धर्म ज्ञान का प्रारम्भ
01. वैदिक धर्म-ऋषि-मुनि गण-ईसापूर्व 6000-2500
सनातन धर्म
भारतवर्ष के प्राचीन ऋषियों ने ”हिन्दुस्थान“ नाम दिया था जिसका अपभ्रंश ”हिन्दुस्तान“ है। हिमालय से प्रारम्भ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाया। ”हिन्दू“ शब्द ”सिन्धु“ से बना माना जाता है। संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं। पहला, सिन्घु नदी जो मानसरोवर के पास से निकलकर लद्दाख और पाकिस्तान से बढ़ती हुई समुद्र में मिलती हैै। दूसरा, कोई समुद्र या जलराशि। ऋग्वेद में कई बार सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है-वो भूमि जहाँ आर्य सबसे पहले बसे थे। ऋग्वेद की नदीस्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ थी- सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि (सतलज), विपाशा (व्यास), परूषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)। एक अन्य विचार के अनुसार हिमालय के प्रथम अक्षर ”हि“ एवं इन्दु का अन्तिम अक्षर ”न्दु“, इन दोनों अक्षरों को मिलाकर शब्द बना ”हिन्दु“ और यह भूभाग हिन्दुस्थान कहलाया। हिन्दु शब्द उस समय धर्म के बजाय राष्ट्रीयता के रूप में प्रयुक्त होता था। चूँकि उस समय भारत में केवल वैदिक धर्म को ही मानने वाले लोग थे, बल्कि तब तक अन्य किसी धर्म का उदय नहीं हुआ था इसलिए ”हिन्दू“ शब्द भारतीयों के लिए प्रयुक्त होता था। भारत केवल वैदिक धर्मावलम्बियों (हिन्दुओं) के बसने के कारण कालान्तर में विदेशियों ने इस शब्द को धर्म के सन्दर्भ में प्रयोग करना शुरू कर दिया। आम तौर पर हिन्दू शब्द को अनेक विश्लेषकों द्वारा विदेशियों द्वारा दिया गया शब्द माना जाता है। इस धारणा के अनुसार हिन्दू एक फारसी शब्द है। हिन्दू धर्म को सनातन धर्म या वैदिक धर्म भी कहा जाता है। भाषाविदों के अनुसार हिन्द आर्य भाषाओं की ”स्“ ध्वनि (संस्कृत का व्यजंन ”स्“) ईरानी भाषाओं की ”ह्“ ध्वनि में बदल जाती है। इसलिए सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्म भाषा) में जाकर हफ्त हिन्दू में परिवर्तित हो गया (अवेस्ताःवेन्दीदाद, फर्गर्द 1,18)। इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिन्दू नाम दिया। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए, तो उन्होंने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया। इन दोनों सिद्धान्तों से पहले वाले प्राचीन काल में नामकरण को इस आधार पर सही माना जा सकता है कि ”बृहस्पति आगम“ सहित अन्य आगम ईरानी या अरबी सभ्यताओं से बहुत प्राचीन काल में लिखे जा चुके थे। अतः उसमें ”हिन्दुस्थान“ का उल्लेख होने से स्पष्ट है कि हिन्दू (या हिन्दुस्थान) नाम प्राचीन ऋषियों द्वारा दिया गया था न कि अरबी/ईरानियों द्वारा। यह नाम बाद में अरबी/ईरानियों द्वारा प्रयुक्त होने लगा। भारत के अपने साहित्य में हिन्दू शब्द कोई 1000 वर्ष पूर्व मिलता है।
सनातन धर्म वेद काल में भारत के धर्म के लिए नाम मिलता है। सनातन का अर्थ- हमेशा, शाश्वत अर्थात जिसका न आदि है न अन्त। सनातन धर्म मूलतः भारतीय धर्म है जो किसी जमाने में पूरे वृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है। विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के बाद भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक आबादी इसी धर्म में आस्था रखती है। प्राचीन काल में भारतीय सनातन धर्म में वैष्णव, शैव और शाक्त नाम के तीन सम्प्रदाय होते थे। वैष्णव विष्णु की, शैव शिव की और शाक्त शक्ति की पूजा अराधना किया करते थे। पर यह मान्यता थी कि सब एक ही सत्य की व्याख्या हैं। यह न केवल ऋग्वेद परन्तु रामायण और महाभारत जैसे लोकप्रिय ग्रन्थों में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है। प्रत्येक सम्प्रदाय के समर्थक अपने देवता को दूसरे सम्प्रदाय के देवता से बड़ा समझते थे और इस कारण से उनमें वैमनस्य बना रहता था। एकता बनाये रखने के उद्देश्य से धर्मगुरूओं ने लोगों को यह शिक्षा देना आरम्भ किया कि सभी देवता समान है। विष्णु, शिव और शक्ति आदि देवी-देवता परस्पर एक-दूसरे के भी भक्त हैं। उनकी इन शिक्षाओं से तीनों सम्प्रदायों में मेल हुआ और सनातन धर्म की उतपत्ति हुई। सनातन धर्म का सारा साहित्य वेद, पुराण, श्रुति, स्मृतियाँ, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि संस्कृत भाषा में रचा गया है। कालान्तर में भारतवर्ष में मुसलमान शासन हो जाने के कारण देवभाषा संस्कृत का ह्रास हो गया तथा सनातन धर्म की अवनति होने लगी। इस स्थिति को सुधारने के लिए विद्वान संत तुलसीदास ने प्रचलित भाषा में धार्मिक साहित्य की रचना करके सनातन धर्म की रक्षा की। जब औपनिवेशिक ब्रिटीश शासन को ईसाई, मुस्लिम आदि धर्मो के मानने वालों का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए जनगणना करने की आवश्यकता पड़ी तो सनातन शब्द से अपरिचित होने के कारण उन्होंने यहाँ के धर्म का नाम सनातन धर्म के स्थान पर हिन्दू धर्म रख दिया।
