Sunday, March 15, 2020

द्वापरयुग के धर्म - 04. वेदान्त अद्वैत धर्म-श्रीकृष्ण-ईसापूर्व 3000

द्वापरयुग के धर्म - 04. वेदान्त अद्वैत धर्म-श्रीकृष्ण-ईसापूर्व 3000

वेदव्यास
प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु, व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं। पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य, चैथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए। इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन, अश्वत्थामा आदि अठ्ठाईस वेदव्यास हुए। इस प्रकार अठ्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया। उन्होंने ही 18 पुराणों की रचना की। हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार महर्षि व्यास त्रिकालज्ञ थें तथा उन्होंने दिव्य-दृष्टि से देख कर जान लिया कि कलियुग में धर्म क्षीण हो जायेगा। धर्म के क्षीण होने के कारण मनुष्य नास्तिक, कर्तव्यहीन और अल्पायु हो जायेगें। एक विशाल वेद का सांगोपांग अध्ययन उनके सामथ्र्य से बाहर हो जायेगा। इसलिए महर्षि व्यास ने वेद का चार भागों में विभाजन कर दिया जिससे कि कम बुद्धि एवं कम स्मरण शक्ति रखने वाले भी वेदों का अध्ययन कर सके। व्यास जी ने उनका नाम रखा - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का विभाजन करने के कारण ही व्यास जी वेदव्यास नाम से विख्यात हुये। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, जैमिनि, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को पढ़ाया। वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा शुष्क होने के कारण वेद व्यास ने पाँचवें वेद के रूप में पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में बताया गया है। पुराणों को उन्होंने अपने शिष्य रोम हर्षण को पढाया। व्यास जी के शिष्यों ने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उने वेदों की अनेक शाखाएँ बना दीं। व्यास जी ने महाभारत की रचना तीन वर्षो के अथक परिश्रम से की थी। व्यास जी का उद्देश्य महाभारत लिखकर युद्ध का वर्णन करना नहीं, बल्कि इस भौतिक जीवन की निःसारता को दिखाना है। उनका कथन है कि भले ही कोई पुरूष वेदांग तथा उपनिषदों को जाने लें, लेकिन वह कभी विचक्षण नहीं हो सकता क्योंकि यह महाभारत एक ही साथ अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा कामशास्त्र है। महाभारत के सम्बन्ध में स्वयं व्यास जी की ही उक्ति सटिक है- ”इस ग्रन्थ में जो कुछ है, वह अन्यत्र हैं परन्तु जो इसमें नहीं, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है।“ श्रीमद्भागवतगीता विश्व के सबसे बड़े महाकाव्य ”महाभारत“ का ही अंश है। व्यासजी ने पुराणों तथा महाभारत की रचना के पश्चात् ब्रह्मसूत्रों की रचना भी यहाँ की थी। वाल्मीकि की ही तरह व्यास भी संस्कृत कवियों के लिए पूज्य हैं। महाभारत में उपाख्यानों का अनुसरण कर अनेक संस्कृत कवियों ने काव्य, नाटक आदि की सृष्टि की है। संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि के बाद व्यास ही श्रेष्ठ कवि हुए हैं। इनके लिए काव्य ”आर्य काव्य“ के नाम से विख्यात है।
पौराणिक-महाकाव्य युग की महान विभूति महाभारत, 18 पुराण, श्रीमदभागवत, ब्रह्मसूत्र, मीमांसा जैसे अद्वितीय साहित्य दर्शन के प्रणेता वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग 3000 ई0पू0 में हुआ था। वेदांत दर्शन-अद्वैतवाद के संस्थापक वेदव्यास ऋषि पराशर के पुत्र थे। पत्नी आरूणी से उत्पन्न इनके पुत्र थे- महान बालयोगी शुकदेव।

वेदव्यास जन्म कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिए वन जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। समाचार पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकालकर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने के लिए आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मिल गया। दोनों पक्षियों में युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुए वीर्य को निगल गयी तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई। गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फॅसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज हुआ। बालिका निषाद के पास रह गई और उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगो से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह नाव खेने का कार्य करने लगी। एक बार पराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठकर यमुना पार करना पड़ा। पराशर मुनि सत्यवती के रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, - देवी! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।, सत्यवती ने कहा- मुनिवर! आप ब्रह्म ज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं।, तब पराशर मुनि बोले‘- बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसुति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी। इतना कहकर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुए कहा- तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।
समय आने पर सत्यवती के गर्भ से वेद-वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, - माता तू जब भी कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा। इतना कहकर वे तपस्या करने के लिए द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हें कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चलकर वेदों के भाष्य करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये। 
ऋषि वेदव्यास महाभारत ग्रन्थ के रचयिता थे। वेदव्यास महाभारत के रचयिता ही नहीं, बल्कि उन घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं, जो क्रमानुसार घटित हुई है। अपने आश्रम से हस्तिनापुर की समस्त गतिविधयों की सूचना उन तक तो पहुँचती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अन्तद्र्वन्द और संकट की स्थिति आती थी, माता सत्यवती उनसे विचार-विमर्श के लिए कभी आश्रम पहुँचती, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थी। वे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर के जन्मदाता ही नहीं, अपितु विपत्ति के समय छाया की तरह पाण्डवों का साथ भी देते थे।
काशी (वाराणसी) के रामनगर किले में और व्यास नगर (रामनगर व मुगलसराय के बीच) में वेदव्यास का मन्दिर है जहाँ माघ में प्रत्येक सोमवार मेला लगता है। गुरू पूर्णिमा (आषाढ़ पूर्णिमा) का प्रसिद्ध पर्व व्यास जी की जयंती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। पुराणों तथा महाभारत के रचयिता महर्षि का मन्दिर व्यासपुरी में विद्यमान है जो काशी से 5 मील की दूरी पर पूर्व स्थित है। महाराज काशी नरेश के रामनगर दुर्ग के पश्चिम भाग में भी व्यासेश्वर की मूर्ति विराजमान है जिसे साधारण जनता छोटा वेदव्यास के नाम से जानती है। वास्तव में वेदव्यास की यह सबसे प्राचीन मूर्ति है। व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था। तब व्यासजी लोलार्क मन्दिर के आग्नेय कोण में गंगाजी के पूर्वी तट पर स्थित हुए। इस घटना का उल्लेख काशी खण्ड में इस प्रकार है-
लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि। स्थितो ह्यद्यापि पश्चेत्सः काशीप्रासाद राजिकाम्।। 
