स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में
विषय - सूची
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 01. वेद
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 02. वेदान्त
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 03. ईश्वर
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 04. गुरु, शिष्य, अवतार और मन्त्र
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 05. धर्म विज्ञान
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 06. योग क्या है?
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 07. ज्ञान योग
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 08. राज योग
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 09. भक्ति योग
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 10. प्रेम योग
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 11. कर्म योग
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 12. जाति, संस्कृति और समाजवाद
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 13. समाज नीति
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 14. भारत का एतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 15. विज्ञान और आध्यात्मिकता
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 16. प्राच्य और पाश्चात्य
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 17. मरणेत्तर जीवन
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 18. समन्वयाचार्य श्री रामकृष्ण
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 19. मेरी समर नीति
स्वामी विवेकानन्द जी के संग में और सान्निध्य में
स्वामी विवेकानन्द जी की पत्रावली भाग-1
स्वामी विवेकानन्द जी की पत्रावली भाग-2
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 01. वेद
1. वेद का अर्थ अनादि सत्यों का समूह है। वेदज्ञ ऋषियों ने इन सत्यों को प्रत्यक्ष किया था। बिना अतिन्द्रिय दृष्टि के साधारण दृष्टि से ये सत्य प्रत्यक्ष नहीं होते। इसी से वेद में ऋषि का अर्थ मन्त्रार्थ दर्शी है, यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मण नहीं। ब्राह्मण आदि जाति विभाग वेद के बाद हुआ था। वेद शब्दात्मक अर्थात् भावात्मक है अथवा अनन्त भाव राशि की समष्टि को ही वेद कहते हैं। ”शब्द“ इस पद का वैदिक प्राचीन अर्थ सूक्ष्म भाव है, जो फिर आगे स्थूल रुप से अपने को व्यक्त करता है इसलिए प्रलय काल में भावी सृष्टि का सूक्ष्म बीज समूह वेद में ही संपुटित रहता है। इसी से पुराण में पहले-पहल मीनावतार से वेद का उद्धार दिखाई देता है। प्रथमावतार से ही वेद का उद्धार हुआ। (संग में-61)
2. भारत में यह सर्वसम्मत है कि ”वेद“ शब्द में तीन भाग सम्मिलित हैं- संहिता, ब्राह्मण और उपनिषद्। इनमें से पहले दो भाग कर्म काण्ड सम्बन्धी होने के कारण अब लगभग एक ओर कर दिये गये हैं। सब मतों के निर्माताओं तथा तत्व ज्ञानियों ने केवल उपनिषदों को ही ग्रहण किया है। केवल संहिता ही वेद है, यह स्वामी दयानन्द का शुरु किया हुआ विल्कुल नया विचार है और पुरातनमतावलम्बी या सनातनी जनता में इसको मानने वाला कोई नहीं है। इस मतावलम्बन का कारण यह था कि स्वामी दयानन्द समझते थे कि संहिता की एक नई व्याख्या के अनुसार वे पुरे वेद का एक सुसंगत सिद्धान्त निर्माण कर सकेंगे। परन्तु कठिनाइयाँ कुछ कम न हुई, केवल वे अब ब्राह्मण (वेदो के एक भाग का नाम) भाग के सम्बन्ध में उठ खड़ी हुई और अनेक व्याख्याओं तथा प्रक्षिप्तता की कल्पनाओं का सहारा लेने पर भी बहुत कुछ कठिनाइयाँ शेष ही रह गयीं। अब यदि यह सम्भव है कि संहिता के आधार पर एक समन्वयपूर्ण धर्म का निर्माण किया जाये तो यह सहस्त्र गुना अधिक सम्भव है कि एक समन्वयपूर्ण और सामंजस्य युक्त मत उपनिषदों के आधार पर बन सकता है, फिर इसमें पहले से प्राप्त राष्ट्रीय सम्मति के विपरीत न जाना पड़ेगा। यहाँ भूतकाल के सब आचार्य तुम्हारा साथ देंगे तथा उन्नति के नये मार्गों का विशाल क्षेत्र तुम्हारे सामने खुला है। निस्सन्देह गीता हिन्दुओं की बाइबिल बन चुकी है और यह इस मान के सर्वथा योग्य भी है। परन्तु श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व काल्पनिक कथाओं के झुण्ड में ऐसा आच्छादित हो गया है कि उनके जीवन से जीवनदायिनी स्फूर्ति प्राप्त करना असम्भव सा जान पड़ता है दूसरे, वर्तमान युग में नई विचार प्रणाली और नवीन जीवन की आवश्यकता है (2प-97)
3. स्मृति और पुराण- सीमित बुद्धि वाले व्यक्तियों की रचनाएँ हैं और भ्रम, प्रमाद, भेद तथा द्वेष भाव से परिपूर्ण है। उनके कुछ अंश जिनमें मन की उदारता और प्रेम का आविर्भाव है, ग्रहण करने योग्य है और शेष सब का त्याग कर देना चाहिए। उपनिषद् और गीता सच्चे शास्त्र हैं, और राम, कृष्ण, बुद्ध, चैतन्य, नानक, कबीर आदि सच्चे अवतार हैं, क्योंकि उनके हृदय आकाश के समान विशाल थे। ओर इन सब में श्रेष्ठ हैं- रामकृष्ण। रामानुज, शंकर इत्यादि संकीर्ण हृदय वाले केवल पंडित मालूम होते हैं। वह प्रेम कहाँ है, वह हृदय जो दूसरों का दुःख देखकर द्रवित हो? पंडितों का शुष्क विद्याभिमान- जैसे-तैसे केवल अपने आप को मुक्त करने की इच्छा। परन्तु महाशय क्या यह सम्भव है़? क्या इसकी कभी सम्भावना थी या हो सकती है? क्या अहम भाव का अल्पांश भी रहने से किसी चीज की प्राप्ति हो सकती है? (2प 95)
4.सभी देशों में, सभी काल में कर्मकाण्ड, सामाजिक रीति-नीति सदा ही परिवर्तित होते रहते हैं। एक मात्र ज्ञान काण्ड ही परिवर्तित नहीं होता। वैदिक युग में भी देख, कर्मकाण्ड धीरे-धीरे परिवर्तित हो गया, परन्तु उपनिषद् का ज्ञान प्रकरण आज तक भी एक ही भाव से मौजूद है, सिर्फ उसकी व्याख्या करने वाले अनेक हो गये (संघ में 259)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 02. वेदान्त
1. समग्र धर्म वेदान्त में ही है अर्थात् वेदान्त दर्शन के द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत। इन तीन स्तरों या भूमिकाओं में है और ये एक के बाद एक आते हैं तथा मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के क्रम से तीन भूमिकाएं हैं। प्रत्येक भूमिका आवश्यक है। यहीं सार रुप से धर्म है भारत के नाना प्रकार के जातीय आचार व्यवहारों और धर्म मतों में वेदान्त के प्रयोग का नाम है- हिन्दू धर्म। यूरोप की जातियों के विचारों नें उसकी पहली भूमिका अर्थात् द्वैत का प्रयोग है- ईसाई धर्म। सेनेटिक जातियों में उसका ही प्रयोग है- इस्लाम धर्म। अद्वैतवाद ही अपनी योगानुभूति के आकार में हुआ- बौद्ध धर्म। इत्यादि, इत्यादि। धर्म का अर्थ है वेदान्त, उसका प्रयोग विभिन्न जातियों के विभिन्न प्रयोजन, पारिपार्शिवक अवस्था एवं अन्यान्य अवस्थाओं के अनुसार विभिन्न रुपों में बदलता ही रहेगा। मूल दार्शनिक तत्व एक होने पर भी तुम देखोगे कि शैव, शाक्त आदि हर एक ने अपने विशेष धर्ममत और अनुष्ठान पद्धति में उसे रुपान्तरित कर लिया है (1प-318)
2. एक श्रेणी के वेदान्त वादियों का ऐसा ही मत है- वे कहते हैं ”व्यष्टि की मुक्ति, मुक्ति का वास्तविक स्वरुप नहीं है। इस समष्टि की मुक्ति ही मुक्ति है।“ हाँ, इस मत के दोष-गुण अवश्य दिखाए जा सकते हैं (संघ में 255)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 03. ईश्वर
1.जिस प्रकार मानवी शरीर एक व्यक्ति है और उसका प्रत्येक सूक्ष्म भाग जिसे हम ”कोश“ कहते हैं एक अंश है। उसी प्रकार सारे व्यक्तियों का समष्टि ईश्वर है, यद्यपि वह स्वयं भी एक व्यक्ति है। समष्टि ही ईश्वर है, व्यष्टि या अंश जीव है। इसलिए ईश्वर का अस्तित्व जीवों के अस्तित्व पर निर्भर है जैसे कि शरीर का उसके सूक्ष्म भाग पर और सूक्ष्म भाग का शरीर पर। इस प्रकार जीव और ईश्वर परस्परावलम्बी हैं। जब तक एक का अस्तित्व है तब तक दूसरे का भी रहेगा। और हमारी इस पृथ्वी को छोड़कर अन्य सब उँचे लोकों में शुभ की मात्रा अशुभ से अधिक होती है। इसलिए वह समष्टि स्वरुप ईश्वर शिव स्वरुप, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ कहा जा सकता है। ये गुण प्रत्यक्ष प्रतीत होते हैं। ईश्वर से सम्बद्ध होने के कारण उन्हें प्रमाण करने के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं होती। ब्रह्म इन दोनों से परे है और वह कोई विशिष्ट अवस्था नहीं है वह एक ऐसी वस्तु है जो अनेकों की समष्टि से नहीं बनी है। वह एक ऐसी सत्ता है जो सूक्ष्मातित-सूक्ष्म से लेकर ईश्वर तक सब में व्याप्त है और उसके बिना किसी का अस्तित्व नहीं हो सकता सभी का अस्तित्व उसी सत्ता या ब्रह्म का प्रकाश मात्र है। जब मैं सोचता हूँ ”मैं ब्रह्म हूँ“ तब मेरा यथार्थ अस्तित्व होता है ऐसा ही सबके बारे में है विश्व की प्रत्येक वस्तु स्वरुपतः वहीं सत्ता है (2प 18)
2. सबका स्वामी (परमात्मा) कोई व्यक्ति विशेष नहीं हो सकता, वह तो सबकी समष्टि स्वरुप ही होगा। वैराग्यवान मनुष्य आत्मा शब्द का अर्थ व्यक्तिगत ”मैं“ न समझकर, उस सर्वव्यापी ईश्वर को समझता है जो अन्तर्यामी होकर सबमें वास कर रहा हो। वे समष्टि के रुप में सब को प्रतीत हो सकते हैं ऐसा होते हुए जब जीव और ईश्वर स्वरुपतः अभिन्न हैं, तब जीवों की सेवा और ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ एक ही है। यहाँ एक विशेषता है। जब जीव को जीव समझकर सेवा की जाती है तब वह दया है, किन्तु प्रेम नहीं। परन्तु जब उसे आत्मा समझकर सेवा करो तब वह प्रेम कहलाता है। आत्मा ही एक मात्र प्रेम का पात्र है, यह श्रुति, स्मृति और अपरोक्षानुभूति से जाना जा सकता है। भगवान चैतन्यदेव ने इसलिए यह ठीक कहा था- ”ईश्वर से प्रेम और जीवों पर दया“ वे द्वैतवादी थे, इसलिए उनका अन्तिम निर्णय जिसमें वे जीव और ईश्वर में भेद करते हैं उनके लिए ठीक है परन्तु हम अद्वैत वादी हैं हमारे लिए जीव को परमात्मा से पृथक करना बन्धन का कारण है इसलिए मूल तत्व दया न होना चाहिए परन्तु प्रेम। हमारा धर्म करुणा नहीं वरन् सेवा धर्म है और सब में आत्मा ही को देखना है। (2प 109)
3. ”स ईशोऽनिर्वचनीयप्रेमस्वरुपः“- ईश्वर अनिर्वचनीय प्रेम स्वरुप है। नारद द्वारा वर्णन किया हुआ ईश्वर का यह लक्षण स्पष्ट है और सब लोगों को स्वीकार है। यह मेरे जीवन का दृढ़ विश्वास है। बहुत सेे व्यक्तियों के समूह कांे समष्टि कहते हैं और प्रत्येक व्यक्ति, व्यष्टि कहलाता है आप और मैं दोनों व्यष्टि हैं, समाज समष्टि है आप और मैं- पशु, पक्षी, कीड़ा, कीड़े से भी तुक्ष प्राणी, वृक्ष, लता, पृथ्वी, नक्षत्र और तारे यह प्रत्येक व्यष्टि है और यह विश्व समष्टि है जो कि वेदान्त में विराट, हिरण गर्भ या ईश्वर कहलाता है। और पुराणों में ब्रह्मा, विष्णु, देवी इत्यादि। व्यष्टि को व्यक्तिशः स्वतन्त्रता होती है या नहीं, और यदि होती है तोे उसका नाम क्या होना चाहिए। व्यष्टि को समष्टि के लिए अपनी इच्छा और सुख का सम्पूर्ण त्याग करना चाहिए या नहीं, वे प्रत्येक समाज के लिए चिरन्तन समस्याएँ हैं सब स्थानों में समाज इन समस्याओं के समाधान में संलग्न रहता है ये बड़ी-बड़ी तरंगों के समान आधुनिक पश्चिमी समाज में हलचल मचा रही हैं जो समाज के अधिपत्य के लिए व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का त्याग चाहता है वह सिद्धान्त समाजवाद कहलाता है और जो व्यक्ति के पक्ष का समर्थन करता है वह व्यक्तिवाद कहलाता है। (2प 288)
4. यन्त्र कभी नियम को उल्लंघन करने की कोई इच्छा नहीं रखता। कीड़ा नियम का विरोध करना चाहता है और नियम के विरुद्ध जाता है चाहे उस प्रयत्न में वह सिद्धि लाभ करे या असिद्धि, इसलिए वह बुद्धिमान है। जिस अंश में इच्छाशक्ति के प्रकट होने में सफलता होती है उसी अंश में सुख अधिक होता है और जीव उतना ही उँचा होता है परमात्मा की इच्छा शक्ति पूर्ण रुप से सफल होती है इसलिए वह उच्चतम है। (2प-290)
5. ईश्वर उस निरपेक्ष सत्ता की उच्चतम अभिव्यक्ति है, या यों कहिए, मानव मन के लिए जहाँ तक निरपेक्ष सत्य की धारणा करना सम्भव है, बस वहीं ईश्वर है। सृष्टि अनादि है और उसी प्रकार ईश्वर भी अनादि है (भक्ति योग पृष्ठ-13)
6. यह सारा झगड़ा केवल इस ”सत्य“ शब्द के उलटफेर पर आधारित है। ”सत्य“ शब्द से जितने भाव सूचित होते हैं वे समस्त भाव ”ईश्वर भाव“ में आ जाते हैं। ईष्वर उतना ही सत्य है जितनी विश्व की कोई अन्य वस्तु। और वास्तव में, ”सत्य“ शब्द यहाँ पर जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उससे अधिक ”सत्य“ शब्द का कोई अर्थ नहीं। यहीं हमारी ईश्वर सम्बन्धी दार्षनिक धारण है। (भक्ति योग पृष्ठ-21)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 04. गुरु, शिष्य, अवतार और मन्त्र
1. जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार होता है वह गुरु कहलाता है और जिसकी आत्मा में यह शक्ति संचारित होती है उसे शिष्य कहते हैं (भक्ति योग 27)
2. ”यथार्थ धर्म गुरु“ में अपूर्व योग्यता होनी चाहिए, और उसके शिष्य को भी कुशल होना चाहिए। जब दोनों ही अद्भुत और असाधारण होते हैं तभी अद्भुत आध्यात्मिक जागृति होती है अन्यथा नहीं (भक्ति योग 27)
2. सत्य स्वयं ही प्रमाण है उसे प्रमाणित करने के लिए किसी दूसरे साक्षी की आवश्यकता नहीं, वह स्व प्रकाश है। वह हमारी प्रकृति के अन्तः स्थल तक प्रवेश कर जाता है और उसके समक्ष सारी दुनियाँ उठ खड़ी होती है और कहती है- ”यहीं सत्य है“ जिन आचार्यों के हृदय में सत्य और ज्ञान सूर्य के समान दैदिप्यमान होते हैं, वे संसार में सर्वोच्च महापुरुष हैं और अधिकांश मानव जाति द्वारा उनकी उपासना ईश्वर के रुप में होती है (भक्ति योग 31)
3. शिष्य के लिए यह आवश्यक है कि उसमें पवित्रता, सच्ची ज्ञान पिपासा और अध्यवसाय हो। अपवित्र आत्मा कभी यथार्थ धार्मिक नहीं हो सकती। धार्मिक होने के लिए तन, मन और वचन की शुद्धता नितान्त आवश्यक है (भक्ति योग 31)
4. गुरु के सम्बन्ध में यह जान लेना आवश्यक है कि उन्हें शास्त्रो का मर्म ज्ञान हो। वैसे तो सारा संसार ही बाइबिल, वेद, पुराण पढ़ता है, पर वे तो केवल शब्द राशि है। धर्म की सूखी ठठरी मात्र है। जो गुरु शब्दाडंबर के चक्कर में पड़ जाते हैं, जिनका मन शब्दों की शक्ति में बह जाता है, वे भीतर का मर्म खो बैठते हैं। जो शास्त्रों के वास्तविक मर्मज्ञ हैं, वे ही असल में सच्चे धार्मिक गुरु हैं (भक्ति योग 32)
5. संसार के प्रधान आचार्यों में से कोई भी शास्त्रों की इस प्रकार नानाविध व्याख्या करने के झमेले में नहीं पड़ा। उन्होनें श्लोकों के अर्थ में खींचातानी नहीं की। वे शब्दार्थ और भावार्थ के फेर मंे नहीं पड़े। फिर भी उन्होंने संसार को बड़ी सुन्दर शिक्षा दी। इसके विपरीत, उन लोगों ने जिनके पास सिखाने को कुछ भी नहीं, कभी एकाध शब्द को ही पकड़ लिया और उस पर तीन भागों की एक मोटी पुस्तक लिख डाली, जिसमें सब अनर्थक बातें भरी हैं (भक्ति योग 33)
6. धर्म ही सर्वोच्च ज्ञान है- वहीं सर्वोच्च विद्या है। वह पैसों से नहीं मिल सकता और न पुस्तकों से ही। तुम भले ही संसार का कोना-कोना छान डालो, जब तक गुरु का आगमन नहीं होता, जब जक तुम धर्म को कहीं ना पाआंगे। और ये विधाता- निर्दिष्ट गुरु प्राप्त हों जाय जो उनके निकट बालकवत विश्वास और सरलता के साथ अपना हृदय खोल दो और साक्षात ईश्वर ज्ञान से उनकी सेवा करो। जो लोग इस प्रकार प्रेम और श्रद्धा सम्पन्न होकर सत्य की खोज करते हैं, उनके निकट सत्य स्वरुप भगवान सत्य, शिव और सौन्दर्य के अलौकिक तत्वों को प्रकट कर देते हैं (भक्ति योग पृष्ठ 38)
7. वह भक्त सचमुच ही भाग्यशाली है जिसे ऐसा गुरु मिलता है जिये साक्षात्कार हो गया हो या परम पुरुष हो क्योंकि ऐसे गुरु केवल शिक्षा ही नहीं देते बल्कि अपने शिष्यों में शिक्षा के पालन हेतु शक्ति का संचार भी करते हैं। ऐसे आध्यात्मिक आचार्यों के शब्दों में दृढ़ विश्वास रहता है जो दूसरे साधनों से प्राप्त नहीं हो सकता और शिष्य ऐसे गुरु से दीक्षित होकर कभी अंधेरे में भटकता नहीं है बल्कि कठिन से कठिन पथ पर अग्रसर होता है। ऐसे आध्यात्मिक शिक्षक से एक बार सम्पर्क हुआ नहीं कि साधक की मंजिल प्राप्ति का विकास निश्चित हो जाता है। इसका अभिप्राय यह नहीं कि वह अपने उद्देश्य के लिए संघर्ष नहीं करेगा, बल्कि उसका संघर्ष सौ गुना कम हो जायेगा (योग क्या है 24)
8. दो प्रकार के लोग ईश्वर की मनुष्य रुप में उपासना नहीं करते। एक तो नर पशु, जिसे धर्म का कोई ज्ञान नहीं और दूसरे परमहंस, जो मानव जाति के सारी दुर्बलताओं के उपर उठ चुके हैं और जो अपनी मानवी प्रकृति की सीमा के भी उस पार चले गये हैं। उनके लिए सारी प्रकृति आलस्यरुप हो गयी है। वे ही भगवान को उनके असल स्वरुप में भज सकते हैं। (भक्ति योग- 42)
9. साधारण गुरुओं से श्रेष्ठ एक और श्रेणी के गुरु होते हैं, और वे हैं-इस संसार में ईश्वर के अवतार। वे केवल स्पर्श से, यहाँ तक कि इच्छा मात्र से ही आध्यात्मिकता प्रदान कर सकते हैं। उनकी इच्छा मात्र से पतित से पतित व्यक्ति क्षण मात्र में साधु हो जाता है। वे गुरुओं के भी गुरु हैं-नरदेहधारी भगवान हैं। (भक्तियोग पृष्ठ 39)
10. अवतार का अर्थ है जीवनमुक्त अर्थात् जिन्होंने ब्रह्मत्व प्राप्त किया है। अवतार विषयक और कोई विशेषता मेरी दृष्टि में नहीं है। ब्रह्मादिस्तम्यपर्यत्त सभी प्राणी समय आने पर जीवनमुक्ति को प्राप्त करेंगे, उस अवस्था विशेष की प्राति में सहायक बनना ही हमारा कर्तव्य है। इस सहायता का नाम धर्म है बाकी कुधर्म है। इस सहायता का नाम कर्म है। बाकी कुकर्म है। (1प-328)
11. जिस आत्मा की इतनी महिमा शास्त्रों से जानी जाती है वह आत्मा का ज्ञान जिनकी कृपा से एक मुहूर्त में प्राप्त होता है, वे ही हैं सचल तीर्थ-अवतार पुरुष। वे जन्म से ही ब्रह्मज्ञ हैं और ब्रह्म तथा ब्रह्मज्ञ में कुछ भी अन्तर नहीं है-”ब्रह्म वेद ब्रह्मेव भवति“। आत्मा को तो फिर जाना नहीं जाता क्योंकि यह आत्मा ही जानने वाला और जनन करने वाला बना हुआ है यह बात पहले ही मैंने कही है। अतः मनुष्य का जानना उसी अवतार तक है जो आत्मस्थ है। मानव बुद्धि ईश्वर के सम्बन्ध में जो सबसे उच्च भाव ग्रहण कर सकती है, वह वहीं तक है। इसके बाद और जानने का प्रश्न नहीं रहता। उस प्रकार के ब्रह्मज्ञ कभी-कभी ही जगत में पैदा होते हैं। उन्हें कम लोग ही समझ पाते हैं। वे ही शास्त्र वचनों के प्रमाण स्थल हैं भव सागर के आलोक स्तंभ हैं। (संघ में 214)
12. बुद्ध अवतार में भगवान कहते हैं कि आधि भौतिक दुःख का कारण भेद ही है अर्थात् जन्मगत, गुणगत या धनगत। सब तरह का भेद इन दुखों का कारण है। आत्मा में लिंग, वर्ण या आश्रम या इस प्रकार का कोई भेद नहीं होता और जैसे कीचड़ के द्वारा कीचड़ नहीं धोया जाता उसी तरह से भेद भाव से अभेद साबित होना असम्भव है। कृष्ण अवतार में वे कहते हैं कि सब दुखों का मूल अविद्या है और निष्काम कर्म चित्त को शुद्ध करता है परन्तु ”कर्म क्या है और अकर्म क्या है“ इसका निर्णय करने में महात्मा भी मोह में पड़ जाते हैं। जिस कर्म के द्वारा इस आत्मा भाव का विकास होता है वही कर्म है और जिसके द्वारा अनात्म भाव का विकास होता है वही अकर्म है। अतएव कर्म या अकर्म का निर्णय व्यक्तिगत, देशगत और कालगत परिस्थिति के अनुसार होना चाहिए। यज्ञ इत्यादि कर्म प्राचीन काल में उपयोगी थे तथा जातिगत कर्म भी। परन्तु वर्तमान काल के लिए वैसा नहीं है। रामकृष्ण अवतार मेें नास्तिक विचार ज्ञान रुपी तलवार से नष्ट होंगे और सम्पूर्ण जगत भक्ति और प्रेम से एक रुप होगा। दूसरे शब्दों में, उसका जीवन धन्य है जो इस अवतार के उपदेश को व्यवहार में लाये चाहे वह उन्हें स्वयं माने या न माने (1प 373)
13. भगवान मनुष्य की दुर्बलताओं को समझते हैं और मानवता के कल्याण के निए नर देह धारण करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार के सम्बन्ध में गीता में कहा है, ”जब-जब धर्म की ग्लानि होती है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, तब-तब मैं अवतार लेता हूँ। साधुओं की रक्षा और दुष्टों के नाश के लिए तथा धर्म संस्थापनार्थ मैं युग-युग में अवतीर्ण होता हूँ।“ (गीता 4/7-9) मूर्ख लोग मुझ जगदीश्वर के यथार्थ रुप को न जानने के कारण मुझ नरदेह धारी की अवहेलना करते हैं। (गीता 9/11) (भक्ति योग-43)
14. भगवान श्रीरामकृष्ण कहते थे- ‘जब एक बहुत बड़ी लहर आती है, तो छोटे-छोटे नाले और गड्ढे अपने आप ही लबालब भर जाते हैं। इसी प्रकार जब एक अवतार जन्म लेता है, तो समस्त संसार मंे आध्यात्मिकता की एक बड़ी बाढ़ आ जाती है और लोग वायु के कण कण में धर्मभाव का अनुभव करने लगते हैं।’ (भक्ति योग- 43)
15. मतों आदि के बारे में मुझे यहीं कहना है कि कोई श्रीरामकृष्णदेव को अवतार आदि को स्वीकार करे तो अच्छा है, यदि न करे तो भी ठीक है। परन्तु सच बात तो यह है कि चरित्र के विषय में श्रीरामकृष्णदेव सबसे आगे बढ़े हुए हैं। उनके पहले जो अवतारी महापुरुष हुए हैं उनसे वे अधिक उदार, अधिक मौलिक और अधिक उन्नतशील थे, परन्तु इस नये अवतार या आचार्य की शिक्षा यह है कि योग, भक्ति, ज्ञान और कर्म के सर्वोच्च भावों का सम्मिलन होना चाहिए जिससे एक नये समाज का निर्माण हो सके। प्राचीन आचार्य निःसन्देह अच्छे थे परन्तु यह इस युग का नया धर्म है-अर्थात् योग, ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय-आयु और लिंग भेद के बिना, पतित से पतित तत्व में ज्ञान और भक्ति का प्रचार। पहले के अवतार ठीक थे, परन्तु श्रीरामकृष्ण के व्यक्तित्व में अच्छा समन्वय हो गया है। (1प-441)
16. उन्हें (सिद्ध गुरुवों) मंत्र द्वारा शिष्यों में आध्यात्मिक ज्ञान का बीजारोपड़ करना पड़ता है। ये मंत्र क्या हैं? भारतीय दर्शन के अनुसार नाम और रुप ही इस जगत की अभिव्यक्ति के कारण हैं। मानवीय अन्तर्जगत में एक भी ऐसी चित्तवृत्ति नहीं रह सकती, जो नाम-रुपात्मक न हो। (भक्ति योग पृष्ठ-44)
़17. बृहत् ब्रह्माण्ड में भी ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ या समष्टि महत् ने पहले अपने आप को नाम के, और फिर बाद में रुप के आकार में अर्थात् इस परिदृश्यमान जगत के आकार में अभिव्यक्त किया। (भक्ति योग पृष्ठ-44)
18. यह सारा व्यक्त इन्द्रियग्राह्य जगत रुप है, और इसकें पीछे है अनन्त अव्यक्त स्फोट। स्फोट का अर्थ- समस्त जगत की अभिव्यक्ति का कारण शब्द-ब्रह्म है। समस्त नामों अर्थात् भावों की नित्य समवायी उपादान स्वरुप यह नित्य स्फोट ही वह शक्ति है, जिससे भगवान इस विश्व की सृष्टि करते हैं। यहीं नहीं बल्कि भगवान पहले स्फोट रुप में परिणत हो जाते हैं और तत्पश्चात् अपने को उससे भी स्थूल इस इन्द्रियग्राह्य जगत केे रुप में परिणत कर लेते हैं। (भक्ति योग पृष्ठ-45)
19. इस स्फोट का एक मात्र वाचक शब्द है-”ऊँ“। और चूँकि हम किसी भी उपाय से शब्द को भाव से अलग नहीं कर सकते, इसलिए यह ”ऊँ“ भी इस नित्य स्फोट से नित्य संयुक्त है। (भक्ति योग पृष्ठ-45)
20. एकमेव यह ”ऊँ“ ही इस प्रकार सर्वभावाव्यापी वाचक शब्द है, अन्य कोई भी इसके समान नहीं। स्फोट ही सारे भावों का उपादान है, फिर भी वह स्वयं पूर्ण रुप से विकसित कोई विशिष्ट भाव नहीं है। अर्थात् यदि उन सब भेदों को, जो एक भाव को दूसरे से अलग करते हैं, निकाल दिया जाय, तो जो कुछ बचा रहता है, वहीं स्फोट है। इसलिए इस स्फोट को ”नादब्रह्म“ कहते हैं। (भक्ति योग पृष्ठ-45)
21. जो वाचक शब्द उसे सब से कम विशेषभावापन्न करेगा, पर साथ ही उसके स्वरुप को यथासम्भव पूरी तरह प्रकाशित करेगा, वहीं उसका सबसे सच्चा वाचक होगा। और यह वाचक शब्द है- एकमात्र ”ऊँ“ क्योंकि ये तीनों अक्षर अ, उ और म्, जिनका एक साथ उच्चारण करने से ”ऊँ“ होता है, समान शब्दों के सधारण वाचक के तौर पर लिये जा सकते हैं। (भक्ति योग पृष्ठ-46)
22. अक्षर ”अ“ सारे अक्षरों में सबसे कम विशेषभावापन्न है। इसीलिए भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं-”अक्षरों में मैं ”अ“ कार हूँ।“ (गीता,10/33) स्पष्ट रुप से उच्चारित जितने भी शब्द हैं, उनकी उच्चारण क्रिया मुख में जिह्वा के मूल से आरम्भ होती है और ओठों में आकर समाप्त हो जाती है। ”अ“ जिह्वा मूल अर्थात् कण्ठ से उच्चारित होता है, और ”म“ ओठों से होने वाला अन्तिम शब्द है। और ”उ“ उस शक्ति का सूचक है, जो जिह्वा मूल से आरम्भ होकर मुँह भर में लुढ़कती हुई ओठों में आकर समाप्त हो जाजी है। यदि ”ऊँ“ का उच्चारण ठीक ढंग से किया जाय, तो इसके शब्दोच्चारण की सम्पूर्ण क्रिया सम्पन्न हो जाती है- दूसरे किसी भी शब्द में यह शक्ति नहीं। (भक्ति योग- 46)
23. जिस प्रकार अल्पतम् विशेष भावात्मक तथा सार्वभौमिक वाचक शब्द ”ऊँ“ के सम्बन्ध में वाच्य और वाचक आपस में अभेद्य रुप से सम्बद्ध हैें उसी प्रकार वाच्य और वाचक का यह अविच्छिन्न सम्बन्ध भगवान और विश्व के विभिन्न खण्ड भावों पर भी लागू है, अतएव उनमें से प्रत्येक का एक विशिष्ट वाचक शब्द होना आवश्यक है। (भक्ति योग-47)
