Sunday, March 15, 2020

सत्योगानन्द उर्फ भुईधराबाबा (भगवान रामकृष्ण की अगली कड़ी)

ब्रह्मलीन श्री श्री 1008 सत्योगानन्द उर्फ भुईधराबाबा 
(भगवान रामकृष्ण की अगली कड़ी) 
परिचय -
वर्तमान से 100 वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था कि - ‘‘यह तत्व कि ईश्वर कल्याणकारी और परम दयालु हैं, हमारा पिता, माता, मित्र, प्राणों में प्राण और आत्मा की अन्तरात्मा है, केवल भारत ही जानता रहा है। अन्त में जो शैवों के लिए शिव, वैष्णवों के लिए विष्णु, कर्मियों के लिए कर्म, बौद्धों के लिए बुद्ध, जैनों के लिए जिन, ईसाइयों और यहूदियों के लिए जिहोवा, मुसलमानों के लिए अल्ला और वेदान्तियों के लिए ब्रह्म है- जो सब धर्मों, सब सम्प्रदायों के प्रभु हैं- जिनकी सम्पूर्ण महिमा भारत ही जानता था, वे ही सर्वत्यागी, दयामय प्रभु हम लोगों को आर्शीवाद दें, हमारी सहायता करें, हमें शक्ति दें, जिससे हम अपने उद्देश्यों को कार्यरूप मंे परिणत कर सकें।’’ (स्वामी विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान-पृष्ठ संख्या-42 से) शिव से निकले अनेक सम्प्रदाय जैसे शैव, अघोर, गोरख इत्यादि है। शिव अर्थात अदृश्य/ सत्य/ सुन्दर/ एक/ एकत्व/ शान्ति/ स्थिरता/ एकता/ समष्टि/ धर्म/अद्वैत/वेदान्त/धर्म/ ज्ञान/ वेद/ आत्मा/ ब्रह्म/ देश-कालमुक्त/ विश्वास/ मैं/ ओउम्/ ईश्वरनाम/ विकास दर्शन/ मार्गदर्शन दर्शन/ CENTRE जो प्रत्येक जीव, निर्जीव, मानव और देवताओं में विद्यमान है और उसका होना भी ऐसा है कि उसका न होना हैं। जिसके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा है कि- ‘‘प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। वाह्य एवम् अन्तः प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्म भाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है- कर्म, उपासना, मन संयम अथवा ज्ञान। इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों को सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस यही धर्म का सर्वस्व है. मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा बाह्य क्रिया तो उसके गौण अंग-प्रत्यंग मात्र हैं (विवेकानन्द राष्ट्र को आहवान-पृष्ठ सं0-32 से)। अद्वैत का गूढ़ सत्य सिद्धान्त भी यही है कि प्रत्येक विषय का एक सूक्ष्म रूप अर्थात् अदृष्य रूप है तथा दूसरा स्थूलरूप अर्थात दृश्य रूप है। इन दोनों रूपांे में अवस्था परिवर्तन होता रहता है। जो वर्तमान पदार्थ अर्थात दृश्य विज्ञान द्वारा भी प्रमाणित है। जबकि आत्मा इन दोनों रूपों में समान रूप से विद्यमान रहती है। समस्त विषयों को व्यक्त कर, मूल्यांकित एवम् वर्गीकृत करने का माध्यम मानव शरीर ही है और प्रत्येक शरीर में आत्मा विद्यमान है। फिर निश्चित ही मानव शरीर में कोई अन्य विषय है जो विषयों को व्यक्त, मूल्यंकित और वर्गीकृत करता है। वह है - मन। मन मूलतः तीन अवस्था में केन्द्रित होता है - स्थूल, सूक्ष्म एवम् आत्मा अवस्था में। स्थूल अवस्था में मन मानव को पशु अर्थात असुरी प्रवृति से युक्त करता है। सूक्ष्म अवस्था में मन मानव को दैवीय अर्थात सूरी प्रवृति से युक्त करता है जबकि आत्मीय अवस्था में मन मानव को ईश्वरीय प्रवृति से युक्त करता है। मन