पहला युग / पाँचवाँ युग: सत्ययुग/स्वर्ण युग
अ. व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्ण प्रत्यक्ष अवतार
1. प्रथम अवतार: मत्स्य अवतार
व्यक्तिगत प्रमाणित अंश प्रत्यक्ष अवतार
ईश्वर के अंश अवतार शरीर धारण तिथि-
ब्रह्मा के अंश अवतार
विष्णु के अंश अवतार
महेश के अंश अवतार
मत्स्य-अवतार (प्रचलित कथा)
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि करने के बाद अन्त में मनुष्यों के आदिपुरूष मनु को बनाया। मनु की सन्तान होने के कारण ही हम मानव कहलाते है। मानव ही विश्व का श्रेष्ठ जीव है।
मनु ने सन्तान के लिए कठोर तपस्या की। तपस्या के फलस्वरूप उनकी अनेक परम तेजस्वी सन्तानें हुई। उन लोगों ने विभिन्न विद्यायों का आविष्कार किया और तपस्या के द्वारा महाशक्ति प्राप्त की। इसके फलस्वरूप वे जीव-जगत के स्वामी होकर प्रकृति-राज्य के सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं का भोग करने लगे। उनके आनन्द की सीमा न रही।
निश्चिन्त होकर मनु तपस्या में डूब गये। ध्यानयोग के द्वारा भूत-वर्तमान-भविष्य की थोड़ी झलक मिलने पर उन्हें पता चला कि थोड़े दिनों बाद ही सारी पृथ्वी पूर्ण रूप से जलमग्न हो जाएगी और इस प्रकार समस्त जीवों का विनाश हो जाएगा। अपनी इतनी तपस्या का फल समूल ध्वंस हो जाएगा - ऐसा जानकर मनु बड़े ही दुःखी हुए। यह विचार उनके लिए असह्य हो उठा। तपस्या के द्वारा ही जगत् की सृष्टि हुई है और तपस्या के द्वारा ही इसकी रक्षा करनी होगी - यह सोचकर वे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के ध्यान में निमग्र हो गये। पहाड़ की एक गुफा में शिला के आसन पर ध्यान करते हुए उनकी बाह्य-चेतना पूरी तौर से लुप्त हो गयी। उनका शरीर काठ की मूर्ति के समान अचल हो गया। मन ब्रह्मामय हो उठा। इस उग्र तपस्या पर प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उन्हें दर्शन दिया।
ब्रह्मा बोले, ‘‘वत्स, पृथ्वी तुम्हारे पुत्र-पौत्रों से भरी है। वे लोग सर्व प्रकार की भोग्य वस्तुएँ पाकर आनन्दपूर्वक हैं। फिर तुम क्यों ऐसा कठोर तप करके देहपात कर रहे हो ?’’ इस पर मनु ने जब अपने मन का भाव व्यक्त किया, तो ब्रह्मा बोले, ‘‘वत्स, तुम इस विषय में निश्चिन्त रहो। जिन प्रेममय नारायण की इच्छा से मैंने इस जगत् की सृष्टि की है, उन्होंने ही अपने जीवों की रक्षा के लिए सुव्यवस्था की है।’’ यह कहकर उन्होंने मनु के मनश्चक्षुओं के समक्ष भविष्य की वह घटना प्रकट की। मनु ने प्रफुल्ल होकर उनके चरणों में प्रमाण किया और ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये।
अनेक परिवर्तनों के बीच हो कर जगत चलता रहा। पृथ्वी धन-धान्य से पूर्ण थी; रूप, यौवन, स्वास्थ्य के साथ ही वार्धक्य, रोग तथा मृत्यु भी विद्यमान थे; तुच्छ बातों को लेकर झगड़ा-फसाद, क्षुद्र स्वार्थ के लिए रक्तपात; फिर स्नेह-प्रीति, दूसरों के लिए आत्मत्याग तथा सुख-दुःख, भरे-बुरे के चक्र के द्वारा मानव-जीवन में विविध प्रकार के भाव प्रस्फुटित होते रहे। मानव प्रकृति के विधान से काल के स्रोत में प्रवाहित होता रहा।