24. ये वाचक शब्द ऋषियों की गम्भीरतम आध्यात्मिक अनुभूति से उत्पन्न हुए हैं और वे भगवान तथा विश्व के जिन विशेष-विशेष खण्ड भाव के वाचक हैं, उन विशेष भावों को यथासम्भव प्रकाशित करते हैं। जिस प्रकार ”ऊँ“ अखण्ड ब्रह्म का वाचक है, उसी प्रकार अन्यान्य मंत्र भी उसी परम पुरुष के खण्ड-खण्ड भावों के वाचक हैं। ये सभी ईश्वर के ध्यान और प्रकृत ज्ञान की प्राप्ति में सहायक हैं। (भक्ति योग-47)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 05. धर्म-विज्ञान
1.धर्म मनुष्य के भीतर से ही उत्पन्न है, वह बाहर की किसी वस्तु से उत्पन्न नहीं है। हमारा विश्वास है, धर्म चिन्तन मनुष्य के पक्ष में प्रकृतिगत है; वह मनुष्य के स्वभाव के सहित ऐसे अविच्छिन्न भाव से जड़ित है कि जब तक मनुष्य अपनी देह तथा मन का त्याग नहीं कर पाता, जब तक वह चिन्ता और जीवन त्याग नहीं कर पाता, तब तक उसके लिए धर्मत्याग असम्भव है। (पृ0-2)
2.वर्तमान काल में सब प्रश्नों में से प्रधान प्रश्न यह है-माना-ज्ञात और ज्ञेय के दोनों ओर अज्ञेय और अनन्त अज्ञात विद्यमान है-किन्तु इस अनन्त अज्ञात को जानने का यत्न क्या है? क्यों हम ज्ञात को लेकर ही सन्तुष्ट नहीं होते? क्यों हम भोजन, पान और समाज का कुछ कल्याण करके ही सन्तुष्ट नहीं रहते? आजकल सुनते रहते हैं- जगत का उपकार करो-यही एक मात्र धर्म है, जगत् से अतीत सत्ता की समस्या लेकर अस्थिर होने का कोई फल नहीं है। यह भाव आजकल इतना अधिक प्रबल हो गया है कि यह एक स्वतः सिद्ध सत्य के रूप में उपस्थित है। (पृ0-3)
3. यदि मनुष्य वर्तमान लेकर सन्तुष्ट रहे और जगदातीत सत्ता के समस्त अनुसन्धान का एकदम परित्याग कर दे, तो मानव जाति को पशु की भूमि में फिर से आना होगा। धर्म-जगदातीत सत्ता का अनुसन्धान ही-मनुष्य और पशु में प्रभेद बनाये रखता है। (पृ0-4)
4.अब प्रश्न आता है, धर्म के द्वारा क्या वास्तव में कोई फल होता है? हाँ होता है। उससे मानव अनन्त जीवन प्राप्त करता है! मनुष्य वर्तमान में जो है, वह इस धर्म की ही शक्ति से हुआ है, और इससे ही यह मनुष्य नामक प्राणी देवता बनेगा। धर्म यही करने में समर्थ है। (पृ0-6)
5.प्रश्न है- हमारा चरम लक्ष्य क्या है? जहाँ से हमने आरम्भ किया है, वहीं अवश्य ही अन्त करना होगा; और जब ईश्वर से आपकी गति आरम्भ हुई है, तब ईश्वर में ही अवश्य फिर लौटना होगा। (पृ0-7)
6.एक और प्रश्न आता है- हम उन्नति पथ में अग्रसर होते होते क्या धर्म के नये सत्य का अविष्कार नहीं करेंगे? हाँ भी, नहीं भी। प्रथमतः यह समझना होगा कि धर्म के सम्बन्ध में अधिक और कुछ जानने को नहीं है, सभी कुछ जाना जा चुका है। जगत् के सभी धर्म में, आप देखियेगा कि उस धर्म के अवलम्बनकारी सदैव कहते हैं, हमारे भीतर एक एकत्व है। अतएव ईश्वर के सहित आत्मा के एकत्व-ज्ञान की अपेक्षा और अधिक उन्नति नहीं हो सकती। ज्ञान का अर्थ इस एकत्व का अविष्कार ही है। हम आप सब को नर-नारी रूप में पृथक् देखते हैं- यही बहुत्व है।(पृ0-7)
7.‘‘ईश्वर को जब तक आप नहीं जान लेते, तब तक मनुष्य को किस प्रकार जानियेगा?’’-ये ईश्वर, यही अनन्त, अज्ञात या निरपेक्ष सत्ता या अनन्त या नामातीत वस्तु- उन्हें जिस नाम से इच्छा हो, उसी नाम से पुकारा जाता है- ये ही वर्तमान जीवन के, जो कुछ ज्ञात है और जो कुछ ज्ञेय है, सब के ही एकमात्र युक्तियुक्त व्याख्यास्वरूप है। चाहे जिस वस्तु की बात-सम्पूर्ण जड़ वस्तु की कोई बात लीजिए। केवल जड़तत्त्व सम्बन्धी विज्ञान में से कोई भी एक, जैसे- रसायन, पदार्थ विद्या, गणित, ज्योतिष या प्राणितत्व विद्या की बात लीजिये- उसकी विशेष रूप से आलोचना कीजिये, क्रमशः यह तत्वानुसन्धान अग्रसर हो, देखियेगा-स्थूल क्रमशः सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म पदार्थ में लय हो रहा है- अन्त में आपको ऐसे स्थान में आना होगा, जहाँ इन सब जड़ वस्तुओं को छोड़कर इन्हें अतिक्रमण करके अर्थात् फाँदकर अजड़ में जाना ही होगा। सब विधाओं में ही स्थूल क्रमशः सूक्ष्म में मिल जाता है, पदार्थ विद्या दर्शन में पर्यवसित हो जाती है। इसी प्रकार मनुष्य को बाध्य होकर जगदातीत सत्ता की आलोचना में उतरना होता है। (पृ0-3)
8.यह बात कहने में अच्छी है कि वर्तमान में जो देख रहे हो वह सब लेकर ही तृप्त रहो; गाय, कुत्ते और अन्यान्य पशुगण इसी प्रकार वर्तमान के द्वारा ही सन्तुष्ट हैं, और इसी कारण वे पशु बने हैं। सब प्राणियों में से मनुष्य ही स्वभावतः उपर की ओर दृष्टि उठाकर देखता है। इसी उध्र्वदृष्टि ऊपर की ओर गमन और पूर्णत्व के अनुसन्धान को ही ‘परिमाण’ अथवा ‘उद्धार’ कहते हैं और ज्योंहि मनुष्य उच्चतर दिशा की ओर गमन करना प्रारम्भ करता है, त्योंहि वह इस परिमाणस्वरूप सत्य की धारणा की दिशा में अपने को अग्रसर करता है। परिमाण-अर्थ, वेशभूषा अथवा घर पर निर्भर नहीं करता, यह मानव मस्तिष्क के भीतर की आध्यात्मिक भाव रत्नराशि के तारतम्य पर निर्भर करता है। (पृ0-5)
9.शिशु गुण अपनी निज की दृष्टि से अर्थात् किस वस्तु से कितनी मिठाई मिलती है, इस हिसाब से समग्र जगत् का विचार कर लेते हैं जो लोग अज्ञान से घिरे होने के कारण शिशु सदृश है, जगत् में उन सब शिशुओं का विचार भी उसी प्रकार का है। निम्न वस्तु की दृष्टि से उच्चतर वस्तु का विचार करना कदापि उचित नहीं है। प्रत्येक विषय का विचार उसकी गुरुता के हिसाब से करना होगा। अनन्त का विचार अनन्त की गुरुता के हिसाब से करना होगा। धर्म मानव जीवन का सर्वांश है-केवल वर्तमान नहीं-भूत, भविष्यत्, वर्तमान-सर्वांशव्यापी है। अतएव यह, अनन्त आत्मा और अनन्त ईश्वर के बीच अनन्त सम्बन्ध स्वरूप है। (पृ0-6)
10.रासायनिक गुण सब प्रकार की ज्ञात वस्तुओं को उनके मूल धातुओं का रूप देने का यत्न कर रहे हैं। यदि इस अवस्था पर कभी वे पहुंचे, तब फिर इससे ऊपर और आगे नहीं बढ़ सकेंगे; तब रसायन विद्या सम्पूर्ण होगी। धर्म विज्ञान के सम्बन्ध में भी यही बात है। यदि हम पूर्ण एकत्व का अविष्कार कर सकें तो उससे अधिक उन्नति फिर नहीं हो सकती। (पृ0-8)
11.हमारे सम्मुख दो शब्द हैं- क्षुद्र ब्रह्माण्ड और बृहत् ब्रह्माण्ड; अन्तः और बहिः हम अनुभूति के द्वारा ही इन दोनों से सत्य लाभ करते हैं; अभ्यान्तर अनुभूति और बाह्य अनुभूति। आभ्यान्तर अनुभूति के द्वारा संगृहीत सत्य समूह मनोविज्ञान, दर्शन और धर्म के नाम से परिचित हैं, और वाह्य अनुभूति से भौतिक विज्ञान की उत्पत्ति हुई है। अब बात यह है कि जो सम्पूर्ण सत्य है, उसका इन दोनों जगत् की अनुभूति के साथ समन्वय होगा। क्षुद्र ब्रह्माण्ड, बृहत् ब्रह्माण्ड के सत्यसमूह को साक्षी प्रदान करेगा, उसी प्रकार वृहत् ब्रह्माण्ड की क्षुद्र ब्रह्माण्ड के सत्य को स्वीकार करेगा। चाहे जिस विद्या में हो, प्रकृत सत्य में कभी परस्पर विरोध रह नहीं सकता, आभ्यान्तर सत्य समूह के साथ बाह्य सत्य का समन्वय है। (पृ0-10)
12.अंग्रेजी में हम सब शब्द का व्यवहार करते हैं। प्राचीन हिन्दू दार्शनिकगण उसके लिए दो विभिन्न संज्ञाओं का प्रयोग करते थे; प्रथम- ‘प्रकृति’ और दूसरा उसकी अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक नाम है- ‘अव्यक्त’- जो व्यक्त अथवा प्रकाशित अथवा भेदात्मक नहीं है-उससे ही सब पदार्थ उत्पन्न हुये है, उससे अणु-परमाणु सब आये हैं; उससे ही भूत, शक्ति, मन, बुद्धि सब आये हैं। यह अत्यन्त विस्मयकारक है कि भारतीय दार्शनिकगण अनेक युग पहले ही कह गये है कि मन सूक्ष्म जड़मात्र है। (पृ0-12)
13.प्राचीन आचार्यगण ने इस अव्यक्त का लक्षण बताया है- ‘‘तीन शक्तियों की साम्यावस्था’’। उनमें से एक का नाम सत्व, दूसरी का रजः और तीसरी का तमः है। तमः निम्नतम शक्ति है- आकर्षणस्वरूप रजः उसकी अपेक्षा किंचित् उच्चतर है- विकर्षणस्वरूप; तथा सर्वोच्च जो शक्ति है वह इन दोनों की संयमस्वरूप है-वहीं सत्व है। अतएव ज्योंहि ये आकर्षण और विकर्षण दोनों शक्तियां सत्त्व के द्वारा पूर्णतः संयत होती है अथवा सम्पूर्ण साम्यावस्था में रहती है, तब सृष्टि अथवा विकार का अस्तित्व नहीं रहता, किन्तु ज्योंहि यह साम्यावस्था नष्ट होती है, ज्योंहि उनका सामंजस्य नष्ट होता है और उनमें से एक शक्ति दूसरी शक्तियों की अपेक्षा प्रबलतर हो उठती है, त्योंहि परिवर्तन तथा गति का आरम्भ होता है और इन सब का परिणाम चलता रहता है। इसी प्रकार व्यापार चक्रगति से चल रहा है। (पृ0-12)
14.ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण वाह्य भाग को-आजकल हम जिसे स्थूल जड़ कहते हैं- प्राचीन हिन्दूगण भूत कहते थे। उनके मतानुसार उनमें से एक ही, शेष सब का कारण है; क्योंकि अन्यान्य सब भूत इसी एक भूत से उत्पन्न हुए हैं। इस भूत को आकाश की संज्ञा प्राप्त है तथा उसके साथ प्राण नाम की एक और वस्तु रहती है। (पृ0-14)
15.जितने दिन सृष्टि रहती है, उतने दिन में प्राण और आकाश रहते हैं। कल्पान्त में प्राण और आकाश तक उसी अनन्त पुरुष में सुप्त भाव में थे, किन्तु किसी प्रकार का व्यक्त प्रपंच नहीं था। इस अवस्था को अव्यक्त कहते हैं- उसका ठीक शब्दार्थ स्पन्दन रहित अथवा अप्रकाशित है। (पृ0-15)
16.प्राण स्वयं आकाश की सहायता के अभाव में कोई काम नहीं कर पाता। यह प्राण स्वयं नहीं रह सकता अथवा किसी मध्यवर्ती के बिना काम नहीं कर सकता। -वह कभी आकाश से पृथक् नहीं रह सकता। शक्ति और भूत की अति सूक्ष्मावस्था को ही प्राचीन दार्शनिकगण ने प्राण और आकाश की संज्ञा दी है। प्राण को आप जीवनीशक्ति कह सकते हैं, किन्तु उसको केवल मनुष्य के जीवन में सीमाबद्ध करने से अथवा आत्मा के साथ अमिट समझने से भी काम नहीं चलेगा। अतएव सृष्टि प्राण और आकाश के संयोग से उत्पन्न है तथा उसका आदि भी नहीं है, अन्त भी नहीं है। (पृ0-17)
17.अतः अव्यक्त प्रकृति, यह सर्वव्यापी बुद्धित्व में अथवा महत्त में परिणत होती है, यह फिर सर्वव्यापी अहंतत्व अथवा अहंकार में और यह परिणाम प्राप्त करके फिर सर्वव्यापी इन्द्रियग्राह भूत (इन्द्रिय और तन्मात्रा) में परिणत होता है। यही भूत-समष्टि इन्द्रिय अथवा केन्द्र समूह में और समष्टि सूक्ष्म परमाणु समूह में परिणत होती है। फिर इन सब के मिलने पर इस स्थूल जगत-प्रपंच की उत्पत्ति होती है। साख्य मत के अनुसार यही सृष्टि का क्रम है और बृहत् ब्रह्माण्ड में जो है, वह व्यष्टि अथवा क्षुद्र ब्रह्माण्ड में भी अवश्य रहेगा। (पृ0-33)
18.सांख्यवादियों का एक मत अनन्यसाधारण है। उनके मतानुसार एक मनुष्य अथवा कोई भी एक प्राणी जिस नियम से गठित है, समग्र विश्व ब्रह्माण्ड भी ठीक उसी नियम से विरचित है। इसलिए हमारा जैसे एक मन है, उसी प्रकार एक विश्वमन भी है। (पृ0-25)
19.जितने दिनों से जगत् है उतने दिनों से मन का अभाव-उस एक विश्वमन का अभाव-कभी नहीं हुआ। प्रत्येक मानव, प्रत्येक प्राणी उस विश्वमन से ही निर्मित हो रहा है, क्योंकि वह सदा ही वर्तमान हैं और उन सब के निर्माण के लिए उपादान प्रदान कर रहा है। (पृ0-27)
20.जगत में प्रकृति के प्रथम विकास को सांख्य वादीगण महत् या समष्टि बुद्धि कहते हैं। इसका ठीक शब्दार्थ है- सर्वश्रेष्ठ तत्व। इसे अहंज्ञान नहीं कहा जा सकता, कहने पर भूल होगी। अहंज्ञान इस बुद्धितत्व का अंशविशेष मात्र है, परन्तु बुद्धितत्व सार्वजनिन तत्व है। अहंज्ञान, अव्यक्त ज्ञान और ज्ञानातीत अवस्था-ये सब ही उसके अन्तर्गत आते हैं। (पृ0-31)
21.महत्तत्व ही उन सब परिवर्तनों का कारण है जिनके फलस्वरूप यह शरीर निर्मित हुआ है। महतत्व या समष्टि बुद्धि के भीतर ज्ञान की निम्न भूमि, साधारण ज्ञान की अवस्था और ज्ञान से अतीत अवस्था में सब ही विद्यमान है। (पृ0-27)
22.ज्ञान की निन्म भूमि हम पशुओं में देखते हैं और उसे-सहजात ज्ञान कहते हैं। सहजात ज्ञान में प्रायः कभी भूल नहीं होती। एक पशु इस सहजात ज्ञान के प्रभाव से कौन सी घास खाने योग्य है, कौन सी घास विषाक्त है, यह सुविधापूर्वक समझ लेता है। (पृ0-37)
23.उनके पश्चात् हमारा (मानव का) साधारण ज्ञान आता है-यह सहजात ज्ञान की अपेक्षा उच्चतर अवस्था है। हमारा साधारण ज्ञान भ्रान्तिमय है, यह पग-पग पर भ्रम में जा पड़ता है। इसे ही आप युक्ति अथवा विचारशक्ति कहते हैं। अवश्य सहजात ज्ञान की अपेक्षा उसका प्रसार अधिक दूर तक है, किन्तु सहजात ज्ञान की अपेक्षा युक्ति विचार में अधिक भ्रम की आशंका है। (पृ0-37)
24.मन की और एक उच्चतर अवस्था विद्यमान है,-ज्ञानातीत अवस्था-इस अवस्था में केवल योगीगण का ही अर्थात् जिन्होंने यत्न करके इस अवस्था को प्राप्त किया है, उनका ही अधिकार है। वह सहजात ज्ञान के समक्ष भ्रान्ति से विहिन है और युक्तिविचार से भी उसका अधिक प्रसार है। वह सर्वोच्च अवस्था है। (पृ0-37)
25.जिस प्रकार मनुष्य के भीतर महत् ही ज्ञान की निम्नभूमि, साधारण ज्ञानभूमि और ज्ञानातीत भूमि और ज्ञानातीत भूमि है, उसी प्रकार इस वृहत् ब्रह्माण्ड में भी यही सर्वव्यापी बुद्धितत्व अथवा महत्-सहजात ज्ञान, युक्ति विचार से उत्पन्न ज्ञान और विचार से अतीत ज्ञान, इन तीन प्रकारों से स्थित है। (पृ0-38)
26.ज्ञान का अर्थ है- सदृश वस्तु के साथ उसका मिलन। कोई नया संस्कार आने पर यदि आप लोगों के मन में उसके सदृश सब संस्कार पहले से ही वर्तमान रहे, तभी आप तृप्त होते हैं, और इस मिलन अथवा सहयोग को ही ज्ञान कहते हैं। अतएव ज्ञान का अर्थ, पहले से ही हमारी जो अनुभूति-समष्टि विद्यमान है, उसके साथ और एक सजातीय अनुभूति को एक ही कोष में प्रतिष्ठित कर देना है। तथा पहले से ही आपका एक ज्ञान भण्डार न रहने पर कोई नया ज्ञान ही आपका नहीं हो सकता, यही उसका सर्वोत्तम प्रबल प्रमाण है। (पृ0-38)
27.सांख्यमत के अनुसार सृष्टिवाद में सृष्टि अथवा क्रम विकास और प्रलय अथवा क्रम संकोच-ये दोनों स्वीकृत हुये हैं। सभी उसी अव्यक्त प्रकृति के क्रम विकास से उत्पन्न है, और ये सब क्रम संकुचित होकर व्यक्त आकार धारण करते हैं। सांख्य मत के अनुसार ऐसी किसी जड़ अथवा भौतिक वस्तु का अस्तित्व सम्भव नहीं है, ज्ञान का कोई अंशविशेष जिसका उपादान न हो। ज्ञान ही वह उपादान है, जिससे यह प्रपंच निर्मित हुआ है। (पृ0-25)
28.कपिल का प्रधान मत है- परिणाम। वे कहते हैं, एक वस्तु दूसरी वस्तु का परिणाम अथवा विकार स्वरूप है; क्योंकि उनके मत के अनुसार कार्य-कारण भाव का लक्षण यह है कि-कार्य अन्य रूप में परिणत कारण मात्र है। (पृ0-52)
29.कपिल का मत है कि समग्र ब्रह्माण्ड ही एक शरीर स्वरूप है जो कुछ हम देखते हैं, वे सब स्थूल शरीर है, उन सबके पश्चात् सूक्ष्म शरीर समूह और उनके पश्चात् समष्टि अहंतत्व, उसके भी पश्चात् समष्टि बुद्धि है। किन्तु यह सब ही प्रकृति के अन्तर्गत हैं। उसमें से जो हमारे प्रयोजन का है, हम ग्रहण कर रहे हैं; इसी प्रकार जगत के भीतर समष्टि मनस्तत्व विद्यमान है, उससे भी हम चिरकाल से प्रयोजन के अनुसार ले रहे हैं। किन्तु देह का बीज माता-पिता से प्राप्त होना चाहिए। इससे वंश की अनुक्रमणिकता और पुनर्जन्मवाद दोनों ही तत्व स्वीकृत हो जाते हैं। (पृ0-25)
30.समग्र प्रकृति के पश्चात् निश्चित रूप में कोई सत्ता है, जिसका आलोक उन पर पड़कर महत्, अहंज्ञान और यह सब नाना वस्तुओं के रूप में प्रतीत हो रहा है। और इस सत्ता को ही कपिल पुरुष अथवा आत्मा कहते है। वेदान्ती भी उसे आत्मा कहते हैं। कपिल के मत के अनुसार पुरुष अमिश्र पदार्थ है। वह यौगिक पदार्थ नहीं है। वही एकमात्र व जड़ पदार्थ है और सब प्रपंच-विकार ही जड़ है। पुरुष ही एकमात्र ज्ञाता है। (पृ0-52)
31.समस्त प्रकृति आत्मा के भोग अथवा अभिज्ञता का संचय करने के लिए काम करती जा रही है, और आत्मा उसी चरम लक्ष्य में जाने के लिए यह अभिज्ञता संचय कर रही है तथा मुक्ति ही यह चरम लक्ष्य है। सांख्य दर्शन के मत के अनुसार इस आत्मा की संख्या बहुत है। अनन्त संख्यक आत्माएं विद्यमान है। उसका और एक सिद्धान्त यह है कि ‘‘ईश्वर नहीं है’’, जगत् का सृष्टिकर्ता कोई नहीं है। सांख्यवादी कहते हैं प्रकृति ही जब इन सब विभिन्न रूपों का सृजन करने में समर्थ है तब ईश्वर स्वीकार करने का प्रयोजन नहीं है। (पृ0-55)
32.साख्य दर्शन सब आत्माओं के एकत्व के प्रति विश्वासी नहीं है। वेदान्त के मतानुसार सब जीवात्माएं ब्रह्मनामधेय एक विश्वात्मा में अमिश्र है, किन्तु सांख्य दर्शन के प्रतिष्ठाता कपिल द्वैतवादी थे। अवश्य उन्होंने जगत का विश्लेषण जहाँ तक किया है, वह अत्यन्त अद्भुत है। वे हिन्दू परिणामवादियों के जनक स्वरूप हैं, और परिवर्ती सब दार्शनिक शास्त्र उनकी ही चिन्तन प्रणाली के परिणाम मात्र हैं।(पृ0-24)
33.ज्ञान चैतन्य सम्पूर्ण रूप से प्रकृति के अधिकार में हैं, आत्मा में ज्ञान चैतन्य नहीं है। वेदान्त कहता है- आत्मा का स्वरूप असीम है अर्थात् वह पूर्णसत्ता, ज्ञान और आनन्द स्वरूप है। तथापि हमारा सांख्य के साथ इस विषय में एक मत है कि वे जिसे ज्ञान कहते हैं, वह एक यौगिक पदार्थ मात्र है। (पृ0-56)
34.जैसे सोना गलाना हो तो उसमें पोटैशियम साइनाइड मिलाना होता है। पोटैशियम साइनाइड अलग रह जाता है, उस पर कोई रासायनिक कार्य नहीं होता, किन्तु सोना गलाने का काम सफल करने के लिए उसके सान्निध्य का प्रयोजन है। पुरुष के सम्बन्ध में भी यही बात है। वह प्रकृति के साथ मिश्रित नहीं होता, वह बुद्धि या महत् अथवा किसी प्रकार का विकार नहीं है, वह शुद्ध पूर्ण आत्मा है- ‘‘मेरे साक्षी स्वरूप विद्यमान रहने के कारण प्रकृति यह सब चेतन और अचेतन का सृजन कर रही हैै।’’ (गीता, 9/10) (पृ0-45)
35.पुरुष में चैतन्य है, किन्तु पुरुष को बुद्धिमान अथवा ज्ञानवान नहीं कहा जा सकता, किन्तु वह ऐसी वस्तु है, जिसके रहने पर ही ज्ञान सम्भव होता है। पुरुष में जो चित्त है, वह प्रकृति से मिलकर हमारे निकट बुद्धि अथवा ज्ञान के नाम से परिचित होता है। जगत् में जो कुछ सुख, आनन्द एवं शान्ति है, सब पुरुष की है; परन्तु वह सब मिश्र है क्योंकि उसमें पुरुष और प्रकृति का मिश्रण है। ‘‘जहाँ किसी प्रकार का सुख है, जहाँ किसी प्रकार का आनन्द है वहाँ उस अमृत स्वरूप पुरुष का एक कण विद्यमान है, यह समझ लेना होगा।’’ (वृहदारण्यक उपनिषद्) (पृ0-46)
36.यदि हम एक मानव का विश्लेषण कर सकें तो समग्र जगत् का विश्लेषण कर लिया; क्योंकि वे सब एक ही नियम से निर्मित हैं। अतएव यदि यह सत्य हो कि इस व्यष्टि श्रेणी के पीछे ऐसे एक व्यक्ति विद्यमान है जो समस्त प्रकृति से अतीत है, जो किसी प्रकार के उपादान से निर्मित नहीं है अर्थात्- पुरुष- तो यह एक ही युक्ति समष्टि ब्रह्माण्ड पर भी घटित होगी तथा उसके पश्चात् भी एक चैतन्य स्वीकार करने का प्रयोजन होगा। जो सर्वव्यापी चैतन्य प्रकृति के समग्र विकारों के पश्चात् भाग में विद्यमान है, उसे वेदान्त सब का नियता- ईश्वर कहता है। (पृ0-64)
37.पहले यह स्थूल शरीर, उसके पश्चात् सूक्ष्म शरीर, उसके पश्चात् जीव अथवा आत्मा-यही मानव का यथार्थ स्वरूप है। मनुष्य का एक सूक्ष्म शरीर और एक स्थूल शरीर है, ऐसा नहीं है। शरीर एक ही है तथापि सूक्ष्म आकार में वह स्थूल की अपेक्षा दीर्घ काल तक रहता है, तथा स्थूल शीघ्र नष्ट हो जाता है। द्वैतवादियों के मतानुसार यह जीव अर्थात् मनुष्य का यथार्थ स्वरूप जो है वह अणु अर्थात् अति सूक्ष्म है। (पृ0-125)
38.सूक्ष्म शरीर भी दीर्घकाल के पश्चात् विश्लिष्ट हो जायेगा, किन्तु जीव अयौगिक पदार्थ है, इसलिए वह कभी ध्वंस प्राप्त नहीं होगा। किसी अयोगिक पदार्थ का जन्म नहीं हो सकता, केवल जो यौगिक है उसका ही जन्म हो सकता है। (पृ0-126)
39.लाख लाख प्रकार के आकार में मिश्रित यह समग्र प्रकृति ईश्वर की इच्छा के अधीन है। ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और निराकार है, एवं वह दिन-रात इस प्रकृृति को परिचालित करता है। समस्त प्रकृति ही उसके शासन के अधीन विद्यमान है। किसी प्राणी को स्वाधीनता नहीं है, वह हो ही नहीं सकती। ईश्वर ही रास्ता है। यही द्वैतवादात्मक वेदान्त का उपदेश है। (पृ0-126)
40.इस मानव देह को कर्मदेह कहते हैं, इस मानवदेह में ही हम अपना भविष्यत् यदृष्ट स्थिर किया करते है। हम एक वृहत् वृत्त के आकार में भ्रमण कर रहे हैं, तथा मानवदेह ही उस वृत्त के मध्य में एक बिन्दु है, जहाँ हमारी भविष्यत् अवस्था स्थिर होती है। इस कारण ही अन्यान्य सब प्रकार की देहों की अपेक्षा मानवदेह ही श्रेष्ठतम् निर्दिष्ट की जाती है। देवतागण भी मनुष्य जन्म ग्रहण किया करते है। द्वैत वेदान्त यहाँ तक कहता है। (पृ0-129)
41.तथापि ईश्वर की कृपा एवं शुभ कर्म के अनुष्ठान के द्वारा वे (जीवात्मा) पुनः विकास प्राप्त होगी। प्रत्येक जीवात्मा को मुक्तिलाभ के समान सुयोग और सम्भावना प्राप्त है एवम् काल में सब ही शुद्धस्वरूप होकर प्रकृति के बन्धन से मुक्त होंगी। किन्तु इतना होने पर भी इस जगत का लोप नहीं होगा, क्योंकि वह अनन्त है। यही वेदान्त का द्वितीय प्रकार का सिद्धान्त है-जिसके मतानुसार ईश्वर, आत्मा और प्रकृति है, तथा आत्मा और प्रकृति ईश्वर का देहस्वरूप है और ये तीनों मिलकर एक है- विशिष्टाद्वैत वेदान्त कहते हैं। (पृ0-131)
42.यह समग्र जगत् एक अखण्ड स्वरूप है, और उसे ही अद्वैत वेदान्त-दर्शन में ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म जब ब्रह्माण्ड के पश्चात् प्रदेश में है ऐसा लगता है, तब उसे ईश्वर कहते हैं। अतएव यह आत्मा ही मानव का अभ्यन्तरस्थ ईश्वर है। केवल एक पुरुष-उन्हें ईश्वर कहते हैं, तथा जब ईश्वर और मानव दोनों के स्वरूप का विश्लेषण किया जाता है तब दोनों को एक के रूप में जाना जाता है। (पृ0-67)
43.‘‘सभी हाथों से आप काम कर रहे हैं, सभी मुखों से आप खा रह रहे हैं, सब नासिकाओं से आप श्वास-प्रश्वास ले रहे हैं, सब मन से आप चिन्ता अथवा विचार कर रहे हैं।’’ (गीता, अध्याय-13) समग्र जगत ही आप है। जो कुछ है, सब आप है, यथार्थ ‘आप’-वह एक अविभक्त आत्मा-जिस क्षुद्र सीमाबद्ध व्यक्ति विशेष को आप ‘आप’ समझते हैं, वह नहीं। तथा आप जो अमुक राम, श्याम, हरि है, यह बात भी किसी काल में सत्य नहीं है, यह केवल स्वप्न मात्र है। यही जानकर मुक्त होइए। यह अद्वैतवादियों का सिद्धान्त है। (पृ0-67-68)
44.यदि आप अपने को बद्ध के रूप में सोंचे तो आप बद्ध ही रहेंगे; आप स्वतः ही अपने बन्धन के कारण होंगे। तथा यदि आप उपलब्धि करे कि आप मुक्त हैं तो इसी मुहुर्त आप मुक्त हैं। यही ज्ञान है-मुक्तिप्रद ज्ञान, तथा समग्र प्रकृति का चरम लक्ष्य ही मुक्ति है। (पृ0-68)
45.एक ही सूर्य विविध जल बिन्दुओं में प्रतिबिम्बित होकर नाना रूप दिखा रहा है। लाख लाख जलकणों में लाख लाख सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ा है तथा प्रत्येक जल कण में ही सूर्य की सम्पूर्ण प्रतिमूर्ति विद्यमान है; किन्तु सूर्य वास्तव में एक है। इन सब जीवगण के सम्बन्ध में भी यही बात है-वे उसी एक अनन्त पुरुष के प्रतिबिम्ब मात्र है। स्वप्न कदापि सत्य के बिना रह नहीं सकता, और वह सत्य-वही एक अनन्त सत्ता है। शरीर, मन अथवा आत्मा भाव में मानने पर आप स्वप्न मात्र हैं, किन्तु आपका यथार्थ स्वरूप अखण्ड सच्चिदानन्द है। - अद्वैतवादी यही कहते है। यह सब जन्म, पुनर्जन्म, यह आना-जाना यह सब उस स्वप्न का अंशभाग है। आप अनन्त स्वरूप है। आप फिर कहाँ जायेंगे? आत्मा कभी उत्पन्न नहीं होती, कभी मरेगी भी नहीं, आत्मा के किसी काल में माता-पिता, शत्रु-मित्र कुछ भी नहीं है; क्योंकि आत्मा अखण्ड सच्चिदानंद स्वरूप है। जिस व्यक्ति ने इसका साक्षात्कार किया है उसने ही मुक्तिलाभ किया है, वह इस स्वप्न को भगं करके उसके बाहर चला गया है, उसने अपना यथार्थ स्वरूप जाना है। अद्वैतवेदान्त का यही उपदेश है।(पृ0-133-134)
46.वेदान्त दर्शन एक एक करके इन तीन सोपानों (द्वैत, विशिष्टद्वैत, अद्वैत) का अवलम्बन करके अग्रसर हुआ है तथा हम इस तृतीय सोपान (अद्वैत) को पार करके अधिक अग्रसर नहीं हो सकते, क्योंकि हम एकत्व के उपर अधिक जा नहीं सकते। (पृ0-134)
47.धर्मज्ञान को उच्चतम चूड़ा में आरोहण करने के लिए मानव जाति को जिन सब सोपानों का अवलम्बन करना पड़ा है, प्रत्येक व्यक्ति को भी उसका ही अवलम्बन करना होगा। केवल प्रभेद यह है कि समग्र मानव जाति को एक सोपान से दूसरे सोपान में आरोहण करने के लिए लाख-लाख वर्ष लगे हो, किन्तु व्यक्तिगण कुछ वर्षों में ही मानव जाति का समग्र जीवन यापन कर ले सकते हैं, अथवा वे और भी शीघ्र, सम्भवतः छः मास के भीतर ही उसे सम्पूर्ण कर ले सकते हैं। (पृ0-135)
48.जो व्यक्ति कहता है, इस जगत् का अस्तित्व है, किन्तु ईश्वर नहीं है, वह निर्बोध है, क्योंकि यदि जगत् हो, तो जगत् का एक कारण रहेगा और उसक कारण का नाम ही ईश्वर है। कार्य रहने पर ही उसका कारण है, यह जानना होगा। जब यह जगत् अन्तर्हित होगा, तब ईश्वर भी अन्तर्हित होंगे। जब आप ईश्वर के सहित अपना एकत्व अनुभव करेंगे, तब आपके पक्ष में यह जगत् फिर नहीं रहेगा। जिसे हम इस क्षण जगत् के रूप में देख रहे हैं, वही हमारे सम्मुख ईश्वर के रूप में प्रतिभासित होगा, एवं जिनको एक दिन हम बहिर्देश में अवस्थित समझते थे, वे ही हमारी आत्मा के अन्तरात्मा रूप में प्रतीत होंगे।- ‘तत्वमसि’- वही तुम हो। (पृ0-135)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 06. योग क्या है?
