पुनर्जन्म और अवतार
(स्थूल एवम् सूक्ष्म अन्तिम सत्य दृष्टि)
भारतीय दर्शन का मूल आधार कपिल मुनि का क्रिया-कारण सिद्धान्त जो आज तक ब्रह्माण्डीय या सार्वजनिक रूप से विवादमुक्त सार्वजनिक प्रमाणित रहा और वह कभी भी विवादग्रस्त हो भी सकता क्योंकि वर्तमान का दृश्य पदार्थ विज्ञान भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में झांककर यह देख चुका है कि कहीं भी कुछ भी स्थिर नहीं हैं। अर्थात वह क्रिया के अधीन है और जो कारण है वह ही स्थिर है। भारतीय चिन्तन में इसी कारण को आत्मा-शिव-ईश्वर-ब्रह्म कहा गया है। जो क्रिया में भी है लेकिन ऐसा है कि नहीं है। जैसे सूर्यास्त के उपरान्त हम यह कह सकते हैं कि सूर्य नहीं है परन्तु वह है। इसके लिए वाह्य नेत्र नहीं, अन्तः नेत्र की आवश्यकता पड़ जाती है। भारतीय चिन्तकों ने इस क्रिया को भी दो रूपों में देखा था-अदृश्य रूप एवम् दृश्य रूप। जो प्रत्येक विषय के साथ है और दोनों रूप देश-काल बद्ध सत्य है। जीव के लिए यह स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर है। मानव जीव के लिए जो कारण यथार्थ आत्मा से युक्त अर्थात मन से मुक्त अर्थात इन्द्रिय इच्छाओं से मुक्त स्थूल एवम् सूक्ष्म शरीर है। वह दैवी या शिव मानव स्थूल एवम् सूक्ष्म शरीर है जिसे मानव जीवन में आध्यत्मिकता युक्त दैवी भौतिक शरीर कहते है। तथा जो कारण अर्थात् आत्मा से मुक्त अर्थात् मन से बद्ध अर्थात् इन्द्रिय इच्छाओं से बद्ध स्थूल एवम् सूक्ष्म शरीर हैं, वह जीव मानव स्थूल एवम् सूक्ष्म शरीर हैं। जिसे मानव जीवन में भौतिकता युक्त असुरी शरीर कहते है। प्रत्येक सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर त्याग के बाद सूक्ष्म शरीर अवस्था में रहता है। पुनः प्रत्येक सूक्ष्म शरीर अपने उद्देश्य अर्थात् स्थूल शरीर त्याग के अन्तिम समय में मूल इच्छा की पूर्णता हेतू उचित वातावरण के मिलने पर स्थूल शरीर ग्रहण कर पुनः अपनी चेतना शक्ति से दैवी शरीर, जीव मानव या निम्न जीव शरीर की प्राप्ति के लिए कर्म करने के लिए स्वतन्त्र हो जाता है। एक ही उद्देश्य के अनेक सूक्ष्म शरीरों का एकीकरण और एक ही सूक्ष्म शरीर का अपने उद्देश्य के प्राप्ति हेतु अनेक स्थूल शरीरों का विभिन्न समयों में धारण भी होता है। अर्थात् प्रत्येक स्थूल शरीर ही पुनर्जन्म है चाहे वह शरीर उसे पहचाने या न पहचाने। यह बिल्कुल दृश्य पदार्थ विज्ञान की क्रिया परमाणु से अणु, अणु से यौगिक पदार्थ और पुनः यौगिक पदार्थ से अणु, अणु से परमाणु के एकीकरण और विखण्डन की क्रिया के अनुसार ही होता है। जो स्थूल शरीर आत्मतत्व को व्यक्त करने के लिए क्रमशः एकात्म ज्ञान, एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म, एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान की श्रंृखला में व्यक्त होता है, वह अवतारी स्थूल शरीर कहलाता है। अवतारी शरीर भी अपने अवतारी श्रंृखला का पुनर्जन्म ही होता है। पुनर्जन्म और अवतार में बस अन्तर इतना होता है कि पुनर्जन्म शरीर अपने पूर्व जीवन को सार्वजनिक रूप से सिद्ध नहीं कर पाता है क्योंकि उसके जैसे उद्देश्यों को लेकर अन्य भी पुनर्जन्म में ही होते है। जबकि अवतारी शरीर व्यक्तिगत एवम् सार्वजनिक रूप से आसानी से पुनर्जन्म सिद्ध कर देता है क्योंकि वह पूर्व के सर्वोच्च कार्य की श्रंृखला की अगली कड़ी होता है। जिसका उद्देश्य उस समय में व्यक्त अन्य पुनर्जन्म शरीरों में सिर्फ एक और अकेला होता है परिणामस्वरूप अवतारी शरीरों का सूक्ष्म शरीर भी स्पष्ट रूप से व्यक्त हो जाता है।