की निम्नतम भूमि-स्थूल अवस्था में मन शुद्ध रूप में स्वयं के लिए कर्म, मध्यम भूमि-सूक्ष्म अवस्था में मन शुद्ध रूप से मानव जाति के लिए कर्म तथा सर्वोच्च भूमि-आत्मीय अवस्था में मन सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड अर्थात तीनों लोको के लिए कर्म करता है। मन की यही तीनांे अवस्था तीनांे लोको- मृत्यु लोक, स्वर्ग लोक और ब्रह्म लोक को व्यक्त करती है। मन की इन्हीं अवस्थाओं से मन अपने आपकों उस लोक में स्थित पाता है। और तद्नुसार स्थूल अवस्था में कर्म और भोग, सूक्ष्म अवस्था में मन का सम्बन्ध सिर्फ भोग तथा आत्मीय अवस्था में मन का सम्बन्ध न ही कर्म और न ही भोग से होता है। यह अवस्था मन के साथ स्थूल शरीर (सशरीर) के रहने और न रहने (अशरीर) दोनों अवस्थाओं में होता है। जिनका नियंत्रण मन पर होता है। वे इच्छा, आवश्यकता और समयानुसार तीनों अवस्थाओं में विचरण करते है। तीनों लोको अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए एवम् आत्मा की वास्तविक सत्ता के लिए तीन आवश्यक विषय है- ज्ञान, कर्म और ध्यान। जिसे प्रत्येक मानव को समयानुसार आत्मसात् करने के लिए मानव मन द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के रूप में प्रक्षेपित किये गये है। जिनका सम्बन्ध क्रमशः आत्मीय ज्ञान सहित आत्मीय-कर्म और आत्मीय ज्ञान एवम् आत्मीय कर्म सहित आत्मीय-ध्यान अर्थात् एकात्म ज्ञान, एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म और एकात्म कर्म एवं एकात्म ज्ञान सहित एकात्म ध्यान से है। इन्हीं तीन विषयों को सर्वोच्च विकसित स्तर का व्यक्त अर्थात सार्वजनिक प्रमाणित स्तर ही आत्मा का दृश्य व्यक्त रूप है। इन तीनों विषयों का आपसी सम्बन्ध इतना अधिक है कि एक के बिना दूसरा सम्भव नहीं है। जिस प्रकार आत्मीय ज्ञान के बिना आत्मीय कर्म नहीं हो सकता। उसी प्रकार आत्मीय कर्म के बिना आत्मीय ज्ञान नहीं हो सकता। और यदि आत्मीय ध्यान नहीं तो आत्मीय ज्ञान तथा आत्मीय कर्म दोनों सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि आत्मीय ध्यान का सम्बन्ध काल और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर प्रभाव डालने वाले क्रियाकलापों की वर्तमान स्थिति से होता है। जिसके बिना आत्मीय ज्ञान और आत्मीय कर्म का सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से योग असम्भव है। शिव से निकले गोरख जिनके द्वारा स्थापित गोरखपुर में गोरखनाथ मठ और नाथ परिवार। जिनका कोई नियम नहीं, जिनकी कोई रीति नहीं। जिनका कहना था- ‘मरो हे जोगी मरो, मरन है मीठा’ अर्थात आओ तुम्हें मैं मरना सीखाता हूँ। देखो मरने में ही जीवन है। सत्य भी यही है कि अपने मन को मारों तुम मर जाओगे और तुम्हें जो जीवन मिलेगा वह आत्मा में स्थित जीवन मिलेगा। परिणामस्वरूप तुम, तुम न रहकर नाथ बन जाओगे। अपने मालिक स्वयं बन जाओगे। अहंकार युक्त ”शारीरिक मैं“ से तुम आत्म विश्वास युक्त ”आत्मीय मैं“ में स्थित हो जाओगे। इसी ‘नाथ’ परिवार के सदस्य है-विष्णु महायज्ञ और ज्ञान यज्ञ के सफलतापूर्वक पूर्णकत्र्ता एवम् प्रबन्धकगण -श्री श्री 108 बाबा महेन्द्रनाथ एवम् श्री श्री 108 बाबा दीपनाथ। यात्रा के दौरान श्री श्री 108 सत्ययोगानन्द उर्फ मुईधराबाबा