1. इन सारी योग प्रणाणिलों में जो कुछ गुह्य या रहस्यात्मक है, सब छोड़ देना पड़ेगा। जिससे बल मिलता है उसी का अनुसरण करना चाहिए। अन्यान्य विषयों में जैसा है, धर्म में भी ठीक वैसे ही है- जो तुमको दुर्बल बनाता है, वह समूल त्याज्य है। रहस्य-स्पृहा मानव मस्तिष्क को दुर्बल कर देती है। इसके कारण ही आज योग शास्त्र नष्ट सा हो गया है किन्तु वास्तव में यह एक महाविज्ञान है
2. वह तरीका जिसके माध्यम से हम अपनी सारी भावनाओं को परम तत्व की ओर मोड़कर आनन्द प्राप्ति कर सकते हैं, यानि भक्ति के द्वारा भगवान से सम्बद्ध हो सकते हैं, भक्तियोग कहलाता है। विवेक का वह तरीका जिसके माध्यम से हम उससे ऐक्य स्थापित कर सकते हैं या उसकी अनुभूति प्राप्ति कर सकते हैें, ज्ञान योग या बुद्धि-विज्ञान कहलाता है। अनाशक्ति की कला जिसके माध्यम से हम कर्म से सम्बन्ध रखते हुए भी कर्म के जाल में नहीं फँस सकते, वह कर्मयोग या कर्म का विज्ञान कहलाती है। अन्त में वह तरीका जिसके माध्यम से हम मन को नियत्रित कर सकते हैं, जो सारे दुःखों का जड़ है, राजयोग कहलाता है। (पृष्ठ-14)
3.एक ईसाई रहस्यवादी ने ठीक ही कहा है कि ‘‘अगर हम लोग प्रार्थना के क्षेत्र में बहुत दूर चले गये हो तो हमें कर्म पर जोर देना चाहिए, अगर हम लोग आन्तरिक जीवन में मध्य तक ही पहुंचे हो तो हमें बाहरी जीवन में बहुत कम ही उतरना चाहिए, अगर हम आध्यात्मिक जीवन में बिल्कुल ही न बढ़े हों तो हमें व्यावहारिक दुनिया में बिल्कुल ही नहीं उतरना चाहिए।’’ (योग क्या है?-पृ0-44)
4.खासतौर से वह नेता जो धर्म और सुधार की आड़ में वास्तव में राजनैतिक सत्ता के खतरनाक ख्ेाल में व्यस्त था। जब ये अभागे व्यक्ति राजनीति में प्रथम बार प्रवेश करते हैं तो सचमुच में उनमें मानव कल्याण की भावना रहती है क्योंकि वे मानव को ईश्वर की सन्तान समझते है, लेकिन वे बहुत जल्द ही सत्ता के जाल में फंस जाते है और इनमें से अधिकांश इससे निकल नहीं पाते। ऐसे ही व्यक्ति ने अपने आप को कुछ स्वार्थी तत्वों से जोड़कर कुछ क्षेत्रों में धर्म को घृणास्पद बना दिया है। (योग क्या है?-पृ0-44)
5.श्री रामकृष्ण ने कहा था- ‘‘वर्षा के प्रारम्भ के समय गंगा में जन्मे छोटे-छोटे केकड़ों को तुमने देखा है? इस व्यापक विश्व में तुम उस एक छोटे से केकड़े से भी क्षुद्र हो। तुम विश्व के लोगों की मदद कर रहे हो, यह कहने का साहस ही कैसे करते हो...? पहले मनुष्य को भगवान से अधिकार प्राप्त करने दो, उसे उसकी शक्ति से सम्पन्न होने दो, तभी वह दूसरों की मदद करने की बात सोच सकता है। पहले मनुष्य को सभी अहंकारों से मुक्त होना चाहिए। तभी आनन्दमयी माँ उसे संसार की सेवा करने का आदेश देगी।’’(योग क्या है?-पृ0-45)
6. योग के बारे में कुछ लोग तो यहाँ तक सोचने पर विवश हैं, कि यह व्यर्थ का प्रयास है, क्योंकि जब हम जीवन के सभी क्षेत्रों में अनेक सफल व्यक्तियों को देखते और जानते हैं, वहाँ योग के क्षेत्र में हम मुश्किल से किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं जो यह कह सकता है कि वह अपनी मंजिल पर वास्तव में पहुँच चुका है, वशर्ते वह धोखेबाज और आत्मप्रवंचना का शिकार न हो। हजार वर्ष में कभी ऐसा होता है कि कोई महात्मा या दूरद्रष्टा जन्म लेता है जो अधिकार के साथ धर्म के सारतत्व पर बोल सकता हो और ऐसे व्यक्ति की आवाज भी शीघ्र ही भ्रम में तिरोहित हो जाती है जो विश्व में चतुर्दिक व्याप्त है। (योग क्या है, पृष्ठ-80)
7. फिर भी एक बात निश्चित है, अगर पथ की पहचान सही हो और लक्ष्य असंभव न हो तो दृढ़ संकल्पी और लगनशील यात्री के लिए प्रयास करते रहने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं रहता यद्यपि ”पथ पहाड़ियों में पूरे रास्ते भर चक्करदार ही रहता है।“ अन्तिम मंजिल तक पहुँचने में सैकड़ो असफल हो सकते हैं, लेकिन प्रयास जो एक बार प्रारम्भ हो चुका है, छोड़ा नहीं जा सकता, अन्यथा वहीं यात्री कायर ही कहलायेगा। (योग क्या है, पृष्ठ-81)
8. वेदान्त यह भी कहता है कि कोई व्यक्ति अपनी वर्तमान क्रियाओं द्वारा भविष्य को बहुत अधिक हद तक निश्चित कर सकता है। जिसका अर्थ है- कि प्रत्येक व्यक्ति अपने इस जीवन के अच्छे कार्यों द्वारा अपने गत कर्मों के बुरे प्रभावों को मिटा डालने के लिए बहुत हद तक स्वतंत्र है। (योग क्या है, पृष्ठ-82)
9. शास्त्र कहते हैं कि कोई साधक यदि एक जीवन में सफलता प्राप्त करने में असफल होता है तो वह पुनः जन्म लेता है और अपने अधूरे कार्य को अधिक सफलता से आगे बढ़ाता है। (योग क्या है, पृष्ठ-83)
10. विभिन्न योगों में कोई विशेष विभाजन रेखा नहीं है। आध्यात्मिक अभ्यास के दौरान कर्म, भक्ति और ज्ञान सभी एक दूसरे से प्रायः मिल जाते हैं। साधक का स्वभाव ही यह निश्चित करेगा कि इन तीनों में से किस का अधिक प्रभाव उसके जीवन पर पड़ा है। (योग क्या है, पृष्ठ-41)
11. योगी कहते हैं अप्राकृतिक नाम की कोई चीज नहीं है, पर हाँ, प्रकृति में दो प्रकार की अभिव्यक्तियाँ हैं- एक है स्थूल और दूसरी है सूक्ष्म। सूक्ष्म कारण है और स्थूल कार्य। स्थूल सहज ही इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध की जा सकती है, पर सूक्ष्म नहीं। राजयोग के अभ्यास से सूक्ष्म की अनूभुति होती रहती है। (राजयोग, पृष्ठ-2)
12. भारतवर्ष में जितने वेदमतानुयायी दर्शनशास्त्र है, उन सब का एक ही लक्ष्य है,और वह है- पूर्णता प्राप्त करके आत्मा को मुक्त कर लेना। इसका उपाय है- योग। ”योग“ शब्द बहुभावव्यापी है। सांख्य और वेदान्त उभयमत किसी न किसी प्रकार के योग का समर्थन करते हैं। (योगःपृष्ठ-3)
13. हमारे समस्त ज्ञान स्वानुभूति पर टिके हैं। अनुमानिक ज्ञान (सामान्य से सामान्यतर या सामान्य से विशेष, दोनों) की बुनियाद स्वानुभूति है। जिनको निश्चित विज्ञान (म्गंबज ैबपमदबम) जैसे गणित, गणित-ज्योतिष इत्यादि, कहते हैं, उनकी सत्यता सहज ही लोगों की समझ में आ जाती है, क्योंकि वे प्रत्येक व्यक्ति से कहते हैं- ”तुम स्वयं यह देख लो कि यह बात सत्य है अथवा नहीं, और तब उस पर विश्वास करो।“ विज्ञानविद् तुमको किसी भी विषय पर विश्वास कर बैठने को नहीं कहेंगे। (राजयोगःपृष्ठ-5)
14. संसार के समस्त धर्म उस प्रत्यक्ष अनुभव पर स्थापित है जो ज्ञान की सार्वभौमिक और सुदृढ़ भित्ति है। सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था। उन सभी ने आत्मदर्शन किया था, अपने अनन्त स्वरुप का ज्ञान सभी को हुआ था, सब ने अपनी भविष्य अवस्था देखी थी, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का वे प्रचार कर गये। (राजयोग, पृष्ठ-7)
15. योग विद्या के आचार्यगण कहते हैं कि धर्म पूर्णकालीन अनुभूतियों पर केवल स्थापित नहीं, वरन् इन अनुभूतियों से स्वयं सम्पन्न हुए बिना कोई भी धार्मिक नहीं हो सकता। जिस विद्या के द्वारा ये अनुभूतियाँ होती हैं, उसका नम है योग। धर्म के सत्यों का जब तक कोई अनुभव नहीं कर लेता, तब तक धर्म की बात करना ही व्यर्थ है। (राजयोग, पृष्ठ-8)
16. प्रत्येक विद्या की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है। मैं तुम्हें सैकड़ो उपदेश दे सकता हूँ, परन्तु तुम यदि साधना न करो, तो तुम कभी धार्मिक न हो सकोगे। सभी युगों में, सभी देशों में, निष्काम, शुद्धस्वभाव साधु-महापुरुष इसी सत्य का प्रचार कर गये हैं। संसार का हित छोड़कर कोई कामना उनमें नहीं थी। (राजयोग, पृष्ठ-10)
17. इस तरह के ज्ञान की उपयोगिता क्या है? पहले तो, ज्ञान ही ज्ञान का सर्वोच्च पुरस्कार है, दूसरे, इसकी उपयोगिता भी है- यह समस्त दुःखों का हरण करेगा। ज्ञान लाभ का एकमात्र उपाय है- एकाग्रता। (राजयोग, पृष्ठ-12)
18. जिस प्रकार वासनाएँ और अमरत्व मानव के अन्तर्भाव में हैं, उसी प्रकार उसके भीतर ही उन अभावों के मोचन शक्ति भी है। और जहाँ कहीं और कभी किसी वासना, अभाव या प्रार्थना की पूर्ति होती है, तो समझना होगा कि वह इस अनन्त भण्डार से ही पूर्ण होती है, किसी अप्राकृतिक पुरुष से नहीं। (राजयोग, पृष्ठ-2)
19. मनुष्य को आत्मोन्नति के लिए अधिक धन अनुकूल नहीं। फिर बिल्कुल निर्धन होनें पर भी उन्नति दूर रहती है। संसार में जितने भी महात्मा पैदा हुए हैं, सभी मध्यम श्रेणी के लोगों से हुए थे। मध्यम श्रेणी वालों में सब विरोधी शक्तियों का समन्वय रहता है। (राजयोग, पृष्ठ-30)
20. ईश्वर के निकट प्रार्थना करें- अर्थ, स्वास्थ्य अथवा स्वर्ग के लिए नहीं, वरन् हृदय में ज्ञान और सत्य तत्व के उन्मेष के लिए। इसको छोड़ बाकी सब प्रार्थनाएँ स्वार्थ से भरी है। इसके बाद भाव करनी होगी, ”मेरा शरीर वज्रवत् दृढ़, सबल और स्वस्थ है। यह देह ही मेरी मुक्ति में एकमात्र सहायक है। इसी की सहायता से मैं यह जीवन समुद्र पार कर लूंगा।“ (राजयोग, पृष्ठ-34)
21. योगी कहते हैं-इन सब विशिष्ट अभिव्यक्तियों के पीछे एक साधारण सत्ता है। उसको पकड़ सकने या जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है। इसी प्रकार वेदों में सम्पूर्ण जगत को एक अखण्ड निरपेक्ष सत्यस्वरुप में पर्यवसित किया है। जिन्होंने इस ‘अस्ति’- स्वरुप को पकड़ा है वे ही सम्पूर्ण विश्व को समझ सके हैं। (राजयोग, पृष्ठ-38)
22. आत्मा की उन्नति का वेग बढ़ाकर किस प्रकार थोेड़े समय में मुक्ति पायी जा सकती है, यह सारी योग विद्या का लक्ष्य और उद्देश्य है। संसार के सभी महापुरुष, साधु और सिद्ध पुरुषों ने क्या किया? उन्होंने एक जन्म में ही, समय को कम करके, उन सब अवस्थाओं का भोग कर लिया है, जिनमें से होते हुए साधारण मानव करोड़ो जन्म में मुक्त होता हे। (राजयोग, पृष्ठ-50)
23. योगी कहते हैं कि- मनुष्य में जो शक्ति काम-क्रिया, काम-चिन्तन, आदि रुपों में प्रकाशित हो रही है, उसका दमन करने पर वह सहज ही ओजधातु में परिणत हो जाती है। (राजयोग, पृष्ठ-67)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 07. ज्ञान योग
1. प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने ही विश्व को देखता है, इसलिए उस विश्व की उत्पत्ति उसके बन्धन के साथ होती है और उसकी मुक्ति से वह विश्व मय हो जाता है। तथापि वह औरों के लिए, जो बन्धन में हैं, अवशेष रहता है। नाम और रुप से ही विश्व बना है। समुद्र की तरंग, उस हद तक ही तरंग कहला सकती है, जब तक कि नाम और रुप से वह सीमित है। यदि तरंग लुप्त हो जाये तो वह समुद्र ही है। यह नाम और रुप माया कहलाता है। और पानी ब्रह्म। (1प-424)
2. अपने ही विचारों से भयभीत हो जाना एक आम अनुभव है। लेकिन हम चाहें जितना ही इस चिन्तन की उपेक्षा करें, हम जीवन और मृत्यु के वास्तविकता से बच नहीं सकते। (योग क्या है। पृष्ठ-50)
3. एक ज्ञान योगी जीवन की किसी भी समस्या का सामना करने से भयभीत नहीं होता और वह मृत्यु के भूत से भी नहीं डरता। वह जीवन के सभी पक्षों- सुखात्मक और दुःखात्मक दोनों को देखने के लिए तैयार रहता है, किन्तु इसके साथ ही वह इनके फंदों से बचने के लिए उपाय भी सोचता है। (योग क्या है, पृष्ठ-50)
4. आधुनिक पदार्थ विज्ञान भी यह मत नहीं देता कि जिन वस्तुओं को हम द्रव्य के रुप में देखते हैं वह वास्तव में ठोस पदार्थ ही है और अपने अन्तिम विश्लेषण में क्या यह द्रव विचार या प्रतीक नहीं बन जाता? लेकिन फिर भी हमारे आँखों के सामने इस भैतिक जगत का भ्रम बना हुआ है। (योग क्या है, पृष्ठ-51)
5. यह जानते हुए भी कि उसका भौतिक शरीर देर सवेर नष्ट होगा ही, वह हमेशा अपने शरीर से अलग अपने चेतना की ज्योति जगाये रखने का प्रयास करता है। इस तरह जब एक व्यक्ति सारी अवास्तविक वस्तुओं को इंकार कर देता है, तब जो अवरोध रहता है, वहीं आत्म तत्व और सत्य होता है। (योग क्या है, पृष्ठ-52)
6. रात में एक पेड़ का ठूठ भय पैदा करता है, एक मित्र आता है और उस भयभीत पथिक से कहता है कि जिस वस्तु को देखकर वह डर गया है, वह भूत न होकर पेड़ है। पथिक इस विचार को अपने मन में रखकर उसके पास जाता है, देखता है कि जिसमें उसने भूत की कल्पना की थी, वह वास्तव में पेड़ के सिवाय कुछ भी नहीं है। यह उदाहरण कुछ हद तक ज्ञान योग के तरीकों को ही उद्घाटित करता है। जो भी इस कठिन पथ का अनुसरण करने का प्रयास करता है, उसके पास पूर्ण निर्भीकता तथा अतिमानवीय मानसिक बल होना चाहिए। (योग क्या है, पृष्ठ-53)
7. कितने लोग ईमानदारी पूर्वक कह सकते हैं कि उनके पास साहस और आत्मबल है? यह एक असाधारण गुण है और शायद शताब्दी में विवेकानन्द जैसे एक ही होते हैं जो अपने वंधुओं में विशिष्ट होते हैं। (योग क्या है, पृष्ठ-53)
8. हिन्दू शास्त्र ज्ञानयोग की साधना करने वालों के लिए कुछ विशेष प्रारम्भिक अनुशासनों का निर्देश देते हैं। इनमें से सबसे प्रमुख है- सत्य और असत्य के भेद का विवेक, इस लोक और परलोक के सुखों से विरक्ति, मन-नियन्त्रण और इन्द्रिय-निग्रह बाह्य वस्तुओं से विकर्षण, शारीरिक सहनशीलता, गुरु के उपदेशों की ग्रहण शक्ति से युक्त होकर अपनी शक्ति के प्रति पूर्ण आस्था और सर्वतोभावेन मानव अस्तित्व के बन्धनों से मुक्त होने की अदम्य लालसा। कोई भी व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता कि सब मिलाकर ये प्रारम्भिक योग्यताएँ औसत आदमी से लगभग असम्भव क्षमता की माँग करती है। (योग क्या है, पृष्ठ-54)
9. धर्मशास्त्र राय देते हैं कि वे ही व्यक्ति ज्ञान साधना की सफलता की आशा रख सकते हैं जिन्होंने इसके प्रारम्भिक अनुशासन को अपने पूर्व जन्म में ही सफलतापूर्वक हासिल कर लिया है। (योग क्या है, पृष्ठ-54)
10. अनुभव से यह सिद्ध हो चुका है कि सभी विचार, चाहें वह अच्छे हों या बुरे, व्यक्ति के जीवन पर अत्यधिक प्रभाव छोड़ते हैं। इसलिए, अगर कोई स्वयं को बलवान समझे तो अनजानें ही उसमें धीरे-धीरे शक्ति का प्रादुर्भाव होगा। अगर कोई साधक अपने को कालातीत आत्मा के रुप में मानता है, तो उसमें एक अवचेतन प्रक्रिया सम्पन्न होगी और वह दैहिक कमजोरियों से स्वयं मुक्त हो जायेगा। (योग क्या है, पृष्ठ-55)
11. तात्पर्य यह कि ज्ञान योग की कठिन साधना केवल उसी व्यक्ति द्वारा सम्भव है जो दृढ़ इच्छा-शक्ति और विश्लेषण-बुद्धि से पूर्णरुपेण सम्पन्न हो। (योग क्या है, पृष्ठ-57)
12. साधक के लिए यह वैधिक विश्वास ही पर्याप्त नहीं है कि ज्ञान योग का पथ उसकी प्रकृति के सर्वथा अनुकूल है। उसे खुले मैदान और खुले आकाश के नीचे अपना आध्यात्मिक युद्ध लड़ने के लिए तैयार रहना होगा। उसे लगातार मानवीय कमजोरियों और सूक्ष्मवृत्तियों से लड़ना पड़ेगा क्योंकि मन इसी बातों में रमता है, उसे इस कठोर संघर्ष से तब तक विराम नहीं मिलेगा जब तक कि वह अपनी मानसिक ऊँचाई को प्राप्त नहीं कर लेता और अपने को सुरक्षित नहीं कर पाता। (योग क्या है, पृष्ठ-57)
13. पवित्रता (इच्छाओं और वासनाओं का दमन) के क्षेत्र में जो जितना ही सफल होगा, वह उतना ही ज्ञान योग की साधना में सफल होगा। मन का दृढ़ नियन्त्रण और उच्च ध्यान-स्थिति, ये दोनों ज्ञान योग की साधना के लिए आवश्यक हैं और ये दोनों ज्ञान योग द्वारा वर्णित तरीकों को अपनाकर अच्छी तरह प्राप्त किये जा सकते हैं। (योग क्या है, पृष्ठ-58)
14. जब एक साधक शरीर बोध का अतिक्रमण कर जाता है, तो स्वभावतः उसके शरीर का अन्त हो जाता है और यह देखा गया है कि सामान्यतः एक ज्ञानी परमसत्ता के अनुभव के बाद अपने उस विराट अनुभव के बाद अपने उस विराट अनुभव को झेल नहीं पाता। फिर भी शंकर की तरह कुछ अपवाद हैं जिन्होंने विराट के अनुभव के बाद भी मानवता कों ऐसी स्थिति की उपलब्धि के साधनों की शिक्षा देने के लिए अपने उच्च विचारों को कायम रखा। ये आत्माएं बन्धन से प्राप्त अनन्त मुक्ति को स्वयमेव तज देती हैं जिसे उन्होंने दूसरों की मुक्ति दिलाने के लिए प्राप्त किया है। उनके लिए उच्चतम अनुभव का द्वार हमेशा खुला रहता है, लेकिन वे उस द्वार में प्रवेश करने से इनकार कर देते हैं, जब तक वे उन लोगों को जो दुःख से पीड़ित हैं और प्रकाश की तलाश में हैं, अपने साथ न ले जा सकें। वे लोग बहुत बड़े सिद्ध, भविष्यदृष्टा और संत हैं जो गहन अंधकार से मानवता को बचाने के लिए अपनी आत्मा की मशाल को जलाए रखते हैं। वे वहीं लोग हैं जो साधारण जीवन जीते हुए कम से कम थोड़ी देर के लिए थके हारे संसार को खाई में गिरने से रोकते हैं। वे धरती पर भगवान के सच्चे प्रतिनिधि होते हैं। (योग क्या है। पृष्ठ-62)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 09. राजयोग
1.राजयोग विद्या पहले मनुष्य को उसकी अपनी आभ्यन्तरिक अवस्थाओं के पर्यवेक्षण का रास्ता दिखा देती है। मन ही उस पर्यवेक्षण का यन्त्र है। (राजयोग-पृ0-11)
2.मन की शक्तियाँ इधर-उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों के समान है। जब उन्हें केन्द्रीभूत किया जाता है, तब वे सब कुछ आलोकित कर देती है। यही ज्ञान का हमारा एक मात्र उपाय है। वाह्य जगत् में हो अथवा अन्तर्जगत् में; लोग इसी को काम में ला रहे है। पर वैज्ञानिक जिस सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति का प्रयोग वहिर्जगत् में करता है, मनस्तत्त्वान्वेसी उसी का मन पर करते है। (राजयोग-पृ0-11)
3.मानव-मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं। वह जितना ही एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर आती है; बस यही रहस्य है। (राजयोग-पृ0-13)
4.राजयोग की शिक्षा किसी धर्म विशेष पर आधारित नहीं है। तुम्हारा धर्म चाहे जो हो-तुम चाहे आस्तिक हो या नास्तिक, यहूदी या बौद्ध या ईसाई-इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं; तुम मनुष्य हो, बस यही पर्याप्त है। प्रत्येक मनुष्य में धर्मतत्व का अनुसंधान करने की शक्ति है, उसे उसका अधिकार है। (राजयोग-पृ0-14)
5.राजयोग की साधना में दीर्घकाल और निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है। इस अभ्यास का कुछ अंश शरीर संयम-विषयक है, परन्तु इसका अधिकांश मनःसंयमात्मक है। जिन्होंने इन आभ्यान्तरिक शक्तियों का अविष्कार करके उन्हें इच्छानुसार चलाना सीख लिया है, वे सम्पूर्ण प्रकृति को वश में कर सकते हैं। सम्पूर्ण जगत् को वशीभूत करना और सारी प्रकृति पर अधिकार हासिल करना-इस वृहत् कार्य को योगी अपना कत्र्तव्य समझते हैं। (राजयोग-पृ0-14-16)
6.वहिर्वादी और अन्तर्वादी जब अपने अपने ज्ञान की चरमसीमा प्राप्त कर लेंगे, तब दोनों अवश्य एक ही स्थान पर पहुँच जायेंगे। (राजयोग-पृ0-16)
7.पांतजल-सूत्र राजयोग का शास्त्र है और उस पर सर्वोच्च प्रमाणिक ग्रन्थ है। अन्यान्य दार्शनिकों का किसी दार्शनिक विषय में पतंजलि से मतभेद होने पर भी, वे सभी निश्चित रूप से, उनकी साधन प्रणाली का अनुमोदन करते हैं। (राजयोग-पृ0-3)
8.पांतजल दर्शन सांख्यमत पर स्थापित है। इन दोनों मतों में अन्तर बहुत थोड़ा है। इनके दो प्रधान मतभेद ये हैं- पहला तो, पतंजलि आदि-गुरु के रूप में एक सगुण ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते हैं, जबकि सांख्य का ईश्वर लगभग-पूर्णता प्राप्त एक व्यक्तिमात्र है, जो कुछ समय तक एक सृष्टि-कल्प का शासन करता है। और दूसरा, योगीगण आत्मा या पुरुष के समान मन को भी सर्वव्यापी मानते हैं, पर सांख्यमत वाले नहीं। (राजयोग-पृ0-3)
9.वह मन जिसमें एक लक्ष्यता और एकाग्रता का अभाव है, वह कभी भी सत्य की अनुभूति के लिए उपयुक्त साधन नहीं बन सकता। मनुष्य का मन जब पूर्णरूपेण शान्त और स्थिर रहता है, तब कभी-कभी अचानक ही उसमें सत्य का उदय होता है, भले ही उसने इसको चेतन भाव से खोजने का प्रयास न किया हो। (योग क्या है?-पृ0-63)
10.सभी योगों में राजयोग का विशेष दुरूपयोग हुआ है। मन असीमित शक्तियों का भण्डार है। जब यह एकाग्रित होना प्रारम्भ करता है, तब कभी-कभी मनुष्य विलक्षण सिद्धियों का अनुभव करने लगता है। एकाग्रता के इन साधनों द्वारा मन एक ऐसा सुन्दर यंत्र बन सकता है कि इसका स्वामी अपने में कुछ प्राकृतिक शक्तियों को, जैसे भविष्य को देख लेना या दूसरे के विचारों को पढ़ लेना विकसित कर सकता है। यद्यपि ऐसी शक्तियाँ अपने आप में शायद ही कोई आध्यात्मिक मूल्य रखती है, फिर भी इसका प्राप्तकर्ता आसानी से इनसे लाभ कमाने की ओर प्रवृत्त हो सकता है। (योग क्या है?-पृ0-66)
11.सच्चा आदमी सदा ही स्पष्ट और निर्भीक होता है क्योंकि उसे कुछ भी छिपाना नहीं पड़ता और किसी भी प्रकार के छल से उसे दिमाग को बोझिल या अशान्त करने की भी आवश्यकता नहीं रहती। लगातार साधना द्वारा किसी भी व्यक्ति के लिए सत्य में ऐसे दृढ़ विश्वास को विकसित करना सम्भव है कि वह अंत में किसी भी स्थिति में जीवन की कठिन और विचित्र समस्याओं का सामना कर सके। (योग क्या है?-पृ0-71)
12.वह मनुष्य जिसने निर्लोभ की साधना की है, वह सांसारिक इच्छाओं द्वारा विचलित नहीं होता। (योग क्या है?-पृ0-72)
13.संयम (ब्रह्मचर्य) एक दूसरा गुण है जो किसी भी प्रकार की योग साधना के लिए आवश्यक है। वह व्यक्ति जो विचार, वाणी और कर्म से पवित्र होता है, वह अनेक कठिनाईयों से मुक्त होता है जबकि वासना का गुलाम व्यक्ति इन दुःखों को स्वयं बुला लेता है। (योग क्या है?-पृ0-72)
14.साधना में यह सदा ही अपेक्षित है कि नकारात्मक विचारो की अपेक्षा सकारात्मक विचारों पर विशेष बल दिया जाय। जैसा कि श्रीरामकृष्ण कहा करते थे- ‘‘अगर तुम पूर्व दिशा की ओर जाते हो तो तुम पश्चिम दिशा से उतनी ही दूर हो।’’ (योग क्या है?-पृ0-73)
15.राजयोग आठ अंगों में विभक्त है। पहला है-यम अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। दूसरा है नियम- अर्थात् शौच, सन्तोष, तपस्या, स्वाध्याय (आध्यात्मक-शास्त्रपाठ) और ईश्वर-प्राणिधान अर्थात् ईश्वर को आत्मसमर्पण। तीसरा है आसन-अर्थात् बैठने की प्रणाली। चैथा है-प्राणायाम। पांचवां है- प्रत्याहार-अर्थात् मन की विषयाभिमुखी गति को फेरकर उसे अन्तर्मुखी करना। छठा है-धारणा अर्थात् किसी स्थल पर मन को एकाग्र करना। सातवां है- ध्यान। और आठवां है- समाधि अर्थात् ज्ञानातीत अवस्था। (राजयोग-पृ0-22)
16.‘‘यम और नियम’’- चरित्र निर्माण के साधन है। इनको नींव बनाये बिना किसी तरह की योगसाधना सिद्ध न होगी। यम और नियम के दृढ़ प्रतिष्ठ हो जाने पर योगी अपनी साधना का फल अनुभव करना आरम्भ कर देते हैं। इनके न रहने पर साधना का कोई फल न होगा। (राजयोग-पृ0-22)
17.यम और नियम के बाद ‘आसन’ आता है। जब तक बहुत उच्च अवस्था की प्राप्ति नहीं हो हो जाती, तब तक रोज नियमानुसार कुछ शारीरिक और मानसिक क्रियायें करनी पड़ती है अतएव जिससे दीर्घकाल तक एक भाव में बैठा जा सके, ऐसे एक आसन का अभ्यास है। जिनको जिस आसन से सुभीता मालूम होता है, उनको उसकी आसन पर बैठना चाहिए। (राजयोग-पृ0-22)
18.आसन के सम्बन्ध में इतना समझ लेना होगा कि मेरूदण्ड को सहजभाव से रखना आवश्यक है-ठीक सीधा बैठना होगा-वक्ष, ग्रीवा और मस्तक सीधे और समुन्नत रहे, जिससे देह का सारा भार पसलियों पर पड़े। राजयोग का यह भाग हठयोग से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। (राजयोग-पृ0-23)
19.हठयोग केवल स्थूलदेह को लेकर व्यस्त रहता है। इसका उद्देश्य केवल स्थूल देह को सबल बनाना है। मनुष्य किस प्रकार दीर्घजीवी हो, यही हठयोग का एकमात्र उद्देश्य है। शरीर किस प्रकार पूर्ण स्वस्थ रहे, यही हठयोगियों का एकमात्र लक्ष्य है। हठयोगियों का यही दृढ़ संकल्प हैं कि मुझे और पीड़ा न हो। और इस दृढ़ संकल्प के बल से उनको पीड़ा होती भी नहीं। वे दीर्घजीवी हो सकते हैं, सौ वर्ष तक जीवित रहना तो उनके लिए मामूली सी बात है। उनकी 150 वर्ष की आयु हो जाने पर भी देखोगे, वे पूर्ण युवा और सतेज है; उनका एक केश भी सफेद नहीं हुआ। किन्तु इसका फल बस यही तक है। वे बस एक बड़े स्वस्थकाय जीव भर रहते है। (राजयोग-पृ0-23-24)
20.‘‘प्राणायाम’’ के द्वारा जिस मन का मैल धुल गया है, वही मन ब्रह्म में स्थिर होता है। इसलिए शास्त्रों में प्राणायाम के विषय का उल्लेख है। पहले नाड़ी शुद्धि करनी पड़ती है तभी प्राणायाम करने की शक्ति आती है। (राजयोग-पृ0-25)
21.अँगूठे से दाहिनी नथुना दबाकर बायें नथुने से यथाशक्ति वायु अन्दर खींचो, फिर बीच में तनिक देर भी विश्राम किये बिना बायीं नासिका बन्द करके दाहिनी नासिका से वायु निकालो। फिर दाहिनी नासिका से वायु ग्रहण करके बायीं नासिका से निकालो। दिन भर में चार बार अर्थात् उषा, मध्याहन, सायाहन और निशीथ, इन चार समय पूर्वोक्त क्रिया का तीन बार या पांच बार अभ्यास करने पर, एक पक्ष या महीने भर में नाड़ी शुद्धि हो जाती है। उसके बाद प्राणायाम पर अधिकार होगा। (राजयोग-पृ0-25)
22.साधना में बहुत से विध्न भी हैं। पहला तो व्याधिग्रस्त देह है। दूसरा विध्न है-सन्देह। (राजयोग-पृ0-25-26)
23.चित्तवृत्तियों के निरोध से प्राणायाम का क्या सम्बन्ध है। श्वास-प्रश्वास मानो देह-यन्त्र का गतिनियामक मूल यन्त्र है। एक बृहत् इंजन पर निगाह डालने पर देखोगे कि एक बड़ा चक्र घूम रहा है और उस चक्र की गति क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर यन्त्रों में संचारित होती है। इस प्रकार उस इंजन के अत्यन्त सूक्ष्मतम यन्त्र तक गतिशील हो जाते है। श्वास-प्रश्वास ठीक वैसा ही एक गतिनियामक चक्र है। वही इस शरीर के सब अंगों में जहां जिस प्रकार कि शक्ति की आवश्यकता है, उसकी पूर्ति कर रहा है और उस शक्ति को नियमित कर रहा है। (राजयोग-पृ0-30)
24.अभ्यास का उपयुक्त समय है प्रातः और सायं। जब रात बीतती है और पौ फटती है तथा जब दिन बीतता है और रात आती है, इन दो समयों में प्रकृति अपेक्षाकृत शान्तभाव धारण करती है। ब्रह्ममुहुर्त और गोधुलि ये दो समय मन की स्थिरता के लिए अनुकूल है। (राजयोग-पृ0-33)
25.यथार्थ प्राणायाम की साधना में अधिकारी होने के लिए बहुत से अलग-अलग उपाय है। श्वास-प्रश्वास की क्रिया उनमें से एक उपाय मात्र है। प्राणायाम का अर्थ प्राणों का संयम। भारतीय दार्शनिकों के मतानुसार सारा जगत् दो पदार्थों से निर्मित है। उनमें से एक का नाम है-आकाश। (राजयोग-पृ0-35)
26.यह प्राण ही गतिरूप में प्रकाशित हुआ है-यही गुरूत्वाकर्षण या चुम्बकीय शक्ति के रूप में प्रकाशित हो रहा है। यह प्राण ही स्नायविक शक्तिप्रवाह के रूप में, विचारशक्ति के रूप में और समुदाय दैहिक क्रिया के रूप में प्रकाशित हुआ है। विचारशक्ति से लेकर अति सामान्य दैहिक तब सब कुछ प्राण का ही विकास है। वाह्य और अन्तर्जगत् की समस्त शक्तियां जब अपनी मूल अवस्था में पहुंचाती है, तब उसी को प्राण कहते है। (राजयोग-पृ0-36)
27.इस प्राणायाम में सिद्ध होने पर हमारे लिए मानो अनन्तशक्ति का द्वार खुल जाता है। मान लो, किसी व्यक्ति की समझ में यह प्राण का विषय पूरी तरह आ गया और वह उस पर विजय प्राप्त करने में भी कृतकार्य हो गया; तो फिर संसार में ऐसी कौन सी शक्ति है, जो उसके अधिकार में न आयें? उसकी आज्ञा से चन्द्र-सूर्य अपनी जगह से हिलने लगते हैं, क्षुद्रतम परमाणु से वृहत्तम सूर्य तक सभी उसके वशीभूत हो जाते हैं, क्योंकि उसने प्राण को जीत लिया है। प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति प्राप्त करना ही प्राणायाम की साधना का लक्ष्य है। (राजयोग-पृ0-37)
28.किस प्रकार इस प्राण पर विजय पायी जाय, यही प्राणायाम का एकमात्र उद्देश्य है। जो योगी इस विषय में कृतकार्य होते हैं, वे सिद्धि पा लेते हैं; तब कोई भी शक्ति उन पर प्रभुत्व नहीं जमा सकती। वे एक प्रकार से सर्वशक्तिमान और सर्वत्र हो जाते हैं। (राजयोग-पृ0-38-39)
29.कोई भी वस्तु स्थिर नहीं। मेरा शरीर, तुम्हारा शरीर नामक वास्तव में कोई वस्तु नहीं। वैसा कहना केवल मुख की बात है। है केवल एक अखण्ड जड़राशि। उसी के किसी बिन्दु का नाम है चन्द्र, किसी का सूर्य, किसी का मनुष्य, किसी का पृथ्वी; कोई बिन्दु उद्भिद् है, तो कोई खनिज पदार्थ। इनमें से कोई भी सदा एक भाव में नहीं रहता, सभी वस्तुओं का सतत् परिवर्तन हो रहा है; जड़ का एक बार संश्लेषण होता है फिर विश्लेषण। (राजयोग-पृ0-42)
30.यह भी सिद्ध हो चुका है कि यह शक्ति समष्टि दो तरह से अवस्थित है-कभी स्तिमित या अव्यक्त अवस्था में और कभी व्यक्त अवस्था में। व्यक्त अवस्था में वह इन नानाविध शक्तियों के रूप धारण करती है। इस प्रकार वह अनन्त काल से कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त भाव धारण करती आ रही है। इस शक्तिरूपी प्राण के संयम का नाम ही प्राणायाम है।(राजयोग-पृ0-43)