सनातन धर्म की गुत्थियों को देखते हुए इसे प्रायः कठिन और समझने में मुश्किल धर्म समझा जाता है। जबकि सच्चाई ऐसी नहीं है, फिर भी इसके इतने आयाम, इतने पहलू हैं कि लोग इसे लेकर भ्रमित हो जाते हैं। सबसे बड़ा कारण इसका यह है कि सनातन धर्म किसी एक दार्शनिक, मनीषा या ऋषि के विचारों की उपज नहीं है। न ही यह किसी खास समय पैदा हुआ, यह तो अनादिकाल से प्रवाहमान और विकासमान रहा। साथ ही यह केवल एक द्रष्टा, सिद्धान्त या तर्क को भी वरीयता नहीं देता। कोई एक विचार ही सर्वश्रेष्ठ है, यह सनातन धर्म नहीं मानता। इसी वजह से इसमें कई सारे दार्शनिक सिद्धान्त मिलते हैं। इसके खुलेपन की वजह से ही कई अलग-अलग नियम इस धर्म में हैं। इसकी यह नरमाई ही इसके पतन का कारण रही है और यही विशेषता इसे अधिक ग्राह्य और सूक्ष्म बनाती है। इसका मतलब यह है कि अधिक सरल दिमाग वाले इसे समझनें में भूल कर सकते हैं। अधिक सूक्ष्म होने के साथ ही सनातन धर्म को समझने के कई चरण और प्रक्रियायें हैं जो इस सूक्ष्म सिद्धान्त से पैदा होती हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सरल-सहज मस्तिष्क वाले इसे समझ ही नहीं सकते। पूरी गहराई में जानने के लिए भले ही हमें गहन और गतिशील समझदारी विकसित करनी पड़े लेकिन सामान्य लोगों के लिए भी इसके सरल और सहज सिद्धान्त हैं। सनातन धर्म कई बार भ्रमित करने वाला लगता है और इसके कई कारण हैं। अगर बिना इसके गहन अध्ययन के आप इसका विश्लेषण करना चाहेंगे तो कभी समझ नहीं पायेगें। इसका कारण यह कि सनातन धर्म सीमित आयामों या पहलुओं वाला धर्म नहीं है। यह सचमुच ज्ञान का समुद्र है। सनातन धर्म के विविध आयामों को नहीं जान पाने की वजह से ही कई लोगों को लगता है कि सनातन धर्म के विविध मार्गदर्शक ग्रन्थों में विरोधाभास है। इस विरोधाभास का जबाब इसी से दिया जा सकता है। केवल सनातन धर्म में नहीं, कई बार तो विज्ञान में भी ऐसी बात आती है। जैसे विज्ञान हमें बताता है कि शून्य तापमान पर पानी बर्फ बन जाता है। वहीं विज्ञान हमें यह भी बताता है कि पानी शून्य डिग्री से भी कम तापमान पर भी कुछ खास स्थितियों में अपने मूल स्वरूप में रह सकता है। इसका जो जबाब है वही सनातन धर्म के सन्दर्भ में भी है। विज्ञान के लिए ये दोनों तथ्य सही हैं, भले ही वह आपस में विरोधाभासी है। यही सनातन धर्म के सम्बन्ध में भी है।
किसी एक सत्य के भी कई सारे पहलू हो सकते हैं। कुछ ग्रन्थ कह सकते हैं कि ज्ञान ही परम तत्व तक पहुँचने का रास्ता है। कुछ ग्रन्थ कह सकते हैं कि भक्ति ही उस परमात्मा तक पहुँचने का रास्ता है। सनातन धर्म में हर उस सत्य या तथ्य को जगह मिली है जिनमें तनिक भी मूल्य और महत्व हो। इससे भ्रमित होने की जरूरत नहीं है। आप उसी रास्ते को अपनाएं जो आपके लिए सही और सहज हो। सनातन धर्म यह नहीं मानता कि अगर एक रास्ता आपके लिए सही है तो दूसरे सब रास्ते या तथ्य गलत हैं। सनातन धर्म का ज्ञान जिस तरह किसी बंधन में नहीं बंधा है, उसी तरह सनातन धर्म खुद को किसी देश, भाषा या नस्ल के बंधन में नहीं बांधता। विज्ञान जिस तरह बिना ज्ञान के अधूरा है। सनातन धर्म भी बिना ज्ञान के हानिकारक है। ज्ञान मनुष्य के आसपास होता है। उसके भीतर होता है। सनातन धर्म अपने आप में सम्पूर्ण सत्य धर्म है।
सनातन धर्म का बहुत ही पुराना ब्रह्माण्डीय इतिहास है। सृष्टि के आरम्भ में सनातन और हमारे जीवन को कुछ सिद्धान्तों में बाँधने के लिए वेदों, पुराणों और शास्त्रों की रचना हुई जिनके रचयिता भगवान ही थे। वेद भगवान के ही रूप रहे। महाभारत के इतिहास से जानकारी प्राप्त हुई कि वेद को प्रभु और भगवान गणेश जी लिखते रहे। अज्ञानी लोगों का जीवन विषय चिन्तन और विद्वानों का शास्त्रावलोकन में बीत जाता है। अपने अपने सिद्धान्तो की पुष्टि करने वाले अनेकों अद्भुत शास्त्र हैं। वेदान्त को सात्विक, मींमांसा को राजस और न्याय को तामस शास्त्र कहा जाता है। मनुष्य, देवता, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व और किन्नर सबके सब जिन कर्मो के फल द्वारा अपना उद्धार कर सकते हैं इन्हीं पवित्र पुस्तको में विस्तारपूर्वक लिखा गया है। जिन जीवों का धर्म में अनुराग था उन्हें सतयुग में जन्म मिला। धर्म और अर्थ के अनुरागी को त्रेता में, धर्म-अर्थ-काम के प्रेमी द्वापर में और अर्थ-काम के प्रेमी इस कलियुग में पैदा हुए। प्राचीन युगों में जो राक्षस प्राणी रहे होगें वह कलियुग के ब्राह्मण माने जाते हैं क्योंकि प्रायः पाखण्डी, दूसरों को ठगना, झूठ बोलना तथा वैदिक धर्म-कर्म से अलग रहना, शूद्रों की सेवा में तत्पर रहना, दम्भ करना, अभिमान में चूर रहना आज के कलयुगी ब्राह्मणों का स्वाभाविक गुण है। यही ब्राह्मण वेदों के निन्दक हो चुके हैं। वे धर्म का खुद पालन नहीं करते जिनको हमारे वेद-शास्त्रों ने भूमि का देवता माना है।
हिन्दू धर्म
हिन्दू धर्म (संस्कृतः सनातन धर्म) विश्व के सभी बड़े धर्मो में सबसे पुराना व दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। ये वेदों पर आधारित धर्म है जो अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए है। इसके ज्यादातर उपासक भारत में हैं और विश्व का सबसे ज्यादा हिन्दुओं का प्रतिशत नेपाल में है। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है लेकिन असल में ये एकेश्वरवादी धर्म है। हिन्दी में इस धर्म को सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते है। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम ”हिन्दू आगम“ है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है। जो अपने मन, वचन और कर्म से हिंसा से दूर रहे वह हिन्दू है और जो कर्म अपने हितों के लिए दूसरों को कष्ट दे वह हिंसा है।
हिन्दू धर्म का इतिहास अति प्राचीन है। भारत (और आधुनिक पाकिस्तान क्षेत्र) की सिन्धु घाटी सभ्यता में हिन्दू धर्म के कई चिन्ह मिलते हैं। इनमें एक अज्ञात मातृदेवी की मूर्तियाँ, शिव, पशुपति जैसे देवता की मुद्राएँ, लिंग, पीपल की पूजा इत्यादि प्रमुख हैं। इतिहासकारों के एक दृष्टि के अनुसार इस सभ्यता के अन्त के दौरान मध्य एशिया से एक अन्य जाति का आगमन हुआ, जो स्वयं को आर्य कहते थे, और संस्कृत नाम की एक हिन्द यूरोपीय भाषा बोलते थे। एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग ही आर्य थे और उनका मूलस्थान भारत ही था। आर्यो की सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहते हैं। पहले दृष्टिकोण के अनुसार लगभग 1700 ईसापूर्व में आर्य अफगानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में बस गये। तभी से वो लोग (उनके विद्वान ऋषि) अपने देवता को प्रसन्न करने के लिए वैदिक संस्कृत मंत्र रचने लगे। पहले चार वेद रचे गये। जिनमें ऋग्वेद प्रथम था। उसके बाद उपनिषद् जैसे ग्रन्थ आये। हिन्दू मान्यता के अनुसार वेद, उपनिषद् आदि ग्रन्थ अनादि-नित्य हैं। ईश्वर की कृपा से अलग-अलग मन्त्र दृष्टा ऋषियों को अलग-अलग ग्रन्थों का ज्ञान प्राप्त हुआ। जिन्होंने फिर उन्हें लिपिबद्ध किया। बौद्ध और अन्य धर्मो के अलग हो जाने के बाद वैदिक धर्म में काफी परिवर्तन आया। नये देवता और नये दर्शन उभरे। इस प्रकार आधुनिक हिन्दू धर्म का जन्म हुआ। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार हिन्दू धर्म का मूल कदाचित् सिन्धु सरस्वती परम्परा, जिसका स्रोत मेहरगढ़ की 6500 ईसापूर्व संस्कृति में मिलता है, से भी पहले की भारतीय परम्परा में है।