भोग के द्वारा मनुष्य का मन क्रमशः उन्मत्त हो उठा। शरीर के सुख-स्वाच्छन्द्य हो छोड़कर अन्तर की शान्ति को ढूँढ़ने की उसके मन में इच्छा नहीं हुई। निन्दा तथा विद्वेष क्रमशः कलह तथा हिंसा में परिणत हुए; तदुपरान्त हत्या, रक्तपात तथा अत्याचार का दौर चला। छल-कपट ने मानव-हृदय पर शासन करना आरम्भ कर दिया। साधुओं के उत्पीड़न तथा दुर्बलों के कातर क्रन्दन से श्रीहरि का आसन डोल उठा।
सुषमामयी प्रकृति के हास्यपूर्ण मुखमण्डल पर प्रचण्ड क्रोध की अभिव्यक्ति दीख पड़ी। शरत्कालीन निर्मल गगन में बिजली की कड़क सुनाई देने लगी, वसन्त के मलय-पवन के दौरान आँधी चलना आदि के द्वारा ऋतुओं में घोर उलट-फरे आरम्भ हुआ। अकाल तथा महामारी निर्दयतापूर्वक जीवों का ग्रास करने लगे आत्मरक्षा का कोई भी उपाय नहीं बचा। मनुष्य के दिन अत्यन्त अद्विग्नतापूर्वक बीतने लगे।
उन्हीं दिनों पृथ्वी पर द्रविड़ नाम ाक एक राज्य था। परम धर्मपरायण सत्यव्रत वहाँ के राजा थे। प्रजा का कल्याण करने की बात ही सर्वदा उनके मन में बनी रहती थी। याग-यज्ञ तथा ध्यान-जप में ही उनके दिन बीतते थे। मनुष्य की दुर्दशा से व्यथित होकर वे जगत् के कल्याणार्थ दिन-पर-दिन भगवान से प्रार्थना करते रहते थे।
एक दिन सत्यव्रत तालाब के जल से पितरों का तर्पण कर रहे थे। सहसा क्रीड़ारत एक छोटी-सी मछली उनकी अंजलि में आ पड़ी। मछली को वे वापस तालाब में डालने को उद्यत हुए, तभी उसने मानवी भाषा तथा क्षीण वाणी में, ‘‘रक्षा करो, रक्षा करो’’ - कहकर चीत्कार करना आरम्भ कर दिया। राजा ने विस्मित होकर मछली को ऊपर उठाकर देखा। मछली पुनः बोली, ‘‘मैं बड़ी बड़ी मछलियों से अत्यन्त भयभीत हूँ। तुम मेरी रक्षा करो।’’ राजा तो यह सुनकर बिल्कुल ही अवाक् रह गये। मछली को कमण्डलु में रखने के बाद उन्होंने अपना तर्पण समाप्त किया। बाद में कमण्डलु को अपने भवन में लाकर उन्होंने एक किनारे रख दिया। राजा ने सोचा कि भगवान की इच्छा से घटित इस घटना में असम्भव जैसा कुछ भी नहीं है। सम्भव है कि इसमें उनका कोई गूढ़ अभिप्राय हो। भक्तगण इसी प्रकार प्रत्येक कार्य में भगवान के मुखापेक्षी रहते है।
अगले दिन प्रातःकाल राजा मछली की हालत देखने के लिए कमण्डलु के पास गये। उन्होंने पाया कि मछली के बढ़ जाने से कमण्डलु भर गया है। उन्हें देखते ही मछली बोल उठी, ‘‘राजा, देखो, मैं कितनी बड़ी हो गयी हूॅ! तुम्हारे इस छोटे-से कमण्डलु में अँट नहीं पा रही हूँ। तुम यथाशीघ्र मुझे और भी बड़े स्थान में रखो।’’ राजा ने उसे एक हौज के पानी में रख दिया।
अगले दिन राजा ने देखा - वह मछली अद्भुत रूप से इतनी बड़ी हो गयी थी कि हौज में उसके हिलने-डुलने तक को स्थान न था। इस असाधारण घटना को देखकर राजा भगवान की महिमा के विषय में सोचने लगे। सामान्य लोगों के समान व उद्विग्न नहीं हुए। मछली मोटी आवाज में राजा से अपने को और भी बड़े जलाशय में ले जाने का अनुरोध करने लगी। मछली को अपने उद्यान के विशाल सरोवर में डालने के बाद राजा सोचने लगे कि अब तो उसे कोई परेशानी नहीं होगी।
परन्तु बड़े आश्चर्य के साथ अगले ही दिन राजा ने देखा कि मछली पूरे तालाब में फैल चुकी है। कहावत है - ‘गण्डूषजलमात्रेण सफरी फरफारायते’ - सफरी नामक मछली चुल्लू भर पानी में ही उछल-कूद मचाया करती है। परन्तु यह सफरी तो इस बृहत् सरोवर में फरफराने की बात तो क्या, हिलने-डुलने तक में अक्षम है। यह घटना किसी के लिए अज्ञात नहीं रही। मछली की कण्ठध्वनि भी अत्यन्त मोटी हो गयी थी। अपनी उसी मोटी आवाज में वह राजा के साथ बातें करने लगी।