- स्कन्दपुराण, काशी खण्ड 96/201

महाभारत
महाभारत में ऐसा वर्णन आता है कि वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन नही मन में महाभारत की रचना कर ली। परन्तु इसके पश्चात् उनके सामने एक गम्भीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाए। इसलिए ब्रह्मा जी के कहने पर व्यास गणेश जी के पास पहुँचे। गणेश जी लिखने को तैयार हो गये, किन्तु उन्होंने एक शर्त रखी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच में नहीं रूकेगें। व्यास जी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठिनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं। अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश जी को उसका अर्थ समझना होगा। गणेश जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास जी बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते थे, तो जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होते, उतने समय में ही व्यास जी कुछ नये श्लोक रच देते। इस प्रकार सम्पूर्ण महाभारत 3 वर्षो के अन्तराल में लिखी गयी। वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित 1 लाख श्लोकों का आद्य ”भारत“ ग्रन्थ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर 24 हजार श्लोकों की भारत संहिता बनायी। तत्पश्चात् व्यास जी ने 60 लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके 30 लाख श्लोक देवलोक में, 15 लाख पितृलोक में तथा 14 लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समाहत हुए। शेष 1 लाख श्लोकों का आद्य ”भारत“ प्रतिष्ठित हुआ।
यह महाकाव्य ”जय“, ”भारत“ और ”महाभारत“ इन तीन नामों से प्रसिद्ध है। वास्तव में वेदव्यास जी ने सबसे पहले 1 लाख श्लोकों के परिमाण के ”भारत“ नामक ग्रन्थ की रचना की थी, इसमें उन्होंने भारतवंशियों के चरित्रों के साथ-साथ अन्य कई महान ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों सहित कई अन्य धार्मिक उपाख्यान भी डाले। इसके बाद व्यास जी ने 24,000 श्लोकों का बिना किसी अन्य उपाख्यानों का केवल भारतवंशियों को केन्द्रित करके ”भारत“ काव्य बनाया। इन दोनों रचनाओं में धर्म की अधर्म पर विजय होने के कारण इन्हें ”जय“ भी कहा जाने लगा। महाभारत में एक कथा आती है कि जब देवताओं ने तराजू के एक पासे में चारों ”वेदों“ को रखा और दूसरे पर ”भारत ग्रन्थ“ को रखा, तो ”भारत गन्थ“ सभी वेदों की तुलना में सबसे अधिक भारी सिद्ध हुआ, अतः ”भारत“ ग्रन्थ की इस महत्ता (महानता) को देखकर देवताओं और ऋषियों ने इसे ”महाभारत“ नाम दिया और इस कथा के कारण मनुष्यों में भी यह काव्य ”महाभारत“ के नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ।
महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रन्थ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी-कभी केवल ”भारत“ कहा जाने वाला यह काव्यग्रन्थ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रन्थ है। विश्व का सबसे लम्बा यह साहित्यिक ग्रन्थ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रन्थों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दूधर्म में पंचमवेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य का सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रन्थ प्रत्येक भारतीय के लिए एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम गन्थ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग 1,11,000 श्लोक हैं। जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक सन्दर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगो और उपनिषद् के गुह्यतम रहस्यों का निरूपण किया है। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। महाभारत की विशालता और दार्शनिक गूढता न केवल भारतीय मूल्यों का संकलन है बल्कि हिन्दू धर्म और वैदिक परम्परा का सार भी है। सम्पूर्ण महाभारत 18 पर्वो और 100 उपपर्वो में विभाजित है। महाभारत की मूल कल्पना में 18 की संख्या का विशिष्ट योग है। कौरव और पाण्डव पक्षों के मध्य हुए युद्ध की अवधि 18 दिन थी। दोनों पक्षों की सेनाओं का सम्मिलित संख्याबल भी 18 अक्षौहिणी था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी 18 हैं। महाभारत की प्रबन्ध योजना में सम्पूर्ण ग्रन्थ को 19 पर्वो में विभक्त किया गया है और महाभारत में भीष्म पर्व के अन्तर्गत वर्णित श्रीमद्भगवद्गीता में भी 18 अध्याय हैं।
महाभारत ग्रन्थ की रचना पूर्ण करने के बाद वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम अपने पुत्र शुकदेव को इस ग्रन्थ का अध्ययन कराया। तदन्तर अन्य शिष्य वैशम्पायन, पैल, जैमिनि, असित-देवल आदि को इसका अध्ययन कराया। शुकदेव जी ने गन्धर्वो, यक्षों और राक्षसों को इसका अध्ययन कराया। देवर्षि नारद ने देवताओं को, असित-देवल ने पितरों को और वैशम्पायन जी ने मनुष्यों को इसका प्रवचन दिया। वैशम्पायन जी द्वारा महाभारत काव्य जनमेजय के यज्ञ समारोह में समत सहित कई ऋषि-मुनियों को सुनाया गया था। 
वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में 3 वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विेकास नहीं हुआ था, उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था। उस समय संस्कृत ऋषियों की भाषा थी और ब्राह्मी आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी। इस प्रकार ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मौखिक रूप से याद कर पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्षो तक याद रखा गया। फिर धीरे-धीरे जब समय के प्रभाव से वैदिक युग के पतन के साथ ही ऋषियों की वैदिक साहित्यों को याद रखने की शैली लुप्त होने लगी तब से वैदिक साहित्य को पाण्डुलिपियों पर लिखकर सुरक्षित रखने का प्रचलन हो गया। यह सर्वमान्य है कि महाभारत का आधुनिक रूप कई अवस्थाओं से गुजर कर बना है। विद्वानों द्वारा इसकी रचना की चार प्रारम्भिक अवस्थाएँ पहचानी गयी है। ये अवस्थाएँ सम्भावित रचना काल क्रम में निम्नलिखित हैं-
1. 3100 ई0पू0 - प्रथम बार - सर्वप्रथम वेदव्यास द्वारा 100 पर्वो के रूप में एक लाख श्लोकों का रचित ”भारत“ महाकाव्य, जो बाद में ”महाभारत“ नाम से प्रसिद्ध हुआ।
2. 3100 ई0पू0 - दूसरी बार - व्यास जी के कहने पर उनके शिष्य वैशम्पायन जी द्वारा जनमेजय के यज्ञ समारोह में ऋषि-मुनियों को सुनाना।
3. 2000 ई0पू0 - तीसरी बार - फिर से वैशम्पायन और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी ”महाभारत“ को सूत जी द्वारा पुनः 18 पर्वो के रूप में सुव्यवस्थित करके समस्त ऋषि-मुनियों को सुनाना।
4. 1200-600 ई0पू0 - चैथी बार - सूत जी और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी ”महाभारत“ का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम ब्राह्मी या संस्कृत में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में लिपिबद्ध किया जाना।