हिन्दू धर्म में कोई एक अकेले सिद्धान्तों का समूह नहीं है जिसे सभी हिन्दुओं को मानना जरूरी है। ये तो धर्म से ज्सादा एक जीवन का मार्ग है। हिन्दुओं का कोई केन्द्रीय चर्च या धर्मसंगठन नहीं है और न ही कोई ”पोप“ (धर्म गुरू)। इसके अन्तर्गत कई मत और सम्प्रदाय आते हैं और सभी को बराबर श्रद्धा दी जाती है। फिर भी वो मुख्य सिद्धान्त जो ज्यादातर हिन्दू मानते हैं वे हैं- धर्म (वैश्विक कानून), कर्म (और उसके फल), पुनर्जन्म का सांसारिक चक्र, मोक्ष (सांसारिक बन्धनों से मुक्ति जिसके कई रास्ते हो सकते हैं) और बेशक ईश्वर। हिन्दू धर्म स्वर्ग और नरक को अस्थायी मानता है। हिन्दू धर्म के अनुसार संसार के सभी प्राणियों में आत्मा होती है। मानव जन्म में अपनी आजादी से किये गये कर्मो के अनुसार आत्मा अगला शरीर धारण करती है। अच्छे कर्म करने पर आत्मा कुछ समय के लिए स्वर्ग जा सकती है या कोई गन्धर्व बन सकती है अथवा नव योनि में अच्छे कुलीन घर में जन्म ले सकती है। बुरे कर्म करने पर आत्मा को कुछ समय के लिए नरक जाना पड़ता है जिसके बाद आत्मा निकृष्ट पशु-पक्षी योनि में जन्म लेती है। जन्म-मरण का सांसारिक चक्र तभी खत्म होता है जब व्यक्ति को मोक्ष मिलता है। उसके बाद आत्मा अपने वास्तविक सत्-चित्-आनन्द स्वभाव को सदा के लिए पा लेती है। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो इस लोक में पाप और पुण्य, दोनों कर्म भोग सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। हिन्दू धर्म में मुख्य चार सम्प्रदाय हैं- वैष्णव (जो विष्णु को परमेश्वर मानते हैं), शैव (जो शिव को परमेश्वर मानते हैं), शाक्त (जो देवी को परमशक्ति मानते हैं) और स्मार्त (जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं)। लेकिन ज्यादातर हिन्दू स्वयं को किसी भी सम्प्रदाय में वगीकृत नहीं करते हैं।
प्राचीन काल में आर्य लोग मन्त्रों और अग्नि-यज्ञ से कई देवताओं की पूजा करते थे। आर्य देवताओं की कोई मूर्ति या मन्दिर नहीं बनाते थे। प्रमुख आर्य देवता देवराज इन्द्र, अग्नि, सोम और वरूण थे। उनके लिए वैदिक मन्त्र पढ़े जाते थे और अग्नि में घी, दूध, दही, जौ इत्यादि की आहूति दी जाती थी। प्राचीन वैदिक काल में मन्दिर नहीं होते थे, तब उपासना अग्नि के स्थान पर होती थी। जिसमें एक सोने की मूर्ति ईश्वर के प्रतीक के रूप में स्थापित की जाती थी। प्रजापिता ब्रह्मा, विष्णु और शिव का उस समय कम ही उल्लेख मिलता है। ज्यादातर हिन्दू भगवान की मूर्तियों द्वारा पूजा करते हैं। उनके लिए मूर्ति एक आसान सा साधन है जिसमें कि एक ही निराकार ईश्वर को किसी भी मनचाहे सुन्दर रूप में देखा जा सकता है। हिन्दू लोग वास्तव में पत्थर और लोहे की पूजा नहीं करते, जैसा कि कुछ लोग समझते हैं। मूर्तियाँ हिन्दुओं के लिए ईश्वर भक्ति का एक साधन है। इतिहासकारों का मानना है कि हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजा गौतम बुद्ध के समय प्रारम्भ हुई। हिन्दू धर्म में किसी भी वस्तु की पूजा की जा सकती है। हिन्दू उपासना स्थलों को मन्दिर कहते हैं। हर मन्दिर में एक या अधिक देवताओं की उपासना होती है। गर्भगृह में इष्टदेव की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है। मन्दिर प्राचीन और मध्ययुगीन भारतीय कला के श्रेष्ठतम प्रतीक हैं। कई मन्दिरों में हर वर्ष लाखों तीर्थयात्री आते हैं। अधिकांश हिन्दू चार शंकराचार्यों को जो ज्योतिर्मठ, द्वारिका, श्रृंगेरी और पुरी के मठों के आचार्य होते हैं, हिन्दू धर्म के सर्वोच्च धर्मगुरू मानते हैं। किसी भी हिन्दू का शाकाहार होना जरूरी नहीं है लेकिन शाकाहार अच्छा माना जाता है। वैदिक काल में केवल यज्ञ में मारे गये पशुओं का मांस खाने की अनुमति थी क्योंकि उनका मांस मन्त्रों द्वारा शुद्ध होता था और उसे मांस नहीं ”हवि“ कहा जाता था। गाय को हिन्दू धर्म में माता समान माना गया है। कुछ हिन्दू मन्दिरों में पशुबलि चढ़ती है परन्तु आजकल यह प्रथा हिन्दुओं द्वारा ही निन्दित किये जाने से समाप्तप्राय है। प्राचीन हिन्दू व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था और जाति का विशेष महत्व था। चार प्रमुख जातियाँ थी- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। पहले यह व्यवस्था कर्म प्रधान थीं। अगर कोई व्यक्ति सेना में काम करता तो वह क्षत्रिय हो जाता था चाहे उसका जन्म किसी भी जाति में हुआ हो। वैष्णव धर्मावलम्बी और अधिकतर हिन्दू भगवान विष्णु के 10 अवतार मानते हैं-मत्स्य, कूर्म, वराह, वामन, नृसिंह, परशुराम, राम, कृश्ण, बुद्ध और कल्कि।
