Thursday, April 16, 2020

कृषि और कृषि विभाग

कृषि और कृषि विभाग

सृष्टि की रचना होते ही 84 लाख योनि के जीवों की रचना शुरू हुई, जिसे हम देशी भाषा में सृष्टि की रचना कहते हंै। निश्चित ही 84 लाख योनि में केवल हर योनि के, एक-दो जीव शुरू में बने होंगे, फिर बढ़ोत्तरी होने पर यह संख्या, असंख्य हुई। जीवों में वनस्पति भी आती है और मनुष्य ने होश सम्भालते ही, इसको एक तारतम्य में लाना शुरू किया, जिसमें बेहद मेहनत लगी। इस वनस्पति को तारतम्य में लाने को कृषि का नाम दिया गया।
कृषि या जमीन में उगाना शुरू से हर धर्म में सबसे उत्तम माना गया और किसान या खेती करने वाले को, सबका अन्नदाता माना जाता रहा है। यह किसान शुरू से ही बेहद मेहनती, सबसे ज्यादा सहनशील और सीधा-साधा रहना, इसका खाना तक सबसे ज्यादा सस्ता रहा है, लेकिन अज्ञानी लोग, इसे हमेशा गँवार कहते आये हैं। खेत में बेहद मेहनत करनी पड़ती थी। फावड़ा चलाना, बैलांे के द्वारा सुबह 4 बजे हल चलाना, जानवरों को पालना, हजारों पशुु-पक्षी अपनी भूख के लालच में, हमेशा इसके आस-पास ही रहते हैं और जाने-आनजाने सबका जीवन चक्र चलता है। हर समझदार और हर बड़ा, इसके गरीब होने पर भी, इसकी कदर करता है। सीधा-साधा होने पर भी इज्जत पाता है। राजा-महाराजाओं तक ने इसकी कदर की। टैक्स के रूप में लगान भी लगाया, लेकिन परेशानी या दुःख आदि में पूरी सहायता भी करते थे। बादशाह अकबर और अनेक हिन्दू राजा-महाराजाओं के सबूत है कि इज्जत के मामले में, इन्हें एक दिन का बादशाह या राजा तक बनाया गया है।
सृष्टि में शुरू से खेत व गाँव ही रहे हैं। पशुुपालन खेत के हिसाब से करना ही पड़ता था और इतिहास गवाह है कि जिसके यहाँं जितनी गाय होती थी, उसी हिसाब से उसको गरीब और अमीर माना जाता था। इस समय मशीनी युग है, लेकिन जानवरांे की खासतौर से दूध के जानवरों की कीमत आज भी कम नहीं हुई है, बल्कि बढ़ी है। इसके अलावा खेती में अविश्वसनीय प्रगति हुई है, जो फसल 6 और 8 माह में आती थी उसकी भी गारण्टी नहीं थी। अब चार माह में फसल ले लेते हैं। साल में ज्यादा से ज्यादा दो फसल ले पाते थे अब तीन और चार फसल ली जाती है।
नये-नये बीज, खाद, कीटनाशक वैज्ञानिक तरीके से बोने काटने से हजारों गुना फायदा बढ़ा है। लेकिन सबसे बड़े दुःख की बात यह है कि पहले किसान गरीब था, केवल गरीब, लेकिन अब हर किसान, सोसाइटी या सरकार का या बैंक का कर्जमंद है। पहले किसान सीधा-सादा था, अब का किसान चालाक है। चालाकी के कारण ही नुकसान में भी अग्रसर होता जा रहा है। इनके बच्चे खर्चीले ज्यादा हो रहे हैं। गाँव से शहर में आकर पैसे के बल पर, गलत नेतागिरी और बिजनेस में हाथ डालकर पूरा वातावरण दूषित कर रहे हंै और किसान की इमेज खराब कर रहे हैं। इसमें जमीन तक बेच देते हैं, उधार ले लेते हैं, बच्चे, बुरे आदतों में घिरते जा रहे हैं। पहले बेहद मेहनती व आज्ञाकारी थे। गुड़, रोटी, मट्ठा, रोटी में मेहनत करके खुश थे। किसान सबको देता था। सरकार ने प्रोत्साहन दिया, टैªक्टर लो, हर सुविधा खेत के नाम से दी। अब सब कर्जमंद हैं।
ट्रैक्टर के कारण, बैंक और सरकार के, ट्यूबवेल के कारण बिजली विभाग और तेल वालों के, अगर फसल बोई गई है, तो फसल पकने से पहले ही, घर वाले शौक और खर्च में खेत पूरा कर देते हैं। अंग्रेजी खाद, बीज, कीटनाशक दवा के असीमित खर्चे, इसके अलावा परिवार की छोटी-मोटी बीमारी में भी मोटा खर्च, नर्सिंग होम का खर्च, डिलीवरी जैसी प्राकृतिक क्रिया में भी बनावट, गाँव में रहते हुए शहरी लोगों की नकल, पहनावा, खाना ही नहीं, चूल्हे-चक्की भी शहरी टाइप में लाकर 80 प्रतिशत अनियमितता और खर्चे बढ़ाये हैं।
मेहनत, मशीनी युग के कारण, काम 2 घंटे और मनोरंजन 22 घंटे करने के कारण, किसान ही नहीं, इनके साथ-साथ सबकी अनियमितता तेजी से बढ़ी है। इसके अलावा नेतागिरी को पूरी तरह गलत बढ़ावा, गलत तरीके से, केवल गाँव के लोगों की ही देन है। नेताआंे की चमचागिरी के लिये, जब चाहे जब ट्राली भरकर सड़कों पर ”इंकलाब जिन्दाबाद“ के नारे लगाना, चुनाव के समय चुनाव प्रधान का हो या विधायक का, चाहे जमीन बेचनी पड़े, शराब, टिकट के लिये मोटा पैसा, भीड़, काम छोड़कर शोर शराबा, मारकाट और सब हथकंडे अपनाते हैं। चुनाव जीते, तो नुकसान, चुनाव हारे, तो नुकसान निश्चित करते हैं और फिर बिजली फ्री दो, कर्ज माफ करो, पानी दो, गन्ने के पैसे बढ़ाओ आदि-आदि अनेक परेशानी सबकी खड़ी करते हैं।
दूसरी तरफ हर सरकारी प्राणी चाहे स्कूल का हो या अदालत का, हर नेता किसी भी पार्टी का हो, इनकी नासमझी, इनकी मजबूरी, इनके भोलेपन का भरपूर फायदा उठाते हैं। खासतौर से इनके नकारेपन का। जिस नेता के पास नकारों की भीड़ हो, वह आज नहीं तो कल सीट पर होगा या आसीन हो जाता है।
नेताओं का काम, इन लोगों को बहकाना भी तो है। गन्ने के दाम कम है, बिजली कम है, कर्ज माफ करना है, सफर करना है टिकट नहीं लेना है। कहीं मन्दिर, कहीं मस्जिद, कहीं पानी, कहीं सूखा, करोड़ांे किस्म के हथकंडे निश्चित हैं। सीधे-सादे और लालची किसान को फसँाना कितना आसान है, यह भी नेतागण जानते हैं और सब जानते हैं।
साफ शब्दों में ”जस राजा तस प्रजा“ की पैथी (विधि) पर यह अन्नदाता कहलाने वाला किसान अब बेहद बदल चुका है। गरीब किसान जहाँ मेहनत और सहनशीलता पर विश्वास करता था, अब पैसे के पीछे भागता है। पैसा चाहे जैसा हो, पैसा ही चाहिए। मेहनत छोड़कर रैली, जलूस करके, हर अवरोध खुद के लिए और सबके लिए बना रहा है।
पहले यह किसान खेती करता था और घर के सब प्राणी मिलकर तरह-तरह की फसल बोते थे। जिसमें अधिकतर फसल धर्म निभाने में खर्च करते थे। बहु-बेटियों को पहुँचाना, घी, दूध, दाल, चावल, गेहूं, अनाज, फल आदि गुड़, गन्ना आदि सब। किसी में छल, कपट, झूठ, फरेब नहीं था। सब फसल बाँटना और खाना। सहनशीलता की मिसाल थी। सैकड़ांे बीघे जमीन होने पर भी टूटे-फूटे कच्चे मकान में रहना, औरतांे लड़कियांे का मकान लिपना-पोतना, अनाज का छानना-फटकना-पीसना, दूध-दही बिलौना, सारे काम खुशियां बिखेरते नजर आते थे। शरीर भी तंदरूस्त रहता था।