से इनकी मुलाकात जब उत्तरकाशी में हुई तो वे यह भी न सोच पाये होंगे कि यह मिलन ही नहीं बल्कि ‘नाथ’ शब्द की वास्तविकता को़ सिद्ध करने का यह महामिलन है। सत्ययोगानन्द एक 37 वर्षीय श्वेत वस्त्रधारी विगत आठ वर्षो से स्वतः प्रेरित होकर गृहत्याग करने के उपरान्त वाराणसी (काशी) से 18 किमी0 राष्ट्रीय राज मार्ग संख्या-7 पर ग्राम गोपालपुर गंगा किनारे भूमि में एक कुटिया बनाकर रहते थे। बीच बीच में वे देशाटन के लिए भी जाया करते थे। वे आस पास के ग्रामवासियों को दवा भी दिया करते थे। उनका कोई गुरू नहीं था। वे एक समभाव में स्थित सन्यासी थे जो किसी से गले मिलकर ही स्वागत करते थे। पैर छूना उनके समभाव भावना के विरूद्ध था। सन्यासीयों में ‘नन्द’ परिवार ज्ञान पर आधारित परिवार होता है। उत्तरकाशी का यह मिलन ‘नाथ’ परिवार और ‘नन्द’ परिवार का महामिलन था। इनकी सर्वोच्चता और वास्तविकता तभी सिद्ध हो सकती थी। जब ज्ञान, कर्म और ध्यान की सर्वोच्च स्थिति को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कल्याणार्थ प्रयोग की जाती।
सत्ययोगानन्द से बाबा महेन्द्रनाथ और बाबा दीपनाथ बहुत ही प्रभावित हुये और उनके द्वारा प्रस्वावित, योजनाबद्ध और ब्रह्माण्ड के कल्याणार्थ सदी का सर्वाधिक लम्बा चलने वाला यज्ञ- विष्णु महायज्ञ और ज्ञान यज्ञ में सहयोग हेतु उनके साथ गोपालपुरम् चले आये। यज्ञ की समस्त योजना, सम्बन्ध, संचालन और सम्पर्क सत्ययोगानन्द का अपना ज्ञान, कर्म, ध्यान और व्यक्तित्व था। बाबा दीपनाथ और बाबा महेन्द्रनाथ तो उनके सहयोगी मात्र थे जो महान शुभ कार्य में सहयोग करने के लिए साथ आये थे। उन्हें यज्ञ की योजना, सम्पर्क और संचालन का कोई ज्ञान न था। योजनाबद्ध यज्ञ को कार्यरूप देते हुये विष्णु महायज्ञ और ज्ञान यज्ञ भगवान विष्णु के दिन बृहस्पतिवार, 13 नवम्बर, 1997 प्रारम्भ पूर्व व्यापक प्रचार के साथ प्रारम्भ हुआ तथा उसकी अवधि भगवान शिवशंकर के दिन सोमवार 22 जून 1998 (आषाढ़ मास शिवरात्री) तक रखी गई। इस महायज्ञ के आयोजन से धर्म-संस्कृति की नगरी काशी तथा धर्म क्षेत्र में व्यापक हलचल मच गई। जहाँ इस यज्ञ की सफलता नाथ एवम् नन्द परिवार को धर्म क्षेत्र में सर्वोच्चता दिला सकती थी। वहीं असफलता निम्नतम स्तर तक पहुँचा सकती थी। सत्ययोगानन्द की योजना के प्रारम्भ के 21 वें दिन बुधवार 3 दिसम्बर 1997 को आयोजक एवम् संचालनकर्ता सत्ययोगानन्द जी ब्रह्मलीन हो गये और महायज्ञ सहित ‘नाथ’ एवम् ‘नन्द’ परिवार का भविष्य संकट में पड़ गया। सत्ययोगानन्द के साथ ही उनके ज्ञान पत्र, योजना एवम् सम्पर्क सूत्र भी सहयोगी बाबाजी लोग समाधिस्त कर दिये। परिणामस्वरूप प्रश्नों की एक लम्बी कतार उत्पन्न हो गई। महायज्ञ कैसे सफल होगा? महायज्ञ कौन सफल करेगा? सत्ययोगानन्द क्यों ब्रह्मलीन हो गये? सत्ययोगानन्द को जब ब्रह्मलीन होना ही था तो बाबा महेन्द्रनाथ और बाबा दीपनाथ को क्यों धर्म संकट में डाल दियंे? सत्ययोगानन्द जी में क्या कमी थी जिसमें यज्ञ अधूरे में छोड़ गये? सत्ययोगानन्द जी को क्या प्राप्त नहीं हो सका? इत्यादि इत्यादि।
उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर तब तक न प्राप्त हो सका जब तक कि सत्ययोगानन्द के ब्रह्मलीन होने के छठवें दिन सोमवार, 8 दिसम्बर, 1997 को दृश्य आत्मीय ज्ञान के रूप में कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद, दृश्य आत्मीय कर्म के रूप में प्रकृतिक सत्य मिशन और दृश्य ध्यान के रूप में काल की वर्तमान स्थिति तथा विश्वमानक - शून्य श्रृखंला मन की गुणवत्ता का विश्वमानक से युक्त होकर विश्व व्यापी धर्म स्थापनार्थ भगवान विष्णु (यज्ञ प्रारम्भ होने का विष्णु का दिन बृहस्पति वार, 13, नवम्बर, 1997) और कर्मवेद के अधिकारी भगवान शंकर (यज्ञ के पूर्णाहूति का शंकर का दिन, सोमवार, 22 जून, 98 आषाढ़ मास शिवरात्री, विश्वमानव का जन्म दिन, सोमवार, 16 अक्टूबर 1967, यज्ञ के उद्देश्य विश्वमानव की प्राप्ति का दिन सोमवार, 8 दिसम्बर, 1997, शिकागो वकृत्ता के दिन स्वामी विवेकानन्द के उम्र के बराबर विश्वमानव का उम्र पूर्ण होने का दिन सोमवार, 15 जून, 1998) के संगम विश्वमानव (स्वामी विवेकानन्द की अगली एवम् पूर्णब्रह्म की अन्तिम कड़ी) की प्राप्ति नहीं हो गई। विश्वमानव द्वारा यज्ञ के कार्यक्रम को बढ़ाते हुये और ‘‘धर्म द्वारा विश्व प्रबन्ध’’ के लिए प्रस्तुत किये गये आमंत्रण पत्र में लिखा था- ‘‘सत्य गुरू अपने शिष्य के प्रति तथा भक्त अपने भगवान के प्रति प्राणों की आहूति भी दे देते हैं। पूर्व जन्म में जब मेरे स्थूल शरीर का नाम स्वामी विवेकानन्द था तब वे (भगवान रामकृष्ण) मेरा सहयोग दृश्य एवं अदृश्य रूप से करते रहे लेकिन वे मेरे सफलताओं का दृश्य दर्शन नहीं कर सकें। वर्तमान में ब्रह्मलीन श्री श्री 1008 सत्ययोगानन्द जी (भगवान रामकृष्ण के पुर्नजन्म) पुनः मेरे दृश्य कार्य में दृश्य सहयोग कर गये लेकिन पुनः वे मेरे सफलताओं का दृश्य नहीं कर सकें। अब यह संयोग 300 वर्ष बाद जब पूर्ण सूर्य ग्रहण होगा तभी हेागा। तब भी वह मेरी सहायता करेंगे लेकिन वे मेरे विरूद्ध होंगे। बस यही है, मेरा मन स्तर खेलों का ब्रह्माण्डीय ओलम्पिक और इस ओर आना ही स्ंवय को ईश्वर, अल्ला, यीशु, सत्य-धर्म-ज्ञान इत्यादि अपने इष्ट तक उठाना है। प्रत्येक विषय का एक चक्र है। सभी मन स्तर चक्र का चरम विकसित चक्र मैं हूँ। तुम इस ओर ही आ रहे हो, बस तुम्हें उसका ज्ञान नही। उसका ज्ञान होगा कर्मो से। क्योंकि कर्म, ज्ञान का ही दृश्य रूप है। एक ही देश-काल विवाद मुक्त अदृश्य ज्ञान है- आत्मा और उसका एक ही देश-काल विवाद मुक्त दृश्य कर्म है- आदान-प्रदान। यही विवाद मुक्त, दृश्य, सम्पूर्ण, समस्त विषयों को परिभाषित करने का अन्तर्राष्ट्रीय मानक का विषय है।’’
स्वामी विवेकानन्द ने स्वंय अपने गुरू भगवान रामकृष्ण परमहंस के सम्बन्ध में कहा था कि- ‘‘अब तक ऐसे अद्भुत पुरूष के जन्म लेने का समय आ गया था, जो शंकर के समान प्रतिभा सम्पन्न मस्तिष्क एवं चैतन्य के अद्भुत विशाल, उन्नत हृदय का एक साथ अधिकारी हो, जो देखे कि सभी सम्प्रदाय एक ही आत्मा, एक ही ईश्वर की शक्ति से चलित हो रहे है और प्रत्येक प्राणों में वही ईश्वर विद्यमान है, जिसका हृदय भारत में अथवा भारत के बाहर दरिद्र, दुर्बल, पातित सबके लिए द्रवित हो, लेकिन साथ ही जिसकी विशाल बुद्धि ऐसे महान तत्वों की परिकल्पना करे, जिससे भारत में अथवा भारत के बाहर सब सम्प्रदायों में साधित हो और इस अद्भुत समन्यव द्वारा वह हृदय और मस्तिष्क