राजा ने सेनापति को आदेश दिया, ‘‘मछली को बिना कष्ट पहुँचाए नदी में डलवा दो।’’ सेनापति ने बहुत-सी रस्सियों को मछली के शरीर में लपेटा, हजारों लोगों तथा अनेक हाथियों की सहायता से उसे सौ बैलगाड़ियों पर चढ़ाया और बड़े कष्टपूर्वक उसे नदी तक ले गये। यह घटना लोगों के मुख से हजारों प्रकार से अतिरंजित होकर सम्पूर्ण भारत में फैल गयी। उन दिनांें रोग, शोक, अकाल, भूकम्प, उल्कापात, वज्राघात आदि के फलस्वरूप पृथ्वी की अवस्था भयंकर थी और अब इस घटना से वह और भी भयावह हो उठी। जो मुठ्ठी भर लोग इन आपदाओं से बच गये थे, वे भी इस घटना को सुनकर भय से मरणासन्न हो गये। परन्तु राजा सत्यव्रत भगवान के चिन्तन में विभोर रहे।
मछली का शरीर नदी के अन्दर भी अत्यन्त तीव्र वेग से बढ़ता रहा और उसके कारण जल का प्रवाह अवरूद्ध हो गया। तटवर्ती ग्राम बहने लगे। द्रविड़ राज्य में हाहाकार मच गया। मृत्यु से बचे हुए, भय से अर्धमृत लोगों की सहायता से मछली को खींचकर समुद्र में ले जाया गया। समुद्र में पहुँचकर मछली ने यथेच्छा अपने अंगों का विस्तार किया और एक महाद्वीप का आकार धारण कर लिया।
राजा भगवद्बोध से मछली की स्तव-स्तुति करने लगे। राजा ने कहा, ‘‘हे हरि, तुम्हारे अतिरिक्त दूसरा कौन है, जो ऐसी अद्भूत लीला कर सके ? पाप में डूबी मनुष्य-जाति तुम्हें भूलकर अहंकार में उन्मत्त हो उठी थी; उन्हें अब यथेष्ट दण्ड मिल चुका है, अब तुम प्रसन्न होओ। जो मनुष्य धरा को तुच्छ मानते थे, आज वे मछली के भय से डरे हुए है। मनु मछली का रूप धारण करके दाम्भिक मनुष्यों का दर्प चूर्ण कर दिया है। अब तुम प्रसन्न होओ।’’
तभी चारों दिशाएँ आलोकित हो उठीं। मत्स्य का पूर्वार्ध नारायण के रूप में परिणत हुआ- कमल की पंखुड़ियों के समान दोनों नेत्र; चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा व पद्म और प्रसन्न मुखमण्डल, जिसे देखते ही जगत् विस्मृत हो जाता था! उस प्रेममय रूप को देखकर राजा का शरीर रोमांचित हो उठा, कम्पन के साथ पसीना निकालने लगा, अश्रु से कपोल भीग गये और उनके अन्तर से रूदन निःसृत होने लगा। उनका कण्ठ अवरूद्ध हो गया; आनन्द की तरंगों के घात-प्रतिघात से उनका अंग-प्रत्यंग टूटने लगा। नारायण ने राजा के सिर, मुख तथा सीने पर हाथ फेरते हुए उन्हें शान्त करते हुए कहा, ‘‘बेटा सत्यव्रत, एक बार अपने पूर्वजन्म की बातों का स्मरण करो। तुम मनुष्यों के आदिपुरूष मनु हो। तुमने प्रलय-प्लावन के समय-मनुष्य-जाति की रक्षा के लिए कठोर तपस्या की थी। ब्रह्मा के वर से तुम्हारे द्वारा मनुष्य-सह समग्र जीव-जन्तुओं की रक्षा होगी।’’ राजा के मन में एक-एक कर पूर्वजन्म की सारी समृतियाँ जाग्रत होने लगीं।
श्रीहरि बोले, ‘‘अब से सात दिन बाद प्रलय आरम्भ होगा। तुम मानव आदि प्राणियों के एक एक जोड़े तथा सभी वनस्पतियों के बीज जल्दी एकत्र कर लो। सात दिनों बाद देवताओं द्वारा निर्मित एक नौका तुम्हारे घाट पर आ लगेगी। तुम जीवों तथा वनस्पतियों-बीजों के साथ उसमें सवार हो जाना। जब समुद्र प्रलय-वायु से तरंगायित होकर पृथ्वी का ग्रास करेगा, तब मैं सींगधारी स्वर्ण-मत्स्य के रूप में पुनः आविर्भूत होऊँगा। तुम अपनी स्वर्ण-नौका को मेरे सींग से बाँध लेना।’’ फिर ‘माभैः माभैः’ कहने के साथ ही साथ स्वप्न के समान नारायण-मत्स्य अन्तर्धान हो गये।