आज वही किसान किसी को बिना मतलब कुछ भी देने को तैयार नहीं है। गिनी-चुनी फसल, पैसा बढ़ाने के लिये की जाती है, लेकिन, हर चीज महँगाई की तरफ बढ़ी है। तेल, घी, दूध, दही, दालें, चना, अनाज, गुड़, शक्कर, कपास आदि पहले शौक से पैदा करते थे, तो ये चीजंे खरीदनी नहीं पड़ती थी। अब खुद किसान भी खरीदता है, तो सब चीजें महँगी ही होनी हैं, क्योंकि किसान का बेहद बड़ा वर्ग मेहनत छोड़ चुका है और जहाँंॅ किसान का सबसे कम खर्च था, वहीं अब उसका सबसे ज्यादा खर्च है।
पक्के मकान व ट्रैक्टर, बाईक, गाड़ी, घर के सारे सुख सुविधा के साधन, अच्छा महँगा कपड़ा निश्चित ही, मेहनत खत्म और गलत खर्च ज्यादा कर देते हैं। खर्च करने में भी कम पढ़ा-लिखा और सीधा होने के कारण, जो खर्च करता है, खुल कर खर्च करता है। नतीजा कुछ भी निकले। जैसे देखा शहर में पक्का मकान है, हमारा भी होना चाहिए। सोचकर, बनाओ भाई, शहर में दस हजार ईंट लगती हैं, तो यह एक लाख नींव में ही लगा देते हैं। मकान शहर में 100, 200 गज में बनता है। यहाँ किसान बीघों में बना देता है। मिस्त्री, मजदूर सस्ते जरूर हैं, लेकिन लम्बे समय तक काम करने में लगे रहने के कारण महँगे पड़ते हैं। ट्रैक्टर, ट्राली, मिट्टी घर की है या फ्री की है। मतलब ऐसा नामुमकिन है कि खर्चे का बजट ना गड़बड़ाये। मकान तो बनाया, बड़े-बड़े कमरे, बड़ा आँगन, ट्रैक्टर के लिये अलग, शहरी हिसाब से खाना-पीना, शराब और मनोरंजन। बाद में पता लगता है कि पलस्तर बाद में करायेंगे।
मकान बन गया, कई लाख ज्यादा खर्च हो गये। सबके लिये काम बढ़ गया। इसी वजह से 15, 20 साल तक पलस्तर ही नहीं होता। फिर ”जैसी नीयत वैसी बरकत“ और परिस्थिति के मुताबिक मेहनत छुटने से, गड़बड़ शुरू होती है। घरेलू झगड़े, बच्चे, औरतों की शिकायतें और नतीजा बटवाँरा।
मतलब यह है कि हर व्याधा बड़ी है। गाँव में एक-दूसरे को देखकर खुश न रहना, बैर-भाव बढ़ना, पार्टीबाजी बिना मतलब की अनेक समस्यायें खुद खड़ी कर देते हैं और जीवन में सब कुछ होते हुए भी मेहनत छुटते ही, जीवन रंगीन होने की बजाय, बदरंग होने लगाता है। बच्चों का शहर की तरफ झुकाव, मेहनत से जी चुराना, पढ़ने-लिखने के बाद झूठ फरेब, झूठी खुशी की इच्छा, नौकरी की तरफ झुकाव, नेतागिरी की तरफ झुकाव, किसान को हर व्याधा घेरने लगती है।
जहाँ दूध और पूत की कदर होती थी, वहाँ अब दूध बेच दिया जाता है, पूत पराया हो जाता है। हर चीज का रखरखाव गँवारू तरीके से खुद हो जाता है। जब दिमाग में जमीन और फसल की झूठी शान हो, तो नतीजा ज्यादातर चीजों की बेकदरी और बेहद ज्यादा नुकसान तब होता है, जब बीज बोने और पानी देने में भी आलस्य करने लगे।
पहले हर चीज घर की होती थी, अब अनाज भी बाजार का हो सकता है। जो भी खेत में पैदा करते हैं, वह केवल पैसा बनाने के लिये करते हैं। अब तो आलम यह है कि शहर से बेहद दूर गाँव में भी, दूध बेच दिया जाता है और चाय पीकर, पैसा और शरीर खराब किया जाता है। यह केवल पैसा बढ़ाने के चक्कर में ही होता है। आदत और नेचर ऐसी बदली है, कि यह किसान जो बेहद कम पैसों में रहना, मजदूरी तक करना और सीधा-सादा, सस्ता खाना और सोना था बस। अब वही गाँव का एक मजदूर गाँव से दूर चलकर पैसे के लालच में गाँव, का काम छोड़कर 15 किलोमीटर दूर सुबह शहर आता है और शाम को पैसे लेकर घर पहुँचता है। इस अज्ञानी मजदूर को, शहर में कम मेहनत ज्यादा पैसा नजर आता है। जबकि आने-जाने में मजदूरी से ज्यादा, मेहनत करनी पड़ी। शहर में दिन मजदूरी मिलती नहीं और गाँव के काम भी बाधित हुए। गाँव में जहाँ सस्ता मजदूर मिल जाता था, आज वहाँ मजदूर है ही नहीं और सब परेशान हंै।
यह भूल गये हैं कि ”घर की आधी रोटी, बाहर की चुपड़ी रोटी से अच्छी होती है।“ गाँव में जहाँ दूध की नदियाँ बहती थी, प्यार का सागर था, इज्जत बेइंतहा थी, खुद्दारी थी, सब खत्म है। दूध है नहीं। प्यार कम हुआ। इज्जत की किसी को चिन्ता नहीं। इसीलिये गाँव के लोगों का ध्यान शहर की तरफ है। खेती की बजाय नौकरी की तरफ है। धरती माँ जिसके बारे में कहा गया है ”जितना टटोलो, उतना पाओ“ वही किसान कहता है, कुछ नहीं है, खर्चे पूरे नहीं होते।’ अरे भाई खर्च करते क्यों हो? मेहनत करो, खर्च बचाओ। आप साबूत नमक की जगह पैकिंग नमक भी लेने ट्रैक्टर पर जाओगे। खेत पर हल चलाने के वजाय, ट्रैक्टर चलाओगे, पानी देने में बिजली का इन्तजार करोगे, तो खर्च बढ़ेंगे ही। दूध की जगह चाय और शराब पीयोगे, घर की दाल छोड़कर शहर से सब्जी लाओगे, घर के वैद्य की दवा छोड़कर, नर्सिंगहोम जाओगे, तो खर्चे पूरे हो ही नहीं सकते।
आप गाँव में हैं। रहन-सहन, आचार-विचार गाँव के ही सूट करेंगे। गाँव में जीन्स पहनकर घूमोगे, तो खर्चा कौन पूरा कर देगा? इंसान को प्रगति करनी ही चाहिए। बड़ों की बात है, लेकिन झुककर चलने में नुकसान तो है ही नहीं। वजूद में रहना समझदारी और बड़प्पन है। गाँव का इंसान गाँव तक सीमित था। बेहद खुश और खुशहाल था। सबको आनन्द आता था। आज भी जो ऐसे लोग हंै, वह खुशहाल हैं, यही सच्चाई है।
इस कृषि में भी मनुष्य ने होश सम्भालते ही बढ़ोत्तरी या प्रगति की तरफ अग्रसर रहा है। यह जीव का प्राकृतिक गुण है और आज इस विज्ञान के युग में तो करिश्में ही करिश्में नजर आते हैं। राजा-महाराजाओं के समय में, खुद किसान ही खेत के मामले में बढ़ोत्तरी की तरफ नजर रखता था, नेचुरल बात है और हर तरीके से मेहनतकश रहा। उधर सरकार लगातार कोशिश करती रही है, कि बच्चों की पढ़ाई में अब शुरू से ही भूगोल विषय पढ़ाकर, कृषि की तरफ अग्रसर किया जाए।