हिन्दू धर्मग्रन्थ उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म ही परम तत्व है। इस ब्रह्म को त्रिमूर्ति के देवता ब्रह्मा के सम्बन्ध में न समझें। यह ब्रह्म ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है, विश्व का आधार है। उसी से विश्व की उत्पत्ति होती है और विश्व नष्ट होने पर उसी में विलीन हो जाता है। ब्रह्म, एक और सिर्फ एक ही है। वो विश्वव्यापी है और विश्व के परे भी। वही परम सत्य, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। वो कालातीत, नित्य और शाश्वत है। वही परम ज्ञान है। ब्रह्म के दो रूप हैं- परब्रह्म और अपरब्रह्म। परब्रह्म असीम, अनन्त और रूप-शरीर विहीन है। वो सभी गुणों से भी परे है पर उसमें अनन्त सत्य, अनन्त चित् और अनन्त आनन्द है। ब्रह्म की पूजा नहीं की जाती है क्योंकि वो पूजा से परे और अनिर्वचनीय है। उसका ध्यान किया जाता है। ऊँ (ओम्), ब्रह्म वाक्य है जिसे सभी हिन्दू परम पवित्र शब्द मानते हैं। मानते हैं कि ओम की ध्वनि पूरे ब्रह्मानन्द में गूँज रही है। ध्यान में गहरे उतरने पर यह सुनाई देता है। ब्रह्म की परिकल्पना वेदान्त दर्शन को केन्द्रीय स्तम्भ है और हिन्दू धर्म की विश्व को अनुपम देन है। हिन्दू दर्शनों में ब्रह्म और ईश्वर के सम्बन्ध में अलग-अलग सोच है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार- जब मानव ब्रह्म को अपने मन से जानने की कोशिश करता है तब ब्रह्म, ईश्वर हो जाता है क्योंकि मानव, माया नाम की एक जादुई शक्ति के वश में रहता है। अर्थात जब माया के आइने में ब्रह्म की छाया पड़ती है तो ब्रह्म का प्रतिबिम्ब हमें ईश्वर के रूप में दिखाई देता है। ईश्वर अपनी इसी जादुई शक्ति ”माया“ से विश्व की सृष्टि करता है और उस पर शासन करता है। हालाँकि ईश्वर एक नकारात्मक शक्ति के साथ है लेकिन माया उस पर अपना कुप्रभाव नहीं डाल पाती है। जैसे एक जादूगर अपने ही जादू से अचम्भित नहीं होता है। माया ईश्वर की दासी है परन्तु हम जीवों की स्वामिनी है। वैसे तो ईश्वर रूपहीन है, पर माया की वजह से हमें कई देवताओं के रूप में प्रतीत हो सकता है। इसके विपरीत वैष्णव मतों और दर्शनों में माना जाता है कि ईश्वर और ब्रह्म में कोई अन्तर नहीं है और विष्णु या कृष्ण ही ईश्वर हैं। न्याय, वैशेषिक और योग दर्शनों के अनुसार ईश्वर एक परम और सर्वोच्च आत्मा है जो चैतन्य से युक्त है और विश्व का सृष्टा और शासक है। जो भी हो शेष सभी बातें सभी हिन्दू मानते हैं। ईश्वर एक और केवल एक है, वो विश्वव्यापी और विश्वातीत दोनों हैं। बेशक, ईश्वर सगुण है। वो स्वयंभू और विश्व का कारण सृष्टा है। वो पूजा और उपासना का विषय है। वो पूर्ण, अनन्त, सनातन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। वो राग-द्वेष से परे है, अपने भक्तों से प्रेम करता है और उनपर कृपा करता है। उसकी इच्छा के बिना इस दुनिया में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। वो विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है और जीवों को उनके कर्मो के अनुसार सुख-दुःख प्रदान करता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार विश्व में नैतिक पतन होने पर वो समय-समय पर धरती पर अवतार रूप ले कर आता है। ईश्वर के अन्य नाम परमेश्वर, परमात्मा, विधाता, भगवान हैं। इसी ईश्वर को मुसलमान अल्लाह (अरबी में), अल्लाह (फारसी में), ईसाई गाॅड (अंग्रेजी में) और यहूदी याहवेह (इब्रानी में) कहते हैं।
हिन्दू धर्म में कई देवता हैं। ये देवता कौन है, इस बारे में तीन मत हो सकते हैं। अद्वैत वेदान्त, भगवद्गीता, वेद, उपनिषद् आदि के अनुसार सभी देवी-देवता एक ही परमेश्वर के विभिन्न रूप है। निराकार परमेश्वर की भक्ति करने के लिए भक्त अपने मन में भगवान को किसी प्रिय रूप में देखता है। ऋग्वेद के अनुसार एक ही परमसत्य को विद्वान कई नामों से बुलाते हैं। योग, न्याय, वैशेषिक, अधिकांश शैव और वैष्णव मतों के अनुसार देवगण ऐसी परालौकिक शक्तियाँ हैं जो ईश्वर के अधीन हैं मगर मानवों के भीतर मन पर शासन करती हैं। योग दर्शन के अनुसार ईश्वर ही प्रजापति और इन्द्र जैसे देवताओं और अंगीरा जैसे ऋषियों के पिता और गुरू हैं। मीमांसा के अनुसार सभी देवी-देवता स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं और उनके ऊपर कोई एक ईश्वर नहीं है। इच्छित कर्म करने के लिए इनमें से एक या कई देवताओं को कर्मकाण्ड और पूजा द्वारा प्रसन्न करना जरूरी है। कई अन्धविश्वासी या अनपढ़ हिन्दू भी ऐसा मानते हैं। इस प्रकार का मत शुद्ध रूप से बहु-ईश्वरवादी कहा जा सकता है। ज्यादातर वैष्णव और शैव पहले दो विचारों को सम्मिलित रूप से मानते हैं। जैसे कृष्ण को परमेश्वर माना जाता है जिनके अधीन बाकी सभी देवी-देवता हैं और साथ ही साथ सभी देवी-देवताओं को कृष्ण का ही रूप माना जाता है। तीसरे मत को धर्मग्रन्थ मान्यता नहीं देते। जो भी हो ये देवी-देवता रंग-बिरंगी हिन्दू संस्कृति के अंग हैं। वैदिक काल के मुख्य देव थे-इन्द्र, अग्नि, सोम, वरूण, रूद्र, विष्णु, प्रजापति, सविता या पुरूषदेव और देवियाँ सरस्वती, ऊषा, पृथ्वी इत्यादि कुल 33। बाद के हिन्दू धर्म में नये देवी-देवता आये, कई अवतार रूप में- गणेश, राम, कृष्ण, हनुमान, कार्तिकेय, सूर्य, चन्द्र और ग्रह और देवियाँ जिनको माता की उपाधि दी जाती है- दुर्गा, पार्वती, शीतला, सीता, राधा, सन्तोषी, काली इत्यादि। ये सभी देवता पुराणों में उल्लिखित है ओर उनकी कुल संख्या 33 करोड़ बतायी जाती है। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव साधारण देव नहीं बल्कि महादेव हैं और त्रिमूर्ति के सदस्य हैं। इस सबके अलावा हिन्दू धर्म में गाय को भी माता के रूप में पूजा जाता है। यह माना जाता है कि गाय में सम्पूर्ण 33 करोड़ देवी-देवता वास करते हैं।