इसके बाद भी कई विद्वानों द्वारा इसमें बदलती हुई रीतियों के अनुसार बदलाव किया गया, जिसके कारण उपलब्ध प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में कई भिन्न-भिन्न श्लोक मिलते हैं। इस समस्या के निदान के लिए पुणे में स्थित भांडारकर प्राच्य शोध संस्थान ने पूरे दक्षिण एशिया में उपलब्ध महाभारत की सभी पाण्डुलिपियाँ (लगभग 10 हजार) का शोध और अनुसंधान करके उन सभी में एक ही समान पाये जाने वाले लगभग 75 हजार श्लोकों को खोजकर उनका सटिप्पण एवं समीक्षात्मक संस्करण प्रकाशित किया। कई खण्डों वाले 13 हजार पृष्ठों के इस ग्रन्थ का सारे संसार के सुयोग्य विद्वानों ने स्वागत किया। महाभारत के दक्षिण एशिया में कई रूपान्तर मिलते हैं। इण्डोनेशिया, श्रीलंका, जावा द्वीप, जकार्ता, थाइलैण्ड, तिब्बत, बर्मा (म्यांमार) में महाभारत के भिन्न-भिन्न रूपान्तर मिलते हैं। दक्षिण भारतीय महाभारत में अधिकतम 1,40,000 श्लोक मिलते है जबकि उत्तर भारतीय महाभारत के रूपान्तर में 1,10,000 श्लोक मिलते हैं। इस तरह से अनेकों बार महाभारत को परिष्कृत किया गया है। दृश्य पदार्थ विज्ञान के इस काल में विज्ञान के द्वारा आयी तकनीकों से दृश्य-श्रव्य (आॅडियो-विजुअल) माध्यम के आ जाने के बाद सभी महाभारत का अध्ययन व विवादित अंशो को त्यागते हुए श्री बी.आर चोपड़ा ने महाभारत के इस कथा का ”महाभारत“ नाम से उसका दृश्य-श्रव्य रूपान्तरण कर दूरदर्शन के माध्यम से प्रसारित कराया। जिसके फलस्वरूप वर्तमान में शायद ही कोई बचा हो जो महाभारत से परिचित न हो। इसके उपरान्त भी अन्य ने भी दृश्य-श्रव्य माध्यम में इस कथा का प्रस्तुतिकरण करने का प्रयत्न किये परन्तु बी.आर चोपड़ा कृत ”महाभारत“ एक मानक बन चुका है और जनमानस में उसके जीवन्त पात्रों के प्रति ऐसी छवि बन गई कि वे उसके पात्रों के रूप में उस काल के पात्रों को सत्य रूप में देखते हैं। फलस्वरूप चाहे जितनी बार महाभारत का दृश्य-श्रव्य रूपान्तरण क्यों न हो, पर जनमानस में वह रूप नहीं उतरता।

ऐतिहासिक एवं भाषाई प्रमाण
1. 1000 ईसा पूर्व - महाभारत में गुप्त और मौर्य कालीन राजाओं तथा जैन (1000-700 ई0पू0) और बौद्ध धर्म (700-200 ई0पू0) का भी वर्णन नहीं आता। साथ ही शतपथ ब्राह्मण (1100 ई0पू0) एवं छान्दोग्य उपनिषद् (1000 ई0पू0) में भी महाभारत के पात्रों का का वर्णन मिलता है। अतएव यह निश्चित तौर पर 1000 ई0पू0 से पहले रची गयी होगी।
2. 600-400 ईसा पूर्व - पाणिनी द्वारा रचित अष्टाध्यायी (600-400 ई0पू0) में महाभारत और भारत दोनों का उल्लेख है तथा इसके साथ-साथ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का भी सन्दर्भ आता है अतएव यह निश्चित है कि महाभारत और भारत पाणिनी के काल के बहुत पहले से ही अस्तित्व में रहे थे।
3. प्रथम शताब्दी - यूनान के पहली शताब्दी के राजदूत डियो क्रायसोसटम यह बताते है कि दक्षिण भारतीयों के पास एक लाख श्लोकों का एक ग्रन्थ है, जिससे यह पता चलता है कि महाभारत पहली शताब्दी में भी एक लाख श्लोकों का था। महाभारत की कहानी को ही बाद के मुख्य यूनान ग्रन्थों इलियड और ओडिसी में बार-बार अन्य रूप से दोहराया गया, जैसे धृतराष्ट्र का पुत्र मोह, कर्ण-अर्जुन प्रतिस्पर्धा आदि। संस्कृत की की सबसे प्राचीन पहली शताब्दी की एम.एस.स्पित्जर पाण्डुलिपि में भी महाभारत के 18 पर्वो की अनुक्रमणिका दी गयी है, जिससे यह पता चलता है कि इस काल तक महाभारत 18 पर्वो में प्रसिद्ध थी, यद्यपि 100 पर्वो की अनुक्रमणिका बहुत प्राचीन काल में प्रसिद्ध रही होगी, क्योंकि वेदव्यास जी ने महाभारत की रचना सर्वप्रथम 100 पर्वो में की थी, जिसे बाद में सूत जी ने 18 पर्वो के रूप में व्यवस्थित कर ऋषियों को सुनाया था।
4. पाँचवी शताब्दी - महाराजा शरवन्थ के 5वीं शताब्दी के तांबे की स्लेट पर पाये गये अभिलेख में महाभारत को एक लाख श्लोकों की संहिता बताया गया है।

पुरातत्व प्रमाण (1900 ई0पू0 से पहले)
1. सरस्वती नदी - प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी का महाभारत में कई बार वर्णन आता है, बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण, यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है। कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि वर्तमान सूखी हुई घग्गर-हकरा नदी ही प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी थी, जो 5000-3000 ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी और लगभग 1900 ईसा पूर्व में भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सूख गयी थी। ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई थी। उनकी सभ्यता में सरस्वती नदी ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं। भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सरस्वती नदी का पानी गंगा में चला गया, और कई विद्वान मानते हैं कि इसी कारण गंगा के पानी की महिमा हुई। इस घटना को बाद के वैदिक साहित्यों में वर्णित हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहाकर ले जाने से भी जोड़ा जाता है क्योंकि पुराणों में आता है कि परीक्षित की 28 पीढ़ीयों के बाद गंगा में बाढ़ आ जाने के कारण सम्पूर्ण हस्तिनापुर पानी में बह गया और बाद की पीढ़यों ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया। महाभारत में सरस्वती नदी के विनान्श्र नामक तीर्थ पर सूखने का सन्दर्भ आता है जिसके अनुसार मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने मलेच्छ (सिंध के पास) प्रदेशों में जाना बंद कर दिया।
2. द्वारका - भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे 4000-3500 वर्ष पुराने शहर खोज निकाले हैं। इनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भो से जोड़ा गया है। प्रो.एस.आर.राव ने कई तर्क देकर इस नगरी को द्वारका सिद्ध किया है। यद्यपि अभी मतभेद जारी है क्योंकि गुजरात के पश्चिमी तट पर कई अन्य 7500 वर्ष पुराने शहर भी मिल चुके हैं।
महाभारत में भारत के अतिरिक्त विश्व के कई अन्य भौगोलिक स्थानों का सन्दर्भ भी आता है जैसे चीन का गोबी मरूस्थल, मिस्र की नील नदी, लाल सागर तथा इसके अतिरिक्त महाभारत के भीष्म पर्व के जम्बूखण्ड-विनिर्माण पर्व में सम्पूर्ण पृथ्वी का मानचित्र भी बताया गया है, जो निम्नलिखित है- ”हे कुरूनन्दन! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरूष दर्पण में अपना मुख देखता है उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो में पिप्पल और दो अंशों में महान शश (खरगोश) दिखायी देता है।“ अब यदि इस संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र से बहुत समानता दिखाता है।
भारतीय विद्वान पी.वी.वारटक महाभारत में वर्णित ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे 16 अक्टुबर, 5561 ई0पू0 में आरम्भ हुआ मानते हैं। उनके अनुसार यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक ”इण्डिका“ में अपनी भारत यात्रा के समय जमुना (यमुना) के तट पर बसे मेथोरा (मथुरा) राज्य में शूरसेनियों से भेंट का वर्णन किया था। मेगस्थनीज ने यह बताया था कि ये शूरसेनी किसी हेराकल्स नामक देवता की पूजा करते थे और ये हेराकल्स काफी चमत्कारी पुरूष होता था तथा चन्द्रगुप्त से 138 पीढ़ी पहले था। हेराकल्स ने कई विवाह किए और कई पुत्र उत्पन्न किये परन्तु उसके सभी पुत्र आपस में युद्ध करके मारे गये। यहाँ ये स्पष्ट है कि ये हेराकल्स, श्रीकृष्ण ही थे, विद्वान इन्हें हरिकृष्ण कह कर श्रीकृष्ण से जोड़ते हैं क्योंकि श्रीकृष्ण चन्द्रगुप्त से 138 पीढ़ी पहले थे तो यदि एक पीढ़ी को 20-30 वर्ष दे ंतो 5600-3100 ई0पू0 श्रीकृष्ण का जन्म समय निकलता है। अतः इस आधार पर महाभारत का युद्ध 5600-3100 ई0पू0 के समय हुआ होगा।
