Saturday, March 14, 2020

आविष्कारक/निर्माता/संस्थापक और उपयोगकर्ता/ अनुसरणकर्ता/ निवासी

आविष्कारक/निर्माता/संस्थापक 
और 
उपयोगकर्ता/ अनुसरणकर्ता/ निवासी 
इस संसार में जीवन जीने की दो विधि है- पहला आविष्कारक/निर्माता/संस्थापक की भाँति दूसरा उपयोगकर्ता/ अनुसरणकर्ता/ निवासी की भाँति। इन दोनों की जीवन शैली को समझना आवश्यक है।
आविष्कारक/निर्माता/संस्थापक -
आविष्कारकों/निर्माताओं/संस्थापकों का जीवन एक विचित्रता भरे, त्याग और अतिसंकल्प युक्त जीवन का परिणाम होता है जिसमें एक साधारण मनुष्य टूटने के सिवा और कुछ परिणाम नहीं दे सकता है। इनके जीवन को इस एक लघु कथा से समझा जा सकता है - ”मै भी संसार को सुबास दूँगा, यह संकल्प कर एक नन्हा सा पुष्पबीज धरती को गोद में अपने शिव संकल्प के साथ करवट बदल रहा था। धरती उसके बौनेपन पर हँस पड़ी और बोली - ‘बावले, तू मेरा भार सहन कर जाये, यही बहुत है। कल्पना लोक की मृग मरीचिका में तू कबसे फँस गया?’ पुष्पबीज मुस्कराया, पर कुछ नहीं बोला। मृत्तिका कणों व जल की कुछ बूँदों के सहयोग से वह ऊपर उठने लगा। जमीन पर उगी हुई टहनी को देखकर वायु ने अट्टास किया - ‘अरे अबोध पौघे, तूने मेरा विकराल रूप नहीं देखा। मेरे प्रचण्ड वेग के आगे तो बड़े-बड़े वृक्ष उखड़ जाते हैं, फिर तेरी औकात ही क्या हैं?’ फूल का वह पौधा अभी भी विनम्र बना रहा। वायु के वेग में वह कभी दायें झुका तो कभी बाँए। लहराना उसके जीवन की मस्ती बन गई। इस तरह वह धीरे-धीरे विकसित होता रहा। उपवन में उगे झाड़-झंखाड़ से भी उस नन्हें पौघे का बढ़ना नहीं देखा गया। ऐसी झाड़ियों से सारा उद्यान भरा पड़ा था। उन्होंने चारो ओर से पुष्प-वृक्ष पर आघात करना आरम्भ कर दिया। किसी ने उसकी जड़ों को आगे बढ़ने से रोका, किसी ने तने को, तो किसी ने उसके पत्तों को उजाड़ने की साजिश की, पर उस पौधे ने हिम्मत नहीं हारी और वह तमाम दिक्कतें झेलने के बाद भी बढ़ता रहा। माली उसकी धुन पर मुग्ध हो उठा और उसने विध्न डालने वाली तमाम झाड़ियों को काट गिराया। अब वह पौधा तेजी से बढ़ने लगा। उसे ऊपर उठता देख सूर्य कुपित हो उठे और बोले - ‘मेरे प्रचण्ड ताप के कारण भारी वृक्ष तक सूख जाते हैं। आखिर तू कब तक मेरे ताप को झेल पायेगा? कर्मठ-कर्मयोगी पौधा कुछ नहीं बोला और निरन्तर बढ़ता रहा। उसमें प्रथम कलिका विकसित हुई और फिर संसार ने देखा कि जो बीज की तरह अपने आप को गलाना जानता है, जो बाधाओं से टक्कर लेना जानता है, प्रतिघातों से भी जो उत्तेजित और विचलित नहीं होता, तितिक्षा से जो कतराता नहीं, उसी का जीवन सौरभ बनकर प्रस्फुटित होता है, देवत्व की अभ्यर्थना करता है और संसार को ऐसी सुगन्ध से भर देता है, जिससे जन-जन का मन पुलकित और प्रफुल्लित हो उठता है।“ इसी पुष्प बीज की भाँति आविष्कारकों/ निर्माताओं/ संस्थापकों का जीवन होता है। महानता-अमरता जैसी वस्तु कोई विरासत या उपहार या आशीर्वाद में मिलने वाली वस्तु नहीं है। वह तो इसी पुष्प बीज वालेे जीवन मार्ग से ही मिलता रहा है, मिलता ही है और मिलता ही रहेगा।
इस प्रकार के जीवन में आविष्कारकों/निर्माताओं/संस्थापकों को केवल अपना लक्ष्य दिखाई देता है, मार्ग चाहे जो हो। और इस क्रम में कुछ गलतियाँ, अन्याय, अनुभव के लिए विचित्र जीवन शैली इत्यादि भी करने पड़ते हैं। कुल मिलाकर वे अपने जीवन को ही प्रयोगशाला की भाँति प्रयोग कर देते हैं तब जाकर कहीं दूसरों के उपयोग के लिए कोई आविष्कार मिल पाता है। जो निर्माण करेगा उसे तो धूल-मिट्टी लगेगी ही लगेगी।
यदि यह समझ में आ जाये तो उन लोगों को इसका ज्ञान हो जाना चाहिए कि श्रीराम और श्रीकृष्ण में जो थोड़ी गलतियाँ या अन्याय निकालते हैं उसका कारण क्या था? इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि यदि किसी मकान के 5वीं मंजिल पर आग लगी है तो उसको बुझाने के लिए आवश्यक नहीं की सीढ़ी से ही जाया जाय। उसके लिए कोई भी मार्ग अपनाया जा सकता है और उस समय किसी से पूछने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती।

