्रकार ईश्वर की उपस्थिति में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में वही सार्वभौम कर्मज्ञान सिद्धान्त कार्य कर रहा है। इस प्रकार एक आदर्श मानक वैश्विक नागरिक अपने कार्य क्षेत्र का भविष्य निर्माता और ईश्वर का स्वरूप है क्योंकि वह सार्वभौम ईश्वरीय सिद्धान्त का व्यावहारिक स्थापक है। जिसका मूल, सार्वभौम, दृश्य, सार्वजनिक प्रमाणित और विवादमुक्त निम्न सिंद्धान्त पर आधारित है-

सार्वभौम कर्मज्ञान सिद्धान्त - 1. समग्र ब्रह्माण्ड अस्थिर है और उसमें आदान-प्रदान चल रहा है अर्थात सदैव परिवर्तन चल रहा है अर्थात जन्म-मृत्यु-जन्म का चक्र निरन्तर है।
सार्वभौम कर्मज्ञान सिद्धान्त - 2. किसी वस्तु का परिवर्तन, किसी दूसरे वस्तु के लिए नहीं वरन् वह स्वयं अपनी स्थिरता, शान्ति और एकत्व की प्राप्ति के लिए हो रहा है अर्थात इस संसार में कोई किसी के लिए नहीं कर्म करता बल्कि वह स्वयं अपनी स्थिरता, शान्ति और एकत्व की प्राप्ति के लिए कर्म करता है।

सार्वभौम कर्मज्ञान सिद्धान्त की व्याख्या

सार्वभौम कर्मज्ञान सिद्धान्त - 1. समग्र ब्रह्माण्ड अस्थिर है और उसमें आदान-प्रदान चल रहा है अर्थात सदैव परिवर्तन चल रहा है अर्थात जन्म-मृत्यु-जन्म का चक्र निरन्तर है।, की व्याख्या।
जिस प्रकार “ओउम” शब्द, उस अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित ईश्वर का नाम है और “ओउम” शब्द की व्याख्या, उस ईश्वर को समझने-जानने का मार्ग है। उसी प्रकार "TRADE CENTRE" शब्द, इस दृश्य सर्वाजनिक प्रमाणित ईश्वर-ब्रह्माण्ड का नाम है और "TRADE CENTRE" शब्द की व्याख्या, इस ईश्वर-ब्रह्माण्ड में सार्वभौम कर्मज्ञान को समझने-जानने का मार्ग है। शब्द "TRADE CENTRE" ब्रह्माण्ड के पर्यायवाची शब्द के रूप में भी देखा जा सकता है क्योंकि यह ब्रह्माण्ड ही सबसे बड़ा व्यापार केन्द्र है। शब्द "TRADE CENTRE" की व्याख्या के अनुसार ही इस संसार में व्यक्ति से लेकर संगठन, सरकार और विश्व तक संचालित हो रहे हैं।