प्रत्येक अपूर्ण मन ही स्थूल शरीर त्याग के बाद सूक्ष्म शरीर कहलाता है। वही अपनी पूर्णता के लिए योग्य वातावरण में पुनः स्थूल शरीर धारण करता है। परन्तु ऐसा भी होता है कि अपनी पूर्णता के लिए स्थूल शरीर धारण किया हुआ सूक्ष्म शरीर परिस्थितिवश किसी दूसरे सूक्ष्म शरीर द्वारा धारण किये गये स्थूल शरीर के प्रभाव में आकर अपने उद्देश्य से अवनति या उन्नति की ओर बढ़ जाये और पुनः उसका मन नये उद्देश्य के लिए अपूर्ण रह जाये। यह नया उद्देश्य सर्वोच्चता और निम्नता अर्थात् उन्नति और अवनति अर्थात् दैवी और असुरी दोनों दिशाओं की ओर हो सकती है। यह उस प्रभावी स्थूल शरीरधारी सूक्ष्म शरीर की दिशा पर निर्भर करता है। कि उसकी पूर्णता किस ओर है। जिसके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं-‘‘एक विशेष प्रवृति वाला जीवात्मा ‘योग्य योग्येन युज्यते’ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो प्रवृति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार है। यह पूर्णतया विज्ञान-संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृतियों का कारण बताने के लिए पुनः-पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है। और चूँकि वर्तमान जीवन में इस स्वभाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है।’’ (हिन्दू धर्म, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ-6) और ‘‘फलानुमेयाः प्रारम्भा संस्काराः प्राक्तना इव’’ - फल को देखकर ही कार्य का विचार सम्भव है। जैसे कि फल को देखकर पूर्वसंस्कार का अनुमान किया जाता है। (पत्रावली - द्वितीय, राम कृष्ण मिशन, पृष्ठ-129) इसलिए प्रत्येक सूक्ष्म शरीरधारी स्थूल शरीर को अपने मन की प्रवृतियों और प्राप्त उपलब्ध संसाधन का अध्ययन कम उम्र में ही कर लेना चाहिए जिससे उसे उसके वर्तमान जीवन का उद्देश्य ज्ञात हो जाये। परिणामस्वरूप अन्य सूक्ष्म शरीरधारी स्थूल शरीरों के प्रभाव में आने पर अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बद्ध और मुक्त होने पर नियन्त्रण वे स्वयं कर सके। चूंकि स्थूल शरीर मन का स्थायित्व और अस्तित्व लम्बी अवधि के लिए है। इसलिए ही भारतीय संस्कृति में प्रथमतया ब्रह्मचर्य आश्रम में ही ज्ञान से मन को पूर्ण कर दिया जाता था जिससे उस मानव का वर्तमान जीवन अर्थात् गृहस्थ आश्रम सहित अगला जीवन भी उत्तरोत्तर उन्नति की दिशा की ओर हो जाता था। जिस प्रकार दैवी सूक्ष्म शरीर अपने उद्देश्य के लिए उचित वातावरण में स्थूल शरीर धारण करती है उसी प्रकार असुरी सूक्ष्म शरीर भी अपने उद्देश्य के लिए उचित वातावरण में स्थूल शरीर धारण करती है। जब दैवी शरीर अपने प्रभाव में अन्य शरीरों को ले लेती है तब उन्नति अर्थात् धर्म का विकास होता है। जब असुरी शक्ति अपने प्रभाव से अन्य शरीरों को ले लेती है। तब अवनति अर्थात् धर्म की