31.प्राणायाम के साथ साथ श्वास-प्रश्वास की क्रिया का सम्बन्ध बहुत थोड़ा है। यथार्थ प्राणायाम का अधिकारी होने में यह श्वास-प्रश्वास की क्रिया एक उपाय मात्र है। मनुष्य देह में प्राण का सबसे स्पष्ट प्रकाश है- फेफडे़ की गति। (राजयोग-पृ0-43)
32.प्राणायाम का यथार्थ अर्थ है- फेफड़े की इस गति का रोध करना। प्राणायाम श्वास-प्रश्वास की क्रिया नहीं है। पेशियों की जो शक्ति फेफड़ों को चलाती है, उसका वश में लाना ही प्राणायाम है। जब प्राण पर विजय प्राप्त हो जायेगी, तब हम देखेंगे कि शरीरस्थ प्राण की अन्यान्य सभी क्रियाएं हमारे अधिकार में आ गयी है।(राजयोग-पृ0-44)
33.देह के सारे अंगों को प्राण अर्थात् इस जीवनी शक्ति द्वारा भरा जा सकता है, और जब तुम इसमें कृतकार्य होंगे, तो सम्पूर्ण शरीर तुम्हारे वश हो जायेगा; देह की समस्त व्याधियाँ, सारे दुःख तुम्हारी इच्छा के अधीन हो जायेंगे। इतना ही नहीं, दूसरे के शरीर पर भी अधिकार जमाने में तुम कृतकार्य हो जाओगे। (राजयोग-पृ0-45)
34.जगत् को हिला-डुला देने वाली तीव्र इच्छाशक्ति सम्पन्न महापुरुष अपने प्राण में बहुत ऊँचा कम्पन उत्पन्न करके उस प्राण के वेग को इतना अधिक कर सकते हैं और उसको इतनी शक्ति से युक्त कर सकते हैं कि वह दूसरे को पल भर में लपेट लेती है, हजारो मनुष्य उनकी ओर खिंच जाते हैं और संसार के आधे लोग उनके भाव से परिचालित हो जाते हैं। जगत् में जितने महापुरुष हुए, सभी प्राणाजित थे। प्राण कहां अधिक है और कहां अल्प, इसका ज्ञान प्राप्त करना भी प्राणायाम का अंग है। (राजयोग-पृ0-48)
35.जैसे हम अनुवीक्षण यन्त्र और दूरबीन की सहायता से अपनी दृष्टि का क्षेत्र बढ़ा सकते हैं, उसी प्रकार मन को विभिन्न प्रकार के स्पन्दनों से युक्त करके हम दूसरे स्तर का समाचार अर्थात् वहां क्या हो रहा है, यह जान सकते हैं। (राजयोग-पृ0-52)
36.जिस प्राणायाम में प्राण के स्थूल रूपों को बाह्य उपायों द्वारा जीतने की चेष्टा की जाती है, उसे पदार्थ विज्ञान या भौतिक विज्ञान कहते हैं; और जिस प्राणायाम में प्राण के मानसिक विकासों को मानसिक उपायों द्वारा संयत करने की चेष्टा की जाती है, उसी को राजयोग कहते हैं। (राजयोग-पृ0-53)
37.योगियों के मतानुसार मेरूदण्ड के भीतर इड़ा और पिंगला नाम के दो स्नायविक शक्तिप्रवाह, और मेरूदण्डस्थ मज्जा के बीच सुषुम्ना नाम की एक शून्य नाली है। इस शून्य नाली के सब से नीचे कुण्डलिनी का आधारभूत पद्म अवस्थित है। जब यह कुण्डलिनी शक्ति जगती है, तब वह इस शून्य नाली के भीतर से मार्ग बनाकर ऊपर उठने का प्रयत्न करती है; और ज्यों ज्यों वह एक एक सोपान उपर उठती जाती है, त्यों त्यों मन के स्तर पर स्तर मानो खुलते जाते हैं। जब वह कुण्डलिनी शक्ति मस्तक पर चढ़ जाती है तब योगी सम्पूर्ण रूप से शरीर और मन से पृथक् हो जाते हैं और उनके आत्मा अपने मुक्त स्वभाव की उपलब्धि करती है। (राजयोग-पृ0-54)
38.सबसे नीचे वाला पद्म सुषम्ना के सबसे नीचे भाग में अवस्थित है उसका नाम है-मूलाधार। इसके बाद है- स्वाधिष्ठान। तीसरा-मणिपुर। चैथा-अनाहत, पांचवा-विशुद्ध, छठां-आज्ञा ओर सातवां है-सहस्रार या सहस्रदल पद्म। यह सहस्रार सब से उपर, मस्तिष्क में स्थित है। (राजयोग-पृ0-66)
39.सब चक्रों में से सब से नीचे स्थित-मूलाधार, मस्तिष्क में स्थित सहस्रार और नाभिदेश में स्थित-मणिुपर इन तीन चक्रों की बात हमें विशेष रूप से ध्यान में रखनी होगी। (राजयोग-पृ0-55)
40.जिस केन्द्र में विषय-अभिघात से उत्पन्न गति प्रवाहों के बचे हुए अंश या संस्कार समष्टि मानो संचित सी रहती है, उसे मूलाधार कहते हैं, और उस कुण्डलीकृत क्रिया शक्ति को कुण्डलिनी कहते हैं। (राजयोग-पृ0-59)
41.कुण्डलिनी को जगा देना ही तत्व-ज्ञान, ज्ञानातीत अनुभूति या आत्मानुभूति का एकमात्र उपाय है। कुण्डलिनी को जाग्रत करने के अनेक उपाय है। किसी को कुण्डलिनी भगवान के प्रति प्रेम के बल से ही जाग्रत हो जाती है; किसी की सिद्ध-महापुरुषों की कृपा से और किसी की सूक्ष्म ज्ञान विचार द्वारा। (राजयोग-पृ0-60)
42.मेरूमज्जा-मध्यस्थ ज्ञानात्मक और कर्मात्मक स्नायुगुच्छ स्तम्भ ही योगियों की इड़ा और पिंगला नाड़ियां है। प्रधानतः उन दोनों नाड़ियों के भीतर से ही पूर्वोक्त अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी शक्ति प्रवाहद्वय आना जाना कर रहे हैं। (राजयोग-पृ0-58)
43.इस साधना (प्राणायाम साधना) का पहला फल यह देखोगे कि तुम्हारे मुख की कान्ति बदलती जा रही है। मुख की शुष्कता या कठोरता का भाव प्रदर्शित करने वाली रेखाएं दूर हो जायेगी। मन की शान्ति मुख से फुटकर बाहर निकलेगी। दूसरे, तुम्हारा स्वर बहुत मधुर हो जायेगा। (राजयोग-पृ0-63)
44.प्राणायाम के बाद ‘‘प्रत्याहार’’ की साधना करनी पड़ती है। इन्द्रियों के द्वार-स्वरूप ये बाहर के यन्त्र है। फिर हैं इन्द्रियाँ। ये इन्द्रियाँ मस्तिष्क में स्थित स्नायु केन्द्रों की सहायता से शरीर पर कार्य करती है। इसके बाद है मन। जब ये समस्त एकत्र होकर किसी बाहरी वस्तु के साथ संलग्न होते हैं, तभी हम उस वस्तु का अनुभव कर सकते है। (राजयोग-पृ0-58)
45.मन को संयत करने का फल क्या है? यही कि मन संयत हो जाने पर वह फिर विषयों का अनुभव करने वाली भिन्न भिन्न इन्द्रियों के साथ अपने को संयुक्त न करेगा और ऐसा होने पर सब प्रकार के भाव और इच्छाएं हमारे वश में आ जायेंगी। (राजयोग-पृ0-70)
46.विश्वास के बल से आरोग्य लाभ कराने वाला सम्प्रदाय दुःख, कष्ट, अशुभ आदि के अस्तित्व को बिल्कुल अस्वीकार कर देने की शिक्षा देता है। इसमें सन्देह नहीं कि इनका दर्शन बहुत कुछ सिर के पीछे से हाथ ले जाकर नाक पकड़ने की तरह है; किन्तु वह भी एक प्रकार का योग है। (राजयोग-पृ0-70)
47.वशीकरण विद्या वाले इसी प्रकार सूचनाशक्ति या आज्ञा से कुछ देर के लिए अपने वश्य व्यक्तियों में एक प्रकार का अस्वाभाविक प्रत्याहार ले आते हैं जिसे साधारणतः वशीकरण सूचना कहते हैं, वह केवल रोगग्रस्त देह और कमजोर मन पर ही अपना प्रवाह फैला सकता है। (राजयोग-पृ0-70)
48.वशीकरणकारी या विश्वासबल से आरोग्य करने वाले थोड़े समय के लिए जो अपने वश्य व्यक्तियों के शरीरस्थ शक्तिकेन्द्रों (इन्द्रियों) को वशीभूत कर लेते हैं, वह अत्यन्त निन्दाई कर्म है, क्योंकि वह उस वश्य व्यक्ति को अन्त में सर्वनाश के रास्ते ले जाता है। (राजयोग-पृ0-71)
49.उस (वश्य) व्यक्ति पर यह प्रक्रिया जितनी की जाती है, उतना ही वह अपने मन की शक्ति क्रमशः खोने लगता है, और अन्त में मन को पूर्ण रूप से जीतना तो दूर रहा, उसका मन बिल्कुल शक्तिहीन और विचित्र सा हो जाता है तथा पागलखाने में ही उसकी चरमगति आ ठहरती है। (राजयोग-पृ0-71)
50.वह इच्छाशक्ति हम पर किसी भी रूप से क्यों न प्रयुक्त हो, और चाहे उससे हमारी इन्द्रियाँ प्रत्यक्ष वशीभूत हो जायें, चाहे वह एक प्रकार की पीड़ित या विकृतावस्था में हमें इन्द्रियों को संयत करने के लिए बाध्य करे। इसलिए सावधान! दूसरे को अपने उपर इच्छाशक्ति का संचालन न करने देना। अथवा दूसरे पर ऐसी इच्छाशक्ति का प्रयोग करके अनजाने उसका सत्यनाश न कर देना। यह सत्य है कि कोई कोई लोग कुछ व्यक्तियों की प्रवृत्ति का मोड़ फेरकर कुछ दिनों के लिए उनका कुछ कल्याण करने में कृत कार्य होते हैं, परन्तु साथ ही वे दूसरों पर इस वशीकरणशक्ति का प्रयोग करके, बिना जाने, लाखों नर-नारियों को एक प्रकार से विकृत जड़ावस्थापन्न कर डालते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उन वश्य व्यक्तियों की आत्मा का अस्तित्व तक मानों लुप्त हो जाता है। इसलिए जो कोई व्यक्ति तुमसे अन्धविश्वास करने को कहता है, अथवा अपनी श्रेष्ठतम इच्छाशक्ति के बल से लोगों को वशीभूत करके अनुसरण करने के लिए बाध्य करता है, वह मनुष्य जाति का भारी अनिष्ट करता है-भले ही वह इसे इच्छापूर्वक न करता हो। (राजयोग-पृ0-71)
51.अतएव अपने मन का संयम करने के लिए सदा अपने ही मन की सहायता लो, और सदा याद रखो कि तुम यदि रोगग्रस्त नहीं हो, तो कोई भी बाहरी इच्छाशक्ति तुम पर कार्य न कर सकेगी जो व्यक्ति तुमसे अन्धे के समान विश्वास कर लेने को कहता हो, उससे दूर ही रहो, वह चाहे कितना भी बड़ा आदमी या साधु क्यों न हो। (राजयोग-पृ0-72)
52.जो इच्छामात्र से अपने मन को केन्द्रों में संलग्न करने अथवा उनसे हटा लेने में सफल हो गया है उसी का प्रत्याहार सिद्ध हुआ है। प्रत्याहार का अर्थ है, एक ओर आहरण करना अर्थात् खींचना-मन की बहिर्गति को रोककर, इन्द्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना। (राजयोग-पृ0-73)
53.प्रत्याहार के बाद है- ‘‘धारणा’’। धारणा का अर्थ है-मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थानविशेष में धारण या स्थापन करना। मन को स्थानविशेष में धारण करने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि मन को शरीर के अन्य सब स्थानों से अलग करके किसी एक विशेष अंश के अनुभव में बलपूर्वक लगाये रखना। (राजयोग-पृ0-75)
54.योगाभ्यास करने पर जो चिह्न योगियों में प्रकट होते हैं, देह की स्वस्थता उनमें प्रथम है। स्वर भी मधुर हो जायेगा, स्वर में जो कुछ दोष है, सब निकल जायेगा। कभी कभी घण्टाध्वनि की तरह का शब्द सुन पड़ेगा। कभी कभी देखोगे, आलोक के छोटे छोटे कण हवा में तैर रहे हैं और क्रमशः कुछ-कुछ बड़े होते जा रहे हैं। जब ये लक्षण प्रकाशित होंगे, तब समझना कि तुम दु्रत गति से साधना में उन्नति कर रहे हो। (राजयोग-पृ0-76-77)
55.देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थान में मन को कुछ समय तक स्थिर रखने की पुनः पुनः चेष्टा करते रहने से, उसका उस दिशा में अविच्छिन्न गति से प्रवाहित होने की शक्ति प्राप्त होगी। इस अवस्था का नाम है- ‘‘ध्यान’’। जब ध्यानाशक्ति इतनी तीव्र हो जाती है कि मन अनुभूति के बाहरी भाग को छोड़कर केवल उसके अन्तर्भाग या अर्थ की ही ओर सम्पूर्ण रूप से जाता है, तब उस अवस्था का नाम है- ‘‘समाधि’’। (राजयोग-पृ0-91)
56.धारणा, ध्यान और समाधि इन तीनों को एक साथ लेने से ‘संयम’ कहते हैं अर्थात् यदि किसी का मन पहले किसी वस्तु में एकाग्र हो सकता है, फिर उस एकाग्रता की अवस्था में कुछ समय तक रह सकता है, ओर उसके बाद ऐसी दीर्घ एकाग्रता की अवस्था में वह अनुभूति के केवल आभ्यान्तरिक भाग पर, जिसका कि वह वस्तु वाह्य प्रकाश है, अपने आपको लगाये रख सकता है, तो सभी कुछ ऐसे शक्ति सम्पन्न मन के वशीभूत हो जाता है। (राजयोग-पृ0-92)
57.जीव की कितने प्रकार की अवस्थायें हैं, उनमें यह ध्यानावस्था ही सर्वोच्च है। जब कोई व्यक्ति इस ध्यानावस्था से अर्थात् साक्षीभाव से सारी वस्तुओं की चर्चा कर सकता है, तभी उसे यथार्थ सुख प्राप्त होता है। अन्य प्राणी इन्द्रियों में सुख पाते हैं, मनुष्य बुद्धि में और देवमानव आध्यात्मिक ध्यान में। (राजयोग-पृ0-92)
58.इस समाधि में प्रत्येक मनुष्य का, यही नहीं प्रत्येक प्राणी का अधिकार है। सब से निम्नतर प्राणी से लेकर अत्यन्त उन्नत देवता तक सभी, कभी न कभी, इस अवस्था को अवश्य प्राप्त करेंगे; और जब किसी को यह अवस्था प्राप्त हो जायेगी, तभी हम कहेंगे कि उसने यथार्थ धर्म की प्राप्ति की है। (राजयोग-पृ0-94)
59.जब मनुष्य समाधिस्थ होता है, तो समाधि प्राप्त करने के पहल यदि वह महामूर्ख रहा हो, अज्ञानी रहा हो, तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर नीचे आता है। (राजयोग-पृ0-83)
60.सारा नीतिशास्त्र, मनुष्य के सारे काम, मनुष्य के सारे विचार इस निःस्वार्थपरतारूप एक मात्र भाव (भित्ति) पर स्थापित है। मानव जीवन के सारे भाव इस निःस्वार्थपरतारूप एकमात्र भाव के अन्दर ढाले जा सकते हैं। (राजयोग-पृ0-86)
61.परमार्थिक ज्ञान सारे देश में वस्तुतः एक होने पर भी, किसी देश में वह देवदूत से, किसी देश में देव विशेष से, अथवा फिर कहीं साक्षात् भगवान से प्राप्त हुआ क्यों सुना जाता है। इसका तात्पर्य क्या है? यही कि मन ने अपनी प्रकृति के अनुसार ही अपने भीतर से उस ज्ञान को प्राप्त किया है, किन्तु जिन्होंने उसे पाया है, उन्होंने अपनी शिक्षा और विकास के अनुसार इस बात का वर्णन किया है कि उन्हें वह ज्ञान कैसे मिला। असल बात तो यह है कि ये सभी उस ज्ञानातीत अवस्था में अचानक जा पड़े थे। (राजयोग-पृ0-88)
62.योगीगण कहते हैं कि उस ज्ञानातीत अवस्था में अचानक जा पड़ने से एक भारी धोखे की आशंका रहती है। अनेक स्थलों में तो मस्तिष्क के बिल्कुल नष्ट हो जाने की सम्भावना रहती है। (राजयोग-पृ0-88)
63.राजयोग यथार्थ धर्म विज्ञान है। वह सारी उपासना, सारी प्रार्थना, विभिन्न प्रकार की साधना पद्धति और समुदाय अलौकिक घटनाओं की युक्तिसंगत व्यवस्था है। (राजयोग-पृ0-61)
64.सिर्फ पुस्तकों पर निर्भर रहने से मानव-मन केवल अवनति की ओर जाता है। यह कहने से और घोर नास्तिकता क्या हो सकती है कि ईश्वरीय ज्ञान केवल इस पुस्तक में या उस शास्त्र में आबद्ध है। (राजयोग-पृ0-91)
65.मनुष्य पहले भगवान से आता है, मध्य में वह मनुष्य के रूप में रहता है और अन्त में पुनः भगवान के पास चला जाता है। यह हुई द्वैतभाव की भाषा। अद्वैतवाद की भाषा में यह भाव व्यक्त करने पर कहना पड़ेगा कि मनुष्य भगवान है, और आकर फिर उन्हीं में लौट जाता है। (राजयोग-पृ0-107)
66.हम गुरु बिना कोई ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। अब बात यह है कि यदि मनुष्य, देवता अथवा कोई स्वर्गदूत हमारे गुरु हो, तो वे भी तो ससीम है; फिर उनसे पहले उनके गुरु कौन थे? हमें मजबूर होकर यह चरम सिद्धान्त स्थिर करना ही होगा कि एक ऐसे गुरु हैं, जो काल के द्वारा सीमाबद्ध या अविच्छिन्न नहीं है। उन्हीं अनन्तज्ञानसम्पन्न गुरु को, जिनका आदि भी नहीं और अन्त भी नहीं, ईश्वर कहते हैं। (राजयोग-पृ0-134)
67.प्रत्यक्ष उपलब्धि करना ही यथार्थ धर्म है, वही धर्म का सार है, और शेष सब-उदाहरणार्थ, धर्म सम्बन्धी भाषण सुनना, धार्मिक ग्रन्थों का पाठ करना या विचार करना-उस रास्ते के लिए तैयारी मात्र है। वह यथार्थ धर्म नहीं है। केवल किसी मत के साथ बौद्धिक सहमति अथवा असहमति धर्म नहीं है। (राजयोग-पृ0-154)
68.भोग अवश्यम्भावी है, वह तो करना ही होगा, अतएव जितनी जल्दी हो वह कर लिया जाय, उतना ही मंगल है। अतएव पति-पत्नी सम्बन्धी, मित्र सम्बन्धी तथा और भी जो सब छोटी छोटी प्रेम की आकांक्षाएं हैं सभी का भोग कर डालो। यदि अपना स्वरूप तुम्हे सदा याद रहे, तो तुम शीघ्र ही निर्विघ्न इसके पास हो जाओेगे। भोग-सुख-दुःख का यह अनुभव ही-हमारा एकमात्र महान शिक्षक है। (राजयोग-पृ0-177)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 09. भक्ति योग
1.निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज को भक्तियोग कहते हैं। इस खोज का आरम्भ, मध्य और अन्त प्रेम में होता है। ईश्वर के प्रति एक क्षण की भी प्रेमोन्मत्तता हमारे लिए शाश्वत् मुक्ति की देने वाली होती है। इस प्रेम से किसी काम्य वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जब तक सांसारिक वासनाएँ घर किये रहती है, तब तक प्रेम का उदय ही नहीं होता। भक्ति कर्म से श्रेष्ठ और ज्ञान तथा योग से उच्च है क्योंकि इन सबका एक न एक लक्ष्य है पर भक्ति स्वयं ही साध्य और साधन स्वरूप है। (भक्तियोग-3)
2.भक्तियोग का एक बड़ा लाभ यह है कि वह हमारे चरम लक्ष्य (ईश्वर) की प्राप्ति का सबसे सरल और स्वाभाविक मार्ग है। पर साथ ही उससे एक भय की आशंका यह है कि वह अपनी निम्न या गौणी अवस्था में मनुष्य को बहुधा भयानक मतान्ध और कट्टर बना देता है। देखोगे, जो व्यक्ति अपने सम्प्रदाय के अपने मतवाले लोगों के प्रति दयालु हैं, भला और सच्चा है, सहानुभूति सम्पन्न है, वही अपने सम्प्रदाय से बाहर के लोगों के प्रति बुरा से बुरा काम करने में भी न हिचकेगा। (भक्तियोग, पृ0-4-5) परन्तु जब भक्ति परिपक्व होकर उस अवस्था को प्राप्त हो जाती है, जिसे हम ‘परा’ कहते हैं, तब इस प्रकार की भयानकता मतान्धता और कट्टरता की फिर आशंका नहीं रह जाती।
3.ज्ञानी और भक्त दोनों ही अपनी-अपनी साधना प्रणाली पर विशेष जोर देते हैं; वे भूल जाते हैं कि पूर्ण भक्ति के उदय होने से पूर्ण ज्ञान बिना मांगे ही प्राप्त हो जाता है और इसी प्रकार पूर्ण ज्ञान के साथ पूर्ण भक्ति भी आप ही आ जाती है।(भक्तियोग-6)
4.यह आसक्ति किसके प्रति? उन्हीं परम प्रभु ईश्वर के प्रति। किसी अन्य पुरुष (चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो) के प्रति आसक्ति को कभी भक्ति नहीं कह सकते। (भक्तियोग-10)
5.जो व्यक्ति मुक्तिलाभ के बाद भी अपने व्यक्तित्व की रक्षा के इच्छुक है- ‘भगवान से स्वतन्त्र रहना चाहते है, उन्हें अपनी स्पृधयों को चरितार्थ करने और सगुण ब्रह्म का सम्भोग का यथेष्ठ अवसर मिलेगा। ऐसे लोगों के बारे में भागवत पुराण में कहा है- ‘‘हे राजन, हरि के गुण ही ऐसे है कि समस्त बन्धनों से मुक्त, आत्माराम ऋषिमुनि भी भगवान की अहैतुकी भक्ति करते है। (श्रीमद् भागवत, 1/7/10) (भक्तियोग पृ0-17)
6.एक मात्र ईश्वर की उपासना ही भक्ति है। देव, पितर या अन्य किसी की उपासना भक्ति नहीं कही जा सकती। विभिन्न देवताओं की जो विभिन्न उपासना-पद्धतियाँ है, उनकी गणना कर्मकाण्ड में ही की जाती है। उसके द्वारा उपासक को किसी प्रकार के स्वर्ग-भोग के रूप में एक विशिष्ट फल ही मिलता है, उससे न भक्ति होती है, न मुक्ति। परन्तु जब उस देवता या उस पुरूष को ब्रह्मरूप मानकर उसकी उपासना की जाती है, तो उससे वही फल प्राप्त होता है जो ईश्वरोपासना से। (भक्तियोग-49-50)
7.श्री रामकृष्ण कहते थे- जिस प्रकार एक कंजूस धन से, एक माँ बेटे से और एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से प्रेम करता है, अगर कोई व्यक्ति इन तीनो के प्रेम से युक्त होकर भगवान की खोज करें, तो वह आसानी से उसका अनुभव कर सकता है। लेकिन कौन ऐसा करता है? व्यक्ति तो सांसारिक सम्बन्धों के लिए ही घड़े भर आँसू बहाता है, भगवान के लिए कौन रोता है? (योग क्या है? पृष्ठ-17)
8.वे लोग वास्तव में बहुत भाग्यशाली है जो भगवान के प्रति अपने बाल सुलभ एवम् सहज प्रेम के कारण या तो भगवान की ओर मुड़ते है या वे स्वयं भगवान द्वारा खोज लिये जाते है और भगवान की भुजाओं में ले लिये जाते हैं लेकिन उनके बारे में क्या कहा जाय जो पूर्णरूपेण लगनशील होते हुये भी भगवान के प्रति स्वतः ंस्फूर्त प्रेम नहीं रखते। इतना ही नहीं, वे अनेक प्रकार की आशंकाओं से आक्रान्त रहते है- जैसे क्या ईश्वर सचमुच में हैं? (योग क्या है? पृष्ठ-18)
9.बिना प्रार्थना और उत्कट लालसा के कोई व्यक्ति भगवान को नहीं जान सकता। यह सर्वप्रथम तो विरोधाभास सा लगता है, लेकिन यह विवाद तुरन्त ही शान्त हो जाता है जब सन्देहशील व्यक्ति महान संतों एवं द्रष्टाओं के प्रमाणों में विश्वास करने लग जाता है जो यह कहते है कि- हाँ, ईश्वर प्रार्थनाओं का उत्तर देते है, और कोई भी प्रेम एवं निःस्वार्थ भाव से की गई प्रार्थना व्यर्थ नहीं जाती। (योग क्या है? पृष्ठ-18)
10.यह बात एक बालक भी जानता है कि मिट्टी का लोंदा भगवान नहीं है, लेकिन वह लोंदा जब एक मूर्ति का रूप ग्रहण कर लेता है तो भक्त के हृदय में भगवान के प्रति प्रेम-भावना को जागृत करता है। तब उसका मन मूर्ति में प्रयुक्त मिट्टी का अतिक्रमण कर जाता है परम चेतना की स्थिति को भी प्राप्त करता है। (योग क्या है? पृष्ठ-23)
11.प्रार्थना और पूजा के अलावे महान आत्माओं की संगति भी भक्ति के विकास में बड़ी महत्वपूर्ण होती है। यह कहा जाता है कि साधुओं की क्षणिक संगति भी एक ऐसी नाव का काम करती है जिसमें बैठकर संसार-सागर को आसानी से पार किया जा सकता है। (योग क्या है? पृष्ठ-23)
12.भक्ति विचित्र रूप धारण करती है, कुछ भक्त भगवान को पिता के रूप में, कुछ माँ के रूप में और कुछ बालक आदि के रूप में देखते हैं। यह तब तक चलता है जब तक कि सारी सांसारिक साधन भक्त के स्वभावानुसार प्रयुक्त नहीं हो जाती। (योग क्या है? पृष्ठ-28)
13.जब एक विशेष भक्त ऐसी उत्कट भक्ति का विकास कर लेता है तब उसे न तो दीर्घ जीवन की लालसा रहती है और न मृत्यु का कोई भय। अगर वह जीता है तो मानवता के लिए वरदान बनता है और वह ऐसी ज्योति प्रज्वलित करता है जो उस पथ पर चलने वाले दूसरे भक्तों को शाश्वत् रूप से प्रकाशित करती है। वह मृत्यु में भी अमरत्व प्राप्त करता है क्योंकि वह भगवान के सभी सच्चे प्रेमियों के हृदय में विराजमान रहता है। (योग क्या है? पृष्ठ-28-29)
14.प्रतीक का अर्थ है वे वस्तुएं, जो थोड़े-बहुत अंश में ब्रह्म के स्थान में उपास्य-रूप से ली जा सकती है जो वस्तु ब्रह्म नहीं है, उसमें ब्रह्म-बुद्धि करके ब्रह्म का अनुसंधान प्रतीकोपासना कहलाता है। (योग क्या है? पृष्ठ-48)
15.संसार के मुख्य धर्मों में से वेदान्त, बौद्ध धर्म और ईसाई धर्म के कुछ सम्प्रदाय बिना किसी आपत्ति के प्रतिमाओं का उपयोग करते हैं। केवल इस्लाम और प्रोटेस्टेण्ट ये ही दो ऐसे धर्म हैं जो इस सहायता की आवश्यकता नहीं मानते। फिर भी मुसलमान प्रतिमा के स्थान में अपने पीरों और शहीदों की कब्रों का उपयोग करते हैं।
16.ईसाई और इस्लाम धर्म में जो कुछ प्रतिमा-उपासना विद्यमान है, वह उस श्रेणी की है, जिसमें प्रतीक या प्रतिमा की उपासना केवल प्रतीक या प्रतिमा रूप से होती है- ब्रह्म दृष्टि से नहीं। अतएव वह कर्मानुष्ठान के ही समान है-उससे न भक्ति मिल सकती है, न मुक्ति। इस प्रकार की प्रतिमा-पूजा में उपासक ईश्वर को छोड़ अन्य वस्तुओं में आत्मसमर्पण कर देता है और इसलिए प्रतिमा, कब्र, मन्दिर आदि के इस प्रकार उपयोग को ही सच्ची मूर्तिपूजा कहते है। पर वह न तो कोई पाप कर्म है और न कोई अन्याय-वह तो बस एक कर्म मात्र है, और उपासकों को उसका फल भी अवश्य मिलता है। (भक्तियोग पृष्ठ-51)
17.जो भक्त होना चाहता है, उसे यह जान लेना चाहिए कि ‘‘जितने मत है उतने पथ है।’’ उसे अवश्य जान लेना चाहिए कि विभिन्न धर्मों के भिन्न सम्प्रदाय उसी प्रभु की महिमा की अभिव्यक्तियाँ है। ‘‘लोग तुम्हे कितने नाम से पुकारते हैं। लोगों ने विभिन्न नामों से तुम्हें विभाजित सा कर दिया है परन्तु फिर भी प्रत्येक नाम में तुम्हारी पूर्णशक्ति वर्तमान है। भक्त को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अन्य सम्प्रदायों के तेजस्वी प्रवर्तकों के प्रति उसके मन में घृणा उत्पन्न न हो, वह उनकी निन्दा न करे और न कभी उनकी निन्दा सुने ही।’’ (भक्तियोग पृष्ठ-56)
18.भक्तिकाल के उपायों तथा साधनों के सम्बन्ध में भगवान रामानुज वेदान्त-सूत्रों की टीका करते हुए कहते हैं, ‘‘भक्ति की प्राप्ति विवेक, विमोक (दमन), अभ्यास, क्रिया (यज्ञादि), कल्याण (पवित्रता), अनवसाद (बल) और अनुद्धर्स (उल्लास का विरोध) से होती है।’’ (भक्तियोग पृष्ठ-56)
19.‘विवेक’ का अर्थ यह कि अन्य बातों के साथ ही हमें खाद्याखाद्य का भी विचार रखना चाहिए। खाद्य वस्तु के अशुद्ध होने के तीन कारण होते हैं- (1) जातिदोष अर्थात् खाद्य वस्तु का प्रकृतिगत दोष-जैसे लहसुन, प्याज आदि; (2) आश्रयदोष अर्थात् दुष्ट और पापी व्यक्तियों के पास से आने में दोष; और (3) निमित्तदोष अर्थात् किसी अपवित्र वस्तु, जैसे- धूल, केश आदि के संस्पर्श से होने वाला दोष। (भक्तियोग पृष्ठ-56)
20.सूक्ष्म शरीर (मन) का संयम करना स्थूल शरीर के संयम से निश्चय ही श्रेष्ठ है, परन्तु साथ ही साथ सूक्ष्म के लिए स्थूल का भी संयम परमावश्यक है। इसलिए आरम्भिक दशा में साधक को आहार-सम्बन्धी उन सब नियमों का विशेष रूप से पालन करना चाहिए, जो उसकी गुरु-परम्परा से चले आ रहे हैं। आजकल हमारे अनेक सम्प्रदायों में इस आहारादि विचार की इतनी बढ़ी चढ़ी है, अर्थहीन नियमों की इतनी पाबन्दी है कि उन सम्प्रदायों ने मानो धर्म को रसोईघर में ही सीमित कर रखा है जो लोग खाद्याखाद्य के इस विचार को ही जीवन का सार कत्र्तव्य समझ बैठे हैं, उनकी गति ब्रह्मलोक में न होकर पागलखाने में होना ही अधिक सम्भव है। (भक्तियोग पृष्ठ-58)
21.वास्तव में खाद्य के सम्बन्ध में यह शुद्धाशुद्ध विचार गौण है। ‘‘जो कुछ आहत हो, वही आहार है।’’ आहार-शुद्धि का अर्थ है- आसक्ति, द्वेष और मोह से रहित होकर विषय का ज्ञान प्राप्त करना। अतएव यह ज्ञान या ‘आहार’ शुद्ध हो जाने से उस व्यक्ति का सत्त्व पदार्थ अर्थात् अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, और सत्वशुद्धि हो जाने से अनन्त पुरुष के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान और अविच्छिन्न स्मृति प्राप्त हो जाती है। (भक्तियोग पृष्ठ-57)
22.‘विमोक’ अर्थात् इन्द्रिय निग्रह-इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से रोकना ओर उनको वश में लाकर अपनी इच्छा के अधीन रखना। इसे धार्मिक साधना की नींव ही कह सकते हैं। (भक्तियोग पृष्ठ-59)
23.‘अभ्यास’ अर्थात् आत्मसंयम और आत्मत्याग का अभ्यास। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं, ‘‘हे कौन्तेय, अभ्यास और वैराग्य से यह प्राप्त होता है’’ (गीता, 6/35) (भक्तियोग पृष्ठ-59)
24.‘क्रिया’ अर्थात् यज्ञ। पंच महायज्ञों का नियमित रूप से अनुष्ठान करना होगा। (भक्तियोग पृष्ठ-59)
25.‘कल्याण’ अर्थात् पवित्रता ही एकमात्र ऐसी भित्ति है, जिस पर सारा भक्तिप्रसाद खड़ा है। वाह्य शौच और खाद्याखाद्य विचार ये दोनों सरल है, पर अन्तःशुद्धि बिना उसका कोई मूल्य नहीं। अन्तःशुद्धि के लिए इन गुणों को उपास्यस्वरूप बतलाया गया है- (1) सत्य (2) आर्जाव अर्थात् सरला (3) दया अर्थात् निःस्वार्थ परोपकार (4) दान (5) अहिंसा अर्थात् मन, वचन और कर्म से किसी की हिंसा न करना (6) अनमिध्या अर्थात् परद्रव्यलोभ, वृथा चिन्तन और दूसरे द्वारा किये गये अनिष्ट आचरण के निरन्तर चिन्तन का त्याग। (भक्तियोग-पृ0-59)
26.इन गुणों में से अहिंसा विशेष ध्यान देने योग्य है। सब प्राणियों के प्रति अहिंसा का भाव हमारे लिए परमावश्यक है। अहिंसा की कसौटी है-ईष्र्या का अभाव। मानवजाति का सच्चा प्रेमी तो वह है, जो किसी के प्रति ईष्र्या भाव नहीं रखता। बहुधा देखा जाता है कि संसार में जो बड़े मनुष्य कहे जाते हैं, वे अक्सर एक दूसरे के प्रति केवल थोड़े से नाम, कीर्ति या चांदी के चन्द टुकड़ों के लिए ईष्र्या करने लगते हैं। (भक्तियोग-पृ0-60)
27.जिस प्रकार घास-फूस खाने वाले जानवरों की कोई विशेष उन्नत नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार वही भी कोई खाद्य विशेष त्याग देने से ही ज्ञानी या उन्नत स्वभाव का नहीं हो जाती। जिसके हृदय में कभी भी किसी के प्रति अनिष्ट विचार तक नहीं आता, जो अपने बड़े से बड़े शत्रु की भी उन्नति पर आनन्द मनाता है, वही वास्तव में भक्त है, वही योगी है और वही सब का गुरु है-फिर भले ही वह प्रतिदिन शूअर मांस ही क्यों न खाता हो। (भक्तियोग-पृ0-61)
28.जब बाह्य कर्मों के साधन में छोटी छोटी बातों का पालन करना सम्भव न हो, तो उस समय केवल अन्तःशौच का अवलम्बन करना श्रेयस्कर है। पर धिक्कार है उस व्यक्ति को, धिक्कार है उस राष्ट्र को, जो धर्म के सार को तो भूल जाता है और अभ्यासवश वाह्य अनुष्ठानांे को ही कसकर पकड़े रहता है तथा उन्हें किसी तरह छोड़ता नहीं! (भक्तियोग-पृ0-61)
29.‘‘अनवसाद’’ अर्थात् बल। श्रुति कहती है- ‘‘बलहीन व्यक्ति आत्मसम्मान नहीं कर सकता’’। इस दुर्बलता का तात्पर्य है- शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की दुर्बलताएं। ‘‘युवा, स्वस्थकाय, सबल’’ व्यक्ति ही सिद्ध हो सकता है। दुर्बल चित्त व्यक्ति भी आत्मलाभ नहीं कर सकता। जो मनुष्य भक्त होने का इच्छुक है, उसे सदैव प्रसन्न चित्त रहना चाहिए। (भक्तियोग-पृ0-62)
30.‘‘अनुद्धर्ष’’। साथ ही साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मनुष्य कहीं अत्यधिक आमोद में मत्त न हो जाय। यह अनुद्धर्ष है। अत्यन्त हास्य-कौतुक हमें गंभीर चिन्तन के अयोग्य बना देता है। उससे मानसिक शक्ति व्यर्थ ही क्षय हो जाती है। इन्हीं सब साधनांे द्वारा क्रमशः ईश्वर भक्ति का उदय होता है। (भक्तियोग-पृ0-63)
31.सब प्रकार की साधनाओं का उद्देश्य है-आत्मशुद्धि। नाम-जप, कर्मकाण्ड, प्रतीक, प्रतिमा आदि केवल आत्मशुद्धि के लिए हैं। इसके बिना कोई भी पराभक्ति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता। यह त्याग ही सारी आध्यात्मिकता का प्रथम सोपान है, उसका सार है-यही वास्तविक धर्म है। जब मानवता संसार की समस्त वस्तुओं को दूर फेंक, गंभीर तत्वों के अनुसंधान में लग जाती है, तभी वास्तविक आध्यात्मिकता की नींव पड़ती है। (भक्तियोग-पृ0-64)