भौतिक व रसायन विज्ञान ने कृषि में चार चाँद लगाये हंै। इस पर भी मशीन के योगदान से बेहद बढ़ोत्तरी निश्चित ही हुई है। पहले हमारे पास केवल बैल होते थे और शुरू में केवल बारिश के पानी का सहारा था। नदी तो थी यह बरसात में मीलांे तक पानी-पानी कर देती थी और दूसरे मौसम में पानी कम या सूख जाती थी। फिर कंँुओं का चलन हुआ। रहट या हरट, ढे़कली और फिर नदी से नहर और राजवाहे बनाये। आज हमारे पास पानी के अनेक साधन हैं। पहले खेती बेहद सीधे-सादे ढंग से होती थी, जिसमें बेहद मेहनत और बचत कम थी। पशुु-पक्षी, जीव-जन्तु से नुकसान बहुत थे। ज़मीन और बीज का ज्ञान बेहद कम था। बस गोबर की खाद, कुँऐं या बरसात का पानी और घरेलु बीज ही इस्तेमाल होते थे।
सरकार ने कृषि पर विशेष ध्यान दिया। ज़मीन या मिट्टी का रसायनिक परीक्षण किया। कौन सा बीज और कौन सा खाद ज्यादा फायदेमंद है? किस प्रकार पानी और कीटनाशक फसल के लिए ज्यादा फायदेमंद है। राउंड द क्लाक रिसर्च करते रहे। कौन सा फल, कौन सा अनाज कहाँ-कहाँ आसानी से और अच्छी उपज देता है, इसी काम के लिये विशेष रूप से कृषि विभाग बनाया और इसकी बढ़ोत्तरी के लिये, विशेष पढ़ाई और प्रोत्साहन मुहैय्या कराया गया। नई-नई मशीनें, पानी का साधन बताये व बनायें, सिखायें और एक सीधा-सीदा किसान जो पहले पकी पकाई फसल प्रकृति प्रकोप से जहाँंॅ घर तक नहीं ले जा पाता था, अब हर व्याधा पर लगभग विजय पा चुका है। कड़ी मेहनत से जहाँ कुछ बीघे जोत पाता था, उँची-नीची बंजर ज़मीन से परेशान था। पानी के साधन नहीं थे, वही किसान अब सैकड़ों बीघे में शाम तक बो देता है और कुछ माह में बेहतरीन फसल ले लेता है।
पहले हम बारिश, ज्योतिष के आधार पर, पूरे साल के तजुर्बे के आधार पर, वर्गीकरण करते थे। अब वैज्ञानिक तरीके से मौसम तक का पूरा ज्ञान रखते हैं। लेकिन निःसंकोच लिखना पड़ता है कि वैज्ञानिक खेती के मामले में, एक किसान के ज्ञान के आगे बेहद छोटे हैं। एक किसान चींटी जैसे जीव, चील, गिद्ध जैसे पक्षी सुबह-शाम-रात के समय पेड़-पौधे, पशुु-पक्षी के आचरण से मौसम, बादल, हवा, फसल बोना काटना समय से और सही तरीके से कर पाता था, जो वैज्ञानिक, विज्ञान पर मोटा खर्च करके, अब तक नहीं कर पाया।
विडम्बना यह है कि यहाँ का मौसम का ज्ञान, वहाँ रहने वाले जीव जन्तु सही समझते हंै, इशारा करते हंै और मनुष्य बुद्धिजीवि अगर कोशिश करता है, तो उसको समझ कर फायदा उठाता है। दिमाग या मशीन केवल लम्बी दूरी तक का ब्यौरा एक बार बताते हंै, जिसकी सच होने की केवल सम्भावना ही हो सकती है, गारण्टी नहीं। अलग-अलग जगह का पृथ्वी का गुरूत्वाकर्षण, चुम्बकीय प्रभाव, ग्रहों के असर में अन्तर में होने से पानी, हवा, मौसम में अन्तर निश्चित आता है जो वहाँ के जीव ज्यादा जानते हैं। जीवों का दिमाग इस मामले मैं वैज्ञानिक मशीन या दिमाग से ज्यादा एक्युरेट और ज्यादा अच्छा है। क्योंकि 84 लाख योनि के असंख्य जीव, अपने इस दिमाग से सही वर्गीकरण निश्चित करते हैं और अपना जीवन तक हर वातावरण में सुरक्षित रखते हंै। जो वैज्ञानिक कभी कर ही नहीं सकता और अगर कर भी पाता है, तो वह केवल एक जीव के लिये कर पाता है और इसे करने में इतना मोटा खर्च और इतनी ज्यादा मेहनत हो जाती है कि वह आगे असम्भव नजर आता है या असम्भव हो जाता है।
दूसरी तरफ केवल अपने दिमाग और शरीर के द्वारा हर जीव, पेड़-पौधे तक, इसी वातावरण को अपने लायक बना लेते हैं और सबको अपने-अपने तरीके से सिग्नल देते रहते हैं, कि एक घंटे में ऐसा मौसम या वातावरण में, ऐसा बदलाव आने वाला है। आप भी ध्यान देंगे तो समझ जायेंगे कि गर्मी, बरसात, हवा का चलना और इन सब का आपके शरीर पर यह असर होता हैं या हो जाता है।
इतिहास गवाह है घाघ के, रसखान के, रहीम के, कबीर और अनेक कवि कविता, दोहे, मुहावरे लिखते रहे हैं, जो आज भी सच साबित होते हैं। पशुु-पक्षियांे की पहचान, मौसम का ज्ञान बोने-काटने की बातें लगभग सब बताई हंै, जिसे हम लगातार भूलाते जा रहे हंै और निश्चित ज्ञान और सुख कम किये हैं। इन्होेंने अपनी और आपकी भाषा में हर व्याधा, परेशानी, बीमारी, उनका विकल्प और इलाज तक बताया है। भूत, वर्तमान और भविष्य तक सब बताया है और पैथी (विधि) ऐसी कि आचरण में आने के बाद भूलने की बात ही, खत्म हो जाती है और आने वाली पीढ़ी फायदा उठाती है या फायदा उठा सकती है। सबसे बड़ी बात, खर्चा नहीं के बराबर और हर जगह उपलब्ध है।
आज हमारा सरकारी प्राणी कृषि विभाग सरकार से मोटी पगार और हर सुविधा ले रहा है। वहीं नेता को कृषि विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गई और कृषि मंत्री बनाया गया। गाँव मंे प्रधान बनाया गया। यह चैन इसलिये बनाई गई कि, हम निपुणता से खेती कर सकें। हर ज़मीन का रसायनिक वर्गीकरण करके उसकी कमी खत्म करें और ज्यादा फायदा उठा सकंे। वह भी कम मेहनत और कम लागत में। इसमें हमारे किसान भाई, भोले-भाले, सीधे होने के कारण फायदा नहीं उठा पा रहे हैं या आलसी और निकम्मेपन के कारण या घरेलू समस्या के कारण ध्यान ही नहीं दे पा रहे हैं। दूसरी तरफ, सरकारी प्राणी से लेकर प्रधान, सेक्रेटरी और मंत्री व इनके साथ, अपनो के खर्चें, पगार और अनियमितताओं का मोटा भण्ड़ार, जनता के पैसे का नुकसान ही नुकसान करते हैं।
दूसरा श्राप आजादी भी है। एक मामूली नौकर 24 घंटे खाते-पहनते-सोते-जागते नौकरी की चिन्ता करता है। सुबह से रात तक नौकरी पर रूकता है, केवल एक माह में पगार के लिये, वहीं एक किसान ज़मीन का मालिक, सबका अन्नदाता बहुत थोड़ी देर खेत पर रूकता है। जहाँ प्राकृतिक नजारे हंै, सबका दाना-पानी है। इसी कृषि को बिजनेस कहता तो है लेकिन, एक बिजनेसमैन 24 घंटे बिजनेस मंे लगा रहता है, बाकि सब कुछ भूल जाता है। वहीं कृषि विभाग 5 गज में वैज्ञानिक तरीके से मोटी लागत लगा कर, हर समय सरकारी नौकर लगाकर, कागजों में केलकुलेशन करके ऐलान कर देता है, कि यह फसल देश में, अब के इतने करोड़ टन होगी। यह वैज्ञानिक, महँगा बीज, महँगा खाद, पूरा पानी, महँगा कीटनाशक, कुल मोटी लागत से इतनी बचत निश्चित है, बता देते हैं।