हानि होती है। असुरी शरीरों के नाश अर्थात् दैवी शरीरों में परिवर्तन का एक मात्र सरल रास्ता आध्यत्मिक वातावरण को बनाये रखना ही है। इसलिए ही भारतीय आचार्यो ने आध्यात्म का प्रचार-प्रसार और भारतीय संस्कृति में वानप्रस्थ आश्रम का प्रविधान दिया था। जो किसी भी असुरी सूक्ष्म शरीर के स्थूल शरीर धारण पर उसका परिवर्तन कर देता था। वर्तमान समय में भारत में असुरी प्रवृत्ति का प्रभाव इसलिए बढ़ा हुआ है कि पिछले दो सौ वर्षो से भारत को नष्ट-भ्रष्ट करने वाले स्थूल शरीरों का अपूर्ण मन-सूक्ष्म शरीर वर्तमान समय के योग्य वातावरण मिलने पर सबके सब सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर ग्रहण कर अपने उद्देश्य को प्राप्त कर रहे है चाहे वह भले ही क्यों न भारत में ही स्थूल शरीर ग्रहण किये हुये हो। परिणामस्वरूप उनके असुरी प्रभाव से दैवी शरीर भी असुरी शरीरों में परिवर्तित होते जा रहे है और नये उद्देश्य अपूर्ण मन का निर्माण होता जा रहा है।
वर्तमान समय में मानव समाज की ‘‘भगवान या ईश्वर’’ के प्रति यह आम धारणा बन गयी हैं कि वे ईश्वर या भगवान को मूर्तियों या भविष्य और भूत तक ही सीमित रखना चाहते है न कि वर्तमान में। वर्तमान में ईश्वर का सगुण रूप अवतार को स्वयं अपने जैसा मानव शरीर में देखने पर उन्हें जैसे अपने ऊपर आघात का अनुभव होता है। यह मात्र अहंकार ही है। इसलिए सर्वप्रथम मानव और ईश्वर को समझने की आवयकता हैं। ‘‘भगवान’’ के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विचार प्रचलित है या फिर भी, आम आस्तिक धारणा के अनुसार, इस चराचर सृष्टि के नियन्ता को ‘‘भगवान’’ कहते है। एक शास्त्रीय अर्थ के अनुसार ‘‘जहाॅ’’ से यह सम्पूर्ण चराचर सृष्टि प्रकट हुई ; जिसमें स्थित है तथा फिर ‘‘जहाॅ’’ इसका लय होता है ; उसे भगवान कहते है। अर्थात् सृष्टि, स्थिति एवम् लय ये तीनों चेष्टायें जिसमें क्रियाशील है उसे भगवान कहते हैं। इसलिए भगवान को सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सवसमर्थ होने से जगत् का लय अर्थात् संहार होता है। अधिकांश लोग भगवान के बारे में ऐसी धारणा रखते है कि वह एक व्यक्तित्व है जो कहीं अन्तरिक्ष में बैठकर, इस चराचर जगत् पर नियन्त्रण करता है जबकि भगवान का सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वसमर्थ स्वरूप व्यक्तित्व वाचक न होकर, ‘‘सिद्धान्त’’ वाचक है। सिद्धान्त ‘‘नियम’’ को कहते है। नियम निराकार हैं। इसलिए, भगवान के भौतिक स्वरूप को निराकार कहा गया है। यह निराकार स्वरूप सिद्धान्त वाचक होने से ज्ञानमय एवम् पूर्ण हैं। इस प्रकार भगवान व्यक्तित्व के प्रतीक न होकर ‘‘सिद्धान्त’’, ज्ञान या पूर्णता के प्रतीक है। असीम गुणों तथा पूर्ण सिद्धान्त के प्रतीक भगवान जब शरीर इस मृत्यु लोक में आते है तब उन्हें अवतार कहा जाता है। भारतीय मान्यता एवम् चिन्तन के अनुसार ‘‘भगवान’’ के दो स्वरूप हैं। एक ‘निर्गुण’, दूसरा ‘सगुण’। भगवान के निर्गुण स्वरूप के सम्बन्ध में विवाद कम हैं पर सगुण स्वरूप अर्थात् अवतार के सम्बनध में बहुत मतभेद है। भगवान अर्थात् सिद्धान्त का अवतार व्यक्तित्व प्रमाणित अदृश्य सिद्धान्त से सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य