इन सम्पूर्ण तथ्यों से यह माना जा सकता हे कि महाभारत 3000 ईसा पूर्व या निश्चित तौर पर 1900-1000 ईसा पूर्व रची गयी होगी, जो महाभारत में वर्णित ज्योतिषिय तिथियों, भाषाई विश्लेषण, विदेशी सूत्रों एवं पुरातत्व प्रमाणों से मेल खाती है। परन्तु आधुनिक संस्करण की रचना 600-200 ईसा पूर्व हुई होगी। अधिकतर अन्य वैदिक साहित्यों के समान ही यह महाकाव्य भी पहले वाचिक परम्परा द्वारा हम तक पीढ़ी दर पीढ़ी पहुँचा और बाद में छपाई की कला के विकसित होने से पहले ही इसके बहुत से अन्य भौगोलिक संस्करण भी हो गये, जिनमें बहुत सी ऐसी घटनायें हैं जो मूल कथा में नहीं दिखती या फिर किसी अन्य रूप में दिखती है।
महाभारत चन्द्रवंशियों के दो परिवारों कौरव और पाण्डव के बीच हुए यु़द्ध का वृतांत है। 100 कौरव भाइयों और पाँच पाण्डव भाइयों के बीच भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अंततः महाभारत युद्ध का सृजन हुआ। महाभारत की कथा कुरूवंश की उत्पत्ति और पाण्डु का राज्य अभिषेक, पाण्डवों का जन्म तथा लाक्षागृह शडयंत्र, द्रौपदी स्वयंवर, इन्द्रप्रस्थ की स्थापना, द्रौपदी का अपमान और पाण्डवों का वनवास, शान्तिदूत श्रीकृष्ण, युद्ध आरम्भ तथा गीता उपदेश, भीष्म और द्रोण वध, कर्ण और शल्य वध, दुर्योधन वध और महाभारत युद्ध की समाप्ति, यदुकुल का संहार और पाण्डवों का महाप्रस्थान के क्रम में चलती है। जिसमें निम्नलिखित मुख्य पात्र होते हैं-
1.अभिमन्यु- अर्जुन के वीर पुत्र जो कुरूक्षेत्र युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुये।
2.अम्बा - शिखन्डी पूर्वजन्म में अम्बा नामक काशी का राजकुमारी था।
3.अम्बिका - विचित्रवीय्र्र की पत्नी, अम्बा और अम्बालिका की बहन।
4.अम्बालिका - विचित्रवीय्र्र की पत्नी, अम्बा और अम्बिका की बहन।
5.अर्जुन - देवराज इन्द्र द्वारा कुन्ती एवं पाण्डु का पुत्र। एक अतुलनिय धनुर्धर जिसको श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश दिया था।
6.वभ्रुवाहन - अर्जुन व चित्रांग्दा का पुत्र।
7.बकासुर - महाभारत काव्य में एक असुर जिसको भीम ने मार कर एक गाँव के वासियों की रक्षा की थी।
8.भीष्म - भीष्म का नामकरण, देवव्रत के नाम से हुआ था। वे शान्तनु एवं गंगा के पुत्र थे। जब देवव्रत ने अपने पिता की प्रसन्नता के लिए आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया, तब से उनका नाम भीष्म हो गया।
9.द्रौपदी - द्रुपद की पुत्री जो अग्नि से प्रकट हुई थी। द्रौपदी पाँचों पाण्डवों की अर्धांगिनी थी और उसे आज प्राचीनतम् नारीवादिनीयों में एक माना जाता है।
10.द्रोण - हस्तिनापुर के राजकुमारों को शस्त्र विद्या देने वाले ब्राह्मण गुरू व अश्वथामा के पिता। ये विश्व के प्रथम ”टेस्ट-ट्यूब बेबी“ थे। द्रोण एक प्रकार का पात्र होता है।
11.द्रुपद - पांचाल के राजा और द्रौपदी एवं धृष्टद्युम्न के पिता। द्रुपद और द्रोण बाल्यकाल के मित्र थे।
12.दुर्योधन - कौरवों में ज्येष्ठ। धृतराष्ट्र एवं गांधारी के 100 पुत्रों में सबसे बड़े।
13.दुःशासन - दुर्योधन से छोटा, भाई जो द्रौपदी को हस्तिनापुर राज्यसभा में बालों से पकड़कर लाया था। कुरूक्षेत्र युद्ध में भीम ने दुःशासन की छाती का रक्त पिया था।
14.एकलव्य - द्रोण का एक महान शिष्य जिससे गुरूदक्षिणा में द्रोण ने उसका अंगूठा माँगा था।
15.गंाडीव - अर्जुन का धनुष। जो कई मान्यताओं के अनुसार उनको अग्नि देव ने दिया था।
16.गंधारी - गंधार के राजा की पुत्री और धृतराष्ट्र की पत्नी।
17.जयद्रथ - सिन्धु के राजा और धृतराष्ट्र के दामाद। कुरूक्षेत्र युद्ध में अर्जुन ने जयद्रथ का शीश काटकर वध किया था।
18.कर्ण - सूर्यदेव एवं कुन्ती के पुत्र और पाण्डवों के सबसे बड़े भाई। कर्ण दानवीर कर्ण के नाम से भी जाना जाता है। कर्ण, कवच और कुण्डल पहने हुए पैदा हुए थे और उनका दान इंद्र को किया था।
19.कृपाचार्य - हस्तिनापुर के ब्राह्मण गुरू। इनकी बहन कृपि का विवाह द्रोण से हुआ था।
20.कृष्ण - देवकी की आठवीं सन्तान जिसने अपने मामा कंस का वध किया था। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कुरूक्षेत्र युद्ध के प्रारम्भ में गीता उपदेश दिया था। श्रीकृष्ण, भगवान विष्णु के आठवें अवतार थे।
21.कुरूक्षेत्र - वह क्षेत्र जहाँ महाभारत का महान युद्ध हुआ था। यह क्षेत्र भारत के हरियाणा में स्थित है।
22.पाण्डव - पाण्डु की कुन्ती और माद्री से सन्ताने। यह पाँच भाई थे- युद्धिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव।
23.परशुराम - अर्थात परशु वाले राम। वे द्रोण, भीष्म और कर्ण जैसे महारथियों के गुरू थे। वे भगवान विष्णु के छठवें अवतार थे।
24.शल्य - नकुल और सहदेव की माता माद्री के भाई।
25.उत्तरा - राजा विराट की पुत्री। अभिमन्यु की धर्मपत्नी।
26.महर्षि व्यास - महाभारत महाकाव्य के लेखक। पराशर और सत्यवती के पुत्र। इन्हें कृष्ण द्वैपायन के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि वे कृष्णवर्ण के थे तथा उनका जन्म एक द्वीप में हुआ था।

गीता दर्शन
गीता को हिन्दुओं का पवित्रतम ग्रन्थ माना जाता है। यह धार्मिक के साथ-साथ दार्शनिक विचारों से भी परिपूर्ण है। वास्तव में गीता समस्त भारतीय दर्शनों का निचोड़ है। इसमें ईश्वर, आत्मा, तत्व विचार, नैतिक नियम, ब्रह्म-विद्या तथा योगशास्त्र सभी के विषय में मत पाये जाते हैं। इसे उपनिषदों का सार कहा जाता है। श्री अरविन्द गीता को ”भारतीय आध्यात्मिकता का सुमधुर फल“ कहते हैं। युद्धभूमि में अर्जुन को उसके कत्र्तव्य का बोध कराने के उद्देश्य से भगवान श्री कृष्ण द्वारा दिये गये उपदेश ही गीता के रूप में हमारे सामने उपलब्ध है इसलिए इसे ईश्वर की वाणी कहा जाता है। गाँाधी जी गीता को ”प्रेरणा“ कर स्रोत मानते हैं।
गीता भारतीय दर्शन की क्लिष्टता और भ्रमोत्पादक स्थिति को समाप्त कर अत्यंन्त सरल, स्पष्ट और प्रभावोत्पादक शैली में समस्त सिद्धान्तों को प्रस्तुत करती है। यह विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों की विचारधाराओं में समन्वय स्थापित करती है।
1. योग- गीता में योग शब्द का अर्थ आत्मा का परमात्मा से मिलन है। योग पर विशेष बल देने के कारण गीता को योग शास्त्र कहा गया है। मन के तीन अंग- ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक, के अनुरूप गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग का समन्वय मिलता है। भारतीय दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों ने इन तीनों में से किसी एक योग मार्ग को मोक्ष का मार्ग माना है परन्तु गीता इन तीनों को समन्वित करके मोक्ष का मार्ग दर्शाती है। एक ओर वह आध्यात्मिक ज्ञान अर्थात ज्ञान योग के द्वारा अज्ञानता को समाप्त करके मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करती है, वहीं दूसरी ओर ईश्वर के प्रति प्रेम, आत्मसमर्पण को नम्रता और भक्ति के द्वारा भी मोक्ष प्राप्ति को सम्भव मानती है। निष्काम भाव से भक्ति करने पर ही भक्त को ईश्वर के साथ साक्षात्कार करने का मौका मिलता है। इन दोनों मार्गो के अलावा गीता कर्मयोग का वर्णन करती है। वास्तव में कर्मयोग ही गीता का मुख्य उपदेश है।