यह पढा़-लिखा इंसान भूल जाता है। दो गज और दो सौ बीघे में अन्तर है। ये रिसर्च, शीशे के केबिन के हंै। हर किसान की मजबूरी, मेहनत, सुख-दुःख, सोच अलग-अलग है। इधर दूरदर्शन, अखबार, नेता, मंत्री गलत पर विश्वास करते हंै। मोटा पैसा खर्च करते हैं। खाद, बीज, दवा, कीटनाशक से रिश्वत कमाते हंै। फैक्ट्री वाले मजबूरी में मिलावट करते हैं। दूरदर्शन पर गोष्ठी-इंटरव्यू करके मोटा खर्च करते हैं और किसान को फायदे की बजाय नुकसान होने लगता है, किसान और सरकार का बजट गड़बड़ाने लगाता है।
बैंको के नियम, ब्याज, हेरा-फेरी, कोढ़ में खाज का काम करती है और यही बस नहीं होती। किसान को हर चीज मिलावट की मिलती है, महँगी मिलती है। जब किसान बेचने जाता है, उससे पहले जीव-जन्तु तक दाना-दाना बाँटते हैं। मंडी, मिल व बाजार में कमिशन एजेंट और लेने वाले, अपनी इच्छा से पैसे लगाते हैं या तो माल खराब करो या हमारे रेट पर दो। किसान हर तरफ से नुकसान में नजर आता है और सोचता है, फ्री में किसी को देे देता, तो ठीक था।
यही किसान बिना किसी प्रपंच में पड़े, केवल अपने खेत और घर पर ही रहता, मेहनत करता, तो ज्यादा फायदे में रहता। किसी ने कहा है खुद को कर बुलंद इतना कि रब बंदे से खुद पूछे कि बता तेरी रजा क्या है। ये तब ही मुमकिन होगा जब किसान अपने ठीये पर मेहनत और अपने दिमाग से, रूकेगा, सोचेगा और करेगा।
संसार में हर जीव मेहनत करता है, जिसमंे किसान मनुष्य में केवल धरती से उगलवाने के अलावा लालचहीन होते थे। इसीलिये यह सुखी और सम्पन्न था। अब यह लालचवश, उसी सरकारी प्राणी के पीछे कुछ पाने के लालच में भागता है, जिसने पढ़-लिख कर सरकार को घोखा देना सीखा है, दे रहा है। यह खुद उस नेता की छत्रछाया में है, जिसने पैदा होने के बाद से, माँ-बाप के यहाँ नहीं किया, नेता बनकर जनता के लिये नहीं किया, घोटाले में लिप्त है, इसके संगी-साथी इन जैसे या इनसे ज्यादा गलत हैं। वहाँ कीमती समय या ऐसी जगह समय बरबादी के अलावा और क्या है? इतना ज्ञान तो उसमें और उसके आस-पास सब में है। केवल ध्यान नहीं दिया। अमल में नहीं लाया। दूरदर्शन देखकर कुछ सिखता है, लेकिन बाकी घर के मेम्बर जो ज्यादा हैं। दूरदर्शन पर अन्ट-सन्ट सीखते ही नहीं, उस पर अमल भी करते हैं और बेहद कम फायदा और बहुत बड़े-बड़े नुकसान किसान को झेलने पड़ते हैं और कहते हंै क्या करें टी. वी. ने सबको बिगाड़ दिया है। अरे निःबुद्धि इंसान तू जानता है, अपनो में मिलकर करते-रहने से भी हर गुण, कई गुना बढ़ता है, हर कमी अपने आप खत्म होती है।
आप गलत गैरों के पीछे भाग रहे हंै, तो आप के अपने, गैरों के पीछे भाग ही जायेंगे, निश्चित है। क्योंकि ये छोटे हैं, कम बुद्धि के हैं और आपकी आज्ञा में भी नहीं हंै, आप जैसे नहीं हंै। आज आपके पास में टिकैत जैसे अनरजिस्र्टड नेता भी हैं लेकिन आप फायदा उठा नहीं पा रहे हंै। हाँ गलत सलाह पर अमल जरूर कर देते हैं। जैसे बिजली जलाओ, बिल नहीं देना है, सफर करना है टिकट नहीं लेना है, सरकार से कर्ज लेना है, अदा नहीं करना है, सड़क जाम, रेल जाम आदि-आदि।
आप वोट देते हंै, प्रधान बनाते हंै, विधायक बनाते हैं और चुनाव से महीनों पहले, अपना-अपना काम छोड़कर उनके साथ घूमना, खाना, नारेबाजी, लड़ाई-झगड़ा सब करते हैं। रैली जा रही है, फ्री खाना, घूमना है बस। यह क्या कर रहे हैं? खुद नहीं तो बच्चों को भेजते हैं, प्रधान नारी आरक्षण के द्वारा चुनते हैं, जिस बेचारी ने किसी के खेत की ड़ोल भी नहीं देखी, उसे प्रधान बनाने की कोशिश करते हैं। यही नहीं, नारी से चुनाव के समय दारू और मिठाई बँटवाते है, जो दूसरी औरतों से कहती हंैं, ले ये दारू ले जा, अपने आदमी को देना और तू भी पीकर देखना, थारे, यहाँ तो पी लेवे हैं। पहले यह प्रधान बनने वाली नारी शराब पीने वाले से भी नफरत करती थी, मजदूरों से बेगार कराती थी, दिहाड़ी करने वालों को पूरी दिहाड़ी भी नहीं देती थी। मजदूर के बच्चांे तक को लस्सी, मट्ठा तक मना कर देती थी। आज यही औरत प्रधान की सीट के लिये कई-कई लाख खर्च कर रही है, गलत शिक्षा दे रही है और आप वोट दे रहे हैं। आप जानते भी नहीं कि यह प्रधान बनने के बाद कुछ नहीं करेगी। करेगी तो, वह भी इसका आदमी करेगा। क्या किसी नेता से आपको पहले कभी, सही फायदा हुआ हैं?
कृषि करने वाला एक बड़ा समाज है। भारत ही नहीं, हर देश, हर मुल्क में और आप ही साबित कर सकते हैं। उत्तम खेती, मध्यम बान, निषिद्ध चाकरी, भीख निदान। आपके पास खेती के साथ-साथ पशुुपालन भी एक ऐसा जरिया है, कि पैसा भी और दूध भी होगा। घर के लिये हर चीज बोईये, देखिये महँगाई क्यों कम नहीं होती? फसल होगी, मेहनत लगेगी बस। सरकार आपकी सहायता करना चाहती है। लेकिन सहायता का एक बड़ा हिस्सा प्रधान, नेता और सरकारी प्राणी में बँट जाता है। कर्ज क्यों लिया जाये, दिखावे और शान शौकत के लिये?
आप कितने नासमझ हैं। अरे कर्जा तो बाप का भी बुरा होता है। अगर कर्जमन्द हैं, तो कैसी शान शौकत। याद रखिए, गाँव और शहर की हर अनियमितता की जिम्मेदारी सबसे पहले वहाँ के प्रधान, सभासद, सेक्रेटरी, चेयरमैन, सारे नेता और सरकारी प्राणी की है। लेकिन आप भी देखते रहने के लिये नहीं हैं। आप शिकायत लिखिये। तीन गवाह के वोटर/आधार नम्बर के साथ हस्ताक्षर कराईये और एक कापी उस विभाग, दूसरी कापी उपर भेजिये, आप देखेंगे उस पर अमल होता है। गलती करने वाले से नकद जुर्माना राजकोष में जमा कराईये। हमें राजकोष भी बढ़ाना है।
आज किसी किसान से पूछो चना और दालें कितनी बोते हो? तो जवाब मिलता है, पहले बोते थे, अब होती ही नहीं या बोते हंै, तो बचती ही नहीं। अरे भई पहले जब साधन कम थे, तब बोते थे, अब साधन हैं तो बोते नहीं। ऐसे कैसे हो सकता है कि बचती नहीं? जब खेत बोया है, तो खेत पर रूको, तभी तो बचेगा। खेत में पपलर लगायेंगे। पैसा कमाना है, पैसा तो आपके पास होगा लेकिन और कुछ नहीं होगा। आप की तरह सब सोच रहे हंै, तो कैसे काम चलेगा?