सिद्धान्त को व्यक्त करने की इच्छा या उद्देश्य के लिए एकात्म ज्ञान (ब्रह्मा), एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म (विष्णु) तथा एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म-ध्यान (शिव-शंकर) के क्रम में ब्रह्मा, विष्णु और शिव-शंकर के अंशावतार और पूर्णावतार के रूप में होता है। काल के दो रूपों में प्रथम-व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य काल अर्थात मन का अन्तः विषय पर केन्द्रित होने की स्थिति में मानव मन व्यक्तिगत प्रमाणित रूप से निम्न से सर्वोच्च और अन्तिम अर्थात योग से योगेश्वर की ओर गति करता है तथा द्वितीय-सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य काल अर्थात मन का वाह्य विषय पर केन्द्रित होने की स्थिति में मानव मन सार्वजनिक प्रमाणित रूप से निम्न से सर्वौच्च और अन्तिम अर्थात भोग से भोगेश्वर की ओर गति करता है। योगेश्वर में भोगेश्वर सूक्ष्म रूप से तथा भोगेश्वर में योगेश्वर सूक्ष्म रूप से समाहित होती है। योगेश्वर में व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य सत्य चेतना सिद्धान्त तथा भोगेश्वर में सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य सत्य चेतना सिद्धान्त की प्राथमिकता होती है। भगवान का व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य पूर्णावतार योगेश्वर तथा सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य पूर्णावतार भोगेश्वर होता है जिस प्रकार बिना साकार के निराकर का सार्वजनिक प्रमाणित होना असम्भव है उसी प्रकार बिना भोगेश्वर के योगेश्वर का सार्वजनिक प्रमाणित होना असम्भव हैं। पुनर्जन्म अपूर्ण इच्छा या उद्देश्य या मन की पूर्णता केे लिए होता है। सामान्य मानव का पुनर्जन्म अपने आत्मा और अनात्म अपूर्ण मन की पूर्णता के लिए होता है जबकि अवतारों का पुनर्जन्म आत्मीय-सिद्धान्तों को पूर्ण व्यक्त करने के उद्देश्य से होता है। इस प्रकार पूर्ण आत्मा या सिद्धान्त या दृश्य सार्वजनिक सिद्धान्त का अन्तिम अवतरण एक तरफ अवतारों का पुनर्जन्म सिद्ध करता है तो दूसरी तरफ मानव का पुनर्जन्म भी सिद्ध कर देता है। परिणामस्वरूप प्रत्येक अनात्म और आत्म अपूर्ण मन उसी एक पूर्ण आत्मा में समाहित हो जाते है। अपूर्णता में जन्म लेकर साधना या कृपा से योग और भोग की ओर से व्यक्त योगेश्वर और भोगेश्वर अर्थात नीचे से उपर की ओर गति कर पूर्णता प्राप्त किया हुआ व्यक्तित्व गुरू या आचार्य कहलाता है जबकि साधना और कृपा से मुक्त पूर्णता में शरीर धारण कर अव्यक्त योगेश्वर और भोगेश्वर की ओर से व्यक्त योग और भोग अर्थात् ऊपर से नीचे की ओर गति कर पूर्ण योगेश्वर और भोगेश्वर को प्रथमतया व्यक्त करने वाला व्यक्तित्व अवतार या भगवान कहलाता है।
सामान्यतः पुनर्जन्म को पहचानना कठिन है परन्तु स्वभाव और कार्य की प्रकृति द्वारा पूर्वजन्म में अर्जित प्रवृति को जाना जा सकता है। सार्वजनिक प्रमाणित रूप से वही पुनर्जन्म प्रमाणित हो पाता है जो अन्तिम अवतार के अवतरण के पूर्व अवतरण के प्रयोजन और उसके मार्ग को स्पष्ट रूप से व्यक्त कर अपनी इच्छा को व्यक्त करता है। अवतारों का पहचान, कार्य पूर्ण होने के बाद आसानी से हो जाती है। मूलतः वे अपने पूर्व के अवतारो के संग्रहणीय, सक्रमणीय, गुणात्मक पुर्नजन्म ही होते हैं। परन्तु अवतारों के साथ कुछ विशेषताएॅ होती है जो इस प्रकार है-