उपयोगकर्ता/अनुसरणकर्ता/निवासी -
उपयोगकर्ता/अनुसरणकर्ता/निवासी का जीवन एक साधारण और सरल सा जीवन होता है। आविष्कारकों/निर्माताओं/संस्थापकों द्वारा दिये गये फल (आविष्कार/उत्पाद/व्यवस्था) का उपयोग करना और जीवन व्यतीत करना, पीढ़ी बढ़ाना। इन्हें न तो धूल लगेगी, न ही मिट्टी। और न हीं मकान के 5वीं मंजिल पर आग लगी है कि ये दिवाल फाँदेगें, ये तो सीधे-सीधे सीढ़ी से आयेंगे और जायेंगे।
किसी भी आविष्कारक/निर्माता/संस्थापक इत्यादि का सार्वभौम सत्य ज्ञान एक हो सकता है परन्तु उसके स्थापना की कला उस आविष्कारक/निर्माता/संस्थापक इत्यादि के समय की समाजिक व शासनिक व्यवस्था के अनुसार अलग-अलग होती है, जो पुनः दुबारा प्रयोग में नहीं लायी जा सकती। वर्तमान तक ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जिससे यह सिद्ध होता हो कि उस आविष्कारक/ निर्माता/संस्थापक इत्यादि की कला को दुबारा प्रयोग कर कुछ सकारात्मक किया गया हो। किसी भी आविष्कारक/ निर्माता/ संस्थापक इत्यादि के दर्शन या चित्र से अधिकतम लाभ तभी प्राप्त हो सकता है जब उनकी विचार व कृति का ज्ञान व समझ हो। उसी से मनुष्य का विकास सम्भव है। जिस प्रकार वर्तमान भौतिक विज्ञान से आविष्कृत पंखा, बल्ब, मोबाइल, कम्प्यूटर इत्यादि का समाज उपयोग करता है न कि इसके आविष्कारकर्ता का दर्शन व चित्र की पूजा। अर्थात आविष्कार/उत्पाद/व्यवस्था ही आपके लिए उपयोगी है न कि इसके आविष्कारक का शरीर। लेकिन ऐसा नहीं दिखता भौतिक विज्ञान के आविष्कारक की पूजा नहीं करते बल्कि आविष्कार का उपयोग करते हैं और आध्यात्म के आविष्कारक की पूजा करते हैं उनके जीवन की लीला करते हैं परन्तु आविष्कार को कम ही उपयोग करते हैं।
पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी के आविष्कारक श्री लव कुश सिंह विश्वमानव स्वयं एक आदर्श मानक वैश्विक नागरिक नहीं हैं क्योंकि वे एक आध्यात्मिक आविष्कारक हैं और वे इस आविष्कार के लिए अनेक गलतियाँ, अन्याय, अनुभव के लिए विचित्र जीवन शैली इत्यादि से स्वंय को माध्यम बनाये हैं इसलिए उनके आविष्कार का उपयोग करें, उनके जीवन को समझने का प्रयत्न न ही करें तो आपका समय बचेगा।


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