हर किसान की नीयत गड़बड़ाई है और इसी कारण ज़मीन, चाहे बटँवारा हुआ या शराब में बिकी, ज़मीन कम हुई है और किसान को मजबूरी में मजदूरी और नौकरी ही करनी पड़ी है। अन्नदाता को अनाज और खाने के लिये मोहताज होना पड़ा। आपसे सरकार सब कुछ लेती है। सरकार से किसान या आप क्या लेते हैं? ”कर्जा केवल कर्जा’, गलत है।
आप को सरकार से लेना ही चाहिये वह भी रौब से। केवल वह लेना चाहिये, जो सरकार खुद कहती है और कभी देती नहीं है, जैसे बिजली दी, कहाँ है बिजली? बच्चों की इण्टर तक की पढ़ाई फ्री दी, कहाँ है पढ़ाई? हर घर के आगे सड़क कहाँ है? हर घर में शौचंालय कहाँ है? आप गरीब हो सकते हैं, जलील या कमीन, तो नहीं होना चाहिये।
ट्यूबवेल के लिये बिजली ली, खेत भरता नहीं बिजली बन्द। बच्चों के पढ़ने के समय बिजली नहीं, खाना खाते समय बिजली नहीं, आवाज आप उठा सकते हैं, नेता बनाने के लिये भी तो आवाज उठाते ही हैं। आपके सरकारी कर्मचारी, बिजली वाले, पानी वाले, अस्पताल वाले, डी. एम., कमिश्नर, अदालत वाले, तहसीलदार, कानूनगो सब पगार लेते हैं। लेकिन बिना रिश्वत के काम नहीं करते या चक्कर कटाते हैं। ये सब क्यों, क्या आपके यहाँ मजदूर बिना काम करे मजदूरी ले सकता है? फिर ये पगार लेेने वाले आपको परेशान करने की पगार लेते हैं? आप खुद्दार इन्सान हैं, धरती का सीना चीरकर फसल ले सकते हैं, फिर एक नेता और सरकारी नौकर क्या बेचता है?
आपकी यूनिटी बेहद बड़ी है। फिर भी आप या आपका कोई भाई परेशान होता है। कानून है, सरकारी प्राणी, समय से काम करें या दिहाड़ी छोड़े। एक दिन का काम एक दिन में करें या अगले दिन काम करते हैं या काम ठीक नहीं करते, तो हमंे हमारी दिहाड़ी दो। इस नियम या कानून को कोई नहीं काट सकता।
जनता भोली है लेकिन अथाह शक्तिशाली भी है। गाँव का कोई भी इंसान चाहे दुकानदार या किसान या मजदूर परेशान रहना ही नहीं चाहिये इण्टर पास गरीब लड़कियों को शादी के लिये 20 हजार रूपये देने हैं, तो अभी दो चक्कर क्यों लगाये? या पहले किसी गरीब को मिले हों। विधवा पेंशन के बहाने प्रधान, सेक्रेटरी आदि एजेन्टों ने ही कमाया है। नेता ने ही कमाया है। इंसान एक ठोकर में सीखता है, दूसरे को ठोकर खाते देखकर भी सीख जाता है। आप कैसे इंसान हैं, कैसे खुद्दार हैं, देश आजादी के बाद से देख ही नहीं रहे हैं, भुगत भी रहे हैं। फिर भी, हे मेरे भगवान. . . . . या लाहोल बिलाकुबत। आप उपर शिकायत तो लिखिये। अनपढ़ आप हो सकते हैं, लेकिन सब अनपढ़ नहीं हो सकते। अपने आप को खुद्दार बनाईये।
आज आप सरकार से सहायता लेने के चक्कर में जाति या धर्म परिवर्तन या छोटी कौम में पहुँचना, तो ठीक है ही नहीं। हक नहीं मिलता, तो कमजोरी आप की है, अगर कमजोरी है भी, तो गिरीये भी तो नहीं, गिरने से कुछ नहीं मिलता। मिलता है मेहनत से। मिलता है यूनिटी से। ठहराव से, सच्चाई से। पहले सरकार ने जो कहा है, सही रूप में लीजिये। नहीं मिलता, तो उन पर जुर्माना कराईये। ऐसा होते ही आप को बिना माँगे सब कुछ सरकार देगी या सरकारी प्राणी पगार छोडे़गा। विधवा पेंशन निश्चित तारीख तक हर माह लें या हर माह ब्याज दो। छः माह में पेंशन देना, उनका या बैंक का उस पेंशन के पैसे से पैसा कमाना है। आप के मुताबिक नहीं होता या नेता कहकर नहीं देते तो वोट के जमाने में उनके पीछे भागते क्यों हैं? क्यों वोट देते हैं। 70 साल में नहीं सीख पाये, तो आप बुद्धिजीवि हैं ही नहीं, आपका भगवान या सृष्टि के सारे देवी-देवता, भी आपको अत्याचार से बचा ही नहीं सकते, अब भी इंसान बनो, खुद्दार-स्वाभिमानी बनो।
प्रधान आपका है, सेक्रेटरी आपका है, सही काम करो या सीट छोड़ो, अपनी जेब से दो। आप लेना चाहोगे, तब ही उसे देना पडे़गा। पैसा आपका है और यह सब, आपके सेवक हैं, हर तरीके से चारों तरफ नजर मारने के बाद देखा गया या पाया गया कि किसान की कोई गलती कहीं से कहीं तक है ही नहीं। किसी इंसान का सीधा होना, उसका गुण है, उसका अवगुण या जुर्म तो है नहीं। लेकिन ये किसान, तो हर हाल में सबको कुछ न कुछ देता ही रहता है। इसके बड़े देते रहे हैं, इसके बच्चे देते रहेंगे। अगर इसने बिजली का बिल रोका है या कर्ज नहीं दे पाया। इसमंे भी गलती सरकारी कर्मचारी अधिकारी या विभाग की है। पहला बिल या कर्ज की पहली किस्त बेहद छोटी होती है। बिजली विभाग, बैंक या सोसाईटी ने अगर नियम और कानून के तहत, पहला कदम ही, सही उठाया होता तो, चाहे यह गरीब किसान कुछ भी करता, समय पर किस्त जरूर देता। अब वह किस्त कई-कई हजार की है, जब वह दो सौ या पाँच सौ रुपये की किस्त नहीं दे पाया, तो दस हजार या बीस हजार की किस्त एक बार में कैसे दे पायेगा?