1.अवतार सिद्धान्त का जन्म नहीं होता वरन् वे प्रकट होते हैं क्योंकि जन्म उसी का होता है जिसकी मृत्यु हुई हो। प्रारब्ध कर्म के अनुसार हर सत्ता जन्म एवम् मृत्यु को प्राप्त होते है। चूंकि भगवान सिद्धान्त किसी प्रारब्ध से बॅधे नही हैं इसलिए वे जन्म एवम् मृत्यु से परे है। अर्थात् अन्य जीवधारियों की तरह भगवान सिद्धान्त को भोग अर्थात् मैथुन का आश्रय ग्रहण कर शरीर नहीं धारण करना पड़ता वरन् वे अपनी इच्छा से शरीर धारण करते हैं। यहाॅ ध्यान देने योग्य है कि भगवान अर्थात् सिद्धान्त या नियम का जन्म नहीं होता, न ही उसकी मृत्यु होती हैं। बस यह स्वयं को प्रकट करने के लिए एक मानव शरीर के माध्यम से प्रकट हो जाता है।
2.जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि ये चारों दुःख अवतार सिद्धान्त को स्पर्श नहीं करते। अर्थात् सिद्धान्त से युक्त शरीर सिद्धान्तानुसार होने के कारण सिद्धान्त को ये दुःख स्पर्श नहीं करते।
3.अवतार, सीमित शरीर में प्रकट होने पर भी आवश्यकता पड़ने पर अपने असीम अर्थात् स्वरूप को दिखलाने में समर्थ होते है। यह सामथ्र्य किसी गुरू-आचार्य, सन्त, महात्मा में नहीं होती। अर्थात् सिद्धान्त सीमित शरीर में प्रकट होने पर भी वह ब्रह्माण्ड के सभी विषयों के साथ स्वयं को जोड़कर प्रत्येक में अपने अंश को व्यक्त कर अपनी विराटता व्यक्त कर सकता है। गुरू, सन्त, आचार्य, महात्मा ऐसा इसलिए नहीं कर पाते क्योंकि वे पूर्ण व्यक्त सिद्धान्तों का मात्र साक्षात्कार करते है न कि नया अविष्कार करते है।
4.अवतार अज्ञानतापूर्ण व्यवहार करते हुये भी सर्वज्ञ होने का अर्थ, अन्तर्यामी होना। भगवान के अवतार को छोड़कर कोई अन्य अन्तर्यामी अर्थात् सब कुछ जान लेना नहीं हो सकता। अर्थात् अज्ञानतापूर्ण व्यवहार उनकी आवश्यकता होती है क्योंकि प्रकट होने के पूर्व तक वे साधारण मानव ही बनकर अपने प्रकट होने के उचित समय की प्रतिक्षा करते हैं। अन्तर्यामी इसलिए होते है कि सिद्धान्त द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्य के सभी मानसिकता चक्र का ज्ञान होने से उसके फल का ज्ञान, ज्ञात रहता है।
5.अवतार का जन्म एवम् कर्म दोनों दिव्य होता है। जो मलिन नहीं होता, कभी मुरझाता नहीं, नित-नूतन बना रहता है, उसे दिव्य कहते है। जन्म का सम्बन्ध शरीर से है। अर्थात् अवतार का शरीर कभी मुरझाता नहीं। सामान्य जीवधारियों का शरीर, आहार, निद्रा, भय एवम् मैथुन के अधीन रहता है। जबकि अवतार भले ही खाते, सोते तथा अन्य व्यवहारिक कार्य करते दिखायी देते हो, परन्तु उनके लिए न खाना जरूरी हैं और न ही सोना।
6.भारतीय आध्यात्मिक प्रतीकों कमल एवं हंस को ज्ञान का प्रतीक कहा गया हैं। चूंकि अवतार, ज्ञान या पूर्णता के साकार स्वरूप होते है इसलिए उनके शरीर का प्रत्येक अंग जैसे-आॅख, चेहरा, हाथ, पाॅव इत्यादि कमल की पंखुड़ियों की भाॅति होता है। सारे संसार में कमल ही एक ऐसा पुष्प है जो सूर्य के प्रकाश में खिलता है और सूर्यास्त के साथ मुरझा जाता है। सूर्य ज्ञान का प्रतीक है किसी भी जीवधारी के न तो सभी अंग कमलवत् होते है और न हो सकते है।