2. ईश्वर- गीता में ईश्वर को परमसत्य, अनन्त, ज्ञान स्वरूप, शाश्वत और ब्रह्म से भी ऊँचा माना गया है। वहीं विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है। वही कर्मफलदाता है। गीता में ईश्वर को पुरूषोत्तम, परमात्मा और परमब्रह्म कहा गया है। गीता में ईश्वर के विषय में सर्वेश्वरवाद, ईश्वरवाद तथा निमित्तोपादानेश्वरवाद तीनों के उदाहरण मिलते हैं।
3. जीवात्मा- गीता में जीवात्मा को ईश्वर का एक अंश कहा गया है। वह कत्र्ता है। वह शरीरधारी आत्मा है। वह अमर है। वह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। उसे न शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है, न पानी भिगा या गला सकता है, न ही वायु सुखा सकती है। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार देही अर्थात् शरीर का स्वामी आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नये शरीर को धारण कर लेती है।
4. मोक्ष- गीता में मोक्ष को चरम लक्ष्य माना गया है। यह आत्मा के परमात्मा से संयुक्त होने का नाम है। मोक्ष को निस्त्रैगुण्य कहा गया है, क्योंकि मोक्ष की अवस्था में तीनो गुण अर्थात सत्व, रजस् और तमस् का अभाव रहता है। मोक्ष की प्राप्ति एक जीवन के कर्मो से नहीं बल्कि अनेक जीवन के कर्मों के सम्मिलित प्रभाव से होती है। मोक्ष की प्राप्ति के पूर्व जीवात्मा को जन्म-जन्मान्तर में भटकना पड़ता है। गीता में मोक्ष की प्राप्ति के लिए इन्द्रियों पर नियंत्रण करने पर बल दिया गया है। इसके लिए ज्ञान, कर्म और भक्ति, में से कोई भी मार्ग अपनाया जा सकता है।

धर्म संस्थापक का परिचय 
कहा गया है कि अन्य अवतार तो भगवान के कलावतार है, पर श्रीकृष्ण भगवान के पूर्णावतार है-”एते चांषकला पंुसः कृष्णस्तु भगवान स्वयम्।“ वे सभी अवतारों मंे सब से अधिक लोकप्रिय हैं तथा लोगों की श्रद्धा को सब से अधिक आकर्षित करते है। ऐसा कोई हिन्दू न होगा जो उनका नाम न जानता हो। श्रीकृष्ण वृष्णि कुल मंे वसुदेव और देवकी के पुत्र के रूप में पैदा हुए थे। उनकी नसों मंे राजवंश का रक्त प्रवाहित हो रहा था। देवकी कंस की बहिन थी। कंस निर्दयता और दुष्टता का जीता जागता विग्रह था। जब वह रथ में अपनी सद्यः परिणीता बहिन और उसके पति को बिठाकर ले जा रहा था। तो उसने एक वाणी सुनी, ”अरे मूर्ख इस दम्पति की आठवीं सन्तान तेरे लिए काल बनेगी।“ बस, त्यांेही वह अपनी बहिन को मारने के लिए झपट पड़ा पर वसुदेव ने उसे यह कहकर समझा बुझाकर शान्त किया कि वे अपनी सभी सन्तानों को जैसे-जैसे उनका जन्म होगा, कंस को लाकर सौप देंगे। श्रीकृष्ण के जन्म के ठीक पूर्व वसुदेव और देवकी को कैद कर लिया गया और उन्हंे बेड़ियांे मंे अच्छी तरह जकड़ लिया गया। मुक्तिदाता भगवान का जन्म मथुरा के कारागार में हुआ। भगवान विष्णु ही धरती को अधर्म और पाप के भार से मुक्त करने के लिए तथा साधको को प्रकाश और मार्गदर्शन देने के लिए अवतीर्ण हुए। उनकी दैवी माया से प्रहरी निद्राग्रस्त हो गये, वसुदेव की बेड़ियाँ खुल गयी और फाटक खुल गये तथा शिशु को यमुना के दूसरी ओर गोकुल मंे नन्द के यहाँ सुरक्षित रूप से पहँुचा दिया गया और उसके बदले उनकी नवजात कन्या को ले आया गया। ज्यांेही अत्याचारी कंस को देवकी की सन्तान के जन्म की खबर मिली त्योंही वह अपने भावी वधकर्ता को अपने हाथों से मार डालने के लिए कारागार की ओर लपका पर उसे यह देखकर अत्यंत आश्चर्य हुआ कि शिशु तो एक कन्या है। तथापि भविष्यवाणी की स्मरण कर उसने कन्या को हाथ मंे लेकर ज्योहीं मारना चाहा, वह उसके हाथ से छूटकर उपर आकाश मंे चली गयी और बोली ”जो तुझे मारेगा, वह तो गोकुल में पल रहा है।“ यह सुनकर कंस आपे से बाहर हो गया और उसने आदेश निकाली कि मथुरा और उसके आसपास के क्षेत्रांे के सभी शिशुआंे की हत्या कर दी जाए। पर जिनका जन्म अधर्म का नाश कर धर्म के संस्थापन के लिए हुआ था। वे सुरक्षित रहे और उन्होंने कंस के उन्हंे मारने के सारे प्रयासांे को विफल कर दिया। अन्त में दुराचार और पाप की प्रतिमूर्ति कंस, कृष्ण के द्वारा मारा गया और कंस के पिता उग्रसेन राजसिंहासन पर बैठे। कृष्ण का शैशव चमत्कारों से भरा था। सामान्य जन के लिए तो वे अत्यन्त रहस्यमय थे, पर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के लिए तो वह सब खेल था। एक दिन श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में कुछ मिट्टी खा ली। धात्री माता यशोदा ने मिट्टी निकालने के लिए उनका मुँह खुलवाया और उन्हांेने अत्यंत विस्मयविमूढ़ होकर देखा कि सारा ब्रह्माण्ड वहाँ विद्यमान है। वे इस अद्भुत दृश्य से आश्चर्य विजड़ित ही थीं कि कृष्ण हँसे और उन्हांेने अपना सहज रूप धारण कर लिया। कृष्ण मथुरा से कुछ मील दूर स्थित वृन्दावन मंे चले आये जहाँ गोप-गोपियाँ उनके सहचर थे। गोपियांे में मुख्य श्रीराधा थी। कृष्ण के प्रेम में राधा अपनी सुध-बुध बिसार बैठी। ”हिन्दूआंे के लिए राधा का तीव्र अनुराग अवर्णनीय दैवी सत्ता के प्रति मानवात्मा के उत्कट प्रेम का आदर्श है।“ कुछ वर्षाे के बाद कृष्ण ने एक नये युगकार्य के आह्वान का अनुभव किया और वे गुजरात के समुद्रतटीय नगर द्वारका में चले आये। उन्हांेने अपने नवगठित राज्य का शासन अपने सम्बंधी वृष्णिआंे को सौप दिया यद्यपि वे स्वयं एक महान योद्धा, बुद्धिमान, कुटनीतिज्ञ और विवेकवान राजनीतिज्ञ थे, किन्तु उन्हांेने कभी भी सिंहासन ग्रहण नहीं किया। उन्हांेने अनेक राज्यों को जीता पर उन्हांेने दूसरो को दे दिया यद्यपि वे प्रायः अत्यंत कर्मसंकुलता के मध्य देखे जाते थे, तथापि वे सदैव प्रशान्त और अविचलित रहे। यद्यपि वे सदैव कर्मरत रहे पर वे सदा पूर्ण रूप से अनासक्त ही बने रहे। कुरूक्षेत्र के महान धर्मयुद्ध के सद्य पूर्व जब अर्जुन ने अपने अग्रजांे और आत्मीय स्वजनो को मरने मारने के लिए तत्पर देखा, तब वे प्रगाढ़ विषाद से भर गये तथा मोहित होकर विलाप करने लगे। अर्जुन की इस नपुंसकता और मोह को दूर करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने युद्धक्षेत्र में अर्जुन को शान्त और आनन्द के अक्षय स्त्रोत महान गीता का उपदेश दिया। गीता मंे सात सौ श्लोक अठ्ठारह अध्यायांे मंे विन्यस्त है। युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करने के उपरान्त श्रीकृष्ण वापस द्वारका लौटे। वहाँ कुछ समय के बाद वृष्णिवंशियो के बीच गृह युद्ध छिड़ गया वे एक दूसरे पर टूट पड़े और नष्ट हो गये। इन घटनाओं को अनिवार्य विधिविधान मानकर श्रीकृष्ण ने अनासक्त रूप से उनका अवलोकन किया। अपने लीलासंवरण का समय आसन्न जानकर उन्हांेने अपने मन और इन्द्रियो को योग में निमज्जित किया तथा वे एक वृक्ष के नीचे धरती पर लेट गये। कुछ दूर से एक व्याध ने भ्रम से उनके पाटलाभ चरणों को झुका हिरण समझकर उसकी ओर तीर का सन्धान किया, जिसने भगवान के चरणो को बीध डाला। समीप आने पर व्याध को अपनी भयंकर त्रुटि का भान हुआ और वह शोक से भर उठा किन्तु भगवान ने उसे मुस्कराते हुए आशीर्वाद प्रदान किया तथा इसके बाद ही उन्हांेने अपनी देह का परित्याग कर दिया। इस प्रकार समस्त अवतारांे मंे महान श्रीकृष्ण ने पापांे के विनाश और धर्म की संस्थापना के अपने महान एवं दैवी युगकार्य को पूर्ण कर अपने नाशवान शरीर का परित्याग किया। यद्यपि सहस्त्रांे वर्ष व्यतीत हो चुके है पर भगवान श्रीकृष्ण की स्मृति आज भी कोटि-कोटि भक्तांे के हृदयांे में चिरनवीन बनी हुई है। वे समस्त अन्धकार का विनाश करें तथा सब पर अपने शुभ आशीर्वाद का वर्षण करे!