सात दिन बाद सचमुच ही एक स्वर्ण-नौका आ पहुँची। श्रीहरि की आज्ञा के अनुसार राजा सभी प्राणियों के जोड़े तथा वनस्पतियों के बीज सहित उसमें सवार हुए और नौका अपने आप ही समुद्र में जा पहुँची।
इसके बाद पृथ्वी पर भयानक घटनाएँ होने लगीं। सूर्य का तेज बारहगुना बढ़ गया। तालाब, सरोवर, नदी आदि सब सूख गये। पेड़-पौधे तथा लताएँ आदि कुछ भी नहीं बचे। पहले पक्षीगण और तदुपरान्त अन्य जीव-जन्तु मरकर समाप्त हो गये। मनुष्य ने विविध उपायों का सहारा लेकर बचे रहने का प्रयास किया, परन्तु सब कुछ व्यर्थ सिद्ध हुआ। जो कुछ अभागे लोग कंकालप्राय होकर बच गये, वे भी भूख-प्यास से पालग होकर सियाल-गिद्धों के समान घृणित रूप से सड़े मुर्दो के लिए छीना-झपटी करने लगे। तथापि जो लोग नहीं मरे, वे नंगे उन्मत्त पिशाच से भी अधिक जघन्यता से युक्त तथा पशुओं से भी बढ़कर हिंस्र हो उठे। रक्त पीकर प्यास बुझाने को वे एक-दूसरे की हिंसा करने लगे। कई लोग मिलकर किसी एक को मारकर उसके रक्त-मांस का भक्षण करते। इस प्रकार क्रमशः मानव-जाति का विनाश हो गया। नगर, ग्राम तथा अट्टालिकाएँ शून्य पड़ी रही; जगत् नीरव तथा निस्तब्ध हो गया। बारह सूर्यो का प्रखर तेज धू-धूकर जल रहा था और वायु हू हू की आवाज के साथ बहते हुए मानो शोक व्यक्त कर रही थी।
पृथ्वी पर जीवन का चिन्ह तक नहीं बचा। असंख्य जीव-जन्तुओं की सूखी हुई लाखों तथा सूखी वृक्ष-लताओं से धरती पटी हुई थी। एक दिन दावाग्नि प्रज्जवलित हो उठी और प्रचण्ड धूप तथा प्रबल वायु की सहायता से वह क्रमशः सारी धरती पर फैल गयी, जिसके फलस्वरूप पृथ्वी एक अग्निगोलक के रूप में परिणत हो गयी। क्या ही भयानक दृश्य था!
जलते जलते इ्रंधन के साथ-ही-साथ अग्नि भी शान्त हुई; सम्पूर्ण धरातल राख से आच्छादित था। प्रबल वायु भीषण गर्जन के साथ निर्बाध गति से पृथ्वी पर प्रवाहित होने लगी। राख और धूल के उड़कर वायुमण्डल में छा जाने से सूर्य की किरणों का मार्ग अवरूद्ध हो गया।
रवि-रश्मियों के प्रचण्ड ताप से नद, नदियों तथा सरोवरों का जल भाप होकर आकाश में एकत्र हो चुका था; और अब वह मेघ में परिणत होकर पृथ्वी पर चारों ओर फल गया। दिन और रात का भेद मिट गया। असंख्य स्तरों में बिखरी मेघराशि के भीषण गर्जन से सभी पर्वत प्रतिध्वनित हो उठे। भूकम्प से धरातल के बारम्बार कम्पित होने के फलस्वरूप पहाड़ खण्डित होकर गिरने लगे, नदियों के गर्भ से पर्वत उठने लगे और समुद्र मरूभूमि में परिणत हुए।
तदुपरान्त मूसलाधार वर्षा होने लगी। वर्षा तथा शिलापात के फलस्वरूप ऊँची-नीची भूमि समतल क्षेत्रों में परिणत हुई; बड़े-बड़े पर्वत टूटकर जलप्रवाह में बहने लगे, सम्पूर्ण पृथ्वी जलमग्न हो गयी, पहाड़ तथा समतल समुद्र-सब एकाकार हो गये। उन्मत्त प्रलय-वायु से पर्वताकार तरंगें आकाश में उत्थित होकर सैकड़ों वज्रों की ध्वनि के साथ एक-दूसरे से टकराकर बिखर जाने लगीं। प्रलय मानों मूर्तिमान होकर पृथ्वीतल पर विचरण करने लगा।