7.अवतार का स्वभाव हंस जैसा होता है। हंस गुण को ग्रहण करता है और दोष को छोड़ देता है। इसी प्रकार अवतार भी दूसरों का गुण ही देखते और ग्रहण करते हैं, दोष की ओर तो उनका ध्यान ही नहीं जाता। सामान्यतया मनुष्य दूसरों में दोष तथा स्वयं में गुण देखते हैं। अवतारों का यह गुण ही उन्हें दोषों से भरे संसार में भी ‘‘चन्दन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग’’ की भाॅति रहने तथा दोषों को भी उपयोग में ले लेने की क्षमता प्रदान करता है।
8.अवतार के द्वारा अनुष्ठित कर्म भी जन्म के समान दिव्य होते हैं। सामान्य जीवों का कर्म राग एवम् द्वेष से प्रेरित रहता हैं इसलिए प्रारब्ध का निर्माण करता है। इसके विपरीत अवतार के कर्म राग-द्वेष से रहित, विवेक ज्ञान अर्थात चेतना या काल ज्ञान से प्रेरित होते है। इसलिए अवतार के कर्म प्रारब्ध का निर्माण नहीं करते परिणामस्वरूप अवतार द्वारा किये गये वे कर्म जो जनसामान्य को ये लगता है कि यह बुरा है जिसका फल भुगतना पड़ेगा, ऐसा अवतारों के साथ सम्भव नहीं हो पाता। प्रारब्ध का निर्माण न होने से, अवतार के कर्म नित-नूतन बने रहते है। नित-नूतन कर्म को लीला कहते हैं। यही कारण है कि अवतार के दिव्य कर्मो, लीलाओं को आज भी दोहराया जाता है। भारत की श्रीरामलीला एवम् श्रीकृष्णलीला विश्व प्रसिद्ध हैं। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि किसी ऋषि, मुनी, आचार्य या सन्त के कर्मो को किसी प्रकार दोहराया नहीं जाता। इसलिए अवतार के अतिरिक्त किसी अन्य के कर्म को लीला नहीं कहा जा सकता।
उपरोक्त सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य विशेषताएंॅ अवतारों के साथ निश्चित रूप से अवश्य होती है इससे युक्त होने पर ही उन्हें अवतार कहा जा सकता है। वर्तमान में, सनातन परम्परा के सभी गुरू, आचार्यो तथा विद्वानों तथा सनातन जनता का यह कर्तव्य है कि अवतार के नाम पर देश में चल रहे पाखण्ड को तोड़ने के लिए संगठित होकर आगे आयें।
यहाॅ यह विचारणीय है कि पुनर्जन्म और अवतार क्यों होता है। पुनर्जन्म और अवतार दोनों अपूर्ण मन या अपूर्ण उद्देश्य या अपूर्ण इच्छा के पूर्णता के लिए होता है। सामान्य जीवधारियों का पुनर्जन्म उनके आत्म और अनात्म अपूर्ण इच्छा के पूर्णता के लिए होता है। परन्तु भगवान के अवतीर्ण होने की व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक दो कारण हैं। व्यक्तिगत कारण में भक्त के उल्लास एवम् प्रसन्नता के चरम बिन्दु पर तथा दुःख एवम् संकट के चरम बिन्दु पर अवतरण होता है। जबकि सार्वजनिक कारण में धर्म की ग्लानि अर्थात् एकात्म का सामाजिक अभाव होता है। मनुष्य एवम् यह चराचर सृष्टि धर्म से उत्पन्न हुयी है। धर्म, भगवान का स्वाभाव है। मनुष्य पर सबसे बड़ा दायित्व धर्म की रक्षा का है। मनुष्य जब इस दायित्व से विमुख होकर अधर्म का आश्रय ग्रहण कर लेता है तब उसे नियन्त्रित करना असम्भव हो जाता है। तब भगवान को धर्म की रक्षा के लिए इस धराधाम पर अवतीर्ण होकर अपनी लीलाओं से कालानुसार विधि द्वारा अधर्मियों का नाश एवम् सज्जनों का परिश्रम करते हैं। उनके आगमन का मूल प्रयोजन दुष्टों का संहार होने पर भी, साथ-साथ बच्चों की तरह जन्म लेकर बाल लीलाओं से भक्तों को आनन्द प्रदान करते है।