गौरतलब बात ये भी है कि बिजली जैसी सस्ती चीज लेने में भी, इसे विभाग के चक्कर काटने पड़े, यही नहीं पाँच हजार या दस हजार रुपये जो, नाजायज है पहले देने पड़े। बैंक और सोसाईटी में भी इसने एजेन्टों के द्वारा निश्चित उपर के पैसे पहुँचाये हैं, तब ही तो लोन या कर्ज सैंक्शन हुआ है। फिर इस गरीब को तोड़-तोड़ कर पैसे दिये गये। इसी कारण यह माकुल मेहनत नहीं कर पाया या मेहनत की आदत ही छुट गई। इसी दौरान बीमारी या परेशानी से भी दो चार होना पड़ा होगा, निश्चित है।
हर तरीके से देखने और समझने के बाद दोषी बिजली विभाग, बैंक, सोसाईटी ही नजर आती है। इस गरीब ने स्कूल से लेकर घर तक, हर बड़े के हर अत्याचार सहे हंै। समय पर बिजली न होना, अपने-आप में एक बड़ा दोष है। जब आपने बिजली दी है, तो बिजली का कट, अनजाना या लम्बा कट क्यों लगा है? बच्चे और नारियांे के लिये रोशनी के लायक भी बिजली दी? जाहिर है नहीं दी।. सरकारी प्राणी सक्षम हैं। वह पगार लेकर भी अपनी ड्यूटी में अनियमितता जानकर करता है, तो वह दोष अक्षम्य आपराध हो जाता है।
यह किसान या गरीब सीधा है लेकिन इसने अपने बच्चों से हस्ताक्षर कराकर या प्रधान से कहकर शिकायत कर दी होती, तो पाँच-पाँच लाख रुपये जुर्माना और सजा निश्चित ही थी। निश्चित ही यह दया का पात्र है और इसकी कोई गलती ऐसी है ही नहीं, जो इसे दोषी करार दिया जा सके, गरीबी पेंशन बाँधी गई लेकिन हर माह नहीं मिली। यह पेंशन भी इसके हिसाब से ज्यादा पैसे देकर, बाँधी गई थी। क्या बिजली विभाग, बैंक, सोसाईटी वालों की पगार दो दिन भी रूकती है? इस गरीब का थोड़ा सा पैसा छः माह बाद क्यों? प्रधान और सेक्रेटरी ने ध्यान दिया, क्यों नहीं दिया? यह उनका बड़ा दोष है। पेंशन का मतलब ही, हर माह है। हर माह डीपो से राशन लेना पड़ता है।
रोजमर्रा की चीजें छः माह में नहीं ली जा सकती। कानून और मानवता की दृष्टि से इस गरीब के अलावा खासतौर से सरकार से पगार लेने वाले, कठोर सजा के निश्चित हकदार है, जिसमें खासतौर से प्रधान और नेता, सेक्रेटरी भी शामिल है, एक बार सजा होने के बाद, ऐसी कोई गलती होगी ही नहीं वरना, दोषी और दोषी के संरक्षक या नोमिनी को भी जुर्माना अदा करना पड़ेगा और हर जगह सरकारी नौकरी से वंचित किया जा सकता है या दोनों सजा, एक साथ दी जा सकती है।
इस गरीब सीधे इंसान का सब लोन या कर्ज, बिजली का बिल माफ किया जाये या दोषी व्यक्ति से लिया जाये इसके अलावा हर घर में 15 वाट बिजली, बच्चों और नारी के लिये रोशनी के लिये दी जाये जिसका ट्रिप कभी न लगे।
हर गरीब को सूचित किया जाए कि बिजली रोशनी के लिये है। गलती पाये जाने पर मोटा जुर्माना या सजा भुगतनी पड़ेगी। बिजली विभाग को वार्निंग (चेतावनी) दी जाती है कि चाहे अलग जेनरेटर लगाये या अलग सप्लाई दे, देश का भविष्य बच्चे और देश की इज्जत नारी के लिये केवल 15 वाट रोशनी के लिये फ्री बिजली दी जाये तो पूरे गाँव में निश्चित 15 किलोवाट में काम चल जायेगा। पेड़-पौधों को पालने से पहले, बच्चों पर ध्यान दिया जाये। बच्चे सब का भविष्य हैं।
. विशेष जागरूकता: संसार के सारे गरीब किसान आदि काल से, आप और हम संसार के हर देश के गाँव में रह रहे हैं। शहर तो शुरू में थे ही नहीं, थे भी तो शहर में केवल किसान की ही संख्या ज्यादा थी। गिने-चुने ही अमीर या शहरी थे। शुरू में शहरी ने या अमीर ने भी या मुखिया ने, राजा ने भी हल न चलाया हो या खेत में काम न किया हो, नामुमकिन है, सबूत है इतिहास गवाह है, बुद्धि से सोचिए, सच्चाई जानिए, आज भी बड़े से बड़ा, यही कहेगा जैसे राजा जनक ने त्रेतायुग में राजा होते हुए भी खेत में हल चलाया था। कलियुग के शुरू में राजा हरिश्चन्द्र जब गरीब हो गया था, तो मेहनत भी की, मुर्दे तक फूँके। किसान और गरीब व सारे गैर सरकारी आदि-काल से सीधे-सादे, भोले-भाले, गरीब, मजबूर, बेवकुफ, बेचारा, गँवार, भिखारी हैं, यह कुछ नहीं जानता, कहलाते आ रहे हैं और सच्चाई में, न खाने पर ध्यान था, न कपड़ों पर, लेकिन सबके लिए दिल में जगह है और सबके लिए सब कुछ किया है। यही नहीं जब तक सृष्टि रहेगी तब तक करता ही रहेगा।
जानवरों की तरह जीव-जन्तुओं की तरह हमारे बच्चे, हमारे बड़े करते आये हैं और करते रहेंगे। खाने में चाहे सूखी रोटी हो, वह भी इंसान में तो क्या जानवरों जीव-जन्तुओं तक में बाँटी है। व्रत, रोजे रख के देवी-देवता, पीर-पैबम्बर में बाँटी है। बाँटने वाला गरीब या किसान ही है, अमीर या शहरी, सरकारी प्राणी या नौकर, नेता भी बना है। तो वह भी हमारी औलाद ही है और हमारा खून पीकर ही पला है, बड़ा हुआ है। नेता या हर 60 साल वाले की नस्ल तक हमारे से ही बनी है और सब हमारे (गरीब या किसान) से ही पल रहे हैं।
गरीब या किसान ने चोरी, डकैती या भीख भी माँॅगी है, तो सब अमीर, सरकारी प्राणी के लिए, अत्याचार भी हम पर हुए हैं, बहू बेटियाँ, पत्नी बच्चों पर भी अत्याचार हुए हैं। हमने देशद्रोही, उग्रवादी की सजा भी भुगती है, सूली और फाँसी पर भी लटकाया गया है।
आज भी सारे संसार के सरकारी प्राणी, सारे नेता किसी को कुछ नहीं दे रहे हैं। अगर किसी को कुछ देते भी हैं, तो वह सब भी बेहद थोड़ा है और हमारे (गरीब किसान), द्वारा ही इकट्ठा किया हुआ है। जैसे खर्च करते हैं 50/-रुपये, तो दिन कम से कम 500 रुपये कमाते हैं, वह भी कमिशन या हेरा-फेरी से। इनका नर्सिंग होम में इलाज भी सरकारी खर्चे पर होता है और सरकारी पैसा सब टैक्स में, हमारी (गरीब या किसान) मजबूरों से इकट्ठा किया हुआ हमारा ही धन है, जो चाहे कचहरी से, खाद से, बीज से ही इकट्ठा किया हुआ है।
सारे सरकारी उपक्रम कहलाने वाले जैसे रेल, बस, हवाई जहाज, टी. वी., रेडियो, बाइक, कार, मोटर सब फैक्ट्री तक गरीब या किसान के द्वारा ही चलती व पनपती है। हमारी संख्या, यूनिटी ज्यादा है, बड़ी है। अगर हमें निकाल दिया जाये तो रेल या बस जो सरकारी कहलाती है कितने दिन खाली चलायेगी सरकार?
हम खरीदारी बंद कर दें या मनोरंजन बंद कर दें या शराब, सिगरेट बंद कर दें तो, क्या सरकार कुछ बचा पायेगी। गरीब या किसान, पूजा इबादत, तीर्थ स्थान पर भी अपना पैसा लुटाता है, ध्यान दें लुटाता है। नौकर या नेता तो केवल खर्च करता है, वह भी सरकारी या हमारा पैसा। पुलिस विभाग, आर. टी. ओ. विभाग, कचहरी सब गरीब या किसान की गलती से या भोलेपन से या बेवकुफी के कारण ही चलते हैं या इनकी नौकरी चलती है और नेता तो खुद ही हमारे कारण हमारी बेवकुफी से या साथ देने से ही बनते पनपते हैं।
धरने, सड़कें जाम, जलूस, हड़ताल तक गरीब या किसान के द्वारा ही सम्पन्न होेते हैं। ताजमहल हमारे कारण बनते हैं। सरकारी प्राणी या नेता हमारे (गरीब या किसान) बिना क्या कर पायेगा? डण्डा किस पर चलेगा या झण्डा कौन उठायेगा? पिक्चर हाॅल कौन भरेगा, भीड़ कहाँ होगी?