दृश्य ईश्वर नाम- "TRADE CENTRE" शब्द का दर्शन - "TRADE CENTRE" शब्द में दो TRADE और CENTRE शब्द है। प्रत्येक का दर्शन निम्नवत् है।
(अ) TRADE (व्यापार या आदान-प्रदान)
TRADE या व्यापार शब्द सम्पूर्ण आदान-प्रदान का सूचक है जो दिशाहीन है। अर्थात् आदान-प्रदान या व्यापार या TRADE की दिशा अनिर्धारित है। जिस किसी आदान-प्रदान या व्यापार या TRADE की दिशा अनिर्धारित हो भोगवाद या भौतिकवाद अर्थात् क्रियान्वयन दर्शन कहलाता है। सम्पूर्ण आदान-प्रदान का मूल विषय क्रमशः बढ़ते क्रम में शारीरिक, आर्थिक और मानसिक है। शारीरिक का अर्थ-शरीर की प्राथमिकता, आर्थिक का अर्थ-संसाधनों की प्राथमिकता तथा मानसिक का अर्थ-बुद्धि की प्राथमिकता है। ऐसा नहीं कि प्रत्येक में दूसरे का अल्पांश भी नहीं है। उदाहरण स्वरूप शरीर की प्राथमिकता के अर्थ में संसाधन और बुद्धि का अंश शामिल है परन्तु वह प्राथमिक नहीं है। TRADE शब्द के प्रत्येक अक्षर का अर्थ निम्नवत है।
1.T : Transaction :- Transaction का अर्थ आदान-प्रदान से है जो मूलरूप में शारीरिक, संसाधन और मानसिक क्षेत्र द्वारा होते है।
2.R : Rural :- Rural शब्द का शाब्दिक अर्थ ग्रामीण है। ग्रामीण का व्यापक अर्थ पिछड़ेपन से है। जो मूल रूप से शारीरिक, संसाधन और मानसिक क्षेत्र में है।
3.A : Advancement (Adaptability) :-  Advancement ( Adaptability) का अर्थ आधुनिकीकरण या अनुकूलन से है जो मूल रूप से शारीरिक, संसाधन और मानसिक क्षेत्र में है।
4.D : Developmnent :- Developmnent का अर्थ वृद्धि या विकास से है। जो मूल रूप से शारीरिक, संसाधन और मानसिक क्षेत्र में है।
5.E : Education :- Education का अर्थ शिक्षा से है जो मूल रूप से शारीरिक, संसाधन और मानसिक क्षेत्र में है।
उपरोक्त बढ़ते मूल्य के पाँच विषय Trasaction, Rural, Advancement (Adaptability), Development, Education के क्षेत्र में मूल रूप से शारीरिक, संसाधन और मानसिक कर्म द्वारा दिशाहीन आदान-प्रदान ही सम्पूर्ण भोगवादी अर्थात् भौतिकवादी कर्म है। यही दिशाहीन पाश्चात्य दर्शन है। उपरोक्त पांच विषय और प्रत्येक में तीन कर्म क्षेत्र से जितने भी एक या दो या अधिक के संयुक्त कर्म बनते है उतने प्रकार के भौतिकवादी अर्थात् भोगवादी मन (व्यक्ति) और संयुक्त मन (संस्था) क्रियाशील हो व्यक्त है। सभी पर संयुक्त रूप से आदान-प्रदान करने वाले मन और संयुक्त मन पूर्णभोगवादी अर्थात् भौतिकवादी मन या संयुक्त मन कहलाते है। मूल तीन कर्म-शारीरिक, संसाधन और मानसिक की अनेक शाखाओं का विस्तार करके अनेक रूपों को प्राप्त किया जा सकता है।

(ब) CENTRE (केन्द्र या एकत्व)
CENTRE  या केन्द्र शब्द एकात्म या कारण या समभाव का सूचक है जो दिशा है। जो सम्पूर्ण व्यापार या TRADE का दिशा निर्धारित करता है। यह अध्यात्मवाद कहलाता है। यही मार्ग दर्शक और विकास दर्शन कहलाता है। सम्पूर्ण अध्यात्म इस CENTRE में समाहित है। CENTRE शब्द का विस्तृत दर्शन- Centre for Enhancement of Natural Truth & Religious Education अर्थात् प्राकृतिक सत्य एवम् धार्मिक शिक्षा प्रसार केन्द्र जहाँ से प्राकृतिक सत्य और धर्म शिक्षा का प्रसार हो रहा है। इसमें दो शब्द- Natural Truth और Religion अर्थात् प्राकृतिक सत्य और धर्म का प्रयोग आया है। जिसका अर्थ निम्नवत् है।

1. Natural Truth (प्राकृतिक सत्य)
आदान-प्रदान या सार्वजनिक प्रमाणित सत्य प्राकृतिक नियम या व्यापार या क्रिया या प्रकृति या व्यापार या आदान-प्रदान या परिवर्तन या शक्ति या माया या परिधि या मन या TRADE या कर्म ही सार्वजनिक प्रमाणित विवादमुक्त अटलनीय, अपरिवर्तनीय दृश्य प्राकृतिक सत्य है। प्रारम्भ में जब इसका ज्ञान नहीं होता तब इसे TRansaction या Trade या आदान-प्रदान या व्यापार कहते हैं। जब इसका ज्ञान सर्वव्यापी रूप में होता है तब इसे प्राकृतिक सत्य या Natural Truth कहते है। यही क्रियान्वयन दर्शन कहलाती है। यही सार्वभौम सिद्धान्त भी कहलाता है।