के सार्वभौम धर्म को प्रकट करें ‘‘ (विवेकानन्द राष्ट्र को आह््वान-पृष्ठ -35)’’ ऐसे ही सत्य-धर्म-ज्ञान से युक्त थे-श्री श्री 1008 सत्ययोगानन्द उर्फ भुईधराबाबा। सत्ययोगानन्द जी का एकात्म अर्थात् आत्मीय ज्ञान तो पूर्ण था परन्तु एकात्म ध्यान पूर्ण न होने के कारण एकात्म अर्थात आत्मीय कर्म भी अपूर्ण था। जिस प्रकार नरेन्द्र दत्त (स्वामी विवेकानन्द का पूर्व नाम) को पहचानकर भगवान राम-कृष्ण परमहंस तड़प रहे थे कि वे कब नरेन्द्र को उसकी वास्तविकता से परिचित कराकर अपने उद्देश्यों के लिए प्रेरित करें। ठीक उसी प्रकार सत्ययोगानन्द जी (रामकृष्ण परमहंस की अगली कड़ी) भी भलि-भाॅति जानते थे कि उनका पूर्वजन्म का शिष्य (स्वामी विवेकानन्द वर्तमान में विश्वमानव) कहाँ और किस क्षेत्र में निवास कर कार्य कर रहा है। इसी कारण उन्होनें विश्वमानव के भोगेश्वर रूप की सत्यता के दो मार्ग-धर्म और राज्य क्षेत्र में से धर्म क्षेत्र के भोग द्वारा विश्वमानव को कर्म द्वारा व्यक्त करने के लिए, विश्वमानव के कर्म क्षेत्र चुनार क्षेत्र (जो पंचम, आन्तिम तथा सप्तम काशी - सत्यकाशी का क्षेत्र है) में ही सदी का सर्वाधिक लम्बा यज्ञ का आयोजन किये थे। सत्ययोगानन्द जी का एकात्म अर्थात आत्मीय ध्यान पूर्ण न होने का कारण यह था कि भगवान रामकृष्ण जब अपने शरीरत्याग के अन्तिम क्षणों में थे तब उन्होंने नरेन्द्र दत्त के सिर पर हाथ रखकर यह कहा था कि ‘‘लो नरेन्द्र जो भी मेरे पास था वो सब मैनें तुम्हें दे दिया, अब मैं भिखारी हो गया हँू रे। जिसे स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती वर्ष के स्वतन्त्रता दिवस के दिन दिल्ली दूरदर्शन के अन्तर्राष्ट्रीय चैनल पर विशेष रूप से प्रदर्शित फिल्म ‘‘स्वामी विवेकानन्द’’ के एक दृश्य में फिल्मांकन भी किया गया है। इसी कारण सत्ययोगानन्द जी अपने पूर्वजन्म के इच्छानुसार ही रिक्त थे। इस रिक्तता अर्थात सर्वस्व त्याग ने ही उन्हें सम्पूर्ण बना दिया जिससे वे सदा ही विश्व के प्रथम और पूर्ण अन्तिम मानव-विश्वमानव के गुरू के रूप में स्थापित रहेंगे। ऐसा नहीं कि विश्वमानव को इसका ध्यान नहीं था। महायज्ञ के प्रारम्भ पूर्व ही वे समझ गये थे कि यह महायज्ञ उनको व्यक्त करने के लिए आयोजित हुआ हैं। वे अपने कार्यक्रमानुसार व्यक्त होने के लिए महायज्ञ प्रारम्भ होने के पाँच दिन उपरान्त छठें दिन सोमवार, 18 नवम्बर 1997 को एक पत्र सत्ययोगानन्द जी के नाम लिखकर सन्देश वाहक को देकर आवश्यक कार्य से बिहार प्रदेश अर्थात समय के साथ अपने क्रियाकलापों को जोड़ सकने के लिए चले गये। ज्ञान की बातें करने वाले सन्देशवाहक ध्यान की अपूर्णता के कारण पत्र के महत्व को न समझ सका और विश्वमानव के 7 दिसम्बर 1997 को आने तक पत्र सत्ययोगानन्द जी तक न पहुँचा सका। परिणामस्वरूप शुद्ध आत्मा-विश्वमानव और सत्ययोगानन्द जी का साक्षात मिलन न हो सका और यह मिलन 300 वर्षो के लिए स्थगित हो गया। 