हिन्दू धर्म के पवित्र ग्रन्थों को दो भागों में बाँटा गया है-श्रुति और स्मृति। श्रुति हिन्दू धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं, जो पूर्णतः अपरिवर्तनीय हैं अर्थात किसी भी युग में इनमें कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। स्मृति ग्रन्थों में देश कालानुसार बदलाव हो सकता है। श्रुति के अन्तर्गत वेद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद, ब्रह्मसूत्र व उपनिषद् आते हैं। वेद, श्रुति इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि हिन्दुओं का मानना है कि इन वेदों को परमात्मा ने ऋषियों को सुनाया था, जब वे गहरे ध्यान में थे। वेदों को श्रवण परम्परा के अनुसार गुरू द्वारा शिष्यों को दिया जाता था। प्रत्येक वेद में चार भाग हैं-सहिंता (मंत्र भाग), ब्राह्मण ग्रन्थ (गद्य भाग, जिसमें कर्मकाण्ड हैं) , आरण्यक इनमें गूढ़ बातें समझायी गयी है और उपनिषद् इनमें ब्रह्म, आत्मा और इनके सम्बन्ध के बारे में विवेचना की गई है। अगर श्रुति और स्मृति में कोई विवाद होता है तो श्रुति ही मान्य होगी। श्रुति को छोड़कर अन्य सभी हिन्दू धर्मग्रन्थ स्मृति कहे जाते हैं क्योंकि इनमें वो कहानियाँ है जिनको लोगों ने पीढ़ी दर पीढ़ी याद किया और बाद में लिखा। सभी स्मृति ग्रन्थ वेदों की प्रशंसा करते हैं। इनको वेदों से निचला स्तर प्राप्त है पर ये ज्यादा आसान हैं और अधिकांश हिन्दुओं द्वारा पढ़े जाते हैं। प्रमुख स्मृति ग्रन्थ हैं-इतिहास, रामायण, महाभारत, भगवद्गीता, 18 पुराण, मनुस्मृति, धर्मशास्त्र और धर्मसूत्र, आगम शास्त्र। भारतीय दर्शन के 6 प्रमुख अंग हैं-सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त।
हिन्दू धर्म के मुख्य सिद्धान्त हैं-1. ईश्वर एक नाम अनेक, 2. ब्रह्म या परमतत्व सर्वव्यापी है। 3. ईश्वर से डरे नहीं, प्रेम करें और प्रेरणा लें। 4. हिन्दुत्व का लक्ष्य स्वर्ग-नरक से उपर, 5. हिन्दुओं में कोई एक पैगम्बर नहीं हैं बल्कि अनेकों पेगम्बर हैं, 6. धर्म रक्षा के लिए ईश्वर बार-बार पैदा होते हैं, 7. परोपकार पुण्य है, दूसरों को कष्ट देना पाप है, 8. जीवमात्र की सेवा ही परमात्मा की सेवा 9. स्त्री आदरणीय है, 10. सती का अर्थ पति के प्रति निष्ठा है, 11.हिन्दुत्व का वास, हिन्दू के मन, संस्कार और परम्पराओं में, 12. पर्यावरण की रक्षा को उच्च प्राथमिकता, 13. हिन्दू दृष्टि समतावादी एवं समन्वयवादी, 14. आत्मा अजर अमर है, 15. सबसे बड़ा मंत्र गायत्री मंत्र, 16. हिन्दुओं के पर्व और त्योहार खुशियों से जुड़े हैं, 17. हिन्दुत्व का लक्ष्य पुरूषार्थ है और मध्य मार्ग को सर्वोत्तम माना गया है, 18. हिन्दुत्व एकत्व का दर्शन है।
ऋषि
ऋषि मुनि, योगी, सन्त अथवा कवि का दूसरा नाम है। ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति ऋक्ष (रीक्ष) है क्योंकि वह भी मुनि के भाँति पर्वत गुफा में व्यतीत करता है। सप्तर्षि आकाश में है और हमारे कपाल में भी। ऋषि आकाश, अन्तरिक्ष और शरीर तीनों में होते हैं।
वेद
वेद शब्द संस्कृत भाषा के ”विद्“ धतु से बना है जिसका अर्थ है-जाना, ज्ञान इत्यादि। वेद सनातन-हिन्दू धर्म के प्राचीन पवित्र ग्रन्थों का नाम है। वेदों को श्रुति भी कहा जाता है क्योंकि पहले मुद्रण की व्यवस्था न होने से इनको एक-दूसरे से सुन-सुनकर याद रखा गया। इस प्रकार वेद प्राचीन भारत के वैदिक काल की वाचिक/श्रुति अर्थात श्रवण परम्परा की अनुपम कृति है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी पिछले चार-पाँच हजार वर्षों से चली आ रही है। वेद परिश्रमपूर्वक अभ्यास द्वारा संरक्षणीय है, इस कारण इसका नाम ”आम्नाय“ भी है। वेद ही सनातन-हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रन्थ हैं।
वेदों का महत्व
1.भारतीय संस्कृति के मूल वेद हैं। ये हमारे सबसे पुराने धर्म-ग्रन्थ हैं और सनातन-हिन्दू धर्म का मुख्य आधार हैं।
2.न केवल धार्मिक किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेदों का असाधारण महत्व है। वैदिक युग के आर्यों की संस्कृति और सभ्यता जानने का एकमात्र साधन यही है।
3.मानव-जाति और विशेषतः आर्य जाति ने अपने शैशव में धर्म और समाज का किस प्रकार विकास किया इसका ज्ञान वेदों से ही मिलता है।
4.विश्व के ज्ञान इतिहास में इनसे प्राचीनतम कोई पुस्तक नहीं है।
5.आर्य भाषाओं का मूलस्वरूप निर्धारित करने में वैदिक भाषा बहुत अधिक सहायक सिद्ध हुई है।
प्रारम्भ में ऋक्, यजुः और सामः, इन तीन शब्द शैलियों की संग्रहात्मक एक विशिष्ट अध्ययनीय शब्द राशि ही वेद कहलाती थी। विश्व में शब्द प्रयोग की तीन शैलियाँ होती है, जो पद्य (कविता), गद्य और गानरूप से प्रसिद्ध हैं। पद्य में अक्षर संख्या तथा पाद एवं विराम का निश्चित नियम होता है। अतः निश्चित अक्षर संख्या तथा पाद एवं विराम वाले वेद मन्त्रों की संज्ञा ”ऋक्“ है। जिन मन्त्रों में छन्द के नियमानुसार अक्षर संख्या तथा पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं हैं, वे गद्यात्मक मन्त्र ”यजुः“ कहलाते हैं। और जितने मन्त्र गानात्मक हैं, वे मन्त्र ”साम“ कहलाते हैं। इन तीन प्रकार की शब्द प्रकाशन शैलियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिए ”त्रयी“ शब्द का भी व्यवहार किया जाता है।
द्वापरयुग की समाप्ति के पूर्व वेदों के चार विभाग अलग-अलग नहीं थे। द्वापर युग की समाप्ति के समय श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी ने यज्ञानुष्ठान के उपयोग को दृष्टिगत उस एक वेद के चार विभाग 1. ऋग्वेद 2. यजुर्वेद 3. सामवेद 4. अथर्ववेद कर दिये और इन चारो विभागों की शिक्षा चार शिष्यों को दी। पैल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु नामक इन चार शिष्यों ने शाकल आदि अपने भिन्न-भिन्न शिष्यों को पढ़ाया। इन शिष्यों के द्वारा अपने-अपने अधीत वेदों के प्रचार व संरक्षण के कारण वे शाखाएँ उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हो रही हैं।
वेद की संहिताओं में मंत्राक्षरों में खड़ी तथा आड़ी रेखाऐं लगाकर उनके उच्च, मध्यम या मन्द संगीतमय स्वर उच्चारण करने के संकेत किये गये हैं। इनको उदात्त, अनुदात्त और स्वारित के नाम से अभिगित किया गया है। ये स्वर बहुत प्राचीन समय से प्रचलित हैं और महामुनि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में इनके मुख्य-मुख्य नियमों का समावेश किया है।