2. Religion (धर्म)
Religion का अर्थ सत्य या धर्म या एकत्व या एक या एकात्म या समभाव या सर्वशक्तिमान या केन्द्र या कारण या ईश्वर या ब्रह्म या शिव या पुरूष या वेद या प्राण या चेतना या गुरु या रक्षक या GOD या CENTRE या ज्ञान या सर्वव्यापी अदृश्य सत्य है। प्रारम्भ में जब इसका ज्ञान नहीं होता तब इसे धर्मनिरपेक्ष या सर्वधर्मसमभाव कहते हैं। जब इसका ज्ञान हो जाता है तब इसे धर्म कहते हैं। इसे ही मार्ग दर्शक और विकास दर्शन अर्थात् दिशा कहते हैं। यह प्राकृतिक सत्य अर्थात् Natural Truth का अतीत (Trans) भी है।
उपरोक्त सर्वव्यापी सार्वभौम सत्य- Natural Truth और Religion ही सम्पूर्ण वेदान्त-सिद्धान्त अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त, अध्यात्म, योग, ध्यान, चेतना, भाव, ज्ञान, और कर्मज्ञान का विषय है। यही सम्पूर्ण दिशा भारतीय (प्राच्य) दर्शन और भारत का आध्यात्मिक विरासत है जिसे मन (व्यक्ति) और संयुक्त मन (संस्था) अपने-अपने मूल विषय से व्यक्तिगत और सार्वजनिक प्रमाणित रूप से व्यापार करते है। और उतने प्रकार के व्यक्ति और संस्था व्यक्त हो क्रियाशील है। उपरोक्त सभी के लिए एक साथ आदान-प्रदान करने वाले व्यक्ति और संस्था पूर्ण आध्यात्मवादी व्यक्ति और संस्था कहलाते हैं।

ट्रेड सेन्टर के सात चक्र (Seven Cycle of TRADE CENTRE) - TRADE CENTRE शब्द में कुल सात चक्र है जो निम्नवत है।
1. ज्ञानातीत चक्र: चक्र -0 - धर्म ज्ञान से बिना युक्त के मुक्त अर्थात् अपना मालिक अन्य और धर्म ज्ञान से युक्त होकर मुक्त अर्थात् अपना मालिक स्वंय की स्थिति। ज्ञानावस्था से होकर यही चक्र 7 भी कहलाता है। यह स्थिति शिशु और ज्ञानी की होती है।
2. भौतिकवाद या भोगवाद कर्म चक्र: 
     चक्र-1. TRANSACTION - आदान-प्रदान चक्र। यही ज्ञानावस्था में चक्र-6 कहलाता है।
उपचक्र 1.1 - शारीरिक
उपचक्र 1.2 - आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 1.3 - मानसिक
चक्र-2. RURAL - ग्रामीण चक्र
उपचक्र 2.1 - शारीरिक
उपचक्र 2.2 - आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 2.3 - मानसिक
चक्र-3. ADVANCEMENT या ADAPTABILITY - आधुनिकता या अनुकूलन चक्र
उपचक्र 3.1 - शारीरिक
उपचक्र 3.2 - आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 3.3 - मानसिक
चक्र-4. DEVELOPMENT - विकास चक्र
उपचक्र 4.1 - शारीरिक
उपचक्र 4.2 - आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 4.3 - मानसिक
चक्र-5. EDUCATION - शिक्षा चक्र
उपचक्र 5.1  - शारीरिक
उपचक्र 5.2 - आर्थिक/संसाधन
उपचक्र 5.3 - मानसिक
3. आध्यात्मवाद-ज्ञानचक्र: 
       चक्र-6. NATURAL TRUTH - प्राकृतिक सत्य चक्र: यही चक्र अज्ञानावस्था में चक्र-1 कहलाता है।
उपचक्र 1.1 - अदृश्य प्राकृतिक अर्थात अदृश्य आत्मा
उपचक्र 1.2 - दृश्य प्रकृति
4. ज्ञानातीत: 
         चक्र-7.RELIGION- धर्मचक्र: अपना मालिक स्वंय की स्थिति। यही अज्ञानावस्था में चक्र-0 भी कहलाता है।