यहाँ यह विचारणीय है। कि पुनर्जन्म और अवतार कब होता है। पुनर्जन्म के लिए वातावरण तो हमेशा तैयार मिलता रहता है। इसलिए पुनर्जन्म एक सतत होने वाली प्रक्रिया है परन्तु अवतार के लिए वातावरण एक लम्बी समय अवधि बाद धर्म की गुलामी अर्थात् समाज में एकात्म भाव का पूर्ण अभाव होने पर ही बनता है। सनातन काल दर्शन के अनुसार कुल दस अवतार है जिसमें से कुल नौ हो चुके है। इस कलियुग में एक मात्र शेष दसवां और अन्तिम निष्कलंक श्री कल्कि अवतार होगा। यह अवतार भी हो चुका हैं। शास्त्रों में कलियुग के अन्त में अवतार की बात आयी हैं। शास्त्र में वर्णित गणित के आधार पर कुछ लोगों का मत है। कि कलियुग का अन्त अभी दूर है जबकि एक अन्य मतानुसार सूर्य, चन्द्र को लगने वाले ग्रहण तथा नारी-पुरूष द्वारा किये जाने वाले अनेक पापो से युग की आयु का क्षय होता है, इसलिए कलियुग की आयु अब क्षीण हो गयी है। और अवतार का समय आ गया है। वर्तमान समय में धर्म की ग्लानि अर्थात् समाज एकात्म भाव को पूर्णतया खोकर समाप्त हो चुका है तथा सूर्य-ग्रहण भी कई बार लगातार हो रहा है, जिससे इस सदी के अन्त में दो हो चुका है क्रमशः 24 अक्टूबर 1995 तथा 11 अगस्त 1999 को तथा अगली सदी में 21 जून 2001 को होना है। जो स्पष्टतः कलियुग की आयु क्षीण होने और अवतार के आगमन की आवश्यकता का स्पष्ट प्रमाण है। श्री कल्कि अवतार के हो जाने से अनेक स्वघोषित विशेषता रहित अवतार तथा श्री कल्कि पुराण और श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्थों के अनुसार श्री कल्कि अवतार का प्राकट्य श्रीविष्णुयश नामक ब्राह्मण, ग्राम-सम्भल जि-मुरादाबाद के यहाँ होने वाली बात भी उपरोक्त कारणों द्वारा कलियुग की आयु क्षीण होने से असत्य हो चुकी हैं।
यहाँ यह विचारणीय है कि पुनर्जन्म और अवतार कहाँ होता है। पुनर्जन्म के लिए तो सम्पूर्ण विश्व ही योग्य भूमि है परन्तु अवतार के लिए सिर्फ तपोभूमि भारत ही योग्य भूमि है। क्योंकि प्रथमतया पूर्ण मानसिकता विकास चक्र वही से प्रारम्भ हुआ जिसके फलस्वरूप दो शाखायें अर्थात् दो प्रकार के मन विकसित हुये। प्रथम भक्ति-भाव युक्त मन जिसके कारण भारत में ही ऐसे भक्त हुये जिन्होने भगवान को मानव रूप में देखने की अभिलाषा व्यक्त किये। अन्यत्र कहीं भक्तों ने भगवान के सम्मुख ऐसी अभिलाषा रखी हो इसका उल्लेख नहीं मिलता। दूसरा - भगवान अर्थात् सिद्धान्त को व्यक्त करने की इच्छा से युक्त मन। जिसके कारण पूर्ण अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित सिद्धान्त से पूर्ण दृश्य सार्वजनिक प्रमाणित सिद्धान्त को व्यक्त करने के लिए अवतरण प्रारम्भ हुआ क्योंकि उसके योग्य भूमि और वातावरण भी प्राचीन समय से यहीं पर निर्मित होने लगा था। अवतारों की स्वयं के प्रकाट्य के लिए उपयुक्त साधनों की आवश्यकता पड़ती हैं, पूर्व द्वारा निर्मित साधन सिर्फ भारत भूमि पर ही मिलते है इसलिए भगवान अर्थात् सिद्धान्त का अवतरण भारत में ही होता है।