वेद के असल मन्त्र माग को संहिता कहते हैं। वेदों का प्रधान लक्ष्य आध्यात्मिक ज्ञान देना ही है। अतः वेद में कर्मकाण्ड और ज्ञान काण्ड, इन दोनों विषयों का सर्वांगीण निरूपण किया गया है। वेदों का प्रारम्भिक भाग कर्मकाण्ड है और वह ज्ञानकाण्ड वाले भाग से अधिक है। जिन अधिकारी वैदिक विद्वानों को यज्ञ कराने का यजमान द्वारा अधिकार प्राप्त होता है, उनको ”ऋत्विक“ कहते हैं। श्रौतयज्ञ में इन ऋत्विकों के चार गण- होतृवर्ग, अध्वर्युवर्ग, उद्रातृवर्ग और ब्रह्मवर्ग हैं। इन चारों गणों के उपयोगी मन्त्रों के संग्रह के अनुसार वेद चार हुए।
1.ऋग्वेद
इसमें देवताओं का आह्वान करने के लिए मन्त्र हैं। यही सर्वप्रथम वेद है। यह वेद मुख्यतः ऋषि-मुनियों के लिए होता है। इसमें ”ऋक्“ संज्ञक (पद्यबद्ध) मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम ऋग्वेद हुआ। इसमें होतृवर्ग के लिए उपयोगी गद्यात्मक (यजुः) स्वरूप के भी कुछ मन्त्र है।
ऋग्वेद सनातन धर्म अथवा हिन्दू धर्म को स्रोत है। जिसमें देवताओं की स्तुति की गयी है। इसमें देवताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिए मन्त्र हैं। यही सर्वप्रथम वेद है। ऋग्वेद को दुनिया के सभी इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा परिवार की सबसे पहली रचना मानते हैं। ये दुनिया के सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है। वेद मन्त्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है जिसमें एकदैवत्य तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। ऋग्वेद की जिन 21 शाखाओं का वर्णन मिलता है उनमें से चरणव्यूह ग्रन्थ के अनुसार 5 ही प्रमुख हैं, वे हैं-1. शाकल, 2. वाश्कल, 3. आश्वलायन, 4. शांखायन और 5. माण्डूकायन। ऋग्वेद में ऋचाओं का बाहुल्य होने के कारण इसे ज्ञान का वेद कहा जाता है। ऋग्वेद में ही मृत्युनिवारक त्रयम्बक मंत्र या मृत्युजंय मन्त्र (7.59.12) वर्णित है। ऋग्विधान के अनुसार इस मन्त्र के जप के साथ विधिवत व्रत तथा हवन करने से दीर्घ आयु प्राप्त होती है तथा मृत्यु दूर होकर सब प्रकार का सुख प्राप्त होता है। विश्वविख्यात गायत्री मन्त्र (3.62.10) भी इसी में वर्णित है। ऋग्वेद में अनेक प्रकार के लोकोपयोगी सूक्त, तत्वज्ञान सूक्त, संस्कार सूक्त उदाहरणार्थ रोग निवारक सूक्त (10.137.1-7), श्री सूक्त या लक्ष्मी सूक्त, तत्वज्ञान के नारदीय सूक्त (10.129.1-7) तथा हिरण्यगर्भ सूक्त (10.121.1-10) और विवाह आदि के सूक्त (10.85.1-47) वर्णित है। जिनमें ज्ञान-विज्ञान का चरमोत्कर्ष दिखलाई देता है। ऋग्वेद के कुछ प्रमुख बातें ये है- यह सबसे प्राचीनतम वेद माना जाता है। ऋग्वेद के कई सूक्त में विभिन्न वैदिक देवताओं की स्तुति करने वाले मन्त्र हैं। यद्यपि ऋग्वेद में अन्य प्रकार के सूक्त भी हैं परन्तु देवताओं की स्तुति करने वाले स्त्रोतों की प्रधानता है। ऋग्वेद में कुल 10 मण्डल हैं और उनमें 1028 सूक्त हैं तथा कुल 10580 ऋचाएँ हैं। इन मण्डलों में कुछ छोटे और कुछ बड़े हैं।
2.सामवेद
इसमें यज्ञ में गाने के लिए संगीतमय मन्त्र हैं। यह वेद मुख्यतः गन्धर्वं लोगों के लिए होता है। इसमें गायन पद्धति के निश्चित मन्त्र होने के कारण इसका नाम सामवेद है जो उद्रातृवर्ग के उपयोगी हैं।
सामवेद की अधिकतम ऋचाएँ ऋग्वेद से ही ली गयीं हैं। यह वेद गीत-संगीत प्रधान है। प्राचीन आर्यों द्वारा साम-गान किया जाता था। सामवेद चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है फिर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक है। सामवेद यद्यपि छोटा है परन्तु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है और सभी वेदों के चुने हुए अंश इसमें शामिल किये गये हैं। सामवेद संहिता के दो भाग है- आर्चिक और गान। पुराणों में जो विवरण मिलता है उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने की जानकारी मिलती है। वर्तमान में प्रपंच हृदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गृहसूत्र को देखने पर 13 शाखाओं का पता चलता है। इन 13 में से 3 आचार्यो की शाखाएँ मिलती हैं- 1. कौमुथीय, 2. राणायनीय और 3. जैमिनीय। सामवेद का महत्व इसी से पता चलता है कि गीता में कहा गया है कि- वेदानां सामवेदोस्मि (अध्याय-10, श्लोक-22)। महाभारत में गीता के अतिरिक्त अनुशासन पर्व में भी सामवेद की महत्ता को दर्शाया गया है- सावेदश्च वेदानां यजुशां शतरूद्रीयम् (अध्याय-14, श्लोक-323)। सामवेद में ऐसे मन्त्र मिलते है जिनसे यह प्रमाणित होता है कि वैदिक ऋषियों को ऐसे वैज्ञानिक सत्यों का ज्ञान था जिनकी जानकारी आधुनिक वैज्ञानिकों को सहस्त्राब्दियों बाद प्राप्त हो सकी है। उदाहरणार्थ, इन्द्र ने पृथ्वी को घुमाते हुए रखा है (सामवेद, ऐन्द्र काण्ड, मन्त्र 121), चन्द्र के मण्डल में सूर्य की किरणें विलीन हो कर उसे प्रकाशित करती हैं (सामवेद, ऐन्द्र काण्ड, मंन्त्र 147)। साम मन्त्र क्रमांक 27 का भाषार्थ है- यह अग्नि द्यूलोक से पृथ्वी तक संव्याप्त जीवों तक का पालनकर्ता है। यह जल को रूप एवं गति देने में समर्थ है। अग्नि पुराण के अनुसार सामवेद के विभिन्न मन्त्रों के विधिवत् जप आदि से रोग व्याधियों से मुक्त एवं बचा जा सकता है। साथ ही कामनाओं की सिद्धि हो सकती है। सामवेद ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्ति योग की त्रिवेणी है। ऋषियों ने विशिष्ट मन्त्रों का संकलन करके गायन की पद्धति विकसित की। आधुनिक विद्वान भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि समस्त स्वर, ताल, लय, छन्द, गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग, नृत्य, मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकलें हैं। सामवेद के कुछ प्रमुख बातें ये है- सामवेद से तात्पर्य है कि वह ग्रन्थ जिसके मन्त्र गाये जा सकते हैं और जो संगीतमय हों। यज्ञ अनुष्ठान और हवन के समय ये मन्त्र गाये जाते हैं। सामवेद में मूल रूप से 99 मन्त्र है और शेष