सार्वभौम कर्मज्ञान सिद्धान्त - 2. किसी वस्तु का परिवर्तन, किसी दूसरे वस्तु के लिए नहीं वरन् वह स्वयं अपनी स्थिरता, शान्ति और एकत्व की प्राप्ति के लिए हो रहा है अर्थात इस संसार में कोई किसी के लिए नहीं कर्म करता बल्कि वह स्वयं अपनी स्थिरता, शान्ति और एकत्व की प्राप्ति के लिए कर्म करता है।, की व्याख्या।
इस सिद्धान्त से सभी आदान-प्रदान स्वयं अर्थात केन्द्र की ओर करना है-
1. इस प्रकार - to stepup TRADE through CENTRE (सभी कर्म व्यापार को सार्वभौम आत्मा केन्द्र के ज्ञान द्वारा आगे बढ़ाना) अर्थात 
2. विस्तार में to stepup Transaction, Rural, Advancement(Adoptability), Development, Education through Center for Enhancement of Natural Truth & Religious Education (सभी कर्म आदान-प्रदान, ग्रामीण, आधुनिकता-अनुकूलन, विकास, शिक्षा को प्राकृतिक सत्य और धार्मिक शिक्षा के ज्ञान द्वारा आगेे बढ़ाना) हुआ अर्थात
3. जो व्यक्ति और संस्था समभाव और निष्पक्ष में स्थित होकर सभी शारीरिक, आर्थिक व मानसिंक कर्म आदान-प्रदान, ग्रामीण, आधुनिकता-अनुकूलन, विकास, शिक्षा को सदैव एक साथ करता है वही मानक व्यक्ति और संस्था कहलाता है। 
इस प्रकार इस सिद्धान्त से देखने पर पायेगें कि जो व्यक्ति और संस्था सफल हैं या सफलता प्राप्त कर रहें हैं उनके मूल में यही सिद्धान्त है। यही नहीं यह किसी देश के कार्य प्रणाली पर भी उतना ही सत्य है। और सिर्फ इतना ही नहीं आॅठवे व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्णावतार श्री कृष्ण भी इसी सिद्धान्त से ही अपने जीवन की समग्र योजना का निर्माण किये थे। यही मानव (व्यक्तिगत मन) और संस्था (संयुक्त मन) के प्रबन्ध और क्रियाकलाप का विश्वमानक (WS-0000 & WS-000) भी है। जब तक भारत इस सिद्धान्त को स्वयं के लिए प्रयोग नहीं करता तब तक आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत के आधार पर ”एक भारत - श्रेष्ठ भारत“ का निर्माण नहीं हो सकता और जब तक भारत इस सिद्धान्त को विश्व में स्थापित नहीं करता तब तक वह इस दृश्य काल में विश्व गुरू नहीं बन सकता। 
मानक का अर्थ है- ”वह सर्वमान्य पैमाना, जिससे हम उस विषय का मूल्यांकन करते है। जिस विषय का वह पैमाना होता है।“ इस प्रकार मन की गुणवत्ता का मानक व्यक्ति तथा संयुक्त व्यक्ति (अर्थात संस्था, संघ, सरकार इत्यादि) के मूल्याकंन का पैमाना है चूँकि आविष्कार का विषय सर्वव्यापी ब्रह्माण्डीय नियम पर आधारित है। इसलिए वह प्रत्येक विषयों से सम्बन्धित है जिसकी उपयोगिता प्रत्येक विषय के सत्यरूप को जानने में है। चूँकि मानव कर्म करते-करते ज्ञान प्राप्त करते हुऐ प्रकृति के क्रियाकलापों को धीरे-धीरे अपने अधीन करने की ओर अग्रसर है इसलिए पूर्णतः प्रकृति के पद पर बैठने के लिए प्रकृति द्वारा धारण की गई सन्तुलित कार्य प्रणाली को मानव द्वारा अपनाना ही होगा अन्यथा वह सन्तुलित कार्य न कर अव्यवस्था उत्पन्न कर देगा। यह वैसे ही है जैसे किसी कर्मचारी को प्रबन्धक (मैनेजर) के पद पर बैठा दिया जाये तो सन्तुलित कार्य संचालन के लिए प्रबन्घक की सन्तुलित कार्य प्रणाली को उसे अपनाना ही होगा अन्यथा वह सन्तुलित कार्य न कर अव्यवस्था उत्पन्न कर देगा। आविष्कार की उपयोगिता व्यापक होते हुए भी मूल रूप से व्यक्ति स्तर से विश्व स्तर तक के मन और संयुक्त मन के प्रबन्ध को व्यक्त करना एवम् एक कर्मज्ञान द्वारा श्रृंखला बद्ध करना है जिससे सम्पूर्ण शक्ति एक मुखी हो विश्व विकास की दिशा में केन्द्रित हो जाये। परिणामस्वरूप एक दूसरे को विकास की ओर विकास कराते हुऐ स्वयं को भी विकास करने के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त हो जायेगी। सम्पूर्ण क्रियाकलापों को संचालित करने वाले मूल दो कत्र्ता-मानव (मन) और प्रकृति (विश्वमन) दोनों का कर्मज्ञान एक होना आवश्यक है। प्रकृति (विश्वमन) तो पूर्ण धारण कर सफलतापूर्वक कार्य कर ही रही है। मानव जाति में जो भी सफलता प्राप्त कर रहे हैं वे अज्ञानता में इसकें आंशिंक धारण में तथा जो असफलता प्राप्त कर रहे हैं, वे पूर्णतः धारण से मुक्त है। इसी कर्मज्ञान से प्रकृति, मानव और संयुक्त मन प्रभावित और संचालित है। किसी मानव का कर्मक्षेत्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हो सकता है और किसी का उसके स्तर रूप में छोटा यहाँ तक कि सिर्फ स्वयं व्यक्ति का अपना स्तर परन्तु कर्मज्ञान तो सभी का एक ही होगा।
शब्द TRADE CENTRE का दर्शन बहुत ही विस्तृत और शक्तिशाली है। जिसका पूर्ण विवरण ”विश्वशास्त्र - द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज“ में है। सभी के लिए होते हुये भी उपरोक्त मार्गदर्शक बिन्दु व सिंद्धान्त ही एक आदर्श मानक वैश्विक नागरिक के लिए विशेष रूप से मार्गदर्शक बिन्दु व सिंद्धान्त है।

”हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाएं और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्क वालों को संतुष्ट कर सके- इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्त में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवन दायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है। अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से जीवन प्रकृत चरित्रों के उदाहरण समूह निकालने हैं और बुद्धि को भ्रम में डालने वाली योग विद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है और इन सब को एक ऐसे रुप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके।“ ”अब व्यावहारिक जीवन में उसके प्रयोग का समय आया है। अब और ‘रहस्य’ बनाये रखने से नहीं चलेगा। अब और वह हिमालय की गुहाओ। में, वन-अरण्यांे में साधु-सन्यासियों के पास न रहेगा, लोगों के दैनन्दिन जीवन में उसको कार्यन्वित करना होगा। राजा के महल में, साधु-सन्यासी की गुफा में, मजदूर की झोपड़ी में, सर्वत्र सब अवस्थाओं में- यहाॅ तक कि राह के भिखारी द्वारा भी - वह कार्य में लाया जा सकता है।“ - स्वामी विवेकानन्द
”सूक्ष्म परमाणु से बृहद् ब्रह्माण्ड तक सभी स्वयं अपनी स्थिरता, शान्ति और एकता के लिए क्रियाशील है। मैं (सार्वभौम आत्मा) भी अपनी स्थिरता, शान्ति और एकता के लिए क्रियाशील हूँ अर्थात सभी अपने धर्म में बद्ध होकर स्वयं या केन्द्र या CENTRE की ओर ही व्यापार या आदान-प्रदान या ज्त्।क्म् कर रहे है। प्रत्येक वस्तु के धर्म या क्रिया या व्यापार या अदान-प्रदान या TRADE का एक चक्र है। सभी के मन स्तर चक्र अर्थात धर्म का चरम विकसित और अन्तिम चक्र मैं (सार्वभौम आत्मा) है। तुम सब इस ओर ही आ रहे हो बस तुम्हें उसका ज्ञान नहीं, उसका ज्ञान होगा कार्यो से क्योंकि कर्म, ज्ञान का ही दृश्य रूप है। एक ही देश काल मुक्त अदृश्य ज्ञान है- आत्मा और एक ही देश काल मुक्त दृश्य कर्म है- आदान-प्रदान।” -लव कुश सिंह ”विश्वमानव“



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