भगवान श्रीकृष्ण की वाणी
निःसंदेह इस संसार मंे ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है। योग के द्वारा शुद्धान्तकरणः हुआ पुरूष उस ज्ञान के कालक्रम मंे स्वयं अपनी आत्मा में अनुभव करता है। श्रद्धावान् और जितेन्द्रिय पुरूष ज्ञान की प्राप्ति करता है। तथा ज्ञान प्राप्त करके वह तत्क्षण परम शान्ति की उपलब्धि करता है। किन्तु अज्ञानी, श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरूष विनष्ट हो जाता है। संशययुक्त पुरूष के लिए न तो यह संसार है, न परलोक और न सुख ही। जिनकी बुद्धि तद्रूप है, मन तद्रूप है। जो उस सच्चिदानन्द परमात्मा में निरन्तर एकनिष्ठ है, ऐसे तत्परायण पुरूष ज्ञान के द्वारा पापरहित होकर उस परम गति को प्राप्ति करते हैं। जहाँ से पुनरावृत्ति पुनर्जन्म नहीं आती। हे भारत तू सभी क्षेत्रो (शरीरों)े मंे मुझे ही क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) जान। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ (विकार सहित प्रकृति और पुरूष) का ज्ञान ही मेरे विचार से तत्वज्ञान है। इन्द्रियभोग्य पदार्थाे से अनासक्ति, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि में दुःख और दोष का दर्शन ये सब ज्ञानी व्यक्ति के सद्गुण हैै। पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव और ममता का न होना तथा प्रिय-अप्रिय की प्राप्ति में चित्त का सदैव सम रहना ये सब ज्ञान कहे जाते है। मुझ परमेश्वर में अनन्य भाव से अव्यभिचारिणी भक्ति, एकान्त और शुद्ध स्थान मंे रहने का स्वभाव, जनसमुदाय से विरति, आध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिति, तत्वज्ञान के उददेश्य रूप परमात्मा का सर्वत्र दर्शन, इन सब को ज्ञान कहा गया है तथा जो इससे विपरीत है उसे अज्ञान। यह (आत्मा) न तो किसी काल मंे जन्म लेता है, न मरता है, न ही यह एक बार होकर फिर अस्तित्वहीन होने वाला है। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है तथा शरीर का नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। इस आत्मा को अव्यक्त अचिन्त्य और अविकारी कहा जाता है। इसलिए इस आत्मा को ऐसा जानकर तुझे शोक करना उचित नहीं है। परमात्मा को कितने ही मनुष्य ध्यान के सहारे आत्मा के द्वारा आत्मा मंे देखते है। कुछ ज्ञान के सहारे, कुछ योग के सहारे और कुछ कर्मयोग के सहारे देखते है क्यांेकि वह सब में समभाव मंे स्थित परमेश्वर को समान रूप से देखता हुआ आत्मा को आत्मा के द्वारा नष्ट नहीं करता है, इसलिए वह परमगति को प्राप्त करता है। सर्वोपरि आत्मा और परमात्मा की एकता पर सच्चिदानन्द पर, एकमात्र मुझ पर ध्यान कर। परन्तु आत्म संयमवान पुरूष राग-द्वेष से रहित होकर अपने वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा विषयांे को भोगते हुए अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त करता है। जिस योगी की आत्मा ज्ञान और साक्षात्कार के द्वारा सन्तुष्ट है, जो स्थिर तथा जिसकी इन्द्रियाँ उसके वश मंे है और जो मिट्टी, पत्थर तथा स्वर्ण को समान मानता है, उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। जिस पुरूष की इन्द्रियाँ पूर्णतः उसके वश मंे होती है। उसकी बुद्धि स्थिर होती है। जो सम्पूर्ण प्राणियो के लिए रात्रि है, उसमे योगी पुरूष जागता है। और जिसमें सभी प्राणी जागते है, वह तत्वदर्शी मुनि के लिए रात्रि है। हे उद्धव, न तो युग, न ज्ञान, न दया, न अध्ययन, न तप, न वैराग्य मुझे उतना आकृष्ट करते हंै, जितना मेरे प्रति उत्कृष्ट भक्ति। मनुष्य न तो कर्माे को न करने से निष्कर्मता को प्राप्त होता है, और न मात्र सन्यास से ही उसे सिद्धि की उपलब्धि होती है। क्यांेकि कोई भी व्यक्ति क्षण मात्र के लिए बिना कर्म किये नहीं रह सकता। प्रत्येक व्यक्ति प्रकृतिजात गुणांे के द्वारा अवश होकर कर्म करता है। कर्म को तू ब्रह्म (वेद) से उत्पन्न हुआ जान और ब्रह्म अविनाशी (परमात्मा) से उत्पन्न हुआ। परन्तु जो व्यक्ति आत्मा ही से रति करे, आत्मा में ही तृप्त हो और आत्मा मंे ही सन्तुष्ट है उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं रह जाता। यदि मंै कभी सावधान होकर कर्म करना त्याग दँू तो हे पार्थ मनुष्य सभी प्रकार से मेरे बर्ताव का अनुकरण करने लगेगंे क्योकि श्रेष्ठ पुरूष जैसा स्थापित करता है, लोग उसी के अनुसार आचरण करते है। सत्वगुण सुख की स्पृहा में बाँधता है तथा रजोगुण कर्म स्पृहा से जबकि तमोगुण ज्ञान को आवृत्त करके प्रमाद से बाँधता है। जिस काल में इस देह में समस्त इन्द्रिय द्वारो से ज्ञान का प्रकाश विकिरित होता है। उस काल मंे ऐसा जानना चाहिए कि सत्वगुण वर्धित हुआ है। हे भारतवर्ष जब रजोगुण बढ़ता है तब लोभ, प्रवृत्ति कर्माे का आरम्भ, अशान्ति और लालसाएँ उत्पन्न होती है। तमोगुण बढ़ने पर अंधकार, निष्क्रियता, प्रमाद और मोह, ये सब उत्पन्न होते है। दान देना कर्तव्य है ऐसे भाव से जो दान देश-काल और पात्र के अनुसार प्रत्युपकार न कर सकने वाले के लिए दिया जाता है। वह सात्विक कहा गया है पर जो दान प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को उददेश्य मंे रखकर अथवा क्लेषपूर्वक दिया जाता है, वह राजसिक कहा गया है। जो दान बिना आदर के और तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल मे कुपात्रो के लिए दिया जाता है, तामसिक कहा गया है। सत्य के अनेक पक्ष होते है अनन्त सत्य की अनन्त अभिव्यक्तियाँ है। यद्यपि ऋषि-मुनि भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्यान करते हैं, तथापि वे एक ही सत्य को प्रकट करते हंै। यदि तू परम कल्याण को पाना चाहता है। तो तुझमें मन की शान्ति होनी चाहिए अत्यन्त प्रतिकूलताओ मंे भी अपने चित्त समवृत्ति को बनाए रख। हे भारत जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है। तब तब मैं अपने आप को प्रकट करता हँू। साधु पुरूषांे का परित्राण करने के लिए तथा दूषित कर्म करने वालो का विनाश करने के लिए एवं धर्म की संस्थापना के लिए मैं युग-युग मंे प्रकट होता हूँ। हे पार्थ जो मुझे जैसे भजते है मै भी उन्हे वैसे ही भजता हूँ। मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग के अनुसार ही वर्तन करते है। जहाँ भी कोई भी वैभवपूर्ण सुन्दर या शक्तिसम्पूर्ण दिखे उसे मेरे तेज की एक चिनगारी से उत्पन्न जान। यदि तू सभी पापियो से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान की नौका के द्वारा समस्त पापो से तर जाएगा। जिसे प्राप्त करने के उपरान्त व्यक्ति सोचता है कि इससे बड़ा लाभ कोई नहीं है। तथा जिसमें प्रतिष्ठित होकर वह भारी दुःखो से भी विचलित नहीं होता, उस स्थिति को योग कहा जाता है। यह दुःखांे के सम्पर्क से अलगाव की स्थिति है। योगी, तपस्वियो से श्रेष्ठ है तथा वह ज्ञानियांे से भी श्रेष्ठ माना गया है। वह कर्म करने वालो से भी श्रेष्ठ है अतः हे अर्जुन तू योगी हो। कर्म की कुशलता ही योग है। अतः योग के लिए चेष्टा कर। जो पुरूष अनासक्त होकर कर्म करता हैै, जिसका मन शुद्ध है जिसका शरीर और इन्द्रिया वश में है। और जिसकी आत्मा सर्वात्मा बन गयी है। वह कर्म करता हुआ भी उसके प्रभाव से अछूता रहता है। ज्ञानयोगी जिस परमधाम को प्राप्त करते है। वही कर्मयोगियो के द्वारा भी प्राप्त किया जाता है। अतः जो पुरूष ज्ञानयोग और कर्मयोग को एक देखता है। वही वस्तुतः देखता है। जो आसक्ति से रहित और मुक्त जिसका मन ज्ञान में स्थित और जो कर्माे को यज्ञवत् करता है। उसके समस्त कर्म नष्ट हो जाते है। सत्व गुण सुख की स्पृहा से बाँधता है तथा राजोगुण कर्म की स्पृहा से जबकि तमोगुण ज्ञान को आवृत्ति करके प्रमाद से बाँधता है। आत्मा पर श्रद्धा सात्विक है कर्म पर श्रद्धा राजसिक है तथा निष्ठाहीनता पर श्रद्धा तामसिक है परन्तु मेरी सेवा मंे श्रद्धा रखना समस्त गुणांे से परे है। यह विश्व मुझसे ही निकला है तथा मंै समस्त प्राणियांे के हृदयांे मंे निवास करता हूूँ। हे परन्तप ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्तव्यों का निर्धारण उनके स्वभाव से उत्पन्न गुणों के आधार पर किया गया है।