जब कोई उद्देश्य और अवधि दोनों से जुड़ा होता है तो उसकी सफलता के दो मार्ग होते है। प्रथम- अवधि का पूर्ण होना तथा द्वितीय-अवधि पूर्व उद्देश्य की प्राप्ति। सत्ययोगानन्द जी महायज्ञ की अवधि को पूर्ण नहीं कर पाये थे लेकिन उद्देश्य और यज्ञ को पूर्ण कराने हेतु विश्वमानव और कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद अवधि पूर्व ही प्राप्त हो चुकी थी। जो विष्णु महायज्ञ और ज्ञान यज्ञ की सर्वोच्च विश्वव्यापी सत्य सफलता का सत्य प्रमाण है। सत्ययोगानन्द जी में ध्यान की अपूर्णता थी जो पूर्वजन्मानुसार उनकी इच्छा थी विश्वमानव से मिलन उनका उद्देश्य था वे उन्हें ध्यान की अपूर्णता के कारण प्राप्त हाते न दिखाई दिया जिससे उन्हें अपने कर्मो की असफलता भी दिखाई देने लगी। परिणामस्वरूप उनका ब्रह्मलीन होना ही एक मात्र रास्ता था। जिसे वे शरीर त्याग के आवश्यक माध्यम द्वारा स्वेच्छा से स्वीकार किये।  
‘‘नाथ’’ परिवार के सदस्य श्री श्री 108 बाबा महेन्द्र नाथ एवं श्री श्री 108 बाबा दीपनाथ को इस महायज्ञ से जोड़ने का कारण यह था कि गोरख जिन्होंने ‘‘नाथ’’ परिवार को जन्म दिया। वे स्वयं समयानुसार एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म और एकात्म ध्यान से पूर्ण मानव थे। इसी कारण उन्होंने कर्म के लिए शिक्षा स्वयं को मारने अर्थात मन को मारने की शिक्षा दी तथा जीवन के लिए कोई नियम नहीं बनाये। वे जानते थे कि आदि में ‘‘मैं (आत्मा)’’ तो प्रत्येक समय सिद्ध है लेकिन अन्त में ‘‘मैं (आत्मा)’’ तभी सिद्ध हो सकती है जब एकात्म ज्ञान एवं एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान हो। और एकात्म ध्यान तभी हो सकता है जब नियम न हो क्योंकि नियम न होना ही व्यापकता है। बिना व्यापक हुये एकात्म ध्यान की चरम विकसित अव्यस्था नहीं प्राप्त की जा सकती। और बिना एकात्म ध्यान के एकात्म कर्म और एकात्म कर्म की सत्यता सिद्ध नहीं हो सकती। इसी को समयानुसार व्यक्ति को आत्मसात् करने के लिए शिवपुराण की कथायें है। जिसमें एकात्म ज्ञान के देवता ब्रह्मा, एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म के देवता विष्णु को एकात्म ज्ञान एवं एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान एवं एकात्म समर्पण के देवता शंकर को ध्यानानुसार त्रिलोक के कल्याणार्थ कर्म करना पड़ता है। चूँकि आत्मा का व्यक्त रूप एकात्म ज्ञान-एकात्म वाणी, एकात्म कर्म-एकात्म ज्ञान और एकात्म ध्यान-एकात्म समर्पण का संयुक्त रूप है जो अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्त ‘‘बहुरूप में प्रकाशित एक सत्ता’’ का व्यक्त रूप है वह भगवान शंकर के पास है। इसलिए वे ही आत्मा की व्यक्त रूप के अन्तिम साहित्य कर्मवेदः प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद के अधिकारी हैं। सत्ययोगानन्द जी इस ज्ञान से भली-भाॅति परिचित थे इसलिए उन्होंने ‘‘नाथ’’ परिवार को अपने साथ लेकर आत्मा के दृश्य रूप और बहुरूप में प्रकाशित एक सत्ता विश्वमानव को व्यक्त करने के लिए महायज्ञ आयोजित किये थे। जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द और विश्वमानव एक ही उद्देश्य के दो रूप - ज्ञान और कर्म  अर्थात विचार और स्थापना के लिए दो शरीरों के माध्यम हैं, उसी प्रकार भगवान रामकृष्ण और सत्ययोगानन्द जी एक ही उद्देश्य के दो रूप ज्ञान और कर्म द्वारा स्वामी विवेकानन्द और विश्वमानव को उत्प्रेरित करने के लिए दो भौतिक शरीरों के माध्यम है।



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