यह भी सच है कि हमारी यूनिटी कोई बनने नहीं देता। भेड़ बकरियों की तरह हमें (गरीब या किसानों को) एक डण्डे से हाँका जाता है। सच्चाई यही है कि बैंक, महाजन तक गरीब या किसान के कर्ज लेने पर ही चलते हैं। अगर हम जागरूक हो गये, समझदार हो गये, तो आप (बड़े) चाहे कितने बड़े हों, पैसे वाले हों, पावर वाले हों। कितने घंटे या कितने दिन रूक पायेंगे। (गरीब या किसान) हम माटी में पलकर, भूखे रहकर, हर आपदा, हर व्याधा सह कर, हर जुल्म सह कर इतने मजबूत हुए हैं कि सूर्य की गर्मी, बर्फ की ठण्ड भी असर नहीं करती या हम बर्दाश्त कर लेते हैं। लोहा भी इतना बर्दाश्त नहीं कर सकता।
अगर हम (गरीब या किसान) कह दें, काम करो फिर पगार लो। सही है न। सच्चाई है न। कानून भी हमारे साथ होगा, विश्व अदालत भी मानेगी। नेता हो या मंत्री, सजा से नहीं बच सकता। जनता कह सकती है, गलती करने वाले को फांसी नहीं, जेल नहीं करनी है बस उसकी पगार का एक हिस्सा अविलम्ब राजकोष में जमा करो, निश्चित समय में दूसरी गलती पर पांँच गुना बढ़ा कर जमा करो। तीसरी गलती पर दस गुना जुर्माने का बढ़ा कर जमा करे, तो कोई अदालत कोई प्राणी या विश्व अदालत भी काट नहीं सकती और पूरा सहयोग देगी। यही नहीं सरकारी प्राणी और नेता के बच्चे, परिवार वाले तक, जो उनकी अपनी अदालत है, वह भी कहेंगे सही है सजा बिल्कुल जायज है, जुर्माना जमा करो या सीट छोड़ो, नौकरी छोड़ो।
हम सबको सरकारी प्राणी, गैर सरकारी प्राणी, नेता और देश का भविष्य विद्यार्थीगण को जागरूक हो ही जाना चाहिए। हम सब एक-दूसरे से हैं और एक-दूसरे के लिए हैं। हम सबको अच्छाई में और कर्मठता में एक-दूसरे को मजबूत करना है। हर अनियमितता खत्म करनी है। जिससे उग्रवादिता, जो कि कुछ नहीं है नेताओं और सरकारी प्राणी की अनियमितता का सबूत भर है, जड़ से खत्म हो। ध्यान दें हमारे आस-पास कितने उग्रवादी हैं? एक, दस, सौ या हजार। लेकिन इनके बदले में या हमारे सामने बहुत सारे, हमारे सरकारी प्राणी हैं जो ट्रेंड भी हैं, सक्षम भी हैं, परमानेंट हैं, खासतौर लाखों हैं और अगर नेता गु्रप मिला दिया जाये, तो निश्चित ही उग्रवादी का एक-एक बाल हिस्से में नहीं आयेगा।
वैसे यह सच्चाई है उग्रवादी हैं ही नहीं। यह तो नेता (भ्रष्ट नेता) की द्वेष भावना द्वारा, पैदा किया हुए प्राणी है और दोषी विजिलेंस विभाग, खुफिया विभाग, एल. आई. यू., पुलिस विभाग पहले हैं, इसके बाद हर सरकारी नेता है, सारे सरकारी प्राणी हैं, फिर खुद जनता भी है, गरीब या किसान है, हम प्रकृति पर विजय पा रहे हैं, पूजापाठ में रब को खुश कर रहे हैं। सब कुछ छोड़ दो और पहले सरकारी प्राणी को वफादार बनाओ। बाकी सब गुनियाँ में आ जायेंगे। यही नियम है, कानून है, धर्म है, तब तक तो चुनाव पर भी प्रतिबन्ध होना ही चाहिए। लेने के मामले मंे हम क्यों ले, जब से सृष्टि बनी है हम कुछ भी न होने पर भी, खुद हर तरीके से काम चला लेते हैं, अब तक चल ही रहा था, पानी, बिजली, सड़के पहले कहाँ थीं, बल्कि सरकारी प्राणी और नेता हमारे नाम से ही लेते हैं और बदनाम हम होते हैं। ध्यान दें तो समझ में आ जायेगा कि बेहद मोटी लागत से बनी कोई भी योजना का फायदा केवल नेता और नौकर को हो रहा है गैर सरकारी तो मँहगाई से या टैक्स से ही जूझ रहा है। किसान अब दूसरों से अखबार पढ़वाते देखे जाते हैं। थोड़ी हिम्मत और करें, इन्टरनेट पर दूसरों से देश-विदेश तक शिकायत और सुधार करें, नई उम्र के आपका साथ देंगे और वह खुद मजबूत बनेंगे।
कृषि और कृषि विभाग साथ ही किसान पूरी दुनिया में पहले से सर्वोपरि है और जब तक पृथ्वी है सर्वोपरि रहेंगे। इसकी अहमियत सबसे ज्यादा है। संसार के सारे किसान आमंत्रित हैं, अकेले या सब मिलकर, हर अनियमितता का सुधार करें या करायें और सबको अच्छा बना कर, सारा संसार सुनहरा बनाकर, खुद को धन्य करें और सब पर एहसान करंे। हमें कुछ ऐसे नियम बनाने ही चाहिये कि इसकी गरिमा, सरकारी प्राणी व नेता की गरिमा को ठेस भी न लगे। सुधार हो, सुधार बरकरार रहे।

सुधार-सफाई के लिए विचार
01. हर किसान के किसी भी काम में कोई देरी न करे, एक या दो दिन से तो ज्यादा कभी नहीं। अगर ऐसा होता है, तो वह कर्मचारी, उसके मातहत व साथी कर्मचारी और अधिकारी कम से कम अपनी दिहाड़ी, उसी दिन राजकोष में जुर्माने के रूप में अविलम्ब जमा कराये और या इस मजदूर किसान को कम से कम 290/-रुपये प्रतिदिन दिहाड़ी दी जाये। आज कम्प्यूटर के जमाने में यह गरीब इंतजार करें, तो सबकी बेइज्जती है। हम कर्मचारी को काम करने की पगार देते हंै, न की इन्तजार कराने की।
02. इसकी मजबूरी सबसे पहले सुनी और समझी जाये खेत के मामले में कोई भी सामान, बीज, खाद या इन्स्ट्रुुमेंट, कोई भी कर्ज जल्द से जल्द दिया जाये, जिससे उसे इन्तजार न करना पड़े। कागजी काम भी जल्द पूरे हों और रिश्वत पर ध्यान रखा जाये। निश्चित समय में काम न हो, तो उसके बाद ब्याज लगाकर दिया जाये और देर करने वाले से नगद जुर्माना, राजकोष में जमा करवाया जाये।
मिले दौलत, मेहनत की, तो अल्लाह की रहमत है, 
मिले दौलत, हराम की, तो शैतान की लानत है, 
मिले दौलत, अपनों की पीठ में खोप के खंजर, तो लानत है, लानत है, लानत है।
(सब जानते हैं कमीशन या रिश्वत देने पर ही सब काम जल्द होते हैं। बीज या खाद खराब होने पर, दवा या कीटनाशक दवा गलत होने पर, किसान को नुकसान तक का पूरा मुआवजा मिलना ही चाहिये इससे भी पहले जहाँ से बीज, खाद, दवा ली गई है वहाँ के सारे सरकारी प्राणी, नेता सब दोषी करार दिये जायें, क्योंकि यह सब डी. एम., कमिश्नर, ड्रग इंस्पेक्टर के अन्तर्गत में आते हंै। इसके बाद में बीज, खाद, दवा बनाने वाली फर्म पर ध्यान दिया जाये। दूसरा बीज, खाद, दवा की फैैक्ट्री टैक्स देती है। प्रशासन और नेता, जो इसी काम के लिये रखे गये हैं, इनके रहते कोताही कैसे हो गई? यहाँ दुकानदार कम दोषी है, बिजली न होना गुनाह नहीं है। लेकिन हर दिन जाना गुनाह माना जाये। खासतौर से उसकी सूचना पहले ही क्यों नहीं दी गई? उपभोक्ता सीधा और मजबूर है, तो प्रशासन, सेक्रेटरी ने उपर रिपोर्ट क्यों नहीं दी थी? डी. एम. ने एक्शन क्यों नहीं लिया? ध्यान दिया जाये, हमारे पास कर्मचारी और अधिकारी की पूरी चेन से बँधी, हुई यूनिटी है, फिर भी अनियमितता क्यों हो रही है, वह भी लगातार। दोषी व्याक्ति पर केवल जुर्माना किया जाये।