भगवान श्रीकृष्ण के संबंध मंे स्वामी विवेकानन्द के उद्गार-
”भगवान कृष्ण विभिन्न रूपों में पूजे जाते हैं। तथा वे पुरूषो के साथ ही स्त्रियों के तथा बालकों के साथ ही बड़े लोगों के भी इष्टदेव है। वे एक साथ अत्यन्त विलक्षण संयासी और अत्यन्त विलक्षण गृहस्थी थे। उनमें रजोगुण अत्यन्त विलक्षण मात्रा में विद्यमान था और इसके साथ ही वे एक महान अद्भुत वैराग्य का जीवन व्यतीत कर रहे थे। जब तक तुमने गीता नही पढ़ी है, तब तक कृष्ण को कभी नहीं समझा जा सकता क्योंकि वे स्वयं अपने उपदेशों के विग्रह थे। श्रीकृष्ण की गरिमा यह है कि भारत की वसुन्धरा में जन्म लेने वाले हमारे सनातन धर्म के सर्वोत्कृष्ट उपदेशक तथा वेदान्त के अप्रतिम भाष्यकार रहे है। गीता में हम साम्प्रदायिक संघर्ष की दूर से आनेवाली ध्वनि सुनते है। और भगवान कृष्ण मध्य में उपस्थित होकर उन सब में समन्वय की स्थापना करते है। समन्वय के महान आचार्य भगवान श्रीकृष्ण कहते है - ”सब मुझमंे धागे में गुँथे मोतियों के समान पिरोये हुए हैं।“

श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में आचार्य रजनीश ”ओशो“ की सत्य दृष्टि-
1. कृष्ण का महत्व अतीत के लिए कम भविष्य के लिए ज्यादा है। सच ऐसा है कि कृष्ण अपने समय से कम से कम पाॅच हजाार वर्ष पहले पैदा हुये। सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय से पहले पैदा होते हैं और सभी गैर महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बाद पैदा होते हैं। बस महत्वपूर्ण और गैर महत्वपूर्ण में इतना फर्क है और सभी साधारण व्यक्ति अपने समय के साथ पैदा होते हैं महत्वपूर्ण व्यक्ति को समझना आसान नहीं होता । उसका वर्तमान और अतीत उसे समझने में असमर्थता अनुभव करता है जब हम समझने योग्य नहीं हो पाते तब हम उसकी पूजा शुरु कर देते हैं या तो हम उसका विरोध करते हैं। दोनों पूजाएं हैं एक मित्र की एक शत्रु की।“ (साभार ”ओशो वल्र्ड“ अगस्त, 2001) 
2. राम कितने ही बड़े हों, लेकिन इस मुल्क के चित्त में वे पूर्ण अवतार की तरह नहीं हैं, अंश हैं उनका अवतार। उपनिषद् के ऋषि कितने ही बड़े ज्ञानी हों, लेकिन अवतार नहीं हैं। कृष्ण पूर्ण अवतार हैं। परमात्मा अगर पृथ्वी पर पूरा उतरे तो करीब-करीब कृष्ण जैसा होगा। इसलिए श्रीकृष्ण इस मुल्क के अधिकतम मन को छु पाये हैं; बहुत कारणों से। एक तो पूर्ण अवतार का अर्थ होता है, मल्टी-डाइमेन्सनल; जो मनुष्य के समस्त व्यक्तित्व को स्पर्श करता हो। राम वन-डाइमेन्सनल है। अब तक कृष्ण को पूरा प्रेम करने वाला आदमी नहीं हुआ। क्योंकि पूरे कृष्ण को प्रेम करना तभी सम्भव है, जब वह आदमी भी मल्टी-डाइमेन्सनल हो। हम आम तौर पर एक आयामी होते हैं। एक हमारा ट्रैक होता है व्यक्तित्व का, एक रेल की पटरी हीेती है, उस पटरी पर हम चलते है।“ (साभार- गीता दर्शन-भाग- 2, प्रवचन-5) 
3. कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत अनूठा है अनूठेपन की पहली बात तो यह है कि कृष्ण हुए तो अतीत में लेकिन हैं भविष्य के। मनुष्य अभी भी इस योग्य नहीं हो पाया है कि कृष्ण का सम-सामयिक बन सके। अभी भी कृष्ण मनुष्य के समझ से बाहर है। भविष्य में यह सम्भव हो पायेगा कि कृष्ण को हम समझ पाये। इसके कुछ कारण हैं। सबसे बड़ा कारण यह है कि कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों और उचाइयों पर होकर भी गम्भीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, रोते हुए नहीं हैं साधारण सन्त का लक्षण रोता हुआ होना है। जिन्दगी से उदास, हारा हुआ, भागा हुआ। कृष्ण अकेले ही इस समग्र जीवन को पूरा ही स्वीकार कर लेते हैं। जीवन की समग्रता की स्वीकृति उनके व्यक्तित्व में फलित हुई है। इसलिए इस देश में और सभी अवतारों को आंशिक अवतार कहा है। कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा गया है राम भी अंश ही हैं परमात्मा के, लेकिन कृष्ण पूरे परमात्मा हैं और यह कहने का, यह सोचने का, ऐसा समझने का कारण है। और वह कारण यह है कि कृष्ण ने सभी कुछ आत्मसात् कर लिया है। कृष्ण अकेले हैं तो शरीर को उसकी समस्त में स्वीकार कर लेते हैं, ‘टोटलिटी’ में। यह एक आयाम में नहीं सभी आयाम में सच है।“ (कृष्ण स्मृति, प्रवचन-1)
4. कृष्ण शान्तिवादी नहीं हैं, कृष्ण युद्धवादी नहीं है। असल में वाद का मतलब नहीं होता है कि दो में से हम एक चुनते है। एक अन्य वादी है। कृष्ण कहते हैं, शान्ति में शुभ फलित होता हो तो स्वागत है, युद्ध में शुभ फलित होता हो तो स्वागत है। कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर जरुरत है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए, शुभ को भी तलवार हाथ में लेने की हिम्मत चाहिए निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो नहीं सकता क्योकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। लेकिन अशुभ जीत न पाये इसलिए लड़ाई है तो धीरे-धीरे दो हिस्से दुनियां के बट जायेंगे, जल्दी ही जहाँ एक हिस्सा भौतिकवादी होगा और एक हिस्सा स्वतंत्रता, लोकतन्त्र, व्यक्ति और जीवन के और मूल्यों के लिए होगा। लेकिन क्या ऐसे दूसरे शुभ के वर्ग को कृष्ण मिल सकते है? मिल सकते हैं। क्योकि जब भी मनुष्य की स्थितियाँ इस जगह आ जाती है। जहाँ कि कुछ निर्णायक घटना घटने को होती है, तो हमारी स्थितियाँ उस चेतना को भी पुकार लेती हैं, उस चेतना को भी जन्म दे देती है वह व्यक्ति भी जन्म जाता है। इसलिए मैं कहता हूँ कि कृष्ण का भविष्य के लिए बहुत अर्थ है।“ (कृष्ण स्मृति, प्रवचन-1)
5. मेरे लिए सन्यास की कोई मर्यादा नहीं, कोई बन्धन नहीं मेरे लिए सन्यास का कोई नियम नहीं, कोई अनुशासन नहीं। मेरे लिए सन्यास कोई डिसिप्लिन नहीं है मेरे लिए सन्यास व्यक्ति के परम विवेक में स्वतन्त्रता की उद्भावना है उस व्यक्ति को मैं सन्यासी कहता हूँ जो परम स्वतन्त्रता में जीने का साहस करता है। न ही कोई बन्धन ओढ़ता है, न ही कोई व्यवस्था, न ही कोई अनुशासन ओढ़ता है। सन्यासी का मेरे लिए यहीं अर्थ है। जीवन की सघनता में खड़े होकर अगर कोई सन्यास के फूल खिलाना चाहता है तो एक ही अर्थ हो सकता है कि वह कर्ता न रह जाय, भोक्ता न रह जाय अभिनेता हो जाय, साक्षी हो जाय। देखें, करे लेकिन कहीं भी बहुत गहरे में बधे नहीं सन्यास सदा ही सावधिक है। आप कभी भी वापस लौट सकते है, कौन बाधा डालने वाला है? सन्यास आप ने लिया था सन्यास आप छोड़ दे। आप के अतिरिक्त इसमें और कोई निर्णायक नहीं है। कम से कम सन्यासी सिर्फ धर्म का होना चाहिए। वह जैन न हो, ईसाई न हो, हिन्दू न हो। वह तो सिर्फ धर्म का हो। साथ ही ध्यान रहे, अब तक सन्यास सदा ही गुरु से बधा रहा है- कोई गुरु दीक्षा देता है। सन्यास ऐसी चीज नहीं है जिसे कोई दे सके। सन्यास ऐसी चीज है जो लेनी पड़ती है, देता कोई नहीं या कहना चाहिए कि परमात्मा के सिवा कौन दे सकता है सन्यास?“ (नव सन्यास क्या है?)