राजा सत्यव्रत की स्वर्णनौका जब उत्ताल तरंगों पर सवार होकर उत्थित और पतित होने लगी, तब भयभती होकर वे नारायण को पुकारने लगे। नारायण अनेक योजन में फैले स्वर्ण-सींगधारी मत्स्य के रूप में सागर के जल में आविर्भूत हुए। उनकी अंगज्योति से चारों दिशाएँ आलोकित हो उठीं। राजा निर्भयतापूर्वक अपनी स्वर्णनौका को श्रीहरि के सींग में बाँधकर निश्चिन्त हुए।
वर्षा करते करते मेघ समाप्त हो गये। निर्मल आकाश में सूर्योदय हुआ। धरातल पर जल के अतिरिक्त और कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता था। पवन स्थिर था और जल निस्तरंग था। सूर्य की किरणों से पृथ्वी एक काँच के गोलक के समान चमकने लगी। मनु की स्वर्णनौका में स्थित जीवगण आश्वस्त हुए।
तरंगहीन सागर के जल में चन्द्र-सूर्य के रंगों का खेल देखकर द्रविड़ेश्वर राजा सौन्दर्याधार श्रीहरि के चिन्तन में डूब गये। ऊपर फैले निर्मल नील अनन्त आकाश तथा नीचे दिग्दिगन्त-व्यापी नील समुद्र ने उनके मन में भगवान के अनन्त भावों की स्मृति जगा दी। उन्हें लगा मानो वे एक आनन्दलोक में चिरमंगल के बीच बिहार कर रहे होे।
मत्स्यरूपी नारायण ने भावी मनुष्य के धर्म विषय पर मनु को अनेक वर्षो तक शिक्षा दी। अधर्म के विनाश तथा धर्म की स्थापना के लिए ही प्रयोजन के अनुसार वे विभिन्न रूप धारण किया करते है।
धीरे-धीरे पृथ्वी के भू-भाग से पानी नीचे उतर आया। राजा सत्यव्रत ने उस पर वनस्पतियों के बीज बिखेर दिये। जलप्लावन से धरती के अत्यन्त उर्वर हो जाने के कारण शीघ्र ही वह फल-फूल से आच्छादित हो उठी। मनु जीवों के साथ भूमि पर उतरे। देखते-ही-देखते पृथ्वी पुनः जीव-जन्तुओं से परिपूर्ण हो उठी।
सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त अनुसार कथा
अदृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त सत्य आधारित सतयुग में प्रथम अवतार - मत्स्य अवतार का अवतरण उस समाजिक और मानव जाति के संकट के समय हुआ, जब प्राकृतिक नियम परिवर्तन या आदान-प्रदान के अधीन प्रलय द्वारा जहाँ जल है वहाँ थल और जहाँ थल है वहाँ जल होकर विनाश हुआ जिसके कारण ही थल से समुद्रों के अवशेष तथा समुद्रों से थल के अवशेष आज भी प्राप्त होते है। परिणामस्वरूप जल के बीच टापू पर कुछ स्त्री-पुरूष बच गये। उनमें से एक पुरूष, जो इस भयंकरतम् विपत्ति में भी नहीं घबराया और अपनी सूझ-बूझ को संयम में रखा अर्थात् उसकी आत्मा अदृश्य प्राकृतिक चेतना अर्थात् अदृश्य प्रकृति द्वारा निर्मित परिस्थितियों में प्र्राथमिकता से वर्तमान में कार्य करना, में स्थापित हो गयी। उसने देखा जल में मछलियाॅ एक ओर ही भाग रही है। उसने मछलियों की प्रकृति जिधर से जल आता है उधर मछली भागती है। चाहे वहाॅ जल का स्त्रोत हो या स्त्रोत समाप्ति की ओर हो, से प्रेरणा प्राप्त कर टापू पर बचे अन्य जनता के सहयोग से नाव बनाकर मानव जाति और समाज का विस्तार किया। मछलियों से मार्गदर्शन प्राप्त करने के कारण कालान्तर में उसे मत्स्यवतार कहा गया। उस पुरूष और सार्वभौम सत्य-सिद्धान्तांे (मछली का सिद्धान्त) को धारण कर प्रयोग करने के कारण अवतार कहा गया।
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