03. गैर सरकारी की गलती भी गलती है, लेकिन सरकारी प्राणी की किसी गलती को नजरअंदाज कभी न किया जाये, क्योंकि पगार लेते हंै। उनकी गलती बलन्डर मिस्टेक मानी जाये (सारा सरकारी विभाग और नेतागण केवल गैर सरकारी को लगातार बाँधते जा रहे हंै और ”सरकारी नियम है“ कहकर अत्याचार कर रहे हंै। सरकारी पगार ले रहे हंै और सरकारी खर्चे पर कर रहे है। काम न करके कह देते हैं, साहब नहीं हैं इसका मतलब साफ है, हमारी दिहाडी दो, साहब नहीं है तो उनका असिस्टंेट काम क्यों नहीं करता? सबका विकल्प है, देर नहीं या हमारी दिहाड़ी दो।)
04. सरकार को चाहिये, हर विभाग को चाहिये, कि हर बार गलती की शिकायत करने के लिये, गैर सरकारी को जागरूक करें और विभाग में कर्मचारी और अधिकारी को बाँधे कि किसी भी अनियमितता की शिकायत अविलम्ब करें। माह में एक बार जरूर करें। शिकायत पाये जाने पर हर सरकारी प्राणी दोषी माना जायेगा, जिसका असर प्रमोशन और पेंशन पर पड़ सकता है, पड़ना ही चाहिये। इन्टरनेट पर शिकायत बच्चों से करायें। हर सुविधा है, थोड़ी सी मेहनत जरूर है, अत्याचार के खिलाफ छोटों को मजबूत भी तो करना है।
05. हर किसान को, उसके परिवार को जागरूक होना ही चाहिये खुद्दार होना ही चाहिये अपने और अपने भाईयों के प्रति सहायता भावना होनी ही चाहिये आप जागरूक नहीं होंगे, तो गधे पंजीरी खायेंगे ही। गलती की शिकायत करने की, सुधार करने की आदत डालें, हराम का न खायें न खाने दें, गाँव स्वर्ग है, इसे स्वर्ग बना कर रखें। शिकायत पर अमल नहीं होता ऐसा न समझें, झिझकें तो बिल्कुल नहीं। ”नीचे से उपर तक गलत है“ यह सोच गलत है, उसे बदलने की कोशिश कीजिये, या सुधार कराईये। शिकायत लिखकर 5/-रुपये के डाक टिकट या लिफाफे के साथ हम तक पहुँचाये, बस 3 प्राणीयों के वोटर/आधार नम्बर के साथ हस्ताक्षर जरूर कराइये। आप चाहंेगे तो शिकायत गुप्त रखी जायेगी। आप देश ही नहीं सबके अन्नदाता हैं, मेहनती हैं, फिर न गलत आप करते हैं, न सहते हैं। अपना नियम बनाईये और अमल कीजिये। यह बात अमल में लाइये, कि सरकारी प्राणी और नेता से सही काम लेना है। गाँव आपका है, शहर आपका है, देश आपका है। लगभग हर छोटा-बड़ा गलती करके या गलती करने के लिए या गलत सोच, कम समझ कह देते हैं, चलते पानी में हाथ धो लेने में कोई बुराई नहीं हैं या बहाव में बहना ही समझदारी है। अरे। निःबुद्धि (प्राणी, कहीं गंदे पानी में कोई, हाथ धोता हैं? परम्............। हाथ साफ करना है, कोई गद्दारी कर रहा है, वह हाथ नहीं धो रहा है, बल्कि हाथ गंदे कर रहा है, वह खुद भी मरेगा और सबमंे पोल्यूशन भी जरूर फैलायेगा, उसे बचायें। दूसरा बहाव में बह कर जान बचाना धर्म है और जान इसलिए बचायी जाती हैं कि बाद में बदला ले सकें, अपनों को और गलती करने वाले तक को सुधार कर बचाओं, न कि खुद भी गद्दार बन के, बड़ों का, देश का नाम डुबा दो। जहाँ आपके बड़े पले, आने वाला वंश पलेगा, इसे स्वच्छ और साफ बनाईये। कोशिश तो कीजिये। हर शुभ काम करने से पहले सफाई-सुधार बेहद जरूरी है, वरना हर शुभ काम बेहद गलत फलदायी होते है, नुकसानदायक होते हैं, प्रत्यक्ष है।
06. हर अधिकारी और हर नेता को चाहिये कि वह हर एक को इजाजत दे कि आप कर्मठता को बढाइये। इसके लिये आपको रिश्वत देनी पड़े तो 1/-की जगह 10/-दीजिये और काम निकलने के बाद आप उस अधिकारी या कर्मचारी से या नेता से उसका 100 गुना वसूल करें। बस रिश्वत देने से पहले, अपने पास शिकायत पत्र पर, तीन गवाह वोटर/आधार नम्बर के साथ, हस्ताक्षर के साथ जरूर रखें। जिससे वक्त जरूरत काम आ सके। लेकिन यह पत्र सच्चा हो। आपकोे वसूल करने में चाहे दो साल लगें। आप कोई भी हैं। पगार लेने वाला रिश्वत लेता है, तो आप अपने बाप का या बच्चों का पैसा मजबूरी में दे दीजिये, लेकिन बाद में उसे वसूल कीजिये। आप अच्छी औलाद हंै। सच्चे देशवासी हंै। आप महान देश के महान नागरिक हैं। कोई गद्दारी करें और बचा रहें, नामुमकिन होना ही चाहिए। रिश्वत लेना और देना निश्चित रूप से कानूनी अपराध है। यह सरकारी प्राणी और नेता क्यों नहीं समझता? क्या ड्यूटी में कोताही करना, कानूनी अपराध नहीं है? मीडिया, विजीलेंस, खुफिया विभाग, हर अधिकारी हर कानूनी अपराध कर रहा है। केवल हर अनियमितता देखकर, आँखे बन्द किये बैठा है। आप बिल्कुल अपराध नहीं कर रहे हैं, क्योंकि पहले लिखकर रख दिया है आप उससे बाद में निश्चित वसूल करंेगे, इसलिये दे भी रहे हैं। इसके मातहत, इसके साथी, इसके अधिकारी ने, इसे पहले क्यों नहीं देखा या समझा, जिनकी ड्यूटी थी। इसलिये मजबूर को कैसे भी जान बचाने का, काम चलाने का कानूनी हक है और फिर यह अपनी गलती करते ही पैसे वसूल करते ही रिश्वत लेने वाला, पैसा वसूल करके, तुम्हारे अपना निश्चित अपना और अपनों का भी सुधार करेगा। लेकिन आप भी अपने रिश्तेदार को, सरकारी प्राणी है या नेता है या आगे बनने वाला है, सलाह दें। बेटा खूब काम कर, हर एक का जल्द से जल्द काम कर, लेकिन रिश्वत मत लेना। वरना मेरे जैसा कोई तेरे से 100 गुना वसूल जरूर करेगा वैसे भी भगवान, अल्लाह, वाहेगुरू और गाॅड तुझे गलती की सजा जरूर देगा। आप सीधे जरूर हैं, सीधे बने रहिये लेकिन नामर्द नहीं हैं। साबित करके रहिये।
07. हर कृषि विभाग पर शिकायत बाॅक्स और शिकायत रजिस्ट्रर रखा जाये वहीं बोर्ड पर हर माह शिकायत संख्या लिखी जाये। हर माह शिकायत बाॅक्स को खोलते समय, कम से कम तीन मजबूर गैर सरकारी या ज्यादा शिकायत करने वाला मौजूद होना चाहिये। ”घर का सुधार = गलती पर अविलम्ब सजा और मेहनती को प्रोत्साहन“ पर अमल किया जाये।

No comments:

Post a Comment