यहाँ यह विचारणीय है कि पुनर्जन्म और अवतार कैसे होता है? पुनर्जन्म, किसी भी जीवधारियों में होने वाली समान्य प्राकृतिक क्रिया द्वारा ही सम्भव होता है परन्तु भगवान या सिद्धान्त स्वइच्छा से ही सिद्धान्तानुसार शरीर धारण करते है। माँ के गर्भ में जीव के पिण्ड का निर्माण शुक्र एवम् रज के योग से पंचतत्वों द्वारा होता है। चूंकि परमात्मा अर्थात् सिद्धान्त इन सबसे परे है और इन सबको जन्म देने वाले है। इसलिए उन्हें साकार रूप ग्रहण करने के लिए न तो शुक्र एवम् रज की आवश्यकता पड़ती है और न पंचतत्वों से उनके शरीर का निर्माण होता है। क्योंकि वे परमात्मा सिद्धान्त है। इसलिए उनका शरीर सिद्धान्त से निर्मित होता है। साकार में यह लग सकता हैं कि परमात्मा श्रीराम, श्रीकृष्ण माता के गर्भ से जन्म लिये पर भक्त व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य रूप से यह जानते हैं कि यह उनकी लीला हैं। भगवान के अवतरित होने पर की जाने वाली हर चेष्टा को लीला कहते है। परमात्मा सब ओर से पूर्ण रहते हुये भी अपूर्ण जैसा व्यवहार करते है। पूर्ण द्वारा अपूर्ण जैसा व्यवहार लीला है। इसके विपरीत जीव-मानव अपूर्ण होते हुये भी पूर्ण जैसा व्यवहार करता है। यह उसके अहंकार एवं अज्ञान का द्योतक है। जीव कर्म बन्धन के कारण नाना योनियों में जन्म लेने को विवश है। जबकि परमात्मा न तो कर्म बन्धन से विवश होकर जन्म लेते है और न तो उनके द्वारा किये गये कर्म उन्हें बाँधते है। इसलिए शरीर धारण करने में वे सर्वथा स्वतन्त्र है। उनका शरीर उनकी इच्छा से निर्मित होता है और लीला समाप्त होने पर उनकी इच्छा से विलीन हो जाता है। यहाँ यह विचारणीय है कि पुनर्जन्म और अवतार किससे होता है? पुनर्जन्म किसी भी जाति, धर्म के माता-पिता के द्वारा होता है जो उसके सूक्ष्म शरीर अर्थात् अपूर्ण मन या अपूर्ण इच्छा को व्यक्त करने के लिए योग्य वातावरण हो या मिल सके। भगवान या सिद्धान्त का अवतरण उसी सनातन मूल मानव जाति के माता-पिता द्वारा ही होता है। क्योंकि अवतारों को व्यक्त होने के लिए सत्व और रज दो गुणों की विशेष आवश्यकता पड़ती है जो सर्वाधिक रूप से मूल मानव जाति में ही संग्रहित हैं। सत्व तथा रज गुण, प्रधान वर्ग विभाग में ब्राह्मण और क्षत्रित्व जाति में विभाजित है। चूंकि मात्र सत्व गुण अर्थात् एकात्म ज्ञान पूर्ण अवतार को प्रमाणिकता सिद्ध नहीं कर सकता इसलिए सत्व गुण से युक्त रज गुण प्रधान क्षत्रिय जाति में ही भगवान सार्वजनिक प्रमाणित पुनर्जन्म और दसवां अन्तिम कल्कि अवतार कौन होगा? सभी अवतारों ने समाज या गणराज्य बनाने का ही कार्य किया है। वर्तमान में विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र भारत में स्थापित है जो गणराज्य ही है। परन्तु अभी अपूर्ण है जिसमें राज्य या तन्त्र तो है परन्तु गण या लोक गायब है। इसकी पूर्णता करने वाला तथा उपरोक्त अवतारी विशेषताओं से युक्त अवतार ही अन्तिम अवतार होगा। स्वामी विवेकानन्द ने इस कार्य के लिए अन्तिम विचार दिये थे। इसलिए यह अन्तिम अवतार उनका सार्वजनिक प्रमाणित पुनर्जन्म भी होगा। जिसके श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ ज्वलत, जीवन्त, सार्वजनिक प्रमाणित उदाहरण प्रत्यक्ष है।
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