32.कर्मयोगी सारे कर्मफलों का त्याग करता है; वह जो कुछ कर्म करता है, उसके फल में वह आसक्त नहीं होता। राजयोगी जानता है कि सारी प्रकृति का लक्ष्य आत्मा को भिन्न-भिन्न प्रकार के सुख-दुःखात्मक अनुभव प्राप्त कराना है। राजयोगी प्रकृति के अपने नानाविध सुख-दुःखों के अनुभवों से वैराग्य की शिक्षा पाता है। ज्ञान योगी का वैराग्य सब से कठिन है, क्योंकि आरम्भ से ही उसे यह जान लेना पड़ता है कि यह ठोस दिखने वाली प्रकृति निरीमिथ्या है। (भक्तियोग-पृ0-65)
33.सब प्रकार के वैराग्यों में भक्तियोगी का वैराग्य सब से स्वाभाविक है। उनमें न कोई कठोरता है, न कुछ छोड़ना पड़ता है, न हमें अपने आप से कोई चीज छोड़नी पड़ती है, और न बलपूर्वक किसी चीज से हमें अपने आपको अलग ही करना पड़ता है। भक्ति के लिए जिस वैराग्य की आवश्यकता होती है, उसके प्राप्त करने के लिए किसी का नाश करने की आवश्यकता नहीं होती। वह वैराग्य तो स्वभावतः ही आ जाता है। (भक्तियोग-पृ0-65-67)
34.यही ईश्वर-प्रेम क्रमशः बढ़ते हुए एक ऐसा रूप धारण कर लेता है, जिसे ‘पराभक्ति’ कहते हैं।, तब तो इस प्रेमिक पुरुष के लिए अनुष्ठान की और आवश्यकता नहीं रह जाता, शास्त्रों का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता; प्रतिमा, मन्दिर, गिरजे, विभिन्न सम्प्रदाय, देश, राष्ट्र-ये सब छोटे छोटे सीमित भाव और बन्धन अपने ही आप चले जाते हैं। तब संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं बच रहती, जो उसको बांध सके, जो उसकी स्वाधीनता को नष्ट कर सके। (भक्तियोग-पृ0-67)
35.‘‘तदीयता’’। जब मनुष्य अपने आपको बिल्कुल भूल जाता है और जब उसे यह भी ज्ञान नहीं रहता कि कोई चीज अपनी है, तभी यह ‘तदीयता’ की अवस्था प्राप्त होती है। तब सब कुछ उसके लिए पवित्र हो जाता है, क्योंकि वह सब उसके प्रेमास्पद का ही तो है। सांसारिक प्रेम में भी, प्रेमी अपनी प्रेमिका की प्रत्येक वस्तु को बड़ी प्रिय और पवित्र मानता है। अपनी प्रणयिनी के कपड़े के एक छोटे से टुकड़े को भी वह प्यार करता हैं इसी प्रकार जो मनुष्य भगवान से प्रेम करता है, उसके लिए सारा संसार प्रिय हो जाता है, क्योंकि यह संसार आखिर उन्हीं का तो है। (भक्तियोग-पृ0-81)
36.भक्त कहता है कि हमें ऐसा रहना चाहिए, मानों हम दुनिया की सारी चीजों के लिए मर-से गये हों और वास्तव में यही यथार्थ समर्पण है। यही सच्ची शरणागति है- ‘‘जो होने का है, हो’’। उसके हृदय के अन्तरतम प्रदेश से तो बस यही प्रार्थना निकलती है, ‘‘प्रभो, लोग तुम्हारे नाम पर बड़े बड़े मन्दिर बनवाते हैं, बड़े बड़े दान देते हैं; पर मैं तो निर्धन हूँ; मेरे पास कुछ भी नहीं है। अतः मैं अपने इस शरीर को ही तुम्हारे श्री चरण कमलों में समर्पित करता हूँ। मेरा परित्याग न करना प्रभो!’’ जिसने एक बार इस अवस्था का आस्वादन कर लिया है, उसके लिए प्रेमास्पद भगवान के श्री चरणों में यह चिर आत्मसमर्पण कुबेर के धन और इन्द्र के ऐश्वर्य से भी श्रेष्ठ है, नाम-परा और सुख-सम्पदा की महान आकांक्षा से भी महत्तर है। (भक्तियोग-पृ0-86-87)
37.भक्त के लिए पराविद्या और पराभक्ति दोनों एक ही है। ‘‘ब्रह्मज्ञानी के मतानुसार परा और अपरा ये दो प्रकार की विद्याएं जानने योग्य है। अपरा विद्या में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा (उच्चारणादि की विद्या), कल्प (यज्ञ पद्धति), व्याकरण, निरूक्त (वैदिक शब्दों की उत्पत्ति और अर्थ बताने वाला शास्त्र), छन्द और ज्योतिष आदि है; तथा पराविद्या द्वारा उस अक्षर ब्रह्म का ज्ञान होता है।’’ इस प्रकार परा विद्या स्पष्टतः ब्रह्मविद्या है। (भक्तियोग-पृ0-88)
38.एक बर्तन से दूसरे बर्तन में तेल डालने पर जिस प्रकार एक अविच्छिन्न धारा में गिरता है, उसी प्रकार जब मन भगवान के सतत् चिन्तन में लग जाता है, तो पराभक्ति की अवस्था प्राप्त हो जाती है। (भक्तियोग-पृ0-88)
39.केवल प्रेम के लिए प्रेम करना संसार में निस्संदेह प्रेम की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है और यही पूर्ण निःस्वार्थ प्रेम है। इस प्रकार का प्रेम जब आध्यात्मिकता के क्षेत्र में कार्य करने लगता है, तो वही हमें पराभक्ति में ले जाता हैं। (भक्तियोग-पृ0-89)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 10. प्रेम योग
1.भक्ति विभिन्न रूपों में प्रकाशित होती है- (1) श्रद्धा (2) प्रीति (3) विरह (4) तदीयता। (भक्तियोग-पृ0-79)
2.‘‘श्रद्धा’’। इस श्रद्धा का मूल है प्रेम। हम जिससे प्रेम नहीं करते, उसके प्रति कभी भी श्रद्धालु नहीं हो सकते।
3.‘‘प्रीति’’। अर्थात् ईश्वर-चिन्तन में आनन्द। (भक्तियोग-पृ0-79)
4.‘‘विरह’’- प्रेमास्पद के अभाव में उत्पन्न होने वाला तीव्र दुःख। यह दुःख संसार के समस्त दुःखों में सबसे मधुर है-अत्यंत मधुर है। जब मनुष्य भगवान को न पा सकने के कारण संसार में एकमात्र जानने योग्य वस्तु को न जान सकने के कारण भीतर तीव्र वेदना अनुभव करने लगता है और फलस्वरूप अत्यन्त व्याकुल हो बिल्कुल पागल-सा हो जाता है तो उस दशा को विरह कहते हैं। मन की ऐसी दशा में प्रेमास्पद को छोड़ उसे और कुछ अच्छा नहीं लगता (इतर-विचिकित्सा)। बहुधा यह विरह सांसारिक प्रणय में देखा जाता है। जब स्त्री-पुरुष में यथार्थ और प्रगाढ़ प्रेम होता है, तो उन्हें ऐसे किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति अच्छी नहीं लगती, जो उनके मन का नहीं होता। (भक्तियोग-पृ0-79)
5.प्रकृति में सर्वत्र हम प्रेम का विकास देखते हैं। पहला मानव समाज में जो कुछ सुन्दर और महान है, वह समस्त प्रेम प्रसूत है, दूसरा फिर जो कुछ खराब, यही नहीं, बल्कि पैशाचिक है, वह भी उसी प्रेमाभाव का विकृत रूप है। दूसरा जिस प्रकार अपने आप से प्यार करता है। पहला उसी प्रकार दूसरों से प्यार करता है। पहली दशा में प्रेम की गति ठीक और उचित दिशा में है, पर दूसरी दशा में वह बुरी दिशा में। जो आग हमारे लिए भोजन पकाती है, वह एक बच्चे को जला भी सकती है। किन्तु इसमें आग का कोई दोष नहीं। (भक्तियोग-पृ0-69)
6.भक्तियोग उच्चतर प्रेम का विज्ञान है। वह हमें दर्शाता है कि हम प्रेम को ठीक रास्ते से कैसे लगायें, कैसे उसे वश में लायें, उसका सद्व्यवहार किस प्रकार करें, किस प्रकार एक नये मार्ग में उसे मोड़ दें और उसके श्रेष्ठ और महत्तम फल अर्थात् जीवन्मुक्त अवस्था किस प्रकार प्राप्त करें। और जो परमेश्वर के प्रेम में उन्मुक्त हो गया है, उसकी स्वभावतः, नीच विषयों में कोई प्रवृत्ति नहीं रह सकती। (भक्तियोग-पृ0-70)
7.समष्टि से प्रेम किये बिना हम व्यष्टि से प्रेम कैसे कर सकते हैं? ईश्वर ही वह समष्टि है। सारे विश्व का यदि एक अखण्ड रूप से चिन्तन किया जाय, तो वही ईश्वर है, और उसे पृथक-पृथक रूप से देखने पर वही यह दृश्यमान संसार है- व्यष्टि है। समष्टि वह इकाई है, जिसमें लाखों छोटी छोटी इकाईयों का मेल है। इस समष्टि के माध्यम से ही सारे विश्व को प्रेम करना सम्भव है। (भक्तियोग-पृ0-82)
8.प्रेम की उपमा एक त्रिकोण से दी जा सकती है, जिसका प्रत्येक कोण एक एक अविभाज्य गुण का सूचक है। जिस प्रकार बिना तीन कोण के एक त्रिकोण नहीं बन सकता, उसी प्रकार निम्नलिखित तीन गुणों के बिना यथार्थ प्रेम का होना असम्भव है। (भक्तियोग-पृ0-90)
9.पहला कोण तो यह है कि प्रेम में किसी प्रकार का क्रय-विक्रय (खरीद-बेच) नहीं होता। (भक्तियोग-पृ0-90)
10.दूसरा कोण यह है कि प्रेम में कोई भय नहीं रहता। (भक्तियोग-पृ0-92)
11.तीसरा कोण यह है कि प्रेम में कोई प्रतद्वन्द्वी अर्थात् दूसरा प्रेमपात्र नहीं होता। (भक्तियोग-पृ0-93)
12.जो प्रेमी स्वार्थपरता और भय के परे हो गया है, जो फलाकांक्षा शून्य हो गया है, उसका आदर्श क्या है? वह परमेश्वर से भी यही कहेगा। ‘‘मैं तुम्हे सर्वस्व अर्पण करता हूँ, मैं तुमसे कोई चीज नहीं चाहता। वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे मैं अपना कह सकूँ।’’ जब मनुष्य इस प्रकार की अवस्था प्राप्त कर लेता है, तब उसका आदर्श पूर्ण पे्रम का आदर्श हो जाता है। वह आदर्श तो सार्वभौमिक प्रेम, अनन्त और असीम प्रेम, पूर्ण स्वतंत्र प्रेम का आदर्श होता है; यही क्यों, वह साक्षात् प्रेम स्वरूप होता है। (भक्तियोग-पृ0-96)
13.जब भक्त इस अवस्था में पहुंच जाता है, तब उसमंे ये सब तर्क-वितर्क नहीं उठते कि भगवान को प्रमाणित किया जा सकता है अथवा नहीं, भगवान सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है या नहीं। उसके लिए भगवान तो प्रेममय है- प्रेम के सर्वोच्च आदर्श है, और बस यह जानना ही उसके लिए यथेष्ट है। भगवान प्रेमरूप होने के कारण स्वतः सिद्ध है। (भक्तियोग-पृ0-98)
14.कोई कोई कहते हैं कि समस्त मानवी कार्यों की एकमात्र प्रेरक-शक्ति है स्वार्थपरता। किन्तु वह भी तो प्रेम ही है; पर हाँ, वह प्रेम विशिष्टता के कारण निम्नभावापन्न हो गया है-बस इतना ही। जब मैं अपने को संसार की सारी वस्तुओं में अवस्थित सोचता हूँ, तब निश्चय ही मुझमें किसी प्रकार की स्वार्थपरता नहीं रह सकती। (भक्तियोग-पृ0-98)
15.प्रेम के इस परमोच्च और पूर्ण आदर्श को मानवी भाषा में प्रकट करना असम्भव है। उच्चतम मानवी कल्पना भी उसकी अनन्त पूर्णता तथा सौन्दर्य का अनुभव करने में असमर्थ है। मनुष्य दैवी विषयों के सम्बन्ध में अपने मानवी ढंग से ही सोच सकता है, वह पूर्ण निरपेक्ष सत्ता हमारे समक्ष हमारी सापेक्ष भाषा में ही प्रकाशित हो सकती है। पराभक्ति के कई व्याख्याताओं ने इस दैवी प्रेम को अनेक प्रकार से समझने और उसका प्रत्यक्ष अनुभव करने की चेष्टा की है। (भक्तियोग-पृ0-99)
16.इस दैवी प्रेम के- (1) शान्त (2) दास्य (3) सख्य (4) वात्सल्य (5) मधुर (6) अवैध (परकीय) छः रूप है।
17.इस प्रेम के निम्नतम रूप को ‘‘शान्त’’ भक्ति कहते हैं। जब उसकी उपासना में प्रबल प्रेम की उन्मत्तता नहीं रहती है तब वह उपासना शान्त भक्ति या शान्त प्रेम कहलाती है। (भक्तियोग-पृ0-100)
18.इससे (शान्त प्रेम) से कुछ ऊँची अवस्था है- ‘‘दास्य’’। इस अवस्था में मनुष्य अपने को ईश्वर का दास समझता है। विश्वासी सेवक की अपने स्वामी के प्रति अनन्य भक्ति ही उसका आदर्श है।
19.इसके (दास्य प्रेम) के बाद है- ‘‘सख्य प्रेम’’। इस सख्य प्रेम का साधक भगवान से कहता है- ‘‘तुम मेरे प्रिय सख्य हो’’। जिस प्रकार एक व्यक्ति अपने मित्र के सम्मुख अपना हृदय खोल देता है और यह जानता है कि उसका मित्र उसके अवगुणों पर कभी ध्यान न देगा, वरन् उसकी सदा सहायता ही करेगा-उन दोनों में जिस प्रकार समानता का एक भाव रहता है। इस तरह भगवान हमारे अन्तरंग मित्र हो जाते हैं, जिनके हम अपने जीवन की सारी बातें दिल खोलकर बता सकते हैं, जिनके समक्ष हम अपने हृदय के गुप्त भावों को भी बिना हिचकिचाहट के प्रकट कर सकते हैं। भगवान मानो हमारे संगी हो, सखा हो। हम सभी इस संसार में मानो खेल रहे हैं। जिस प्रकार बच्चे अपना खेल खेलते हैं। (भक्तियोग-पृ0-100)
20.इसके (सख्य प्रेम) के बाद है- ‘‘वात्सल्य प्रेम’’। उसमें भगवान का चिन्तन पिता रूप से न करके सन्तान रूप से करना पड़ता है। प्रेम कहता है कि भगवान को महामहिम, ऐश्वर्यशाली, जगननाथ या देवदेव के रूप में सोचने की मेरी इच्छा ही नहीं होती। भगवान के साथ सम्बन्धित यह जो भयोत्पादक ऐश्वर्य की भावना है, उसी को दूर करने के लिए वह भगवान को अपनी सन्तान के रूप में प्यार करता है। माता-पिता अपने बच्चे से भयभीत नहीं होते, उसके प्रति उनकी भक्ति नहीं होती। वे उस बच्चे से कुछ याचना नहीं करते। बच्चा तो सदा पाने वाला ही होता है और उसके लिए वे लोग सौ बार भी मरने को तैयार रहते हैं। बस इसी प्रकार भगवान से वात्सल्याभाव से प्रेम किया जाता है जो सम्प्रदाय भगवान के अवतार में विश्वास करते हैं, उन्हीं में यह वात्सल्य भाव की उपासना स्वाभाविक रूप से आती और पनपती है। मुसलमानों के लिए भगवान को एक सन्तान के रूप में मानना असम्भव है। वे तो डर कर इस भाव से दूर रहेंगे। पर ईसाई और हिन्दू इसे सहज ही समझ सकते हैं, क्योंकि उनके तो बालक ईसा और बालक कृष्ण हैं। भारतीय रमणियाँ बहुधा अपने आपको श्रीकृष्ण की माता के रूप में सोचती हैं। (भक्तियोग-पृ0-102-103)
21.मानवी जीवन में प्रेम का यह दैवी आदर्श एक और प्रकार से प्रकाशित होता है। उसे ‘‘मधुर’’ कहते हैं और वही सब प्रकार के पे्रमों में श्रेष्ठ है। दैवी प्रेम के इस मधुर भाव में भगवान का चिन्तन पतिरूप में किया जाता है- ऐसा विचार कर कि हम सभी स्त्रियाँ हैं, इस संसार में और कोई पुरुष नहीं; एकमात्र पुरुष है- वे। हमारे वे प्रेमास्पद ही एकमात्र पुरुष है जो प्रेम पुरुष-स्त्री के प्रति और स्त्री-पुरुष के प्रति प्रदर्शित करती है, वही प्रेम भगवान को देना होगा। भगवान ही मनुष्य के मन और शरीर की समस्त शक्तियों के एकमात्र लक्ष्य है-एकापन है, फिर वे शक्तियाँ किसी भी रूप से क्यांे न प्रकट हो। मानव हृदय का समस्त प्रेम-सारे भाव भगवान की ओर हो जाय। वे ही हमारे एकमात्र प्रेमास्पद है। यह मानवहृदय भला और किसे प्यार करेगा? वे परम सुन्दर है, परम महान् है-अहा! वे साक्षात् सौन्दर्य स्वरूप है, महत्त्व स्वरूप है। इस दुनिया में भला और कौन पति होने के उपयुक्त है? उनके सिवा जगत में भला और कौन हमारा प्रेमपात्र हो सकता है? अतः वे ही हमारे पति हो, वे ही हमारे प्रेमास्पद हो। ‘‘हे प्रियतम, तुम्हारे अधरों के केवल एक चुम्बन के लिए! जिसका तुमने एक बार चुम्बन किया है, तुम्हारे लिए उसकी पिपासा बढ़ती ही जाती है। उसके समस्त दुःख चले जाते हैं। वह तुम्हे छोड़ और सब भुल जाता है।’’ प्रियतम के उस चुम्बन के लिए-उनको अधरों के उस स्पर्श के लिए व्याकुल होओ, जो भक्त को पागल कर देता है, जो मनुष्य को देवता बना देता है। (भक्तियोग-पृ0-103-104, 106-107)
22.प्रेमान्माद की यही (मधुर प्रेम) चरम अवस्था है। पर सच्चा भगवत्प्रेमी यहां पर भी नहीं रूकता; उसके लिए तो पति और पत्नी की प्रेमोन्मत्तता भी यथेष्ट नहीं। अतएव ऐसे भक्त ‘‘अवैध (परकीय)’’ प्रेम का भाव ग्रहण करते हैं, क्योंकि वह अत्यन्त प्रबल होता है। फिर देखो, उसकी अवैधता उनका लक्ष्य नहीं है। इस प्रेम का स्वभाव ही ऐसा है कि उसे जितनी बाधा मिलती है, वह उतना ही उग्र रूप धारण करता है। पति-पत्नी का प्रेम अबाध रहता है-उसमें किसी प्रकार की विध्नबाधा नहीं आती। इसलिए भक्त कल्पना करता है, मानो कोई स्त्री परपुरुष में आसक्त है और उसके माता, पिता या स्वामी उसके इस प्रेम का विरोध करते हैं। (भक्तियोग-पृ0-107)
23.श्रीकृष्ण वृन्दावन के कुंजों में किस प्रकार लीला करते थे, किस प्रकार सब लोग उन्मत्त होकर उनसे प्रेम करते थे, किस प्रकार उनकी बाँसुरी की मधुर तान सुनते ही चिर-धन्या गोपियाँ सब कुछ भूलकर, इस संसार और इसके समस्त बन्धनों को भूलकर, यहां के सारे कत्र्तव्य तथा सुख-दुःख को बिसराकर, उन्मत्त-सी उनसे मिलने के लिए छुट पड़ती थीं-यह सब मानवी भाषा द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। हे मानव, तुम दैवी प्रेम की बाते तो करते हो, पर साथ ही इस संसार की असार वस्तुओं में भी मन दिये रहते हो। क्या तुम सच्चे हो-क्या तुम्हारा मन और मुख एक हैै? ‘‘जहां राम है, वहां काम नहीं, और जहां काम है, वहां राम नहीं।’’ (भक्तियोग-पृ0-107-108)
24.जब प्रेम का यह उच्चतम आदर्श प्राप्त हो जाता है, तो ज्ञान फिर न जाने कहां चला जाता है। तब भला ज्ञान की इच्छा भी कौन करे? तब तो मुक्ति, उद्धार, निर्वाण की बातें न जाने कहां गायब हो जाती है। इस दैवी प्रेम में छके रहने से फिर भला कौन मुक्त होना चाहेगा? ‘‘प्रभो! मुझे धन, जन, सौन्दर्य, विद्या यहां तक कि मुक्ति भी नहीं चाहिए। बस इतनी ही साध है, कि जन्म जन्म में तुम्हारे प्रति मेरी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।’’ (भक्तियोग-पृ0-109)
25.भक्त कहता है, ‘‘मैं जानता हूँ कि वे और मैं दोनों एक हैं, पर तो भी मैं उनसे अपने को अलग रखकर उन प्रियतम का सम्भोग करूंगा।’’ प्रेम के लिए प्रेम- यही भक्ति का सर्वोच्च सुख है। प्रियतम का सम्भोग करने के लिए कौन न हजार बार भी बद्ध होने को तैयार रहेगा? एक सच्चा भक्त प्रेम को छोड़ और किसी वस्तु की कामना नहीं करता। वह स्वयं प्रेम करना चाहता है कि भगवान भी उससे प्रेम करे। (भक्तियोग-पृ0-109)
26.मैं एक ऐसे महापुरुष को जानता हूँ, जिन्हें लोग पागल कहते थे। इस पर उनका उत्तर था, ‘‘भाईयों सारा संसार ही तो एक पागलखाना है। कोई सांसारिक प्रेम के पीछे पागल हे, कोई नाम के पीछे, कोई यश के लिए, तो कोई पैसे के लिए। फिर कोई ऐसे भी है, जो उद्धार पाने या स्वर्ग जाने के लिए पागल है। इस विराट पागलखाने में मैं भी एक पागल हूँ-मैं भगवान के लिए पागल हूँ। तुम पैसे के लिए पागल हो, और मैं भगवान के लिए। जैसे तुम पागल हो, वैसा ही मैं भी। फिर भी मैं सोचता हूँ कि मेरा ही पागलपन सब से उत्तम है और इसके सामने अन्य सब कुछ उड़ जाता है।’’ (भक्तियोग-पृ0-109)
27.प्रेम के धर्म में हमें द्वैतभाव से आरम्भ करना पड़ता है। उस समय हमारे लिए भगवान हमसे भिन्न रहते हैं, और हम भी अपने को उनसे भिन्न समझते हैं। फिर प्रेम बीच में आ जाता है तब मनुष्य भगवान की ओर अग्रसर होने लगता है और भगवान भी क्रमशः मनुष्य के अधिकाधिक निकट आने लगते हैं। इस प्रेम के प्रकाश में मनुष्य स्वयं सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाता है और अन्त में इस सुन्दर और प्राणों को उन्मत्त बना देने वाले सत्य का अनुभव करता है कि प्रेम, प्रेमी और प्रेमास्पद तीनों एक ही है। (भक्तियोग-पृ0-110-111)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 11. कर्मयोग
1.संसार में कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जो भगवान के प्रति शरणागति और प्रार्थना की तुलना में कत्र्तव्य भावना से अधिक प्रेरित होते हैं। मृत्यु के बाद क्या होगा-इस दृष्टि से वे संसार को देखना पसंद नहीं करते। उनके लिए वर्तमान संसार ही यथार्थ संसार है और इसमें उनका मन और शक्ति इतनी लग जाती है कि उन्हें सपनों अथवा दार्शनिक धारणाओं के लिए समय नहीं रहता। वे अनुभव करते हैं कि वे अपने कत्र्तव्य अपने प्रति और राष्ट्र के प्रति है। अगर उनका हृदय व्यापक है तो वे अपने कत्र्तव्य की जिम्मेदारी विश्व और मानवता के प्रति भी मानते हैं। स्वभाव से ही कर्मठ एवं महत्त्वाकांक्षी होने के कारण वे हर समय किसी न किसी काम में व्यस्त रहते है। जब तक वे किसी एक विचार को कार्य में परिणत करते हैं, तब तक सैकड़ों विचार उनमें दिमाग में प्रवेश कर जाते हैं। अगर वे जीवन में सफल होते हैं, तो वे बहुत बड़े देशभक्त, राजनैतिक नेता, समाज सुधारक, परोपकारी, वैज्ञानिक या लेखक आदि बन जाते हैं। इस तरह वे अपनी व्यक्तिगत रूचि के अनुसार अपनी अदम्य ऊर्जा को एक अथवा अनेक कठिन कार्यों में लगा देते है। (योग क्या है?-पृ0-30)
2.यह कहना सर्वथा अनुचित होगा कि ऐसे फुर्तीले व्यक्ति ईश्वर के राज्य से बाहर होते है क्योंकि वे ईश्वर की विधिवत् पूजा नहीं करते। इनमें से कई उच्च आदर्शों द्वारा प्रेरित होते हैं और वे ईमानदार, लगनशील और आत्मत्यागी होते हैं। कभी-कभी उनमें ऐसा गुण पाया जाता है कि प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति केवल उनकी प्रशंसा ही नहीं करता, बल्कि स्वयं भी वैसा ही होना चाहता है। (योग क्या है?-पृ0-31)
3.केवल संकीर्ण और पागल व्यक्ति ही ऐसा कहने का दावा करेगा कि जो व्यक्ति धार्मिक परम्पराओं से परे है, उससे किसी प्रकार की आशा नहीं करनी चाहिए। हमारी प्रत्येक क्रिया चाहे वह अनजाने ही क्यों न हो, उसी महत् सत्य तक पहुंचने का प्रयास है। (योग क्या है?-पृ0-31)
4.कोई भी व्यक्ति संसार से सारे कष्टों को दूर नहीं कर सकता। आप एक क्षेत्र से कष्ट दूर कर सकते हैं-अगर आप कर सकें-तो यह दूसरे क्षेत्र में प्रगट होता है। मानवता के उषाकाल से ही मानव इस धरती के कष्टों को दूर करने का प्रयास करता रहा है, लेकिन वह कहां तक सफल हुआ है? फिर भी मनुष्य अवश्य काम करेगा। वह एक क्षण भी बिना काम के नहीं रह सकता। अगर वह बाहरी क्रियाओं को बन्द करेगा, तो उसकी भीतरी क्रियाएं चलती ही रहेगी। (योग क्या है?-पृ0-32-32)
5.ऐसा कहा जाता है कि जो मनुष्य एकान्त में अधिक समय तक सुखपूर्वक रह पाता है वह या तो संत है या फिर पशु! औसत आदमी तो, जो इन दोनों में से कुछ भी नहीं होता, एक साधारण आदमी होता है और उसके साथ उसकी सारी कमजोरियां होती है।
6.कर्मयोग मनुष्य को कर्म का रहस्य बतलाता है कि वह किस प्रकार काम करें जिससे उसे अधिकतम उपलब्धि हो, नैराश्य के दुःख से वंचित रहे साथ ही जीवन के आध्यात्मिक उद्देश्य को भी प्राप्त कर सके। इस मार्ग का उद्देश्य केवल बाहरी सफलता को प्राप्त करना न होकर, दासता से मुक्ति पाना और स्वार्थ रहित होने की सीख लेना है। अगर कोई मनुष्य वास्तविक सुख चाहता है, तो उसे अवश्य ही स्वार्थरहित होना होगा। जितना ही कोई मनुष्य दूसरों के कल्याण के लिए अपने सुख का त्याग करेगा उतना ही उसे अपने जीवन में अधिक सुख प्राप्त होगा। यद्यपि यह विरोधाभास-सा लगता है। (योग क्या है?-पृ0-34)
7.‘कर्मयोग’’ कहता है कि पूरी शक्ति एवं तीव्रगति से काम करो, किन्तु उसकी सफलता और असफलता के बारे में मत सोचों। सफलता की स्थिति में अहंकार का और विफलता की स्थिति में दुःख और नैराश्य का त्याग करो क्योंकि सफलता और असफलता का भाव स्वार्थपरत और अहंकार का परिचायक होता है जो अन्ततोगत्वा दुःख की ओर ले जाता है। (योग क्या है?-पृ0-34)
8.बहुत कम लोग ऐसा समझ सकते है कि जो व्यक्ति अपने कार्यों को पुरे दिलो-दिमाग से, किन्तु निरासक्त भाव से करते हैं, वे उनकी तुलना में अधिक कुशल होते हैं जो परिणाम की चिन्ता किये हुए अपने कार्यों को सम्पन्न करते हैं। (योग क्या है?-पृ0-35)
9.आध्यात्मिक जीवन में मूल्यांकन का एक सही मापदण्ड उस व्यक्ति की निःस्वार्थपरता है। आध्यात्मिकता के क्षेत्र में जो जितना ही विकास करता है वह उतना ही स्वार्थरहित होता है। एक पशु सामान्यतया अपने ही भोजन और आराम के बारे में व्यस्त रहता है किन्तु एक मनुष्य अपने परिवार, पड़ोसी और देश के बारे में सोचता है; एक संत बिना किसी जातिगत, विश्वासगत और राष्ट्रगत भेदभाव के सम्पूर्ण मानवता को समानरूप से देखता है, वह सम्पूर्ण विश्व को ईश्वर की सृष्टि समझकर प्यार करता है। (योग क्या है?-पृ0-36)
10.कुछ राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों को विनष्ट कर विकास करना चाहते हैं और इस प्रकार के युद्ध नायक की प्रशंसा की जाती है तथा उसे एक महान नायक समझकर प्रशस्ति भी दी जाती है जबकि वह वास्तव में निम्नकोटि का जीव होता है। (योग क्या है?-पृ0-36)
11. एक कर्मयोगी जो दिन प्रतिदिन निःस्वार्थी होने की चेष्टा करता है वह अपने अनजाने ही धर्म के उच्चतम पथ पर अग्रसर हो जाता है। वह दर्शन और आध्यात्मिक समस्याओं पर बिना किसी प्रकार की बहस किये ही दिव्य सत्य की अनुभूति करने लगता है। (योग क्या है?-पृ0-37)
12.किसी भी दशा में एक सच्चे कर्मयोगी का आध्यात्मिक महत्व किसी भी भक्त से अगर अधिक नहीं है तो कम भी नहीं है। (योग क्या है?-पृ0-38)
13.एक भक्त मन्दिर में फूल और अगरबत्ती लेकर ईश्वर की पूजा करता है। ठीक इसी तरह एक कर्मयोगी विस्तृत संसार में विभिन्न कर्मों को ईश्वरीय पूजा समझकर ही करता है। (योग क्या है?-पृ0-38-39)
14.अगर कर्मयोगी एक सच्चे भक्त की मुद्रा में अपने प्रतिदिन के कार्यों को सम्पन्न करता है, तब वह निश्चय ही अनुभव करेगा कि उसकी व्यक्तिगत इच्छा धीरे-धीरे दैवी इच्दा में परिणत हो रही है। जब यह भावना अन्त में वास्तविक अनुभूति में बदल जाती है, तो उस शान्ति का अनुभव करता है जिसे विश्व की कोई शक्ति भंग नहीं कर सकती। (योग क्या है?-पृ0-40)
15.वे कर्मयोगी जो दार्शनिक विचार के है, उनके लिए गीता की राय यह है कि वे स्वयं को आत्मा के रूप में स्मरण करें। वे यह भी याद रखंे कि अतीत की प्रवृत्तियों और इच्छाआंे से प्रेरित इन्द्रियाँ ही काम करती है। (योग क्या है?-पृ0-40)
16.उदात्त और परिपक्व विचार पहले कल्पना में ही आता है, लेकिन जब कर्मयोगी इसे व्यवहार में परिणत करता है, तब उसकी कल्पना अनुभूति में बदल जाती है और आत्मतत्व का अनुभव करने लगता है। (योग क्या है?-पृ0-41)
17.वे व्यक्ति जो सांसारिक वासना के गुलाम है, प्रायः बड़े ही मधुर ढंग से भ्रमवश इस बात पर जोर देते हैं कि वे कर्मयोग का अभ्यास कर रहे हैं। वह यह नहीं अनुभव करते कि कर्मयोगी का पथ सचमुच में बड़ा कठिन होता है। एक व्यक्ति दूसरे को धोखा दे सकता है, वह अपने आप को भी धोखा दे सकता है, लेकिन वह ईश्वर को कभी धोखा नहीं दे सकता है। जीवन के दूसरे क्षेत्रों में चतुराई से विश्वास पैदा करके सफलता प्राप्त की जा सकती है, किन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में यह कदापि सम्भव नहीं है। (योग क्या है?-पृ0-41)
18.सच्चे कर्मयोगी बनने के पहले साधक को अपने सूक्ष्मातिसूक्ष्म अहंकार को दूर करना होगा और इसके लिए सतर्कता और साधना की अपेक्षा होती है। (योग क्या है?-पृ0-42)
19.कर्मयोग के कठिन पथ पर चलने वाले साधक के लिए सबसे बड़ा खतरा गुण का गर्व और दूसरों की कमजोरियों को न सह पाने की क्षमता आदि होता है जिसके प्रति उसे सतर्क रहना चाहिए। (योग क्या है?-पृ0-46)
20.जहां भक्त ज्ञानी और राजयोगी मानव संसार को भूलने में समर्थ होते हैं, वहां कर्मयोगी निरंतर विश्व में रहता है, किन्तु उसका नहीं होता। (योग क्या है?-पृ0-46)
21.ज्ञानातीत भूमि में पहुंचकर जो कुछ दिया जाता है, वह ठीक-ठीक ही होता है। वे सब काम जीवन और जगत के लिए होते हैं। क्योंकि उस समय कर्ता का मन फिर स्वार्थबुद्धि द्वारा अथवा अपने लाभ-हानि के विचार द्वारा दूषित नहीं होता। ईश्वर ने सदा ज्ञानातीत भूमि में रहकर ही इस जगत्रूपी विचित्र सृष्टि को बनाया हैं इसलिए इस सृष्टि में कुछ भी अपूर्ण नहीं पाया जाता। इसलिए कह रहा था कि अत्यज जीवन के, फलकामना से शून्य कर्म आदि कभी अंगहीन अथवा असम्पूर्ण नहीं होते- उनसे जीव और जगत् का यथार्थ कल्याण ही होता है। (संग में-पृ0-194)
22.हम वर्तमान जीवन में जो कुछ हैं, वह हमारे पूर्व जीवन के कर्मों और विचारों का फल है, और हम जो कुछ भविष्य में होंगे, वह हमारे अभी के कर्मों और विचारों का फल होगा। पर, हम स्वयं ही अपना भाग्य निर्माण कर रहे हैं, बल्कि अधिकतर स्थलों में तो इस प्रकार की सहायता नितान्त आवश्यक होती है। (भक्तियोग-पृ0-26)
23.देह तो स्थूल है- यह मरकर पंचभूतों में मिल जाती है; परन्तु संस्कारों की गठरी अर्थात् मन शीघ्र नहीं मरता। बीज की भांति कुछ दिन रहकर वृक्ष रूप में परिणत होता है; फिर स्थूल शरीर धारण करके जन्म मृत्यु के पथ में आया जाया करता है। जब तक आत्मज्ञान नहीं हो जाता है तब तक यही क्रम चलता रहता है इसलिए कहता हूँ।-ध्यान, धारणा और विचार के बल पर मन को सच्चिदानंद-समुद्र में डुबो दे। मन के मरते ही सभी गया समझ -बस फिर तू ब्रह्मंस्थ हो जायेगा। (संग में 210)
24.हाँ, एक बात और है और वह यह कि गीता में फलाकांक्षा छोड़कर कार्य करने का यथार्थ उपाय क्या है, उससे ठीक ठीक मानसिक अभ्यास का यथार्थ उपाय क्या है- यह मैंने अनिष्कृत कर लिया है। ध्यान, मन, संयोग तथा एकाग्रता के साधन के सम्बन्ध में मुझे ऐसा ज्ञान प्राप्त हुआ है कि उसके अभ्यास से सब प्रकार के कष्ट-उद्वेगों से हम छुटकारा पा सकते है। मन को अपनी इच्छानुसार किसी स्थल पर केन्द्रित कर रखने के कौशल के सिवाय यह और कुछ नहीं है। (2 प-222)
25. शास्त्र में जिस अवस्था को समाधि कहा गया है, वह अवस्था तो सहज में हर एक को प्राप्त नहीं होती, और किसी को हुई भी तो अधिक समय तक टिकती नहीं है। तब बताओ वह किस प्रकार समय बितायेगा? इसलिए शास्त्रोक्त अवस्था लाभ के बाद साधक प्रत्येक भूत में आत्मदर्शन कर अमिन्न ज्ञान से सेवा परायण बनकर अपने प्रारब्ध को नष्ट कर देते हैं। इस अवस्था को शास्त्रकर जीवन्मुक्त अवस्था कह गये हैं।(संग में 91)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 12. जाति, संस्कृति और समाजवाद