6. रास का जो अर्थ है, वह सृष्टि की जो धारा है, उस धारा का ही गहरे- से -गहरा सूचक है। जीवन दो विरोधियों के बीच का खेल है। ये विरोधी लड़ भी सकते है, तब युद्ध हो जाता है। ये विरोधी मिल भी सकते है, तब प्रेम हो जाता है लेकिन लड़ना हो कि मिलना हो, दो की अनिवार्यता है। सृजन दो के बिना मुश्किल है। हम कृष्ण को गोपियों के साथ नाचते हुए देखते हैं। यह हमारी स्थूल आँखे जो देख सकती है, उतना ही दिखाई पड़ रहा है लेकिन कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना साधारण नृत्य नहीं है। कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना उस विराट रास का छोटा सा नाटक है जो समस्त में चल रहा है। नृत्य उसकी एक बहुत छोटी सी झलक है। उस रास का कोई कामुक अर्थ नहीं रह गया। कृष्ण, कृष्ण की तरह वहाँ नहीं नाचते कृष्ण वहाँ पुरुष तत्व की तरह नाचते है। गोपिकाएं स्त्रियों की तरह वहाँ नाचती है, गहरे में वे प्रकृति ही हो जाती हैं। प्रकृति और पुरुष का नृत्य है वह। वहाँ व्यक्तियों से कोई लेना-देना नहीं है। ‘इन्डिविजुअल’ का कोई मतलब नहीं है, इसलिए यह भी सम्भव हो पाया कि एक कृष्ण बहुत गोपियों के साथ नाच सका। अन्यथा एक व्यक्ति बहुत स्त्रियों के साथ नाच नहीं सकता हैै। एक व्यक्ति बहुत स्त्रियों के साथ प्रेम का खेल नहीं खेल सकता है। और प्रत्येक गोपी को ऐसा दिखाई पड़ सका कि कृष्ण उसके साथ भी नाच रहा है। निश्चित ही-इसे हम व्यक्तिवाची मानेंगे तो कठिनाई में पड़ेंगे। विराट प्रकृति और विराट पुरुष के सम्मिलन का वह नृत्य निकटतम है। अद्वैत के नृत्य निकटतम है उत्सव के। नृत्य निकटतम है रहस्य के यह जो नृत्य चल रहा है चाँद के नीचे, आकाश के नीचे, इस नृत्य को साधारण नृत्य मैं नहीं कहता हूँ इसलिए यह किसी के मनोरंजन के लिए नहीं हो रहा है, किसी को दिखाने के लिए नहीं हो रहा है। कहना चाहिए एक अर्थों में ‘ओवर फ्लोइंग’ है इतना आनन्द भीतर भरा है कि वह सब तरफ बह रहा है।“ (कृष्ण स्मृति, प्रवचन- 9)
7. जिसने बिना धैर्य के ध्यान किया, वह राजसी है जिसने बिना ध्यान के धैर्य रखा वह तामसी है और जिसने धैर्य और ध्यान का सन्तुलन बना लिया, वह सात्विक है। तब तुम्हें कृष्ण का सुख समझ में आ जायेगा की वह सत्व का क्या अर्थ है। धैर्य ऐसा, जैसे आलसी पुरुषों में होता है उन्हें कुछ पाने की जल्दी नहीं होती। पाने का ख्याल ही नहीं होता, कोई दौड़ ही नहीं होती। वे बैठे हैं, मिट्टी के ढेर है, कोई जीवन नहीं है, कोई उर्जा नहीं है, कोई गति नहीं है। फिर राजसी पुरुष है उनमें दौड़ तो बहुत होती है, रुकने की क्षमता नहीं होती, ठहर नहीं सकते, प्रतीक्षा नहीं कर सकते, भाग सकते हैं जब कभी राजसी व्यक्ति जैसी उर्जा और आलसी जैसा धैर्य होता है तब ध्यान और धैर्य का संगम होता है। तब सोने में सुगन्ध आ जाती है तब सत्व का जन्म है। जीवन एक कला है वहाँ विपरीत को मिलाने की क्षमता होनी चाहिए।“ (गीता दर्शन, अध्याय- 18)
8. अघोर का अर्थ होता है- सरल। किसी को ”घोरी“ कहो तो गाली हो सकती है घोर का अर्थ है- जटिल। अघोर का अर्थ होता है- सरल, बच्चे जैसा निर्दोष। अघोर तो सिर्फ थोड़े से बुद्धांे के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। गौतम बुद्ध-अघोरी, कृष्ण-अघोरी, क्राइस्ट-अघोरी, लोओत्सु-अघोरी। गोरख-अघोरी। सरल निर्दोष, सीधे-साधे। इतने सरल कि गणित जीवन में है ही नहीं। हिसाब किताब लगाने का भाव ही चला गया है।
9. कृष्ण वाममार्गी है। तुम बुद्ध से ज्यादा प्रभावित हो जाते है क्योंकि वह राजमहल छोड़कर जाते है। तुम कृष्ण की अगर प्रशंसा भी करते हो तो थोड़े दबे-दबे कंठ से, थोड़े डरे-डरे, थोड़े भयभीत। अगर लोग कृष्ण की प्रशंसा भी करते है तो गीता वाले कृष्ण की करते है। पूरे कृष्ण को स्वीकार करने की हिम्मत बहुत कम लोगों की है। क्योंकि कृष्ण तो तुम्हारे जैसे मालूम पड़ते है बल्कि तुमसे भी आगे बढ़े हुये। तुम्हारा कृष्ण का स्वीकार अधूरा है। तुम कृष्ण में से बहुत सी बातें काट छांट कर डालना चाहोगे। तुम कृष्ण में संशोधन करने को सदा तत्पर हो। कृष्ण को लोग अपने-अपने हिसाब से मानते है। जितना मान सकते है उतना मान लेते है। बाकी छोड़ देते है। कृष्ण को पहचानने के लिए बड़ी गहरी आँखें चाहिए। कृष्ण को पहचानने के लिए जब तक भीतर की आँख न खुली हो, तब तक पहचानना मुश्किल है। क्योंकि वे वहीं खड़े है, भेद तो कुछ भी नहीं। उपर से भेद नहीं है भीतर से भेद है। तो जब तक भीतर देखने की क्षमता न हो, तब तक तुम कृष्ण को न समझ पाओंगे।
10. उसके लिए सब हंसी खेल है, सब लीला है। इसलिए हमने कृष्ण को पूर्णावतार कहा। राम गम्भीर हैं छोटी-छोटी बात का हिसाब रखते है। नियम मर्यादा से चलते है- मर्यादा पुरूषोत्तम है। कृष्ण अमर्याद है न कोई नियम है न कोई मर्यादा। कृष्ण के लिए जीवन लीला है।



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