ऋग्वेद से लिये गये हैं। इसमें यज्ञानुष्ठान के उद्गातृवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसका नाम सामवेद इसलिए पड़ा है कि इसमें गायन पद्धति के निश्चित मन्त्र ही हैं। इसके अधिकांश मन्त्र ऋग्वेद में उपलब्ध होते है, कुछ मन्त्र स्वतन्त्र भी हैं। सामवेद में ऋग्वेद की कुछ ऋचाएँ आकलित है। वेद के उद्गाता, गायन करने वाले जो कि सागम (साम गान करने वाले) कहलाते थे, उन्होंने वेदगान में केवल तीन स्वरों के प्रयोग का उल्लेख किया है जो उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित कहलाते हैं। सामगान व्यावहारिक संगीत था, उसका विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है। वैदिक काल में बहुविध वाद्य यंत्रों का उल्लेख मिलता है जिनमें से तंतु वाद्यों में कन्नड़ वीणा, कर्करी और वीणा। घन वाद्य यंत्र के अन्तर्गत दुंदुभि और आडंबर। वनस्पति तथा सुशिर यंत्र के अन्तर्गत तुरभ और नादि। बंकुरा आदि यंत्र विशेष उल्लेखनीय हैं।
3.यजुर्वेद
इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिए गद्य मन्त्र हैं। यह वेद मुख्यतः क्षत्रियों के लिए होता है। इसमें गद्यात्मक मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम यजुर्वेद है। इसमें कुछ पद्यबद्ध मन्त्र भी हैं, जो अध्वर्युवर्ग के उपयोगी है। यजुर्वेद के दो विभाग हैं- शुक्लयजुर्वेद और कृष्णयजुर्वेद।
यजुर्वेद, यजुस और वेद, ये हिन्दू धर्म के चार पवित्रतम प्रमुख ग्रन्थों में से एक है। इसमें यज्ञ के असल प्रक्रिया के लिए गद्य और पद्य मन्त्र है। यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ”यजुस“ कहा जाता है। यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ऋग्वेद या अथर्ववेद से लिए गये हैं। इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र बहुत कम हैं। इस वेद में अधिकांशतः यज्ञों और हवनों के नियम और विधान है। अतः यह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है। जहाँ ऋग्वेद की रचना सप्तसिन्धु क्षेत्र में हुई थी, वहीं यजुर्वेद की रचना कुरूक्षेत्र के प्रदेश में हुई। कुछ लोगों के मतानुसार इसका रचना काल 1400 से 1000 ईसापूर्व माना जाता है। यजुर्वेद की संहिताएँ लगभग अन्तिम रची गयी संहिताएँ थीं जो ईसा पूर्व द्वितीय सहस्त्राब्दि से प्रथम सहस्त्राब्दि के आरम्भिक सदियों में लिखी गई थीं। इस ग्रन्थ से आर्यो के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। उनके समय की वर्ण व्यवस्था तथा वर्णाश्रम की झाँकी भी इसमें है। यजुर्वेद संहिता में वैदिक काल के धर्म के कर्मकाण्ड आयेजन हेतू यज्ञ करने के लिए मन्त्रों का संग्रह है। यजुर्वेद में दो शाखा है- दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद शाखा। इनमें कर्मकाण्ड के यज्ञों अग्हिोत्र, अश्वमेध, वाजपेय, सोम, राजसूय, अग्निचयन का विवरण है। यजुर्वेद, वेद का एक ऐसा प्रभाग है जो आज भी जन-जीवन में अपना स्थान किसी न किसी रूप में बनाये हुए है। संस्कारों एवं यज्ञीय कर्मकाण्डों के अधिकांश मन्त्र यजुर्वेद के ही है। यजुर्वेदाध्यायी परम्परा में दो सम्प्रदाय- ब्रह्म सम्प्रदाय अथवा कृष्ण यजुर्वेद और आदित्य सम्प्रदाय अथवा शुक्ल यजुर्वेद ही प्रमुख हैं। वर्तमान में कृष्ण यजुर्वेद की शाखा में 4 संहिताएँ- तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल कठ ही उपलब्ध है। शुक्ल यजुर्वेद की शाखाओं में दो प्रधान संहिताएँ 1. मध्यदिन संहिता और 2. काण्व संहिता ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। आजकल प्रायः उपलब्ध होने वाला यजुर्वेद मध्यदिन संहिता ही है। इसमें 40 अध्याय, 1975 कण्डिकाएँ तथा 3988 मन्त्र हैं। विश्वविख्यात गायत्री मन्त्र (36.3) तथा महामृत्युजंय मन्त्र (3.60) इसमें भी है।
4.अथर्ववेद
इसमें जादू, चमत्कार, आरोग्य, यज्ञ के लिए मन्त्र हैं। यह वेद मुख्यतः व्यपारियों के लिए होता है। इसमें पद्यात्मक मन्त्रों के साथ कुछ गद्यात्मक मन्त्र भी उपलब्ध हैं। इस वेद का नामकरण अन्य वेदों की भाँति शब्द शैली के आधार पर नहीं है, अपितु इसके प्रतिपाद्य विषय के अनुसार है। अथर्व का अर्थ है- कमियों को हटाकर ठीक करना या कमी रहित बनाना। अतः इसमें यज्ञ सम्बन्धी एवं व्यक्ति सम्बन्धी सुधार या कमी-पूर्ति करने वाले मन्त्र भी हैं। इस वैदिक शब्दराशि का प्रचार एवं प्रयोग मुख्यतः अथर्व नाम के महर्षि द्वारा किया गया, इसलिए भी इसका नाम अथर्ववेद है। इसमें यज्ञानुष्ठान के ब्रह्मवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है।
अथर्ववेद, हिन्दू धर्म के पवित्रतम और सर्वोच्च धर्मग्रन्थ वदों में से चैथा वेद है। इसमें देवताओं की स्तुति के साथ जादू, चमत्कार, चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन के भी मन्त्र हैं। अथर्ववेद के बारे में कहा गया है कि जिस राजा के राज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान शान्तिस्थापन के कर्म में निरत रहता है, वह राष्ट्र उपद्रव रहित होकर निरन्तर उन्नति करता जाता है। भूगोल, खगोल, वनस्पति विद्या, असंख्य जड़ी-बूटियाँ, आयुर्वेद, गम्भीर से गम्भीर रोगों का निदान और उनकी चिकित्सा, अर्थशास्त्र के मौलिक सिद्धान्त, राजनीति के गुह्य तत्व, राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्रभाषा की महिमा, शल्य चिकित्सा, कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोगों का विवेचन, मृत्यु को दूर करने के उपाय, प्रजनन विज्ञान आदि सैकड़ों लोकोपकारक विषयों का निरूपण अथर्ववेद में है। आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद का महत्व अत्यन्त सराहनीय है। अथर्ववेद में शान्ति तथा अभिचारक दोनों तरह के अनुष्ठान वर्णित हैं। अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं। चरणव्यूह ग्रन्थ के अनुसार अथर्ववेद संहिता की 9 शाखाएँ- 