1. संस्कृत में ”जाति“ का अर्थ है वर्ग या श्रेणी विशेष। यह सृष्टि के मूल में ही विद्यमान है। विचित्रता अर्थात् जाति का अर्थ ही सृष्टि है। ”एकोऽहं बहुस्याम्“- मैं एक हूँ अनेक हो जाऊँ। विभिन्न वेदों में इस प्रकार की बात पायी जाती है। सृष्टि के पूर्व एकत्व रहता है, सृष्टि हुई कि विचित्रता शुरु हुई। अतः यदि यह विचित्रता बन्द हो जाय तो सृष्टि का ही लोप हो जायेगा। जब तक कोई जाति शक्तिशाली और क्रियाशील रहेगी, तब तक वह विचित्रता अवश्य पैदा करेगी। ज्यांेहि उसका ऐसी विचित्रता उत्पादन करना बन्द होता है या बन्द कर दिया जाता है त्योंहि वह जाति नष्ट हो जाती है जाति का मूल अर्थ था एवं सैकड़ो वर्ष तक यहीं अर्थ प्रचलित था- प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रकृति को, अपने विशेषत्व को प्रकाशित करने की स्वाधीनता। आधुनिक शास्त्र ग्रन्थों में भी जातियों का आपस में खाना-पीना निषिद्ध नहीं हुआ है और न किसी प्राचीन ग्रन्थ में अनका आपस में ब्याह-शादी करना मना है। तो फिर भारत के अधःपतन का कारण क्या था?- जाति सम्बन्धी इस भाव का त्याग। जैसे गीता कहती है- जाति नष्ट हुई कि संसार भी नष्ट हुआ। यह हमें सत्य ही प्रतीत होता है कि इस विचित्रता का नाश होते ही जगत का भी नाश हो जायेगा। आजकल का वर्ण विभाग यथार्थ जाति नहीं है, बल्कि जाति की प्रगति में वह एक रुकावट ही है (1प 269)
2. प्रत्येक दास जाति का मुख्य दोष ईष्र्या होती है। ईष्र्या और मेल का अभाव ही पराधीनता उत्पन्न करता है और उसे स्थायी बनाता है। जितना ही कोई राष्ट्र निर्बल या कायर होगा, उतना ही यह अवगुण अधिक प्रकट होगा । (1प 239)
3. तुमने मांस खाने वाले क्षत्रियों की बात उठाई है। क्षत्रिय लोग चाहे मांस खाये या ना खाये, वे ही हिन्दू धर्म की उन सब वस्तुओं के जन्मदाता हैं जिनको तुम महत और सुन्दर देखते हो। उपनिषद् किसने लिखे थे? राम कौन थे? कृष्ण कौन थे? बुद्ध कौन थे? जैनों के तिर्थंकर कौन थे? जब कभी क्षत्रियों ने धर्म का उपदेश दिया, उन्होंने सभी को धर्म पर अधिकार दिया। और जब कभी ब्राह्मणों ने कुछ लिखा उन्होंने औरों को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित करने की चेष्टा की। गीता और व्यास सूत्र पढ़ो या किसी से सुन लो। गीता में मुक्ति की राह पर सभी नर-नारियों, सभी जातियों और सभी वर्णों को अधिकार दिया गया है, परन्तु व्यास गरीब शूद्रों को वंचित करने के लिए वेद की मनमानी व्याख्या कर रहे हैं। क्या ईश्वर तुम जैसा मूर्ख है कि एक टुकड़े मांस से उसकी दया रुपी नदी में बाधा खड़ी हो जायेगी? अगर वह ऐसा ही है तो उसका मोल एक फूटी कौड़ी भी नहीं। (1प 115)
4.हमारी अपनी भिन्न-भिन्न जातियों के होते हुए भी और एक जाति के अन्तर्गत उपजातियों में ही विवाह करने की हमारी वर्तमान प्रथा के रहते हुए भी (यद्यपि यह प्रथा सर्वत्र नहीं है) हमारा यह मानववंश हर तरह से मिश्रित वंश ही कहा जा सकता है। (पृ0-5)
5.भारतवर्ष में यदि कोई उच्चतर जाति में उठना चाहता है, तो उसे पहले अपनी समग्र जाति को उन्नत करना होगा, और फिर उसकी उन्नति के मार्ग में रोकने वाला कुछ भी नहीं रहता। भारतवर्ष की सामाजिक व्यवस्था का आधार क्या है? वह है जाति-नियम, में जाति के लिए जन्म लेता है और जाति के लिए ही जीता है। जाति में जन्म लेने पर जाति के नियमों के अनुसार ही सम्पूर्ण जीवन बिताना होगा। या आधुनिक भाषा में इसे हम यों कह सकते हैं कि...पाश्चात्य मनुष्य मानों वैयक्ति रूप से जन्म लेता है और हिन्दू सामाजिक रूप में। (पृ0-6)
6.हमारी जातियां और हमारी संस्थाएं हमें एक राष्ट्र के रूप में सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक रही हैं और जब इस आत्मरक्षा की आवश्यकता नहीं रहेगी, तब ये स्वाभाविक रूप से नष्ट हो जायेंगी। (पृ0-7)
7.ऊँची श्रेणी वालों को नीचे खींचने से समस्या हल नहीं हो सकती, बल्कि नीचे की श्रेणीवालों को उपर उठाने से ही वह हल होगी। और यही कार्य-प्रणाली हम अपने सभी ग्रन्थों में पाते हैं। (पृ0-8)
8.यहां सहस्त्रों जातियां हैं, और कुछ जातियां तो ब्राह्मण-वर्ग में भी प्रवेश पा गयी है। कारण, किसी भी जाति वालों को ‘हम ब्राह्मण हैं’ ऐसी घोषणा करने से कौन रोक सकता है।? इस प्रकार अपनी समस्त कठोरता के साथ, जाति निर्माण इसी तरह होता रहा है। मान लो, यहां ऐसी अनेक जातियां हैं, जिनमें प्रत्येक में दस हजार मनुष्य है। अगर ये लोग एकमत होकर कहें कि ‘हम अपने को ब्राह्मण कहेंगे’ तो उनके रोकने वाला कौन है? शंकराचार्य आदि शक्तिमान युग प्रवर्तक गण महान जाति-निर्माता थे। (पृ0-9-10)
9.भारत की यही योजना है कि प्रत्येक व्यक्ति को ब्राह्मण बनाया जाय; क्योंकि ब्राह्मण ही मानवता का आदर्श है। ऐसी जातियां हैं, जो ऊपर उठ चुकी हैं और बहुत सी जातियां ऊपर उठेंगी, जब तक कि सभी ब्राह्मण नहीं बन जाती। यही योजना है किसी को नीचे गिराये बिना हमें उनको ऊपर उठाना है। हमारे पूर्वर्जों का आदर्श पुरुष ब्राह्मण था। (पृ0-10)
10.भारतवर्ष में...तुम्हारी जाति सब से ऊँची तब गिनी जायेगी, जब तुम किसी ऋषि से पूर्वज का सम्बन्ध जोड़ सको, अन्यथा नहीं। ‘‘ब्राह्मण आदर्श’’ से मेरा मतलब क्या है? मेरा मतलब है- आदर्श ब्राह्मणत्व, जिसमें संसारी भाव बिल्कुल नहीं और यथार्थ ज्ञान प्रचुर मात्रा में हो। ब्राह्मण-जाति और ब्राह्मण-गुण दो भिन्न बातें हैं। भारत-वर्ष में मनुष्य अपनी जाति के कारण ब्राह्मण माना जाता है। पर पाश्चात्य देशों में तो वह ब्राह्मण गुणों के कारण ही ब्राह्मण माना जा सकेगा। (पृ0-11)
11.भारतवर्ष में भी ब्राह्मण है, पर उन्होंने अपने भयंकर अत्याचार के कारण देश को नष्ट प्राय कर दिया है और फलतः जो कुछ उनमें स्वभाविक गुण थे, वे क्रमशः नष्ट होते जा रहे हैं। मेरे शिष्य सब ब्राह्मण हैं!...ब्राह्मण का पुत्र सदा ब्राह्मण ही होता है ऐसा नहीं। यद्यपि हर तरह सम्भावना तो यही है कि वह ब्राह्मण ही हो, फिर भी हो सकता है कि वैसा न भी हो। (पृ0-13)
12.जब वह वेतन के लिए दूसरे की सेवा करने में लगा है, तब वह शूद्र है; जब वह अपने लाभ के लिए कोई व्यापार कर रहा है, तब वैश्य है, अत्याचार के विरूद्ध जब वह लड़ रहा है, तब उसमें क्षत्रिय के गुण प्रकट होते हैं; और जब वह परमेश्वर का ध्यान करता है या अपना समय ईश्वरसम्बन्धी वार्तालाप में बिताता है, तब वह ब्राह्मण है, अतएव यह स्पष्ट है कि एक जाति दूसरी जाति में परिवर्तित हो जाना बिल्कुल सम्भव है। अन्यथा, विश्वामित्र ब्राह्मण और परशुराम क्षत्रिय कैसे हुए।(पृ0-13)
13.हम पढ़ते हैं कि सत्ययुग में केवल एक ही जाति थी वह थी ब्राह्मण। हम महाभारत में पढ़ते हैं-प्रारम्भ में सारे संसार में केवल ब्राह्मण ही बसते थे और जैसे-जैसे उनकी अवनति होती गयी, उनकी भिन्न-भिन्न जातियां बनती गयी; और जब चक्र घुमेगा, तब वे पुनः मूल स्थान ब्राह्मणत्व को प्राप्त होंगे। यह चक्र अब घूम रहा है-इसी बात की ओर मैं तुम्हारा ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। (पृ0-20)
14.आधुनिक प्रतिस्पर्धा के प्रचलित होने से देखो, जाति का कितना शीघ्र लोप हो रहा है। अब उसे मिटाने के लिए किसी धर्म की आवश्यकता नहीं है। उत्तर भारत में ब्राह्मण जाति के लोग दूकानदारी करते हुए तथा जूते और शराब बनाते हुए अनेक पाये जाते हैं ऐसा क्यों हुआ? प्रतिस्पर्धा के कारण वर्तमान राजशासन में किसी भी मनुष्य की अपनी आजीविका के लिए वह चाहे जो करे, स्वतंत्रता है। (पृ0-26)
15.जाति प्रथा तो वेदान्त धर्म के विरूद्ध है। जाति एक सामाजिक रूढ़ी है और हमारे सभी महान आचार्य उसे तोड़ने का प्रयत्न करते आये हैं। बौद्ध धर्म से लगाकर सभी पंथों ने जाति के विरूद्ध प्रचार किया है, किन्तु प्रत्येक समय वह श्रृंखला दृढ़ होती ही। जाति तो केवल भारत वर्ष की राजनीतिक संस्थाओं से निकली हुई है; वह एक परम्परागत व्यावसायिक संस्था है। धर्म में कोई जाति नहीं होती, जाति तो केवल एक सामाजिक रूढ़ि है। (पृ0-32)
16.कोई भी व्यक्ति, चाहे वह शूद्र हो या चाण्डाल, ब्राह्मण को भी तत्वज्ञान की शिक्षा दे सकता है। सत्य की शिक्षा अत्यन्त नीच व्यक्ति से भी ली जा सकती है-वह व्यक्ति किसी भी जाति या पन्थ का क्यों न हो। हमारे अधिकांश उपनिषद् क्षत्रियों के लिखे हुए हैं। भारतवर्ष में हमारे मध्य आचार्य अधिकतर क्षत्रिय ही थे और उनके उपदेश सदा सार्वभौमिक रहे हैं।...राम, कृष्ण, बुद्ध-जिनकी पूजा अवतार मानकर की जाती है-ये सब क्षत्रिय ही थे। (पृ0-33)
17.उन लोगों को समाज पुरोहितों के अधिकार से तुरन्त वंचित कर देता है। उन तथाकथित ब्राह्मणों के ब्राह्मणत्व पर समाज की कोई श्रद्धा नहीं है, जो शिखा रखने के बदले बालों को संवारते हैं, जो अपने पुरातन आचारों और पूर्वजों की रूढ़ियों को त्यागकर अर्ध-यूरोपियन पोशाक पहनते हैं तथा परिश्रम से आये हुए रीति-रिवाजों का दोगले ढंग से पालन करते हैं। (पृ0-41)
18.जो लोग पुरोहित-वर्ग के अधिपत्य को नष्ट करने की चेष्टा का दोष अन्य किसी एक व्यक्ति या जनसमूह के माथे मढ़ना चाहते हैं, उन्हें यह जान लेना चाहिए कि प्रकृति के अटल नियम के वशीभूत होकर ही ब्राह्मण जाति अपने ही हाथों अपनी कब्र खोद रही है; और यही होना भी चाहिए। उच्च घराने में जन्म लेने वाले और विशेष अधिकार रखने वाले प्रत्येक जाति के लोग अपने ही हाथों अपनी चिता तैयार करना अपना मुख्य कर्तव्य बना लें, यहीं अच्छा और उपयुक्त है।(पृ0-42)
19.पुरोहिती दल भारतवर्ष के लिए अभिशाप स्वरूप है। क्या कोई मनुष्य अपने भाई को नीचे गिराकर स्वयं अपने को नीचे गिरने से बचा सकता है? क्या कोई स्वयं को चोट पहुंचाये बिना दूसरे को चोट पहुंचा सकता है। ब्राह्मणों और क्षत्रियों के अत्याचार अब स्वयं उन्हीं के सिरों पर चक्रवृद्धि ब्याज सहित टूट पड़े हैं और कर्मफल के अटल नियमानुसार उन्हें एक सहस्त्र वर्ष तक दासत्व और अधःपतन भोगना पड़ रहा है। (पृ0-40-42)
20.मुझे इस बात का खेद है कि वर्तमान काल में जातियों के बीच इतना विवाद (विरोध) है। यह तो अवश्य बन्द होना चाहिए। यह दोनों ओर से निरर्थक है, विशेषकर उच्च जाति-वालों (ब्राह्मणों) की ओर से, क्योंकि अब इन अधिकारों और विशेष हकों के दिन बीत गये। समाज के प्रत्येक उच्च पदाधिकारों का कर्तव्य है कि वह अपने विशेषाधिकरों की कब्र आप ही खोदे और जितना शीघ्र हो, उतना ही सब के लिए बेहतर होगा। जितनी देर होगी, उतना ही वह सड़ेगा और उतनी ही बुरी मौत वह मरेगा। इसीलिए भारतवर्ष में ब्राह्मण का यह कर्तव्य है कि वह शेष मानव जाति की मुक्ति के लिए कर्मशील बने। यदि वह ऐसा करता है और जब तक वह ऐसा करता है तभी तक वह ब्राह्मण है; पर जब वह केवल पैसा कमाने में लग जाता है तब वह ब्राह्मण नहीं है। (पृ0-50)
21.रक्षा का एक ही उपाय, अपनी स्थिति सुधारने का एक मात्र मार्ग, जो तुम निम्न जातिवालों को मैं बतलाता हूँ, वह है संस्कृत का अध्ययन। उच्च जातियों के साथ लड़ना-भिड़ना, उनके विरूद्ध लेख लिखना और कुड़कुड़ाना सब व्यर्थ है। उसमें कोई भलाई नहीं, उससे तो लड़ाई-झगड़े ही पैदा होते हैं; और इस राष्ट्र में जहां दुर्भाग्यवश पहले से ही फूट फैली हुई है, और भी अधिक फूट फैल जायेगी। जातियों को समतल करने का एक ही मार्ग है-उस संस्कृति को, उस शिक्षा को अपनाना, जो उच्चतर जातियों का बल है। इतना कर लेने पर तुम अपनी इष्ट वस्तु को प्राप्त कर लोगे। (पृ0-69)
22.कोई भी व्यक्ति, जो ब्राह्मण होने का दावा करता है, अपने इस दावे को, पहले तो अपनी आध्यात्मिकता प्रकट कर और तत्पश्चात् दूसरों को भी उसी श्रेणी में उठाकर, प्रभावित करें। पर दिखायी यह देता है कि उनमें से अधिकतर ऐसे हैं, जो केवल जन्म के कारण मिथ्या अभिमान कर रहे हैं। ब्राह्मणों! सावधान! यह मृत्यु के लक्षण हैं! उठकर खड़े हो जाओ और अपने आस-पास के अ-ब्राह्मणों को उन्नत बनाकर अपना मनुष्यत्व, ब्राह्मणत्व दिखाओ। यह कार्य न तो स्वामी भाव से करो, और न ही इस कार्य में पूर्व तथा पश्चिम के अन्धविश्वास एवं कपट व्यवहार-युक्त घृणास्पद अहंभाव ही हो; यह कार्य तो केवल सेवा की भावना में किया जाय। कारण, यह निश्चित सत्य है कि जो सेवा करना जानता है, वही शासन करना भी जानता है। यदि कोई ब्राह्मण समझता है कि उसमें आध्यात्मिक संस्कृति के लिए विशेष योग्यता है, तो उसे खुले क्षेत्र में शूद्र के साथ उतर आने में क्या डर है? क्या बढ़िया घोड़ा अड़ियल टट्टू के साथ घुड़दौड़ करने में डरेगा? (पृ0-71-73)
23.यदि शूद्र जाति में कोई असाधारण बुद्धि और योग्यता वाला मनुष्य पैदा हो जाय, तो समाज के प्रभावशाली उच्च वर्गवाले व्यक्ति तुरन्त उस पर पदवियों द्वारा सम्मान की वृष्टि करके उसे स्वयं अपने वर्ग में उठा लेते थे। इस प्रकार उसकी सम्पत्ति और बुद्धि की शक्ति का उपयोग अन्य जाति के लाभ के लिए हो जाता है, जब कि उसकी अपनी जाति वाले उसके गुणों से कोई लाभ नहीं उठा पाते थे। वशिष्ठ, नारद, सत्यकाम, जाबाल, व्यास, कृप, द्रोण, कर्ण तथा अन्य दूसरे, जिनके माता-पिता के सम्बन्ध में निश्चित जानकारी नहीं है, विशेष विद्वान या पराक्रमी होने के कारण ब्राह्मण या क्षत्रिय पद पर प्रतिष्ठित कर दिये गये थे; पर देखना यह है कि इस प्रकार उनके ऊपर चढ़ जाने से वेश्या, दासी, ढीमर या सूत जाति को क्या लाभ हुआ? फिर, इसके विपरीत, ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्गों के पतित मनुष्य सदैव शूद्रों के पद पर नीचे उतार दिये जाते थे।(पृ0-79)
24.‘‘ऐ भाइयों! सब लोग उठो! जागो! अब और कितनी देर तक सोते रहोगे?...अब तक ब्राह्मणों ने धर्म पर एकाधिपत्य कर रखा है; पर वे जब काल के प्रबल तरंग के विरूद्ध अपना एकाधिपत्य नहीं रख सकते, तब चलो, और ऐसे प्रयत्न करो कि देश भर में प्रत्येक को वह धर्म प्राप्त हो जाय। उनके मन में यह बैठा दो कि ब्राह्मणों के समान उनका भी धर्म पर वही अधिकार है। (पृ0-85)’’
25.भारत की उच्च जातिवालों, तुम चाहे जितना भी अपने को आर्य पूर्वजों की संतान कहने का प्रदर्शन करो, चाहे जितना भी प्राचीन भारत के वैभव का रात दिन गुणगान करो और अपने जन्म के अभिमान में अकड़ते रहो-पर क्या तुम ऐसा समझते हो कि तुम सजीव हो? तुम तो दस सहस्त्र वर्षों से सुरक्षित रखे हुए मृत देह जैसे ही हो! भारतवर्ष में जो थोड़ी बहुत जीवन-शक्ति अभी भी है, वह उन्हीं में मिलेगी; जिन्हें तुम्हारे पूर्वज ‘चलते-फिरते, सड़े-गन्दे, मांस पिण्ड’ मानकर घृणा करते थे और यथार्थ में ‘चलते हुए मुर्दे’ तो तुम लोग हो। तुम्हारे घर-द्वारा, तुम्हारे साज-समान ऐसे निर्जीव और पुराने हैं कि वे अजायब-घर के नमूनों के समान दिखाई देते हैं और तुम्हारे रीति-रिवाज, चाल-ढ़ाल और रहन-सहन को देखकर कोई भी यही सोचेगा कि ‘नानी की कहानी’ सुन रहा है। (पृ0-85)
26.अब ब्रिटिश राज-शासन में प्रतिबन्धरहित शिक्षा एवं ज्ञान प्रसार के दिनों में, उन सब वस्तुओं को अपने उत्तराधिकारियों को सौंप दो। यह बात यथा सम्भव शीघ्र कर डालो। तुम अपने को शून्य में लीन करके अदृश्य हो जाओ और अपने स्थान में ‘‘नव-भारत’’ का उदय होने दो। उसका उदय हल चलाने वाले किसान की कुटिया से, मछुए, मोचियों और मेहतरों की झोपड़ियों से हो। बनिये की दुकान से, रोटी बेचने वाले की भट्टी के पास से वह प्रकट हो। कारखानों, हाटों और बाजारों से वह निकले। वह ‘‘नव भारत’’ अमराइयों और जंगलों से, पहाड़ों और पर्वतों से प्रकट हो। ये साधारण लोग सहस्त्रों वर्षों से अत्याचार सहते आये हैं-बिना कुड़बुड़ाये उन्होंने यह सब सहा है और परिश्रम में उन्होंने आश्चर्यकारक धैर्य शक्ति प्राप्त कर ली है। वे सतत् विपत्ति सहते रहे हें, जिससे उन्हें अविरल जीवन शक्ति प्राप्त हो गयी है। मुट्ठी भर अन्न से पेट भरकर वे संसार को कँपा सकते हैं। उनमें ‘रक्तबीज’ की अक्षय जीवनशक्ति भरी है। इसके अतिरिक्त उनमें पवित्र और नीतियुक्त जीवन से आने वाला वह आश्चर्यजनक बल है जो संसार में अन्यत्र नहीं मिलता। ऐसी शक्ति, ऐसा संतोष, ऐसा प्रेम और चुपचाप सतत् कार्य करने की ऐसी शक्ति और कार्य के समय इस प्रकार सिंह बल प्रकट करना-यह सब तुम्हे अन्यत्र कहां मिलेगा? भूतकाल के कंकाल! देखो तुम्हारे सामने तुम्हारे उत्तराधिकारी खड़े हैं-भावी भारत वर्ष खड़ा है। अपने अदृश्य होते ही तत्काल तुम पुनर्जात भारतवर्ष का वह प्रथम उद्घोष सुनोगे, जिसकी करोड़ो गर्जनाओं से सारे विश्व में यही पुकार गूँजती रहेगी-‘‘वाह गुरु की फतह!’’ (पृ0-86-87)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 13. समाज नीति
1. सभी कालों में प्राचीन रितियों को नये ढंग में परिवर्तित करने से ही उन्नति हुई है। भारत में प्रचीन युग में भी धर्म प्रचारकों ने इसी प्रकार काम किया था। केवल बुद्ध देव के धर्म ने ही प्राचीन रिति और नीतियों का विध्वंस किया था भारत से उसके निर्मूल हो जाने का यहीं कारण है। (संघ में 19)
2. तथाकथित समाज-सुधार के विषय में हस्तक्षेप न करना क्योंकि पहले आध्यात्मिक सुधार हुये बिना अन्य किसी भी प्रकार का सुधार हो नहीं सकता (1प 296)
3. लोगों को यदि आत्मनिर्भरषील बनने की शिक्षा नहीं दी जाय तो जगत के सम्पूर्ण ऐश्वर्य पूर्ण रुप से प्रदान करने पर भी भारत के एक छोटे से छोटे गाँव की भी सहायता नहीं की जा सकती। शिक्षा प्रदान हमारा पहला काम होना चाहिए, चरित्र एवं बुद्धि दोनो ंके ही उत्कर्ष साधन के लिए शिक्षा विस्तार आवश्यक है (2प 125)
4.मेरे भाई बिना अवरोध के कोई भी अच्छा काम नहीं हो सकता। जो अन्त तक प्रयत्न करते हैं उन्हें सफलता प्राप्त होती है। मेरा विस्वास है कि जब एक जाति, एक वेद, शान्ति और एकता होंगी तब सतयुग आयेगा। वह सतयुग का विचार ही भारत को पुनः जीवन प्रदान करेगा। विस्वास रखो। (1प 127)
5. पिछले महापुरुष अब कुछ प्राचीन हो चले हैं। अब नवीन भारत है जिसमें नवीन ईश्वर, नवीन धर्म और नवीन वेद है। हे भगवान भूतकाल पर निरन्तर ध्यान लगा रखने की आदत से हमारा देश कब मुक्त होगा? अच्छा, अपने मत में थोड़ी कट्टरता भी आवश्यक है परन्तु दूसरे की ओर हमें विरोध भाव नहीं रखना चाहिए (1प 442)
6. हमेषा यूरोप से सामाजिक तथा एशिया से आध्यात्मिक शक्तियों का उद्भव होता रहा है एवं इन दोनों शक्तियों के विभिन्न प्रकार के सम्मिश्रण से ही जगत का इतिहास बना है। वर्तमान मानवेतिहास का एक और नवीन पृष्ठ धीरे-धीरे विकसित हो रहा है एवं चारो ओर उसी का चिन्ह दिखाई दे रहा है। कितनी ही नवीन योजनाओं का उद्भव तथा नाश होगा, किन्तु योग्यतम वस्तु की प्रतिष्ठा सुनिश्चित है- सत्य और शिव की अपेक्षा योग्यतम वस्तु और हो ही क्या सकती है? (1प 310)
7. बौद्ध धर्म और नव हिन्दू धर्म के सम्बन्ध में मेरे विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। उन विचारों को निश्चित रुप देने के लिए कदाचित मैं जिवित न रहूँ परन्तु उसकी कार्यप्रणाली का संकेत मैं छोड़ जाऊँगा और तुम्हें और तुम्हारे भ्रातृगणों को उस पर काम करना होगा (2प 310)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 14.भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध
1.जाति समस्या का सूत्रपात था एवं भारत में कर्मकाण्ड, दर्शन तथा जड़वाद के मध्य उस त्रिभुजात्मक संग्राम का मूल भी यही था। जिसका समाधान हमारे इस युग तक सम्भव नहीं हो पाया है। इस समस्या के समाधान का प्रथम प्रयास था-सर्वसमन्वय के सिद्धान्त का उपयोग, जिसने आदिकाल से ही मनुष्य को अनेकत्व में भी विभिन्न स्वरूपों में लक्षित एक ही सत्य के दर्शन की शिक्षा दी। इस सम्प्रदाय के महान नेता क्षत्रिय वर्ग के स्वयं श्रीकृष्ण एवम् उनकी उपदेशावली गीता ने, जैनियों, बौद्धों एवम् इतर जन सम्प्रदायों द्वारा लायी गयी उथल-पुथल के फलस्वरूप विविध क्रान्तियों के बाद भी अपने को भारत का ‘अवतार’ एवम् जीवन का यथार्थतम् दर्शन सिद्ध किया। यद्यपि थोड़े समय के लिए तनाव कम हो गया, लेकिन उसके मूल में निहित सामाजिक अभावों का-जाति परम्परा में क्षत्रियों द्वारा सर्वप्रथम होने का दावा एवम् पुरोहितों के विशेषाधिकार की सर्वविदित असहिष्णुता का-जो अनेक कारणों से दो थे- समाधान इससे नहीं हो सका। जातिभेद एवम् लिंगभेद को ठुकराकर कृष्ण ने आत्मज्ञान एवम् आत्मसाक्षात्कार का द्वार सब के लिए समान रूप से खोल दिया, लेकिन उन्होंने इस समस्या को सामाजिक स्तर पर ज्यों का त्यों बना रहने दिया। पुनः यह समस्या आज तक चली आ रही है। (पृ0-6)
2.भारत के इतिहास में साधारणतः देखा गया है कि धार्मिक उथल-पुथल के बाद सदा ही एक राजनीतिक एकता स्थापित हो जाती है, जो न्यूनाधिक रूप से समस्त देश में व्याप्त हो जाती है। इस एकता के फलस्वरूप उसको जन्म देने वाला धार्मिक दृष्टिकोण भी शक्तिशाली बनता है। (पृ0-14)
3.भौतिकीकरण की अर्थात् यान्त्रिक क्रिया-कलाप के स्तर की ओर अधिकाधिक खिंचते जाने की इच्छाएं-पशु मानव की है। इन्द्रियों के इन समस्त बन्धनों का निराकरण कर देने की इच्छा उत्पन्न होने पर ही मनुष्य के हृदय में धर्म का उदय होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म का समग्र अभिप्राय मनुष्य को इन्द्रियों के बन्धनों में फंसने से बचाना और अपनी स्वतंत्रता को सिद्ध करने में उसकी सहायता करना है। उस लक्ष्य की ओर निवृत्ति की इस शक्ति के प्रथम प्रयास को नैतिकता कहते हैं। समग्र नैतिकता का अभिप्राय इस अधःपतन को रोकना और इस बन्धन को तोड़ना है। समस्त नैतिकता को विधायक और निषेधात्मक तत्वों में विभक्त किया जा सकता है। (पृ0-18)
4.प्रकृति तीन रूपों में प्राप्त होती है- ईश्वर, चेतन और अचेतन अर्थात् ईश्वर, व्यक्तितायुक्त आत्माएं और अचेतन प्राणी। इन सब की वास्तविकता ब्रह्म है, यद्यपि माया के कारण वह विविध प्रतीत होता है। किन्तु ईश्वर का दर्शन वास्तविकता के निकटतम और उच्चतम है। (व्यक्तितायुक्त) सगुण ईश्वर की धारणा मनुष्य के लिए सर्वोच्च सम्भव विचार है। ईश्वर में आरोपित समस्तगुण उसी अर्थ में सत्य है, जिसमें प्रकृति के गुण सत्य है। फिर भी हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि सगुण ईश्वर माया के माध्यम से देखा जाने वाला ब्रह्म ही है। (पृ0-34)
5.जिस किसी जाति में शस्त्र-बल आता है, वह क्षत्रिय हो जाती है; जिस किसी जाति में ज्ञान-बल आता है, वह ब्राह्मण हो जाती है और जिस किसी जाति में धन-बल आता है, वह वैश्य हो जाती है। (पृ0-38)
6.क्षत्रियत्व-ब्राह्मण बनने के लिए यह सोपान पार करना होगा। अतीत में कुछ ने पार कर लिया होगा, पर वर्तमान के लोगों को तो प्रत्यक्ष दिखाना होगा। (पृ0-56)
7.इसलिए सब से बड़ी समस्या है इन विविध तत्वों का बिना उनका विशिष्ट व्यक्तित्व नष्ट किये हुये, समन्वय करना-उन्हें एक सूत्र में बांध देना। (पृ0-56)
8.यही अद्वैत दर्शन की महिमा है जो एक तत्व का उपदेश देता है, व्यक्ति का नहीं; और फिर भी लौकिक और अलौकिक, दोनों ही प्रकार के व्यक्तियों को कार्य करने का पूर्ण अवसर देता है। (पृ0-56)
9.भविष्य में यह होने जा रहा है। यदि शेष समस्त समुदायों के श्रम का उपयोग करने वाली एक जाति की शक्ति की अभिव्यक्ति कम से कम एक विशेष अवधि में आश्चर्यजनक फल उत्पन्न कर सकती है। तो फिर यहां उन समस्त जातियों का संचयन और केन्द्रीकरण होने जा रहा है, जिनके विचारों का और रक्त का सम्मिश्रण मन्द गति से, पर अनिवार्य रूप से होता आ रहा है। और मैं अपने मानस-चहुओं से उस भावी विराट-पुरुष को धीरे-धीरे परिपक्व होता देख रहा है-धरती के समस्त राष्ट्रों में कनिष्ठतम, सर्वाधिक महिमामण्डित और ज्येष्ठतम भारत का भविष्य। (पृ0-57)
10.कलियुग में दान ही एकमात्र कर्म है। जब तक कर्म द्वारा शुद्ध न हो तब तक किसी को ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। आध्यात्मिक और लौकिक ज्ञान का दान। राष्ट्र की पुकार-त्याग, त्यागी पुरुष। (पृ0-57)
11.सुदूर भविष्य में देख सकने की विचार-शक्ति और वर्तमान में अतीत पुनः प्रस्तुत कर सकने वाली स्मरण शक्ति हमारे लिए स्वर्गिक जीवन सुलभ बना देती है; वही हमें नरक का जीवन बिताने को भी विवश कर देती है। (पृ0-67)
12.नियम कभी घटनाचक्र से, सिद्धान्त कभी व्यक्ति से भिन्न नहीं होता। अपनी सीमा के भीतर, पृथक पदार्थ की, क्रिया अथवा निष्क्रिय सम स्थिति की विधि ही नियम कही जाती है। (पृ0-68)
13नियम पदार्थों की यथास्थिति में है- इस विधि से कि पदार्थ एक दूसरे के प्रति कैसे क्रियमान होते हैं; न कि कैसे उन्हें होना चाहिए। (पृ0-68)
14.आध्यात्मिक नियम, नैतिक नियम, सामाजिक नियम, राष्ट्रीय नियम-तभी नियम है जब वे प्रस्तुत आत्मिक और मानव इकाईयों के अंग हो और इन नियमों से शासित मानी जाने वाली प्रत्येक इकाई को कर्म की अनिवार्य अनुभूति हो। (पृ0-68)
15.हमारा निर्माण नियम द्वारा और हमारे द्वारा नियम का निर्माण-यह चक्र चलता है। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में मनुष्य अनिवार्यतः क्या करता है, इस सम्बन्ध में सामान्य निष्कर्ष- एक उन परिस्थितियों के सम्बन्ध में मनुष्य पर लागू होने वाला नियम है। अचल, सार्वभौम मानवीय व्यापार ही मनुष्य का नियम है, जिससे कोई भी व्यक्ति बच नहीं सकता- किन्तु यह भी सत्य है कि अलग-अलग व्यक्तियों के कार्यों का योग ही सार्वभौम नियम है। पूर्ण योग या सार्वभौम अथवा असीम ही व्यक्ति का निर्माण कर रहा है और व्यक्ति अपने क्रिया से उस विधान को सजीव बनाये हुए है। इस अर्थ में नियम सार्वभौम का ही दूसरा नाम है। सार्वभौम व्यक्ति पर निर्भर है, व्यक्ति सार्वभौम पर निर्भर है। यह अनन्त शान्त अंशों से निर्मित है। (पृ0-69)
16.आध्यात्मिक और नैतिक नियम प्रत्येक मनुष्य की क्रिया पद्धति नहीं है। शीलाचार, नैतिकता, और राष्ट्रीय नियमों के पालन की अपेक्षा इनका उल्लंघन ही अधिक किया जाता है। यदि ये सब नियम होते तो भंग कैसे किये जा सकते। (पृ0-70)
17.प्रकृति के नियमों के विपरीत जाने की सामथ्र्य किसी भी व्यक्ति में नहीं है। तो फिर ऐसा क्यों है कि हम सर्वदा मनुष्य द्वारा नैतिक और राष्ट्रीय नियमों के भंग किये जाने की शिकायत सुनते हैं? (पृ0-70)
18.राष्ट्रीय नियम, अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में, राष्ट्र के बहुमत की इच्छा के मूर्त रूप है- सर्वदा एक अन्य स्थिति, न कि यथार्थ स्थिति। इस प्रकार प्राकृतिक नियमों के सम्बन्ध में प्रयुक्त ‘नियम’ शब्द का अर्थ सामान्यतः नीतिशास्त्र और मानव क्रियाओं की भूमिका में बहुत बदल जाता है। (पृ0-70)
19.संसार के नैतिक नियमों का विश्लेषण करने पर और यथार्थ स्थिति से उनकी तुलना करने पर दो नियम सर्वोपरि ठहरते हैं। एक है अपने से प्रत्येक वस्तु के विकर्षण का नियम-हर व्यक्ति से अपने को पृथक करना जिसका परिणाम होता है, अन्ततः दूसरों की सुख-सुविधा की बलि देकर भी अपने अभ्युदय की सिद्धि। दूसरा है आत्म-बलिदान का विधान- अपनी चिन्ता से सर्वथा मुक्ति7सर्वदा केवल दूसरों का ध्यान करना। संसार में महान और सत्पुरुष वे हैं जिनमें यह दूसरी क्षमता प्रबल होती है। फिर भी ये दोनों शक्तियाँ साथ साथ संयुक्त रूप से काम कर रही है; प्रायः प्रत्येक व्यक्ति में वह मिली हुई पायी जाती है, एक या दूसरी प्रमुख होती है। चोर, चोरी करता है; पर शायद, किसी दूसरे के लिए जिसे वह प्यार करता है। (पृ0-70)
20.मुक्ति ही विश्व की प्रेरक है और मुक्ति ही इसका लक्ष्य है। प्रकृति के नियम में ऐसी पद्धतियाँ हैं जिनके द्वारा हम जगदम्बा के निर्देशन में, उस मुक्ति तक पहुँचने का संघर्ष करते हैं। मुक्ति के लिए इस विश्वव्यापी संघर्ष की सर्वोच्च अभिव्यक्ति मनुष्य में मुक्त होने की सजग अभिलाषा के रूप में होती है। यह मुक्ति तीन प्रकार से प्राप्त होती है- कर्म, उपासना और ज्ञान से। कर्म-दूसरों की सहायता करने और दूसरों को प्रेम करने का सतत अविरत प्रयत्न। उपासना-प्रार्थना-वन्दना, गुणगान और ध्यान। ज्ञान-जो ध्यान से उत्पन्न होता है। (पृ0-73)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 15.विज्ञान और आध्यात्किकता
1.यदि हम अपने व्यक्तिगत एवं सामूहिक जीवन में वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न एवं आध्यात्मिक एक साथ न हो पाए, तो मानवजाति का अर्थपूर्ण अस्तित्व ही संशय का विषय हो जाएगा। (पृ0-9)
2.अवश्य, सदाचार बहुत महत्वपूर्ण है। यह सही है कि अपने विचारों एवं भावनाओं को अनुशासित किये बिना मनुष्य धर्म के लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता, लेकिन आचार किसी भी अर्थ में धर्म का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। (पृ0-17)
3.अन्त में देश-काल की सीमाओं में बद्ध ज्ञान का महामिलन उस ज्ञान से होगा जो इन दोनों से परे है, जो मन तथा इन्द्रियों के पहुँच से परे है- जो निरपेक्ष है, असीम है, अद्वितीय है। (पृ0-36)
4.विज्ञान सहज निर्धारण एवं उसे प्राप्त करने की प्रेरणा लक्ष्यों एवं प्रेरणाओं की सिद्धि के उपायों के बारे में धर्म, परोक्ष या अपरोक्ष रूप से विज्ञान से बहुत कुछ सीख सकता है। विज्ञान यह बता सकता है कि अमुक लक्ष्य कैसे प्राप्त किया जाय। लेकिन वह यह नहीं बता सकता कि उसे कौन सा लक्ष्य प्राप्त करना चाहिए। (पृ0-55)
5.अनुभव ही ज्ञान का एक मात्र स्रोत है। विश्व में केवल धर्म ही ऐसा विज्ञान है जिसमें निश्चयत्व का अभाव है, क्योंकि अनुभव पर आश्रित विज्ञान के रूप में उसकी शिक्षा नहीं दी जाती। ऐसा नहीं होना चाहिए। परन्तु कुछ ऐसे लोगों का एक छोटा समूह भी सर्वदा विद्यमान रहता है, जो धर्म की शिक्षा अनुभव के माध्यम से देते हैं। ये लोग रहस्यवादी कहलाते हैं। और वे हरेक धर्म में, एक ही वाणी बोलते हैं। और एक ही सत्य की शिक्षा देते हैं। यह धर्म का यथार्थ विज्ञान है। जैसे गणित शास्त्र विश्व के किसी भी भाग में भिन्न-भिन्न नहीं होते। वे सभी एक ही प्रकार के होते है तथा उनकी स्थिति भी एक ही होती है। उन लोगों का अनुभव एक ही है और यही अनुभव धर्म का रूप धारण कर लेता है। (पृ0-70)
6.धर्म तात्त्विक (आध्यात्मिक) जगत के सत्यों से उसी प्रकार सम्बन्धित है, जिस प्रकार रसायन शास्त्र तथा दूसरे भौतिक विज्ञान भौतिक जगत के सत्यों से। रसायन शास्त्र पढ़ने के लिए प्रकृति की पुस्तक पढ़ने की आवश्यकता है। धर्म की शिक्षाप्राप्त करने के लिए तुम्हारी पुस्तक अपनी बुद्धि तथा हृदय है। सन्त लोग प्रायः भौतिक विज्ञान से अनभिज्ञ ही रहते हैं। क्योंकि वे एक भिन्न पुस्तक अर्थात् आन्तरिक पुस्तक पढ़ा करते हैं; और वैज्ञानिक लोग भी प्रायः धर्म के विषय में अनभिज्ञ ही रहते हैं क्योंकि वे भी भिन्न पुस्तक अर्थात् वाह्य पुस्तक पढ़ने वाले हैं। (पृ0-71)
7.काल प्रवाह में सुसंगत परिवर्तन लाने के लक्ष्य को प्राप्त करना ऐसा आसान कार्य नहीं है जो इने गिने मुट्ठी भर उत्साही लोगों द्वारा चन्द दिनों में किया जा सके। यह कार्य लाखों लोगों के युग-युगान्तर तक किये गये साग्रह एवं निष्ठापूर्ण प्रयास द्वारा ही सम्भव है। इसके लिए हमारी शिक्षा पद्धति को पुनर्गठित करना होगा जिससे मानव के विचारों, आदर्शों एवं कार्यों को नई दिशा प्रदान की जा सके। (पृ0-78)
8.सम्भवतः ऐसा समय आ रहा है जब इस भौतिकवादी समाज में एक नयी भावना का उदय होगा और वह यह कि ईश्वर-दर्शन प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव है; तब सभी के उस दिशा में संघर्ष न करने पर भी जो ईश्वर का प्रत्यक्ष प्रयोगात्मक अनुभव करना चाहंेगे उन्हें युग-चेतना से उपहास एवं संदेह के बदले, प्रोत्साहन प्राप्त होगा। (पृ0-100)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 16. प्राच्य और पाश्चात्य
1.हिन्दू शास्त्र कहते हैं कि धर्म की अपेक्षा मोक्ष बहुत ही बड़ा है, किन्तु पहले धर्म करना होगा। बौद्धों ने इसी स्थान पर भ्रम में पड़कर, अनेक उत्पात खड़े कर दिये। अहिंसा ठीक है, निश्चय बड़ी बात है, कहने में बात तो अच्छी है, पर शास्त्र कहते हैं, तुम गृहस्थ हो, तुम्हारे गाल पर यदि कोई एक थप्पड़ मारे, और यदि उसका जवाब तुम दस थप्पड़ों से न दो, तो तुम पाप करते हो। ‘आततापिनमायान्तम्’ इत्यादि, हत्या करने के लिए यदि कोई आये तो ऐस ब्रह्मवध भी पाप नहीं है। ऐसा मनुस्मृति में लिखा है। यह ठीक बात है, इसे भूलना न चाहिए। वीरभोग्या वसुन्धरा-वीर्य प्रकाशित कीजिये, पृथ्वी का भोग कीजिए, तब आप धार्मिक होेंगे और गाली-गलौज सहकर चुपचाप घृणित जीवन बिताने से यहां नरक भोगना होगा और परलोक में भी वही होगा। यही शास्त्र मत है। (पृ0-8)
2.जिस अवस्था में सत्वगुण की प्रधानता होती है उस अवस्था में निष्क्रिय हो जाता है तथा परम ध्यानावस्था को प्राप्त होता है। जिस अवस्था में रजोगुण की प्रधानता होती है। उस अवस्था में वह अच्छे-बुरे काम करता है तथा जिस अवस्था में तमोगुण की प्रधानता होती है, उस अवस्था में फिर वह निष्क्रिय, जड़ हो जाता है। (पृ0-11)
3.केवल वैदिक धर्म में ही इन चारों वर्गों के साधन का उपाय है- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। (पृ0-14)
4.बौद्ध धर्म और वैदिक धर्म का उद्देश्य एक ही है। पर बौद्ध के उपाय ठीक नहीं है, यदि उपाय ठीक होता तो हमारा यह सर्वनाश कैसे होता? ‘समय ने सब कराया’ क्या यह कहने से काम चल सकता है? समय तथा कार्य-कारण के सम्बन्ध को छोड़कर काम कर सकेगा? (पृ0-14)
5.अंग्रेजों के चरित्र में व्यवसाय बुद्धि तथा आदान-प्रदान की प्रधानता है। अंग्रेजों की आवश्यक विशेषता है समान भाग, न्याय विभाग। अंग्रेज राजा और कुलीन जाति के अधिकार को नतमस्तक होकर स्वीकार कर लेते हैं, परन्तु गांठ में से पैसा बाहर करना हो तो वे हिसाब मांगते हैं। (पृ0-18)
6.देवता आस्तिक थे- उन्हें आत्मा में विश्वास था, ईश्वर और परलोक में विश्वास करते थे। असुरों का कहना था कि इस जीवन को महत्व दो, पृथ्वी का भोग करो, इस शरीर को सुखी रखो। इस समय हम इस बात पर विचार नहीं कर रहे कि देवता अच्छे थे या असुर। पर पुराणों को पढ़ने से पता चलता है कि असुर ही अधिकतर मनुष्यों की तरह के थे, देवता तो अनेक अंशों में हीन थे। (पृ0-32)
7.हिन्दुओं का सिद्धान्त है कि यज्ञस्थल को छोड़कर किसी दूसरे स्थान पर जीव हत्या करना पाप है, किन्तु यज्ञ करके सुख से मांस भोजन किया जा सकता है। इतना ही नहीं, गृहस्थों के लिए ऐसे अनेक नियम है कि अमुक, अमुक स्थान पर हत्या न करने से पाप होगा- जैसे श्राद्धादि। उन सब स्थानों पर निमंत्रित होकर मांस न खाने से पशु जन्म होता है- ऐसा मनु ने लिखा है। जैन और बौद्ध कहते हैं कि हम तुम्हारा शास्त्र नहीं मानते, हत्या किसी प्रकार की भी नहीं की जा सकती। बौद्ध सम्राट अशोक की आज्ञा थी- ‘जो यज्ञ करेगा व निमंत्रण देकर मांस खिलायेगा वह दण्डित होगा’। आधुनिक वैष्णव कुछ और ही असमंजस में पड़े हैं उनके देवता राम और कृष्ण मद-मांस आदि उड़ा रहे हैं- यह रामायण और महाभारत में लिखा है। (रामायण, उत्तर 52, अयोध्या 33, महाभारत आदिपर्व) सीता देवी ने गंगा जी को मांस, भात और हजार कलशी मद्य चढ़ाने की मनौती मानी थी। वर्तमान काल में लोग शास्त्र की बातें भी नहीं मानते और महापुरुष का कहा हुआ है, ऐसा कहने से भी नहीं सुनते। (पृ0-41)
8.सब पक्षों की राय जान-सुनकर मेरी तो यही राय होती है कि हिन्दू ही ठीक रास्ते पर है। अर्थात् हिन्दुओं की यह जो व्यवस्था है कि जन्म-कर्म के भेद से आहार आदि में भिन्नता होगी, यही ठीक सिद्धान्त है। मांस खाना अवश्य असभ्यता है। निरामिष भोजन ही पवित्र है। जिनका उद्देश्य, धार्मिक जीवन है, उनके लिए निरामिष भोजन अच्छा है और जिसे रात दिन परिश्रम करके प्रतिद्वन्द्विता के बीच में जीवन नौका खेनी है। उसे मांस खाना ही होगा। जितने दिन ‘बलवान की जय’ का भाव मानव समाज में रहेगा, उतने दिन मांस खाना ही पड़ेगा अथवा किसी दूसरे प्रकार की मांस जैसी उपयोगी चीजें खाने के लिए ढूंढ निकालनी होगी। (पृ0-43)
9.ज्ञान का अर्थ है- बहु के भीतर एक को देखना। जो वस्तुएं अलग-अलग हैं, जिनमें अन्तर मालूम होता है, उनमें भी एक ऐक्य है। वह विशेष सम्बन्ध जिससे मनुष्य को इस एकत्व का पता लगाना है, ‘नियम’ कहलाता है। इसी को प्राकृतिक नियम भी कहते हैं। (पृ0-81)
10.यूरोपीय पण्डितों का यह कहना कि आर्य लोग कहीं से घूमते फिरते आकर भारत में जंगली जाति को मार-काटकर और जमीन छीनकर यहां बस गये। केवल अहमको की बात है। आश्चर्य तो इस बात का है कि हमारे भारतीय विद्वान भी उन्हीं के स्वर में स्वर मिलाते हैं और वही सब झूठी बात हमारे बाल बच्चों को पढ़ाई जाती है-यही घोर अन्याय है। (पृ0-96)
11.यूरोप का उद्देश्य है- सब को नाश करके स्वयं अपने को बचाये रखना। आर्यों का उद्देश्य था-सब को अपने समान करना अथवा अपने से भी बड़ा करना। (पृ0-99)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 17. मरणोत्तर जीवन
1.यदि प्रवृत्ति बारम्बार किये हुये कर्म का परिणाम है, तो जिन प्रवृत्तियों को साथ लेकर हम जन्म धारण करते है, उनको समझने के लिए उस कारण का भी उपयोग करना चाहिए। यह तो स्पष्ट है कि वे प्रवृत्तियाँ हमें इस जन्म में प्राप्त हुई नहीं हो सकती; अतः हमें उनका मूल पिछले जन्म में ढूंढना चाहिए। अब यह भी स्पष्ट है कि हमारी प्रवृत्तियों में से कुछ तो मनुष्य के ही जान-बूझकर किये हुए प्रयत्नों के परिणाम है, और यदि यह सच है कि हम उन प्रवृत्तियों को अपने साथ लेकर जन्म लेते हैं, तब तो बिल्कुल यही सिद्ध होता है कि उनके कारण गतजन्म में जान-बूझकर किये हुये प्रयत्न ही है-अर्थात् इस वर्तमान जन्म के पूर्व हम उसी मानसिक भूमिका में रहे होंगे, जिसे हम मानव भूमिका कहते हैं। (पृ0-25)
2.पुनर्जन्मवादी लोग यह मानते हैं कि सभी अनुभव प्रवृत्तियों के रूप में अनुभव करने वाली जीवात्मा में संगृहीत रहते हैं और उसे अविनाशी जीवात्मा के पुनर्जनम द्वारा संक्रमित किये जाते हैं; भौतिकवाद वाले मस्तिष्क को सभी कर्मों के आधार होने के और बीजाणुओं के द्वारा उनके संक्रमण का सिद्धान्त मानते हैं। यदि बीजाणुओं द्वारा आनुवंशिक संक्रमण समस्या को हल करने के लिए पूर्णतः पर्याप्त है, तब तो भैतिकता ही अपरिहार्य है और आत्मा के सिद्धान्त की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि वह पर्याप्त नहीं है, तो प्रत्येक आत्मा अपने साथ इस जन्म में अपने भूतकालिक अनुभवों को लेकर आती है, यह सिद्धान्त पूर्णतः सत्य है। पुनर्जन्म या भौतिकता-इन दो में से किसी एक को मानने के सिवा और कोई गति नहीं है। प्रश्न यह है कि हम किसे मानें? (पृ0-26)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 18. समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्ण
1.स्वामी विवेकानन्द ने जिस समय कहा था- एक विश्व, एक मानव, एक धर्म, एक ईश्वर, तब लोगों ने इस बात का उपहास किया था, लोगों ने इस प्रकार की संभावना पर संदेह प्रकट किया था, लोग स्वीकार नहीं कर पाये थे। किन्तु आज सभी लोग संयुक्त राष्ट्र संघ ;न्छव्द्ध की ओर दौडे़ चले जा रहे हैं। जाओ, जाओ की अवस्था ने मानो उनको दबोच लिया है। (पृ0-22)
2.श्रीरामकृष्ण के जीवन में जो धर्म साकार हुआ है उसका नयापन यही है कि इसमें जो है वह सभी के लिए, सभी देशों के लिए अपने सभी काल के लिए आवश्यक है। इसी कारण इसे ‘सार्वभौमिक’ या यूनिवर्सल कहा जा सकता है। (पृ0-25)
3.यह मतवाद जो द्वैत, अद्वैत एवम् अन्यान्य मतों के बीच समन्वय स्थापित करता है, समन्वयवादी वेदान्त है। यह वेदान्त जिस प्रकार ब्रह्म को सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपों में स्वीकार करता है, वैसे ही (ब्रह्म को) साकार और निराकार रूप में भी स्वीकार करता है। इस दृष्टि से यह शंकर के परम्परागत अद्वैत से भिन्न है। (पृ0-26)
4.निष्काम कर्म के साथ ज्ञान, भक्ति आदि सब मिलकर एक योग बनेगा। इस योग को यदि ‘रामकृष्णयोग’ कहा जाय तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। (पृ0-32)
5.ब्रह्म को छोड़कर शक्ति का और शक्ति को छोड़कर ब्रह्म का चिन्तन भी नहीं किया जा सकता। नित्य को छोड़कर लीला के बारे में और लीला को छोड़कर नित्य के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। इसीलिये उनके लिए काली ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही काली है। वस्तु एक ही है; ब्रह्म जब निष्क्रिय है- सृष्टि स्थिति-प्रलय की क्रिया में भाग नहीं लेते तो वे ब्रह्म कहलाते हैं और जब वे ये कार्य करते हैं तब वे काली, शक्ति कहलाते हैं। (पृ0-51)
6.जिस समय जो अवतारी पुरुष आये, उनमें से प्रत्येक ने एक आदर्श प्रस्तुत किया। निश्चिय ही उनमें अन्य कोई आदर्श नहीं था ऐसा नहीं; उनमें भी सभी आदर्श थे; परन्तु उनके जीवन में एक भाव विशेषरूप से प्रकाशित हुआ था। यह इस प्रकार है कि श्रीकृष्ण ने सभी धर्मों, सभी दर्शनों, सभी प्रथाओं और मतवादों का समन्वय कर दिया है; उन्होंने दिखला दिया है कि कर्म, योग, ज्ञान और भक्ति एक ही महायोग के एक एक अंग है। यही सिद्ध करने के लिए उनका स्वयं का जीवन निष्काम कर्म द्वारा निर्मित था। निष्काम कर्म से चित्तशुद्धि होती है और चित्तशुद्धि होने पर वैराग्य उत्पन्न होता है वैराग्य के उपरान्त त्याग। त्याग का आदर्श लेकर आये बुद्धदेव। स्वयं के लिए कुछ भी नहीं, मुक्ति भी नहीं, सब कुछ जीवों के लिए। जीवों की मुक्ति का पथ नहीं खोज सका ऐसा कहकर रोने लगे थे। त्याग के पश्चात् ज्ञान जिसे लेकर आये शंकर।...इसी ज्ञान के बाद पे्रम। इसी प्रेमामृत का पान करने के लिए आगमन हुआ पे्रमावतार महाप्रभु श्री चैतन्य का। किन्तु भारत ने सोचा कि ये सभी एक दूसरे के परस्पर विरोधी हैं। यह विरोध दूर हुआ है सर्व-धर्म-समन्वय के मूर्तरूप श्रीरामकृष्ण देव के आगमन से। इस अविराम साधना प्रवाह की परि-समाप्ति हुई है श्रीरामकृष्ण रूपी समन्वय सागर में। (पृ0-42)
7.घृणित वेश्या में भी वे माँ जगदम्बा को देखते थे। इसीलिये श्रीरामकृष्ण के जीवन में जिस प्रकार नरेन्द्र, राखाल, शशि, शरत आदि शुद्ध सत्व बालक, गिरीश, राम, सुरेन, कालिपद आदि गृहस्थ भक्त, साधक, आचार्य, और पण्डित आते थे; उसी प्रकार शिक्षक, अध्यापक, पत्रकार, चित्रकार, गायक, वादक, डाक्टर, वैद्य, वकील, मुंशी, जमींदार, पिछड़े लोग, उपेक्षित वर्ग के लोग (जैसे रसिक मेहतर, भर्तृहरि माली, शम्भु कुम्हार, मधु युगी) रसोइया, दरबान, पहलवान, मन्मथ गुण्डा, डकैत, वागदी पाठक, शराबी, पागल, गाड़ीवाला, हलवाई, किसान, मारवाड़ी, व्यवसायी, वैश्या, लुहारिन, धाप, नौकरानी, पगली रंगशाला के अभिनेता-अभिनेत्रियां (जैसे अमृत सेन, नीलमाधव, महेन्द्र, विनोदिनी, वनहारिनी, गंगामणि, किरनबाला आदि) आदि भी उनके जीवन में स्थान पाते हैं। श्रीरामकृष्ण, विभिन्न स्तरों के विभिन्न व्यवसायों के, विभिन्न जाति के, विभिन्न विचारों के, विभिन्न अवस्थाओं के मनुष्यों को एक सूत्र में बांधकर जगत को एक अत्यन्त सुसज्जित मनोरम, मानवत्व का हार दे गये हैं। इस प्रकार का अतुलनीय समन्वय पहले कभी नहीं देखा गया है। (पृ0-60)
स्वामी विवेकानन्द की ”आध्यात्मिक सत्य“ दृष्टि में - 19. मेरी समर नीति
1.जो मनुष्य अपने जीवन के चैदह वर्षों तक लगातार उपवास का मुकाबला करता रहा हो, जिसे यह भी न मालूम रहा हो कि दूसरे दिन का भोजन कहां से आयेगा, सोने के लिए स्थान कहां मिलेगा, वह इतनी सरलता से धमकाया नहीं जा सकता। जो मनुष्य बिना कपड़ों के और बिना यह जाने कि दूसरे समय भोजन कहां से मिलेगा, उस स्थान पर रहा हो, जहां का तापमान शून्य से भी तीस डिग्री कम हो, वह भारतवर्ष में इतनी सरलता से नहीं डराया जा सकता। यही पहली बात है जो में उनसे कहूंगा- मुझमें अपनी थोड़ी दृढ़ता है, मेरा थोड़ा निज का अनुभव भी है, और मुझे संसार को कुछ संदेश देना है और यह सन्देश मैं बिना किसी डर के, बिना किसी प्रकार भविष्य की चिन्ता किये सब के समक्ष घोषित करूंगा। (मेरी समर नीति-पृ0-12)
2.सुधारकों से मैं कहूंगा कि मैं स्वयं उनसे कहीं बढ़कर सुधारक हूँ। वे लोग इधर-उधर थोड़ा सुधार करना चाहते हैं- और मैं चाहता हूँ आमूल सुधार। हम लोगों का मतभेद है केवल सुधार की प्रणाली में। उनकी प्रणाली विनाशात्मक है और मेरी संघटनात्मक। मैं सुधार में विश्वास नहीं करता, मैं विश्वास करता हूँ स्वाभाविक उन्नति में। (मेरी समर नीति-पृ0-13)
3.सामाजिक व्याधि का प्रतिकार बाहरी उपायों द्वारा नहीं होगा; हमें उसके लिए भीतरी उपायों का अवलम्बन करना होगा-मन पर कार्य करने की चेष्टा करनी होगी। चाहे हम कितनी ही लम्बी चैड़ी बातें क्यों न करें, हमें जान लेना होगा कि समाज के दोषों को दूर करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से नहीं वरन् शिक्षादान द्वारा परोक्ष रूप से उसकी चेष्टा करनी होगी। (मेरी समर नीति-पृ0-15)
4.हम मानते हैं कि यहां बुराईयाँ हैं पर बुराई तो हर कोई दिखा सकता है। मानव-समाज का सच्चा हितैषी तो वह है, जो इन बुराईयों को दूर करने का उपाय बताये। कोई एक दार्शनिक एक डुबते हुए लड़के को गंभीर भाव से उपदेश दे रहा था, तो लड़के ने कहा- ‘‘पहले मुझे पानी से बाहर निकालिए, फिर उपदेश दीजिए’’। बस ठीक इसी तरह भारतवासी भी कहते हैं, ‘‘हम लोगों ने बहुत व्याख्यान सुन लिए, बहुत सी संस्थायें देख ली, बहुत से पत्र पढ़ लिये, अब तो हमें ऐसा मनुष्य चाहिए, जो अपने हाथ का सहारा दे, हमें इन दुःखों के बाहर निकाल दे। कहां है वह मनुष्य जो हमसे वास्तविक प्रेम करता है, जो हमारे प्रति सच्ची सहानुभूति रखता है?’’ बस उसी आदमी की हमें जरूरत है। यहीं पर मेरा इन समाज सुधार आन्दोलनों से सर्वथा मतभेद है। आज सौ वर्ष हो गये, ये आन्दोलन चल रहे हैं, पर सिवाय निन्दा और विद्वेषपूर्ण साहित्य की रचना के इनसे और क्या लाभ हुआ है? (मेरी समर नीति-पृ0-17)
5.प्रत्येक भारतीय भाषा में ऐसे साहित्य की रचना हो गयी है, जो जाति के लिए, देश के लिए कलंकस्वरूप है। क्या यही सुधार है! क्या इसी तरह देश गौरव पथ पर बढ़ेगा। यह है किसका दोष? (मेरी समर नीति-पृ0-18)
6.भारतवर्ष में हमारा शासन सदैव राजाओं द्वारा हुआ है, राजाओं ने ही हमारे सब कानून बनाये हैं। अब वे राजा नहीं है, और इस विषय में अग्रसर होने के लिए हमें मार्ग दिखाने वाला अब कोई नहीं रहा। सरकार साहस नहीं करती। वह तो सर्वसाधारण के विचारों की गति देखकर ही अपनी कार्यप्रणाली निश्चित करती है। अपनी समस्याओं को हल कर लेने वाला एक कल्याणकारी और प्रबल लोकमत स्थापित करने में समय लगता है- काफी लम्बा समय लगता है, इस बीच हमें प्रतीक्षा करनी होगी। अतएव सामाजिक सुधार की सम्पूर्ण समस्या यह रूप लेती है-कहां हैं वे लोग, जो सुधार चाहते हैं। (मेरी समर नीति-पृ0-18)
7.मुट्ठी भर लोग, जो सोचते हैं कि कतिपय बातें दोषपूर्ण हैं, राष्ट्र को गति नहीं दे सकते। राष्ट्र में आज गति क्यों नहीं है? क्यों वह जड़भावापन्न है? पहले राष्ट्र को शिक्षित करो, अपनी निजी विधायक संस्थाएं बनाओ, फिर तो नियम आप ही आप आ जायेंगे। जिस शक्ति के बल से, जिसके अनुमोदन से विधान का गठन होगा, पहले उसकी सृष्टि करो। आज राजा नहीं रहे; जिस नयी शक्ति से, जिस नये दल की सम्मति से नयी व्यवस्था गठित होगी, वह लोकशक्ति कहाँ है? (मेरी समर नीति-पृ0-19)
8.आजकल विशेषतः दक्षिण में बौद्ध धर्म और उसके अज्ञेयवाद की आलोचना करने की एक प्रथा सी चल पड़ी है। यह उन्हें स्वप्न में भी ध्यान नहीं आता कि जो विशेष दोष आजकल हमारे समाज में विद्यमान है, वे सब बौद्ध धर्म द्वारा ही छोड़े गये हैं। (मेरी समर नीति-पृ0-20)
9.बौद्ध धर्म के इतने विस्तार का कारण था- गौतम बुद्ध द्वारा प्रचारित अपूर्व नीति और उनका लोकोत्तर चरित्र। भगवान बुद्धदेव के प्रति मेरी यथेष्ट श्रद्धा-भक्ति है। पर मेरे शब्दों पर गौर कीजिए। बौद्ध-धर्म का विस्तार उक्त महापुरुष के मत एवं अपूर्व चरित्र के कारण उतना नहीं हुआ, जितना बौद्धों द्वारा निर्माण किये गये बड़े-बड़े मन्दिरों एवं भव्य प्रतिमाओं के कारण, समग्र देश के सन्मुख किये गये भड़कीले उत्सवों के कारण। पर अन्त में इन सब क्रियाकलापों में भारी अवनति हो गयी। -ऐसी अवनति कि उसका वर्णन भी श्रोताओं के सामने नहीं किया जा सकता। (मेरी समर नीति-पृ0-20)
10.क्या भारतवर्ष में कभी सुधारकों का अभाव था? क्या तुमने भारत का इतिहास पढ़ा है? रामानुज, शंकर, नानक, चैतन्य, कबीर और दादू कौन थे? ये सब बड़े बड़े धर्माचार्य, जो भारत-गगन में अत्यन्त उज्ज्वल नक्षत्रों की नाई एक के बाद उदित हुये, फिर अस्त हो गये, कौन थे? क्या रामानुज के हृदय में नीच जाति के लिए प्रेम नहीं था? क्या उन्होंने अपने सारे जीवन भर चाण्डाल तक को अपने सम्प्रदाय में ले लेने का प्रयत्न नहीं किया? क्या नानक ने मुसलमान और हिन्दू दोनों से समानभाव से परामर्श कर समाज में एक नयी अवस्था लाने का प्रयत्न नहीं किया? इन सभी लोगों ने प्रयत्न किया, और उनका काम आज भी चल रहा है। भेद केवल इतना है कि वे आज के समाज-सुधारकों की तरह दाम्भिक नहीं थे; वे इनके समान अपने मुँह से कभी अभिशाप नहीं उगलते थे। उनके मुँह से केवल आशीर्वाद ही निकलता था। उन्होंने यह नहीं कहा- ‘‘पहले तुम दुष्ट थे, और अब तुम्हे अच्छा होना होगा।’’ उन्होंने यही कहा, ‘‘पहले तुम अच्छे थे, अब और अच्छे बनो।’’ ये दो बातें जमीन आसमान का फर्क पैदा कर देती है। (मेरी समर नीति-पृ0-25)
11.मेरी नीति है- प्राचीन आचार्यों के उपदेशों का अनुसरण करना। मैंने उनके कार्य का अध्ययन किया है, और जिस प्रणाली से उन्होंने कार्य किया, उसके अविष्कार करने का मुझे सौभाग्य मिला। वे सब महान समाज संस्थापक थे। बल पवित्रता और जीवन शक्ति के वे अद्भुत आधार थे। उन्होंने सब से अद्भुत कार्य किया-समाज में बल, पवित्रता और जीवन शक्ति संचारित की। हमें भी सबसे अद्भुत कार्य करना है। आज अवस्था कुछ बदल गयी है, इसलिए कार्य-प्रणाली में कुछ थोड़ा-सा परिवर्तन करना होगा; बस इतना ही, इससे अधिक कुछ नहीं। (मेरी समर नीति-पृ0-27)
12.किसी देश में-जैसे इंग्लैण्ड में-राजनीतिक सत्ता ही उसकी जीवन-शक्ति है। कला कौशल की उन्नति करना किसी दूसरे राष्ट्र का प्रधान लक्ष्य है। ऐसे ही और दूसरे देशों का भी समझिये। किन्तु भारतवर्ष में धार्मिक जीवन ही राष्ट्रीय जीवन का केन्द्र है और वही राष्ट्रीय जीवन रूपी संगीत का प्रधान स्वर है। (मेरी समर नीति-पृ0-28)
13.यदि तुम धर्म को फंेककर राजनीति, समाजनीति अथवा अन्य किसी दूसरी नीति को अपनी जीवन-शक्ति का केन्द्र बनाने में सफल हो जाओ, तो उसका यह फल होगा कि तुम्हारा नामोनिशान तक न रह जाएगा। यदि तुम इससे बचना चाहो, तो अपनी जीवन-शक्तिरूपी धर्म के भीतर से ही तुम्हें अपने सारे कार्य करने होंगे-अपनी प्रत्येक क्रिया का केन्द्र इस धर्म को ही बनाना होगा। (मेरी समर नीति-पृ0-28)
14.जो भी व्यक्ति अपने शास्त्र के महान सत्यों को दूसरों को सुनाने में सहायता पहुँचाएगा, वह आज एक ऐसा कर्म करेगा, जिसके समान दूसरे कोई कर्म नहीं। महर्षि मनु ने कहा है- ‘‘इस कलियुग में मनुष्यों के लिए एक ही कर्म शेष है। आजकल यज्ञ और कठोर तपस्याओं से कोई फल नहीं होता। इस समय दान ही अर्थात् एकमात्र कर्म है।’’ और दानों में धर्मदान, अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान का दान ही सर्वश्रेष्ठ है। दूसरा दान है विद्यादान, तीसरा प्राणदान और चैथा अन्नदान। (मेरी समर नीति-पृ0-30)
15.राजनीति सम्बन्धी विद्या का विस्तार रणभेरियों और सुसज्जित सेनाओं के बल पर किया जा सकता है। लौकिक एवं समाज सम्बन्धी विद्या का विस्तार उगलती तोपों पर चमचमाती तलवारों के बल पर हो सकता है। पर आध्यात्मिक विद्या का विस्तार तो शान्ति द्वारा ही सम्भव है। जिस प्रकार चक्षु-कर्ण गोचर न होता हुआ भी मृदु ओस-बिन्दु गुलाब की कलियों को विकसित कर देता है, वह वैसा ही आध्यात्मिक ज्ञान क विस्तार के सम्बन्ध में भी समझिए। यही एक दान है, जो भारत दुनिया को बार-बार देता आया है। जब कभी भी कोेई दिग्विजयी जाति उठी, जिसने संसार के विभिन्न देशों को एक साथ ला दिया और आपस में लेन देन की सुविधा कर दी, त्योंहि भारत उठा और संसार की उन्नति में अपना भी आध्यात्मिक ज्ञान का हिस्सा दे दिया। (मेरी समर नीति-पृ0-32)
16.आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धासम्पन्न और दृढ़विश्वासी, निष्कपट नवयुवकों की। ऐसे सौ मिल जाय, तो संसार का कायाकल्प हो जाय! इच्छाशक्ति संसार में सब से अधिक बलवती है। उसके सामने दुनिया की कोई चीज नहीं ठहर सकती, क्योंकि वह भगवान-साक्षात् भगवान से आती है। विशुद्ध और दृढ़ इच्छाशक्ति सर्वशक्तिमान है। क्या तुम इसमें विश्वास नहीं करते? सब के समक्ष अपने धर्म के महान सत्यों का प्रचार करो; संसार इनकी प्रतीक्षा कर रहा है। (मेरी समर नीति-पृ0-34)
17.हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए, जो हमें मनुष्य बना सके और यह रही सत्य की कसौटी-जो भी तुम्हे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दुर्बलता लाए, उसे जहर की भांति त्याग दो; उसमें जीवन-शक्ति नहीं है, वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है, वह पवित्रता स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, जो हृदय के अन्धकार को दूर कर दे, जो हृदय में स्फूर्ति भर दें। (मेरी समर नीति-पृ0-36)
18.मैं अपने देश से प्रेम करता हूँ; मैं तुम्हें और अधिक पतित, और ज्यादा कमजोर नहीं देख सकता। अतएव तुम्हारे कलयाण के लिए, सत्य के लिए और जिससे मेरी जाति और अधिक अवनत न हो जाए इसलिए, मैं जोर से चिल्लाकर कहने के लिए बाध्य हो रहा हूँ-बस ठहरो! अवनति की ओर न बढ़ो। जहां तक गये हो, बस उतना ही काफी हो चुका। (मेरी समर नीति-पृ0-37)
19.सत्य जितना ही महान होता है, उतना ही सहज, बोधगम्य होता है-स्वयं अपने अस्तित्व क समान सहज! जैसे अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए और किसी की आवश्यकता नहीं होती, बस वैसा ही! उपनिषद् के सत्य तुम्हारे सामने है। इनका अवलम्बन करो, इनकी उपलब्धि कर इन्हें कार्य में परिणत करो-बस देखोगे भारत का उद्धार निश्चित है। (मेरी समर नीति-पृ0-37)
20.लोग देश भक्ति की चर्चा करते हैं। मैं भी देश भक्ति में विश्वास करता हूँ और देशभक्ति के सम्बन्ध में मेरा भी एक आदर्श है। बड़े काम करने के लिए तीन बातों की आवश्यकता होती है। पहला है- हृदय-अनुभव की शक्ति। बुद्धि या विचारशक्ति में क्या धरा है? वह तो कुछ दूर जाती है और बस वहीं रूक जाती है। पर हृदय-हृदय तो महाशक्ति का द्वार है; अन्तःस्फूर्ति वहीं से आती है। प्रेम असम्भव को भी सम्भव कर देता है। यह प्रेम की जगत के सब रहस्यों का द्वार है। अतएव, ऐ मेरे भावी सुधारकों, मेरे भावी देशभक्तों-तुम हृदयवान बनो। (मेरी समर नीति-पृ0-38)
स्वामी विवेकानन्द जी के संग में और सान्निध्य में
1.हमारे देश में जो कुछ है सो वेदान्त धर्म ही है। पाश्चात्य के साथ तुलना करने से यह कहना ही पड़ता है कि हमारी सभ्यता उसके पासंग भर भी नहीं है, परन्तु धर्म के क्षेत्र में यह सार्वभौमिक वेदान्तवाद ही नाना प्रकार के मतावलम्बियों को समान अधिकार दे रहा है। इसके प्रचार से पाश्चात्य सभ्य संसार को विदित होगा कि किसी समय में भारतवर्ष में कैसे आश्चर्यजनक धर्म-भाव का स्फुरण हुआ था और वह अब तक वर्तमान है। (पृ0-3)
2.हिन्दुओं के बारह महीनों में कितने ही पर्व होते हैं और उनका उद्देश्य यही है कि धर्म में जितने बड़े बड़े भाव है उनको सर्वसाधारण में फैलायें। परन्तु इसमें एक दोष भी है। साधारण लोग इनका यथार्थ भाव न जान उत्सवों में ही मग्न हो जाते हैं और उनकी पूर्ति होने पर कुछ लाभ न उठा ज्यों के त्यों बने रहते हैं। इस कारण ये उत्सव धर्म के बाहरी वस्त्र के समान धर्म के यथार्थ भावों को ढांके रहते हैं। (पृ0-27)
3.अवतार तुल्य महापुरुष लोग समाधि अवस्था से जब ‘मैं’ अैर ‘मेरा’ राज्य में लौट आते हैं तब वे प्रथम ही नाद का अनुभव करते हैं। फिर नाद के स्पष्ट होने पर आंेकार का अनुभव करते हैं। ओंकार के पश्चात् शब्दमय जगत् का अनुभव कर अन्त में स्थूल पंच भौतिक जगत् को प्रत्यक्ष देखते हैं। किन्तु साधारण साधक लोग अनेक कष्ट सहकर यदि किसी प्रकार से नाद के परे पहुंचकर ब्रह्म की साक्षात् उपलब्धि करे भी, तो फिर जिस अवस्था में स्थूल जगत का अनुभव होता है वहां वे उतर नहीं सकते-ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं- ‘क्षीरे नीरवत्’।(पृ0-63)
4.मन में ऐसे भाव उदय होते हैं कि यदि जगत् के दुःख दूर करने के लिए मुझे सहस्त्रों बार जन्म लेना पड़े तो भी मैं तैयार हूँ। इससे यदि किसी का तनिक भी दुःख दूर हो, तो वह मैं करूंगा और ऐसा भी मन में आता है कि केवल अपनी ही मुक्ति से क्या होगा। सबको साथ लेकर उस मार्ग पर जाना होगा। (पृ0-67)