1. पैपल, 2. दान्त, 3. प्रदान्त, 4. स्नात, 5. सौल, 6. ब्रह्मदाबल, 7. शौनक, 8. देवदर्शन, 9. चरणविद्या बतलाई गई है। वर्तमान में केवल दो पिप्लाद और शौनक संहिता ही उपलब्ध हो पाती है। अथर्ववेद के कुछ प्रमुख बातें ये है- अथर्ववेद की भाषा और स्वरूप के आधार पर ऐसा माना जाता है कि इस वेद की रचना सबसे बाद में हुई। इसमें ऋग्वेद और सामवेद से भी मन्त्र लिये गये हैं। जादू से सम्बन्धित मन्त्र-तन्त्र, राक्षस, पिशाच आदि भयानक शक्तियाँ अथर्ववेद के महत्वपूर्ण विषय हैं। ऋग्वेद में उच्च कोटि के देवताओं को इस वेद में गौण स्थान प्राप्त हुआ है। धर्म के इतिहास की दृष्टि से ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों का बड़ा ही मूल्य है। अथर्ववेद से स्पष्ट है कि कालान्तर में आर्यो में प्रकृति पूजा की उपेक्षा हो गयी थी और प्रेत आत्माओं व तन्त्र-मन्त्र में विश्वास किया जाने लगा था।
आधुनिक विचारधारा के अनुसार चारों वेदों की शब्दराशि के विस्तार में तीन दृष्टियाँ पायी जाती हैं- याज्ञिक, प्रायोगिक और साहित्यिक दृष्टि।
याज्ञिक दृष्टि से वदोक्त यज्ञों का अनुष्ठान ही वेद के शब्दों का मुख्य उपयोग माना गया है। सृष्टि के आरम्भ से ही यज्ञ करने में साधारणतया मन्त्रोच्चारण की शैली, मन्त्राक्षर एवं कर्म-विधि में विविधता रही है। इस विविधता के कारण ही वेदों का विस्तार (व्यास) हुआ है। चारो वेदों की कुल 1,131 शाखाएँ हैं जिसका उल्लेख महर्षि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में भी किया है। इन शाखाओं में से वर्तमान में केवल 12 शाखाएँ ही मूल ग्रन्थों में उपलब्ध हैं-
1. ऋग्वेद की 21 शाखाओं में से केवल दो शाखा शाकल और शांखायन शाखा के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं।
2. यजुर्वेद के कृष्णयजुर्वेद की 86 शाखाओं में से केवल चार तैत्तिरीय, मैत्रायणीय, कठ और कपिष्ठल शाखा के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं।
3. यजुर्वेद के शुक्लयजुर्वेद की 15 शाखाओं में से केवल दो माध्यन्दिनीय और काण्व शाखा के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं।
4. सामवेद की 1000 शाखाओं में से केवल दो कौथुम और जैमिनीय शाखा के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं।
5. अथर्ववेद की 9 शाखाओं में से केवल दो शौनक और पैप्पलाद शाखा के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं।
उपरोक्त 12 शाखाओं में से केवल 6 शाखाओं की अध्ययन शैली प्राप्त है- शाकल, तैत्तरीय, माध्यन्दिनी, काण्व, कौथुम तथा शौनक शाखा। बहुत से शाखाओं का पूरा परिचय और नाम भी उपलब्ध नहीं हैं।
प्रायोगिक दृष्टि के अनुसार प्रत्येक शाखा के दो भाग बताये गये हैं- 1. मन्त्र भाग: यज्ञ में साक्षात् रूप से प्रयोग आती है। 2. ब्राह्मण भाग: जिसमें विधि (आज्ञाबोधक शब्द) तथा आख्यायिका एवं स्तुति द्वारा यज्ञ कराने की प्रवृति उत्पन्न कराना, यज्ञानुष्ठान करने की पद्धति बताना, उसकी उत्पत्ति और विवेचन के साथ उसके रहस्य का निरूपण करना है।
साहित्यिक दृष्टि से हर वेद के चार भाग होते हैं। ये चार भाग सम्मिलित रूप से श्रुति कहे जाते हैं जो सनातन-हिन्दू धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं। बाकी सब स्मृति के अन्तर्गत आते हैं। पहले भाग (संहिता) के अलावा हर एक में टीका अथवा भाष्य के तीन स्तर होते हैं। जो निम्न हैं-
1. संहिता (मन्त्र भाग)
2. ब्राह्मण ग्रन्थ (गद्य में कर्मकाण्ड की विवेचना)
3. आरण्यक (कर्मकाण्ड के पीछे के उद्देश्य की विवेचना)
4. उपनिषद् (परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन)
प्रतिपादसूत्र, अनुपाद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक ये 6 उपांग ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारो वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं। वेदों के सर्वांगीण अनुशीलन के लिए शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष इन 6 अंगों के ग्रन्थ हैं। जिन्हें वेदांग कहते हैं। वेद धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरूषार्थो के प्रतिपादक हैं। वेद भी अपने अंगो के कारण ही ख्यातिप्राप्त हैं, अतः वेदांगों का अत्यधिक महत्व है। यहाँ पर अंग का अर्थ है- उपकार करने वाला अर्थात वास्तविक अर्थ का दिग्दर्शन करानेवाला। 6 वेदांग निम्नप्रकार हैं-
1. शिक्षा - स्वर एवं वर्ण आदि के उच्चारण प्रकार की जहाँ शिक्षा दी जाती हो, उसे शिक्षा कहा जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य वेद मन्त्रों के अविकल यथास्थिति विशुद्ध उच्चारण किये जाने का है। शिक्षा का उद्भव और विकास वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और उनके द्वारा उनकी रक्षा के उद्देश्य से हुआ है।
2. कल्प - कल्प वेद प्रतिपादित कर्मो का भलीभँाति विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। इसमें यज्ञ सम्बन्धित नियम दिये गये हैं।
3. व्याकरण - वेद शास्त्रों का प्रयोजन जानने तथा शब्दों का यथार्थ ज्ञान हो सके, अतः इसका अध्ययन आवश्यक होता है। इस सम्बन्ध में पाणिनीय व्याकरण ही वेदांग का प्रतिनिधित्व करता है। व्याकरण वेदों का मुख भी कहा जाता है।
4. निरूक्त - इसे वेद पुरूष का कान कहा गया है। निःशेषरूप से जो कथित हो, वह निरूक्त है। इसे वेद की आत्मा भी कहा गया है।
5. छन्द - इसे वेद पुरूष का पैर कहा गया है। ये छन्द वेदों के आवरण है। छन्द नियताक्षर वाले होते हैं। इसका उद्देश्य वैदिक मन्त्रों के समुचित पाठ की सुरक्षा भी है।
6. ज्योतिष - यह वेद पुरूष का नेत्र माना गया है। वेद यज्ञकर्म में प्रवृत होते हैं और यज्ञ काल के आश्रित होते हैं तथा ज्योतिष शास्त्र से काल का ज्ञान होता है। अनेक वैदिक पहेलियों का ज्ञान भी बिना ज्योतिष के नहीं हो सकता।
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