5.श्रीरामकृष्ण देव के अन्तर्धान होने पर स्वामी जी ने उपनिषदादि शास्त्रों में वर्णित संन्यास लेने की पद्धतियों को मंगवाकर उनके अनुसार श्रीगुरुदेव के चित्र के सम्मुख रखकर अपने गुरु भाईयों के साथ वैदिक मत से संन्यास ग्रहण किया था। (पृ0-71)
6.श्रीरामकृष्ण सिद्धाईयों की बड़ी निन्दा किया करते थे। वे कहा करते थे कि इन शक्तियों के प्रकाश की ओर मन लगाये रखने से कोई परमार्थ तत्वों को नहीं पहुंचता; परन्तु मनुष्य का मन ऐसा दुर्बल है कि गृहस्थों का तो कहना ही क्या है, साधुओं में भी चैदह आने लोग सिद्धाई के उपासक होते हैं। पाश्चात्य देशों में लोग इन जादुओं को देखकर निर्वाक हो जाते हैं। सिद्धाई लाभ करना बुरा है और वह धर्मपथ में विध्न डालता है। (पृ0-82)
7.समस्त ब्रह्माण्ड जब नित्य आत्मा ईश्वर का ही विराट शरीर है तब विरोध-विशेष स्थानों (तीर्थस्थान) के महात्म्य में आश्चर्य की क्या बात है? विशेष स्थानों पर उनका विशेष विकास है। कहीं पर आप ही से प्रकट होते हैं और कहीं शुद्ध सत्य मनुष्य के व्याकुल आग्रह से प्रकट होते हैं। फिर भी यह तुम निश्चित जानो कि इस मानव शरीर की अपेक्षा और कोई बड़ा तीर्थ नहीं है। इस शरीर में जितना आत्मा का विकास हो सकता है उतना और कहीं नहीं। (पृ0-98)
8.छात्रजीवन में (स्वामी विवेकानन्द) दिन भर अपने साथियों के साथ आमोद-प्रमोद में ही रहते थे। रात को घर के द्वार बन्द कर अपना अध्ययन करते थे। दूसरे किसी को यह नहीं जान पड़ता था कि वे कब अपना अध्ययन कर लेते थे। (पृ0-102)
9.इस संसार में निरी दुनियादारी है जो यथार्थ, साहसी और ज्ञानी है। वह क्या ऐसी दुनियादारी से कभी घबड़ाता है? ‘जगत चाहे जो कहे, क्या परवाह है, मैं अपना कत्र्तव्य पालन करता चला जाऊँगा’ यह वीरों की बातें हैं। यदि ‘वह क्या कहता है और क्या लिखता है’ ऐसी ही बातों पर रात-दिन ध्यान रहे तो जगत् में कोई महान कार्य हो ही नहीं सकता। (पृ0-105)
10.बहुत दिनों तक मास्टरी करने से बुद्धि बिगड़ जाती है। ज्ञान का विकास नहीं होता। दिन रात लड़कों के बीच रहने से धीरे-धीरे जड़ता आ जाती है; इसलिए आगे अब मास्टरी न कर। (पृ0-126)
11.जाकर सभी को यह बात सुना ‘तुम्हारे भीतर अनन्त शक्ति मौजूद है, उसी शक्ति को जागृत करो।’ केवल अपनी मुक्ति प्राप्त कर लेने से क्या होगा? मुक्ति की कामना भी तो महा स्वार्थपरता है। छोड़ दे ध्यान, छोड़ दे मुक्ति की आकांक्षा- मैं जिस काम में लगा हूँ उसी में लग जा। (पृ0-161)
12.अतः जब कर्म करके उसे शान्ति प्राप्त नहीं होती तभी साधक कर्मत्यागी बनता है। परन्तु देह धारण करके मनुष्य को कुछ न कुछ लेकर तो रहना ही होगा- क्या लेकर रहेगा बोल? इसलिए साधक दो चार सत्कर्म करता जाता है, परन्तु उस कर्म के फलाफल की आशा नहीं रखता, क्योंकि उस समय उसने जान लिया है कि उस कर्मफल में ही जन्म मृत्यु के नाना प्रकार के अंकुर भरे पड़े हैं। इसलिए ब्रह्मज्ञ व्यक्ति सारे कर्म त्याग देते हैं- दिखाने के दो चार कर्म करने पर भी उनमें उनके प्रति आकर्षण बिल्कुल नहीं रहता। ये ही लोग शास्त्र में निष्काम कर्मयोगी बताये गये हैं। (पृ0-193)
13.निष्क्रियता, हीनबुद्धि और कपट से देश छा गया है। क्या बुद्धिमान लोग यह देखकर स्थिर रह सकते हैं? रोना नहीं आता? मद्रास, बम्बई, पंजाब, बंगाल-कहीं भी तो जीवनी शक्ति का चिन्ह दिखाई नहीं देता। तुम लोग सोच रहे हो, ‘हम शिक्षित हैं’ क्या खाक सीखा है? दूसरों की कुछ बातों को दूसरी भाषा में रटकर मस्तिष्क में भरकर, परीक्षा में उत्तीर्ण होकर सोच रहे हो कि हम शिक्षित हो गये हैं। धिक्धिक्, इसका नाम कहीं शिक्षा है? तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है? या तो ? क्लर्क बनना या एक दुष्ट वकील बनना, और बहुत हुआ तो क्लर्की का ही दूसरा रूप एक डिप्टी मजिस्टेªट की नौकरी यही न? इससे तुम्हे या देश को क्या लाभ हुआ? (पृ0-196)
14.सर्वेश्वर कभी भी विशेष व्यक्ति नहीं बन सकते। जीव है व्यष्टि; और समस्त जीवों की समष्टि है, ईश्वर। जीव में अविद्या प्रबल है; ईश्वर विद्या और अविद्या की समष्टि रूपी माया को वशीभूत करके विराजमान है और स्वाधीन भाव से उस स्थावर-जंगमात्मक जगत को अपने भीतर से बाहर निकाल रहा है। परन्तु ब्रह्म उस व्यष्टि-समष्टि से अथवा जीव-ईश्वर से परे है। ब्रह्म का अशंाश भाग नहीं होता। (पृ0-207)
15.मुख्य बात है मन को एकनिष्ठ बनाना। एक विषय में निष्ठा होने से मन की एकाग्रता होती है अर्थात् मन की अन्य वृत्तियाँ शान्त होकर एक विषय में ही केन्द्रित हो जाती है। बहुतों का बाहर की नियमनिष्ठा या विधि निषेध के झंझट में ही सारा समय बीत जाता है, फिर उसके बाद आत्मचिंतन करना नहीं होता। दिन रात विधि निषेधों की सीमा से आबद्ध रहने से आत्मा का प्रकाश कैसे होगा? जो आत्मा का जितना अनुभव कर सका उसके विधि निषेध उतने ही शिथिल हो जाते हैं। (पृ0-227)
16.सच्चे मनुष्य वही हैं जो इस सुख-दुख के द्वन्द्व-प्रतिघातों से तंग आकर भी विवेक के बल पर उन सभी को क्षणिक मान आत्मप्रेम में मग्न रहते हैं। मनुष्य तथा दूसरे जीव-जानवरों में यही भेद है जो चीज जितनी निकट होती है, उसकी उतनी ही कम अनुभूति होती है। आत्मा निकट से निकट है, इसलिए असंयत चंचल चित्त जीव उसे समझ नहीं पाते। (पृ0-246)
17.आखिर इस उच्च शिक्षा के रहने या न रहने से क्या बनता बिगड़ता है? यह कहीं ज्यादा अच्छा होगा कि यह उच्च शिक्षा प्राप्त कर नौकरी के दफ्तरों को खाक छानने के बजाय लोग थोड़ी सी यान्त्रिक शिक्षा प्राप्त करे जिससे काम-धन्धे में लगकर अपना पेट तो भर सकेंगे। (पृ0-5)
18.पर ब्राह्मण का पुत्र सर्वदा ब्राह्मण ही नहीं होता, यद्यपि उसके ब्राह्मण होने की सम्भावना अवश्य रहती है। जाति से ब्राह्मण होना और गुणों से ब्राह्मण होना-ये दो भिन्न बातें हैं। भारत वर्ष में ब्राह्मण कुल मंे जन्म लेने से कोई ब्राह्मण कहलाने लगता है, पर पश्चिम में यदि कोई ब्राह्मण गुण युक्त हो तो उसे ब्राह्मण ही मानना चाहिए। यह स्पष्ट है कि मनुष्य के लिए एक जाति से दूसरी जाति में चला जाना सम्भव है। यदि नहीं है तो विश्वामित्र ब्राह्मण कैसे बन सके और परशुराम क्षत्रिय कैसे बन सके?(पृ0-34)
स्वामी विवेकानन्द जी की पत्रावली भाग-1
1.ब्रह्म ज्ञानी को भोजन किसी परिश्रम के बिना अपने आप मिल जाता है। वह जहाॅ पाता है पानी पी लेता है, वह स्वेच्छानुसार सर्वत्र विचरण करता है- वह निर्भय, कभी जंगल में और कभी श्मशान में सो जाता है और जिस मार्ग पर जाने से वेद भी शेष हो जाते है, वहाॅ वह संचरण करता है। वह बालको की तरह दूसरो की इच्छानुसार परिचालित होता है, कभी नंगा, कभी वस्त्रालंकारमण्डित रहता है। और कभी कभी तो उसका आच्छादन ज्ञान मात्र रहता है, कभी अबोध बालक की भाॅति, कभी उन्मत्त के समान और कभी पिशाचवत् व्यवहार करता है। (पृ0-40)
2.मैं व्याख्यान देते देते और इस प्रकार के निरर्थक वाद से थक गया हूँ। सैकड़ों प्रकार के मानवी पशुओं से मिलते-मिलते मेरा मन अशान्त हो गया है। मैं मेरी मनोनुकूल बात आपको बतलाता हूँ। मैं लिख नहीं सकता, मैं बोल नहीं सकता, परन्तु मैं गम्भीर विचार कर सकता हूँ और जब मुझे स्फुर्ति आ जाती है तो अग्निरूपी वचन बोल सकता हूँ। परन्तु यह होना चाहिए कुछ चुने हुए, केवल चुने हुये लोगों के सामने ही। वे यदि चाहे तो मेरे विचारों को ले जाकर चारों और फैला दे- परन्तु यह मैं नहीं कर सकता। यह तो कर्म का ठीक ही बंटवारा है, एक ही आदमी सोचने में और विचारों के प्रसार करने में सफल नहीं हो सकता। इस तरह के दिये हुए विचारों का मूल्य कुछ नहीं होता। सोचने वाले मनुष्य को अन्य कार्यों से मुक्त होना चाहिए, विशेषतः जबकि विचार आध्यात्मिक हो। (पृ0-117)
3.पूर्णता का मार्ग यह है कि स्वयं पूर्ण बनने का प्रयत्न करना तथा कुछ थोड़े से स्त्री-पुरुषों को पूर्ण बनाने का प्रयत्न करना। ‘भला करने’ का मेरा यह अर्थ है कि कुछ असाधारण योग्यता के मनुष्यों का विकास, न कि ‘‘भैंस के आगे बीन बजाकर’’ समय, स्वास्थ्य और शक्ति का नाश करना। (पृ0-118)
4.मेरा जी चाहता है कि कुछ वर्षों तक मैं चुप हो जाऊँ और बिल्कुल न बोलूं। मैं स्वभाव से ही स्वप्न के राज्य में विचरण करने वाला और कर्मविमुख हूँ। भौतिक वस्तुओं का स्पर्श मेरी दृष्टि को अस्थिर कर देता है और मुझे दुःखी बनाता है। परन्तु हरि-इच्छा पूर्ण हो! (पृ0-118)
5.जिस देश में करोड़ांे मनुष्य महुए के फूल खाकर दिन गुजारते हैं, और दस बीस लाख साधु और दस बारह करोड़ ब्राह्मण उन गरीबों का खून चूसकर पीते हैं और उनकी उन्नति के लिए कोई चेष्टा नहीं करते, क्या वह देश है या नरक? क्या वह धर्म है या पिशाच का नृत्य ? भाई, इस बात को गौर से समझो- मैं भारत वर्ष को घूमघाम कर देख चुका और इस देश को भी देखा-क्या बिना कारण के कहीं कार्य होता है? क्या बिना पाप के सजा मिल सकती है। (पृ0-123)
6.मैंने एक योजना सोची तथा उसे कार्यान्वित करने का मैंने दृढ़ सकल्प किया। कन्याकुमारी में माता कुमारी के मन्दिर में बैठकर, भारतवर्ष की अन्तिम चट्टान पर बैठकर, मैंने सोचा कि हम जो इतने संन्यासी घूमते फिरते हैं और लोगों को दर्शनशास्त्र की शिक्षा दे रहे हैं, यह सब निरा पागलपन है। क्या हमारे गुरुदेव नहीं कहा करते थे कि खाली पेट से धर्म नहीं होता? (पृ0-124)
7.हमारी जाति अपनी स्वतंत्र सत्ता खो बैठी है और यही भारत की सारी आपत्ति का कारण है। हमें जाति को उसकी खोई हुई स्वतंत्र सत्ता वापस देनी ही होगी और निम्न जातियों को उठाना होगा। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी ने उनको पैरो तले रौंदा है। उनका उठाने वाली शक्ति भी अन्दर से अर्थात् सनातनमार्गी हिन्दुओं से ही आयेगी। प्रत्येक देश में बुराइयां धर्म के कारण नहीं, बल्कि धर्म को न मानने के कारण ही विद्यमान रहती है। अतः धर्म का कोई दोष नहीं, दोष मनुष्य का है। (पृ0-124)
8.वह हार प्रेम का हार है और वह धागा धनीभूत प्रेम का भावरूप अपूर्व धागा है। मूर्ख तुम इस रहस्य को नहीं जानते हो कि वह असीम तत्व प्रेम के बन्धन में फंसकर मेरी मुट्ठी के अन्दर आ चुका है। क्या तुम्हे यह पता नहीं है कि वे जगन्नाथ प्रेमडोर से बंध जाते हैं- क्या तुम यह नहीं जानते हो कि इस विशाल विश्व के संचालक वृन्दावन की गोपियों की नूपुरध्वनि के साथ नाचते फिरते थे। (पृ0-140)
9.यह तो तुम्हंे पता ही है कि रूपया रखना, यहां तक कि रूपया छूना भी मेरे लिए कठिन है। इसे मैं अत्यन्त कष्टदायक कार्य समझता हूँ और इससे मन अधोगामी बन जाता है। अतः कार्य संचालन तथा आर्थिक मामलों की व्यवस्था के लिए तुम लोगों को संगठित होकर किसी समिति की स्थापना करनी ही होगी। यहां पर जो मेरे मित्र हैं- आर्थिक मामलों की व्यवस्था वे ही करते हैं। अर्थ-विषयक इस भयानक झंझट से मुक्ति मिलने पर ही मैं सुख के श्वास ले सकूँगा। अतः तुम लोग जितना शीघ्र संगठित होकर मन्त्री तथा कोषाध्यक्ष बनकर मेरे मित्र तथा सहायकों से स्वयं पत्र व्यवहार कर सको, उतना ही तुम्हारे तथा मेरे लिए मंगल है। (पृ0-164)
10.आलासिंगा (एक मद्रासी मित्र), यह निश्चित जानना कि भविष्य में तुमकों अनेक महान कार्य करने होंगे। यदि तुम उचित समझो तो कुछ बड़े आदमियों को राजी कर समिति के कार्यकत्र्ताओं के रूप में उनका नाम प्रकाशित करना-उनके नाम से बहुत कुछ कार्य होंगे, किन्तु वास्तव में कार्य तुमको ही करना होगा। (पृ0-165)
11.हम ठीक वैसे ही हैं। गुलाम कीड़े-पैर उठाकर रखने की भी ताकत नहीं-बीबी का आंचल पकड़े ताश खेलते और हुक्का गुड़गुड़ाते हुए जिन्दगी पार कर देते हैं, और अगर उनमें से कोई एक कदम बढ़ जाता है तो सब के सब उसके पीछे पड़ जाते हैं- हरे हरे! (पृ0-234)
12.सैकड़ों युगों के उद्यम से चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ। सत्य का एक शब्द भी लोप नहीं हो सकता। वह दीर्घकाल तक चाहे कूड़े के नीचे भले ही दबा पड़ा रहे, परन्तु शीघ्र हो या देर से हो, वह प्रकट होगा ही। सत्य अनश्वर है, पवित्रता अनश्वर है। मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है, मुझे शंख-ढपोल चेले नहीं चाहिए। (पृ0-241)
13.परन्तु वही महात्मा काम कर सकता है जो दूसरों में परमाणु के बराबर गुण देखकर उसे पर्वत के समान मानता है और जिसे जगत् की भलाई छोड़कर कोई भी इच्छा नहीं है- ‘‘परगुणपरमाणु पर्वतीकृत्य’’ इसलिए जिनकी मन्द गति है, जिनकी बुद्धि अज्ञान में डूबी हुई है और जो अनात्मा को ही सर्वस्व मानते हैं उन्हें अपनी बाल-क्रीड़ा करने दो। जब वे प्रबल कष्ट का अनुभव करेंगे तब वे उसी क्षण छोड़ देंगे। उन्हें चन्द्रमा पर थूकने दो, वह थूक उलटकर उन्हीं पर पड़ेगी। (पृ0-256)
14.मैं बराबर न्यूयार्क और बोस्टन के बीच यात्रा करता रहा। इस देश के ये दो ही बड़े केन्द्र है, जिनमें से बोस्टन की मस्तिष्क से तुलना की जा सकती है और न्यूयार्क की जेब से। दोनों स्थानों में आशातीत सफलता प्राप्त हुई है। मैं समाचार पत्रों के वर्णन से उदासीन हूँ, इसलिए तुम यह आशा मुझसे न करो कि उनमें से किसी के उल्लेख मैं तुम्हे भेजूंगा। काम आरम्भ करने के लिए थोड़े से शोर की आवश्यकता थी, वह जरूरत से अधिक हो चुका है। (पृ0-273)
15.मुझे चुपचाप शान्ति से काम करना अच्छा लगता है और प्रभु हमेशा मेरे साथ हैं। यदि तुम मेरे अनुगामी बनना चाहते हो तो सम्पूर्ण निष्कपट होओ, पूर्णरूप से स्वार्थ त्याग करो,...और सबसे अधिक पूर्णरूप से पवित्र बनो। मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है। इस अल्पायु में परस्पर प्रशंसा का समय नहीं है। संग्राम के बाद किसने क्या किया इसकी तुलना करेंगे और एक दूसरे की यथेष्ट प्रशंसा करेंगे। (पृ0-275)
16.अगले जाड़े में मैं लौट रहा हूँ। दुनिया में आग फूंक दूंगा, जो मेरे साथ चाहे आये, उसका भाग्य अच्छा है; जो न आयेगा, इहकाल तथा परकाल वह पड़ा ही रह जायेगा, उसे पड़े रहने दो। कुछ परवाह नही, तुम लोगों के मुंह तथा हाथों पर बागदेवी का अधिष्ठान होगा, हृदय में अनन्तवीर्य श्री भगवान अधिष्ठित होंगे- तुम लोगों से ऐसे कार्य सम्पादित होंगे कि जिन्हें देखकर दुनिया आश्चर्यचकित हो उठेगी। (पृ0-281)
17.मुझे संसार से मधुर व्यवहार करने का समय नहीं है, और मधुर बनने का प्रत्येक यत्न मुझे कपटी बनाता है। चाहे स्वदेश हो या विदेश, परन्तु इस मूर्ख संसार की प्रत्येक आवश्यकता पूरी करने की अपेक्षा तथा निरन्तर स्तर का आसार जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा मैं सहस्त्र बार मरना अच्छा समझता हूँ। (पृ0-291)
18.अन्तः प्रेरणा से मनुष्य को काम करना चाहिए और यदि वह काम शुभ और कल्याणप्रद है तो अपनी मृत्यु के पश्चात्, शताब्दियों के बाद, समाज की भावना में परिवर्तन अवश्य ही उत्पन्न होगा। मन, प्राण और शरीर से हमें काम में लग जाना चाहिए। और जब तक हम एक और एक ही आदर्श के लिए अपना सर्वस्व त्यागने को तैयार न रहेंगे तब तक हम कदापि आलोक नहीं देख पायेंगे। जो मनुष्य जाति की सहायता करना चाहते हैं उन्हें उचित है कि अपना सुख और दुःख, नाम और यश और सब प्रकार के स्वार्थ की एक पोटली बनाकर समुद्र में फेंक दे और तब वे ईश्वर के समीप आये। सब गुरुजनों ने यही कहा और किया है। (पृ0-300)
19.मैं आपकी पत्रिका सम्बन्धी विचार से पूरी तरह सहमत हूँ, परन्तु यह सब करने के लिए व्यवसाय बुद्धि का मुझमें पूरा अभाव है। मैं शिक्षा और उपदेश दे सकता हूँ और कभी कभी लिख सकता हूँ, परन्तु सत्य पर मुझे श्रद्धा है। प्रभु मुझे सहायता देंगे और मेरे साथ काम करने के लिए मनुष्य भी वही देंगे। मैं पूर्णतः शुद्ध, पूर्णतः निष्कपट और पूर्णतः निःस्वार्थ रहूं-यही मेरी एकमेव इच्छा है। (पृ0-309)
20.श्रीरामकृष्ण की कृपा से किसी व्यक्ति के चेहरे की ओर देखते ही मैं अपने स्वाभाविक संस्कार के द्वारा तत्काल ही भांप लेता हूं कि वह व्यक्ति कैसा है और मेरी धारणा प्रायः ठीक हुआ करती है। (पृ0-313)
21.हर काम को तीन अवस्थाओं में से गुजरना होता है- उपहास, विरोध और फिर स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे निश्चय ही गलत समझते हैं, इसलिए विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं। (पृ0-335)
22.मैं बराबर यह देख रहा हूँ कि मानव जब वेदान्त के महान गौरव की उपलब्धि करने लगता है, तब मन्त्रतन्त्रादि अपने आप छूट जाते हैं। जिस समय मनुष्य को सत्य के किसी उच्चतर अवस्था विशेष का आभास मिलता है, तत्काल ही तद्विषयक निम्नतर अवस्था स्वतः ही विलुप्त हो जाती है। संख्या बाहुल्य का कोई महत्व नहीं है। असंगठित जनता सौ वर्ष में भी जिस कार्य को नहीं कर सकती, कुछ थोड़े से निष्कपट, संगठित तथा उत्साही युवक एक वर्ष के अन्दर उससे कहीं अधिक कार्य कर सकते हैं। एक देह की ताप उसके निकटवर्ती अन्यान्य देहों में भी संक्रमित होता है-प्रकृति का यही नियम है।(पृ0-337)
23.यदि हम इतिहास को देखें तो विदित होगा कि जो विचारधारा सर्वश्रेष्ठ होगी वही जीवित रहेगी, और निष्कलंक चरित्र के समान अन्य ऐसी कौन सी शक्ति है जो मनुष्य को यथार्थ योग्यता प्रदान कर सकती है? विचारशील मनुष्य जाति का ही भविष्य धर्म-अद्वैत होगा, इसमें सन्देह नहीं। और सब सम्प्रदायों में उन्हीं की विजय होगी जो अपने जीवन में सब से अधिक चरित्र का उत्कर्ष दिखा सकेंगे-चाहे वे सम्प्रदाय कितने ही दूर भविष्य में क्यों न जन्म लें। (पृ0-339)
24.रामानुज का मत है कि बद्ध आत्मा या जीव की पूर्णता उसमें अव्यक्त या सूक्ष्म भाव से रहती है। जब इस पूर्णता का पुनः विकास होता है। तभी जीव मुक्त हो जाता है। परन्तु अद्वैतवादी कहता है कि ये दोनों बातें केवल भास मान होती है। न क्रमसंकोच है, न क्रमविकास। दोनों क्रियायें माया रूप है, केवल भास मान-परिदृश्यमान अवस्थामात्र। (पृ0-346)
25.जगत के लिए-जिससे कि मुझे यह शरीर मिला है, देश के लिए-जिसने कि मुझे यह भावना प्रदान की है तथा मनुष्य जाति के लिए-जिसमें कि मैं अपनी गणना कर सकता हूँ-कुछ करना है। जितनी मेरी उम्र बढ़ रही है, उतना ही मैं ‘‘मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है’’-हिन्दुओं की इस धारणा का तात्पर्य अनुभव कर रहा हूँ। मुसलमान भी यही कहते है, अल्ला न देवदूतों से आदम को प्रणाम करने के लिए कहा था। इवलिस ने ऐसा नहीं किया, इसलिए वह शैतान बना। यह पृथ्वी सब स्वर्गों से ऊँची है। सृष्टि का यही सर्वश्रेष्ठ विद्यालय है। केवल मनुष्य ही ईश्वर बन सकता तथा अन्य लोगों को पुनः मनुष्य जन्म मिलने के बाद फिर ईश्वरत्व की प्राप्ति हो सकती है। (पृ0-348)
26.तुम्हारे सामने एक भयानक दलदल है-उससे सावधान रहना; सब कोई उस दलदल में फंसकर खतम हो जाता है। वर्तमान हिन्दुओं का धर्म न तो वेद में है और न पुराण में, न भक्ति में है और न मुक्ति में...धर्म तो भोजन पात्र में समा चुका है।...यही वह दलदल है। वर्तमान हिन्दू धर्म न तो विचार प्रधान ही है और न ज्ञान प्रधान, ‘मुझे न छुना, मुझे न छुना’ इस प्रकार की अस्पृश्यता ही उसका एक मात्र अवलम्बन है, बस इतना ही। (पृ0-405)
27.श्रीरामकृष्ण देव की एक अत्यन्त संक्षिप्त जीवनी अंग्रेजी में लिखकर मैं भेज रहा हूँ। उसके बंगानुवाद के साथ छपवाकर महोत्सव में बेचना, वितरण करने से लोग प्रायः नहीं पढ़ते हैं, इसलिए कुछ मूल्य रखना चाहिए। खूब धूमधाम के साथ महोत्सव करना। (पृ0-400)
28.कल रात मैंने खुद भोजन बनाया था। केशर, गुलाबजल, जावित्री, जायफल, दालचीनी, लौंग, इलायची, मक्खन, नींबू का रस, प्याज, किसमिस, बदाम, काली मिर्च, तथा चावल...ये सब मिलाकर ऐसी स्वादिष्ट खिचड़ी बनायी थी कि मैं स्वयं ही उसे गले से नीचे नहीं उतार सका। घर पर हींग नहीं थी, नहीं तो कुछ हींग मिला देने पर कम से कम निगलने में सुविधा होती। (पृ0-445)
29.मेरे पिताजी यद्यपि वकील थे, फिर भी मेरी यह इच्छा नहीं कि मेरे परिवार में कोई वकील बने। मेरे गुरुदेव इसके विरोधी थे एवं मेरा भी यह विश्वास है कि जिस परिवार के कुछ लोग वकील हो उस परिवार में अवश्य ही कुछ न कुछ गड़बड़ी होगी। हमारा देश वकीलों से छा गया है-प्रतिवर्ष विश्वविद्यालयों से सैकड़ों वकील निकल रहे हैं। हमारी जाति के लिए इस समय कर्मतत्परता तथा वैज्ञानिक प्रतिभा की आवश्यकता है। (पृ0-449)
स्वामी विवेकानन्द जी की पत्रावली भाग-2
30.बीस वर्ष की अवस्था में मैं ऐसा असहिष्णु और कट्टर था कि किसी से सहानुभूति नहीं कर सकता था। कलकत्ता में रास्तों के जिस किनारे पर थियेटर है, उस किनारे से ही नहीं चलता था। अब तैंतीस वर्ष की उम्र में मैं वेश्याओं के साथ एक ही मकान में ठहर सकता हूँ- उनसे तिरस्कार का एक शब्द कहने का विचार भी मेरे मन में नहीं आयेगा। क्या यह अधोगति है? अथवा मेरा हृदय बढ़ता हुआ मुझे उस अनन्त प्रेम की ओर ले जा रहा है जो साक्षात् भगवान है। लोग कहते हैं कि वह मनुष्य जो अपने चारों ओर होने वाली बुराईयों को नहीं देख पाता, अच्छा काम नहीं कर सकता- वह एक तरह का अदृष्टवादी बना बैठा रहता हैं मैं तो ऐसा नहीं देखता हूँ। वरन् मेरी कार्य करने की शक्ति प्रचण्ड वेग से बढ़ रही है और साथ ही असीम सफलता भी मिल रही है। (पृ0-4)
31.मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि सैकड़ों वेश्याएं आये और उनके (श्रीरामकृष्ण) चरणों में अपना सिर नवाये और यदि एक भी सज्जन न आये तो भी कोई हानि नहीं। आओ वेश्याआंे, आओ शराबियों, आओ चोरों, सब आओ, श्री प्रभु का द्वार सबके लिए खुला है- ‘‘धनवान के ईश्वर के राज्य में प्रवेश करने की अपेक्षा ऊँट का सूई के छिद्र में घुसना सहज है।’’(पृ0-24)
32.किसी मत विशेष का समर्थन किया जा रहा हो, ऐसी एक भी बात उसके सम्पादकीय लेख में नहीं रहनी चाहिए और सदा यह ख्याल रखना कि केवल भारत को नहीं, अपितु समग्र जगत् को सम्बोधित कर तुम बातें कह रहे हो और तुम जो कुछ कहना चाहते हो, जगत् उसके बारे में सम्पूर्ण अज्ञ है। (पृ0-58)
33.आप तो अच्छी तरह से जानती हैं कि बाधा जितनी अधिक होती है, मेरे अन्दर की भावना भी उतनी ही जागृत हो उठती है। (पृ0-66)
34.मैं यहां बहुत अच्छा हूँ क्योंकि शहरों में मेरा जीवन कष्टप्रद सा हो गया था। यदि राह में मेरी झलक भी दिख जाती थी तो तमाशा देखने वालों का जमघट लग जाता था। विख्याति में केवल दूध और शहद घुला हुआ नहीं मिलता। अब मैं बड़ी सी दाढ़ी बढ़ाने वाला हूँ जिसके बाल तो अब सफेद हो ही रहे हैं। इससे रूप पूज्यनीय हो जाता है और वह मुझे अमेरिकन निन्दा करने वालांे से भी बचाती है। हे श्वेतकेश, तुम कितना क्या न छुपा सकते हो, धन्य हो तुम! (पृ0-81)
35.विस्तरे पर लेटने के साथ ही साथ मुझे कभी नींद नहीं आती थी- घण्टे दो घण्टे तक मुझे इधर-उधर करवट बदलनी पड़ती थी। इधर-उधर करवट बदलने की मेरी वह पुरानी आदत पुनः वापस लौट आयी है तथा रात्रि में भोजन के बाद गर्मी लगने लगती है। दिन में भोजन के बाद कोई खास गर्मी का अनुभव नहीं होता। हाँ एक बात और है, मैं सहज ही में मलेरिया ग्रस्त हो जाता हूँ। (पृ0-92)
36.मुझे अपने बारे में बहुत कुछ कहना पड़ा, क्योंकि मुझे तुमको कैफियत देनी थी। मैं जानता हूँ कि मेरा कार्य समाप्त हो चुका-अधिक से अधिक तीन या चार वर्ष आयु के और बचे हैं। (चिरशान्ति में लीन के 4 वर्ष 11 माह 25 दिन पूर्व एक पत्र में लिखित) (पृ0-115)
37.कुछ लोग किसी के नेतृत्व में सर्वोत्तम काम करते हैं। हर मनुष्य का जन्म पथ-प्रदर्शन के लिए नहीं होता है। परन्तु सर्वोत्तम नेता वह है जो ‘‘शिशुवत् मार्ग दर्शन करता है’’। शिशु स्व पर आश्रित रहते हुए भी घर का राजा होता है। कम से कम मेरे विचार से यही रहस्य है--बहुतों को अनुभव होता है, पर प्रकट कोई-कोई ही कर सकते हैं। (पृ0-153)
38.महान कठिनाई यह है: मैं देखता हूँ कि लोग प्रायः अपना सम्पूर्ण प्रेम मुझे देते हैं। परन्तु इसके बदले में मैं किसी को अपना पूरा-पूरा प्रेम नहीं दे सकता, क्योंकि उसी दिन कार्य का सर्वनाश हो जायेगा। परन्तु कुछ लोग ऐसे हैं जो ऐसा बदला चाहते हैं, क्योंकि उनमें व्यक्ति निरपेक्ष सर्वव्यापक दृष्टि का अभाव होता है। कार्य के लिए यह परमाआवश्यक है कि अधिक से अधिक लोगों का मुझसे उत्साहपूर्ण प्रेम हो परन्तु मैं स्वयं बिल्कुल निःसंग व्यक्ति-निरपेक्ष होऊं। नहीं तो ईष्र्या और झगड़ों में कार्य का सर्वनाश हो जायेगा। नेता को व्यक्तिनिरपेक्ष निःसंग होना चाहिए। (पृ0-153)
39.तुम्हे मुसलमान लड़कों को भी लेना चाहिए परन्तु उनके धर्म को कभी दूषित न करना। तुम्हें यही करना होगा कि उनके भोजन आदि का प्रबन्ध अलग कर दो और उन्हें शुद्धाचरण, पुरुषार्थ और परहित में श्रद्धापूर्वक तत्परता की शिक्षा दो। यह निश्चय ही धर्म है। सब धर्मों के लड़कों को लेना हिन्दू, मुसलमान, ईसाई या कुछ भी हो, परन्तु धीरे-धीरे आरम्भ करना। (पृ0-155)
40.चाहे और कुछ भी क्यों न हो, रूपये-पैसे, मठ-मन्दिर, प्रचारादि की सार्थकता ही क्या है? क्या समग्र जीवन का एकमेव उद्देश्य शिक्षा नहीं है? शिक्षा के बिना धन-दौलत, स्त्री-पुरुषों की आवश्यकता ही क्या है? इसलिए रूपयों का नाश हुआ अथवा हार हुई-मैं इन बातों को न तो समझ ही पाता हूँ और न समझना ही चाहता हूँ। (पृ0-162)
41.मेरा स्वास्थ्य ठीक है। रात में प्रायः उठना नहीं पड़ता, सुबह-शाम भात, आलू, चीन जो कुछ मिलता है खा लेता हूँ। दवा किसी काम की नहीं है- ब्रह्म ज्ञानी के शरीर पर दवा का कोई असर नहीं होता! वह हजम हो जायेगी...कोई डर की बात नहीं है। (पृ0-197)
42.साथ ही मेरी आयु भी समाप्त हो रही है- खासकर इस बात को सत्य मानकर ही मुझे चलना होगा। (चिरशान्ति में लीन के 2 वर्ष 11 माह 20 दिन पूर्व एक पत्र में लिखित) (पृ0-206)
43.यूरोपियनों के साथ मैं भोजन करता हूँ इसलिए मुझे एक पारिवारिक देव-मंदिर से निकाल दिया गया था। मैं चाहता हूँ कि मेरी गठन इस प्रकार की हो कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार मुझे मोड़ सके। किन्तु यह दुर्भाग्य की बात है कि मुझे ऐसा व्यक्ति देखने को नहीं मिलता जिससे कि सब कोई संतुष्ट हो। खासकर जिसे अनेक स्थलों में घूमना पड़ता है, उसके लिए सब को संतुष्ट करना संभव नहीं है। (पृ0-211)
44.अपनी ओर से मैं अपने स्वभाव तथा नीति पर अवलम्बित हूँ-एक बार जिसको मैंने अपने मित्र रूप में माना है, वह सदा के लिए मेरा मित्र है। इसके अलावा भारतीय रीति के अनुसार बाहरी घटनाओं के कारणों का आविष्कार करने के लिए मैं भीतर की ओर ही देखता हूँ; मैं यह जानता हूँ कि मुझ पर चाहे जितनी भी विद्वेष व घृणा की तरंगे उपस्थित क्यों न हो, उसके लिए मैं जिम्मेदार हूँ एवं यह जिम्मेदारी एकमात्र मुझपर ही है। ऐसा न होकर उसका और कोई रूपान्तर होना संभव नहीं है। (पृ0-212)
45.मेरे जीवन में मैंने अनेक गलतियां की है; किन्तु उसमें प्रत्येक का कारण रहा है अत्यधिक प्यार। अब प्यार से मुझे द्वेष हो गया है! हाय! यदि मेरे पास वह बिल्कुल न होता! भक्ति की बात आप कह रही है! हाय, यदि मैं निर्विकार और कठोर वेदान्ती हो सकता! जाने दो, यह जीवन तो समाप्त ही हो चुका। अगले जन्म में प्रयत्न करूंगा। (पृ0-219)
46.मेरे लिए कार्य करना तभी संभव होता है, जबकि मुझे पूर्णतया अपने पैरों पर ही खड़ा होना पड़ता है। निःसंग दशा मंे मेरी शक्ति का विकास अधिक होता है। (पृ0-227)
47.मुझे यह दिखायी दे रहा है कि वक्तृता-मंच से अब वाणी प्रचार करना मेरे लिए सम्भव नहीं है। इससे मैं आनन्दित ही हूँ। मैं विश्राम चाहता हूँ। मैं थक गया हूँ ऐसी बात नहीं है; किन्तु अगला अध्याय होगा-वाक्य नहीं, किन्तु अलौकिक स्पर्श, जैसा कि श्रीरामकृष्ण देव का था। (पृ0-229)
48.मेरे अन्दर एक विराट परिवर्तन की सूचना दिखाई दे रही है-मेरा मन शान्ति से परिपूर्ण होता जा रहा है। मैं जानता हूँ कि माँ ही सब कुछ उत्तरदायित्व ग्रहण करेगी। मैं एक संन्यासी के रूप में ही मृत्यु को अलिंगन करूंगा। (पृ0-247)
49.हम अपनी सारी शक्तियों को किसी एक विषय की ओर लगा देने के फलस्वरूप उसमें आसक्त हो जाते हैं तथा उसकी और भी एक दिशा है, जो नेतिवाचक होने पर भी उसके सदृश ही कठिन है- उस ओर हम बहुत कम ध्यान देते हैं- वह यह है कि क्षण भर में किसी विषय से अनासक्त होने की, उससे अपने को पृथक कर लेने की शक्ति। आसक्ति और अनासक्ति, जब दोनों शक्तियों का पूर्ण विकास होता है, तभी मनुष्य महान एवं सुखी हो सकता है। (पृ0-248)
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